आलेख : आधुनिक मन, पराजय-बोध और स्मृति की ताक़त - राम की शक्तिपूजा / मृत्युंजय

आधुनिक मन, पराजय-बोध और स्मृति की ताक़त - राम की शक्तिपूजा
- मृत्युंजय
 

'राम की शक्तिपूजा' हिन्दी के यशस्वी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की लिखी हुई कालजयी रचना है। निराला, छायावाद (1918-1936) के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। "यह कविता 23 अक्तूबर, 1936 को रची गई या पूरी हुई,इलाहाबाद में, लीडर प्रेस के परिसर में स्थित वाचस्पति पाठक के घर पर, और वहीं से निकलने वाले दैनिक 'भारत' में अनुमानतः 26 अक्तूबर, 1936 को प्रकाशित हुई।"[1] क्लासिक गठन के साथ ही यह कविता आधुनिक भावबोध को वहन करती है। खड़ी बोली हिन्दी की पुरानी इकहरी कविता की स्थूल आशावादिता और उपदेशात्मकता से यह आगे बढ़ी हुई कविता है। निराशा के घने अंधकार के बीच से गुजरते और उससे टकराते हुए यह कविता आशा की दिशा खोजते हुए विकसित होती है। प्राचीन महाकाव्यों जैसे क्लासिकल बोध पर स्थित 'राम की शक्तिपूजा' हिन्दी की कुछ चुनिन्दा महत्त्वपूर्ण लंबी कविताओं में से एक है। यह कविता जबसे लिखी गई, तबसे लेकर आज तक श्रोताओं-पाठकों के बड़े वर्ग की पसंदीदा कविता बनी हुई है। इसी कारण भाषा, बिम्ब मिथक के इस्तेमाल और रचना में प्रयुक्त प्रतीकों को लेकर इस कविता पर विभिन्न आलोचकों के बीच बहुत बहसें हुई हैं। विधा के स्तर पर देखें तो आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी में लंबी कविता ने पुराने महाकाव्यों का स्थान लिया। यह कविता इस लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है।

काव्य-परंपरा - यह कविता राम के सदाबहार मिथक को केंद्र में रखकर बुनी गई है। राम की विभिन्न कथाएँ इस महादेश में प्रचलित हैं, उन्हीं में से एक को निराला ने अपनी इस कविता की ज़मीन के रूप में चुना। 'देवीभागवत' में रावण के वध के लिए राम द्वारा की गई शक्ति की पूजा का प्रकरण आता है जहाँ नारद की सलाह पर राम व्रत धारण कर देवी को प्रसन्न करते हैं। 'शिवमहिम्न स्तोत्र' में विष्णु, शिव को प्रसन्न करने के लिए नीलकमल चढ़ाते हैं। शक्ति की पूजा और कमल अर्पित करके पूजा करने के ऐसे कई प्रसंग पुरानी कथाओं में वर्णित हैं। विद्वानों के अनुसार निराला ने राम की शक्तिपूजा का यह मिथक 15वीं शताब्दी के महान बांग्ला संत कवि कृत्तिवास के लोकप्रिय बांग्ला रामायण से लिया है। कृत्तिवास ने पुरानी रामकथा परम्पराओं को निचोड़कर बंगाल के साधारण जनों के लिए बांग्ला भाषा में रामायण की पुनर्रचना की। राम की शक्तिपूजा बंगाल में 'अकालबोधन' या 'असमय जागरण' के नाम से जानी जाती है। इस लोक परंपरा और कृत्तिवास के रामायण से निराला का परिचय सहज संभव था क्योंकि उनका बचपन बंगाल के महिषादल में बीता था और उनके रचना संसार पर बांग्ला साहित्य का गहरा असर है। इस लंबी कविता का पूरा ढाँचा लगभग कृत्तिवासी रामायण पर ही आधारित है परंतु कुछ अंतर भी हैं। कृत्तिवासी रामायण एक महाकाव्य है, जिसमें कथा प्रसंग विस्तारित हैं और कथा का अंत रावण के वध से होता है। 'राम की शक्तिपूजा' लंबी कविता है जो राम-रावण युद्ध से शुरू होती है और राम को शक्ति के आशीर्वाद के साथ ही ख़त्म हो जाती है। विद्वान आलोचकों ने कृत्तिवासी रामायण से इस कविता की कथा-भूमि की तुलना करते हुए एक बात की ओर बार-बार इशारा किया है- बंगाली भावुकता का तत्त्व। राम के पराजय-बोध की नाटकीयता कृत्तिवास रामायण में अधिक है। कृत्तिवास के राम युद्ध में हार की निराशा के कारण समुद्र में डूब जाने की सोचते हैं। उनके सहित युद्धरत अन्य योद्धा बिलख-बिलखकर रोते हैं, धूल में लोट-पोट होते हैं- 'एत सुनि को देन आपनि रघुराय/ धूलाय खिन्न नीलोत्पल प्राय... रोदन करिछे सबे छाड़िए समर' निराला के राम उस तरह नहीं रोते। उनका रोना बेचैनी भरी आँखों का डबडबाना है। 'अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति/ कहते छल-छल हो गए नयन, कुछ बूँद पुनः झलके दृग जल'[2] कृत्तिवास रामायण में जब युद्ध में देवी शक्ति रावण के साथ दिखती हैं तो राम धनुष फेंक उन्हें प्रणाम करते हैं। जबकि निराला के यहाँ ऐसे प्रसंग में राम धनुष नहीं फेंकते, वे अचरज से भर उठते हैं।[3] इन दो वर्णनों के अंतर को संभवतः बंगाली भावुकता की बजाय मध्यकालीन और आधुनिक नायक के चित्रण में अंतर के मुताबिक देखना चाहिए। यों यह कविता मध्यकालीन कृत्तिवासीय रामायण से अपनी संवेदना और ढाँचे, दोनों स्तरों पर अधिक संगुंफित, सघन और आधुनिक है। निराला के अप्रतिम अध्येता डॉक्टर रामविलास शर्मा, मिल्टन के 'पैराडाइज लॉस्ट' से इस कविता की तुलना करते हुए कहते हैं कि "... यह कविता पुरातन और आधुनिक काव्य में अद्वितीय है, जिसका अर्थ यह नहीं कि वह सर्वश्रेष्ठ है। वह नवीन है, किसी भी महाकाव्य सी मूल्यवान, और वह हिन्दी की संपत्ति है।"[4] 

