ज़िन्दगी कैसी है? कुछ कहेंगे काली, तो कुछ के लिए सफेद है। या कहें कि धूसर है... तो? आज कॉलेज जाते समय नया गाँव मोड़ पर तितलियाँ फिर दिखीं। इस बार पीली नहीं सफेद और बैंगनी थीं। दो तितलियाँ पास आईं फिर चली गईं। दूर-दूर उड़ती फिरीं। मैंने पूछा कि “नाराज हो क्या?” तो संगिनी की तरह कोई जवाब नहीं... “फुला लो मुँह, मेरी बला से। मैंने क्या गलत कहा?... हुँह, इनकी ज्यादा आजीजी करो तो सर चढ़ती हैं। हाँ, ये भी कोई बात है? कुछ कहो ही मत। थोड़ी भी इनकी गलती की ओर इशारा करो तो बस झट मुँह फूल जाता है। खैर, शाम तक मान ही जाएँगी नहीं तो रात को मना लेंगे।”
उसके पहले बीच रस्ते, निचाट वीराने खेत में एक पलाश दिखा। एक अकेला पलाश। अपत पलाश। कोरे फूल, पत्ता एक भी नहीं। सुर्ख लाल फूल वाला। पलाश का जंगल होता तो कैसा दिखता? लेकिन यहाँ जंगल की आग जैसी कोई बात नहीं। एक अकेला पलाश। अज्ञेय ने क्या कहा था इस बारे? हाँ....“यह दीप अकेला, स्नेह भरा। है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो।” दीप हो, पलाश हो या मनुष्य; सब समूह में ही शोभा पाते हैं। समूह से व्यक्ति की शोभा है, वहीं व्यक्ति भी समूह की शोभा में श्रीवृद्धि करता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। कॉलेज के अगले मोड़ पर एक बुजुर्ग किसान दंपती दीखे। रोज एक नज़र डालता हूँ इन पर। ये दंपती जो कभी अलसाते, कभी बतियाते, कभी बीड़ी फूंकते दीखते थे आज बेबस दिखे। लाचार से। चक्रवाती बारिश, ओलों से फसल की बहुत बर्बादी हुई है। स्त्री भाव शून्य है या मैं ही उसका भाव नहीं पकड़ पा रहा हूँ? पुरुष माथा पकड़े हैं। आज खाट पर नहीं, नीचे बैठे हैं दोनों। बस में हुए वार्तालाप से हुलसा हुआ मैं ये सब देखकर कुछ बुझ गया।
आज बस में चढ़ा तो भीड़ थी। पीछे खाली सीट नहीं पाकर मैंने आगे ही ड्राइवर केबिन से सटकर खड़ा रहना ठीक समझा। बायीं ओर पहली सीट पर एक बुजुर्ग झपकी ले रहे थे। उँगलियों में फँसी किताब का शीर्षक देख मैं अजरज और खुशी से भर गया। ‘भारत विभाजन की अंतःकथा’, लेखक: प्रियंवद। चुपके से फोटो ले लिया। सवारियाँ चढ़ने से पैदा हुए शोरगुल में वे जग पड़े। कुर्ता-धोती और ऊपर से सदरी पहने थे। उम्र कोई सत्तर के आसपास। मैंने कौंचा-
“आप यह किताब क्यूँ पढ़ रहे हैं?”
“क्यूँ किताब पढ़ना कोई गुनाह है?”
“नहीं, मेरे जैसा कोई पहली बार मिला है बस में, पिछले सात महीनों में। बस इसलिए पूछ लिया।”
“आप?”
“मेरा नाम...... है, मैं कॉलेज में हिंदी पढ़ाता हूँ।”
“हुँह, लिटरेरी टेस्ट के आदमी हैं... केबिन का शीशा खिसका लीजिए। टिककर बैठ जाइए।”
“मेरा नाम अबुल हसन है। वकालात का पेशा रहा है मेरा। जाति से मेव हूँ। पाँच लड़के और दो लड़कियाँ हुईं। सब सेटल्ड हैं। अब सब काम-धाम से फ्री हूँ। इतिहास पढ़ना मेरा शौक समझ लीजिए। थ्रू आउट इंग्लिश मीडियम में पढ़ा हूँ सो अंग्रेजी में हिस्ट्री की किताबें खूब पढ़ता रहा हूँ। इधर हिंदी में इतिहास की अच्छी किताबें कम मिलती हैं। पर ये बढ़िया है (किताब उठाकर उन्होंने कहा)।”
अपना इम्प्रेशन जमाने की कोशिश में मैंने कहा - “इसके रायटर से मैं मिला हूँ। बढ़िया लिखते हैं। इसके पहले पेज पर लिखा है – ‘भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की युवा पीढ़ी के लिए’।”
उन्होंने किताब खोली। पढ़ा। हूबहू वही लिखा था। पढ़कर मुतमईन हुए। लगा आँखों के आगे कुछ फ़्लैश हुआ। मेरी ओर देखकर बोले- “पर जिस पीढ़ी के लिए लिखा है, वह पढ़ती ही कहाँ है?”
