शोध आलेख : मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में अर्थ विस्तार / डॉ. शिखा रानी

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में अर्थ विस्तार
- डॉ. शिखा रानी

शोध सार : राष्ट्रकविमैथिलीशरण गुप्तहिन्दी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं इन्होंने अपने काव्य में भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा एवं भारतीय मर्यादा की रक्षा हेतु प्राचीन से प्राचीनतम वर्ण्य विषयों पर अपनी लेखनी चलाई, जबकि दूसरी ओर गुप्तजी ऐसे समय में काव्य सृजन कर रहे थे जब छायावादी काव्य हिन्दी जगत् में अपने पैर पसार रहा था। गुप्तजी ने एक ओर प्राचीन शब्दों का चयन किया तो दूसरी ओर उन चयनित शब्दों को नये परिप्रेक्ष्य में ढाल दिया जिसके परिणामस्वरूप उनके काव्य में शब्दों के अर्थो में व्यापकता आती चली गयी जिसे हम भाषा वैज्ञानिक दृष्टि सेअर्थ-विस्तारकहते हैं। इस शोध आलेख में जब हम गुप्तजी के काव्य का अर्थ विस्तार के संदर्भ में अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि जहाँ-जहाँ अर्थ-विस्तार हुआ है, वहाँ सामान्य की विवक्षा और विशेष की अविवक्षा, लक्षणा साम्य आदि कारण साथ रहे हैं।


बीज शब्द : लक्षणा, सादृश्य, साम्य, रूपक तत्व, विशेष की अविवक्षा, सामान्य की विवक्षा, अर्थ में व्यापकता, अतिरिक्त अर्थ प्रतीति, अर्थ विकास, गम्भीरता, भाव सौन्दर्य, मानव-मूल्य


मूल आलेख : संसार की सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। भाषा भी परिववर्तन शील है। जिस प्रकार ध्वनियों में परिवर्तन होता है उसी प्रकार प्रत्येक भाषा के शब्दों के अर्थों में भी परिवर्तन होता रहता है। इस अर्थ-परिवर्तन को विकास सिद्धान्त की दृष्टि से अर्थ-विकास भी कहा जाता है। अर्थ परिवर्तन के तीन प्रकार हैं- कहीं पर अर्थ का विस्तार होता है तो कहीं पर अर्थ में संकोच होता है। कहीं पर पुराने अर्थ के स्थान पर नया अर्थ जाता है यद्यपि अर्थ-परिवर्तन की दिशाओं का पूर्णतः निर्धारण करना कठिन कार्य है परन्तु विद्वानों ने स्थूल रूप से अर्थ-परिवर्तन की तीन प्रवृत्तियाँ मानी हैं यास्क मुनि ने अर्थ परिवर्तन की तीन दिशायें घोषित की हैं- अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच और अर्थादेश[1] भारतीय भाषा वैज्ञानिक डॉ. कपिल देव द्विवेदी ने भी अर्थ-परिवर्तन की इन्हीं तीन शाखाओं की ओर संकेत किया है।[2] इनमें अर्थ-विस्तार की विवेचना निम्नलिखित है


अर्थ विस्तार का सामान्य भाव है- ‘अर्थ क्षेत्र का विस्तृत होना जब कोई शब्द एक समय सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता रहा हो और बाद में उसकी अर्थ सीमा का विस्तार हो जाए तो उसे अर्थ विस्तार कहते हैं दूसरे शब्दों में कह सकते हैं जब शब्द एक ही प्रसंग में प्रयुक्त न होकर विभिन्न प्रसंगों में प्रयुक्त होने लगता है वहाँ अर्थ विस्तार होता है-यथा-‘प्रवीणशब्द का अर्थ हैप्रकृष्टोवीणायाम्’- वीणा वादन में सुयोग्य परन्तुप्रवीणशब्द अपने मूल अर्थवीणा वादनकी विशेषता को छोड़कर किसी भी कार्य के कौशल में प्रवीणशब्द में प्रयोग होने लगा है।कुशलशब्द का मूल अर्थ था- ‘कुशा लाने वाला, किन्तु बाद में इसका अर्थ हुआ चतुर। इसी प्रकार तैलशब्द का अर्थ पहलेतिलों से निकलने वाला द्रव था, बाद में सरसों, नारियल, अलसी आदि से प्राप्त द्रव को भी तैलकहा जाने लगा साथ ही नीम का तेल’, ‘मिट्टी का तेलभी भाषा में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार इन शब्दों के अर्थों में परिवर्तन हुआ है, यह परिवर्तन अनेक दिशाओं में हुआ है अर्थात् कुशल तथा तैल शब्दों के अर्थों में विस्तार हो गया है। शब्दों के अर्थों में विस्तार हो या संकोच भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह सब अर्थ का विकास है। इस प्रकार यहाँ अर्थ का विस्तार हो गया है व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के अर्थ भी विस्तृत हो जाते हैं शर्त एक है-वे व्यक्ति या तो बहुत अच्छे हों या बहुत बुरे हों-‘बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा।जयचन्दपहले कभी कन्नौज का एक राजा विशेष था परन्तु आजकल प्रत्येकदेशद्रोहीकोजयचन्दकहा जाता है