कथा-भूमि - हमने देखा कि 'राम की शक्ति पूजा' 'अकालबोधन' की कथा-भूमि पर स्थित एक कथात्मक कविता है। ग्यारह खंडों में बंटी यह कविता अपनी में नाटकीयता में भी बेजोड़ है। कविता राम-रावण के युद्ध वर्णन से शुरू होती है। युद्ध का अंतिम चरण है। आखिरी योद्धा के रूप में रावण, राम के सामने है। समस्त रण-कौशल के साथ हो रहे इस भीषण युद्ध में रावण का पलड़ा भारी है। स्वयं राम सहित पूरी सेना रावण के प्रहारों से लथपथ हैं। हनुमान को छोडकर सभी योद्धा मूर्छित हो गए। प्रारम्भिक अट्ठारह पंक्तियों के इस सामासिक वर्णन में निराला ने युद्ध का सजीव चित्र अंकित किया है। इसके बाद राम और रावण, दोनों सेनाओं के अपने-अपने शिविरों की ओर लौट जाने का दृश्य है। राम की सेना थकान और निराशा से भरी हुई है। युद्ध विरत राम शिथिल हैं। उनके चारो तरफ़ अंधेरा है। पर कुछ तारे इस अंधेरे के पार टिमटिमा रहे हैं। राम की हताश सेना शाम की पूजा-अर्चना के बाद आगामी युद्ध की रणनीति बनाने के लिए धीरे-धीरे एकत्र होती है। राम के शिविर का वातावरण शांत है और काव्य-नायक राम आज के युद्ध की प्रतिक्रिया से विचलित दीखते हैं। राम के चहुँओर फैले गहरे घने अंधेरे का वर्णन करते हुए निराला उनकी गहरी निराशा और संशय को चित्रित करते हैं। आसमान मानो अंधेरा उगल रहा है, हवाएँ ठहरी हुई हैं, पीछे समुद्र गर्जन कर रहा है। इस पृष्ठभूमि में केवल एक मशाल जल रही है।  

इस भीषण निराशा में राम को जीवन के सबसे सुकुमार और प्रेम पगे दृश्य याद आते हैं। सीता से जनक-वाटिका में मिलन के दृश्य। इस स्मृति से उनके संशयग्रस्त मन में उत्साह का संचार तो होता है पर आज के युद्ध का सत्य उन्हें यथार्थ की कठोर भूमि पर फिर-फिर उतार ले आता है। युद्ध के चित्र उनकी आँखों में कौंध उठते हैं, जहाँ शक्ति ने रावण को संरक्षित कर रखा था और सम्पूर्ण शक्ति और उद्यम के बाद भी राम, रावण के उस कवच को नहीं भेद पा रहे थे। रावण की अजेयता को याद करते हुए राम की आँखों से आँसू टपक पड़ते हैं। राम के आँसुओं को देखकर मारुतिसुत रामभक्त हनुमान उद्वेलित हो उठते हैं। रूद्र के अवतार हनुमान अपने आराध्य की बेचैनी का निराकरण करने हेतु समस्त व्योम को निगलने के लिए आगे बढ़ते हैं। खतरा भाँपकर शिव, शक्ति से अनुरोध करते हैं कि रूद्र के इस रूप पर शक्ति से विजय संभव नहीं है। इसे विद्या के सहारे प्रबोधित करना होगा। शक्ति हनुमान की माता अंजना का रूप धारण कर सामने आती हैं और हनुमान को समझाती हैं कि तुमने बालकपन में सूर्य को निगल लिया था, वैसा ही लड़कपन फिर करने जा रहे हो। तुम्हारा कार्य राम की सेवा करना है। अगर राम ने व्योम को लीलने की आज्ञा नहीं दी है तो तुम सेवक होकर सेवक धर्म का पालन नहीं कर रहे हो। इस प्रबोधन के बाद हनुमान शांत होकर पुनः अपने आराध्य राम के चरणों में जाते हैं। मूल कथा भूमि से थोड़ा अलग दिखने वाले इस प्रसंग के बाद कथा फिर राम पर केन्द्रित हो जाती है। 

