शोध आलेख : सीखने की भाषा : मुद्दे और चुनौतियाँ / डॉ. कंचन सिंह

सीखने की भाषा : मुद्दे और चुनौतियाँ
डॉ. कंचन सिंह

 

शोध सार : भारत एक बहुभाषी देश है हाँ 1652 मातृभाषाएँ हैं और उससे कहीं अधिक बोलियाँ हैं। इस देश की भाषाई विविधता ही शिक्षा के माध्यम के चुनाव को चुनौतीपूर्ण बनाती है। शिक्षाविदों और भाषाविदों का यह तर्क है कि मातृभाषा में सीखना अधिक रुचिकर और प्रभावशाली होता है। परंतु कई सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारतीय माता-पिता और अभिभावकों का रुझान अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा के प्रति अधिक है। अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा मेंअभिभावक रोज़गार के अधिक अवसर देखते हैं। प्रस्तुत आलेख इसी मातृभाषा बनाम अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा के बहस का विश्लेषण है। स्वतंत्रता पश्चात् भारत सरकार द्वारा समय-समय पर कई शिक्षा नीतियां लाई गईं।  हाल ही में शिक्षा मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी लागू की गई। परंतु शिक्षा माध्यम का यह विवाद अभी भी जारी है। विद्यालय चाहे मातृभाषा माध्यम के हों अथवा अंग्रेज़ी माध्यम के, दोनों परिस्थितियों में प्रभावित विद्यार्थी ही होता है। यह आलेख विद्यार्थी पर शिक्षा के माध्यम के कारण पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करता है।

बीज शब्द : सीखने की भाषा, मातृभाषा, शिक्षा का माध्यम, अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा, राजभाषा हिंदी, लुप्तप्राय भाषा, शिक्षा नीति, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, क्षेत्रीय भाषा, घर की भाषा, स्कूल की भाषा, ब्रिज मॉडल नीति। 

मूल आलेख : यदि शिक्षा रूपी वाहन हमारे विद्यार्थियों को सफलता के पथ पर अग्रसर करता है तो भाषा उस वाहन के पहियों के समान है। या फिर कुछ यूँ कहें कि बिना भाषा के शिक्षा के अस्तित्व को सोच पाना भी कठिन है। भाषा पूरी शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ है। विद्वान जेम्स एशर के शब्दों में, "भाषा सभी प्रकार के अधिगम का आधार है; बिना भाषा के हम अपने विचारों और अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर सकते, हम जानकारी तक नहीं पहुँच सकते, और हम पूरी तरह से समाज में भाग नहीं ले सकते।"[1] हमारा देश भारत एक ऐसा भाषा संपन्न राष्ट्र है जहाँ 1652 मातृभाषाएँ और उससे कहीं अधिक बोलियाँ हैं।[2] ऐसे में भारतीय शिक्षाविदों और शिक्षकों के लिए यह एक कठिन प्रश्न है कि विद्यार्थियों के लिए शिक्षा का माध्यम कौन सी भाषा हो! मातृभाषाओं की यह विशालकाय संख्या जहाँ एक ओर माध्यम चयन को जटिल बनाती है, वहीं अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा का बढ़ता वर्चस्व इस प्रश्न को सुलझाने के बजाय और भी दुर्बोध बना देता है। 

