- सृष्टि कुमारी
शोध सार : प्राचीन काल से ही भारतीय समाज पितृसत्तात्मक रहा है जिसमें पुरुष को शासक और स्त्री को शोषित की भूमिका में देखा जाता रहा हैl पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए जिन सामाजिक संस्थाओं को जन्म दिया उसमें धर्म, विवाह, परिवार, कानून एवं शिक्षा का विशेष स्थान हैl इन संस्थाओं के अंतर्गत् एक ओर तो पुरुषों को भौतिक सुविधापूर्ण जीवन जीने के सभी अवसर दिए गए किंतु दूसरी ओर स्त्रियों को पुरुषों की दासी, भोग्या, परंपराओं और कुरीतियों को ढ़ोने वाली वाहक के रूप में देखा गयाl पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के आदर्श रूप यानि गृहिणी रूप की स्थापना की गईl पारंपरिक विचारधारा में स्त्री के गृहिणी रूप की प्रशंसा तो की गई, किंतु मानवीय स्तर पर उसे पुरुषों से हीन स्थान दिया गयाl ऐसी स्थिति में जब औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रवाद की भावना का जन्म हुआ तो प्रतिक्रियास्वरूप स्त्रियों की दशा को सुधारने हेतु अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधारात्मक आंदोलन किये गएl जिनमें स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने, बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा पर रोक लगाने, विधवा-पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने, एकपत्नी-प्रथा प्रचलित करने, व्यवसाय व रोजगार के अवसर स्त्रियों को भी उपलब्ध कराने जैसे अनेक कार्यों पर बल दिया गयाl राष्ट्रीय-आंदोलनों और राष्ट्रवादी विचारों ने स्त्री-चेतना के स्वरुप को नई गति प्रदान कीl वास्तव में, भारतीय स्त्रियों में बौद्धिक जागृति का आना, राष्ट्रीय आंदोलनों में हिस्सा लेना, राष्ट्रीय स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों के लिए लड़ना भारतीय राष्ट्रवाद के विकास का ही परिणाम हैl इसे हम साहित्य-सृजन के क्षेत्र में ‘सुनीता’ और ‘घरेबाइरे’ उपन्यास के माध्यम से समझ सकते हैंl इन दोनों उपन्यास में रवीन्द्रनाथ और जैनेन्द्र स्त्री की क्षमता, उसकी इयत्ता का विस्तार घर के बाहर भी करते हैं तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर हैंl इस तरह प्रस्तुत आलेख स्वतन्त्रतापूर्व भारतीय परिदृश्य में स्त्री की भूमिका को समझने की दिशा में एक प्रयास हैl
बीज शब्द : राष्ट्रवाद, इयत्ता, विचारधारा, प्रतिरोध, स्वाधीनता-संग्राम, स्वदेशी-आन्दोलन, लैंगिक-विभेद, पितृसत्तात्मक समाज, अति-पौरुषेय, स्त्री-विरोधी, यौन-शुचिता, राष्ट्रवादी-राजनीति, आदिl
मूल आलेख : राष्ट्र की संकल्पना एक आधुनिक विचारधारा है जिसका आविर्भाव पश्चिमी नवजागरण की पृष्ठभूमि में यूरोप के देशों से माना जाता हैl राष्ट्र का अर्थ ऐसे जनसमूह से है जो समान भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं, एक-दूसरे से भावनात्मक लगाव महसूस करते हैं तथा एक समान लक्ष्यों से परिचालित होते हैंl वास्तव में ‘राष्ट्र’ मनुष्य की सामाजिक प्राणी होने की सहज अभिव्यक्ति हैl राष्ट्रवाद का उदय भी इसी पृष्ठभूमि में होता हैl जब दो देश अथवा जातियाँ आपस में संघर्षरत होती हैं तब कमजोर या परतंत्र देश में जागरण की स्थिति आती है तथा इसके साथ ही राष्ट्रवाद की भावना प्रबल होने लगती हैl भारत में राष्ट्रवाद का उदय ब्रिटिश शासन के अंतर्गत क्रूर औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप भारतीय स्वाधीनता-संग्राम से माना जाता हैl इस संबंध में ए.आर.