शोध आलेख : हिंदी उपन्यास में अभिव्यक्त दिल्ली शहर और साहित्य के अंतर्संबंध / शाहीन

हिंदी उपन्यास में अभिव्यक्त दिल्ली शहर और साहित्य के अंतर्संबंध
- शाहीन

शोध सार : किसी भी स्थान या शहर का अपनी संस्कृति और साहित्य से प्रत्यक्ष संबंध होता है। वही संबंध उस संस्कृति एवं साहित्य को विकासात्मक गति प्रदान करता है। दिल्ली शहर का इतिहास लगभग तीन हजार वर्षों से अधिक का रहा है। दिल्ली पर जब भी आक्रमण हुआ या उजाड़ा गया उसका सौंदर्य और मानवीयता तो उजड़ी परंतु दिल्ली की सभ्यता, संस्कृति हमेशा कायम रही। दिल्ली ने जितनी बार भी देशी-विदेशी शासकों के आक्रमण झेले उतनी बार दिल्ली नई ऊर्जा के साथ खड़ी रही। यह सत्य है कि अतीत से लेकर वर्तमान तक दिल्ली ने अपने अस्तित्व को हरसंभव संभाला है। भारत की राजधानी कई बार बदली मुग़ल, खिलजी, देशी शासकों, अंग्रेजों आदि के समय में लेकिन अंग्रेजों द्वारा सन 1912 में दिल्ली को राजधानी घोषित करने के बाद आज तक दिल्ली राजधानी के रूप में मौजूद है। हिंदी साहित्य में विशेषकर उपन्यास विधा के बहाने से दिल्ली के अंतर्गत साहित्यिक गतिविधियाँ एवं साहित्य में दिल्ली के स्वरूप को प्रस्तुत आलेख में साहित्य और  दिल्ली के अवदान को समझने का प्रयास किया है। 

बीज शब्द : दिल्ली, साहित्यिक समाज, कॉफ़ी हाउस, संस्कृति, दिल्ली की ऐतिहासिकता, हिंदी भाषा और साहित्य।

मूल आलेख : भारतीय साहित्य का इतिहास अत्यंत प्राचीन है अतीत में भारत को विश्वगुरु नामक संज्ञा से संबोधित किया जाता था। जैसे-जैसे समाज में बदलाव आया वैसे-वैसे भाषा साहित्य के रूप में भी परिवर्तन देखने को मिलता गया। वैदिक काल में साहित्यिक भाषा संस्कृत थी। अपभ्रंश से हमें हिंदी साहित्य या खड़ी बोली साहित्य का प्रारम्भिक रूप दिखाई देने लगता है। नामवर सिंह दिल्ली के अस्तित्व और महत्व को लेकर लिखते हैं कि - “दिल्ली सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं, बल्कि एक विशिष्ट सभ्यता और संस्कृति का भी नाम है। यह सभ्यता सैकड़ों ही नहीं बल्कि हज़ारों वर्षों से हमारी बहुमूल्य निधि रही है।1  यह सत्य है कि दिल्ली में बहुतेरे शासक आए लेकिन मुगल जब आए वह अपने साथ अपनी संस्कृति और भाषा को साथ लाए, यहाँ आकर उन्होंने फारसी भाषा को कामकाज की भाषा बना दिया लेकिन हिंदी-उर्दू में कोई मतभेद नहीं किया। ब्रिटिश शासन से पूर्व हिंदी-उर्दू दोनों अलग-अलग भाषाएँ होने के बावजूद एक दूसरे से काफी नजदीक थी। अंग्रेजी शासकों ने अपना हित साधने के लिए हिंदी-उर्दू के बीच मतभेद पैदा कर दिया। अंग्रेजों कीफूट डालो और राज करोकी नीति के तहत ही धर्म और भाषा के आधार पर देश में अशांति का मौहाल पैदा हुआ। ब्रिटिश शासन ने राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को भारत की जनता के सामने स्थापित कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि आज तक अंग्रेजी भाषा हमारी व्यवस्था में मौजूद है। दिल्ली के निर्माण प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए महेश्वर दयाल लिखते हैं - “दिल्ली दरअसल एक सुंदर, मोहक, चित्ताकर्षक और मनोहर हस्ती का नाम है। हिन्दुओं ने इसे बनाया, सजाया, मुसलमानों ने इसके रंग-रूप को निखारा, सँवारा, अंग्रेजों ने इसे नई-नवेली दुलहन कहकर पुकारा। दिल्ली में इतनी कशिश और आकर्षण है कि जो यहाँ आया, बस यहीं का हो रहा। दिल ले लेती है हर किसी काजभी तो इसका नामदिल्ली है।2 दिल्ली को हमेशा सभी शासकों ने अतीत से लेकर वर्तमान तक देश की राजधानी, व्यापार आदि को मुख्य केंद्र के रूप में ही देखा है। वर्तमान में अनेक मुख्य कार्यालय, आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचार-पत्र, प्रकाशन, सांस्कृतिक-आर्थिक गतिविधियोँ की सुविधाएं देश भर के साहित्यकारों एवं उद्यमियों को इस महानगर की ओर आकृष्ट करती रहती हैं। दिल्ली हमेशा से भारत का प्रमुख आकर्षण केंद्र रही है। मुग़ल शासकों की दिल्ली और विदेश प्रभुओं की सत्ता की प्रतीक भव्य नई दिल्ली, महाभारत समय की दिल्ली, जो कभी इंद्रप्रस्थ कही जाती थी, वह अपनी गरिमा को समेटे खंडहरों में सिमट गयी। परंतु यही दिल्ली की विशेषता है कि वह दोबारा से स्फूर्त और उर्जावान होकर उठ खड़ी हो जाती है।

