कविताएँ : पन्ना त्रिवेदी

पन्ना त्रिवेदी की कुछ कविताएं 
 


1.शतरंज के प्यादे

इन दिनों
इस पृथ्वी से अदृश्य हो रही है धरती
जहाँ भी पैर रखती हूँ
बिछ जाती है एक शतरंज की बिसात
एक मामूली प्यादे-सी मैं खड़ी हूँ
शत्रु के पहले वार के लिए
घातक मृत्यु के लिए सबसे आगे
मेरी नजर
सामने खड़े हुए
प्यादों के पीछे छिपे हुए राजा और वज़ीर के तख़्त पर नहीं
ना तो मेरे पीछे छिपे हुए राजा और वज़ीर के तख़्त पर है
मेरी नजर
मेरे सामने खड़े उन प्यादों पर है
जिनकी आँखों में तैर रहा है मौत का खौफ़
किसी और के जीवन के लिए
मृत्यु चुनने की अनिवार्य बेबसी
क्योंकि वे जानते है
यहाँ युद्ध प्रारंभ होने से पहले न होगा कोई शंखनाद
न युद्ध विराम की कोई घोषणा
सो क़त्ल करके भी वे महान अशोका कहेलांगे
किंतु वे जानते है वे मारे जाएंगे -
उनके चक्रवर्ती स्वप्नों के आयुध से
उनके विध्वंशक विचारो के शस्त्र से...

शतरंज नगर के ओ अंधे राजा!
तुम्हारी आँखे होती तो तुम देखते
कि मुझे चाल चलना आता ही नहीं
और जब भी मैं चलती हूँ सीधी ही चलती हूँ
यदि तुम्हें मेरा चलना भी मंजूर नहीं तो
मेरे हिस्से की एक इंच जगह पर ख़डी रहूंगी चुपचाप
तुम्हारी आँखे होती तो तुम देखते
मेरे पास हाथ ही नहीं है
पैर है केवल
जो तुम्हारे हुकम की एक टेढ़ी चाल पर
उखाड़ फैंक दिए जाएंगे बिसात से बाहर !

सुन रहे हो ना?
सलामत है तुम्हारे तख़्त, तुम्हारे ताज़...

2.प्रेम

हम कितना कुछ भूलने लगे हैं !

शक्कर के दानें को उठाती हुई चींटियों को देखना
चाँद से बहुत दू...र... थरथराते एक छोटे से तारें को निहारना
हवा के तेज झोकें से गिरते हुए पत्तों की बातें सुनना
हम
भूलने लगे हैं स्मृतियों को पुकारना
भूलने लगे हैं धूप में साथ चलती हुई परछाई को देखना
भूलने लगे हैं प्रेम करना भी...

हम एक दूसरे के लिए
आलीशान दरवाज़े खोल देते हैं
लेकिन
जर्जर खिड़कियाँ नहीं....!

3.समुद्र

जो तुम हो ही नहीं
वो क्यों बन रहे हो तुम
मत बनो न समुद्र !

तुम्हारे समुद्र बन जाने से
तुम्हारी बातें मुझे बहुत खारी लगती है
तुम्हारा शोर निगल लेता है मेरी मृदु मध्यम आवाज़
तुम्हारे लहज़े का ज्वार
मेरे बचे खुचे अस्तित्व को भी खींच ले जाता है
ले जाता है मुझे तुमसे और भी दू...र....
मैं उम्रभर किनारे नहीं रहना चाहती

तुम नदी ही बने रहो न !
ताकि मैं उतर सकू तुम में
और चल सकू तुम्हारी आत्मा के साथ दूर तक
मझधार के निकट
तुम्हारे एक अंजुरी भर मीठे पानी से रह सकू जीवित
इस जन्म के अंत तक...
तुम में बार बार डुबकी लगाकर मैं हो सकू पाप मुक्त
जन्मोजन्म तक...

तुम नदी ही बने रहो न !

4.होली

इतने सख्त क्यों हो?
मिट्टी बन जाओ न थोड़ी देर के लिए !
मैं पानी से भीगा दूँ तुझे
तुम चंदन की तरह महक जाना
मैं अपने आप ही पानी से चंदन हो जाउंगी
इतनी हैरत से क्या देख रहे हो ?
चांदनी भी तो चाँद को भिगोती है ना !
अपनी दुधैल रौशनी से
आकाश के वृन्दावन में खेलती है होली
चांदनीभरी पिचकारी से
ख़ुशी ख़ुशी भीगता है ना चाँद !

इधर
एक मैं हूँ कि
बारिश की तरह बरसती हूँ
और
उधर एक तुम हो कि हर बार छाता खोल लेते हो !

5.जो छूट जाता है

जो छूट जाता है
अक्सर
वह साथ आता है ...

छूट जाता है एक सबंध वृक्ष
जड़े साथ आती है

छूट जाता है प्रेम
एक उम्र साथ आती है

छूट जाती है रात
एक चाँद साथ आता है

छूट जाती है नींद
स्वप्न साथ आते हैं

छूट जाती है मुक्ति
बंधन साथ आता है

अक्सर
जो छूट जाता है
वह साथ आता है ...

तुम भी तो छूट गए थे ना किसी जन्म में?
..... ...... .....

