- प्रो. सुमन शर्मा एवं डॉ. जितेन्द्र कुमार पाण्डेय
शोध सार : दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, मानवतावादी, इतिहासकार और पत्रकार थे। वे उस परम्परा के वाहक थे जो नेहरू के भारत के नवनिर्माण की बजाय भारत के पुनर्निर्माण की बात करते है। ‘एकात्म मानववाद’ उनके दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानववाद के माध्यम से भारत की तत्कालीन राजनीति और समाज को उस दिशा में मोड़ने की सलाह दी, जो पूर्णतः भारतीय है। उन्होंने एकात्ममानववाद को सैद्धान्तिक रूप में नहीं बल्कि आस्था के स्वरूप में लेते थे, इसे उन्होंने राजनैतिक सिद्धान्त के रूप में नहीं बल्कि आस्मिक भाव के रूप में लिया था। एकात्म मानववाद ऐसा दर्शन है, जो अपनी प्रकृति में एकीकृत एवं धारणीय है। एकात्म मानववाद का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकता को संतुलित करते हुए प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करना है।
बीज शब्द : एकात्म मानववाद, धारणीय विकास, यूरोपीय पुनर्जागरण, व्यक्तिवाद व्यस्टि, समष्टि, ‘चिति’, आर्थिक प्रबन्धन, अंत्योदय।
मूल आलेख : दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के दो आयाम हैं- प्रथम, पाश्चात्य जीवन दर्शन तथा द्वितीय-भारतीय संस्कृति। मानववाद मुख्यतः पाश्चात्य अवधारण है जबकि एकात्म भारतीय है। अतः कहा जा सकता है कि पाश्चात्य मानववाद के भारतीय जीवन दर्शन के साथ भारतीयकरण की परिणति है एकात्म मानववाद। पश्चिम ने जिस प्रकार की तानाशाहियों तथा अमानवीय जीवन सत्ताओं का जीवन जिया उसकी प्रतिक्रिया अवश्यंभावी थी।1 अतः यूरोपीय पुनर्जागरण ने ईश्वरीय सत्ता व मानव की प्रतिष्ठा, निरकुंश सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा, रहस्यात्मक सच्चाई के खिलाफ विवेक की प्रतिष्ठा तथा स्थापित परम्पराओं के खिलाफ विज्ञान एवं अनुसंधान की परम्परा को स्थापित करने की कहानी यूरोपीय पुनर्जागरण एवं मानववाद के उद्भव की कहानी है।2 पाश्चात्य जीवन के धार्मिक अंधविश्वासों ने मानव के अध्यात्म तत्व को इतना रहस्यवादी तथा दिखावटी बना दिया था कि प्रतिक्रियास्वरूप वह जड़वादी या भौतिकवादी हो गया।
इस भौतिकवाद ने उसे असवेंदनशील यांत्रिकता की ओर धकेला जिससे पाश्चात्य दर्शन प्रतिक्रियावादी हो गया। इसलिए मानववाद जहाँ यूरोपीय पुनर्जागरण की संस्कृति है, वहीं जड़वाद उसकी विकृति, इसीलिए दीनदयाल उपाध्याय जी पाश्चात्य विचारों और जीवन दर्शन को भारत की प्रगति का आधार बनाने के विरूद्ध हैं। उपाध्याय जी मानते हैं, कि प्रत्येक देश की अपनी विशेष ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति होती है और उसी के अनुरूप जीवन दर्शन वहाँ पर फलीभूत हो सकता है। हालांकि उपाध्याय जी पश्चिमी विचारों के प्रति पूर्वाग्रही नहीं हैं, वे कहते हैं कि मानव के ज्ञात में जो कुछ अर्जित है उससे हम बिल्कुल आँख बंद करके चले यह बुद्धिमत्ता की बात नहीं होगी। इसमें से सत्य को हमें स्वीकार करना और असत्य को छोड़ना श्रेयस्कर होगा।3 दीनदयाल जी पाश्चात्य जीवन की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं, लेकिन उसकी विकृति के खिलाफ अधिक चौकस हैं। उनकी यह भी मान्यता है कि पाश्चात्य जीवन दर्शन में ताल-मेल का अभाव है इसी ताल-मेल और एकीकरण का उत्तर दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद है।
समग्रतावादी विचार-भारतीय संस्कृति: एकात्मवादी -