आगे विभीषण राम को समझाते और धिक्कारते हैं। राम को विषादग्रस्त देख वे कहते हैं कि हम तो युद्ध जीत रहे हैं, फिर यह भाव क्यों ? आप हमारे श्रम पर पानी फेर रहे हैं। सीता का क्या होगा? रावण अपनी विजय की कथा सुनाता फिरेगा और मैं कभी भी लंकानरेश नहीं बन सकूँगा। इस उद्बोधन के बाद भी राम संशय से उबर नहीं पाते। उलटे वह संशय कुछ और गाढ़ा हो जाता है। राम विस्तार से सारी सेना को आज के युद्ध में हार का कारण बताते हैं। वे बताते हैं कि शक्ति अन्याय के साथ, रावण के साथ हो गई हैं। सभी तरह के युद्ध-ज्ञान, सभी तरह के रण-कौशल, सर्वश्रेष्ठ बाण, सब आज के युद्ध में किसी काम के साबित नहीं हुए क्योंकि शक्ति रावण के लिए कवच का काम कर रही थीं। इस परिस्थिति का वर्णन करते हुए राम चुप हो जाते हैं। जांबवान उनसे निवेदन करते हैं कि विचलित होने का कोई कारण नहीं है। यदि रावण अशुद्ध होकर भी शक्ति को धारण कर सकता है, तो आप 'शक्ति की मौलिक कल्पना' के ज़रिये शक्ति को अपने पक्ष में कर सकते हैं और रावण को परास्त कर सकते हैं। उसकी आराधना का आपको और भी दृढ़ आराधना से उत्तर देना होगा। आप जब तक शक्ति की साधना करेंगे, तब तक हम सब लोग मिलकर युद्ध चलाएँगे। राम, जांबवान के प्रस्ताव को मानकर शक्ति की मौलिक कल्पना और पूजन के लिए तत्पर होते हैं। अपने सामने के वातावरण से ही वे देवी की मौलिक कल्पना करते हैं, मन के गर्व को ही असुर मानते हैं। इस संकल्पना के बाद शक्तिपूजा को उत्सुक राम, हनुमान से रात में ही देवीदह जाने और 108 नीलकमल तोड़कर लाने को कहते हैं, जिससे कि अर्चना सकुशल सम्पन्न की जा सके। जांबवान से रास्ता, दूरी और स्थान जानकर हनुमान देवीदह जाते हैं और नीलकमल ले आते हैं।  

अगली सुबह राम युद्ध छोड़ शक्तिपूजा के लिए आसन जमाते हैं। देवी का नामजाप करते हुए वे साधना के गहन से गहनतर स्तरों पर उठते चले जाते हैं। निस्पंद साधनारत राम आठवें दिन तक अपनी साधना को ब्रह्म, हरि और शंकर के स्तर से ऊपर उठा ले जाते हैं। अब सिद्धि नजदीक थी। देवी को अर्पित करने को केवल एक नीलकमल शेष था। इस नीलकमल के अर्पण के बाद शक्ति की आराधना सम्पूर्ण हो सकती थी। इस अंतिम घड़ी, परीक्षा की अंतिम रात्रि में कविता में फिर नाटकीयता घटित होती है। देवी दुर्गा स्वयं साकार रूप धारण कर आती हैं और ध्यानमग्न राम के सामने से पूजा का आखिरी नीलकमल उठा ले जाती हैं। जप के इस आखिरी चरण में राम ने जब नीलकमल लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो वहाँ उनके हाथ कुछ भी लगा। उनका ध्यान भंग हुआ, स्थिर साधनारत मन चंचल हो उठा। यह क्या हुआ? नीलकमल कहाँ गया? अगर राम इस पूजा की भूमि से उठते और दूसरा नीलकमल लेने जाते या मँगवाते तो साधना भंग हो जाती। अब क्या हो? सारी जप-साधना क्या व्यर्थ हुई? क्या सीता का उद्धार असंभव होगा? इस भीषण बेला में भी राम की चिंता के केंद्र में सीता ही हैं।

राम के भीतर अदम्य मन का एक कोना माया को भेद बुद्धि के दरवाजे तक पहुँचा और राम को याद आया कि उनकी माँ कौशल्या उन्हें 'कमलनयन' कहा करती थीं। अगर नीलकमल की जगह इस साधना को पूरा करने के लिए मैं अपनी एक आँख देवी को समर्पित कर दूँ तो अभी भी यह शक्तिपूजा सम्पन्न की जा सकती है। इस विचार को क्रिया रूप में परिणत करने के लिए राम ने अपना चमचमाता तीर निकाला और अपनी दाहिनी आँख देवी को समर्पित करने को तैयार हो गए। आँख चढ़ाने का दृढ़ निश्चय करते ही देवी प्रकट हुईं। उन्होंने राम का हाथ पकड़कर आँख चढ़ाने से रोका। राम की दृढ़ साधना से देवी बहुत प्रसन्न हुईं। आखिर में राम को विजय का आशीर्वाद देती हुई शक्ति उनके मुख में लीन हो जाती हैं।

अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति - 'राम की शक्तिपूजा' की केंद्रीय समस्या क्या है? आलोचकों ने इस प्रश्न पर गहन मंथन किया है। वागीश शुक्ल के मुताबिक "वह एक समस्या से जूझती है, जिससे सभी कवितायें जूझती हैं; 'अन्याय' की समस्या। वह वही कविता बनती है जो सभी कविताएँ बनती हैं; एक ट्रेजिडी। मनुष्य एक अतिप्रश्न से टकराता है, "क्यों ऐसा है कि 'अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति'?" यह अतिप्रश्न है; इसे जब प्रश्न मान लेते हैं तो यह पेगनोत्तर पश्चिम में प्रसिद्ध problemof the evil बन जाता है। पेगन को इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं मिलता जब तक वह प्रश्न के रथ को छोड़कर पैदल चलने के लिए तैयार नहीं होता। यह 'पैदल चलना' क्या है? यह वही है जो राम करते हैं, शक्तिपूजा।"[5] परंतु क्या इस अतिप्रश्न की जड़ें निराला के अपने समय-समाज में ही नहीं हैं? निराला ने स्वयं ही अपनी 'तुलसीदास' नामक कविता में लिखा है कि 'देश-काल के शर से बिंधकर/ वह जागा कवि अशेष छविधर' किसी भी रचना का देश-काल बेहद महत्त्वपूर्ण होता है बशर्ते वह बाहर से थोपा गया हो। विद्वानों के एक हिस्से ने इस रचना को इसके देश-काल से जोड़ा है। उस समय देश में स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। आज़ादी के आंदोलन में एक स्तर पर कमज़ोरी दिख रही थी और शक्ति की मौलिक कल्पना की ज़रूरत दिख रही थी।" ...उन दिनों वे (निराला) मृत्युशैय्या पर पड़े प्रेमचंद की यंत्रणा से, राजनेताओं द्वारा की गई उनकी उपेक्षा से क्षुब्ध थे और शायद प्रेमचंद के वर्तमान में अपना भविष्य देखकर ...विषादग्रस्त, शायद किसी स्तर पर संशयग्रस्त भी थे। अतः यह अनुमान करना असंगत होगा कि 'राम की शक्तिपूजा' के संशयग्रस्त राम एक सीमा तक स्वयं निराला और उनकी पीढ़ी के युवकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उसी तरह राम-रावण युद्ध भी अपनी ऐतिहासिक पीठिका के बावजूद एक सीमा तक अंग्रेज़ों से स्वाधीनता, सीता का उद्धार करने के लिए लड़े जा रहे राजनीतिक समर का प्रतिनिधित्व करता है। यह भी स्मरणीय है कि 1931-33 का अहिंसात्मक आंदोलन विफल हो चुका था। क्रांतिकारी आंदोलन भी बिखर रहा था। समाजवाद के नारे लगने तो लगे थे, पर उनमें तेज़ी नहीं आई थी। अतः शक्ति की मौलिक कल्पना एक राष्ट्रीय आवश्यकता थी।"[6] कहना होगा कि आधुनिक हिन्दी साहित्य का बहुत गहरा रिश्ता राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से रहा आया है। भारतेन्दु से लेकर प्रेमचंद तक, निराला के पास साम्राज्यवादवाद विरोध की परंपरा रहती आई थी। जिस तरह निराला अपनी भाषा-परंपरा में गहरे पैबस्त हैं, उसी तरह वे हिन्दी की विचार-परंपरा के भी वाहक कवि हैं। तब निश्चय ही निराला की शक्तिपूजा के राम सिर्फ पौराणिक राम नहीं, वह अपने समय-समाज की जटिलताओं में विकसित होता एक प्रतीक है जो अन्याय की तरफ शक्ति को देखकर विचलित होता है, रो पड़ता है। शक्तिपूजा में अंधेरा बारंबार आता है, बेहद घना। जहाँ कुछ सूझता नहीं। रास्ता नहीं पता चलता। फिर भी निराला इस 'नैशांधकार' में दूर कहीं छिटकते-चमकते तारों को देख लेते हैं। आकाश अंधकार उगल रहा है, दिशा-ज्ञान खो रहा है, हवाएँ ठिठक गई हैं, अनंत समुद्र की गर्जना की पृष्ठभूमि में राम की संशयविदीर्ण आत्मा अकुला रही है, पर निराला इस कठिन स्थिति के बीच भी कुछ अलग देख लेते हैं। एक मशाल तो है जो जल रही है। यह मशाल 'वह रहा एक मन और राम का जो थका' की प्रतीक है, जो आगे चलकर कविता में जीत की पीठिका बनती है।

दूधनाथ सिंह आदि विद्वानों ने 'राम की शक्तिपूजा' को निराला के वैयक्तिक संघर्षों से जोड़कर देखने की सिफ़ारिश की है। उनके लेखे शक्तिपूजा का राम-रावण संघर्ष मूलतः निराला के समकालीन साहित्यिक जगह में किए गए संघर्षों का प्रतीक हैं।" ...निराला ने राम के संशय, उनकी खिन्नता, उनके संघर्ष और अंततः उनके द्वारा शक्ति की मौलिक कल्पना और साधना तथा अंतिम विजय में अपने ही रचनात्मक जीवन और व्यक्तिगतता के संशय अपनी रचनाओं के निरंतर विरोध से उत्पन्न आंतरिक खिन्नता, फिर अपने संघर्ष, अपनी प्रतिभा को अभ्यास, अध्ययन और कल्पना ऊर्जा द्वारा एक नई शक्ति के रूप में उपलब्ध और प्रदर्शित करके अंततः रचनात्मकता की विजय का घोष ही इस कविता में व्यक्त किया है। वही स्वयं 'पुरुषोत्तम नवीन' हैं।"[7] अगर इस कविता के एक साल पहले 1935 में लिखी निराला की आत्मकथामक प्रगीत कविता 'सरोज स्मृति' को ध्यान में रखें, तो यह स्थापना और दृढ़ मालूम होगी। 'सरोज स्मृति' में निराला अपनी पराजयों और उनसे संघर्ष के मार्मिक चित्र खींचते हैं। पर क्या सिर्फ़ प्रगीत के स्तर पर इस कविता को समझा जा सकता है? क्या राम के मिथक की अर्थव्याप्ति, अन्याय और शक्ति के संबंध का 'अतिप्रश्न' और 'जग जीवन में रावण जय भय' की व्याख्या इस स्थापना से संभव हो सकेगी। संभवतः नहीं।

