शोध सार : ‘प्रेम’ एक ऐसा भाव है जो इस संसार के लिए परम आवश्यक है। जिसके बिना इस संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह मानवरूपी संसार इस भावना पर टिका हुआ है। यह भाव किसी व्यक्ति के मन मेंदूसरी वस्तु या व्यक्ति के रुप, गुण और स्वभाव के कारण सहज ही उत्पन्न हो जाता है। यह उस अथाह सागर की भांति है जिसकी थाह लेना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। कालिदास प्रेम का लोकोत्तर महत्व स्वीकार करते हुए उसे जन्म जन्मांतर का व्यापार मानते हैं। प्रेम शब्द अपने आपमें एक गहन अर्थ लिए हुए है। प्रेम की उत्पत्ति तो मानव उत्पत्ति के साथ ही शुरू हो जाती है। रीतिकाल में जिसे उत्तर मध्यकाल की भी संज्ञा दी जाती है, में भी प्रेम के स्वरूप और विभिन्न प्रकारों का भी विवेचन किया गया है। रीतिकाल के कवियों को तीन भागों में विभाजित किया गया है रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त। इसी आधार पर हम प्रेम का विवेचन करेंगे कि रीतिकाल में प्रेम के प्रति रीतिकालीन कवियों का क्या दृष्टिकोण था। रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया हिंदी साहित्य के विभाजन में जिस काल को उत्तरमध्यकाल(1700–1900) की संज्ञा दी गई है उस काल में प्रेम का क्या रूप है। उस श्रृंगार काल में जहाँ श्रृंगार की अधिकता थी उसके साथ वहां प्रेम भी उमड़ रहा था। इसका विवेचन करेंगे। रीतिकाव्य में जहाँ कवि अपने आश्रयदाताओं के प्रशंसा के लिए जहाँ नायिका के नख शिख वर्णन के साथ-साथ नायिका के शारीरिक और मांसल रूप का वर्णन करते हैं। वहीं रीतिमुक्त कवियों ने प्रेम की एकनिष्ठा और एकतरफा प्रेम का विवेचन प्रचुर मात्रा में किया है। रीतिकालीन कवियों ने मानव प्रेम के साथ-साथ प्राकृति प्रेम का वर्णन भी किया है। रीतिबद्ध कवि जहाँ राजाओं को शास्त्र ज्ञान देने के लिए लक्षण ग्रंथों की रचना करते थे वही रीतिमुक्त कवि किसी भी प्रकार की रीति से मुक्त थे। रीतिमुक्त काव्यधारा को स्वच्छंद काव्यधारा भी कहते हैं। प्रेम के विभिन्न रूपों का वर्णन रीतिकाल के अंतर्गत करेंगे।
बीज शब्द : प्रेम, प्रेम के प्रकार, रीतिकाल, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त, रीतिबद्ध, तत्कालीन परिस्थिति, स्वच्छंद, तन्मयता, इत्यादि।
मूल आलेख : “प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब है”1 आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन के अनुसार जैसे-जैसे जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन होता है। उसी प्रकार साहित्य परंपरा में भी परिवर्तन होता है। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है। आदिकाल (1050–1375), पूर्वमध्यकाल(1375–1700), उत्तरमध्यकाल(1700–1900), आधुनिक काल(1900–अबतक) आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार किए गए काल विभाजन में जो उत्तर मध्यकाल है उसी को रीतिकाल के नाम से भी अभिहीत किया जाता है। रीतिकाल जिसकी समय सीमा आचार्य शुक्ल ने 1700 से 1900 तक निर्धारित की है इस काल का विकास रीति के आधार पर हुआ। परंतु इस काल के कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार, रस इत्यादि का विवेचन प्रचुर मात्रा में किया था। रीतिकाल का विभाजन तीन भागों में किया गया है रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त। रीतिकाल के अंतर्गत हम प्रेम का विवेचन भी इसी आधार पर करेंगे। रीतिकाल के अंतर्गत आने वाले काव्य में प्रेम के कई रुप दिखाई देते हैं। रीति के ढांचे में ढला हुआ प्रेम, स्वच्छंद काव्यधारा का उन्मुक्त एकनिष्ठ प्रेम, प्रेमाख्यानक काव्यों का आध्यात्मिक तथा लौकिक प्रेम, भक्त कवियों का भगवत प्रेम, और संत