( ‘फाँस’ उपन्यास के लेखक संजीव जी से जितेंद्र यादव की बातचीत )
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1 - ‘फाँस’ उपन्यास लिखने का विचार कब और कैसे आपके मन में आया था?
फाँस उपन्यास जो है, किसानों के आत्महत्या की खबर जो है, वह छिटपुट-छिटपुट आ रही थी। उन दिनों मैं एक पत्रिका का संपादन कर रहा था। उस पत्रिका का नाम मंथन था। उसमें जो किसान है, मैंने सोचा कि एक जायज़ा लिया जाए कि भारत के किसान, जो भिन्न-भिन्न अंचलों में कैसे काम कर रहे हैं? उनकी क्या समस्याएँ हैं? हालांकि पूरी तरह से मेरा अभियान सफल नहीं हुआ। दो-चार मिले लेकिन ज़्यादा नहीं। बीज के रूपों में भारतीय किसानों की अवस्था उनकी आत्महत्या के रूप में शुरू हो चुकी थी। मैं वहाँ लेखक के रूप में पहुँचा वहाँ मुझे कुछ समस्याएँ समझ में आई। मेरे साथ कुछ लड़के-लड़कियाँ भी साथ थे। विदर्भ के किसानों की आत्महत्या की समस्या जब हमारे सामने आई तो मैंने सोचा कि क्यों न इस विषय पर कुछ काम किया जाए। उनके जितने ज़िले हैं उनमें से आधे से ज़्यादा ज़िलों को कवर किया। हमारे सामने कई सारी समस्याएं आईं, उस घटना को कवर करते समय लेकिन मैं अपने अभियान पर डटा रहा।
2 - आप विदर्भ में किसान आत्महत्या का बड़ा कारण क्या मानते हैं?
वह तो मैंने उपन्यास में लिखा ही है। मूलतः वह सूखा प्रदेश है और खाद, बीज और पानी की समस्याएँ। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया समस्याएँ बढ़ती गईं। सरकारी तंत्र ढंग से काम नहीं कर रहे थे।
3 - आपका उपन्यास पढ़कर ऐसा लगा कि विदर्भ क्षेत्र में अंधविश्वास भी खूब है, जबकि ऐसा कहा जाता है कि महाराष्ट्र में जागरूकता अधिक है और अंधश्रद्धामूलक समिति वहाँ काम भी करती है फिर ऐसा क्यों है?
जागरूकता का काम जो है वह अलग-अलग रूप में कम्युनिस्ट पार्टियाँ और कुछ संस्थान कर रहे थे। छिटपुट-छिटपुट काम हो रहे थे। लेकिन ये करके उनकी स्थितियों को स्पष्ट नहीं किया गया था। मैं लगभग उन सभी लोगों से मिला। ब्राह्मणवाद सीधे-सीधे अपने कई रूपों में पूरे भारत वर्ष में हमारे सभ्यता को, हमारी संस्कृति और किसानों की स्थिति को, सीधे-सीधे खा रही है और इसका ज़िम्मेदार ब्राह्मणवाद है और अंधविश्वास जा नहीं रहा है। हमारे देश का अभिशाप है कि ब्राह्मणवाद का ही शोषण हर जगह अभिव्याप्त है। ग़रीबी, भूखमरी और बदहाली है लेकिन उसमें कोढ़ में खाज की तरह ये ब्राह्मणवाद भी है। मोहन बाघमारे जो हैं, अपनी ग़रीबी की स्थितियों से तबाह है और उसके साथ-साथ उन्हें ये अंधविश्वास भी ढोना पड़ता है। तंज कसने के लिए ब्राह्मणवाद का तंज है कि अगर तुम्हारे द्वार पर कोई गाय मरी है तो इसके तुम जिम्मेदार हो और उसे गाय बनकर भीख माँगनी पड़ती है। आप सोच सकते हैं कि कितना नृशंस अत्याचार है।
4 - फ़ांस उपन्यास पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि कुछ पात्र वास्तविक जीवन से लिए गए हैं, यह कितना सही है?