अवधेश प्रधान ने व्यक्तिगत और सामाजिक प्रतीकों की इस बहस को समेटते हुए लिखा कि इस "कविता में पराजय और परवशता, संशय और निराशा और पुरुषार्थ और संघर्ष का ऐसा गुंथा हुआ द्वंद्व उपस्थित है जिसमें राम अपने मिथकीय रूप की सीमा से मुक्त हो जाते हैं और उनके संघर्ष में एक ओर स्वयं निराला के जीवन संघर्ष की झलक मिलने लगती है तो दूसरी ओर उस युग के स्वाधीनता संग्राम की।"[8] उत्कृष्ट कविता अपने वर्तमान में गहरी जड़ें गाड़कर उस समय-समाज में बिखरे हुए प्रश्नों को सबसे गहरे और मानवीय धरातल पर छू लेती है। उसकी भविष्य की आँख खुली होती है। 'राम की शक्तिपूजा' ऐसी ही बारंबार प्रासंगिकता हासिल कर लेने वाली कविताओं में से एक है। दिलचस्प है कि हिन्दी के प्रखर कवि धूमिल को भारत-चीन युद्ध के संदर्भ में यह कविता याद आई थी और उन्होंने एक लेख में इस कविता का भारत-चीन युद्ध के संदर्भ में पाठ भी किया था। वीरेन डंगवाल जैसे परवर्ती कवियों की कविता में भी इस कविता की छाया देखी जा सकती है- 'आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार/ संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती'[9] 

राम में जगी स्मृति  - 'राम की शक्तिपूजा' पर बातचीत करते हुए स्मृति-बोध के प्रश्न को अनदेखा करना मुश्किल है। कविता में राम तीन बार रोते हैं। एक 'भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल', दूसरे 'कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल' और तीसरी बार 'भर गए नयनद्वय' यह रोना अनायास है, दुख के घनीभूत होने और कुछ कर पाने की छटपटाहट भरी बेचैनी की अभिव्यक्ति। यह हताशा की  शृंखलाएँ हैं, भीषण स्थितियों का साक्षात्कार है, कुछ भी कर पाने की अवशता है, जो राम की आँखों से प्रकट होती है। यही वह बिन्दु है, जहाँ निराला के राम समकालीन हो जाते हैं। अन्याय की मुखालफत करते हुए, सत्य के लिए लड़ते हुए, हार महसूस करते राम से समाज के ज़्यादातर लोगों का साधारणीकरण होता है। लोग इस राम को अपनी ही तरह का मानेंगे। युद्ध के बाद थककर बैठे हुए राम अपनी पराजय महसूस करते हैं। उनका मन असमर्थ हो हार की तरफ़ जा रहा है। ऐसे में स्मृति ही उनका सहारा बनती है। निराशा के इन अंधेरे बादलों के बीच बिजली सा, नैश-अंधकार में रोशनी की चमक-सा उन्हें अपना प्रेम याद आता है। प्रेम की स्मृति राम को बल देती है। उनके मन में विश्वविजय की भावना चमक उठती है और अपनी पुरानी विजयें याद आती हैं। पर स्मृति की यह दुनिया यथार्थ-सी कठोरता से टकराकर टूट जाती है। आँसू बह निकलते हैं। फिर धीरज धरते राम चुपचाप बैठते हैं। विभीषण उन्हें बीच युद्ध में उनकी उदासी के लिए कोसते हैं पर यह सब निराशा के उस भँवर को थाम पाने में अक्षम है। पहली बार का रुदन अपनी पुरानी स्थिति, स्नेह, सीता और इस सबके साथ यथार्थ के अंतर के नाते उपजा। दूसरी बार इस अंतर को स्पष्ट करते, व्याख्यायित करते हुए राम के नयन अश्रुमय हो जाते हैं। 'अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति' का भान उन्हें हताश बनाते हुए इस निष्कर्ष तक ले जाता है कि इस युद्ध में विजय नहीं हो सकती। यहाँ जांबवान 'शक्ति की मौलिक कल्पना' की अवधारणा रखते हैं। शक्ति की यह मौलिक कल्पना एक तरह से राष्ट्र की कल्पना है, जिसका नए सिरे से आराधन किया जाना है। पर यह इतना आसान भी नहीं। इस आराधन के अंतिम क्षण फिर से मुश्किल टूट पड़ती है। पूजा का अंतिम कमल ग़ायब। इस आखिरी मुश्किल में भी राम का एक अपराजेय मन हार नहीं मानता। बुद्धि के द्वार पहुँच वह फिर एक बार स्मृति का सहारा लेता है। स्मृति-बोध ही वह चीज़ है, जो बार-बार मुश्किलों में राम का और हर मनुष्य का साथ देती है। अपनी स्मृतियों से बावस्ता होना मनुष्य में इतिहास-बोध पैदा करता है, जिसके बिना कोई भी कौम जड़ हीन हो जाती है। निराला की इस महाकाव्यात्मक कविता में स्मृति-बोध ही काव्य-नायक को बारबार सहारा देता है, उसके टूटे हुए मन को संबल प्रदान करता है।  