कवियों का निर्गुण प्रेम। रीतिकाल में वर्णित प्रेम को समझने से पूर्व हम ‘प्रेम’ शब्द की परिभाषा को समझने का प्रयास करते हैं। ‘प्रेम’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘प्रेमन’ शब्द से हुई है। ‘प्री’ धातु में मीनन प्रत्यय लगाने से प्रेम शब्द की रचना होती है। ‘प्री’ का अर्थ है प्रसन्न करना, आनंद लेना, या आनंदित करना या होना। प्रेम सौहार्द और हर्ष का संचार करने वाला शब्द है। ‘प्रेम’ शब्द की परिभाषा देना इतना आसान नहीं है यह तो उस अथाह सागर की भांति है जिसकी थाह लेना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। प्रेम मानव मन का मृदुल भाव है जो किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति सहज ही उत्पन्न हो जाता है। अगर ‘प्रेम’ शब्द की विशेषताओं के बारे में चर्चा की जाए तो प्रेम शब्द की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि ‘प्रेम’ ने इस पंचतत्त्व रूपी संसार को अपने वश में किया हुआ है। यह अपने आप में अत्यंत व्यापक और अर्थ गर्भित शब्द है। डॉ. रामचंद्र वर्मा ने मानक हिंदी कोश में ‘प्रेम’ शब्द की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला है “संस्कृत के ‘प्रिय’ शब्द में इमानिच प्रत्यय लगाने से आदेश पूर्वक संपन्न होने वाला वह कोमल भाव है जो किसी ऐसे भाव, वस्तु, बात, या किसी व्यक्ति के प्रति होता है जिसे वह बहुत अच्छा, प्रशंसनीय अथवा सुखद समझता है तथा जिसके साथ वह अपना घनिष्ठ संबंध बनाए रखना चाहता है अपने विशुद्ध और विस्तृत रूप में यह ईश्वर तत्त्व ईश्वर का व्यक्ति रूप माना जाता है और सदा स्वार्थ रहित दूसरों के सर्वतोमुखी कल्याण के भावों से ओतप्रोत रहता है जिसमें दया सहानुभूति प्रचुर मात्रा में होती है।”2
“आचार्य परशुराम चर्तुवेदी भी प्रेम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं— साधारणत: प्रेम शब्द का अभिप्राय उस मनोवृति से है जो किसी व्यक्ति को दूसरे के सम्बंध में उनके रूप, गुण, स्वभाव, सान्निध्य आदि के कारण उत्पन्न कोई सुखद अनुभूति सूचित करती है तथा जिसमें एक दूसरे के प्रति हित की कामना भी बनी रहती है।”3
प्रेम शब्द की व्यापकता इतनी अधिक है कि उसकी तुलना स्वर्ग-नरक से की गई है। डॉ. रामनरेश त्रिपाठी ने ईश्वर को प्रेम स्वरूप कहा है तथा जगत को ईश्वर का प्रतिबिंब बताया है।
आचार्य शुक्ल ने प्रेम की परिभाषा देते हुए कहा है –“वासनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था में आया हुआ राग ही वास्तव में अनुराग या प्रेम है।”4
विभिन्न विद्वानों ने प्रेम को प्रकारों में वर्गीकृत किया है। अनुभूति मूलक आनंद की दृष्टि से प्रेम को शारीरिक और मानसिक प्रेम में विभाजित किया गया है जबकि प्रकृति के आधार पर प्रेम को स्वतंत्र प्रेम और दांपत्य प्रेम में बांटा गया है।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने प्रेम को 5 भागों में विभक्त किया है 1. दांपत्य प्रेम, 2. कामसक्ति प्रेम, 3. विशुद्ध भावपरक प्रेम, 4. पातिव्रत्यपरक प्रेम,5. आध्यात्मिक प्रेम।
आध्यात्मिक प्रेम के संदर्भ में साहित्य में प्रेम के दो भेद मिलते हैं। लौकिक प्रेम से अभिप्राय वस्तुत: मानवीय अथवा सांसारिक प्रेम से है जबकि अलौकिक प्रेम में मानव परमसत्ता के प्रति प्रेम व्यंजित कर तादात्म्य स्थापित करता है। इस प्रकार प्रेम के दो रूप माने जाते हैं लौकिक प्रेम और अलौकिक प्रेम।
डॉ. बच्चन सिंह ने कहा है “अन्य जीव व वस्तुओं से हमें अगाध प्रेम हो सकता है किंतु मनुष्य और उससे इतर जीव व पदार्थ के बीच वह रागात्मक संबंध नहीं स्थापित हो सकता जो मनुष्य और मनुष्य के बीच होता है। संवेदनशीलता की आनुपातिक ढंग से व्याख्या होने के कारण वास्तविक प्रेम की प्रतिष्ठा मनुष्य और मनुष्य के बीच संभव हो सकती है।”5