दिल्ली की तरह ही हिंदी साहित्य का केंद्र स्थल भी एक जगह कायम नहीं रहा, समय अनुसार उसमें भी परिवर्तन देखने को मिले हैं। किसी समय बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ आदि शहर हिंदी साहित्य के गढ़ हुआ करते थे। लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे दिल्ली, हिंदी साहित्य का केंद्र स्थल बनने लगी। देशभर से हिंदी भाषी और अहिंदी भाषी लेखक दिल्ली में आकर बसने लगे थे। रोजी-रोटी के लिए देर-सबेर राजधानी में कोई कोई काम मिल ही जाता था क्योंकि यहाँ हिंदी में निकलने वाले कई अख़बार, पत्रिकाएँ और प्रकाशन थे और आकाशवाणी का सबसे बड़ा केंद्र दिल्ली में था। बाहर से लेखक दिल्ली आते और कोई मनचाह काम मिलने पर वोफ्रीलांसरके रूप में काम करके अपना भरण-पोषण कर लेते। वेतन और पारिश्रमिक आज की तुलना में बेहद कम था, लेकिन आज की तुलना में महंगाई नहीं थी। दिल्ली की एक ख़ास बात यह रही है कि बाहर से आने वाले लेखक, कलाकार दिल्ली में अकेलापन महसूस नहीं करते थे, क्योंकि दिल्ली में टी-हाउस और क्लब जैसी व्यवस्था में उन्हें अनायास ही अपनापन महसूस होने लगता है। टेलीविजन उस समय मौजूद नहीं था, रेडियो का आविष्कार हो जाने पर भी सर्वसुलभ नहीं था, इसलिए पत्रकारिता साहित्य की सूचना और मनोरंजन के महत्वपूर्ण साधन थे साथ ही उससे लेखक अपनी जीविका, पत्रकारिता के माध्यम से पूरी करते थे। सत्यव्यास अपने उपन्यासदिल्ली दरबार में दिल्ली को इस रूप में देखते है – “छोटे शहर के छोटे सपनों को विस्तार देते शहर का उनवान है, दिल्ली। खानाबदोशों के मजमे का मैदान है, दिल्ली। यहाँ खानाबदोश कई शक्लों में आते हैं। मजदूर, मजबूर, खरीदार, बीमार और सबसे ज्यादा बेरोजगार।देश के किसी कोने का जब कभी मर्ज बढ़ा तो एक ही नारा गूंजा, चलो दिल्ली।3 दिल्ली ने अपने हृदय में रंक से लेकर राजा सभी को पनाह दी है।  