होगी जय, होगी जय! - इस कविता के दो अंशों को लेकर आलोचकों ने कई आपत्तियाँ उठाई हैं। पहला प्रसंग हनुमान संबंधी है और दूसरा प्रसंग कविता के अंत का। कविता के मध्य में हनुमान प्रसंग की कविता की समूची संरचना से सटीक अन्विति नहीं बैठती। यदि मिथक के प्रयोग के धरातल के अनुसार देखें तो इसमें कोई संरचनात्मक फांक नहीं दिखेगी। राम पर आए संकट के समय हनुमान का उद्वेलित होना और अपने समस्त पराक्रम और उद्वेग के साथ समस्त व्योम को ग्रसने चल देना मिथक के लिहाज से स्वाभाविक ही है। पर चूँकि यह कविता सिर्फ़ मिथक का पुनर्बयान या पुनर्प्रस्तुति भर नहीं है, इसलिए सवाल यह है कि निराला इस अंश के सहारे क्या कहना चाहते हैं और वे उसमें कहाँ तक सफल हो सके हैं। विद्वान इसे निराला द्वारा शाक्त परंपरा पर वैष्णव परंपरा की दी गई वरीयता की तरह भी देखते हैं। पर इसके अतिरिक्त इस मिथक के कुछ और अर्थ निराला साहित्य में दिखते हैं। उन्हीं दिनों की अपनी एक कहानी में निराला हनुमान के प्रतीक को ऐसे प्रस्तुत करते हैं- "उसने आज महावीरजी की वीर-मूर्ति देखी। मन इतने दूर आकाश पर था कि नीचे समस्त भारत देखा पर यह भारत था- साक्षात महावीर थे, पंजाब की ओर मुँह, दाहिने हाथ में गदा-मौन शब्द-शास्त्र, बंगाल के ऊपर दाएँ-बाएँ पर हिमालय पर्वत की श्रेणी, बगल के नीचे बंगोपसागर, एक घुटना वीर-वेश-सूचक-टूटकर गुजरात की ओर बढ़ा हुआ, एक पैर प्रलंब-अंगूठा कुमारी-अंतरीप, नीचे राक्षस-रूप लंका-कमल-समुद्र पर खिला हुआ।"[10] हनुमान के इस रूपक को ध्यान में रखकर अगर हम शक्तिपूजा के हनुमान प्रसंग को पढ़ें तो थोड़ी सहूलियत होगी। यहाँ निराला के लिए हनुमान सिर्फ मिथक नहीं, वे अन्याय की शक्ति के ख़िलाफ़ एक राष्ट्र के प्रतीक हैं, जो अपनी उग्रता में विकराल हो सकता है। मिथक के भीतर ही विद्या का आश्रय ले हनुमान को प्रबोधन देने की युक्ति निकालकर निराला फिर मूल कथा पर लौट आते हैं। अर्थात् निराला हनुमान के प्रतीक से एक अर्थ तो संप्रेषित करा ले जाते हैं, फिर भी अंततः मिथक की शक्ति हनुमान के रूपक पर भारी पड़ती है। प्रसंगतः कविता में माँ दो जगह पर आती हैं। पहली बार हनुमान के प्रबोधन के लिए और दूसरी बार राम में छुपी हुई स्मृति पर से परदा उठाने। एक तीसरी माँ शक्ति भी हैं, जो पहले रावण के साथ हैं, और जिसकी आराधना कर राम उन्हें अपने पक्ष में लाना चाहते हैं। 

दूसरा प्रसंग कविता के अंत का है, जहाँ शक्ति, राम के वदन में 'जय होगी' कहती हुई लीन होती हैं। डॉ. रामविलास शर्मा इस कविता के अंत को कमज़ोर मानते हैं। उनके अनुसार "कविता के आरंभ में पराजय का दुःस्वप्न है, कविता के अंत में वर-प्राप्ति का सुख-स्वप्न। इन दो स्वप्नों में वैषम्य है किन्तु संतुलन नहीं। पहला स्वप्न प्रबल रूप से उद्वेगपूर्ण है, यथार्थ को समग्र रूप से अभिव्यक्त करता है, दूसरा स्वप्न यथार्थ से विमुख, सुखद कल्पना है जिसमें अंतर्निहित भावशक्ति क्षीण है। ...राम की शक्तिपूजा के तर्कसंगत गठन में यह कमज़ोरी है। गठन की इस कमज़ोरी का संबंध निराला के भावबोध और उनकी विचारधारा से है। जीवन में संघर्ष और पीड़ा को चमत्कार से दूर करने का प्रयास कविता के ढाँचे को कमज़ोर बनाएगा ही।"[11] राम के त्याग के सहारे देवी के त्वरित उदय और राम के जयघोष की बुनियाद मिथक के भीतर से तो विकसित होती है पर प्रतीक रूप में यह युक्ति यथार्थ की कड़ी मारों के बीच से विकसती विजय को नहीं दिखा पाती। इस अर्थ में राम की शक्तिपूजा एक ट्रेजिडी है, जिसे सुखांत बनाने के प्रयत्न के कारण कविता के संरचनात्मक ढाँचे में एक फाँक पैदा हो जाती है। राम के आँसुओं के साथ पाठक का साधारणीकरण हो सकता है, उनकी बलिदान भावना से भी, परंतु सत्य की इतनी आसान जीत के साथ पाठकों का साधारणीकरण थोड़ा मुश्किल है। मिथक के प्रयोग की एक समस्या यह भी होती है कि वह अपने रूढ़ अर्थों, अभिप्रायों की ओर कवि को खींचता रहता है। निराला ने राम के आत्मसंघर्ष के माध्यम से मिथक में जितने बहुलार्थ भरे, वे आखिर तक आते-आते राम के जयघोष में अपेक्षाकृत इकहरे और चपटे हो जाते हैं। प्रसंगतः आलोचकों ने यह कमज़ोरी उस युग के महत्त्वपूर्ण महाकाव्य जयशंकर प्रसाद लिखित 'कामायनी' में भी लक्षित की है। 