        शिक्षाविदों और शिक्षा नीतियों में उल्लेखित सुझाव की मानें तो मातृभाषा विद्यार्थी की शिक्षा का सर्वाधिक उचित माध्यम है। रामनाथन (1965) द्वारा सुझाए गए सीखने के मूलभूत सिद्धांतों में से प्रथम सिद्धांत भी इसी तथ्य का समर्थन करता है, "सीखना सर्वाधिक प्रभावशाली होता है यदि यह उस भाषा में परिणत हो जिसमें विद्यार्थी सबसे अधिक समझ रखता है।"[3] सुंदरम् (1976) इसका समर्थन करते हुए कहते हैं, "यदि प्रभावपूर्ण अधिगम सुनिश्चित करना है; और इसमें कोई संदेह नहीं है कि अधिगम के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से शिक्षा का माध्यम सर्वोपरि शैक्षणिक लक्ष्य है तो अधिकांश विद्यार्थी  की स्थिति में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए।"[4] शिक्षाविद् और भाषाविद् मोहंती (2007) के अनुसार, "कई अध्ययनों से यह विदित है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का प्रयोग करने से सीखने के प्रतिफल बेहतर होते हैं। वे बच्चे जिन्हें उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है, मानकीकृत परीक्षण में अधिक अंक प्राप्त करते हैं, विद्यालय में टिके रहते हैं तथा उनके आगामी जीवन में सफल होने की अधिक गुंजाइश होती है।"[5] पटनायक (1990) के शब्दों में, "मातृभाषा वह भाषा है जिसे हम सर्वाधिक प्रभाव पूर्ण अधिगम हेतु प्रयोग करते हैं।"[6]

        मातृभाषा की यह महत्ता स्वीकार्य है परंतु अन्य देशों की भाँति जैसे कि जापान में जापानी भाषा, रूस में रशियन, चीन में चाइनीज भाषा, फ्रांस में फ्रेंच इत्यादि, हमारे देश में किसी भी एक भाषा का वर्चस्व इतना नहीं है कि उसे निर्विवाद रूप से भाषा का माध्यम बनाया जा सके। यद्यपि हमारे भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। अनुच्छेद 351 के अनुसार,- "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार करे, उसका विकास करे जिससे कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वाँछनीय हो हाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौड़तः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।"[7] 

        तथापि अन्य भाषाओं को बोलने वाले लोगों विशेषकर दक्षिण भारत की भाषाओं जैसे कि तमिल, कन्नड़, मलयालम इत्यादि के प्रतिनिधियों द्वारा समय-समय पर हिंदी के प्रति विरोध दर्ज कराया जाता रहा है। संविधान में अंग्रेज़ी को सहायक राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। इस वजह से हिंदी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं का विवाद तो संकुचित हो जाता है किंतु भारतीय मातृभाषाओं की अपनी पहचान की लड़ाई सुलझने के बजाय और भी उलझ जाती है। हाल ही में भारत सरकार द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 197 भाषाएँ लुप्तप्राय भाषाओं की सूची में है। जिन्हें लगभग 3 लाख लोग बोलते हैं। इस सूची में से 31 भाषाएँ गंभीर रूप से संकटापन्न हैं। अर्थात् इन के विलुप्त होने की आशंका अगले 5 पीढ़ियों से पहले है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 22 भारतीय भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं जिन्हें इनके विलुप्त होने से पहले लगभग 50 हजार लोग बोल रहे थे।[8]

      भाषाई विविधता देश की अनेक विविधताओं जैसे संस्कृति की विविधता, खानपान की विविधता, धार्मिक विविधता आदि में प्रमुख स्थान रखती है। अलग-अलग भाषा और संस्कृति को मानने वाले लोग भी अंग्रेज़ी के प्रयोग से आपस में आसानी से संप्रेषण कर लेते हैं। जहाँ एक ओर हिंदी, तमिल, कन्नड़, मराठी, गुजराती इत्यादि अपने ही वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं; वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ी दिन-प्रतिदिन अपने वजूद को और भी पुख्ता करता हुआ प्रतीत हो रहा है। 

