- श्रुति गौतम, डॉ. अरुण कुमार मिश्र
शोध
सार : सिनेमा
आज
अपने
व्यापक
स्तर
पर
है।
सिनेमा
की
ही
एक
धारा
बाल
सिनेमा
है
जो
अपनी
व्यापकता
पाने
की
लगातार
कोशिश
कर
रही
है।
बाल
सिनेमा
अब
केवल
मनोरंजन
प्रधान
नहीं
रहा
अपितु
इसमें
बच्चों
के
मन
और
समाज
में
उनकी
स्थिति-परिस्थिति
को
प्रस्तुत
किया
जाता
है।
बच्चा
समाज
का
अभिन्न
अंग
है,
इसलिए
ज़ाहिर
सी
बात
है
कि
उससे
जुड़ी
समस्याओं
को
भी
सिनेमा
ध्यान
रखे।
हालाँकि
मुख्य
धारा
के
सिनेमा
में
बालमन
और
बचपन
की
झाँकियाँ
तो
हैं
लेकिन
इन्हें
व्यापक
स्तर
बाल
सिनेमा
ने
ही
प्रदान
किया
है।
बाल
सिनेमा
से
जुड़े
इस
शोधालेख
में
बच्चों
से
जुड़ी
उन
सभी
समस्याओं
पर
गौर
किया
गया
है
जो
बच्चों
के
जीवन
को
प्रभावित
करती
हैं।
इस
लेख
में
उन
बिंदुओं
पर
विचार
किया
गया
है
जिनसे
सामाजिक,
घरेलू,
शिक्षा
संबंधित,
ग़रीबी,
मानसिक
इत्यादि
समस्याओं
को
सिनेमा
ने
किस
तरह
प्रदर्शित
किया
है।
बीज
शब्द : सिनेमा,
बाल
सिनेमा,
सामाजिक
समस्याएं,
मानसिक
समस्याएं,
बालश्रम,
शारीरिक
समस्याएं, परिवार,
बालमनोविज्ञान,
बालमन,
आर्थिक
समस्याएं
मूल
आलेख : ब्लादीमिर
इल्यीच
लेनिन
का
मानना
है,
कि
“हमारे लिए सिनेमा
सभी
कलाओं
से
महत्वपूर्ण
है।
सिनेमा
न
केवल
लोगों
के
मनबहलाव
का
बल्कि
सामाजिक
शिक्षा,
संवाद
स्थापित
करने
का
तथा
हमारी
विशाल
जनसंख्या
को
एक
सूत्र
में
बाँध
लेने
का
सशक्त
माध्यम
है।’’1
वहीं भारत
में
सिनेमा
का
परिचय
कराने
वाले
दादा
साहब
फाल्के
का
कहना
है
कि
‘फिल्म मनोरंजन
का
उत्तम
माध्यम
है
लेकिन
वह
ज्ञानवर्धन
के
लिए
भी
अत्यंत
बेहतरीन
माध्यम
है।’2
सिनेमा का
प्रत्येक
पक्ष
समाज
से
जुड़ा
है।
कहा
भी
जाता
है
कि
‘सिनेमा को अपने
समाज
का,
समय
का
प्रतिबिंब
होना
चाहिए
।
जैसे
आप
अपने
को
आईने
में
देखते
हैं,
वैसे
ही
फिल्म
के
माध्यम
से
समाज
को
उसमें
देख
सकें।’3
उपर्युक्त
सिनेमा
की
परिभाषाओं
के
माध्यम
से
हमने
सिनेमा
को
समाज
के
लिए
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाते
हुए
देखा
है
।
बाल समस्याएं
? यह शब्द हो
सकता
है
समाज
को
पढ़ने
और
सुनने
में
अटपटा
लगे।
अक्सर
कहा
जाता
है
कि
अरे,
बच्चों
का
क्या
है!