मैथिलीशरण गुप्त के प्रमुख काव्य ग्रन्थों में अर्थ-विस्तार के विचित्र प्रयोग का विश्लेषण निम्नलिखित है :-

 

                 (क) साकेत मे अर्थ-विस्तार -


भारतीय संस्कृति में स्त्रियों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। वह सदा से ही सम्मान पाने की अधिकारिणी रही है। जिन कवि-कुल चूड़ामणिवाल्मीकिके मुख से ‘‘मा निषाद् प्रतिष्ठां त्वम् गमः शास्वतीः समाः’’ का उच्चारण हुआ, उनकी वाणी से विरह-विदग्ध उर्मिला के लिए एक भी शब्द निकला। उस बेचारी उर्मिला के विवेचन के लिए श्रीमैथिलीशरण गुप्तने अपनी लेखनी उठाई औरसाकेतनामक महाकाव्य की रचना कर विरह-विधुराउर्मिलाके हृदय का चित्रांकन किया। नारी की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए गुप्त जी ने नारी जाति के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की है।रामायणमहाकाव्य पर आधारित गुप्त जी कासाकेतमहाकाव्य अपनी शैली का अद्वितीय प्रबन्ध काव्य है। इस काव्य में लाक्षणिकता का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि इस काव्य में ऐसे शब्दों का कम प्रयोग हुआ है तथापि जिन कतिपय शब्दों में अर्थ विस्तार हुआ है वे नितान्त बेजोड़ हैं। यहाँ गुप्त जी के काव्य में प्रयुक्त अर्थ विस्तार के प्रमुख प्रयोगों का अध्ययन किया जा रहा है -

 

वैभव -

‘‘दृष्टि में वैभव भरा रहता सदा ;
घ्राण में आमोद है बहता सदा।
ढालते हैं शब्द श्रुतियों में सुधा,
           स्वाद गिन पाती नहीं रसना-क्षुधा !’’[3]

 

वैभवशब्द का मुख्यार्थसम्पत्तिहै उक्त प्रसंग मेंवैभवशक्ति का, धर्म का, आचरण का और ज्ञान केवैभवका बोध करा रहा है इस प्रकारवैभवमें अर्थ-विज्ञान की दृष्टि से अर्थ-विस्तार हुआ है

 

अमरावती -

‘‘है अयोध्या अवनि की अमरावती,
इन्द्र हैं दशरथ विदित वीरव्रती,
वैजयन्त विशाल उनके धाम हैं,
    और नन्दन वन बने आराम हैं। ’’[4]

 

अमरावतीसे तात्पर्यइन्द्रपुरीसे है परन्तु यहाँअमरावतीका प्रयोग सौन्दर्य से परिपूर्णअयोध्याके लिए हुआ है इस प्रकारअमरावती के द्वारा यहाँ के वैभव, सम्पत्ति, सौन्दर्य आदि को दर्शाया गया है जहाँ किसी चीज की कोई कमी नहीं है इस प्रकार भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यहाँ अर्थ-विस्तार हुआ है

 

उत्तर, विभूति, भव-भूति -

‘‘करुणे, क्यों रोती है ? उत्तर में और अधिक तू रोई-
मेरी विभूति है जो, उसको  भव-भूति क्यों कहे कोई ?’’[5]

 

उत्तर’, ‘विभूतिएवंभव-भूतिशब्द का अभिधेयार्थ क्रमशः एक दिशा अथवा वाब, आध्यात्मिक ऐश्वर्य एवं लौकिक ऐश्वर्य है किन्तु यहाँउत्तरका तात्पर्य दिशा अथवा जवाब के साथ-साथ संस्कृत के नाटककारभवभूति’  कृतउत्तररामचरितनाटक से भी हैविभूतिशब्द का तात्पर्य यहाँ ऐश्वर्य के साथ-साथसमृद्धिसे भी है इसी प्रकारभव-भूतिशब्द का तात्पर्य यहाँसंसार के ऐश्वर्यके साथ-साथ करुण रस की सर्वश्रेष्ठ व्यंजना करने वाले संस्कृत के नाटककारभव-भूतिसे भी है अतः यहाँउत्तर’, ‘विभूतितथाभव-भूतिशब्द अपने मूल अर्थ को अभिव्यंजित करने के साथ-साथ एक विशिष्ट अर्थ का भी बोध करा रहे हैं, इसलि यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

प्रभात -

‘‘जीवन के पहले प्रभात में आँख खुली जब मेरी,
हरी भूमि के पात पात में मैने हृदयगति हेरी।
खींच रही थी दृष्टि-सृष्टि यह स्वर्णरश्मियाँ लेकर,
पाल रही ब्रह्माण्ड प्रकृति थी, सदय हृदय में लेकर।’’[6]


उक्त प्रसंग में प्रयुक्तप्रभातशब्द का मूल अर्थसवेराअथवा प्रातःकाल है किन्तु यहाँप्रभातशब्द का प्रयोगयुवावस्थाके लिए हुआ है। इस युवावस्था में उल्लास, प्रेम, गति और कर्म आदि की अभिव्यक्ति हो रही है। इसी कारण यहाँ अर्थविस्तार का बोध हो रहा है