पं0 दीनदयाल उपाध्याय का चिन्तन समग्रतावादी है। वह व्यक्ति और समाज का खण्डित विचार नहीं रखते हैं। उनके चिन्तनधारा का उद्गम भारतीय संस्कृति से होता है और भारतीय संस्कृति मूलतः मानव जीवन की समग्रता में विश्वास रखती है। उपाध्याय जी की मान्यता है राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हमारी दृष्टि भारतीय संस्कृति की ओर जाती है। राष्ट्रीय दृष्टि से हमें अपनी संस्कृति पर विचार करना ही होगा, क्योंकि यह हमारी प्रकृति है।4 आज राष्ट्रीय और मानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों पर विचार करें।
भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता है कि वह सम्पूर्ण जीवन एवं सम्पूर्ण सृष्टि का समन्वित विचार करती है, उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। उनकी मान्यता है खण्ड, खण्ड में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। पश्चिम की समस्या का मुख्य कारण उनका जीवन के संबंध में खण्डों में विचार तथा पुनः थेगंली लगाकर जोड़ने का प्रयास है।5 अर्थात् उसका जीवन के संबंध में विचार एकात्मवादी नहीं है, जैसा कि भारतीय दर्शन सम्पूर्णता में विचार करता है। ‘विविधता में एकता’ अथवा एकता का विविध रूपों में प्रकटीकरण ही भारतीय संस्कृति का केन्द्रीय विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो फिर विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का द्योतक नहीं है, वरन् विकृति का द्योतक है। सृष्टि में जैसा संघर्ष दिखता है, वैसा ही सहयोग भी नजर आता है। वनस्पति और प्राणी दोनों एक दूसरे की आवश्यकता को पूरा करते हुए जिन्दा रहते हैं। संसार में एकता का दर्शन कर उसके विविध रूपों में परस्परपूरकता को पहचान कर उनमें परस्परानुकूलता का विकास करना तथा उसका संस्कार करना ही संस्कृति है। प्रकृति को ध्येय की सिद्धि के अनुकूल बनाना संस्कृति तथा उसके प्रतिकूल बनाना विकृति है। संस्कृति प्रकृति की अवहेलना नहीं करती है, उसको और दुर्लभ्य नहीं करती बल्कि प्रकृति में जो भाव सृष्टि की धारणा तथा उसको अधिक सुखमय एवं हितकारी बनाने वाले हैं, उनको प्रोत्साहित कर दूसरी प्रवृत्तियों को रोकना ही संस्कृति है।6
दीनदयाल उपाध्याय जी ने सम्पूर्ण समाज या सृष्टि की ही नहीं व्यक्ति का भी एकात्म एवं संकलित विचार किया है। मनुष्य मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर इन चारों का समुच्चय है। हम उसको टुकड़ों में बाँटकर विचार नहीं करते। आज विश्व में जो समस्याएँ पैदा हुई हैं, उसका कारण है कि उन्होंने मनुष्य के एक-एक हिस्से का विचार किया है। इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है कि प्रगति का मतलब शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा, चारों की प्रगति है। हम शरीर सुख के साथ मन, बुद्धि व आत्मा की सुख शांति के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं। यही भारतीय आध्यात्मिक एवं संस्कृति चिन्तन की विशेषता है। हम आत्मा का चिन्तन करते हुए शरीर की उपेक्षा नहीं करते हैं।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चार पुरूषार्थ हैं। पुरूषार्थ का अर्थ उन कामों से है, जिनसे पुरुषत्व सार्थक हो। धर्म, अर्थ काम, मोक्ष की कामना मनुष्य में स्वाभाविक होती है और उसके पालन से उसको आनंद प्राप्त होता है। इन पुरुषार्थों का भी हमारे यहाँ संकलित विचार किया गया है।7 यद्यपि मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना है, तो भी अकेले मोक्ष की कामना रखने और उसके लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता है।
धर्म महत्वपूर्ण है परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म नहीं टिक सकता है। अतः हमारी पुरातन मान्यता है कि अर्थ का अभाव नहीं होने देना चाहिए क्योंकि वह धर्म का हेाता है। इसी प्रकार दण्ड नीति का अभाव अर्थात् अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक होती है। इसमें मत्स्य न्याय काम करने लगता है। अतः राज्य की स्थापना धर्म के लिए आवश्यक है।