        भारत की सभी स्वातंत्र्योत्तर शिक्षा नीतियाँ मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में उपयोग करने का सुझाव देती हैं। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग द्वारा सुझाया गया, "उच्चतर शिक्षा में अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा के स्थान पर किसी भारतीय भाषा का प्रयोग तब अवश्य किया जाना चाहिए जब भारतीय भाषा का प्रयोग व्यावहारिक हो।"[9] माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) ने माध्यमिक स्तर पर कम से कम दो भाषाओं के अध्ययन पर बल दिया। शिक्षा माध्यम के संबंध में आयोग के विचार थे कि "मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा को माध्यमिक स्तर तक शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाया जाना चाहिए बशर्ते कि यह सी. . बी. . द्वारा सुझाए गए भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदत्त सुविधाओं के नियम के अनुकूल हो।"[10] 1964 में कोठारी आयोग ने राज्य सरकारों को त्रिभाषा सूत्र लागू करने का सुझाव दिया। तद्नुसार -

भाषा 1: मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा;

भाषा 2: संघ की राजभाषा अथवा सहायक राजभाषा; एवं

भाषा 3: कोई आधुनिक भारतीय या विदेशी भाषा।[11]

           विद्यालय स्तर पर क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने का सुझाव माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) ने पहले ही दे दिया था। कोठारी आयोग (1964) ने क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव उच्चतर शिक्षा तक कर दिया। आयोग के अनुसार, "क्षेत्रीय भाषाओं का विकास राष्ट्र के विकास में योगदान देता है। यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के संवर्धन के प्रति एक कदम है।"[12] लक्ष्य प्राप्ति के लिए आयोग ने क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकों और साहित्य के प्रकाशन, विशेष रूप से विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में, पर बल दिया और यह जिम्मेदारी विश्वविद्यालयों एवं यूजीसी के कंधों पर डाली।[13] आगे चलकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) ने इससे संबंधित कई चुनौतियों पर भी बात की। उदाहरण के तौर पर कई आदिवासी भाषाओं का प्रयोग शिक्षा के माध्यम के रूप में करने पर होने वाली कठिनाइयों की समस्या।[14] राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) में पुनः शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के संवर्धन पर जोर दिया।[15] 

        दूसरी तरफ कई सर्वेक्षणों के अनुसार, अभिभावकों का रुझान मातृभाषा की तुलना में अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा के प्रति अधिक है। न्यूपा द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा ही देना चाहते हैं। 2003-06 के दौरान अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में पंजीकरण में 74% तक की वृद्धि हुई जबकि हिंदी माध्यम विद्यालयों में यह वृद्धि केवल 24% तक ही थी। अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में यह वृद्धि विशेष रूप से दक्षिण भारतीय राज्यों में थी।[16]

        शिक्षाविदों का यह तर्क, विद्यार्थियों का मातृभाषा में सीखना अधिक सरल रुचिकर एवं प्रासंगिक है, पूर्णरूपेण वैध है। किंतु रोज़गार के अवसरों में बढ़ते अंग्रेज़ी के वर्चस्व के कारण अभिभावकों द्वारा अंग्रेज़ी शिक्षा को प्राथमिकता देने की व्यवस्था को भी नकारा नहीं जा सकता है। शिक्षा माध्यम के रूप में भाषा चयन की असमंजसता इसी तथ्य से स्पष्ट होती है कि माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) से लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) तक कमोबेश वही सुझाव दिए गए हैं फिर भी शिक्षा माध्यम की लड़ाई जस की तस बनी रहती है। उदाहरणस्वरुप शिक्षा मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) के प्रकाशन के पश्चात नीति दस्तावे के किसी और पक्ष को लेकर मीडिया में इतनी पुरज़ो चर्चा और बहस नहीं हुई जितनी कि शिक्षा के माध्यम को लेकर हुई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) के अनुसार,- "जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक, लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड 8 और उससे आगे तक भी हो। शिक्षा का माध्यम घर की भाषा/ मातृभाषा/ स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा होगी। इसके बाद हर स्थानीय भाषा को जहाँ भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा। सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के स्कूल इसकी अनुपालना करेंगे। विज्ञान सहित सभी विषयों में उच्चतर गुणवत्ता वाली पाठ्य पुस्तकों को घरेलू भाषाओं/ मातृभाषा में उपलब्ध कराया जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रयास जल्दी किए जाएँगे कि बच्चे द्वारा बोली जाने वाली भाषा और शिक्षण के माध्यम के बीच यदि कोई अंतराल मौजूद हो तो उसे समाप्त किया जा सके। ऐसे मामलों में जहाँ घर की भाषा में पाठ्य सामग्री उपलब्ध नहीं है, शिक्षकों और छात्रों के बीच संवाद की भाषा भी, जहाँ संभव हो, हाँ घर की भाषा बनी रहेगी।"[17]