जीवन
मस्ती
में
रहता
है,
सिर्फ़ सोना, खेलना,
खाना
और
ज़िंदगी
को
भरपूर
जीना।
लेकिन
यह
सच
नहीं
है।
बात
यह
है
कि
समाज
के
अनुसार
केवल
उम्र
से
परिपक्व
मनुष्य
ही
संघर्षशील
हो
सकता
है
जबकि
जितनी
समस्याएं
एक
युवा
या
अधेड़
व्यक्ति
के
जीवन
में
होती
हैं
उतनी
ही
समस्याएं
बच्चे
के
जीवन
को
भी
प्रभावित
करती
हैं।
कह
सकते
हैं
कि
बच्चों
की
समस्याएं
हमारे
लिए
उतनी
बड़ी
नहीं
होतीं
या
हम
सोचते
हैं
कि
एक
चॉकलेट
और
टॉफी
देने
से
उन
समस्याओं
का
हल
निकल
जाएगा।
हमने
बच्चों
की
समस्याओं
को
टॉफी
और
चॉकलेट
की
दुनिया
में
बंद
कर
दिया
है।
बच्चे के
जीवन
में
हर
एक
छोटी
चीज़
महत्वपूर्ण
होती
है।
बचपन
जीवन
की
नींव
है।
नींव
ही
कमज़ोर
हुई
तो
जीवन
भी
कच्चा
ही
रह
जाएगा।
बच्चों
और
बड़ों
की
समस्याएं
अलग-अलग
होती
हैं।
एक
और
अंतर
होता
है
कि
कुछ
समस्याओं
से
बच्चा
अनजान
रहता
है।
लेकिन
उन
अनजानी
समस्याओं
से
बच्चे
में
बदलाव
होते
रहते
हैं।
इनमें
से
कुछ
समस्याएं
उसके
आस-पास
से
संबंधित
होती
हैं
या
कहें
कि
वे
इन
समस्याओं
को
ख़ुद
नहीं
उपजाते।
आधुनिक समय
में
बच्चों
से
संबधित
समस्याएं
और
गंभीर
रूप
लेती
जा
रही
हैं।
आए
दिन हम अख़बार
में
पढ़ते
हैं
कि
स्कूल
के
एक
बच्चे
ने
पढ़ाई
के
प्रेशर
में
आकर
आत्महत्या
कर
ली।
इसमें
गलती
किसकी
है?
पढ़ाई
का
प्रेशर
उस
बच्चे
के
जीवन
में
किसने
बनाया
होगा?
ऐसे
तमाम
प्रश्नों
के
जवाब
हमें
आज
बाल
सिनेमा
के
माध्यम
से
मिलते
हैं।
बाल फ़िल्में
सिर्फ़
मनोरंजन
ही
नहीं
बल्कि
बच्चों
से
जुड़ी
समस्याओं
की
ओर
दर्शकों
का
ध्यान
भी
आकर्षित
करती
हैं।
कनाडा
के
बाल
फ़िल्म
विशेषज्ञ
राबर्ट
राय
बाल
फ़िल्म
को
परिभाषित
करते
हुए
कहते
हैं
‘‘वह फ़िल्म जिसमें
बच्चा
ख़ुद
को
एकात्म
महसूस
करे,
हमें
अपने
विचारों
को
लादने
के
बजाए
बच्चे
को
स्वतः
अपनी
राय
कायम
करने
हेतु
स्वतंत्र
छोड़
देना
चाहिए।’’4
ऐसी कई
फ़िल्में
बाल
सिनेमा
में
हैं
जो
पूरी
तरह
स्वतंत्र
हैं।
बच्चे
के
लिए
भी
और
समाज
के
लिए
भी।
इस
प्रयास
को
लगातार
बाल
सिनेमा
दर्शकों
के
सामने
पेश
करने
की
कोशिश
कर
रहा
है।
समाज
में
बालपन
से
जुड़ी
कई
समस्याएं
हमारे
बीच
मौजूद
हैं।
उन
समस्याओं
की
बात
बाल
सिनेमा
खुलकर
करता
है।
यह बात
केवल
कहने
के
लिए
नहीं
है
कि
‘‘कला वह सशक्त
माध्यम
है
जो
अपने
दर्शकों
को
किसी
ख़ास
विषय-वस्तु
पर
आधारित
कथा
को
दिखाता
है, बताता