अर्थ के अभाव के समान ही अर्थ का प्रभाव भी धर्म का चालक होता है। जब व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न बनकर साध्य बन जाए तथा जीवन की समस्त सिद्धियाँ अर्थ से ही प्राप्त हों, तो वहाँ अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और फिर मनुष्य अर्थ संयम के लिए नाना प्रकार के पाप करता है। इन सभी प्रकार के अर्थ के प्रभावों से बचना चाहिए। इसके लिए शिक्षा, संस्कार, दैवीय सम्पदा से युक्त व्यक्तियों का निर्माण तथा अर्थव्यवस्था के लोकहितकारी मार्ग का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है।8उपाध्याय जी कहते हैं, ‘‘हमने व्यक्ति के जीवन का पूर्णता के साथ तथा संकलित विचार किया है। उससे सभी भूखों को मिटाने की व्यवस्था की है। किन्तु यह ध्यान रखा है कि एक भूख मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दे। इस हेतु चारों पुरुषार्थों का समन्वित विचार हुआ है। यह पूर्ण मानव की, ‘एकात्म मानव’की कल्पना है, जो हमारा आराध्य और हमारी आराधना का साधन होती है।9
पं0 दीनदयाल जी का कहना है कि ‘‘भारतीय व्यक्ति और समाज रचना का उदाहरण विश्व में अद्वितीय है। भारतीय चिन्तन में व्यक्ति और समाज के संबंधों को परस्पर संघर्ष के आधार पर नहीं देखा गया है, इसे परस्पर जुड़ाव के रूप में देखा गया है। परस्पर सहयोग तथा सामंजस्य ही हमारी प्रकृति होनी चाहिए। सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन का भी यही आधार है। प्रकृति और मनुष्य के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संबंध है। मनुष्य को आवश्यकता है- आक्सीजन की जो उसे प्रकृति से प्राप्त हो रही है और वनस्पति को आवश्यकता है कार्बन डाई ऑक्साइड की जो उसे मनुष्य से प्राप्त हो रही है। उपाध्याय जी आगे कहते हैं कि ‘‘आपस में देना ही जीवन है, अधिकतम संचय की भावना ही मृत्यु है। मृत्यु को छोड़कर हम जीवन का वरण करें, अमरता का वरण करें, और मृत्यु को जीत लें।
भारतीय परम्परा एवं संस्कृति में समाज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था एक-दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी। एकात्मकता उसकी विशिष्ट विशेषता है।10 एकात्मकता भारतीय संस्कृति का आधारभूत विचार है। वस्तुतः उपाध्याय जी का विचार एकात्म दर्शन है लेकिन वह मानव के लिए है। उपाध्याय जी मानव को ईश्वर के खिलाफ नहीं, यंत्रवत भी नहीं, वरन् एक स्वयंपूर्ण एवं संवेदनशील इकाई के नाते, प्रस्तुत करना चाहते हैं। ‘एकात्म मानववाद’ अन्तर्विरोधों से परे एक ऐसी व्यवस्था को उजागर करता है जिसमें राष्ट्रीयता, मानवता, विश्वशांति की स्थापना करके व्यक्ति परिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है।11
एकात्म मानववाद की विशेषताएँः-
एकात्ममानववाद का आधार सहयोग, सहिष्णुता और सकारात्मक मानसिकता है; उसका स्त्रोत भारतीय दर्शन, संस्कृति एवं परम्परा है।
- व्यक्ति की आवश्यकताओं का फलक विस्तृत है, जो केवल शारीरिक व भौतिक आवश्यकताओं तक सीमित नहीं है।
- व्यक्ति की संरचना शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा से हुई है। इसकी रचना इन चार तत्वों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है।
- व्यक्ति के चार पुरुषार्थ हैं, इन चार पुरुषार्थों का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास और पूर्ण समष्टि का विकास है, ये दोनों परस्पर के पूरक हैं।