आलंबन भेद के अनुसार लौकिक प्रेम दो भागों में विभाजित किया गया है– 1. समलिंगी प्रेम, 2.विषमलिंगी प्रेम
मानव जीवन में व्याप्त प्रेम साहित्य के क्षेत्र में भी एक विशेष महत्व रखता है। प्रेम की विशेषताएं भी होती हैं। 1.अनन्यता 2.तन्मयता 3.निस्वार्थ भावना 4. तीव्र अनुभूति 5. समर्पण भाव 6. आसक्ति 7. भावनात्मक वेग इत्यादि।
हिंदी साहित्य में प्रेम हर काल में देखने को मिलता है प्रेम की पीर, श्रृंगार इत्यादि वर्णन प्रेम रूपी प्रेमाख्यानकों में काफी मिलता है। आदिकाल या उससे पहले भी प्रेमाख्यानक लिखे जा रहे थे। ‘रीतिकाल’ जिसे श्रृंगारकाल भी कहा जाता है जो उपयुक्त भी है। उसकी तो प्रमुख विशेषता ही प्रेम है। हिंदी साहित्य के उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल का अपना विशेष महत्व है। आचार्य शुक्ल ने इसका समय 1700 से संवत: 1900 तक निर्धारित किया है। इस काल के काव्य का विकास रीति के आधार पर हुआ। इस काल के कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार वर्णन, रस इत्यादि का विवेचन अत्यधिक मात्रा में किया था इसी आधार पर इन कवियों के प्रेम के संबंध में क्या-क्या विचार थे इसका वर्णन करेंगे।
रीतिबद्ध काव्य में वर्णित प्रेम– रीतिबद्ध कवि वे कवि हुआ करते थे जो राजाओं को शास्त्र ज्ञान देने के साथ-साथ लक्षण ग्रंथों की भी रचना किया करते थे। ये कवि पहले संस्कृत से काव्य लक्षण या सिद्धांत का अनुवाद ब्रज भाषा में करते उसके बाद उदाहरण के रूप में कविता लिखते थे। इसी काव्यधारा को लक्षण ग्रंथ परंपरा भी कहा जाता है मध्यकाल में दरबार पर आश्रित कवियों के बड़े हिस्से में रीति या पद्धति से बद्ध काव्य रचना करने वाले कभी आते हैं। रीतिबद्ध के अंतर्गत केशवदास, मतिराम, भूषण, देव, कुलपति मिश्र, भिखारी दास, पद्माकर, श्रीपति मिश्र, ग्वाल कवि, इत्यादि को रखा जाता है। इस काल में रस ध्वनि, अलंकार, गुण, नायक – नायिका भेद आदि किसी न किसी काव्यशास्त्रीय नियम को लक्षणबद्ध करते हुए उसी के अनुरूप या स्वतंत्र रूप से काव्य रचना की एक परंपरा सी चल पड़ी थी। जिसका निर्वाह करना प्रत्येक कवि ने अपना कवि कर्म समझ लिया था यही कारण है कि उस युग की अधिकतर रचनाएं किसी न किसी रीति पर आधारित हैं। रीतिबद्ध कवियों ने नारी के सौंदर्य को अपने काव्य सृजन में बहुत प्रमुखता के साथ स्थान दिया।
जब रीति काव्य आरंभ हुआ था, तब देश पर मुगल बादशाहों का आधिपत्य हो चुका था। अधिकांश राज्य उनकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे। उन दिनों युद्ध आदि बहुत कम हो गए थे। इस कारण कवियों में श्रृंगार और विलास का प्राधान्य हो गया था। भक्ति काल के भक्त कवियों ने भी श्रृंगार रस का वर्णन किया था, परंतु रीति काल में वह श्रृंगारिक भक्ति श्रृंगार ही रह गई थी। प्राय: सभी रीतिबद्ध कवि दरबारों में रहते थे। जो दरबारी कवि नहीं थे वह भी समय-समय पर दरबारों में आया जाया करते थे। अतः सभी कवि अपने अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए कविता की रचना में लगे हुए थे, इन कवियों ने आश्रयदाता की मिथ्या प्रशंसा में अपने पांडित्य का खूब प्रदर्शन किया। कल्पनाओं की अधिकता, अलंकारों की प्रधानता, सौंदर्यमय श्रृंगार, सूक्तियों की बहुलता, सरलता, तथा उक्ति वैचित्र्य आदि इस काल की मुख्य विशेषताएं थी। रीतिबद्ध कवि प्रेम का वर्णन ऊहा और काल्पनिक आधार पर करते थे रीतिबद्ध कवियों के प्रकृति प्रेम की बात करें तो रीति कवियों ने प्रकृति चित्रण पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। उपदेशात्मक और वस्तु परिमाणात्मक रूप में थोड़ा बहुत चित्रण मिलता है लेकिन प्रकृति के स्वतंत्र अस्तित्व की तरफ वे प्राय: उदासीन ही रहे। रीति कवियों ने प्रकृति के उपकरणों के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त किया है रीतिबद्ध कवियों ने सामान्यतः प्रेम का चित्रण सर्वाधिक किया है रीति कवियों के प्रेम का स्वर बहुत गंभीर, व्यापक और शुद्ध होते हुए भी काव्य में उसी रूप में मुखर नहीं हो पाया है।