देसाई लिखते हैं– “अतीत के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना की आत्म-सुरक्षात्मक इच्छा शायद विश्व के किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत में ज्यादा मजबूत थीl साथ ही मानवता के वर्तमान और भविष्य के इतिहास के लिए भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि मानवीय नस्ल के एक बड़े भाग के लिए यह आंदोलन लगातार गत्यात्मक होता गयाl भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों को अधीनता की स्थिति में रखने के दौरान उभरकर सामने आयाl विकसित ब्रितानवी राष्ट्र ने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भारतीय समाज की आर्थिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन किया, एक केंद्रीकृत राज्य की स्थापना की, आधुनिक शिक्षा, संचार के आधुनिक साधनों और अन्य संस्थाओं की स्थापना कीl इसके चलते सामाजिक वर्गों का विकास हुआ, जिन्होंने ऐसी सामाजिक शक्तियाँ उत्पन्न की, जो अपने-आप में अनूठी थीl इन सामाजिक शक्तियों की मूल प्रवृत्ति के कारण इनका अंग्रेजी साम्राज्यवाद से संघर्ष हुआl ये शक्तियाँ ही भारतीय राष्ट्रवाद के उदय और विकास का आधार और प्रेरक शक्ति बन गईl”[1] चूँकि राष्ट्रवाद एक पौरुषपूर्ण विचार है जो विशेष रूप से पुरुषवादी स्मृति, आहत पौरुष, पुरुषवादी आशा-आकांक्षा, हताशा, बेचैनी, क्रोध और हिंसा से उत्पन्न होता है, जिसमें मनुष्यता विशेषकर स्त्री को हाशिये पर रखा जाता हैl सम्भवतः इसी कारण से रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने निबंध ‘नेशनलिज्म’(राष्ट्रवाद) में राष्ट्रवाद का स्पष्ट रूप से विरोध करते हैंl वे कहते हैं- “राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ा संकट हैl यह विशेष बात है जो सालों से भारत की समस्याओं का कारण रही हैl हम एक ऐसे राष्ट्र द्वारा शासित व उसके प्रभुत्व में रहे हैं, जिसकी अभिव्यक्ति पूरी तरह राजनीतिक रही हैl हमने अतीत की विरासत के बावजूद अपनी नियति के राजनीतिक स्वरूप को स्वीकार करने के लिए स्वयं को विवश कर लिया हैl”[2] आगे वे कहते हैं– “जीवंत मानव पर यह अमानवीय, निरंतर व अत्यधिक बेजान दबाव ही है, जिसके अधीन आधुनिक दुनिया कराह रही हैl प्रजा न केवल दौड़ लगा रही है बल्कि वह विश्वव्यापी संदेह, लालच व आतंक के विषैले वातावरण में भी रह रही है और इसके विपरीत आप इस भ्रम में जी रहे हैं कि आप स्वतंत्र हैं, जबकि हर दिन आप इस पूजित राष्ट्रवाद के आगे अपनी स्वतंत्रता तथा मानवता की बलि दे रहे होते हैंl”[3]
इसी तरह राष्ट्रवाद के उदय की पृष्ठभूमि में विभिन्न विचारकों ने स्त्री-इयत्ता की अभिव्यक्ति के प्रश्न पर भी विचार करना शुरू कियाl वास्तव में इयत्ता ‘आत्म’, ‘निज’ या ‘स्व’ की अभिव्यक्ति हैl इसे अस्मिता/ अस्तित्व के पर्याय के तौर पर भी जाना जाता हैl स्त्री के अस्तित्व पर विचार करते हुए रमणिका गुप्ता कहती हैं– “आखिर स्त्री-अस्मिता है क्या? दरअसल यह पुरूष के समान स्त्री का समान अधिकार, स्त्री के प्रति विवेकमूल दृष्टिकोण तथा स्त्री द्वारा पुरुष के वर्चस्व का प्रतिरोध हैl औरत का केवल स्वतंत्र होकर निर्णय ले सकना या आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाना ही उसकी अस्मिता नहीं हैl सही मायने में स्त्री-अस्मिता का अर्थ होगा स्त्री के प्रति समाज के दृष्टिकोण और मानसिकता में बदलाव, जिसमें स्त्री के खुद का दृष्टिकोण भी शामिल हैl पुरुष के बराबर अधिकार, स्त्री के चयन, वरण और नकारने की स्वतंत्रता स्त्री अस्मिता की मुख्य शर्त्तें हैंl”[4] ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में महादेवी वर्मा लिखती हैं- “हमें न किसी पर जय चाहिए न किसी पर पराजय, न किसी पर प्रभुत्व चाहिए न किसी पर प्रभुताl केवल वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकतींl”[5] इसी प्रकार, जनवरी 1934 ई. में प्रेमचंद ने अपने एक टिप्पणी में विचार व्यक्त्त करते हुए कहा कि- “पुरुषों ने महिलाओं को इतना सताया