है
और
मनोरंजन
करते
हुए
दर्शकों
के
हृदयों
में
गहरे
उतर
जाने
की
अभूतपूर्व
क्षमता
रखता
है।’’5
बाल
सिनेमा
भी
यही
करता
है।
मनोरंजन
केवल
उसका
लक्ष्य
नहीं
है।
मनोरंजित
करते
हुए
बचपन
से
जुड़ी
हर
परिस्थिति
को
पेश
कर
देना,
एक
कला
ही
है।
विगत
वर्षों
में
बनी
बाल
फ़िल्में
इसका
सच्चा
उदाहरण
हैं।
बचपन बच्चों
के
जीवन
में
सबसे
महत्वपूर्ण
अवस्था
है।
इस
अवस्था
में
उसका
विकास
सबसे
अधिक
होता
है।
बच्चे
पर
जीवन
के
इस
अध्याय
का
असर
सबसे
ज़्याद
होता है। उसका
सोचना,
उसका
बोलना,
उसकी
प्रतिक्रियाएं,
उसकी
मनोवस्था
सब
कहीं
न
कहीं
बचपन
पर
भी
निर्भर
होती
हैं।
बचपन
जीवन
की
नींव
है
और
अक्सर
यह
समाज
उस
नींव
को
मजबूत
करना
भूल
जाता
है।
बाल
सिनेमा
में
उल्लेखित
समस्याओं
को
इन
बिंदुओं
में
देखा
जा
सकता
है।
शारीरिक
समस्याएँ -
बच्चों की
शारीरिक
अवस्था
न
केवल
बच्चे
की
बल्कि
उसके
परिवार
और
देश
के
लिए
भी
गंभीर
समस्या
है।
अक्सर
फ़िल्मों में हम
बच्चों
को
खाना
माँगते,
सड़क
पर
कुपोषित
घूमते,
एक
पैर
के
सहारे
चलने
की
कोशिश
करते,
अपने
अंधेपन
के
सहारे
जीवन
जीने
की
कोशिश
करते
और
कूड़ेदान
में
से
खाना
बीनते
देखते
ही
हैं
लेकिन
उन्हें
केवल
एक
हृदय
विदारक
दृश्य
समझ
कर
सुहानुभूति
जता
देते
हैं।
हम
कभी
भी
उस
बच्चे
की
शारीरिक
स्थिति
को
समझने
की
कोशिश
नहीं
करते।
बाल
सिनेमा
ने
इन
शारीरिक
समस्याओं
को
एक
स्थान
दिया।
जहाँ
अन्य
फ़िल्मों
में
ये
केवल
दृश्य
मात्र
थे
अब
मुख्य
किरदार
बनकर
सामने
आते
हैं।
बाल सिनेमा
में
कुछ
फ़िल्में
शारीरिक
अपंग
पात्रों
पर
आधारित
हैं
और
उनकी
शारीरिक
अपंगता
को
कमज़ोर
नहीं
बल्कि
मजबूत
बना
देती
है।
1954 में
बाल
फ़िल्म
‘जागृति’ में शक्ति
एक
शारीरिक
तौर
पर
अपंग
बच्चा
है।
उसका
एक
पैर
नहीं
है
लेकिन
उसकी
अपंगता
उसकी
दोस्ती
में
कहीं
बाधा
नहीं
बनती।
उसकी
दोस्ती
अजय
से
होती
है,
जो
कि
शरारती
बच्चा
है,
जो
किसी
की
बात
नहीं
मानता
और
अपनी
मर्जी
से
ही
सब
करता
है।
शक्ति
शारीरिक
तौर
पर
भले
ही
अपंग
था
लेकिन
मानसिक
और
आत्मिक
तौर
पर
बलवान।
वह
अपनी
दोस्ती
निभाना
जानता
था।
वह
जानता
था
कि
सच्चे
मित्र
केवल
हँसी-ठिठोली
में
नहीं
बल्कि
बुरे
वक़्त
में
भी
साथ
होते
हैं।
शक्ति
की
सच्ची
मित्रता
की
यह
कहानी
सुहानुभूति
से
बढ़कर
है।
ऐसी
ही
दोस्ती
पर
आधारित
फ़िल्म
1964 में आई। जिसका
नाम
है
‘दोस्ती’। इस
फ़िल्म
ने
