शोध-सार : हिंदी साहित्य के ‘उत्तरमध्यकाल’ (रीतिकाल 1643ईo से 1843ईo) के बीच दो सौ सालों का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है, जिसमें 60 से अधिक वीरकाव्य लिखे गए हैं। इस दौर में श्रृंगार और वीरकाव्य के अतिरिक्तनीति और उपदेशपरख काव्य भी खूब लिखे गए हैं। दैनंदिन जीवन खेती-बारी, वाणिज्य-व्यापार से जुड़े हुए लौकिक काव्य भी इस दौर में प्रचुर मात्रा में लिखे गए हैं। वर्तमान समय इन ग्रंथों की अध्ययन की अत्यधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है। 16वीं-17वीं सदी के इतिहास लेखन के स्रोत के रूप में अभी तक फारसी और सरकारी दस्तावेजों का इस्तेमाल किया जाता रहा है जबकि उस दौर में लिखे गए वीरकाव्य, नीतिकाव्य एवं अन्य साहित्यक ग्रंथों में भी इतिहास काव्य रूप में मौजूद है। रीतिकालीन वीरकाव्य के चरित्र नायकों के जीवन संबंधी संघर्षों के साथ-साथ तत्कालीन समय-समाज, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का चित्रण भी मिलता है। इन वीरकव्यों में उल्लेखित तिथियाँ, घटनाएं और विभिन्न प्रसंग ऐतिहासिक रूप में प्रायः सही ठहरते हैं।
बीज शब्द : काव्य, रीतिकाल, वीरकाव्य, इतिहास, समाज, शस्त्रधारी-संन्यासी, हिन्दू धर्म रक्षक, चरित काव्य, संस्कृति, काव्यरूढ़ि।
शोध आलेख : भाषा में आख्यान या काव्य लिखने की परम्परा की शुरुआत सिद्धों, जैनियों और नाथों से माना जाता है। यहाँ तक कि चरित-काव्य, रासों-काव्य, वीरकाव्य, षड्-ऋतु वर्णन के रूप में विरह काव्य लिखने की भी परम्परा जैन रचनाकारों के यहाँ मिलती है। लोक-भाषाओं (अवधी, ब्रज, मैथिली, बुन्देली, बघेली, राजस्थानी आदि) में प्रबंधकाव्य, वीरकाव्य, प्रेमाख्यानक-काव्य लिखने का चलन तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दीं से मिलने लगता है। लोक-भाषाओं में रामकथा, महाभारतकथा या प्रेमाख्यानक काव्य लिखने की परम्परा कम से कम 14वीं-15वीं शताब्दी से तो मिलती ही है, साथ ही वीरकाव्य लेखन की भी परम्परा मिलती है। जैसे- मौलाना दाउद कृत प्रेमाख्यानक-काव्य ‘चंदायन’ अवधी भाषा में लिखा हुआ पहला प्रबंधकाव्य माना जाता है वैसे ही विष्णुदास कृत ‘रामायण कथा’ और ‘महाभारत कथा’ (पांडवचरित) ब्रजभाषा में लिखा हुआ पहला प्रबंधकाव्य माना जाता है। रासोकाव्यों के रूप में वीरकाव्यों की रचना करने वाले कवियों में चंद्रबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी का प्रथम महाकवि और प्रथम महाकाव्य माना है, अन्य रासोकाव्यों में जगनिक कृत ‘परमाल रासो’ या आल्हाखण्ड, नल्हसिंह कृत ‘विजयपाल रासो’, नरपति नाल्ह कृत ‘विसलदेव रासो’, और शारंगधर कृत ‘हम्मीर रासो’ आदि का नाम लिया जाता है। लोकभाषीकरण की प्रक्रिया के दौरान अर्थात लोकभाषाओं में रचना या साहित्य लिखने की परम्परा के साथ-साथ प्रबंधकाव्य लिखने की परम्परा भी 15वीं शताब्दी में मुकम्मल रूप से शुरू हो चुकी थी, और वीरकाव्यों की भी। इसी परम्परा में 16वीं-17वीं सदी में एक तरफ तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ और केशवदास कृत ‘रामचन्द्रिका’ लिखे जा रहे थे तो दूसरी तरफ वीरकाव्यों की परम्परा मिलती है, इसमें केशवदास कृत ‘रतनबावनी’, ‘जहांगीरजसचन्द्रिका’, ‘वीरसिंहदेवचरित’, भूषण कृत-‘छ्त्रशाल दशक’ और ‘शिवाबावनी’, पद्माकर कृत- ‘हिम्मतबहादुर विरुदावली’, और मानकवि कृत ‘अनुपप्रकाश’ आदि की एक लम्बी परम्परा को हम देख सकते हैं।