है कि अब वे माताएँ और गृहिणी न बनकर अपनी आर्थिक स्वाधीनता प्राप्त करने पर तुली हुई हैं l अगर पुरुष बच्चे पालना और भोजन बनाना नहीं जानते तो स्त्री क्यों सीखे? जो विद्या पढ़कर पुरुष रोटी कमाता है और इसीलिए औरतों को अपनी लौंडी समझता है, वही विद्या स्त्रियाँ भी सीखना चाहती हैंl वह खाना क्यों पकाएँ, वकालत क्यों न करें, अध्यापिका क्यों न बनें? इसका फैसला हमारी देवियों को ही करना चाहिए कि उनकी कन्याएँ कैसी शिक्षा पाएँ, स्वार्थी पुरुषों का फैसला वह क्यों मंजूर करने लगींl”[6]
जहाँ तक राष्ट्रवाद के आईने में स्त्री-इयत्ता की अभिव्यक्ति का प्रश्न है तो यह किन्हीं खास परिस्थितियों में अपने लौकिक अस्तित्व के विपक्ष में खड़ी होती है जो कभी राष्ट्रवाद का समर्थन तो कभी कट्टर और उग्र राष्ट्रवाद के विरोध में स्त्री के अंतर्द्वंद्व और स्त्री-मन के संशय, भ्रम व तिरस्कार का कारण बनती हैl राष्ट्र को पुरुष माना जाता है और पुरुष नागरिक का राष्ट्र से वही प्रतीकात्मक संबंध होता है जो किसी पुरुष का एक स्त्री के साथ होता हैl इसलिए न केवल राष्ट्र की आवश्यकताओं को पुरुषों की हताशा और आकांक्षाओं के साथ जोड़कर देखा जाता है बल्कि राष्ट्रीय शक्ति का प्रतिनिधित्व भी लिंग-विभेद पर निर्भर करता हैl इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए हम वर्जीनिया वुल्फ के इस कथन को देख सकते हैं,जब द्वितीय विश्वयुद्ध के संबंध में उनसे यह पूछा गया कि ‘आप युद्ध को कैसे रोक सकती हैं?’ इसके जवाब में उन्होंने कहा- “ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को सदा युद्ध शुरू करने संबंधी निर्णयों से बाहर रखा गया है और यह युद्ध शुरू करने का निर्णय भी उनका नहीं है, इसलिए वह इस प्रश्न पर विचार जरुर करेंगी कि मुझ ‘बाहरी’ व्यक्ति के लिए ‘मेरे देश’ का क्या अर्थ है?...वह अपने विषय में देशभक्ति के अर्थ का विश्लेषण करेगीl वह अतीत में अपने लिंग का लेखा-जोखा लेगीl वह इस बात पर विचार करेगी कि स्त्री आज कितनी जमीन, सम्पत्ति और धन-धान्य की स्वामिनी है-या असल में आज कितना इंग्लैण्ड उसके हाथ में है ...l ‘हमारा देश’ इतिहास के ज्यादातर काल में मुझे दास मानता आया है, इसने मुझे शिक्षा या मालिकाने में किसी भी प्रकार की हिस्सेदारी से बेदखल रखा... असल में एक औरत के तौर पर मेरा कोई देश नहीं हैl एक औरत के रूप में मैं कोई देश चाहती भी नहींl एक औरत के रूप में पूरी दुनिया मेरा देश हैl”[7] इस तरह हम देख सकते हैं कि राष्ट्रवादी विमर्श के व्यापक खाँचे में ‘स्त्री-इयत्ता’ की अभिव्यक्ति का प्रश्न मोटे तौर पर उपनिवेशी शासकों और राष्ट्रवादी अभिजात वर्ग के संघर्ष के बीच उलझा हुआ हैl
भारतीय परिप्रेक्ष्य में 19-20 वीं शताब्दी में जब राष्ट्रवादी भावना तेजी से विकसित हो रहा था तब उसी समय साहित्य में सर्वप्रथम बांग्ला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1916 ई. में ‘घरेबाइरे’ (बांग्ला में ‘गृहदाह’ और अंग्रेजी में ‘द होम एंड द वर्ल्ड’ नाम से प्रकाशित) तथा जैनेन्द्र कुमार ने हिंदी में 1935 ई. में ‘सुनीता’ उपन्यास की रचना कर एक ओर तो राष्ट्रवाद की भावना को संशयग्रस्त कर दिया तो दूसरी ओर ‘विमला’ और ‘सुनीता’ इन दो स्त्री-पात्रों के माध्यम से स्त्री के बदले हुए रूप को नए व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझने और प्रतिस्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य कियाl दरअसल रवीन्द्रनाथ की विमला और जैनेन्द्र की सुनीता दोनों ही पात्र पत्नी और पतिव्रता स्त्री की परम्परागत भूमिका से थोड़ा आगे जाकर स्त्री की नई इयत्ता की तलाश हैl विमला को सम्मोहित करता संदीप और सुनीता को सम्मोहित करता हरिप्रसन्न उन्हें स्वदेशी