कई
परंपरागत
धारणाओं
को
तोड़ा
है।
इस
फ़िल्म
में
दोनों
ही
दोस्त
शारीरिक
अपंगता
से
जूझ
रहे
हैं
लेकिन
फिर
भी
मुश्किलों
के
आगे
कभी
झुके
नहीं।
यह
दो
मित्रों
की
एक
हृदयस्पर्शी
कहानी
है
जिसमें
दोनों
दोस्त
शारीरिक
अपंगता
को
झेलते
हुए
भी
जीवन
की
चुनौतियों
को
सहृदयता
के
साथ
दूर
करने
की
कोशिश
करते
हैं।
बच्चे
के
अंधेपन
पर
आधारित
भी
एक
फ़िल्म
है
‘धनक’। यह
फ़िल्म
बेहद
मासूमियत
से
भरी
हुई
है।
दुनिया
पर
विश्वास
करना
सिखाती
है
यह
फ़िल्म।
बच्चे
चालाकी,
धोखेबाजी
नहीं
जानते।
उनकी
दुनिया
रंग-बिरंगी,
मासूम,
उम्मीदों
से
भरी
होती
है।
ऐसी
फ़िल्मों
की
भी
समाज
को
आवश्यकता
है
जो
इस
मासूमियत
और
विश्वास
को
बचाए
रखें।
धनक
ऐसी
ही
एक
फ़िल्म
है
जो
दुनिया
पर
यकीन
करना
सिखाती
है।
बाल
सिनेमा
ने
कुछ
ऐसी
शारीरिक
अपंगताओं
को
भी
दर्शकों
के
सामने
पेश
किया
है
जिससे
कुछ
समय
पहले
तक
लोग
अनभिज्ञ
थे।
है।
ऐसी
ही
एक
फ़िल्म
है
‘पा’। इस
फ़िल्म
में
प्रोजेरिया
नामक
बीमारी
के
बारे
में
प्रस्तुति
है।
यह
बीमारी
आम
नहीं
है
इसलिए
इससे
पीड़ित
बच्चों
को
बहुत
सी
समस्याओं
का
सामना
करना
पड़ता
है।
इस
फ़िल्म
में
ऑरो
13
वर्षीय
बच्चा
है
जो
कि
शरीर
से
65 वर्ष का बुज़ुर्ग
दिखता
है।
उसकी
शारीरिक
संरचना
उसकी
उम्र
से
कई
गुना
आगे
है।
ऑरो
एक
होनहार,
समझदार
बच्चा
है।
उसे
किसी
से
अपने
लिए
सुहानुभूति
नहीं
चाहिए।
वह
सबकुछ
कर
सकता
है
जो
बाकी
सामान्य
बच्चे
कर
सकते
हैं।
अपनी
इसी
हिम्मत
के
कारण
वह
सबका
चहेता
बन
जाता
है।
वो
लाचारी
में
यकीन
नहीं
रखता।
अपनी
माँ
की
तकलीफ़ों
को
समझता
है।
अपने
संघर्षों
को
चुनौती
देता
है
और
जीवन
को
उत्साहित
होकर
जीने
में
यक़ीन
रखता
है।
यह
फ़िल्म
संवेदनशील
तो
ज़रूर
है
लेकिन
सुहानुभूति
की
इसमें
ज़रूरत
नहीं।
बाल सिनेमा
में
इस
प्रकार
की
फ़िल्मों
का
होना
इस
बात
का
सबूत
है
कि
शारीरिक
अपंगता
कोई
रुकावट
नहीं
बल्कि
यह
शक्ति
है
जो
लोगों
का
हृदय
परिवर्तन
करने
में
सक्षम
है।
मानसिक
समस्याएँ -
‘मेंटल हेल्थ’
आधुनिक
समय
की
गंभीर
समस्या
है।
हर
वर्ग
और
उम्र
का
व्यक्ति
इससे
प्रभावित
होता
है।
शारीरिक
समस्याएं
तो
प्रत्यक्ष
रूप
से
सामने
दिखाई
देती
हैं
लेकिन
मानसिक
समस्याएं
अप्रत्यक्ष
रूप
से
व्यक्ति
के
भीतर
मौजूद
रहती
हैं।
समाज
में
मानसिक
बीमारी
से
पीड़ित
व्यक्ति
को
अब
भी
हीन
भावना
से
देखा
जाता
है
या
उसे
पागल
कह