हिन्दी साहित्य के ‘उत्तरमध्यकाल’ (रीतिकाल 1643ई० से 1843ई०) के बीच दो-सौ सालों का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है, जिसमें 60 से अधिक वीरकाव्य रचे गये हैं। किन्तु रीतिकाल का नामकरण जिन ग्रंथों के आधार पर किया गया, उनका प्रमुख वर्ण्य-विषय शृंगार है। यह विचारणीय है कि शृंगार की धारा इस काल में अनायास ही नहीं आ गयी, इसकी जड़ें भक्तिकाल और उससे भी पूर्व के भारतीय साहित्य में गहरे जमी हुई है। कालिदास कृत- ‘कुमारसम्भवम्’, जयदेव कृत- ‘गीतगोविन्द’, विद्यापति कृत- ‘पदावली’, नरपति नाल्ह कृत- ‘बीसलदेव रासो’, सूरदास कृत- ‘साहित्य लहरी’, सूरसागर के अलावा बंगला के कवि चंडीदास के पद्य शृंगारवर्णन की परम्परा के बड़े ग्रन्थ हैं।
वस्तुतः शृंगारिकता भारतीय संस्कृति में हमेशा सहज स्वीकार्य रही है। कोणार्क और खजुराहो के मन्दिरों की कलाकृतियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि विशुद्ध शृंगार ही नहीं बल्कि उन्मुक्त शृंगार एवं कामकलाओं की भी सर्जनात्मक-कलात्मक अभिव्यक्ति हमारे यहाँ उस तरह आपत्तिजनक नहीं मानी जाती थी। इसीलिए हमारे यहाँ वात्स्यायन कृत ‘कामशास्त्र या कोकशास्त्र’ की भी लम्बी परम्परा मिलती है।
19वीं शताब्दी के बाद पश्चिमी ढ़ंग की उपनिवेशवादी इतिहास लेखन और विक्टोरियन कालीन नैतिकता के प्रभाव में विकसित आदर्शों ने भारतीय शृंगारिक काव्यों और कोकशास्त्रों को अनैतिक और अश्लील कहने का चलन विकसित कर दिया। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले अधिकांश इतिहासकारों और विद्वान-आलोचकों ने रीतिकाल को इन्हीं दृष्टियों से देखने का प्रयास किया। ऐसा करते हुए विद्वान् काव्य रचना की भारतीय परम्परा को दरकिनार कर देते हैं, जबकि कालिदास, जयदेव, विद्यापति, सूरदास, रसखान, रहीम के काव्यों में नायिका भेद और शृंगार वर्णनकी एक सहज स्वीकार्य परम्परा मिलती है, जहाँ हम रीतिकाल के शृंगारपरक रीतिग्रन्थों का पूर्वरूप देख सकते हैं। हाँ, यह जरूर है कि इसका रूप रीतिकालीन शृंगार से भिन्न है। भक्तिकाल में भक्ति और शृंगार आध्यात्मिकता के आवरण तले इस तरह घुलमिल कर आते हैं, कि कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह भक्ति है या शृंगार। भक्ति और शृंगार के मेल से उस दौर का साहित्य जिस ऊँचाई पर पहुँचा, न तो उससे पहले ऐसा हो सका था, और न बाद में हो पाया। लेकिन रीतिकाल में सिर्फ़ भक्ति और शृंगार/विशुद्ध लौकिक शृंगार परक काव्य ही नहीं लिखे गये हैं बल्कि इस दौर में शृंगार, भक्ति, वीररस प्रधान चरितकाव्यों के अतिरिक्त नीतिकाव्य, खेतीबारी और दैनंदिन जीवन से सम्बन्धित सूझबूझ की जानकारी देने वाली रचनाएं भी लिखी गयीं हैं।
नीतिपरक और दैनंदिन जीवन से संबन्धित ज्ञान से परिचय कराने वाली रचनाओं के महत्त्व पर हिन्दी में उल्लेखनीय कार्य नहीं हुए हैं। नीतिपरक रचनाएँ भी भक्तिकाल (कबीर, रहीम के नीतिपरक दोहे) से निकलकर विकसित हुई हैं और इससे पूर्व संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश साहित्य में भी इसकी परम्परा मिलती है। खेतीबारी और दैनंदिन जीवन से संबंधित निहायत लौकिक एवं भौतिक संदर्भ की रचनाएँ तत्कालीन जनमानस के अध्यात्मिकता से लौकिकता की ओर प्रवृत्त होते जाने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। डॉ० पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार इस प्रकार का परिवर्तन ‘आरम्भिक आधुनिकता का लक्षण’(1) है।