() भारत-भारती में अर्थ विस्तार -


भारती-भारतीगुप्त जी का एक निराख्यानक वृहद निबन्धात्मक काव्य है यह राष्ट्र प्रेम की श्रेष्ठ पुस्तक है। इसमें स्वेदश के प्रति गौरव की भावनाएँ भरी हुई हैं उनकी यह रचना तो राष्ट्र भक्ति की पुनीत गीता बन करके ही सामने आई इससे मुक्ति आंदोलन को बढ़ावा मिला और राष्ट्र की आत्मा विदेशी शासन से मुक्त होने के लिये छटपटा उठी इस सन्दर्भ में निम्नांकित पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

 

जय भारत भूमि भवानी
अमरों ने भी तेरी महिमा बारम्बार बखानी।।

 

इस काव्य की रचना का आधारमुसद्दसे हालीऔरकैफीहैं। भारत-भारती में अर्थ विस्तार के जो उदाहरण हैं उन्हें हम प्रस्तुत कर उनका विवेचन निम्न प्रकार से कर सकते हैं

 

विपदा-सम्पदा -

‘‘संसार में किसका समय है एक-सा रहता सदा,
है निशि दिवा-सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्न है, कल शोक से रोता वही!’’[7]

 

विपदाऔरसम्पदाशब्द का अभिधेयार्थ क्रमशःविपत्तिऔरसम्पत्तिहै यहाँ विपदाका अर्थ जीवन में आने वाली दैहिक, दैविक और भौतिक विपदाओं से हैसम्पदाशब्द का अर्थ यहाँ धन, शक्ति और सत्ता की सम्पदा से है। अतः विपदा-सम्पदा में अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

पतझड़ -

‘‘यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ,
प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ।
पर हाय! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है,
पतझड़ कहें या सूखना कायापलट या काल हैं?’’[8]

 

सामान्यतःपतझड़शब्द का अर्थपत्तों का झड़नाहै किन्तु उक्त प्रसंग मेंपतझड़शब्द का अर्थ उदासी, नीरसता एवं विपन्न होने से है। अतः यहाँ भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अर्थ विस्तार हुआ है

 

भव-बन्धनों -

‘‘संयम-नियम-पूर्वक प्रथम बल और विद्या प्राप्त की,
होकर गृही फिर लोक की कर्त्तव्य-रीति समाप्त की।
हम  अन्त  में  भव-बन्धनों  को थे सदा को तोड़ते,
आदर्श भावी सृष्टिहित थे मुक्ति-पथ में छोड़ते।’’[9]

 

            ‘भव-बन्धनका मुख्यार्थसंसार का बन्धनहोता है किन्तु उक्त प्रंसग में भव-बन्धन का अर्थ संसार का बन्धन न होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि के बन्धन से मुक्त होना है अतः यहाँ अर्थ विस्तार की प्रतीति हो रही है

 

ज्योति -

‘‘फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में,
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में
इंजील और कुरान आदिक थे तब संसार में-
हमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में।।’’[10]

 

‘‘ज्योति शब्द का प्रयोग प्रायःप्रकाशके लिए होता है यहाँ उक्त संदर्भ मेंज्योतिशब्द ज्ञान, प्रेम और धर्म की ज्योति अर्थ की प्रतीति करा रहा है। इस प्रकार यहाँ भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अर्थ का विस्तार हुआ है।

 

भीषण अँधेरा -

‘‘क्या थे यवन पाते प्रश्रय यदि अधम जयचन्द से ?
जयशील पृथ्वीराज हारे अन्त में छल-छन्द से।
हा! देश का दीपक बुझा भीषण अँधेरा छा गया;
निज कर्म के फल-भोग का वह काल आगे गया।’’[11]

 

भीषण अँधेराशब्द का मुख्यार्थघनघोर अन्धकारहै किन्तु यहाँभीषण अँधेराशब्द का अर्थ निराशा, पराधीनता और विपत्ति है उक्त पंक्तियों में कवि ने स्पष्ट किया है कि छल-दम्भ द्वारा पृथ्वीराज का वध हो जाने के कारण देश में हर ओर भारी शोक छा गया था अतः यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

औरंगजेबी -

‘‘जो हम कभी फूले-फले थे राम-राज्य बसन्त में,
हा! देखनी हमको पड़ी औरंगजेबी अंत में!
है कर्म का ही दोष अथवा सब समय की बात है,
होता कभी दिन है, कभी होती अँधेरी रात है।’’[12]

 

औरगंजेबीशब्द का तात्पर्यऔरंगजेबी शासनहै उक्त प्रसंग मेंऔरगंजेबीशब्द का प्रयोग अत्याचार, क्रूर, धर्मान्ध और निर्दयता के लिए हुआ है एक ओर जहाँ राम-राज्य में सुख और प्रसन्नता थी वहीं दूसरी ओर औरंगजेबी शासन में भिन्न-भिन्न कष्ट सहने पड़े अतः औरंगजेबी शब्द उन सभी विभिन्न प्रकार की यातनाओं की ओर संकेत कर रहा है यह भी एक प्रकार से अर्थ विस्तार का ही उदाहरण है

 