मैंने सम्पुट लगाया - “वह तो सारा इतिहास व्हाट्सअप पर पढ़ती है। रोज सुबह वहीं ज्ञान परोसा जा रहा है। और नीचे आदमी की नस दबाती चेतावनी कि असली.... हो तो दस लोगों तक फॉरवर्ड करो। बस यही सब चल रहा है।”
“जवान पीढ़ी का नाश कर दिया जी। देश को बर्बाद करने में लगे हैं।”
“बर्बाद तो गाँधी और नेहरू ने किया है इस देश को।” यह कहते हुए एक सज्जन बीच में कूदे।
वे हमारी बातचीत बड़ी उत्सुकता से सुन रहे थे, बोलने की फ़िराक में थे और उन्हें मौका मिल गया।
“नेहरू के कपड़े पेरिस में धुलने जाते थे। उन्हें कॉलेज से लाने चार दरवाजों पर चार गाड़ियाँ जाती थी। सैंतालिस में गाँधी ने मुसलमानों को रोककर बेड़ा गर्क कर दिया इस देश का। नहीं तो आज जो सब दिक्कतें हैं वो सब होती ही नहीं। सत्तर साल से चुप बैठे थे। बोलने का मौका ही अब आया है। और लगे हाथ बता दूँ कि सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या होती ही नहीं। पर मोदी है तो मुमकिन है। बन्दे ने जो कहा वो कर दिखाया। राम मंदिर बन ही रहा है। और अब इस देश को हिन्दू राष्ट्र होने से कोई नहीं रोक सकता। और सुन लीजिए, जिस दिन योगी प्रधानमंत्री बन गया उस दिन देश हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा।”
मैंने उन्हें टोका – “आपने कहाँ पढ़ा ये सब?”
“पढ़ा नहीं, सुना है।”
मैंने इशारा किया पहले “ये किताब पढ़िए फिर बोलिए।”
बुजुर्ग भी मुस्काए। सज्जन का नाम-पता पूछा।
“मेरा नाम उमरचंद है, स्कूल व्याख्याता हूँ। अंग्रेजी पढ़ाता हूँ। राष्ट्रवादी साहित्य खूब पढ़ा है मैंने। वहीं ये सब पढ़ा-सुना है।”
हसन साहब बोले- “उमरचंद एक किस्सा सुनिए (मुझसे मुखातिब हो बोले: आप भी)। इस देश में आज हर मुसलमान को देश के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने को कहा जा रहा है। मेरी उम्र सत्तर साल है। पचास साल की उम्र तक किसी ने ये सवाल मुझसे नहीं पूछा। किसी हिन्दू ने नहीं, पहली दफे मुझसे ये सवाल एक मुसलमान ने ही पूछा- “हसन साब, आप मेव पहले हैं या मुसलमान?” मैंने कहा – जी, मजहब बदलना आदमी के हाथ में है, बाप बदलना नहीं। तो पहले हूँ तो मेव ही।”
गला साफकर फिर बोले – “मुसलमान ही हमको मुसलमान कहाँ मानते हैं? कुछ लोग इसी में लगे हैं कि हम पक्के मुसलमान बन जाएँ। वे गाँव-गाँव जाकर हमें इस्लामी तौर-तरीके अपनाने और हिन्दू रीति-रिवाज छोड़ने को कहते हैं। इसमें वे कामयाब भी हो रहे हैं। खुद इस्लाम में कितने फिरके हैं। शिया-सुन्नी के अपने झगड़े हैं। सूफियों को भी पक्का मुसलमान नहीं माना जाता। मैं कहता हूँ जरूरत क्या है इन सबकी? मजहब के अलावा और भी बहुत गम हैं ज़माने में।”
उमरचंद मुस्कराते हुए बोले - “बात घुमा दी आपने। मुद्दे से मत भटकिए साहब। गाँधी, नेहरू और कश्मीर पर कुछ नहीं कहा आपने?”
“आप कश्मीर पर मेरी निष्ठा जाँचना चाहते हैं क्योंकि मैं मुसलमान हूँ या असल में कश्मीर की समस्या को समझने में इंट्रेस्टेड हैं?”