6.घास

मुझे हमेशा से लगता रहा
घास आधी देह लिए उगती है
उसकी आँखें नीचे जमीं की ओर होती है
और उसके पैर आसमान की ओर
उसकी आँखें रखती है
अपनी मिट्टी की एक एक कण की ख़बर
इसलिए
धरती से आसमान तक फ़ैलती रहती है
उसकी कोमलता
उन्नतता
हरिलता

घास अपनी छोटी छोटी जड़ों में
बांधें रखता है समूची धरती
और पैर से पूरा आसमान
आधी देह से आसमान छूता यह घास
हमारी पूरी देह को करता है लज्जित

पूरी देह
जो इस धरती पर होकर भी
देख नहीं पाती अपनी धरती भी

7.तुमसे मिलना चाहती हूँ

तुमसे मिलना चाहती हूँ
क्योंकि
मुझसे मिलना चाहती हूँ

इस बार
जब तुम मिलो
तो चुप्पी की चद्दर ओढ़े आना
मेरी चुप्पी से खूब बतियाना
दिन के अंधेरों में
आवाजों के सन्नाटे
मुझे मुझको पुकारने नहीं देते
इस बार
तुम मेरे लिए
दिन का जुगनू बन जाना
ताकि तुम्हारी आँखों में देख सकूँ
मेरी आँखों की खोई हुई चमक....

तुम से मिलना चाहती हूँ....
क्योंकि मुझसे मिलना चाहती हूँ

8.हवा और पत्ता

तू बहती हवा
और मैं शज़र का एक पत्ता
तुम्हें बहना ही था
और मुझे झरना ही था

मलाल ये नहीं
कि उम्र की खिली धूप में
मिलने न आए तुम मुझसे
गिला इस बात का लेकिन
मिले तुम आखिरी रात के आख़िरी अँधेरे में मुझसे

हाँ,
कल रात
मेरे लिए
तेज बारिश के साथ तूफ़ान भी लाई थी तुम
गम यह नहीं कि उस तूफ़ान में
मेरी आखिरी रात ढली थी
शिकवा बस इतना
कि बरसात की एक बूंद को
तुमने ठहरने न दिया पलभर भी !!

9.मुक्ति

हर वह तीसरा आदमी कहता है :
मुझे मुक्ति चाहिए...

मुक्ति !
इस संसार का सबसे भ्रामक शब्द
सबसे कीमती और सबसे सस्ता शब्द
एक आत्म छल-मुक्ति
किसका हो सकता है जीवन बल?

उड़ती चिड़िया भी कहाँ है मुक्त?
वह बंधी है भूख से
वृक्ष की सबसे ऊँची टहनी का पत्ता
बंधा है सबसे गहरी जड़ से
आकाश नहीं है मुक्त
कभी अपनी गोद में
कभी अपने कंधो पर
बादलों को उठाए चलने को है विवश
दौड़ते बादल भी कहाँ है मुक्त ?
वे बंधे है प्यास से
देखो ज़रा गौर से वहां
हवा भी बंधी है अवकाश से....

तुम भी तो बंधे हो तुम से !
कौन है मुक्त यहाँ?
कौन है मुक्त वहाँ?

10 .आकाश

मेरे घर की छत
पहले से भी ऊँची हो गई है
फिर भी नहीं दिखाई देता सप्तर्षि का वह झुंड
जो छोटे से क़स्बे की जर्जर छत से
साफ़ साफ़ दिखाई देता था

कभी कभी
एक आसमान मिलते ही
खो जाता है भीतर का पूरा आकाश

11. मोड़

सोचा,
इस बार मुड़ जाउंगी
दाएँ या बाएँ कहीं भी
इस ख़याल से दूर तक चलती रही
बहुत दू....र.... तक
और चलते चलते अचानक रुक सी गई
क्योंकि आगे रास्ता ही न था कोई !
यह क्या सितम है?
पहले हिचकी बंद हुई
और अब उस घर ये रास्तें भी...

12. हम और ज़िंदगी

ज़िंदगी जब चलना सीखती है
हम उड़ना चाहते हैं
जब ज़िंदगी दौड़ने लगती है
हम चलना भूल जाते हैं
हाँ, अक्सर ऐसा होता है
जब हम भीगना नहीं चाहते
समन्दर बार बार मिलता रहता है
और जब हम भीगना चाहते हैं
एक रेगिस्तान हमारे भीतर फ़ैल जाता है...
तुम्हारे साथ ऐसा होता है क्या?

पन्ना त्रिवेदी समकालीन गुजराती साहित्य में लीक से हटकर अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। अपनी लेखनी से एक मुकाम हासिल की हैं। इधर अपनी लेखनी से हिन्दी साहित्य के पाठकों का भी ध्यान आकर्षित की हैं। इनका कहानी, कविता, आलोचना, अनुवाद एवं सम्पादन में सक्रिय लेखन है, वर्तमान समय में वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय सूरत (गुजरात) में असि. प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत हैं उनकी अधिकत्तर रचनाएं आकाशवाणी केंद्र और दूरदर्शन से प्रसारित हुई हैं, साथ ही अधिकतर भारतीय भाषाओँ में उनकी मौलिक रचनाएं अनूदित हुई हैं। 
 
डॉ. पन्ना त्रिवेदी
असि. प्रोफ़ेसर, गुजराती विभाग, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय
उधना मगदल्ला रोड, सूरत -०७ गुजरात


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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