दिल्ली लेखकों और आम जनमानस के हृदय में ऐसा बसा है जो यहाँ एक बार गया बस यही का होकर रह गया। साहित्यकारों ने दिल्ली को अपने साहित्य में यह कहकर पुकारा है कि - “दिल्ली टी हाउस के लिए, किसी ने इसे अपना विश्वविद्यालय (विष्णु प्रभाकर) कहा है, तो किसी ने रेस्टोरेंट्स में अपने बड़े होने की बात कही है (कृष्णा सोबती), किसी ने इसे मस्तीभरा अड्डा (कमलेश्वर) कहा है, तो किसी नेहमारा दूसरा घर’ (रवीन्द्र कालिया) कहा है भीमसेन त्यागी इसेसाहित्यकारों की चौपालमानते हैं, तो महीप सिंहलेखकों का नर्व सेंटर’, रमेश उपाध्यायमहत्वपूर्ण सामाजिक संस्थामानते हैं। कोई इसेअड्डाकहता है और कोई इसेअखाड़ामानता है।टी हाउस, कॉफ़ी हाउस एक जमाने में कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों, पत्रकारों का क़ाबा-काशी रहा है। यह अपनी बैठकबाजियों, साहित्य चर्चाओं और मुलाकातों के साथ हंसी-ठहाकों की एक जीवंत महफ़िल बना रहता था। जरूरी नहीं था कि वहां पर कुछ खाना पीना या चाय कॉफ़ी पिए। इस तरह की कोई मनाही नहीं थी। टी हाउस उस ज़माने में लोगों (लेखकों) का दूसरा घर हुआ करता था। आज समय बदल रहा है, और इसके साथ ही नहीं पीढ़ी का दृष्टिकोण भी बदल रहा है अजित कुमारदिल्ली अब दूर नहीं नामक लेख में लिखतें है कि - “वर्षों बाद आज भी कनाट प्लेस हैवही पार्क, वही खंभे, वही दुकानेंबल्कि सारा माहौल कई-कई बार सजाया-संवारा जा चुका है, लेकिन उधर जाने के ख़्याल भर से ही अब मुझे बुखार चढ़ने लगता है और यदि जाना ही पड़े तो ऊबता रहता हूं, तब तक वहां से भाग निकलूं, इस अहसास के बावजूद कि जब हर तरफ बाज़ार ही बाज़ार है तो भागकर भला मैं जाऊंगा कहां!”5

दिल्ली में साहित्यिक गतिविधियों एवं साहित्य सृजन के प्रचार-प्रसार में सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं की अहम भूमिका है। सन 1915 में चांदनी चौक स्थित मारवाड़ी पुस्तकालय की स्थापना से साहित्यिक माहौल तैयार हुआ। सन 1917-18 मेंहिंदी प्रचारणी सभा नाम से दिल्ली में पहली संस्था की स्थापना हुई। पुत्तूलाल वर्मा करुणेश द्वाराकवि समाज नामक संस्था ने साहित्यकारों में साहित्यिक चेतना उत्पन्न करने का कार्य किया। इसके पश्चातसस्ता साहित्य मंडल, ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ (1944), ‘शनिवार समाजका साहित्य सृजन में प्रमुख स्थान था।साहित्य अकादमी’ (1954), ‘दिल्ली हिंदी अकादमी’ (1981), ‘भारतीआदि संस्थाओं द्वारा हिंदी साहित्य में अनेक सृजनात्मक कार्य हुए। सेठ केदारनाथ गोयनका, पुत्तूलाल वर्मा करुणेश, रामचन्द्र शर्मा महारथी आदि हिंदी प्रेमी थे जो पेशे से अलग काम करते थे लेकिन हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति लगाव इतना था कि कई साहित्यिक संस्थाओं के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। तीसरे दशक में दिल्ली में सक्रिय रूप से जैनेन्द्र कुमार, चतुरसेन शास्त्री और ऋषभचरण जैन की भागीदारी मुख्य थी। सन 1950 के आस-पास दिल्ली में डॉ. नगेन्द्र, विष्णु प्रभाकर, गोपाल प्रसाद व्यास, यशपाल जैन, उपेन्द्रनाथ अश्क, शिवदान सिंह चौहान, रामचन्द्र तिवारी, बनारसीदास चतुर्वेदी, इन्द्र विद्यावाचस्पति, वियोगी हरि, चतुरसेन शास्त्री, वीरेंद्र कुमार, अज्ञेय, मन्नू भंडारी, राजेन्द्र यादव आदि का उल्लेखनीय योगदान था। इन सभी ने मिलकर दिल्ली को साहित्यिक केंद्र बनाने में अहम भूमिका निभाई।