दिया
जाता
है।
‘आधे से अधिक
मानसिक
बीमारियां
14
साल
की
उम्र
तक
ही
पैदा
हो
जाती
है।
इसके
बाद
ज़िंदगी
भर
हमें
इसके
प्रभाव
नज़र
आते
हैं।
इसीलिए
बहुत
ज़रूरी
है
कि
कम
उम्र
में
ही
इन
मानसिक
समस्याओं
की
पहचान
हो
और
बच्चे
को
सही
मदद
मिल
सके।’6
मानसिक समस्या
की
कोई
उम्र
नहीं
होती।
यह
समस्या
किसी
भी
उम्र
के
व्यक्ति
में
देखी
जा
सकती
है।
आज
के
उलझे
हुए
जीवन
में
यह
कुछ
ज़्यादा
ही
देखने
को
मिलती
है।
समझदार
व्यक्ति
तो
इसके
लक्षण
पहचान
कर
इसे
ठीक
करने
की
कोशिश
करता
है
लेकिन
बच्चे
के
लिए
इस
समस्या
को
समझना
इतना
आसान
नहीं।
दिखावे,
होड़,
प्रतिद्वंदिता
के
समय
में
यह
समस्या
बच्चों
में
अधिकतर
सामने
आती
है।
परिवार
की
समस्या,
गृह
कलेश,
स्कूल
का
माहौल
इन
सबसे
बच्चे
के
मानसिक
विकास
पर
असर
पड़ता
है।
बाल
सिनेमा
ने
इस
गंभीर
विषय
पर
बेहतरीन
फ़िल्मों
का
निर्माण
किया
है।
वे
फ़िल्में
आज
भी
लोगों
के
बीच
चर्चित
हैं।
बाल
सिनेमा
की
इन
फ़िल्मों
के
माध्यम
से
लोग
बच्चों
की
विभिन्न
मानसिक
अवस्थाओं
से
अवगत
हुए
हैं।
मानसिक समस्याओं
की
दृष्टि
में
2007 में आई फ़िल्म
‘तारे जमीन पर’
पर
एक
जरूरी
फ़िल्म
है।
इस
फ़िल्म
के
माध्यम
से
समाज
में
बच्चों
से
संबंधित
कई
सारी
समस्याओं
के
बारे
में
पता
चला।
यह
फ़िल्म
आँखों
में
अश्रु
भर
देने
वाली
एक
भावुक
फ़िल्म
है।
फ़िल्म
में
बच्चों
से
संबंधित
गंभीर
बातचीत
है।
इस
फ़िल्म
को
केवल
बच्चों
के
लिए
कहना
गलत
होगा,
असल
में
यह
फ़िल्म
बच्चों
के
माता-पिता,
उनके
परिवार,
समाज
के
लिए
बनी
है।
“डिस्लेक्सिया फिल्म
का
केंद्रीय
विषय
और
थीम
है। यह
फिल्म
डिस्लेक्सिया
के
मुद्दे
के
बारे
में
जागरूकता
बढ़ाती
है, और
माता-पिता, स्कूलों, कार्यकर्ताओं
और
नीति
निर्माताओं
के
बीच
अधिक
खुली
चर्चा
को
प्रेरित
करती
है। कथन
की
खूबसूरती
यह
है
कि
यह
संदेश
सभी
बच्चों
पर
लागू
होता
है
- चाहे सीखने में
अक्षमता
हो
या
नहीं। रचनात्मकता
शिक्षाविदों
में
स्थान
पाने
की
हकदार
कैसे
नहीं
हो
सकती? यह
इस
बात
पर
भी
बहुत
सूक्ष्म
उंगली
उठाता
है
कि
हम
अपने
सिस्टम
में
जड़ों
तक
संरचना
कैसे
बनाते
हैं।’’7
इस
बीमारी
से
ग्रसित
बच्चे
ने
मानसिक
तौर
पर
जिन
अवहेलनाओं
और
कठिनाइयों
का
सामना
किया
है
वह
समाज
के
लिए
एक
सबक
है।
मानसिक
स्थिति
कोई
बीमारी
नहीं
यह
समाज
को
समझाने
का
प्रयास
इस
फिल्म
ने
किया
है।
मनोचिकित्सक
डॉ.