आन्दोलन से परिचित कराता है तथा उनमें ‘भारतमाता’ और ‘देशलक्ष्मी’ की छवि देखता हैl अभी तक घरेलू जीवन जीती आईं ये स्त्रियाँ भी मानने लगती हैं कि वे केवल किसी के घर की औरत ही नहीं है, बल्कि उनका भी स्वतंत्र अस्तित्व है, वे सम्पूर्ण स्त्री-जाति की प्रतिनिधि हैं जिन्हें घर से बाहर निकलकर स्वदेशी-आन्दोलन से जुड़े युवकों का पथ-प्रशस्त करना है, देश की आज़ादी के संघर्ष में स्वयं को होम करना है, यज्ञाहुति देनी हैl ‘घरेबाइरे’ की विमला कहती है-“मैं ज्यादा गहराई में नहीं जाना चाहतीl मैं मोटी बात ही कहूँगीl मैं मनुष्य हूँ, मेरे पास लोभ है इसलिए मैं देश के लिए लोभ भी करुँगी, मुझे कुछ चाहिए जिसे काट-कूटकर मैं इतने दिनों के अपमान का बदला ले सकूँl मेरे पास मोह भी है, इसलिए देश को लेकर मैं मुग्ध होऊँगीl मुझे देश का एक ऐसा प्रत्यक्ष रूप चाहिए जिसे मैं माँ कह सकूँ, देवी कह सकूँ, दुर्गा कह सकूँ, जिसके सामने अपने बलि-पशु को बलि चढ़ाकर मैं खून से उसे सराबोर कर सकूँ, मैं मनुष्य हूँ, मनुष्य ही रहना चाहती हूँ, देवता बनना नहीं चाहतीl”[8] आशिस नंदी विमला के संबंध में लिखते हैं– “विमला वह प्रतीक है जिसके लिए संदीप और निखिल न सिर्फ संघर्ष करते हैं, बल्कि विमला के ही व्यक्तित्व में कहानी के इन दोनों मुख्य पात्रों की होड़ करती इयत्ताओं का समावेश दिखता हैl विमला दोनों पुरुषों की भिन्न देशभक्तियों के बीच एक सूत्र की तरह उभरती हैl विमला की शख्सियत एक ऐसी रणक्षेत्र बन जाती है जिसमें दोनों तरह की देशभक्तियाँ एक-दूसरे पर श्रेष्ठता हासिल करने के लिए टकराती हैंl”[9] विमला की तरह सुनीता भी एक प्रतीक हैं जिसके लिए श्रीकांत और हरिप्रसन्न संघर्ष करते हैंl विमला की तरह ही सुनीता सोचती है- “परिवार ही क्या व्यक्तित्व की परिधि है?... क्या मैं इसी में बीतूं? क्या इसे तोड़कर, लाँघकर एक बड़े हित में खो जाने को मैं न बढूँ? उस विस्तृत हित के लिए जिऊँ, उसी के लिए मरुँ तो क्या यह अयुक्त है, अधर्म है?”[10] इस प्रकार रवीन्द्र और जैनेन्द्र दोनों ही स्त्री की क्षमता और उसकी इयत्ता का विस्तार घर के बाहर भी करते हैं तथा राष्ट्रीय आंदोलनों में स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर हैंl लेकिन इसके साथ ही दोनों इस बात की ओर भी हमारा ध्यान खींचने का प्रयास करते हैं कि घरेलू कामकाज करने वाली स्त्री जब घर से बाहर निकलकर राष्ट्रीय आन्दोलनों में अपनी भागीदारी निभाती है तो उसकी बदली हुई भूमिका को समझने, उसको बराबरी के स्तर पर मनुष्य की गरिमा देने के लिए क्या हमारा समाज विशेषकर पितृसत्तात्मक समाज तैयार है? चूँकि, इन दोनों उपन्यासों की रचना का उद्देश्य राष्ट्रवादी राजनीति की आलोचना करना था इसलिए इसमें राष्ट्रवादी भावना के प्रतिनिधि पात्र संदीप और हरिप्रसन्न को फ़रेबी और फंदेबाज व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है जिसके प्रति आदर्श पतिव्रता भारतीय नारी का मोहभंग होना स्वाभाविक हैl तभी तो सुनीता कहती है- “इसी घर के दीवारों के भीतर मेरा स्थान हैl घर बंधन है तो हो, लेकिन मुझे मोक्ष भी यहाँ ही पाना हैl”[11] दोनों उपन्यासों के पूरे कथाक्रम में दो पुरुष-पात्रों की इयत्ताओं के बीच फँसी स्त्री-पात्र घर और बाहर के बीच स्वयं की इयत्ता को स्थापित करते हुए गहरे अंतर्द्वंद्व, उलझन, भ्रम और संशय का शिकार होती है और बाहरी दुनिया से ठोकर खाकर अंतत: घर वापस आ जाती है किन्तु इसके साथ ही ‘स्त्री-इयत्ता’ से जुड़े कई सवाल भी खड़े हो जाते हैं- “क्या राष्ट्रवाद का प्रत्यय अति-पौरुषेय या स्त्री-विरोधी है? क्या माँ भारती की कल्पना अमूर्त रूप में की गई है जिसके मूर्त रूप में इस पद पर किसी स्त्री को बिठाना संभव नहीं है? क्या स्त्री की