अकबर और जहांगीर के समय में अर्थात सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर, बुन्देलखण्ड, भरतपुर, ओरछा, आगरा और जौनपुर पर अलग-अलग क्षेत्रीय शासकों का शासन मुगल शासकों के अधीनस्थ चलता रहा। स्थानीय शासकों के आपसी संघर्षों और संबंधों का उल्लेख वीरकाव्यों में बार-बार आता है। इन वीरकाव्यों में चरित नायकों के शौर्य और पराक्रम का, शासन व्यवस्था, रोज़मर्रा का जीवन, तत्कालीन समय-समाज उनके आस्था-विश्वास एवं धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ व्यवसाय एवं व्यपारिक कार्यों से जुड़े जीवन संघर्षों एवं समस्याओं का चित्रण मिलता है। केशवदास कृत 'रतनबावनी', 'वीरसिंहदेव चरित्र', 'जहांगीर जस चंद्रिका' ऐसे ही वीररसात्मक काव्य हैं।
कवि गंग के स्फुट छन्दों में भी महाराणा प्रताप की युद्धवीरता तथा बीरबल की दानवीरता आदि का प्रशंसात्मक वर्णन देखने को मिलता है। पद्माकर द्वारा रचित 'हिम्मतबहादुर विरुदावली' और 'प्रताप सिंह विरुदावली' भी प्रशस्तिपरक काव्यों में गिना जाता है। मान कवि कृत 'अनूपप्रकाश' भी गोसाई हिम्मतबहादुर (अनूप गिरी) के जीवन वृत्त पर आधारित प्रशस्तिपरक काव्य है। भूषण 17वीं शताब्दी के दो महानायकों छत्रसाल और शिवाजी के दरबार में रहे। इनका 'शिवराज भूषण' ग्रंथ शिवाजी और उनके वंश परिचय के साथ उनके जीवन से संबंधित प्रमुख घटनाओं पर आधारित वीरगाथात्मक काव्य है।
कथाकाव्य की भारतीय परम्परा में उस समय के समाज और इतिहास का वर्णन रासोंकाव्यों अर्थात वीरकाव्यों और चरितकाव्यों में मिलता है, किन्तु इसकी प्रमाणिकता पर संदेह किया जाता है, जबकि इन वीरकाव्यों में चरित नायक को केंद्र में रखकर उस समय के समाज और इतिहास का, नायक द्वारा लड़े गये युद्धों और अलग-अलग घटना प्रसंगों का तिथिवार वर्णन मिलता है।
रीतिकालीन कवियों के सम्बन्ध में बहुत सी भ्रांतियाँ हैं, जिनके आधार पर उन्हें सीमित दायरे में रखकर देखा जाता रहा है। यहाँ तक की रीतिकाल का नामकरण केवल श्रृगांर परक एवं लक्षण ग्रन्थों के आधार पर किया गया। रीतिकाल को श्रृंगारिक काव्य, अश्लीलकाव्य और ‘जबदी हुई मनोवृति’(2) का काव्य कहकर इसकी अवहेलना की गयी और ये कहा जाता है कि इस काल के कवि चाटुकार थे, वे अपने आश्रयदाता का गुणगान धनार्जन के लिए करते थे। ऐसा कहना एक भद्दा सरलीकरण मात्र है, क्योंकि इन सबके बावजूद इस काल के कवियों का अलग व्यक्तित्व था, वे अपना निर्णय ले सकते थे। कभी-कभी कवि और आश्रयदाता में ठन भी जाया करती थी।
ठाकुर के प्रसंग में शुक्ल जी ने लिखा है- ‘वे दरबार में जरूर रहते थे, किन्तु आश्रयदाता के गुलाम नहीं थे। उन्हें जो काम अच्छा नहीं लगता था, उसे वे नहीं करते थे। आश्रयदाता से मतभेद होने पर वे एक दरबार को छोड़कर, दूसरे दरबार में चले जाते थे।’(3) देव कवि के सन्दर्भ में भी कुछ ऐसा ही था, किन्तु आचार्य शुक्ल, विश्वनाथप्रसाद मिश्र, मिश्रबन्धु, रमाशंकरशुक्ल रसाल आदि विद्वान भी रीतिकाल के साथ न्याय नहीं कर पाये।
रीतिकाल पर विश्वनाथप्रसाद मिश्र, नगेन्द्र, लाला भगवानदीन, सुधीरकुमार, विजयपाल सिंह आदि भारतीय विद्वानों ने कुछ महत्त्वपूर्ण शोध-अध्ययन किये और कराये हैं। पश्चिम के विद्वान् एलिशन बुश, हेडीपावेल, रिचर्ड किंग और विलियम पिंच ने रीतिकालीन कवियों और वीरकाव्यों पर महत्त्वपूर्ण एवं सराहनीय शोध कार्य किया है। किन्तु रीतिकालीन वीरकाव्यों, नीतिकाव्यों, दैनंदिन जीवन से जुड़े कृषि, व्यवसाय, वाणिज्य और विविध पेशों से जुड़े हुए नीतिपरक और उपदेशपरक काव्यों पर अभी भी ठीक ढ़ंग से अध्ययन करने की आवश्यकता है।