कुछ पात्र तो लिए गए हैं, उपन्यास लिखते समय हमारे जो नेता हैं उनके वास्तविक काम को दिखाता है। मैं 1993 में प्रतिभा पाटिल के इलाके में गया, वहाँ भी स्थिति वैसी ही थी। वहाँ साहूकार का मामला था। कर्ज़ लिया और कर्ज़ दे नहीं पाया, ये विकट समस्या थी। साहूकार जो कर्ज़ देते थे और वह दस महीने में ही दुगुना हो जाता था। ये भयंकर स्थिति थी वहाँ, लेकिन सरकार का इसपर कोई ध्यान नहीं था। राहुल गाँधी और मनमोहन सिंह गए थे वहाँ लेकिन एक तरह से जो पूरा देश और तंत्र चल रहा है कुछ को दे देते हैं और कुछ सब्र करो। लेकिन उससे क्या होता है उससे तो कुछ नहीं होता है। किसानों को कुछ भी खैरात में नहीं चाहिए। कोई भी सरकार हो किसानों की स्थिति खराब ही है, कहीं कोई सुनवाई नहीं है, जैसे-तैसे बस चल रहा है। वह मरे या चाहे जो हो उनका। किसानों के सामने घुट-घुटकर मरने की स्थिति आ गई है। वह गए खेत में बैल लेकर, बैल तो चले आए लेकिन वह नहीं आए! वह कहीं पेड़ पर लटका हुआ है। वह इस नारकीय ज़िंदगी से और अपने बच्चों के ऊपर इतना बड़ा कर्ज़ लादकर जा रहे हैं तो ये हमारी जिम्मेदारी है, इस कर्ज़ का जिम्मेदार मैं हूँ। भावुकता का क्षण आता था भावुकता का क्षण ये है कि कब तक ये चलेगा? ये तो चुकाएंगे नहीं, न दें, तो खाएंगे क्या? बीटी बीज जो विदेशी बीज है, एक बार कपास लग गया तो आप उसे दूसरी बार इस्तेमाल नहीं कर सकते। वह दूसरी बार फल नहीं देगा। ये जो हमारे कृषि मंत्री, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और सब नेता, ये किसानों की कुछ नहीं सुनते थे। किसान असहाय थे तो मौत को ही वह चुनते थे, अगर जी नहीं सकते तो वह मौत को चुनते थे।
5 - विदर्भ क्षेत्र में किसानों की समस्या इतनी दयनीय और जटिल होने के बाद भी कोई संगठित आंदोलन नहीं दिखाई देता?
संगठित आंदोलन सीपीएम और अन्य कम्युनिस्ट पार्टियाँ कर रही थी लेकिन वह भी संगठित आंदोलन नहीं था। संगठित आंदोलन का मतलब पार्टियाँ उस तरह से साथ नहीं आ रही थी। उपन्यास में जो लिखा है वह लगभग-लगभग सच है, ग़रीबी और धोखा! सरकार जो है उन लोगों का पोषण कर रही थी जो ऐसा कर रहे थे, इन लोगों के लिए कोई निज़ाम ही नहीं था।
6 - दिल्ली में 2020 के किसान आंदोलन पर आपके क्या विचार हैं?
आंदोलन तो इधर कुछ सालों में छिटपुट रूप में शुरू हुए हैं लेकिन उनका जो आउटपुट है, वही बता रहा है कि सरकार बिलकुल बेपरवाह है। सच पूछा जाए तो एक ऐसा आंदोलन चाहिए जो इन पूँजीपतियों और सूदखोरों पर नकेल कसे। इनको बंद कर दे। ऐसा नहीं हो पाया इसीलिए ये निश्चिंत हैं। ऐसा होना चाहिए था। एक कविता है-
एक बस्ती में मुझसे सवाल पूछा गया कि हम क्या करें? ये असहायता है। व्यक्ति का सवाल जुड़ता गया इसमें। जो डॉक्टर थे वह भी इनका शोषण करते थे। जिनका कोई माई-बाप नहीं है उनके साथ जो मन वह करो। कमज़ोर लोकतंत्र शासन इसका जिम्मेदार है। शराब पीकर वह लोग पड़े हुए हैं और उस शराब से लोगों की मृत्यु भी हो जाती है लेकिन सरकार का इसपर भी ध्यान नहीं है, तब काहे की सरकार है? आंदोलन छिटपुट होते हैं, जबकि आंदोलन संगठित होने चाहिए, जो नहीं हो पाते हैं। इसीलिए तो आज किसानों का शोषण है, छात्रों का शोषण है, बेरोजगारों का शोषण है और जातिवाद है। दिल्ली का आंदोलन कुछ हद तक सकारात्मक रहा, कम से कम लोगों में जागरूकता आई। जिनके पास ज़मीन है वह किसान हैं, जिनके पास जमीन नहीं है, वह अलग किसान हैं। माने कृषक मज़दूर अलग इकाई है। कृषक वह है, कई एकड़ ज़मीन जिनके पास है अलग इकाई है। वहाँ विकट स्थिति कई और कारणों से भी हो रही है। 300 रुपए किसान को मज़दूरी मिलती है। उसमें क्या हुआ कि कपास की बुवाई में उनके घर में चार सदस्य हैं तो उनको 300-300 यानी कि उनको 1200 मिल रहे हैं। लेकिन जिनकी ज़मीन है वह 1200 में ही निबाह करते हैं। जिनको लक्ज़री नहीं है। 1200 रुपया एक तरफ़ और किसान का जो सब ख़त्म हो रहा है वह एक तरफ़। जो किसान थे वह ग़रीबी में चले जा रहे थे और जो मज़दूर थे उनको लाभ था। बड़ी अजीब-सी स्थिति थी। शराब की भूमिका और महाजनों के शोषण की भूमिका अलग थी। एक किसान को कितनी चीज़ें बेच रही हैं, गला दबा रही हैं इनका। अंधविश्वास पूरे भारत की समस्या है। वह यहाँ पैर गाड़कर बैठा हुआ है। इसको ख़त्म किए बिना कुछ नहीं हो सकता। नरेन्द्र दाभोलकर थे उन्होंने अंधश्रद्धामूलक कई संस्थान बनाए, कानून बनवाए। इनको सनातनों ने मरवा दिया। सनातनपंथी किसके साथ हैं? वह अंधविश्वासों के साथ हैं, और सारे अंधविश्वास फैलाने वालों का क्या करें। जनता तो मूर्ख है।
7- कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में किसान आत्महत्या उतनी संख्या में नहीं करते हैं जितनी कि महाराष्ट्र में, इस पर आपका क्या कहना है?