गर्दभ -

‘‘गर्दभ बना था सिंह उसकी खाल को पाकर कभी,
पर सिंह के-से गुण कहाँ, हँसने लगे उसको सभी।
इस भाँति के नरपुंगवों की क्या यहाँ बढ़ती नहीं ?
पर हाय! काले भाल पर लाली कभी चढ़ती नहीं।।’’[13]

 

गर्दभशब्द का सामान्य अर्थगधाहै किन्तु प्रदत्त पंक्तियों के अनुसारगर्दभशब्द का अर्थ मूर्ख, कायर और दिशाहीन है अतः यहाँ भी अर्थ विस्तार की प्रतीति हो रही है

 

() द्वापर में अर्थ विस्तार -


द्वापरमहाभारतीय आख्यानों पर आधारित गुप्त जी का एक लघु खण्ड काव्य है। इस खण्ड काव्य में अर्थ-विस्तार के प्रमुख प्रयोग निम्नलिखित हैं-

 

रंग -

‘‘धनुर्बाण वा वेणु लो श्याम रूप के संग,
मुझ पर चढ़ने से रहा राम! दूसरा रंग।’’[14]

 

            ‘रंगदृश्य पदार्थ का वह गुण है जो केवल आँखों से जाना जाता है। रँगने के लिए व्यवहार में आने वाला पदार्थ रंग ही है किन्तु यहाँ रंग शब्द का प्रयोग प्रभाव, आचरण की शुद्धता का बल, भक्ति मार्ग का परिवर्तन आदि अर्थों की प्रतीति करा रहा है। अतः यहाँ अर्थपरिवर्तन की दृष्टि से अर्थविस्तार तो हुआ ही है, साथ ही रंग की उत्कृष्ट अर्थ वत्ता होने के कारण अर्थ का उत्कर्ष भी हुआ है, जोगुप्त जीके व्यापक ज्ञान एवं भक्ति भाव के साथ-साथ कलात्मक विलक्षणता का भी द्योतक है।

 

तड़ित -

‘‘बिछड़ा ही वह नहीं वर्ग से
मृग-सा जाल-जड़ि़त है;
नहीं तड़प भी पाता, यद्यपि
भीतर भरी तड़ित है।’’[15]

 

सामान्यतःतड़ितशब्द का अर्थबिजलीहोता है किन्तु प्रस्तुत पंक्तियों मेंतड़ितशब्द का प्रयोग आकुलता, व्याकुलता एवं ज्वाला के समान भस्म कर देने की क्षमता के लिए हुआ है। यहाँ मन ही मन में एक कसक है, कराहट है तथा ऐसी तीव्र वेदना है जो अन्दर ही अन्दर हृदय को कौंधती रहती है। रह-रह कर जो चुभन हो रही है वह हृदय को आहत कर रही है। इस प्रकार यहाँ अर्थ का विस्तार हुआ है।

 

तिल-तिल -

‘‘उसे मारना या मर मिटना,
क्षण क्षण सूझ रहा है;
तो भी तिल तिल मरता है वह,
कण कण जूझ रहा है।’’[16]

 

तिलशब्द का अभिधेयार्थतिल के बीजसे है प्रस्तुत पंक्तियों में तिल शब्द का अर्थ कष्ट सह-सहकर जीते जी मरने से है। क्षण प्रतिक्षण शनैः-शनैः नष्ट होने से है अतः यहाँ तिल-तिल करके जलने के साथ-साथ तिल-तिल का अर्थ छीजना एवं कष्ट पाना भी है इसलिये यहाँ अर्थ का विस्तार हुआ है

 

मत्स्यन्याय -

‘‘अटल एक ही न्याय जगत में,
वह है मत्स्यन्याय,
और एक ही असमर्थों का
है बस मरण उपाय।’’[17]

 

            यहाँमत्स्यन्यायशब्द का अर्थमछली के न्यायके साथ साथशक्तिशाली द्वारा शक्तिहीनों को दबाने की प्रक्रिया से भी है जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, उसी प्रकार हमारे समाज में शक्तिशाली लोग क्रूरता से कमजोरों को नष्ट कर देते हैं उनके अस्तित्व को मिटा देते हैं अतः यहाँ अर्थविस्तार की प्रतीति हो रही है

 

तिमिर -

‘‘शून्य-गगन, तेरी गोदी को
अभी  इन्दु  भर  देगा;
पर मेरी जीवन-सन्ध्या का
तिमिर कौन हर लेगा?’’[18]

 

तिमिरशब्द का मुख्यार्थअन्धकारहै किन्तु यहाँतिमिरशब्द का अर्थ निराशा, दुःख और विषाद है जब दुःख का अँधेरा छा जाता है तो कुछ दिखाई नहीं देता दुःख में सभी मार्ग बन्द हो जाते हैं कार्य करने की शक्ति चली जाती है अतः यहाँ तिमिर शब्द अपने मूल अर्थ के साथ-साथ अतिरिक्त अर्थ की भी प्रतीति करा रहा है इसलिये यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है कहना होगा कि यह अर्थ विस्तार का अत्यन्त मार्मिक उदाहरण है

 

मानस -

‘‘लहराता है गहरा गहरा,
यह मानस-सर मेरा।
वही मराल बना है इसमें,
जो इन्दीवर  मेरा।’’[19]

 