भाखा में इतिहास लिखने की परम्परा लोकभाषाओं में छन्दों (चौपाई-दोहे) में कथा-काव्य लेखन, प्रशस्तिकाव्य लेखन, वीरकाव्य और चरित काव्यों के लेखन के साथ ही शुरू हुई है। भारतीय काव्य में आख्यान, संवाद, कविता, इतिहास, पुराण, चरित और वीररसात्मक काव्य एक-दुसरे में घुले-मिले होते हैं। भारत में इतिहास लेखन की कोई स्वतंत्र परम्परा नहीं थी, मुग़लकालीन दौर में इतिहास लेखन की तवारीख़ परम्परा अरब-फारस से भारत आयी और 16वीं सदी में पश्चिम से, फिर भी भारत में इतिहास लेखन की स्वतंत्र परम्परा की शुरुवात 19वीं सदी के बाद हुई। 19वीं सदी से पूर्व यहाँ इतिहास आख्यान, संवाद, कविता के साथ ही सम्बद्ध रूप में मिलता है।
समाज और संस्कृति की समय सापेक्ष अपनी अलग विशेषताएँ होती हैं। समय बदलने के साथ ही सोचने समझने और उसे अभिव्यक्ति करने का तरीका भी अलग हो जाता है। यह बात भारतीय ‘ऐतिहासिक चेतना’ के संदर्भ में भी कही जा सकती है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और बाण के ‘हर्षचरित’ के बाद रीतिकालीन वीरकाव्यों में नये ढंग से इतिहास लेखन आरम्भ होता है। हाँ, इसका विकास पश्चिम के ‘तथ्यों और तर्कों’ की निश्चित प्रणाली में ढलकर नहीं होता बल्कि भारतीय कथा-काव्य और रासो-वीरकाव्य परम्परा के रूप में होता है।
भूषण का साहित्य इतिहास और काव्य का अनूठा संगम है, जिसमें अतिशयोक्ति पूर्ण शब्दों का प्रयोग तो है किंतु शैली में चाटुकारिता का भाव नहीं बल्कि राष्ट्रीयता का ओज है, इनमें स्वधर्म एवं स्वदेश के उद्धार का भाव देखने को मिलता है। भूषण ने शिवाजी के पराक्रम का वर्णन करते हुए लिखा है-
भूषण के इन पंक्तियों में स्वदेश के प्रति जितना भक्ति भाव देखने को मिलता है उतना ही शत्रु के प्रति क्रोध भी।
मान कवि का पूरा नाम मानसिंह है। इनके द्वारा रचित ग्रंथ 'रासविलास' 18 विलासों का वीररसात्मक बृहद्काव्य है। जिसमें सिसोदिया वंश का वर्णन किया गया है। इसकी कथावस्तु महाराणा राज सिंह के जीवन की प्रमुख घटनाओं पर आधारित है। इसमें राजपूतों और मुगलों तथा गुजरात के सूबेदारों के बीच हुए दस युद्धों का वर्णन किया गया है, जो राजपूत राजाओं की स्वतंत्रता की रक्षा की भावना को दर्शाता है।
गोरेलाल या लाल कवि छत्रसाल के दरबारी कवि थे। इन्होंने छत्रसाल की वीरता का वर्णन अपने ग्रंथ 'छत्र-प्रकाश में किया है। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह प्रशस्ति काव्य होते हुए भी इसमें ऐतिहासिक तथ्यों का सटीक निर्वहन देखने को मिलता है। शेर अफगान के विरुद्ध युद्ध में छत्रसाल को भागना पड़ा उसका भी वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। इससे इस ग्रंथ की ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। लाल कवि ने 'छत्र-प्रकाश' में महाराज छत्रसाल की वीरता और बलिदान का ओजपूर्ण वर्णन किया है-
छत्र-प्रकाश में कवि ने जहां एक ओर छत्रसाल के पौरुषमय जीवन का चित्रण किया है वहीं दूसरी तरफ उसकी राजनीतिक उपलब्धि का वर्णन भी किया है।
श्रीधर कृत 'जंगनामा' में बहादुरशाह के बाद सत्ताप्राप्ति के लिए जहांदारशाह और फर्रूखसियर के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। कवि सूदन भरतपुर के महाराजा बदन सिंह के पुत्र सुजान सिंह (सूरजमल) के आश्रित कवि थे। इनकी रचना 'सुजानचरित' में सुजान सिंह के द्वारा लड़े गए 7 युद्धों का वर्णन है। यह सात लड़ाईयां है- सूरजमल द्वारा फतेहअली खान की सहायता, ईश्वरी सिंह की सहायता, सलामत खा की पराजय, पठानों के विरुद्ध सफदरगंज की सहायता, राजा बहादुर सिंह की पराजय, दिल्ली की लूट तथा बादशाही और मराठों के सम्मिलित सेना से सूरजमल का युद्ध आदि । इसके साथ ही युद्ध में सुजान सिंह के साथ मराठों की लड़ाई से पूर्व की गई तैयारियों का वर्णन भी देखने को मिलता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है- "सूरजमल की वीरता की जो घटनाएं कवि ने वर्णित की है वह कपोल