इयत्ता को घर के भीतर ही कैद रखना चाहिए क्योंकि बाहर जाने पर उसके छले जाने का भय है? क्या राजनीतिक निष्ठा रखने वाला व्यक्तित्व मनुष्योचित्त दुर्बलताओं से स्वयं को अलग रख सकता है? क्या धन-प्राप्ति की लालसा और स्त्री के प्रति दुर्बलता पर विजय पाना राष्ट्रहित जैसे बड़े विचार के सामने भी छोटे नहीं होते? क्या देशहित में चलाए जाने वाले सभी कार्यक्रम पवित्र भाव से चलाए जाते हैं या उसके पीछे भी कोई निजी स्वार्थ होता है? इन निजी स्वार्थों की बलि स्त्री कैसे चढ़ती है और क्यों? क्या विमला और सुनीता को घर से बाहर अपने अस्तित्व को राष्ट्रवादी राजनीति के भँवर में तलाशने के लिए नहीं बल्कि इस राजनीति को कहीं अधिक शक्ति से ठुकरा देने के लिए भेजा गया था? विमला और सुनीता के जीवन की त्रासदी पूरे उपन्यास में निहित राष्ट्रवादी विचारों के मूल में ‘स्त्री-इयत्ता’ के प्रश्न को अधिक जटिल बनाती हैl आशिस नंदी कहते हैं कि- “उपन्यास में यह त्रासदी केवल निजी दायरे में ही नहीं रहतीl यहाँ राष्ट्रवाद के परिणामस्वरूप पैदा हुए विभेद उसके कारण फैले आन्दोलन के मुकाबले ज्यादा स्थायी साबित होते हैंl स्वदेश के साथ विमला का तादात्म्य सतही बनकर रह जाता हैl उसके घर और संसार के ध्वंस में समाज के ध्वंस की आहटें सुनाई देती हैंl”[12] इस संदर्भ में सीमोन द बोउवार कहती हैं– “स्त्री को अमीर हो या गरीब, श्वेत हो या काली, अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगीl यह दुनिया पुरुषों ने बनाई पर स्त्री से पूछकर नहींl फ़्रांस की राज्यक्रांति हो या विश्वयुद्ध, स्त्री से पुरुष सहारा लेता है और पुन: उसे घर लौट जाने को कहता हैl वह सदियों से ठगी गई हैl यदि उसने कुछ स्वतंत्रता हासिल भी की है तो उतनी ही जितनी कि पुरुष ने अपनी सुविधा के लिए उसे देना चाहाl”[13] इन दोनों उपन्यासों में बाहरी दुनिया के अनुभव विमला और सुनीता को घर से बाहर निकलने के लिए पुकारते हैं, वे दोनों बाहर जाकर अनुभव लेती हैं और बाह्य दुनिया से ठोकर खाकर पुन: घर में वापस लौट आती हैंl लेकिन घर से बाहर निकलने का अनुभव उन्हें समाज, संसार और पुरुष मानसिकता को समझने का एक अवसर प्रदान करता है जिसकी प्रक्रिया में एक ओर विमला अपने सम्बन्ध व संपत्ति दोनों खोती है तो दूसरी ओर सुनीता समाज के प्रति अपने गहरे सरोकार को समझते हुए भी पुरुष को यह जतला देती है कि उसे मालूम है कि पुरुष क्या चाहता हैl सुनीता अपने पति श्रीकांत की इच्छा से घर से बाहर तो निकलती है किन्तु वहाँ वह अपने लिए स्वतंत्र ‘स्पेस’ जरुर रचती हैl इतना ही नहीं पति के कहने पर वह स्वयं को भी उसके मित्र हरिप्रसन्न के समक्ष प्रस्तुत कर देती हैl हरिप्रसन्न जो कि राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा युवक है फिर भी स्त्री के प्रति आकर्षण से मुक्त नहीं है और अवसर पाते ही सुनीता का लाभ उठाना चाहता है तब सुनीता अपने सतीत्व का सहारा लेते हुए निर्वस्त्र हो जाती है और कहती है- “मैं तो हूँl तुम्हारे सामने हूँl इन्कार कब करती हूँ? मुझे चाहते हो, तो मुझे ले लोl... मुझे ही चाहते हो न; वह तो साड़ी है, मैं नहीं हूँl मैं यह हूँl...वह तो बाधा है, हरिl उसके रहते मुझे कैसे पाओगे? उसे उतर जाने दो, तब मुझे लेनाl खुली मुझको ही लेनाl”[14] सुनीता की ऐसी प्रतिक्रिया देखकर हरिप्रसन्न लज्जित हो जाता है और भाग खड़ा होता हैl इस तरह सुनीता नैतिकता के परम्परागत मानदंडों को तोड़ते हुए देह का समर्पण करते ही देह की तुच्छता को भी अभिव्यक्त कर देती हैl वह अपने कार्यों से यह सिद्ध कर देती है कि स्त्री-इयत्ता पितृसत्ता के लिए आकर्षण या शोषण का माध्यम न होकर एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक इकाई है जिसे मानकर ही राष्ट्रवादी आंदोलनों को सफल बनाया जा सकता है और घर व बाहर के मध्य संतुलन स्थापित किया जा सकता हैl