मानसशब्द का अभिधेयार्थमानसरोवरहै। यहाँ प्रयुक्तमानसशब्द अपने मुख्यार्थ में बाधित है।मानसशब्द उक्त प्रसंग मेंमनको व्यक्त करता है। जिस प्रकार मानसरोवर में जल और लहरें है उसी प्रकार मन में सरसता और भावनाओं की लहरें हैं। यह अर्थ विस्तार का एक बिम्ब प्रस्तुत करता है। इस तरह यहाँ मानस शब्द मानस पटल के साथ-साथ मानसरोवर का भी वाचक बन गया है। अतः यहाँ अर्थ का विस्तार हुआ है।

 

अच्युत -

‘‘अति कर दी अच्युत ने आहा!
भर दी गति-मति और ही;
कर लेता है ठीक ठिकाना
वह चाहे जिस ठौर ही।’’[20]

 

सामान्यतःअच्युतशब्द का अर्थ जो विचलित हो अर्थात विष्णु और कृष्ण आदि है। उक्त प्रसंग मेंअच्युतका तात्पर्य कृष्ण से है जो श्री कृष्ण के निराकार, निर्विकार, सर्वशक्तिमान, नित्य, पवित्र आदि सद्गुणों की प्रतीति करा रहा है। अतः अर्थ-वैज्ञानिक दृष्टि से यहाँअच्युतशब्द में अर्थविस्तार हो रहा है।

 

() जयद्रथ वध में अर्थविस्तार -


जयद्रथ-वध खण्ड काव्य की कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध उपाख्यान पर आधारित है इसमें अर्थविस्तार के अनेक उदाहरण मिलते हैं कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं:-

 

तरंग -

‘‘वाचक! प्रथम सर्वत्र हीजय जानकी जीवनकहो,
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा-तरंगों में बहों।
दुख, शोक, जब जो आ पडे़, सो धैर्य पूर्वक सब सहो,
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।’’ [21]

 

तरंगशब्द का प्रयोग लोक मेंलहरके लिए होता है यह लहर किसी की भी हो सकती है उक्त प्रसंग में यह प्रयोग त्याग, शीलता, ममता आदि सद्गुणों की शिक्षा के लिए हुआ है इसके साथ ही यहाँतरंगशब्द शाश्वत जीवन शैली की ओर भी संकेत कर रहा है अतः यह अर्थविस्तार का अत्यन्त उत्कृष्ट उदाहरण है

 

महाभारत -

‘‘सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य्य सहसा खो गया,
हा! हा! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।’’ [22]

 

सामान्यतःमहाभारतशब्द का प्रयोग पौराणिक युद्ध कथा विशेष के लिये होता है किन्तु उक्त प्रसंग मेंमहाभारतशब्द का प्रयोग भारतवर्ष की उन समस्त छोटी-छोटी लड़ाइयों तथा बड़े-बड़े युद्धों आदि सभी के लिये हुआ है अतः महाभारत शब्द में यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

रंगस्थली -

‘‘कर पद असंख्य कटे पडे़ शस्त्रादि फैले हैं तथा,
रंगस्थली ही मृत्यु की एकत्र प्रकटी हो यथा!’’[23]

 

रंगस्थलीशब्द का अभिधेयार्थ नाट्यभूमि है किन्तु उक्त प्रसंग मेरंगस्थलीशब्द का अर्थ मृत्यु का तांडव मंच भी है अतः यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

वैभव -

‘‘अभिमन्यु षोडष वर्ष का फिर क्यों लडे़ रिपु से नहीं,
क्या आर्य-वीर विपक्ष-वैभव देखकर डरते कहीं ?’’ [24]

 

सामान्यतःवैभवशब्द का अभिधेयार्थसम्पत्तिहै किन्तु उक्त पंक्तियों में वैभव शब्द का अर्थ शक्ति, पराक्रम तथा साहस है। इस प्रयोग से शक्ति के प्रभाव की सशक्त व्यंजना हो रही है। अतः यहाँवैभवशब्द में अर्थ का विस्तार हो रहा है।

 

() यशोधरा में अर्थविस्तार -


कपिलवस्तु के राजकुमारसिद्धार्थएवं उनकी पत्नीयशोधराके जीवन पर आधारित यह एक विरह काव्य है। इस काव्य में अर्थविस्तार के प्रमुख प्रयोग इस प्रकार हैं

 

रूपक -

‘‘मैने उसके अर्थ यह, रूपक रचा विशाल,
किन्तु, भरी थाली गई, उलट गया वह ताल।’’[25]

 

      प्रस्तुत पंक्तियों मेंरूपकशब्द रूप रचना के साथ-साथ नाटक अथवा स्वांग का बोध भी करा रहा है। उक्त प्रसंग में महाराजा शुद्धोदन का पुत्र-हितकारी रूप झलक रहा है, साथ ही यह पश्चाताप भी है कि मैने सिद्धार्थ को गृहस्थानुरक्त रखने के लिए इतने स्वांग रचे अर्थात् प्रयत्न किए किन्तु वे सभी निष्फल रहे हैं। इस प्रकार यहाँ अर्थ का विस्तार हुआ है

 

चक्र -

‘‘घूम रहा है कैसा चक्र !
वह नवनीत कहाँ जाता है, रह जाता है तक्र
पिसो, पड़े हो इसमें जब तक,
क्या अन्तर आया है अब तक ?
सहें अन्ततोगत्वा कब तक-
हम इसकी गति वक्र ?’’[26]