- एकात्मवाद- व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय हितों मे विरोध नहीं देखता बल्कि परस्परपूरकता इसकी मुख्य विशेषता है।12
एकात्म मानववाद के मुख्य तत्वः-
विकास के केन्द्र में मानवः- इस दर्शन के अनुसार भारत के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण था कि वह एक ऐसी स्वदेशी आर्थिक ढाँचे का विकास करे, जिसके केन्द्र में मानव को रखा गया हो, इसने पाश्चात्य दर्शन को पूर्णतः अस्वीकृत नहीं किया, बल्कि यह समाजवाद तथा पूँजीवाद को क्रमशः उनके गुणों के आधार पर मूल्यांकन करता है। साथ ही यह उनकी अतिवादिता तथा अलगाव का भी आलोचना करता है।13
व्यक्तिवाद का खण्डनः- यह व्यक्ति तथा समाज के मध्य एक सावयव संबंध की आवश्यकता पर बल देता है। सामान्य तथ्य तथा व्यक्ति विशेष के लक्ष्यों के बीच एक समन्वय होना चाहिए,जहाँ व्यक्ति विशेष के तथ्य का व्यापक सामाजिक लक्ष्यों के लिए त्याग भी किया जा सकता है। यह एक पूर्ण समाज के निर्माण हेतु परिवार तथा मानवता के महत्व को प्रोत्साहित करता है।
सांस्कृतिक चरित्रः- यह स्वदेशी संस्कृति को राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना के साथ एकीकृत करने का समर्थन करता है। इसके अनुसार, भारत द्वारा अपनाए जाने वाले किसी भी राजनीतिक दर्शन या विकास के किसी मॉडल की पृष्ठभूमि का निर्माण भारतीय संस्कृति की मूलवस्तु तथा इसकी अद्वितीयता द्वारा किया जाना चाहिए।14
समेकित दृष्टिकोणः- इसमें मतभिन्नताओं को स्वीकार करते समय, जीवन के विभिन्न पहलुओं में अलगाव, अस्वीकृति तथा असहमति की अपेक्षा अंतर निर्भरता, साहचर्य तथा एकत्व पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसलिए यह सभी के कल्याण हेतु कार्य करता है।
धर्म राज्यः- यह एक आदर्श कर्तव्यपारायण राज्य को निरूपित करता है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार प्रदान करने के साथ-साथ उसके राज्य के प्रति कुछ दायित्व भी निर्धारित किये जाते हैं।
एकात्म मानववाद में अंत्योदय का विशिष्ट स्थान है। अंत्योदय के इस अवधारणा में यह सुनिश्चित किया जाता है कि निर्णय इस प्रकार लिये जाएँ कि पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति को भी उसका लाभ प्राप्त हो सके।
समकालीन प्रासंगिकता
- यह मानव कल्याण के समग्र विचार का समर्थन करता है। एकात्म मानववाद का दर्शन अनियंत्रित उपभोक्तावाद तथा तीव्र औद्योगीकरण का विरोध करता है क्योंकि इसका लाभ सर्वाधिक निर्धन व्यक्ति तक नहीं पहुँचता। यह सिद्धांत वर्तमान समय के सभी के लिए समावेशी विकास के संदर्भ में अत्यधिक प्रासंगिक है।
- एकात्म मानववाद का दर्शन लोकतंत्र, सामाजिक समानता तथा मानवाधिकारों के विचारों का भी समर्थन करता है।चूंकि सभी धर्मों और जातियों का सम्मान तथा उनकी समानता धर्मराज्य की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है।
- एकात्म मानववाद का लक्ष्य प्रत्येक मनुष्य को गौरवपूर्ण जीवन प्रदान करना है। इस प्रकार यह उन सिद्धांतों और नीतियों को प्रोत्साहित करता है जो श्रम, प्राकृतिक संसाधन तथा पूँजी के उपयोग को संतुलित करने में सक्षम हो।