कल्पित नहीं ऐतिहासिक है। जैसे अहमदशाह के सेनापति असद खां का फतेह अली पर चढ़ाई करने पर सूरजमल का फतेह अली के पक्ष में होकर असद खां का ससैन्य नाश करना, मेवाड़ आदि जीतना, संवत्-1804 में जयपुर की ओर से मराठों को हराना, संवत्-1805 में बादशाही सेनापति सलावत खां बक्सी को परास्त करना, संवत्-1807 में शाहीवजीर सफदरजंग मंसूर की सेना से मिलकर बंग पठानों पर चढ़ाई करना, बादशाह से लड़कर दिल्ली लूटना इत्यादि। इन सब बातों के विचार से 'सुजान-चरित' का ऐतिहासिक महत्त्व भी बहुत कुछ है।"(6)
भारत में इस समय इतिहासलेखन की कोई स्वतंत्र विधा नहीं थी। यहाँ इतिहास और समाज साहित्य के अन्यान्य विधाओं के रूप में आया है। इस तरह के इतिहासलेखन के अध्ययन का प्रयत्न दक्षिण भारत के संदर्भ में विद्वानत्रयी संजय सुब्रह्मण्यम, वी० नारायण राव और डेविड शुलमन ने ‘टेक्सचर ऑव टाईम’ पुस्तक में किया है। उनका मानना है कि ‘दक्षिण भारत में इतिहास कईं विधाओं में लिखा गया। इतिहासलेखन के लिए विधा के औपचारिक लक्षणों, नियमों की पाबंदी मानना जरूरी नहीं है। दक्षिण भारत में इतिहासलेखन की कोई स्वतन्त्र विधा नहीं थी, किसी एक विधा में इतिहासलेखन नहीं किया गया।’(7) ठीक इसी तरह हमें उत्तर भारत में भी देखना चाहिए। यहाँ भी इतिहास लेखन की कोई स्वतन्त्र विधा तो नहीं थी, किन्तु 17वीं-18वीं शताब्दी में बहुत से कवियों ने वीररसप्रधान काव्य लिखा, जिसमें इतिहास काव्यमय रूप मेंवर्णित है। इन वीरकाव्यों में काव्यरूढ़ि और अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी है। इसके बावजूद इन वीरकाव्यों में पौराणिकता गौण और ऐतिहासिकता प्रमुख है। इन वीरकाव्यों में उल्लिखित तिथियाँ, घटनाएँ और विभिन्न प्रसंग ऐतिहासिक रूप से प्रायःसही ठहरते हैं। इन वीरकाव्यों की ओर विद्वानों का ध्यान कम गया है। काव्य के रूप में लिखे जाने के कारण इनके ऐतिहासिक महत्त्व के मूल्यांकन के लिए आवश्यक अध्ययनपद्धति का विकास ही नहीं हो पाया। जबकि इन वीरकाव्यों को ऐतिहासिक स्रोत ग्रंथों के रूप में रखकर देखने की आवश्यकता है।
उत्तरभारत का इतिहासलेखन अब तक या तो फारसी स्रोतों पर आश्रित रहा है या फिर सरकारी दस्तावेजों पर। जबकि ब्रजभाषा में लिखे गये वीरकाव्यों मे प्रचुर मात्रा में इतिहास मौजूद है, किन्तु उन्हें साहित्य कहकर छोड़ दिया जाता है। इन स्रोतों के अध्ययन से तत्कालीन समाज और इतिहास की समझ बढे़गी, जिसके फलस्वरूप यह धारणा खण्डित होगी कि भारत में ऐतिहासिक चेतना नहीं थी। इस काल में वीरगाथाकाव्यों की रचना भी प्रचुर मात्रा में हुई। 17वीं-18वीं शताब्दी में ब्रजभाषा में अनेक वीररस प्रधान काव्य लिखे गये। वीरकाव्य लिखने वाले कवियों ने शृंगारकाव्य भी खूब लिखे हैं, और नीतिपरक और उपदेशपरक काव्य भी। इन ग्रन्थों का ठीक ढ़ंग से अध्ययन करने की आवश्यक है।
हिन्दी की भाषाओं/बोलियों में वीरकाव्य लेखन की लम्बी परम्परा रही है। राजस्थानी या डिंगल भाषा में रचित रासो अथवा वीरकाव्यों की भी समृद्ध परम्परा रही है और ब्रजभाषा वीरकाव्य इसी के निरंतर बदलाव और विकास का परिणाम है। शुक्ल जी ने जिन वीरकाव्यों को ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी (आदिकाल) का मानकर साहित्य के इस दौर को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया था, उन वीरकाव्यों को अन्तिम रूप 17वीं शताब्दी में दिया गया। इस आधार पर ये नामकरण और कालविभाजन ही संदिग्ध है। अतः इन वीररसप्रधान रासोकाव्यों का अध्ययन भी 17वीं-18वीं सदी के वीरकाव्यों के साथ किया जाना चाहिए।