डॉ. नगेंद्र का कथन है “रीति काव्य में गंभीर जीवन दृष्टि का अभाव था उसके श्रृंगार में प्रेम की एकनिष्ठता न होकर विलास और रसिकता का प्राधान्य था।”6 रीति कवियों का प्रेम रूप से उत्पन्न होता है इसमें सर्वाधिक सहायक नेत्र रहे हैं। नायक नायिका एक दूसरे के सौंदर्य पर आसक्त रहते हैं। इस प्रकार इन कवियों का संपूर्ण प्रेम व्यापार शारीरिक सौन्दर्य पर आधारित है। समाज के नियमों और मर्यादाओं को तोड़कर नेत्र बार-बार प्रिय को निहारते रहते हैं। रीतिबद्ध कवियों ने हाव भाव विलास आदि चेष्टाओं का वर्णन अपने काव्य में किया है। सौंदर्य की वृद्धि में जिन वस्तुओं और आभूषणों का प्रयोग होता है। उनकी आभा और कांति का वर्णन भी रीतिबद्ध कवियों ने अपने काव्य में किया है।
रीतिबद्ध कवि नायिका की आँखों की क्रियाओं, चकपकाहट मौन, आंतरिक व्यथा की अभिव्यक्ति करते हैं। मतिराम ने नायिका की बाट देखने की प्रक्रिया में आँखों में जो चकपकाहट भर जाती है उसका बिंब अपने काव्य में वर्णित किया है।
रीतिकवियों के बारे में प्रेम संबंध में स्पष्ट रूप से यही कहा गया है कि प्रेम के संबंध में इन कवियों का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। प्रेमी पहले सौंदर्य पर आकर्षित होता है फिर वह रूप पर मुग्ध हो जाता है। रीतिकवियों के प्रेम में वासना का प्राधान्य तो है परंतु वह धीरे-धीरे प्रेम के भीतर प्रवेश कर जाता है। नायक नायिका प्रसंगों के माध्यम से रीतिबद्ध कवि प्रेमी प्रेमिकाओं के आपसी संबंधों को रेखांकित कर रहे थे प्रेम संबंधों में हमें ज्यादा ताजगी और जीवंतता मिलती हैं परंतु यह प्रेम संबंध उतने ही अस्थिर हैं।
रीति कवियों के यहां पर प्रेमियों के शारीरिक प्रेम का वर्णन तो हुआ ही है साथ ही आंतरिक प्रेमभाव का भी सुंदर एवं मार्मिक वर्णन हुआ है। इस प्रकार प्रेमियों की अंतर्दशा का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण करने में कवि पर्याप्त सक्षम सिद्ध हुए हैं। उदाहरण के लिए नायक (कृष्ण) के रूप, गुण की प्रशंसा सुनने मात्र से नायिका (राधा) के मन में अनुराग का अंकुर पैदा होता है उससे राधा की मनोदशा का कवि देव ने सुंदर चित्रण किया है।
रीतिकवियों के काव्य में प्रेमियों के प्रेम वर्णनों में कहीं–कहीं उच्छृंखलता भी मिलती है। निम्नलिखित उदाहरण में किसी अन्य स्त्री में अनुरक्त प्रेमी का प्रेम वस्तुतः उपभोग्य वस्तु के प्रति आकर्षण मात्र है।
रीतिकवियों ने दांपत्य प्रेम का काफी वर्णन किया है। रीतिकवियों के दांपत्य प्रेम के अंतर्गत आत्मसमर्पण की भावना को प्रमुख रूप से लक्षित किया गया है। नायिका पति के सुख से सुखी और दु:ख से दु:खी रहती है। बिना पति के पत्नी अपूर्ण और निष्प्राण है।
डॉक्टर बच्चन के अनुसार– “पति पत्नी का संबंध केवल भावनामूलक नहीं है बल्कि इसके पीछे गहन सामाजिक उत्तरदायित्व क्रियाशील रहता है। पत्नी का प्रेम इन दोनों स्त्रोतों से जल ग्रहण करता हुआ कभी शुष्क नहीं होता। रीतिबद्ध कवियों की नायिका का पति अन्य स्त्रियों से भी प्रेम करता है। निम्नलिखित पद में नायिका की इसी विवशता का वर्णन हुआ है। नायिका का पति किसी अन्य स्त्री के साथ रात बिताकर लौटा है अत: नायिका अपने दुःख को प्रकट करने में असमर्थ है फिर भी नायक अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से नायिका का ध्यान अपने अपराध से हटाना चाहता है।