“नहीं। मैं सच में जानना चाहता हूँ।”
“तो सुनिए। कश्मीर न भारत का है और न पाकिस्तान का। वह न भारत में शामिल होना चाहता था और न पाकिस्तान में। तब भी और अब भी। भारत और पाक दोनों ने जितना दबाना चाहा उतना दबा लिया। वहाँ घाटी की ज्यादातर अवाम मुसलमान थी, राजा हिन्दू था। पाकिस्तान ने जब उस पर कब्ज़ा करने के लिए कबाईली भेजे तो राजा ने घबराकर भारत से संधि कर ली। तब भी उसने शर्त रखी कि कश्मीर आजाद रहे, हमारी स्वायत्तता बनी रहनी चाहिए। भारत ने मान लिया और मन ही मन सोचा कि चलो, एक बार आने तो दो फिर देख लेंगे। और आज हमने हमारे मन का वो सब कर लिया जिसका क्रेडिट तुम आज के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को दे रहे हो। नेहरू की ऐतिहासिक भूल को सुधारने का दावा कर रहे हो। ये सब होने के बाद भी कश्मीर में अशांति क्यों हैं? क्यों कश्मीरी पंडितों पर हमले हो रहे हैं? अब तो खुद भारत सरकार वहाँ गद्दीनशीन है, क्यों नहीं रोक पा रहे हो खून-खराबा? सैंतालिस में और बाद में जब-जैसे पाकिस्तान जितना कब्ज़ा सका, कब्ज़ा लिया। हमने उसे पीओके कह दिया। शेष पर हम काबिज हैं। कश्मीरी चाहे उधर का हो या इधर का, वह आज भी आजाद होना चाहता है। यही मसला है। लेकिन उनकी इतनी ताकत है नहीं कि भारत और पाकिस्तान जैसे दो ताकतवर मुल्कों के बीच आजाद रह सकें। और यह सिर्फ हमारे यहाँ नहीं हुआ; दुनिया के बहुत से हिस्सों में ऐसे कश्मीर हैं। इतिहास उठाकर देख लीजिए। ये यूएन और अमरीका, कश्मीर पर जो बकवास करते रहते हैं, इनका खुद का दामन कितना पाक-साफ है?”
हसन साब और उमरचंद साब अगल-बगल की दो सीटों पर बैठे थे। मैं बीच में केबिन के पार्टीशन पर टिक कर बैठा था। नीचे से चुभ रहा था लेकिन हसन साब ने अनूठी बात कह दी थी। कम से कम मैंने तो ऐसा नहीं पढ़ा-सुना था। उमरचंद जी के पीछे वाली सीट पर बैठे दो सज्जन भी उचककर हसन साब को सुन रहे थे।
मैंने बातचीत का नया सिरा टटोला और एक तीर छोड़ा - “ये राहुल गाँधी कह रहे हैं कि मैं गाँधी हूँ, सावरकर नहीं। मैं माफी नहीं माँगूगा। इस पर क्या कहेंगे आप?”
हसन साब फीकी हँसी हँसे और बोले – सही फरमाया आपने। मैं वहीं आ रहा हूँ। सावरकर जब अपनी किताब में हिटलर से प्रेरित राष्ट्रवाद के बहाने फादरलैंड यानी पितृभूमि का कॉन्सेप्ट लाए कि भारत का निवासी वह है जो यहाँ जन्मा हो, जिसकी कम से कम चार पीढ़ियाँ यहाँ जन्मी हों और जिसके पवित्र तीर्थ-स्थल यहाँ हो, वह भारत का निवासी है। अब सुनिए, इस देश में फादरलैंड यानी पितृभूमि का कॉन्सेप्ट कभी रहा ही नहीं। मातृभूमि का विचार है हमारे यहाँ, उसी को उर्दू जबां में ‘मादरे वतन’ कहा गया। एक सच्चा मुसलमान दिन में पाँच बार नमाज के वक्त अपना सर इस मादरे वतन पर झुकाता है, वही उसका वंदे मातरम् है। कौन लोग हैं जो जबरन कहला रहे हैं कि भारत माता की जय और वंदे मातरम् बोलो नहीं तो पाकिस्तान चले जाओ? तुम कौन होते हो देशभक्ति का सर्टिफिकेट बाँटने वाले? और संघी मानसिकता के लोगों ने इस आधार पर कहना शुरू कर दिया कि मुसलमान भारत में नहीं रह सकते।”
उमरचंद ने टोका – “तब संघ कहाँ था? वह तो.... ”