'शिवराज भूषण' ग्रंथ शिवाजी और उनके वंश परिचय के साथ उनके जीवन से संबंधित प्रमुख घटनाओं पर आधारित वीरगाथात्मक काव्य है। 'शिवाबावनी' में शिवाजी और साहू जी की प्रशस्ति का बखान देखने को मिलता है। ‘छत्रसालदशक’ में दस छन्दों में महाराज छत्रसाल बुंदेला का प्रशस्ति गान है। मराठाओं के इतिहास लेखन में इन प्रशस्तिकाव्यों का विशेष महत्त्व रहा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भूषण के संदर्भ में लिखा है- "भूषण ने जिन दो नायकों की कीर्ति को अपने वीरकाव्य का विषय बनाया था, वे अन्याय दमन में तत्पर, हिंदू धर्म रक्षक, इतिहास प्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीररस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति बन गए। भूषण की कविता कवि-कीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है।"(8)
औरंगजेब की हिंदू विरोधी नीतियों एवं अमानवीय कार्यों से तंग आकर जनता में जातीय चेतना एवं राष्ट्रीयता के भाव को जगाने हेतु रीतिकालीन कवियों ने अवतारी पुरुष के रूप में भी अपने आश्रयदाताओं का वर्णन किया है। भूषण शिवाजी को धर्मरक्षक का अवतार मानते हैं। भूषण ने शिवाजी को विष्णु का अवतार मानते हुए लिखा है- 'ब्रह्मानन देखि करत सुदामा सुधि मोहि देखी काहे सुदी भृगु की करत है।'(9) डॉ.सत्येंद्र के अनुसार-" उनकी (भूषण की) दृष्टि में अवतार का कार्य.........धर्म की ग्लानि को दूर करने का, संसार से अत्याचार और कलुष मिटाने का है।"(10) पद्माकर को जगत सिंह के धर्म रक्षक रूप में राम और कृष्ण के अवतार की झलक मिलती है-
डेविन लॉरेजन और विलियम पिंच ने हिम्मत बहादुर को ‘हिंदू धर्म रक्षक’ के रूप में चित्रित करते हुए उन्हें ‘शस्त्रधारी संन्यासी' की संज्ञा दी है।
इस कालखंड में तत्कालीन राजनीतिक परिवेश के परिणामस्वरूप कुछ राजाओं द्वारा मुगल वंश से संबद्ध होने के कारण अपनी वीरता को मुगल वंश के हित में समर्पित कर दिया गया था। स्वामी भक्ति के प्रदर्शन में इन राजाओं ने काफी यश एवं गौरव प्राप्त किया। जिसका वर्णन उस काल के वीरकाव्य में देखने को मिलता है। रतन सिंह जहांगीर का कृपा पात्र होने के कारण मुगल वंश पर होने वाले आक्रमणों का दमन वीरतापूर्वक करता था। मतिराम ने रतन सिंह की प्रशस्ति में लिखा है-
रतन सिंह का मुगलों से संबद्ध होने के बावजूद उनमें हिंदू धर्म रक्षा का भाव वंश परंपरा के अनुसार बना रहा। वह अपनी वीरता एवं स्वामी भक्ति के बदले कुछ पुरस्कार ना लेकर धार्मिक दृष्टि से मुगलों से अपनी शर्ते बनवाते थे। उनके गौरक्षक रूप को मतिराम ने कुछ इस प्रकार स्पष्ट किया है-
अतः जो हिंदू राजा मुगलों की तरफ से अपनी वीरता प्रदर्शित करते थे। उनमें भी धर्म प्रेम किसी ना किसी रूप में बचा हुआ था और यदि किसी आश्रयदाता के पास विधान रक्षण की शक्ति नहीं होती थी तो कवियों द्वारा उनके पूर्वजों की अस्तुति गाकर एवं लिखकर उनमें इस तत्व को उभारा जाता था।
डेविड लॉरेंजन और विलियम पिंच ने हिम्मतबहादुर को ‘शस्त्रधारी संन्यासी’(14) कहा है। शस्त्रधारी संन्यासी के रूप में हिम्मतबहादुर के सम्यक् मूल्याकन के लिए यह आवश्यक है कि शस्त्रधारी संन्यासियों की विकास परम्परा का ठीक से अध्ययन किया जाय। इनके इतिहास को देखने से यह समझ में आता है कि हिन्दूधर्म के रक्षक के रूप में उनकी जो छवि उन्नीसवीं सदी में गढ़ी गयी, वह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। इनके ऐतिहासिक विकासक्रम के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इनकी भूमिका ज्यादा जटिल थी, उन्हें हिन्दूधर्म के रक्षक और इस्लाम के विरोधी के रूप में प्रस्तुत करना, 19वीं-20वीं