यहां पर नायिका अपने पति से कह रही है हमारा सिद्धांत यही है कि पति प्रेम का निर्वाह मरणोपरांत भी करना चाहिए अत: कुपथ गमन का आभास हो तो समझाने बुझाने से काम लेना चाहिए। फिर नायक पूछता है कि फिर मुख की कांति इतनी फीकी क्यों है? आंखों में आंसू क्यों भर रहे हैं? गला क्यों भरभरा रहा है? नायिका अपने संपूर्ण पीड़ा को व्यंग्य में मिलाती हुई जवाब देती है कि आज आपकी छवि में विशेष माधुर्य दिख रहा है जो इतना अधिक है कि मेरी आँखें उसे पीते पीते अघाती नहीं और वह पूरा पिया ना जा सकने के कारण आंखों में समा कर बाहर फैलने लगा है।
रीतिबद्ध कवियों ने अपने काव्य में यद्यपि अपने युग की सभी प्रमुख काव्य प्रवृत्तियों का समाहार किया है तथापि उनकी प्रवृत्ति प्रेम चित्रण में विशेष रुप से रमी है। प्रेम चित्रण में कवियों ने स्त्री पुरुष के मध्य आकर्षण जनित प्रेम चाहे प्रेमी प्रेमिकाओं का हो अथवा पति पत्नी का, दोनों रूपों में प्रेम चित्रण को पूर्ण मनोयोग के साथ प्रस्तुत किया है। प्रेम के संयोग वियोग पक्ष की विविध अवस्थाओं का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चित्रण करने में ये रीतिबद्ध कवि अद्वितीय सिद्ध हुए हैं।
रीतिसिद्ध काव्य में वर्णित प्रेम– रीतिकाल का काल विभाजन करते समय रीतिकाल की समय सीमा में काव्य रचना करने वाले कवियों की खोजबीन करने के उपरांत आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिग्रंथकार और अन्य कवि के रूप में दो ही श्रेणियां निर्धारित की थी। उन्होंने रीतिसिद्ध जैसा कोई वर्गीकरण रीतिकाल के अंतर्गत नहीं किया। परंतु विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिग्रंथकार कवियों से अलग विशेषता रखने वाले कवियों को रीतिसिद्ध कवि की श्रेणी में रखा। इस तरह रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त के रूप में वर्गीकरण किया गया जो सर्वमान्य हो गया। रीतिसिद्ध कहने के पीछे भाव यह भी था इन कवियों ने भले ही लक्षणग्रंथों की रचना नहीं की लेकिन उनकी काव्य रचना में रीतिबद्धता के सभी गुण विद्यमान हैं। रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों में वैसे तो कोई खास अंतर परिलक्षित नहीं होता। यदि कोई अंतर है तो वह यह है कि जहाँ रीतिसिद्ध कवि केवल काव्य रचना में लगे होते थे वही रीतिबद्ध कवि काव्य रचना के साथ-साथ पांडित्य प्रदर्शन करते हुए लक्षण ग्रंथ की भी रचना करते थे।
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने कहा है– “जिन्होंने लक्षण ग्रंथ तो नहीं लिखे पर जिनकी रचना पूर्णत: रीतिबद्ध है ऐसे कवि वस्तुतः लक्षणों को पदबद्ध करने का फालतू बखेड़ा अपने सिर पर ओढ़ना नहीं चाहते थे, रीति की सारी जानकारी का उपयोग अवश्य करना चाहते थे। यह चाहते थे कि लक्षण रूप में प्रस्तुत रचना की अपेक्षा अपनी कृति में अधिक कसावट रखी जाए, बिहारी, रसनिधि, आदि इस प्रकार के कवि हैं”11 रीतिसिद्ध कवियों की श्रेणी में बिहारी, पृथ्वी सिंह ‘रसनिधि’, कृष्ण कवि, नेवाज, हठी जी, बेनी वाजपेयी पजनेस, भागीरथ मिश्र इत्यादि नाम प्रमुख है। बिहारी रीतिसिद्ध कवि की श्रेणी में प्रमुख रूप से रखे जाते हैं।
बिहारी की एकमात्र रचना बिहारी सतसई है जिसमें 713 दोहे हैं बिहारी सतसई श्रृंगार प्रधान रचना है। इसी प्रकार कवि बिहारी की गणना श्रृंगारी कवियों में की जाती है। रीतिबद्ध कवियों की भांति रीतिसिद्ध कवि बिहारी भी अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने अथवा उनके दरबार में आश्रय पाने के लिए एक से एक श्रृंगारिक रचनाएं लिखा करते थे। एक बार जब राजा जयसिंह अपनी नवोढ़ा पत्नी के प्रेम में इतना डूब गए थे उन्होंने राजकाज की चिंता भी छोड़ दी थी। ऐसी स्थिति में बिहारी को पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता परिणामस्वरूप बिहारी की चतुर स्त्री ने बिहारी को लिखकर यह दोहा भेजा।