“नहीं था, उस मानसिकता के लोग तो थे। जब मुसलमानों ने ये सुना तो उन्होंने भी अपने लिए अलग मुल्क की माँग रखनी शुरू कर दी। मैं उस समय होता तो दोनों से कहता कि मुसलमान भारतवासी क्यों नहीं हैं? चार नहीं, हमारी सात पुश्तें यहाँ पैदा हुई हैं। तुम मक्का-मदीना के बहाने हमें भारत का नहीं मानते न ! लेकिन हमारे पुरखों के पवित्र तीर्थ-स्थल तो यहीं हैं। लोभ में, दबाव में, जबरन... जैसे भी बने लेकिन खून तो हमारा वही है। आज कौन-सा भारतीय मुसलमान ये दावा कर सकता है कि उसकी नसों में हिन्दुस्तानी खून नहीं? गाँधी ने सावरकर की इस स्थापना को नकारा। एक वही आदमी था जिस पर मुसलमान भरोसा कर सकते थे और किया भी... सैंतालिस में जब ग़दर मचा तो भरतपुर के राजा बच्चू सिंह ने मेवों को यहाँ से खदेड़ दिया कि जाओ पाकिस्तान। हम रेवाड़ी, घासेड़ा... उधर चले गए। उधर हमारे रिश्तेदार थे। वहाँ भारत सरकार ने घासेड़ा में कैंप बनाया कि जो लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं वे अपनी मर्जी से इस कैंप में चले जाएँ। इसी तरह पाकिस्तान में भी कैंप बनाए गए। मर्जी से जाना था, सरकार का कोई दबाव नहीं। तभी वहाँ गाँधी आए। 19 दिसंबर, 1947 को वहाँ के एक मेव (नाम सोचते हैं पर याद नहीं आता) ने गाँधी को घासेड़ा बुलाया। गाँधी ने वहाँ सभा की। लोगों को संबोधित किया। मेवों से भारत छोड़कर पकिस्तान न जाने की अपील की। गाँधी ने मेवों को इस देश की रीढ़ की हड्डी कहा। गाँधी के कहने पर मुसलमान यहाँ रुक गए। लोगों ने कैंप को तोड़ दिया और पाकिस्तान नहीं गए। यही घासेड़ा तब से ‘गाँधी ग्राम घासेड़ा’ कहलाने लगा।
उमरचंद भी अब हसन साब से सहमत नजर आने लगे। गर्दन हिलाते हुए उन्होंने हामी भरी।
मैं उमरचंद साहब से मुखातिब हुआ- “ये किताब जो हसन साब की गोद में रखी है। इन लेखक की इतिहास पर एक किताब और है ‘भारतीय राजनीति के दो आख्यान’ उसमें गाँधी, नेहरू, सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस; इन चार किरदारों के आपसी पत्र व्यवहार के माध्यम से वास्तविक सत्य के उद्घाटन का प्रयास किया गया है। मैंने पढ़ी है। इससे पता चलता है कि ‘सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या नहीं होती’ जैसी बातें सिर्फ जुमले हैं। ऐसा नहीं है कि इन लोगों के बीच असहमतियाँ नहीं थीं। थीं, लेकिन इन्होंने हमेशा देश को पहले रखा। पहले जो मैंने आपको टोका उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। और मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आपने नहीं पढ़ा या मैंने ज्यादा पढ़ा है। इतिहास मैंने भी ज्यादा नहीं पढ़ा। मैं साहित्य का विद्यार्थी हूँ। लेकिन इस किताब के लेखक प्रियंवद कहते हैं कि इस देश में तीन तरह का इतिहास लिखा और पढ़ा गया। एक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से, दूसरा वामपंथी दृष्टिकोण से, तीसरा विदेशी इतिहासकारों के नजरिए से। आप एक क्यों पढ़ते हैं, तीनों क्यों नहीं पढ़ते? पढ़कर निष्कर्ष निकालिए। क्या सही है, क्या गलत?”
यह सुनकर हसन साब मुस्कराए। बोले –“ बात तो ठीक कही आपने।”
मैंने झीना-सा प्रतिवाद किया – “मैंने नहीं, प्रियंवद ने।”
सबने मिलकर ठहाका लगाया।
तभी कंडक्टर ने आवाज लगाई। मेरा गंतव्य आ गया था। मैंने दोनों सज्जनों से इजाजत माँगी।
उमरचंद बोले – “ऐसे बुजुर्ग कम है अब हमारे बीच। ये लोग जीते-जी इतिहास हैं। पर इनके सच्चे अनुभवों को लिखे कौन?”
मैंने मन ही मन कहा - “मैं लिखूँगा।” और बस से उतर पड़ा।
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
बढ़िया, बातचीत होती रहनी चाहिए
जवाब देंहटाएंतितलियों के नाजुक परों को छूती हुई, पेड़ों के तनों ,टहनियों से परचती हुई, किसान दम्पती से रूह जोड़ती डायरी कब संवाद के सहारे गहरी वैचारिक बहस में मशगूल हो जाती है पता ही नहीं चलता। वाह लेखक से सहमत, असहमत या अर्द्ध सहमत हो सकते हैं पर यह लेखन आपको कोंचता जरूर है...और पाठक सोचता जरूर है चाहे अपने तय फ्रेम में सोचे या फ्रेम के पार जाकर।
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