 

      ‘चक्रशब्द का मूलार्थपहियाहै किन्तु यहाँ चक्र शब्द का अर्थ पहिया नहीं है बल्कि जीवन और मृत्यु के आवागमन के साथ-साथ सृष्टि के संचालन से भी है सिद्धार्थ के मन में संसार की नश्वरता के विषय में चलने वाले द्वंद्व को उक्त प्रसंग में सफल अभिव्यक्ति मिली है अतः यहाँ चक्र शब्द के अर्थ में विस्तार हो रहा है

 

हरा -

‘‘देखी मैनें आज जरा।
हो जावेगी क्या ऐसी ही मेरी यशोधरा ?
हाय! मिलेगा मिट्टी में वह वर्ण-सुवर्ण-खरा ?
सूख जाएगा मेरा उपवन, जो है आज हरा ?’’ [27]

 

सामान्यतःहराशब्द का तात्पर्यरंग विशेषसे होता है किन्तु उक्त पंक्तियों मेंहराशब्द का अर्थ उल्लास, खुशी, प्रसन्नता और हर्ष है अतः यहाँ अर्थविस्तार हो रहा है

 

भरा घर -

‘‘अब क्या रक्खा है रोने में ?
इन्दुकले, दिन काट शून्य के किसी कोने में।
तेरा चन्द्रहार वह टूटा,
किसने हाय, भरा घर लूटा ?
अर्णव-सा दर्पण भी छूटा,
खोना ही, खोने में!’’ [28]

 

      उक्त प्रसंग में प्रयुक्तभरा घरशब्द का मूलार्थमनुष्य से भरा होनाहै किन्तु यहाँभरा घरशब्द का प्रयोग प्रसन्नता, प्रेम और उल्लास के लिए भी हुआ है अर्थात् घर सभी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होता है। इस तरह यहाँभरा घरशब्द में अर्थ विस्तार हो रहा है।

 

श्वेत, श्याम -

‘‘क्या तुझे जगाऊँ एक बार ?
पर है अब भी अप्राप्त सार,
सो, अभी स्वप्न ही तु निहार,
हे शुभे, श्वेत के साथ श्याम
ओ क्षण भंगुर भव, राम-राम!’’ [29]

 

श्वेतऔरश्यामशब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ क्रमशः सफेद एवं काला है यहाँ श्वेत का मूलार्थ सफेद न होकर श्रेष्ठता और सच्चाई है इसी प्रकारश्यामका मूलार्थ काला न होकर अपवित्रता और पाप है। अतः उक्त सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि इस संसार में प्रत्येक अच्छाई के साथ बुराई है और बुराई के साथ अच्छाई अर्थात् भलाई के साथ भी बुराई होती है इस प्रकार यहाँ अर्थ विस्तार हुआ है

 

आग -

‘‘प्रकट कर गई धन्य रस-राग तू !
पौ, फटकर भी निरुपाय
भरे है अपने भीतर आग तू !
री छाती, फटी न हाय !’’[30]

 

सामान्यतःआगशब्द का अर्थअग्निहोता है किन्तु यहाँआगशब्द विरह जन्य समस्त कष्टों, मानसिक उद्वेगों एवं छटपटाहट का परिचायक है उक्त प्रसंग में यशोधरा ऊषा काल को सम्बोधित करते हुए कहती है कि ‘‘हे, ऊषे हम दोनों के हृदय में ‘‘विरह वेदना’’ की ज्वाला भड़क रही है किन्तु हम में समानता होते हुए भी अन्तर यह है कि तू फटकर अपने हृदय का अनुराग स्पष्ट कर देने में स्वतन्त्र है जबकि मेरा हृदय दुख, कसक आदि से भरे होने पर भी नहीं फटता इस तरह यहाँआगशब्द में अर्थ का विस्तार हुआ है

 

पानी -

‘‘तात! तुम्हारा तप मुखरित है, माँ का नीरव मात्र,
पर अथाह पानी रखता है यह सूखा सा गात्र
नहीं क्या यह विस्मय की बात ?
शान्त हों अब सारे उत्पात।’’[31]

 

सामान्यतःपानीशब्द का प्रधान अर्थजलही होता है किन्तु उक्त प्रसंग मेंपानीशब्द का अर्थ जल के साथ-साथ मान, प्रतिष्ठा, हौंसला और उत्तरदायित्व आदि की रक्षा की भावना है अतः उक्त उदाहरण मेंपानीशब्द में व्यापकता का प्रदर्शन हुआ है इसलिये यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

() अन्य काव्य ग्रन्थों में अर्थ विस्तार -

 

सिद्धराज में अर्थ विस्तार -


मध्ययुगीन भारत के राजपूतों की कथा को गुप्त जी ने काव्यात्मक रूप देकरसिद्धराजकी रचना की हैसिद्धराजमें अर्थविस्तार के प्रयोग निम्नलिखित हैं-

 

सिद्धि, निधि -

‘‘राजकोष, रिक्त हो, तो चिन्ता नहीं मुझकों,
राज्य में प्रजा की सुख-सिद्धि, निधि-वृद्धि हो,
पुष्ट प्रजा-जन ही हैं सच्चे धन राजा के।’’[32]