ज्ञान प्रकाश विवेक अपने उपन्यासदिल्ली दरवाजा में दिल्ली का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं – “दिल्ली में सैकड़ों दिल्लियाँ हैं। हजारों दिल्लियाँ हैं।मैं अपनी रो में बोलता रहता हूँदिल्ली जो इंद्रप्रस्थ थी। सम्राटों की थी। दिल्ली जो मुगलों की थी। शहंशाहों की थी। शायरों की थी। तवायफों की थी। अमीरजादों की थी। फकीरों की थी। कंगालों की थी। हुक्मरानों की थी।ईस्ट इंडिया कंपनी की थी। रघुपति गाते महात्मा गांधी की थी। सपने देखती जनता की थी।दिल्ली यानि माया! यानि मोहभंग! दिल्ली यानि सपना।6 दिल्ली पर हर किसी ने अपना आधिपत्य हासिल करना चाहा हर कोई अपने-अपने अनुसार दिल्ली को बनाता बिगाड़ता था। आम जनमानस के सपने लगातार टूटते-बनते बिखरते रहें। साहित्यकारों एवं कलाकारों का रुख दिल्ली और दिल्ली के प्रति होना स्वाभाविक था। अन्य शहरों से साहित्यकार दिल्ली आकर बसने लगे और यही के होकर रह गए। दिल्ली में आए हुए लोगों में कोई ही होगा जो यहाँ से वापस अपने शहर लौटना चाहता हो। लेकिन बहुत से ऐसे लोग थे जो बाहर शहर से होते और अपने दोस्तों से टी हाउस में मिलते और चले जाते। उस समय टी हाउस में साहित्यकारों का ऐसा हुजूम लगा होता जैसे कोई शादी या कोई पार्टी चल रही हो।बड़े-बड़े साहित्यिक व्यक्तियों को, अपने बीच के बड़े सरोकारों को भी भुला दिया। बल्कि ऐसी धूल उड़ायी कि उन्हें भी धूल-धूसरित करने के प्रयत्नों में, धूल में मिलाने के ओछे-घिरी घृणित प्रयास किये। किन्तु इतिहास किसी की भूल या धौंसली धूल को ही धूल में मिला देता है, जीते-जी धूल में चटा देता है।कितना भी निकृष्ट समय-अनुच्छेद क्यों हो, जातीय मानस अपने नायकों को आगे बढ़कर कंधों पर ही नहीं, सिरों पर उठा लेता है, पवित्र ग्रंथ बना लेता है।7 बाकी शहरों में भी साहित्य की ओर लोगों का ध्यान कम ही जाता है। दिल्ली जैसा शहर जो साहित्य का कभी गढ़ हुआ करता था आज उसकी स्थिति कुछ खास नहीं है।

दिल्ली की पृष्ठभूमि पर अलग-अलग विधाओं में साहित्य लिखा गया जिसमें दिल्ली के रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति, त्यौहार, बदलते मौसम, इतिहास, समाज, राजनीति आदि विषयों को लेकर साहित्य रचा गया है। कुछ साहित्यकार जो दिल्ली के ही वासी थे तो कुछ बाहर से आकर दिल्ली में रच-बस गए और दिल्ली की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर साहित्य सृजन किया। हिंदी साहित्य के आदिकाल में ही दो रचनाकारों चन्दबरदायी और अमीर खुसरों का संबंध दिल्ली से रहा। इसके पश्चात रहीम, रसखान, घनानंद आदि कवियों का संबंध दिल्ली दरबार से रहा। बाद में कई अन्य साहित्यकार हुए जिनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दिल्ली से संबंध रहा। आधुनिक साहित्य में उपन्यास के आरंभिक दौर में दिल्ली केंद्रित या दिल्ली की समस्याओं आदि को आधार बनाकर कहानियों की अपेक्षा उपन्यास कम ही लिखे गए है। लाला श्रीनिवास दास द्वारा लिखितपरीक्षा गुरुउपन्यास में दिल्ली और उसके आस-पास का वर्णन मिलता है। पांडेय बेचन शर्माउग्र द्वारा रचितदिल्ली का दलाल(1927) नामक उपन्यास में दिल्ली में युवतियों की खरीद-फरोख्त करने वाली संस्थाओं का पर्दाफाश किया है। ऋषभचरण जैन के दिल्ली से संबंधित प्रमुख उपन्यास है, ‘दिल्ली का व्याभिचार’(1928), ‘दिल्ली का कलंक’(1936) इन उपन्यासों में दिल्ली में पनप रहे घिनौने पक्ष को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।