        कई मुद्रित एवं अमुद्रित मीडिया ने मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के सुझाव को इस प्रकार प्रस्तुत किया मानो यह सुझाव बिलकु नवीन हो। समाचार एजेंसियों द्वारा शिक्षाविदों, शिक्षकों और अभिभावकों के विचारों को उद्धृत किया गया। इंडिया टुडे (2020) ने एक लेख में आठ कारण बताए हैं कि क्यों नई शिक्षा नीति का यह सुझाव देश की शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को बदलने में कारगर होगा।[18] इंडिया टुडे (2020) पत्रिका द्वारा सुझाए गए कारण रामनाथन के सीखने के सिद्धांतों से ही प्रेरित प्रतीत होते हैं। फाइनेंशियल एक्सप्रेस (2020) ने इस पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि यह सुझाव कुछ आलोचकों द्वारा हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के रूप में देखा जा रहा है।[19]

        वास्तविकता तो यह है कि ही यह सुझाव नया है और ही यह विवाद। भाषाविद् अग्निहोत्री के अनुसार, "हमें कक्षा में मौजूद विद्यार्थियों के सभी भाषाओं के मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है। जो केवल तभी किया जा सकता है जब निर्णय प्रक्रिया संदर्भित हो। यह हमेशा ब्रिज मॉडल नीति की सिफारिश में निहित है कि शिक्षार्थियों की मूल भाषाओं के लिए सम्मान सीमित है। यह धारणा है कि अल्पसंख्यकों और वंचितों की भाषाएँ कभी भी पूर्ण विकसित भाषाओं में नहीं होगी। जो उच्च स्तर पर शिक्षा के माध्यम और ज्ञान प्रणालियों को वहन कर सके उन्हें प्राथमिक स्तर पर उपयोग किया जा सकता है। जिसके बाद विद्यार्थियों को सत्ता की प्रमुख भाषाओं में स्विच करने के लिए तैयार रहना चाहिए।"[20] इस चिरगामी बहस का कोई समाधान दिखता हुआ तो नहीं प्रतीत होता है। पर यह तथ्य सर्वविदित है कि शिक्षा का माध्यम कुछ भी हो चाहे मातृभाषा या अंग्रेज़ी भाषा, प्रक्रिया और परिणाम का सामना तो विद्यार्थी ही करता है। मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के दौरान कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जैसे कि मातृभाषा में पुस्तकों की अनुपलब्धता या कमी होना, शिक्षकों के व्याख्यान का मातृभाषा में ना होना, कंप्यूटर की भाषा मातृभाषा ना होकर अंग्रेज़ी होना, इत्यादि। भाषा की यह समस्या विषय एवं कोर्स के आधार पर छोटी या बड़ी हो सकती है। जैसे कि इतिहास विषय में स्नातक करने वाले विद्यार्थी की अपेक्षा वाणिज्य विषय में स्नातक करने वाले विद्यार्थी के लिए यह समस्या गूढ़ हो सकती है। उसी प्रकार इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी को भी इन समस्याओं का सामना ज़्यादातर करना पड़ सकता है। दूसरी तरफ ऐसे विद्यार्थी जो अंग्रेज़ी माध्यम से अपनी शिक्षा प्राप्त करते हैं उन्हें शिक्षा के शुरुआती दौर में ही कई मुश्किलों से जूझना पड़ता है। अधिकतर विद्यार्थियों का कक्षा में समावेशन शिक्षकों के व्यवहार एवं विद्यालय के माहौल के साथ-साथ परिवार के सदस्यों का स्वयं अंग्रेज़ी भाषा में निपुण होने पर निर्भर करता है। प्रायः भाषागत मुश्किलें  माता-पिता के भाषा ज्ञान के कारण सुलझ जाती हैं। परंतु सभी विद्यार्थी इस सुविधा से लाभान्वित हो ऐसा संभव नहीं। वे विद्यार्थी जिनके परिवार में लोग अंग्रेज़ी भाषा में निपुण नहीं होते हैं, उन्हें कोचिंग कक्षाओं का मुँह ताकना पड़ता है। शिक्षक चाहे विद्यालय का हो या कोचिंग संस्थानों का, विद्यार्थी का कक्षा में सामंजस्य इसी बात पर निर्भर करता है कि शिक्षक किस हद तक स्वीकार करते हैं कि अंग्रेज़ी भाषा उनकी अपनी भाषा नहीं है। कई बार विद्यार्थी द्वारा अंग्रेज़ी भाषा में विचार अभिव्यक्त कर पाने की वजह से कक्षा में साथियों के हँसी का पात्र बनना पड़ता है। अंग्रेज़ी भाषा में अभिव्यक्ति पर मातृभाषा का प्रभाव परिलक्षित होने पर शिक्षक विद्यार्थी को हतोत्साहित एवं अपमानित भी कर देते हैं। कई विद्यार्थी तो मन में उठने वाले प्रश्नों को मन में ही रखकर कक्षा का समय पूरा कर लेते हैं क्योंकि उन्हें आशंका होती है कि वे सही अंग्रेज़ी ना बोल सकेंगे। कई बार इन समस्याओं से जूझता विद्यार्थी धीरे-धीरे अंतर्मुखी होने लगता है, पसंदीदा विषय में रुझान कम महसूस करता है, हीन भावना से ग्रसित होने लगता है। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ी माध्यम के कई विद्यार्थी शिक्षा में कहीं पीछे छूट जाते हैं।