 

      आठ अलौकिक शक्तियाँ आठ सिद्धियाँ कहलाती हैं कुबेर की नव-निधि नौ निधियाँ कहलाती हैंसिद्धिशब्द का मूल अर्थलक्ष्य की पूर्ण प्राप्तिऔरनिधिशब्द का अर्थ समुद्र है यहाँसिद्धिका तात्पर्य पूर्णतः सुखी रहने से हैसिद्धिआठ होती हैं- अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्या, ईशत्व और वशित्व निधि का अर्थ यहाँ धन से है निधि नौ होती हैं- पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुंद, नील और खर्वआठों सिद्धिऔरनौ निधिके अन्तर्गत संसार के सभी सुख आते हैं उक्त पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि राजा का सच्चा धन तो उसकी समृद्ध प्रजा होती है अतः इन शब्दों में भी एक प्रकार से अर्थ विस्तार हो रहा है

 

मानसर -

‘‘बाप मनोरंजन की वस्तुएँ जुटाता था,
माता नये व्यंजन बनाकर चुगाती थी,
पाली थी उन्होंने राजहंसी मान-र की’’[33]

 

मान-सरशब्द का प्रधान अर्थमानसरोवरहै प्रस्तुत प्रसंग मेंमान-सरविभिन्न भावों से पुष्ट वात्सल्य का बोध भी करा रहा है जिस प्रकारमानसरोवरमें राजहंसी रहती है उसी प्रकारमन मेंमाता ने पुत्री को वात्सल्य भाव से सर्वोच्च स्थान दे रखा है अतः यहाँ भी अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

अचल -

‘‘ठानता सो पूरा करके ही मानता,
छोड़ना ना जानता जा बान, यही आन थी।
हारा नही अन्त में भी राणा रण-केशरी
टूट गया, किन्तु वह अचल लचा नहीं।’’[34]

 

अचलशब्द का प्रधान अर्थपर्वतहै किन्तु उक्त पंक्तियों में इसका प्रयोग पर्वत के लिए न होकर अडिग, विचलित न होने वाले, दृढ़ विश्वासी, प्रतिज्ञावान एवं प्रतापी राजा के लिए हुआ है इस प्रकार यहाँ अर्थ विस्तार हो रहा है

 

सती -

‘‘हो गई विमुख सती संकुचित भाव से,
पागल की भाँति राजा धरने चला उसे।
छोड़ दिया किन्तु हाथ उसने पकड़ के,
जीवित का हाथ न हो जैसे वह, मृत का!
चिल्ला उठी रानकदे......‘‘पापी पशु!’’ कह के।’’[35]

 

सतीशब्द का मूल अर्थपार्वतीहै किन्तु उक्त प्रसंग मेंसतीअपने मूलार्थ में बाधित है और उसका प्रयोग यहाँपतिव्रता स्त्रीके लिए भी हुआ है इस प्रकार ये शब्द हर एक पतिव्रता नारी के लिए प्रयोग होता है अतः यहाँ अर्थ विस्तार हुआ है

 

पंचवटी में अर्थ विस्तार -


      ‘पंचवटीखण्ड काव्य के कथावस्तु का आधाररामायणकाशूर्पणखाप्रसंग है गुप्त जी की इस काव्य कृति में भी अर्थ विस्तार के अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं-

 

लक्ष्मी -

‘‘मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने
स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह
कुटी आज अपनाई है।’’[36]

 

लक्ष्मीशब्द का अर्थ सामान्यतःविष्णु जी की पत्नीअथवाधन की देवीहै किन्तु उक्त प्रसंग में लक्ष्मी शब्द गृहलक्ष्मी के साथ साथ उस आद्य शक्ति की ओर संकेत कर रहा है जो सीता के रूप में आज वनलक्ष्मी की भाँति अपने स्वामी वनवासी राम की सेवा में तत्पर है अतः यहाँ लक्ष्मी शब्द के अर्थ में विस्तार हो रहा है

 

सर्वस्व -

‘‘पूज्य पिता के सहज सत्य पर
वार सुधाम, धरा, धन को
चले राम, सीता भी उनके
पीछे चलीं गहन वन को।
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे,
कहा राम ने कि ‘‘तुम कहाँ?’’
विनत वदन से उत्तर पाया-
तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।।’’[37]

 

सर्वस्वशब्द का अर्थ समान्यतःसब कुछहै किन्तु उक्त प्रसंग मेंसर्वस्वतन, मन, धन और प्राण इन चारों को समेटे हुए है अतः यहाँ अर्थ का विस्तार हो रहा है

 

इन्द्रासन -

‘‘माना इनके निकट नहीं है
इन्द्रासन की कुछ गिनती
किन्तु अप्सरा की भी क्यों ये
सुनते नहीं नम्र विनती ?’’[38]

 

सामान्य रूप सेइन्द्रासनशब्द का अर्थइन्द्र का आसनहै किन्तु उक्त पंक्तियों में इन्द्रासन शब्द का तात्पर्य राजसत्ता, शक्ति और समृद्धि से भी है अतःइन्द्रासनशब्द में अर्थ की दृष्टि से अर्थ विस्तार हुआ है

 