रीतिसिद्ध कवियों का प्रेम भी रूप से उत्पन्न होता है। इसमें सर्वाधिक सहायक नेत्र रहे हैं। नायक नायिका एक दूसरे के प्रेम पर आसक्त रहते हैं। इस प्रकार इन कवियों का संपूर्ण कर्म व्यापार शारीरिक सौंदर्य पर आधारित है। समाज के नियमों और मर्यादाओं को तोड़ कर नेत्र बार-बार होने वाले लगते हैं–
“जस अपजस देखत नहीं, देखत सांवल गात,
कहा करौ लालच भरे, चपल नैन चल जात।”13
रीतिसिद्ध कवियों के अनुसार प्रेम केवल रसिको के लिए है। अरसिक तो पशु तुल्य है। कवि बिहारी के शब्दों में प्रेम की परिकल्पना अत्यंत गंभीर उत्कृष्ट एवम विशाल है।
अर्थात् प्रेम पयोधि इतना गहरा है कि जिसमें पहाड़ों से भी ऊँचे रसिकों के हजारों मन डूब जाते हैं किंतु उसकी थाह नहीं पाते। इसके विपरीत नर पशु, प्रवृत्ति वाले पुरुष (मनुष्य) उसे एक ऐसा पगार अर्थात छोटा सा गड्ढा समझते हैं जिसे अनायास वार किया जा सकता है।
रीतिमुक्त काव्य में वर्णित प्रेम– रीतिकाल की परिधि और उसकी समय सीमा के भीतर काव्य रचना करने वाले वे कवि जो परंपरागत रीति काव्य रचना से उल्टा स्वच्छंद रूप से काव्य अभिव्यक्ति कर रहे थे रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि कहे जाते हैं। रीतिमुक्त का अर्थ ही यही है कि हर तरह की रीति से मुक्ति। एक ऐसी काव्यधारा जो स्वच्छंद हो, जो कवियों के अन्तःकरण से प्रेरणा लेकर उन्मुक्त भाव से प्रभाहित हो रही हो थी। रीतिमुक्त कवि किसी रीति से बंधे नहीं थे जो सिर्फ अपनी बात रखते थे उन्हें रीतिमुक्त कहा गया। जिन्होंने ना तो कोई लक्षण ग्रंथों की रचना की और ना ही किसी लक्षण ग्रंथ से बंध कर कोई रचना की। रीतिमुक्त काव्य धारा के अंतर्गत आलम, घनानंद, बोधा, ठाकुर, द्विजदेव इत्यादि है।
रीतिबद्ध कवियों की भांति इनका प्रेम ना तो काम की क्रीड़ा है और ना ही प्रेम का कलात्मक चित्रण। इनका प्रेम आत्म समर्पण का भाव लिए हुए हृदय की प्रत्येक धड़कन में प्रेम की मधुर टीस लिए हुए है। जहाँ पर किसी भी तरह का कपट और चातुर्य को स्थान नहीं है। प्रेम के सरल मार्ग का वर्णन घनानंद ने इस प्रकार किया है।
रीतिमुक्त कवियों का मुख्य विषय प्रेम है इनका प्रेम रसानुभूत प्रेम है। एक निष्ठा पर आधारित इनका प्रेम रीति कवियों के प्रेम से भिन्न है। इस धारा को स्वच्छंद काव्यधारा भी कहा जाता है। इनकी प्रेम निवेदन की तीव्रता, ताजगी, आंतरिकता, पीड़ा, इनकी सहज प्रतिभा का विलास है। इस धारा के कवि प्रेम मार्गी थे। इन कवियों ने सभी मर्यादाओं, परंपराओं की अवहेलना की। इन कवियों का प्रेम संबंधी दृष्टिकोण शरीरी और माँसल ना होकर सूक्ष्म और भावात्मक था।
डॉ. मनोहरलाल गौड़ ने कहा है– “इनका प्रेम केवल नारी के स्थूल शारीरिक सौंदर्य तक सीमित नहीं रहा। वह ईश्वर पर्यंत ऊँचा उठा और समस्त विश्व का प्रेम इस शरीरोत्थ ईश्वरपर्येवासायी प्रेम में समाने लगा। यह दृष्टि की व्यापकता थी। मानस संसर्द की रमणीयता के कारण इनके काव्यों में अश्लील मुद्राएं, अश्लील चेष्टाएं या रूप सौंदर्य के खुले चित्रण नहीं मिलते।”16
जहाँ इनके काव्य की प्रेरणा इन की प्रेमिकाएँ हैं वहीं इन प्रेमिकाओं से किया गया प्रेम इनके जीवन की प्रेरणा है। प्रेम के रंग में रंगे यह कवि प्रेम पर बैकुंठ को भी वार देते हैं। इन कवियों ने प्रेम को हृदय की शुद्ध निश्चल भाव धारा माना है। इनके प्रेम की सच्चाई, अन्नयता, एकनिष्ठता प्रेम के उदात्त स्वरूप का वर्णन करते हैं। इन कवियों का प्रेम एक पक्षीय प्रेम है। एकपक्षीय प्रेम वह प्रेम होता है जिस प्रेम में प्रेमी प्रिय को जितना चाहता है उतना प्रिय प्रेमी को नहीं चाहता फिर भी अपनी प्रिय से निस्वार्थ भाव से प्रेम करता है। उसे इस बात का जरा सा भी खेद नहीं होता। वह इस बात की परवाह किए बिना अपने प्रेम का निर्वाह करता है।