मिथक और समकालीनता  - जब कोई कवि मिथक का इस्तेमाल करता है तब वह दुधारी तलवार पर चल रहा होता है। मिथक जितना ही लोकप्रिय होगा, उतना ही ताक़तवर होगा और उतनी ही ज्यादा उसकी धार होगी। मिथक सदियों से संचित अर्थ ढोते होने के कारण अर्थ संप्रेषित करने के बेहतरीन औज़ार हो सकते हैं। साथ ही वे अर्थ-रूढ़ हो जाने के कारण नए अर्थों को अपने से दूर भी हटाते हैं। उनमें नए अर्थ भरना कठिन हो जाता है। यों एक द्वंद्व चलता रहता है, जहाँ कवि मिथकों में अपने अभिप्रेत भरने की कोशिश करता है और मिथक कवि की फैंटेसी को अपने रूढ़ार्थों की ओर खींचते रहते हैं। राम-रावण का मिथक ऐसा ही एक क्लासिक मिथक है। राम न्याय और सत्य के प्रतीक हैं और रावण अन्याय और अशक्ति का। इन दोनों के बीच का संघर्ष अब तक हमेशा चलता रहा है। यही इस मिथक की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि वह पाठकों तक इस संघर्ष को राम-रावण युद्ध के माध्यम से संप्रेषित कर ले जाता है। साथ ही रामायण की बहुल परम्पराएँ भी समाज में प्रचलित हैं, जिससे एक हद तक राम के मिथक के भाँति-भाँति के अर्थ स्वीकृत हो सकते हैं। राम के मिथक के विभिन्न अर्थ कवि के लिए एक सहूलियत पैदा करते हैं। संदर्भतः रामानुजन ने अपने लेख 'वन हंड्रेड रामायनाज़' और फ़ादर कामिल बुल्के ने अपनी पुस्तक 'रामकथा' में रामकथा की इन बहुल परम्पराओं का विस्तार से ज़िक्र किया है। हिन्दी ही नहीं, अन्य भाषाओं के आधुनिक कवियों ने भी इस मिथक का इस्तेमाल करने का प्रयत्न किया है। निराला से पहले खड़ी बोली हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त 'साकेत' में इस मिथक का प्रयोग कर चुके थे। निराला भी इसे इस्तेमाल करते हैं। परंतु राम की दैवीयता इस मिथक की एक सीमा भी बनाती है। मिथक में राम का जीतना सदैव ही तय होता है। तब कवि जहाँ तक राम को एक साधारण मनुष्य के संघर्षों की तरह संघर्ष करना दिखा पाता है, वहाँ तक उसकी कविता मिथक का इस्तेमाल करती है। जहाँ वह यह काम नहीं कर पाता, मिथक के अर्थ की ताक़त उसकी कविता को अपने पाले में खींच ले जाती है। निराला ने राम की दैवीयता का मानवीकरण किया है। उनके राम आत्मसंघर्ष करते हैं, स्मृतियों से ताकत अर्जित करते हैं और पराजय के क्षणों में उनकी आँखें सामान्य मनुष्यों की तरह ही छलछला उठती हैं। सामान्य मनुष्य जैसे राम इस कविता का प्राणतत्त्व हैं। जहाँ-जहाँ राम का यह मानवीकरण, सामान्यपना शिथिल होता है, वहीं-वहीं कविता की कमज़ोरी दिखने लगती है।  