मिट्टी में मिलना -

‘‘होने लगी हृदय में उनके
वह आतंकमयी शंका,
मिट्टी में मिल गई अन्त में
जिससे सोने की लंका !’’[39]

 

सामान्यतःमिट्टी में मिलनेका अर्थमृत्युहोता है किन्तु उक्त प्रसंग मेंमिट्टी में मिलनेका अर्थनष्ट होनेसे भी है यह एक मुहावरा भी है और इस प्रकार यहाँ भी अर्थ विस्तार हुआ है

 

निष्कर्ष : उक्त अध्ययन से यह स्पष्ट है किराष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्तने अपने प्रमुख काव्य ग्रन्थों में कहीं तो मानवीय मूल्यों के पक्ष की दृष्टि से कहीं भारतीय संस्कृति की शुचिता बनाये रखने की दृष्टि से और कहीं ऐतिहासिक तथ्यों की उपयुक्तता बनाने के लिए स्थान-स्थान पर शब्दों के मूल अर्थ को व्यापक रूप में प्रयुक्त किया है। कहना न होगा कि ऐसे सभी प्रयोग भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थ-विस्तार के सुन्दर एवं सजीव उदाहरण बन पड़े हैं। इतना ही नहीं गुप्त जी ने कहीं-कहीं ऐसे उपमानों का प्रयोग किया है जो सादृश्य से अपने अर्थ की प्रतीति कराने के साथ-साथ अन्य सम्बद्ध अर्थ की भी प्रतीति कराते हैं। गुप्त काव्य लक्षणा से ओत-प्रोत है। अतः लक्षणा भी अर्थ-विस्तार में सहायक हुई है। गुप्त जी ने जहाँ अपने काव्य में किसी वस्तु के गुण कथन द्वारा वस्तुतर की प्रतीति करायी है तब वहाँ गुण साम्य से अर्थ-विस्तार लक्षित हुआ है। रूपक के माध्यम से भी यहाँ अपने भावों एवं विचारों को व्यक्त किया है। वहाँ रूपक तत्व के कारण शब्द के अर्थ में विस्तार हुआ है।


इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गुप्त काव्य में लक्षणा, सादृश्य, साम्य, रुपक तत्व विशेष की अविवक्षा और सामान्य की विवक्षा के कारण अर्थ-विस्तार हुआ है। इसके साथ ही गुप्त जी के काव्य में ऐसे अनेक स्थल है जहाँ प्रसंग, घटना, चरित्र, परिवेश आदि मानव के मानस पटल को झंकृत कर देते हैं। ऐसे भाषात्मक प्रयोगों से काव्य में गम्भीरता एवं व्यापकता का समावेश होता है जो एक ओर तो अर्थ-विस्तार को जन्म देता है जबकि दूसरी ओर काव्य में भाव-सौन्दर्य की अर्थ पूर्ण सृष्टि भी करता है।


संदर्भ :
[1] यास्क - निरुक्त पृ. 1-12, 1-14, 2-5, 6
[2] कपिल देव द्विवेदी : अर्थ विज्ञान और व्याकरण दर्शन, हिन्दुस्तानी एकेडेमी इलाहाबाद, संस्करण -2012 पृ.190
[3] मैथिलीशरण गुप्त-साकेत, साहित्य सदन, संस्करण-2008 पृ. 02-03
[4] वही,पृ. 04
[5] वही,पृ. 143
[6] वही,पृ. 149
[7] मैथिलीशरण गुप्त : भारत-भारती, साहित्य सदन, संस्करण-2008, पृ.11
[8] वही,पृ. 13
[9] वही,पृ. 28
[10] वही,पृ. 41
[11] वही,पृ. 84
[12] वही,पृ. 85
[13] वही,पृ. 113
[14] मैथिलीशरण गुप्त : द्वापर, साकेत प्रकाशन, संस्करण-1989, पृ. 1
[15] वही,पृ. 52
[16] वही,पृ. 52
[17] वही,पृ. 71
[18] वही,पृ. 85
[19] वही,पृ. 12
[20] वही,पृ. 38
[21] मैथिलीशरण गुप्त : जयद्रथ-वध, साहित्य सदन, संस्करण-2009 पृ. 3
[22] वही,पृ. 03
[23] वही,पृ. 75
[24] वही,पृ. 05
[25] मैथिलीशरण गुप्त : यशोधरा, साहित्य सदन, संस्करण-1989 पृ. 28
[26] वही,पृ. 10
[27] वही,पृ. 11
[28] वही,पृ. 65
[29] वही,पृ. 8
[30] वही,पृ. 64
[31] वही,पृ. 123
[32] मैथिलीशरण गुप्त : सिद्धराज, साहित्य सदन, संस्करण-2047, पृ. 20
[33] वही,पृ. 43
[34] वही,पृ. 52
[35] वही,पृ. 56
[36] मैथिलीशरण गुप्त : पंचवटी, साहित्य सदन, संस्करण-2008 पृ. 06
[37] वही,पृ. 03
[38] वही,पृ. 38
[39] वही,पृ. 52

 

डॉ. शिखा रानी
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, श्री द्रोणाचार्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दनकौर (गौतम बुद्ध नगर)
drshikha.agar@gmail.com, 8279465480

 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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