इसका कारण है | अगर आपको पेट भर भोजन न मिले, ज़रूरत की चीज़ें न मिले तो परेशानी होती है। उत्तरप्रदेश और बिहार के किसान सम्पन्न नहीं हैं वह तो और भी ग़रीब हैं। लेकिन कुछ स्थानीय कारण भी होते हैं। वह रोज़गार के लिए दूसरी जगहों पर चले जाते हैं। बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, पंजाब या अन्य जगहों पर जाकर कमाते हैं। ये एक विकट समस्या है। बहुत ज़्यादा घालमेल है और कुल मिलाकर स्पष्ट लीक नहीं है। सरकार की उदासीनता, शराबखोरी, अंधविश्वास, धार्मिक शोषण, ये सब है और इन जगहों पर अभी तक जाति-व्यवस्था और अंधविश्वास ने उधम मचाया हुआ है। कोरोना काल में महिलाएँ कोरोना माई की पूजा कर रही थीं। यहाँ इतना ज़्यादा अंधविश्वास और भाग्यवाद है कि राम का नाम लो सब ठीक हो जाएगा।
8 - समकालीन समय में हिंदी में किसान जीवन पर उपन्यास गिने-चुने ही दिखाई देते हैं, ऐसा क्यों है?
साहित्य का जो अभियान है आज, ये कौन लोग हैं? ये बड़े किसान के बेटे-बेटियाँ हैं। ये ऐसे लोग हैं जिनकी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। ये आत्महंता प्रवृत्ति है लोगों में। अंबेडकर ने भी कहा था कि शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो। लेकिन कहाँ है ऐसा! सब लेखक आराम से खा-पी रहे हैं। आंदोलन बहुत बड़ी चीज़ होती है। सब बिखरे हुए हैं। सबको एकजुट करके आगे ले जाना एक बड़ी चुनौती है।
9 - किसानों को लेकर और भी कोई उपन्यास लिखने की योजना है?
नहीं! अब मैं शारिरिक रूप से थक गया हूँ। एक उपन्यास लिखते-लिखते 10-12 साल लगे मुझे। उसका निदान भी उसमें प्रस्तुत है। एक इलाका था गढ़चिरौली। गढ़चिरौली में बहुत पुराने-पुराने पेड़ थे। आदिवासी लोगों ने अपने ढंग से एक संस्था बना डाली थी। मैंने देखा एक गाँव में किसान ही अपना सब कुछ करते थे। उनकी समस्याओं का निदान तो है लेकिन उसके पीछे मनुष्य की जो प्रवृत्ति है वह उनको उस आंदोलन को छाया तक नहीं दे पाते। गाँधी जी का जो आंदोलन था, उनकी समिति थी, वह दूसरे ढंग से काम करती थी। आप एक तरफ न्याय-संगत तरीके से बात करिए और दूसरी तरफ़ लूट-खसोट करने वाले भी लोग हैं। सरकार जब खुद दबाने का काम करेगी तो क्या होगा? अच्छा आंदोलन नहीं है कोई। उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसान आंदोलन दूसरे ढंग के आंदोलन थे। कुछ दिनों तक चले और उसके बाद फिर दबंगई इकाई के लोग खा-पीकर लड़ाई कर लिए। बिहार, उत्तरप्रदेश या जो भी हिंदी प्रदेश हैं वहाँ तुलसीदास के शरण में लोग हैं। तुलसीदास जो सीखा गए हैं कि कुछ भी असुविधा हो राम का नाम ले लो। ऐसे प्रवृत्ति के लोग जो तुलसीदास को सबसे बड़े कवि के रूप में मानते हैं। रामचरित मानस और गंगा इन दोनों को हटा देना चाहिए। जब तक ये रहेंगे तब तक ये मनुष्य को नोचते रहेंगे। मैं खुद रामचरित मानस का पुजारी था और मुझे लगभग-लगभग रामचरित मानस याद था। फिर धीरे-धीरे जब मेरा दिमाग खुला तब मुझे भान हुआ कि सारी समस्याओं की जड़ तो यही है। औरतें सबसे ज़्यादा इसमें फँसी हुई हैं जबकि सबसे ज़्यादा तो वही सताई हुई हैं, सारी समस्याएँ अंधविश्वास से ही है।
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सकलडीहा पी. जी. कॉलेज, सकलडीहा चंदौली,
संपादक –‘अपनी माटी’ त्रैमासिक-ई-पत्रिका
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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