एक-एक शब्द बंधा ध्वनिमय साकार - इस कविता की भाषा, ख़ासकर शुरुआती अट्ठारह पंक्तियों की भाषा को लेकर विद्वान आलोचकों में काफ़ी बहसें हुई हैं। सामासिक तत्सम शब्दावली में निराला इन अट्ठारह पंक्तियों में राम-रावण के युद्ध का वर्णन करते हैं। निराला के समकालीन आलोचक आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने इन प्रारम्भिक पंक्तियों की भाषा पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि "'शक्तिपूजा' के आरंभ की पंक्तियों में भाषा की एक ऐसी कवायद है जिसका समर्थन केवल यह कहकर किया जा सकता है कि हिन्दी में ऐसी भाषा लिखी जा सकती है।"[12] एक आलोचक ने तो यहाँ तक कहा कि यदि इस कविता में यत्र-तत्र 'हुम्' लगा दिया जाय, तो यह साँप झाड़ने का मंत्र बन जाएगी। पर किसी कविता की भाषा पर बात करने का यह तरीक़ा उचित नहीं। उसके लिए यह देखना होगा कि कवि इस भाषा का इस्तेमाल क्यों कर रहा है? स्वयं निराला के शब्दों में काव्यभाषा ऐसी होनी चाहिए जहाँ 'वर्ण चमत्कार/ एक-एक शब्द बंधा ध्वनिमय साकार' हो। कविता के इस प्रारम्भिक खंड की भाषा की शक्ति को स्वीकार करते हुए भी रामविलास शर्मा 'भेद कौशल समूह' जैसे बंधो पर विचार करते हुए इसकी सामासिकता को संस्कृत की सामासिकता को अनुकूल नहीं पाते।[13] वागीश शुक्ल ने इस कविता की अपनी शब्दबेधी टीका में इस आक्षेप का निराकरण किया है। जो हो, अट्ठारह पंक्तियों के इस सामासिक बंध में, जहाँ सिर्फ़ एक ही क्रिया का प्रयोग है, स्थितियों का गतिमय और जीवंत चित्रण है। निराला अपने शब्दों को तराशकर ध्वनि की आँच से तपाकर श्रोता-पाठक के सामने लाते हैं। चूंकि वर्णन युद्ध का है और प्रतिनायक के प्रतिनायकत्व की प्रतिष्ठा यहाँ से ही आधार पाती है, इसलिए निराला गतिशील सामासिक तात्समिक भाषा का इस्तेमाल करते हैं और इसके जरिये युद्ध की भीषणता रावण के कौशल का चित्र खींच पाते हैं। इस शब्द-ध्वनि-नियोजन से निराला श्रोता-पाठक के सामने युद्ध का चाक्षुष बिम्ब उपस्थित कर पाने में सक्षम होते हैं। नाद इस अंश में युद्ध की ध्वनियों तक पाठक को पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रेखा खरे ने इन पंक्तियों के अर्थ और नाद सौन्दर्य को अप्रतिम बताया है। उनके अनुसार इन पंक्तियों में तो केशवदास की रामचंद्रिका जैसी भाषा की निजी प्रवृत्ति से वैमनष्य है, और ही हरिऔध जैसी वागाडंबर प्रियता।[14] काव्य भाषा को अर्थ-गौरव से सम्पन्न होना चाहिए, तभी उसका महत्त्व होता है। केशवदास की तरह छंदों की धुनक में अर्थ को दुरूह बनाना या हरिऔध की तरह 'कमलिनी कुलवल्लभ' जैसे अर्थ-न्यून पदों का प्रयोग निराला का ढब नहीं है। वे कविता में समयोचित-प्रसंगोचित भाषा के इस्तेमाल में दक्ष कवि हैं। प्रारम्भिक युद्ध वर्णन के अलावा कविता की भाषा प्रसंगानुरूप कोमल, सीधी-सहज भी है। संभवतः काव्य-भाषा अपने उत्कर्ष पर पहुँचकर ज़्यादा सीधी हो जाती है। छंदों, प्रतीकों की योजनाएँ निष्प्रभ हो जाती हैं और तब 'धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध' या 'जानकी हाय ! उद्धार प्रिया का हो सका' जैसी पंक्तियाँ सामने आती हैं। शक्तिपूजा की भाषा इस तरह की विशिष्टताओं से भरी हुई है। राम जब उदास हैं तो कवि 'नमित मुख सांध्य कमल' का प्रतीक चुनता है, जब वे अपनी माँ के कहे को याद कर रहे हैं तो प्रतीक 'राजीवनयन' का हो जाता है। तात्समिक शब्दावली के साथ 'हूह' और 'मशाल' जैसे शब्दों से निराला काव्य-भाषा की संप्रेषणीयता बढ़ा देते हैं। आँखों के बारे में यह कविता जितने तरह के बिम्ब गढ़ती है, शायद ही आधुनिक युग की किसी एक हिन्दी कविता में यह संभव हो सका हो। यहाँ प्रसंगानुरूप राम की 'विच्छुरित वह्नि' कमलवत आँखें हैं, सामने रावण के 'लोहितलोचन' हैं, जानकी के 'कमनीय' नयन हैं, सीता-राम के 'नयनों का नयनों से गोपन, प्रिय संभाषण' है, 'सीता के राममय नयन' हैं, राम के 'स्तिमित' और 'छल-छल हो गए नयन' हैं, 'इंदीवर निंदित लोचन' हैं। अनायास नहीं कि इस कविता का अंत भी राम के नयनदान के दृढ़ निश्चय से होता है। इसी पृष्ठभूमि में निराला ने पूरी कविता में नयनों का अप्रतिम बिम्ब संसार रचा है। भयानक और कोमल, मृदु और कठोर, गतिशील और स्थिर, नादात्मक और नादन्यून शब्दों के यथोचित प्रसंगानुरूप व्यवहार और उनसे उनकी अर्थ-शक्ति निचोड़ लेने के मामले में यह कविता आज भी मानक बनी हुई है।        

 सन्दर्भ :

[1]देखें- नंदकिशोर नवल, निराला होने का अर्थ और तीन लंबी कवितायें, हालांकि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार यह कविता बनारस में लिखी गई।
[2]बच्चन सिंह, क्रांतिकारी कवि निराला
[3]वागीश शुक्ल, छंद छंद पर कुंकुम
[4]रामविलास शर्मा, निराला: कवि छवि
[5]वागीश शुक्ल, छंद छंद पर कुंकुम
[6]विष्णुकांत शास्त्री, निराला: कवि छवि
[7]दूधनाथ सिंह, निराला: आत्महंता आस्था
[8]अवधेश प्रधान, स्वाधीनता की अवधारणा और निराला
[9]वीरेन डंगवाल, दुष्चक्र में स्रष्टा,पूरी कविता यहाँ देखें-http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%86%E0%A4%8F%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A5%87,_%E0%A4%89%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8_%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%8F%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A5%87_/_%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8_%E0%A4%A1%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2
[10]नन्द किशोर नवल, निराला होने का अर्थ और तीन लंबी कविताएं
[11]राम विलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना-2
[12]नन्द दुलारे वाजपेयी, कवि निराला
[13]राम विलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना-2
[14]रेखा खरे, निराला होने का अर्थ और तीन लंबी कवितायें 

मृत्युंजय
सदस्य, संपादक मण्डल, प्रतिमान, सीएसडीएस, दिल्ली
सम्पर्क : 9654994142, mrityubodh@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

Post a Comment

और नया पुराने