सदी के उपनिवेशवादी इतिहास और हिन्दू-राष्ट्रवादी चेतना का परिणाम है। अंग्रेजी शासन की स्थापना और अंग्रेजी शिक्षा के आरम्भ के साथ ब्रजभाषा के अन्त की भी घोषणाएँ होने लगीं। ‘आधुनिक युग’ के आरम्भ की घोषणा के साथ आधुनिक युग की संवेदना की संवाहिका के रूप में खड़ीबोली-हिन्दी को प्रतिष्ठित किया गया और यह मान लिया गया कि कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा आधुनिक युग की संवेदना का भार संवहन नहीं कर सकती; उसमें आधुनिक युग का साहित्य नहीं लिखा जा सकता। द्विवेदी युग में बाकायदा रीतिविरोधी अभियान चलाकर ब्रजभाषा को बेदखल कर दिया गया। भले ही उद्देश्य राष्ट्र की भाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने का रहा हो, लेकिन ब्रजभाषा को बेदखल करने के जो कारण बताए गए, वे तथ्यात्मक रूप से सही नहीं हैं। क्योंकि अठारहवीं सदी के अन्त तक ब्रजभाषा के कईं ‘रजिस्टर’ विकसित हो गए थे। ब्रजभाषा सिर्फ शृंगारिक काव्य की भाषा नहीं थी। ब्रजभाषा में जीवनजगत् और ज्ञानविज्ञान से संबंधित प्रायः सभी विषयों पर लेखन हो चुका था। यही नहीं, ब्रजभाषा में संस्कृत, फ़ारसी समेत अन्य भाषाओं से अनेक ग्रंथों का अनुवाद भी हो रहा था।
ब्रजभाषा में वीरकाव्य लिखने की परम्परा का विकास 17वीं-18वीं सदी में होता है। इसदौर के पचास से भी अधिक वीरकाव्य तो अभी भी उपलब्ध हैं। इन वीरकाव्यों की काव्यभाषा वीररस के अनुरूप ओजगुण से परिपूर्ण है। ब्रजभाषा को सिर्फ दरबारी शृंगार की भाषा मानना भारी भूल है। इन वीर-काव्यों में अन्तर्निहित ऐतिहासिक संदर्भों का अध्ययन इतिहासलेखन के वैकल्पिक स्रोत के रूप में किया जाना चाहिए। इस प्रकार के अध्ययन से तत्कालीन साहित्य, संस्कृति और क्षेत्रीय इतिहास को ज्यादा गहराई से समझने में मदद मिलेगी।
केशवदास ने अपने आश्रयदाता इन्द्रजीतसिंह और वीरसिंह को केंद्र में रखकर वीरकाव्य लिखा है साथ ही जहांगीर की प्रशंसा में वीररस प्रधान काव्य लिखा है । पद्माकर की ख्याति शृंगारिक कवि के रूप में है, लेकिन यह बात उल्लेखनीय है कि इनकी पहली रचना ‘हिम्मतबहादुर विरुदावली’ वीररसप्रधान काव्य है, जिसकी पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है।मान कवि ने भी अनूपगिरि को नायक मानकर ‘अनूप प्रकाश’ की रचना की है। इन रचनाओं में हिम्मतबहादुर के जीवन और उसके द्वारा लड़े गये युद्धों का वर्णन किया गया है। वीरकाव्यों के अध्ययन सेतत्कालीन सामाजिक राजनीतिक स्थितियों को समझने मे मदद मिलेगी। उस समय के अलग-अलग वीरकाव्यों के नायकों और मुगलों, मराठों, राजपूतों और अंग्रजों के बीच होने वाले युद्धों,उस समय के समाज और इतिहास का वीरकाव्यों और ऐतिहासिक स्रोत ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक रूप से अध्ययन करके भारतीय इतिहास और इतिहासलेखन की परम्परा को ठीक ढ़ंग से समझा जा सकता है।
इस कालखंड के अन्य वीरगाथात्मक काव्य में लालचंद जैन कृत 'गोरा बादल', कवि रणंजय कृत 'जयसिंहचरित', श्रीपति भट्ट कृत 'हिम्मत-प्रकाश', सबलसिंह चौहान कृत 'महाभारत-चक्रव्यूह', निवाज तिवारी कृत 'छत्रसाल-विरुदावली', जैतसिंह कृति 'मुअज्जमशाह के कवित्त', महाराजा जयसिंह कृत 'जयदेव-विलास', सेनापति कृत 'गुरु शोभा' करणीदान कृत 'सूरज प्रकाश' वीरभान कृत 'राज रूपक' महाराणा राजसिंह कृत 'बाहु-विलास' शाहूजी पंडित कृत 'बुंदेला वंशावली' आदि उल्लेखनीय वीरकाव्य हैं।