इन कवियों ने विरह की वेदना को सहज करके भी घर–बाहर लोक–परलोक की भी परवाह नहीं की। विरह का हलाहल हंसते-हंसते पीने वाले यह कवि कंटाकाकीर्ण मार्ग पर पग छिलने से घबराए नहीं अपितु ऊर्जा अर्जित की। यह तो अभिमानपूर्वक अपने इसी मार्ग की प्रशंसा और सफलता का वर्णन करते हैं।
रीतिमुक्त कवियों के प्रेम में स्वछंदता की प्रधानता है और पारिवारिकता का अभाव है। इन्होंने लोक लाज कुल मर्यादा को छोड़कर उन्मुक्त प्रेम को अपनाया है। रीतिमुक्त कवियों के प्रेम की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें प्रेमी की लघुता और प्रिय की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। प्रेमी प्रिय के समक्ष अपने आपको दीन हीन एवं निरीह मानता है और अपनी तुलना में प्रिय को प्रत्येक दृष्टि से उत्कृष्ट मानता है। इसी से प्रेम की अनन्यता का रूप भी परिलक्षित होता है।
रीतिकाल के रीतिमुक्त कवियों ने प्रकृति के प्रति विशेष रूप से प्रेम का प्रकाशन नहीं किया। ये कवि अपने लौकिक प्रेम में इस प्रकार निमग्न रहे कि प्रकृति के स्वतंत्र अस्तित्व की ओर इनका ध्यान ही नहीं गया। यद्यपि इन कवियों ने नायक नायिका के मिलन के अवसर पर पृष्ठभूमि के रूप में प्रकृति का मधुर वर्णन किया है।
रीतिमुक्त कवियों ने प्रेम में मस्त होकर कृष्ण की लीला का गान किया इसलिए स्वाभाविक रूप से कहीं–कहीं प्रकृति ने उद्दीपन का कार्य किया है। जिससे कृष्ण का रूप सौंदर्य प्रकृति के सान्निध्य के कारण और भी प्रभावोत्पादक प्रतीत होता है।
कवि बोधा ने वर्षा ऋतु की काली–काली घटाओं दादुर मोर और पपीहे की ध्वनियों से विहरणी के हृदय को अस्थिर और उद्विग्न होते दिखाया है।
रीतिमुक्त कवि ठाकुर ने बसंत ऋतु में प्रकृति के सौंदर्य के प्रणयोउद्दीपनकारी रूप का काव्यात्मक चित्रण भी किया है। रीतिमुक्त कवि स्वभाव से सौंदर्य प्रेमी हैं। इनके काव्य में साधारण प्रेमी प्रेमिकाओं के माध्यम से मानवीय प्रेम का सुंदर मिश्रण मिलता हुआ है। इन कवियों ने साधारण नायक नायिकाओं को प्रेमियों के रूप में चित्रण किया है परंतु ऐसे वर्णनों में उनके प्रेम का आलंबन राधा कृष्ण और गोपियां हैं।
रीतिमुक्त कवियों के कृष्ण घोर श्रृंगारी हैं। यही कारण है कि कहीं-कहीं कृष्णा रसिक रूप में भी चित्रित हुए हैं। रीतिमुक्त कवियों की नायिका काल्पनिक नायिका ना होकर खुद की नायिका है जिससे वह प्रतिदिन देखते हैं। कवि घनानंद ने अपनी प्रेमिका सुजान के सौंदर्य को नित्य परिवर्तनशील कहा है यह कवि की नायिका काल्पनिक ना होकर खुद की लौकिक प्रेयसी है। बोधा ने भी प्रेमिका सुभान के रस और सौंदर्य अतिशयता का वर्णन किया है। ये तो अपनी प्रेमिका की मुस्कुराहट पर कितने ही इंद्र पद निछावर करने को तैयार हैं।
जिस प्रकार घनानंद अपनी प्रेमिका के पैरों तले पड़े रहने में खुश हैं उसी प्रकार बोधा भी अपनी प्रेमिका के पैरों में पड़े रहना चाहते हैं।
रीतिमुक्त कवियों ने प्रेमी प्रेमिकाओं के प्रेम भाव चित्रण में मानवीय प्रेम की अन्तःवृत्तियों का सूक्ष्म चित्रण किया है। रीतिमुक्त कवि घनानंद ने पतिव्रता नायिका का वर्णन किया है।
कभी ठाकुर ने भी काव्य में पतिव्रता नायिका का वर्णन बखूबी किया है।
रीतिमुक्त कवियों का प्रेम भावनात्मक प्रेम है। इन कवियों के काव्य में मिलन संबंधी प्रसंगों में भी शारीरिकता गंध नहीं आ नहीं पाई। यद्यपि इन कवियों ने साधारण नारियों से प्रेम किया था। इन कवियों में घनानंद ने राज दरबार में नृत्य करने वाली वैश्या से प्रेम किया, आलम ने रंगरेजिन से और ठाकुर ने किसी सुनारिन से प्रेम किया परंतु अपने प्रेम में पाई असफलता आध्यात्मिक प्रेम की ओर लाकर खड़ा कर दिया।