जैनेन्द्र पर गाँधीवादी दर्शन का प्रभाव माना जाता हैl इस संबंध में चंद्रकांत बांदिवडेकर कहते हैं- “जैनेन्द्र पर गाँधी दर्शन का प्रभाव अवश्य रहा है परंतु इस प्रभाव को उन्होंने बाह्य आचरणात्मक या व्यावहारिक रूप में न लेकर सूक्ष्म मानसिक और चिन्तनात्मक स्तर पर ग्रहण कियाl जैनेन्द्र के उपन्यासों में सत्याग्रह, चित्तशुद्धि के लिए उपवास, हृदय-परिवर्तन के स्थूल प्रारूप, खद्दर, स्वदेशी वस्तु का उपयोग इत्यादि का आग्रह नहीं हैl उनके गाँधीवादी दर्शन का प्रभाव उनके व्यक्तित्वों से छनकर प्रकट होता हैl”[15] ‘सुनीता’ के चरित्र पर गाँधीवादी दर्शन का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता हैl इसकी पुष्टि में डॉ. गणेशन कहते हैं– “जैनेन्द्र मानते हैं कि व्यक्ति त्याग और कष्ट-सहन के द्वारा दूसरों को सही मार्ग पर ला सकता है-शुद्ध गाँधीवादl उनके विचार में इस नैतिक समस्या का समाधान नारी की स्वतंत्रता में नहीं, उसके पुरुष के समान होने में नहीं, बल्कि कष्ट-सहन एवं त्याग के द्वारा अनैतिक पुरुष को नैतिक बनाने में है–‘गाँधीवादी मन-परिवर्तन’l सुनीता का आत्मसमर्पण ऐसी ही प्रवृत्ति हैl”[16] यह गाँधीवादी दर्शन का ही प्रभाव था कि जार्ज लुकास ने रवीन्द्रनाथ की ‘घरेबाइरे’ के अंग्रेजी संस्करण ‘द होम एंड द वर्ल्ड’ पर आलोचनात्मक लेख का शीर्षक ‘रवीन्द्रनाथ का गाँधी-उपन्यास’ रखा थाl दिलचस्प बात यह है कि अपने समय के दो महान युग-निर्माताओं की राजनीतिक सोच अलग-अलग होने के बावजूद भी ‘राष्ट्रवाद’ के प्रति उनकी राजनीतिक आशंका एक जैसी थीl इस संबंध में आशिस नंदी लिखते हैं– “उन्हें डर था कि भारतीय राष्ट्र का विचार कहीं भारतीय सभ्यता पर प्राथमिकता न हासिल कर लेl वे अपने समाज को ऐसी परिस्थिति में फंसने से रोकना चाहते थेl वे नहीं चाहते थे कि ऐसी नौबत आये जब भारतवासियों की जीवन-शैलियों का आकलन केवल भारत नामक राष्ट्र-राज्य की काल्पनिक संरचना द्वारा प्रदत्त कसौटियों पर किया जाने लगेl कहा तो यह जाता था कि भारतीय सभ्यता और जीवन-शैलियों की रक्षा के लिए ही राष्ट्र-राज्य का विचार पश्चिम से लिया गया है, लेकिन रवीन्द्रनाथ और गाँधी इस बात के लिए कतई तैयार नहीं थे कि प्रगति के सिद्धांत के तहत की जाने वाली सामाजिक इंजीनियरिंग उन्हें अपना सहज-सुलभ शिकार बना लेl”[17] शायद यही कारण है कि ‘राष्ट्रवाद’ के प्रति जहाँ रवीन्द्रनाथ की असहमति सामने थी वहीं गाँधीजी की असहमति छिपी हुई थीl इसे हम ‘सुनीता’ और ‘घरेबाइरे’ उपन्यास के द्वारा समझ सकते हैंl
रवीन्द्रनाथ और जैनेन्द्र दोनों के कथा-साहित्य में एक खास किस्म की अंत:सूत्रता भी दिखाई देती हैl स्त्री संबंधी मुद्दों पर वे न तो संकीर्ण हैं, न प्रतिगामीl वास्तव में उनका समय बौद्धिक संक्रमण से गुजर रहा था जिसमें औपनिवेशिक समाज बनाम परम्परागत भारतीय समाज, परम्परा बनाम आधुनिकता की टकराहटें और अंतर्विरोध सामने आ रहे थेl इस समय आदर्श स्त्री की जो छवि समाज में प्रचलित थी, वह ममता, दया, त्याग, समर्पण, सहनशील, एकनिष्ठ व पतिव्रता भारतीय नारी जैसे विशिष्ट गुणों से संपृक्त थीl उभरते हुए राष्ट्रवादी चेतना ने इस छवि में एक और विशेषण जोड़ दिया जिसमें स्त्री के मातृत्व को ‘राष्ट्रमाता’, ‘देशलक्ष्मी’, तथा ‘धरती-माँ’ आदि प्रतीकों से जोड़कर देखा गयाl आधुनिकता के साथ-साथ पतिव्रता पत्नी, स्त्री की शुचिता और स्त्री को मर्यादा का प्रतीक मानना एक हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में अनिवार्य महसूस किया गयाl स्त्री का एक अमर्यादित आचरण इस आदर्श छवि को ध्वस्त कर सकता थाl वास्तव में स्त्रियों के