भीष्म साहनी काबसंती (1980) उपन्यास में दिल्ली की बस्तियां उजड़ने और बसने के साथ-साथ निम्नवर्गीय मजदूर एवं महिलाओं की स्थिति को मार्मिकता के साथ अंकित किया है। महानगर दिल्ली के मध्यवर्गीय समाज की रिक्तिकता को मोहन राकेश ने अपने उपन्यासअँधेरे बंद कमरेमें बहुत ही बारीकी से अंकन किया है। शशिभूषण सिंहल के उपन्यासऔर, कुछ और के अंतर्गत मैहरोली, शाहदरा और नई-पुरानी दिल्ली के ऐतिहासिक स्थानों से हमारा परिचय करवाता है। वीरेंद्र सक्सेना का उपन्यासखोजा तिन पाइयाँ तथा जगदीश चतुर्वेदी काकनॉट प्लेसमें दिल्ली शहर की ऑफिस स्लेव संस्कृति और साहित्यिक गतिविधियों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। पंकज बिष्ट के उपन्यासलेकिन दरवाजा में दिल्ली के साहित्यिक समाज और अभिजात्य वर्ग की पतनशीलता को उद्घाटित किया है। साहित्य जगत में पुरस्कार पर होने वाली बहसों के स्वरूप को रेखांकित किया है। सन 1993 में कृष्णा सोबती द्वारा लिखा गया उपन्यासदिलो दानिश में पुरानी दिल्ली के इलाकों को चित्रित किया है। इस उपन्यास में दिल्ली को इस रूप में चित्रित किया गया है कि वह जीवंत हो उठती है। मुहल्ले, मेले, हलवाई, जामा मस्जिद, गलियाँ आदि को बारीकी के साथ उजागर किया है। इनके दूसरे उपन्यासदिल्ली मार्फत में चांदनी चौक को केंद्र में रखकर लिखा गया है। आजादी एवं आजादी के बाद की दिल्ली को इस उपन्यास में दिखाया गया है। मध्यवर्ग की स्थिति, गांधी की हत्या, हिंदी-उर्दू भाषा को लेकर विवाद आदि समस्याओं को चित्रित किया गया है।कितने पाकिस्तान में कमलेश्वर ने ऐतिहासिक तथ्यों को कथा में पिरोकर सांप्रदायिकता, विभाजन की विभिषका का वर्णन किया है। चित्रा मुदगल द्वारा रचितगिलिगडु उपन्यास में महानगरीय समाज के बदलते जीवन मूल्य एवं वृद्धों की क्या स्थिति होती है उसको रेखांकित किया है। जीवन में छोटे-छोटे महायुद्धों में सहज ही विजय पाने के लिए रचनात्मक रास्ते की अनूठी तलाश है यह उपन्यास। राजू शर्मा द्वारा लिखितविसर्जन उपन्यास में दो शताब्दियों से चले रहें भूमंडलीकरण ने मूल्यों, आस्थाओं, संवेदनाओं, संबंधों आदि के क्षेत्र में परिवर्तन पैदा किया है। मंज़ूर एहतेशाम द्वारा रचितबशारत मंज़िल(2012) उपन्यास का समय सन 1900 से लेकर 1947 तक का है।  यह वो दौर था जब पूरा भारत एक संघर्ष के और बदलाव के दौर से गुजर रहा था और दिल्ली में इसके प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता था। इन्हीं सब बिंदुओं को लेखक ने दिल्ली के संदर्भ में बहुत ही सूक्ष्मता से अंकित किया है। दिल्ली और साहित्य के संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र का मानना है – “दिल्ली आज भारत की राजनीतिक राजधानी ही नहीं वरन सांस्कृतिक-साहित्यिक राजधानी भी बन गई है और देश की राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रही है।7 दिल्ली का अतीत से लेकर वर्तमान तक अपना एक विशेष महत्व रहा है। समयानुसार इसकी संस्कृति, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन आता गया। दरअसल दिल्ली संपूर्ण भारत का समुच्चय है।