रीतिमुक्त काव्य धारा के कवियों की विशेषता यही है कि वह मनोंवेगों के प्रवाह में बहे हैं। अतः इनके काव्य में प्रेम की जीवंतता, स्वच्छंदता का समावेश है वह नायिका के स्थूल सौंदर्य तक ना होकर ईश्वर पर्येवासायी हो गया है। इन कवियों के काव्य में कृत्रिमता का अभाव है।
निष्कर्ष : अंत में निष्कर्ष के तौर पर मैं इतना ही कहूंगी कि जहाँ रीति सिद्ध और रीतिबद्ध कवियों का प्रेम नख शिख वर्णन शारीरिक और मासँल होते हुए अध्यात्मिक है वहीं रीतिमुक्त कवियों का प्रेम एकनिष्ठ और अध्यात्मिक है। अत: रीतिकाल में भी प्रेम का वर्णन रीतिकालीन कवियों ने बखूबी किया है। रीतिकालीन कवियों ने प्रेम के विभिन्न रूपो, प्रकारों आदि का विवेचन अपने काव्यों में बखूबी किया है। रीतिकाल जिसे श्रृंगारकाल भी कहा गया है में श्रृंगार के साथ प्रेम का विवेचन भी है।
संदर्भ :
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2. रामचंद्र वर्मा : मानक हिंदी कोश भाग 3, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, सन 1964, पृष्ठ संख्या 665
3. पं. परशुराम चतुर्वेदी : हिंदी काव्य धारा में प्रेम प्रवाह, किताब महल, 1952, पृष्ठ संख्या 1
4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल : सूरदास, नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, संवत 2026, पृष्ठ संख्या 137-138
5. डॉक्टर बच्चन सिंह : रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना, लोक भारती प्रकाशन, 2005, पृष्ठ संख्या
6. डॉ नगेंद्र : देव और उनकी कविता, गौतम बुक डिपो, 2019, पृष्ठ संख्या 103
7. डॉ. बच्चन सिंह : हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1996, पृष्ठ संख्या 196
8. देव : रसविलास, पद 77, पृष्ठ संख्या 23
9. संपादक डॉ रामानंद शर्मा, ग्वाल कवि, रसरंग सप्तम उमंग, रामपुर रजा लाइब्रेरी, 2006, छंद संख्या 24
10. संपादक लक्ष्मी निधि चतुर्वेदी, देव, भाव विलास, तरुण भारत ग्रंथावली प्रयाग, संवत 1991, पद 46
11. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : घनानंद कवित्त, वाणी वितान प्रकाशन वाराणसी, 2016, पृष्ठ संख्या 1-2
12. संपादक रामलोचन शरण बिहारी, टीकाकार रामवृक्ष बेनीपुरी, बिहारी सतसई(सटीक), पुस्तक भंडार, पृष्ठ संख्या 106, दोहा 268
13. वही, पृष्ठ संख्या 94, दोहा 237
14. वही, पृष्ठ संख्या 248, दोहा 618
15. डॉक्टर बच्चन सिंह : रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना, लोक भारती प्रकाशन, 2005, पृष्ठ संख्या 229
16. डॉ. मनोहर लाल गौड़ : घनानंद और स्वच्छंद काव्यधारा, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, 2015, पृष्ठ संख्या 242
17. रसखान, सुजान, सवैया 50
18. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : बोधा ग्रंथावली, नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 1974, पृष्ठ संख्या 6, सवैया 30
19. वही पृष्ठ संख्या 6, सवैया 31
20. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : घनानंद ग्रंथावली, वाणी वितान बनारस, पद 1053
21. लाला भगवानदीन : ठाकुर ठसक, साहित्य सेवक कार्यालय काशी, 1926, पृष्ठ संख्या 39 पद 159
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9. संपादक डॉ रामानंद शर्मा, ग्वाल कवि, रसरंग सप्तम उमंग, रामपुर रजा लाइब्रेरी, 2006, छंद संख्या 24
10. संपादक लक्ष्मी निधि चतुर्वेदी, देव, भाव विलास, तरुण भारत ग्रंथावली प्रयाग, संवत 1991, पद 46
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