जीवन-स्तर में सुधार तथा इनके आदर्श छवि के निर्माण की आवश्यकता इसलिए नहीं महसूस की गई थी कि वे बहुत कठिन दौर से गुजर रहीं थीं बल्कि इसलिए की गई थी कि उनकी दशा में सुधार की आवश्यकता राष्ट्रवादी भावनाओं को जागृत करने के लिए अत्यंत आवश्यक थाl राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में सांस्कृतिक मूल्यों व राजनीतिक उद्देश्यों की भूमिका प्रमुख थी और राष्ट्रवादियों का राजनीतिक उद्देश्य पश्चिम-विरोधी पढ़ी-लिखी भारतीय स्त्री के छवि-निर्माण का था जो अपनी करुणा, दया, सहजता, मातृत्व, सहनशीलता के द्वारा लम्बे समय तक कष्ट झेलकर राष्ट्र-निर्माण में पुरुषों की सहयोगी बनेl लेकिन इस दौर की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि पितृसत्ता के इस सोच से कैसे मुक्ति पाई जाए जहाँ एक स्त्री के शरीर को शोषण के साईट के रूप में देखा जाता हैl दूसरी समस्या यह थी कि घर जिसे पवित्र स्थान माना जाता है वह अब केवल परम्पराओं का मुर्दा बोझ ढ़ोने वाला बन चुका थाl इन समस्याओं का हल भारतीय चिंतकों ने यह निकाला कि एक तो स्त्री के मातृत्व छवि को गढ़ा जाए ताकि उसका दैहिक शोषण कम हो तथा दूसरा घर का बाहरी दुनिया से सौहार्दपूर्ण संपर्क स्थापित किया जाए ताकि रूढ़ परम्पराओं के मुर्दा बोझ से घर के वातावरण को मुक्त कर उसे स्वच्छ बनाया जा सकेl लेकिन, इसका परिणाम अपेक्षाकृत भिन्न रूप में निकलाl न तो स्त्रियों के प्रति पितृसत्ता के विचारों में व्यापक परिवर्तन आया और न ही घर और बाहर के मध्य सौहार्दपूर्ण संबंध को स्थापित किया जा सकाl पश्चिमी शिक्षा के प्रसार तथा पुरुष वर्चस्वादी सोच के कारण घर और बाहर के मध्य विरोध के स्वर उभरेl जिसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति रवीन्द्रनाथ ने ‘घरेबाइरे’ उपन्यास में कीl जहाँ उन्होंने विमला के माध्यम से बाहर का पूरी तरह निषेध कर दियाl लेकिन, शीघ्र ही भारतीय चिंतकों को यह समझ आने लगा कि घर और बाहर के विरोध द्वारा अंग्रेजी सत्ता से नहीं लड़ा जा सकता इसलिए घर और बाहर के मध्य संतुलन का होना आवश्यक हैl इसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति जैनेन्द्र कुमार ने ‘सुनीता’ उपन्यास में कीl ऐसा लगता है कि सुनीता में विमला के ही चरित्र का विकास हैl विमला अपने जिन प्रयत्नों से संदीप के मन की ग्रंथि को तोड़ नहीं पाती और अपराधबोध से ग्रस्त रहती है, वही आगे चलकर सुनीता के रूप में हरिप्रसन्न के चित्त की गांठ को खोल देती है और अपने अपराधबोध से भी मुक्ति पा जाती है क्योंकि उपन्यास के अंत में श्रीकांत सुनीता को अपने आलिंगन में लेते हुए कहता है–“अवर क्वीन कैन डू नो रौंगl”[18]
दोनों उपन्यासों की तुलना करते हुए ओमप्रकाश शर्मा लिखते हैं– “‘सुनीता में घर-बाहर की समस्या है जिस पर डॉ. इन्द्रनाथ मदान ने रवीन्द्र के ‘घर-बाहर’ का प्रभाव देखा हैl किन्तु, जैनेन्द्र ने इसे भिन्न रूप में लिया है क्योंकि रवीन्द्र ने जो समाधान दिखाया उससे जैनेन्द्र संतुष्ट नहीं हैंl ‘घर और बाहर’ में घर को बाहर के प्रति बंद कर दिया जाता है, जो जैनेन्द्र को मान्य नहीं क्योंकि यह समाधान प्रेम का नहीं, अप्रेम का हैl वह घर को बाहर के प्रति बंद नहीं, स्वागत करने वाला दिखाना चाहते हैंl उनके घर और बाहर परस्पर अपेक्षाशील हैंl”[19] इस संदर्भ में प्रीति चौधरी अपने आलोचनात्मक निबंध ‘जैनेन्द्र की रचनात्मक दुनिया में स्त्री’, में लिखती हैं- “सुनीता उपन्यास में जैनेन्द्र ने स्त्री के व्यापक रूप को प्रतिस्थापित करने की चेष्टा की हैl ‘सुनीता’ पत्नी और पतिव्रता स्त्री की भूमिका में स्त्री का डिपार्चर हैl जैनेन्द्र स्त्री की क्षमता का विस्तार घर से बाहर भी चाहते हैंl राष्ट्रीय आन्दोलन में वे स्त्रियों की भागीदारी के समर्थक हैंl घर के काम-काज को कर्त्तव्य मानती स्त्री के सामने, जैनेन्द्र कुछ और कर्त्तव्य निभाने की पेशकश करते हैंl यह कर्त्तव्य स्त्री को कोने से खींच कर केंद्र में ले आता हैl”[20]