- इस दर्शन के अंगीकरण से राजनीति के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जा सकता है क्योंकि पंडित दीनदयाल का मानना था कि राजनीति का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाना है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आपराधिक तत्व, धन की शक्ति इत्यादि राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित कर रहे हैं और ऐसी स्थिति में यह अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता है। चूँकि यह दर्शन परिवार तथा समाज की राष्ट्र-निर्माण संबंधी भूमिका को रेखांकित करता है, अतः इससे परिवार की संस्था को भी सशक्त किया जा सकता है। एक ऐसे विश्व में, जहां जनसंख्या का एक बड़ा भाग निर्धनता से ग्रसित है,इसका प्रयोग विकास के एक वैकल्पिक मॉडल के रूप में किया जा सकता है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक आवश्यकताएँ समन्वित हो तथा जिसकी प्रकृति समेकित एवं संधारणीय हो। पं0 दीनदयाल जी ने ‘राष्ट्र-राज्य’ की राजनीतिक अवधारण जो पश्चिम से आई थी, इसमें निहित अमानवीयता को उजागर किया तथा भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाई। भारतीय समाजशास्त्र के राष्ट्रवादी तकनीकी शब्द पदों को उन्होंने खोजा तथा ‘चिति’ और ‘विराट’ संकल्पनाओं की युगानुकूल व्याख्या की। भौतिकवादी क्षेत्रीय राष्ट्र-राज्यवाद के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की। परिणामतः ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम्’ भारतीय राष्ट्रवाद के उद्घोष बन गए। भारतीयता एवं राष्ट्रवाद के इसी चिन्तन ने दीनदयाल जी को एकात्म मानववाद तक पहुँचाया। भारतीय मनीषा मानव को न तो केवल व्यक्ति मानती है तथा न केवल समाज। व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी एवं पृथक इकाई भी नहीं मानती बल्कि दोनों एक-दूसरे के परस्परपूरक देखते हुए उसे प्रकृति का अभिन्न हिस्सा मानती है। दीनदयाल जी ने इसी को व्यष्टि और समष्टि के रूप में देखा, जो एक एकात्म इकाई है। मानव इस एकात्मकता की उपज है। जैसा कि उपाध्याय जी ने कहा मानव केवल भौतिक इकाई नहीं है, इसमें आध्यामिकता निहित है। एकात्म मानव का संगोपांग विचार दर्शन उनकी इस युग को एक अनुपम एवं अद्भुत देन है।12 एकात्म मानववाद का एक समकालीन महत्व यह भी है कि यह दर्शन परस्पर विरोधी और एक-दूसरे के अधिकार एवं आजादी में दखल समझे जाने वाले वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक घटकों में समन्वय और सूत्रबद्धता को स्थापित करते हुए सभी को सशक्त करने की स्थापित भारतीय मान्यता पर भी मुहर लगाता है तथा व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र हर इकाई को दूसरे परिवृत से जोड़ते हुए कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति तक को सशक्त बनाते हुए अंत्योदय तक पहुँचता है।15
एकात्म दर्शन का महत्व इस बात से भी रेखांकित होता है कि इस दर्शन में वर्णित ‘चिति’के आइने में भारतीय परिवार के आर्थिक स्वभाव को इस रूप में चित्रित किया गया है कि हमारे यहाँ संबंध-प्रधान सामाजिक व्यवस्था सांस लेती है, जबकि पश्चिम में अनुबंध आधारित व्यक्तिवादी जीवन शैली है। भारत में परिवार अनुबंध आधारित रिश्ता नहीं है जो इच्छानुसार समाप्त किया जा सकता है, बल्कि परिवार एक समन्वित सांस्कृतिक संस्था है जिसके सदस्य एक- दूसरे की परवाह और साझा भावनाओं से बंधे होते हैं।16
पं0 दीनदयाल उपाध्याय की यह सबसे बड़ी देन है कि उन्होंने भारत की सनातन चिन्तन परम्परा को एक व्यव्यस्थित दर्शन के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। यह दर्शन केवल भारतीय जनता पार्टी का गुणसूत्र भर नहीं है बल्कि इसमें आधुनिक प्रबन्धन से कदमताल का माद्धा भी है।
१. डॉ0 महेश शर्मा: दीनदयाल उपाध्याय का कृतित्व एवं विचार, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली 2018 पृ0 31
१३. विलफेड बेलांक, ‘गाँधी’ एक सामाजिक क्रांतिकारी अखिल भारत सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, काशी पृ0 10
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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