निष्कर्ष : अंत में हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा का माध्यम चाहे अंग्रेज़ी हो या विद्यार्थी की मातृभाषा, दोनों ही दशा में विद्यार्थी किसी न किसी प्रकार की भाषागत समस्या का सामना करता ही है। भाषागत समस्याएँ भले ही भिन्न-भिन्न रूपों में देखने को मिलें परंतु वे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक विद्यमान हैं। आज़ादी के 75 वर्ष बीत जाने के बावजूद शिक्षा नीतियाँ इस सुझाव से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। भले ही उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी भाषा का रुख करना पड़े। आवश्यकता है कि शिक्षा विभाग उच्च स्तर पर भी मातृभाषा में पाठ्य पुस्तकों व शिक्षकों का संवर्धन करे। शिक्षा नीतियों द्वारा मातृभाषा का समर्थन परंतु व्यावहारिकता में अंग्रेज़ी को महत्त्व, शिक्षा विभाग की विसंगति को दर्शाता है। सरकारी प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों पर लिखे निर्देश- 'प्रश्नों के अंग्रेज़ी / हिंदी (क्षेत्रीय भाषा) भाषा संबंधित असंगति होने पर केवल अंग्रेज़ी संस्करण ही मान्य होगा,' हमारे द्वारा मातृभाषा के संवर्धन के लिए किए गए प्रयासों को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त है।

संदर्भ:

  1. जेम्स, एशर, लर्निंग एनदर लैंग्वेज थ्रू एक्शंस, स्काई ओक प्रोडक्शन, 2009
  2. भारत सरकारभारत की जनगणना, 2001 http://www.censusindia.gov.in/Census_Data_2001/Census_Data_Online/Language/Statement1.aspx
  3. जी., रामनाथन, एजुकेशनल प्लैनिंग एंड नेशनल इंटीग्रेशन, एशिया पब्लिशिंग हाउस, 1965 पृष्ठ संख्या 82
  4. आई. एस., सुंदरम्, लैंग्वेज प्रॉब्लम ऑफ इंडिया, श्री नंदिनी प्रेस, 1976, पृष्ठ संख्या 39
  5. ., मोहंती, मल्टीलिंगुअलिज्म इन इंडिया: रिसोर्स, चैलेंज एंड अपॉर्चुनिटी, सेज प्रकाशन2007, पृष्ठ संख्या 127
  6. डी. पी., पटनायक, लैंग्वेज एंड सोसायटी: एक्सप्लोरेशन इन सोशियोलिंग्विस्टिक्स, सेज प्रकाशन, 1990, पृष्ठ संख्या 10
  7. विधि और न्याय मंत्रालय, भारत सरकार, भारत का संविधान, 2020, https://legislative.gov.in/sites/default/files/COI_1.pdf
  8. अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय, भारत सरकार, स्टेट ऑफ एंडेंजर्ड लैंग्वेजेस इन इंडिया, भारत सरकार प्रेस, 2018
  9. शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, रिपोर्ट ऑफ यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमिशन (दिसंबर 1948- अगस्त 1949), भारत सरकार प्रेस, 1963, पृष्ठ संख्या 284
  10. शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, रिपोर्ट ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन कमिशन (अक्टूबर 1952- जून 1953), भारत सरकार प्रेस, 1962, पृष्ठ संख्या 59
  11. भारत सरकार, शिक्षा और राष्ट्रीय विकास, शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, 1964, एन.सी.आर.टी., 1966, http://103.10.227.124/jspui/bitstream/1/640/1/KC_V1.pdf
  12. भारत सरकार, शिक्षा और राष्ट्रीय विकास, शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, 1964, एन.सी.आर.टी., 1966, पृष्ठ संख्या 20,  http://103.10.227.124/jspui/bitstream/1/640/1/KC_V1.pdf
  13. भारत सरकार, शिक्षा और राष्ट्रीय विकास, शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, 1964, एन.सी.आर.टी., 1966, पृष्ठ संख्या 34, http://103.10.227.124/jspui/bitstream/1/640/1/KC_V1.pdf
  14. शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986, पृष्ठ संख्या 149
  15. शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, 2020, https://www.education.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/NEP_Final_English_0.pdf
  16. एस.सी., सक्सेना, शिक्षा का माध्यम और भारतीय भाषाएँ, योजना, 53 (9), सितम्बर, 2009, पृष्ठ संख्या 39-40
  17. शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, 2020, पृष्ठ संख्या 13
  18. इंडिया टुडे, 8 रीजंस व्हाय एन. . पी. ज् मूव टू टीचिंग इन मदरटंग कुंड ट्रांसफार्म टीचिंग एंड लर्निंग इन इंडिया, 14 अगस्त 2020, https://www.indiatoday.in/education-today/featurephilia/story/why-nep-teaching-in-mother-tongue-could-transform-education-in-india-1711187-2020-08-14
  19. फाइनेंशियल एक्सप्रेस, एन. . पी. 2020: मदर टंग ऑर नो स्कूल्स रिमेन टॉस्ड बिटवीन लैंग्वेज ऑफ एजुकेशन, 22 अगस्त 2022, https://www.financialexpress.com/education-2/nep-2020-mother-tongue-or-no-schools-remain-tossed-between-the-language-of-education/2638825/
  20. रमाकांत, अग्निहोत्री, एग्जामिनेशन ऑफ ड्राफ्ट नेशनल एजुकेशन पॉलिसी, 2019, इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली, एल.वी. (19), 09 मई 2020, पृष्ठ संख्या 43-49

डॉ. कंचन सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर, शिक्षाशास्त्र विभाग, दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, मुरादाबाद

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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