इस दौर में दो तरह के वीर-काव्य लिखे गये, जैसा कि राजमल बोरा मानते हैं; समसामयिक राजनीतिक बोध से सम्बन्धित वीरकाव्य और अतीत की घटनाओं को आधार बनाकर लिखे गये वीरकाव्य, जैसे रासोकाव्य जिन्हें अन्तिम रूप 17वीं शताब्दी में दिया गया। इन्हें ही राजमल बोरा ने ‘अतीत की गौरवगाथाएँ’(15) कहा है। 17वीं शताब्दी में अन्तिम रूप से लिखे गए अतीत के इन गौरवग्रंथों से 11वीं शताब्दी के नायकों और घटनाक्रमों के बारे में भले ही कोई विश्वसनीय जानकारी न मिलती हो, किन्तु इन वीरकाव्यों के आधार पर ये अनुमान तो लगाया जा सकता है कि 11वीं सदी के घटनाक्रम और नायकों के बारे में 17वीं सदी के लोगों का क्या दृष्टिकोण था।
दूसरे समसामयिक ऐतिहासिक घटनाक्रमों से सम्बन्धित वीरकाव्य हैं। इन वीरकाव्यों का महत्त्व समसामयिक समाज और इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से उल्लेखनीय है। लेकिन इन वीरकाव्यों को साहित्य की एक विधा मानकर उपेक्षित कर दिया जाता रहा है। कायदे से इनका अध्ययन इतिहासग्रंथों के स्रोतग्रंथों के रूप में भी होना चाहिए था। लेकिन काव्य में दर्ज इतिहास के अध्ययन की प्रविधि का विकास करना तो दूर, इसे साहित्यिकता और रचनात्मकता की दृष्टि से गौण मानकर नजरअंदाज ही किया गया। जबकि काव्य में इतिहास लिखने की इस प्रवृत्ति को आरम्भिक आधुनिकता की चेतना के सूचक के रूप में भी व्याख्यायित किया जाना चाहिए।
इस दौर में लिखे गये वीरकाव्यों में इतिहास की अभिव्यक्ति काव्यात्मक है, यह काव्य पौराणिकता को त्यागकर ऐतिहासिकता की ओर बढ़ता है। जैसे शृंगार के क्षेत्र में काव्य आध्यात्मिकता को त्यागकर लौकिकता की ओर बढ़ता है। इस प्रकार के परिवर्तनों को हम आधुनिकता के आारम्भिक लक्षणों के रूप में चिह्नित कर सकते हैं।
16वीं-17वीं सदी के इतिहासलेखन के स्रोत के रूप मेंअभी तक फारसी और सरकारी दस्तावेजों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। जबकि उस दौरमें लिखे गये वीरकाव्यों, नीतिकाव्यों एवं अन्य साहित्यिक ग्रन्थों में भी इतिहास मौजूद है।रीतिकालीन वीरकव्यों के चरित नायकों के जीवन संबंधों-संघर्षों के साथ-साथ तत्कालीन समय-समाज का , राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का चित्रण भी मिलता है।काव्य में इतिहास लिखने की इस भारतीय परम्परा के साथ पश्चिमी ढंग के उपनिवेशवादी, मार्क्सवादी और राष्ट्रवादी इतिहास लेखक भी न्याय नहीं कर पाये।काव्यों में वर्णित घटनाओं में कहाँ काव्य है, कहाँ पुराण या पौराणिक आख्यान है, कहाँ इतिहास है और कहाँ काव्यरूढ़ि एवं अतिशयोक्ति है, इसका विश्लेष्ण-विवेचन करके वीरकाव्यों में मौजूद सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यताओं का अध्ययन किया जा सकता है।
अतः भारत में काव्य में इतिहास लिखने की परम्परा तथा काव्य में आख्यान, संवाद, कविता, इतिहास, पुराण, चरित और आत्मचरित कैसे एक-दुसरे में घुले-मिले होते हैं? रीतिकालीन वीरकाव्यों के अध्ययन के साथ इसका भी अध्ययन करने की आवश्यकता है।17वीं-18वीं सदी में लिखे गये वीरकाव्यों का अध्ययन करने से तत्कालीन समाज और इतिहास को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी।
संदर्भ :
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- संपादक कृष्ण बिहारी मिश्र, मतिराम ग्रंथावली, गंगा पुस्तक कार्यालय, 2018, पृ॰ सं॰- 206
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- सुकेश लोहार, प्रतिमान पत्रिका, अठारहवीं सदी में राजनीतिक और धर्म अनूप प्रकाश और शस्त्रधारी सन्यासियों का संसार, अंक – 15
- राजमल बोरा, जुझेतों बुंदेलों की शौर्य गाथाएँ, पंचशीला प्रकाशन,1982
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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