कोई भी शहर, क़स्बा और गाँव रहने और सभी कठिनाइयों के बावजूद आपको अपना लगने लगता है। प्रकाश मनु केये जो दिल्ली हैनामक उपन्यास में दिल्ली का वर्णन कुछ इस प्रकार है- “एक तो सितंबर का महीना दिल्ली में वैसे ही ऊब और मनहूसियत भरा होता है ... खूब घुटन ... खूब पसीना ... फिर ... दिल्ली बहुत बड़ा राक्षस है जो मुझे दोनों हाथों से बत्तीस दांतों से खाए जा रहा है ... ऐसा लगता है अभी आया चक्कर, अभी आई उलटी ... रोज-रोज एक ही अहसास ... जैसे मैं कुछ नहीं हूँ  ... भीतर कुछ रह नहीं गया ... जैसे जीवन रोज-रोज की एक रिपीट बनकर रह गया हो जिसमें सुबह-सुबह आप दफ्तर दौड़ते हैं ... और शाम को बुरी तरह थककर घर जाते हैं कि खाना खा कर सो जाने के सिवा कुछ और सोच ही नहीं सकते। ... जहाँ तक मैं सोच पाया हूँ, इसे जीवन नहीं कह सकते।दिल्ली जैसे महानगर में इंसान की एक दिनचर्या है, उस जिंदगी से नाखुश होते हुए भी वह पूरी ईमानदारी के साथ अपने काम को पूर्ण करता है। मुश्किलों के बावजूद शहर में रहना चाहता है और अपने सपने को पूरा करना चाहता है। इस शहर को साहित्यकारों ने अपने अनुसार जैसा जिया और भोगा उसी के अनुरूप अपने साहित्य में वर्णन किया है। साहित्य में दिल्ली के दो रूप नज़र आते हैं एक अमीरों की दिल्ली और दूसरी गरीबों की दिल्ली। अमीरों की दिल्ली में सभी सुविधाएँ मौजूद है और जो नहीं है वहाँ सिर्फ कहने की देर है। दूसरी जहाँ हर चीज़ के लिए लड़ना पड़ता है यहाँ तक की एक समय के खाने और पानी के लिए भी। दिल्ली जैसे महानगर में रात-दिन में कोई फर्क नजर नहीं आता बल्कि दिल्ली रात में अधिक दिलकश लगती है

अंततः कह सकते हैं कि दिल्ली का इतिहास अपने आप में रोचक है, दिल्ली का राजधानी बने रहना और उजड़ना अपने आप में महत्वपूर्ण बात है। इसी दिल्ली ने केवल राजनीतिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से भी कई परिवर्तन देखे। देशी-विदेशी शासकों के आक्रमणों से दिल्ली कई बार अस्त-व्यस्त हुई परंतु फिर भी इसकी शान में कोई गुस्ताख़ी नजर नहीं आई। इसी प्रकार दिल्ली को आधार भूमि बनाकर रचा गया साहित्य इस बात की गवाही देता है कि साहित्य की विभिन्न विधाओं, उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, रेखाचित्र आदि में उत्कृष्ट साहित्य की रचना की गई है। हिंदी उपन्यासों में दिल्ली का सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि विसंगतियो को उद्घाटित किया गया है। दिल्ली एवं गैर दिल्ली लेखकों ने दिल्ली के अतीत से लेकर वर्तमान के वातावरण को बहुत ही सहजता से हिंदी उपन्यास में व्यक्त किया है। भारत की राजधानी होने के कारण दिल्ली को यह गौरव प्राप्त है कि यहाँ आदि से वर्तमान तक उच्च कोटि के साहित्यकारों का दिग्दर्शन हुआ है। साहित्यिक गोष्ठियों, कनॉट प्लेस पर कॉफ़ी हाउस की चर्चाओं को छोड़े बिना दिल्ली और हिंदी साहित्य के संबंध पर बात करना बेमानी प्रतीत होती है। विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने दिल्ली में साहित्य के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेखकों का दिल्ली की ओर आगमन अथवा दिल्ली के निवासी लेखकों का दिल्ली के प्रति लिखने का मोह ही दिल्ली कोदिल वालों की दिल्लीबनाता है।

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतख़ाब

हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के

         - मीर तकीमीर

संदर्भ :

  1. नामवर सिंह, दिल्ली जो एक शहर है,(महेश्वर दयाल), यह किताब से
  2. महेश्वर दयाल, दिल्ली जो एक शहर है, पृ.11
  3. सत्यव्यास, दिल्ली दरबार, पृ. 55
  4. बलदेव वंशी (सं.), दिल्ली टी हाउस - अर्धशती की साहित्यिक हलचल,पृ. भूमिका से 
  5. बलदेव वंशी (सं.), दिल्ली टी हाउस - अर्धशती की साहित्यिक हलचल, (अजित कुमार, दिल्ली अब दूर नहीं) पृ.1
  6. ज्ञान प्रकाश विवेक, दिल्ली दरवाजा, पृ. 66
  7. बलदेव वंशी (सं.), दिल्ली टी हाउस - अर्धशती की साहित्यिक हलचल, पृ.भूमिका से 
  8. डॉ.नगेन्द्र, हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में दिल्ली या योगदान, पृ. 346
  9. प्रकाश मनु, ये जो दिल्ली है, पृ. 60

 

शाहीन
शोधार्थी, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली
shaheenkh70@gmail.com

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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