‘घरेबाइरे’ और ‘सुनीता’ दोनों उपन्यासों में राजनीतिक-सामाजिक सन्देश देने के साथ ही लैंगिक समझ के मुद्दे को भी प्रमुखता से उठाया गया हैl राष्ट्रवाद जैसे पौरुषपूर्ण विचार के समक्ष स्त्री-इयत्ता की टकराहट वह स्पेस सृजित करती है जिसमें स्त्री-पुरुष के लिंग-आधारित भेद को समझा जा सकता है तथा उसे दूर किया जा सकता हैl लिंग-आधारित मुद्दा ‘घरेबाइरे’ में विमला और संदीप के मध्य विकसित होता हुआ ‘सुनीता’ में सुनीता और हरिप्रसन्न के मध्य अपनी तार्किक परिणति पाता है जहाँ सुनीता अपने व्यवहार से स्त्री-पुरुष के मध्य लैंगिक-विभेद को मिटा देती हैl
निष्कर्ष : दोनों उपन्यासों के तुलनात्मक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि स्त्री की इयत्ता पितृसत्ता के लिए आकर्षण और शोषण का माध्यम न होकर एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक इकाई है जिसे मानकर ही राष्ट्रवादी संघर्षों को सफल बनाया जा सकता हैl विमला और सुनीता दोनों ही बौद्धिक नारी पात्र हैं तथा अपने भीतर चल रहे घर और बाहर के द्वंद्व से संघर्ष करते हुए बड़ी सहजता से नारी-मुक्ति का द्वार खोल देती हैंl अपनी व्यक्तिगत स्वाधीनता को प्राप्त करने के लिए किए गए उनके प्रयास ही आगे चलकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता में तब्दील हो जाते हैंl दोनों ही राष्ट्रवाद के आवरण में छिपे पुरुष की दमित कामवासना का विरेचन करती हैंl साथ ही पितृसत्ता को अपनी इयत्ता द्वारा चुनौती देते हुए यह बता देती हैं कि अब स्त्री को देवी या माता का दर्जा देकर और अधिक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, उन्हें अधिक सम्मान देने के नाम पर छला नहीं जा सकता जबतक कि पुरुष स्वयं उनकी वास्तविक इयत्ता अर्थात् एक मनुष्य होने के सत्य को न स्वीकार कर लेl भारतीय राष्ट्रवाद के आईने में स्त्री-इयत्ता की अभिव्यक्ति ने यह साबित कर दिया है कि स्त्रियाँ सामाजिक तौर पर पुरुषों की तुलना में अधिक उपयोगी हैं तथा उनकी आवश्यकताएँ, अभिलाषाएँ और क्षमताएँ पुरुष के समान ही महत्त्वपूर्ण हैं इसलिए पुरुषों के जैसे ही वे समान अधिकार और सम्मान की हक़दार हैंl साथ ही, घर के विरोध में बाहर को खड़ा करना समस्या का समाधान नहीं है बल्कि बाहर को घर का सहयोगी बनाकर एक-दूसरे के मध्य संतुलन स्थापित कर ही घर के वातावरण को स्वस्थ और ऊर्जावान बनाया जा सकता हैl अंत में इस सन्दर्भ में सरोजिनी नायडू की यह चेतावनी अधिक उपयुक्त जान पड़ती है कि“आप अपनी स्त्रियों के परम्परागत अधिकारों को बहाल करें क्योंकि आप नहीं असली राष्ट्रनिर्माता हम हैं तथा हमारे सक्रिय सहयोग के बिना प्रगति के किसी भी बिंदु पर की जानेवाली आपकी सभी बैठकें एवं कांग्रेसें व्यर्थ होंगीl आप अपनी स्त्रियों को शिक्षित करें और देखें कि राष्ट्र स्वयं को शिक्षित कर लेगा क्योंकि यह बात कल भी सत्य थी, आज भी है और रहती दुनिया तक सत्य रहेगी कि पालना झुलानेवाले हाथ ही विश्व पर शासन करते हैंl”
[1] ए. आर. देसाई, भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, अनुवाद-कमल नयन चौबे, पोपुलर प्रकाशन, मुम्बई, संस्करण: 2018, पृ. 28
सृष्टि कुमारी
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र,
जवाहरलाल
नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067,
kumarisrishtibhu75@gmail.com, 9628225065
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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