सत्यकांत
त्रिवेदी
बताते
हैं, ‘‘डिप्रेशन एक
ऐसी
मानसिक
समस्या
है
जिसमें
इंसान
का
मन
लगातार
दुखी
रहता
है।
उसे
खुद
के
प्रति
नकारात्मक
विचार
आने
लगते
हैं।
कई
मामलों
में
देखा
गया
है
कि
पसंदीदा
कामों
से
भी
लोगों
की
रुचि
खत्म
हो
जाती
है।’’8
बाल सिनेमा
के
लिए
यह
अतिआवश्यक
है
कि
वे
केवल
समस्याओं
को
उजागर
न
करें
बल्कि
उससे
संबंधित
हल
भी
समाज
के
सामने
प्रस्तुत
करें।
सामाजिक
समस्याएं -
“सामाजिक समस्या
घटनाओं
का
समूह
या
दशा
है,
जिसे
समाज
में
कुछ
लोग
अवांछित
मानते
हैं।
समाज
के
एक
वर्ग
या
समूह
के
समक्ष
उत्पन्न
स्थिति,
जिसके
हानिकारक
परिणाम
होते
हैं
और
जिससे
केवल
सामूहिक
प्रयासों
से
ही
निबटा
जा
सकता
है,
को
सामाजिक
समस्या
के
रूप
में
परिभाषित
किया
जा
सकता
है।’’9
समाज की
समस्याओं
का
प्रस्तुतिकरण
केवल
मुख्य
सिनेमा
के
माध्यम
से
नहीं
बल्कि
बाल
सिनेमा
के
माध्यम
से
भी
होता
रहता
है।
यह
सामाजिक
बाल
फ़िल्में
हमें
याद
दिलाती
हैं
कि
बच्चों
का
भी
अपना
एक
समाज
होता
है।
बच्चा,
वयस्क
और
बुज़ुर्ग
ये
तीनों
ही
समाज
को
अपने
अनुसार
परिभाषित
करते
हैं।
21वीं सदीं में
बाल
सिनेमा
ने
इसमें
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई
है।
बाल
सिनेमा
ने
हर
मौके
पर
समाज
को
आईना
दिखाने
का
कार्य
किया
है।
शोषण,
जातिभेद,
रंगभेद,
धोखा,
आर्थिक
शोषण,
आतंकवाद,
सांप्रदायिकता
आदि
विषयों
को
बाल
सिनेमा
ने
अपनी
फ़िल्मों
में
उकेरा
है।
हालांकि
बाल
विषयक
फ़िल्में
मुख्यधारा
की
फ़िल्मों
से
बेहद
कम
संख्या
में
हैं
लेकिन
सामाजिक
समस्याओं
को
दर्शाने
में
पीछे
नहीं
हैं।
‘भूतनाथ रिटर्न्स’
ऐसी
ही
एक
सामाजिक
राजनीतिक
फ़िल्म
है।
फ़िल्म
में
उस
समाज
का
चित्र
दिखाई
देता
है
जहाँ
वर्षों
तक
सरकार
वोट
मांगने
तो
पहुँचती
है
लेकिन
उस
समाज
के
लिए
किए
हुए
वायदे
कभी
नहीं
पहुँच
पाते।
फ़िल्म
के
माध्यम
से
पिछड़े,
गरीब
समाज
को
दिखाया
है
कि
कैसे
बड़े
लोग
इन्हें
मूर्ख
बनाकर
अपना
कार्य
सिद्ध
करते
हैं।
फ़िल्म
में
अखरोट
और
भूतनाथ
दो
पात्रों
ने
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई
है।
यूं
तो
यह
फ़िल्म
राजनीतिक
परिपाटी
पर
आधारित
है
लेकिन
इसमें
दिखाया
गया
समाज,
उनकी
समस्याएं
इसके
फलक
का
विस्तार
करती
हैं।
2018 में आई मेरे
प्यारे
प्राइम
मिनिस्टर
विशुद्ध
सामाजिक
फ़िल्म
है।
इस
फ़िल्म
में
समाज
की
एक
गंभीर
समस्या
को
उजागर
किया
गया
है।
भारतीय समाज
आज
भी
जातिवाद
जैसी
कुरीतियों
में
अटका
हुआ
है।
जातिवाद
के
साथ-साथ
लिंग
भेद
भी
समाज
की
एक
गंभीर
समस्या
है।
मुख्य
धारा
सिनेमा
में
हम
लगातार
जातिवाद
जैसी
व्यवस्थाओं
पर
चोट
करती
हुई
फ़िल्मों
को
देखते
हैं।
यूं
बच्चे
सामाजिक
भेदभाव
की
फिक्र
नहीं
करते
लेकिन
उन्हें
दिखाई
ज़रूर
देता
है।
समाज
में
कुछ
ऐसे
नियम
भी
लागू
हैं
जिन्हें
मानने
के
लिए
बच्चे
भी
अभिशप्त
हैं।
जैसे
निम्न
समझी
जाने
वाली
जाति
के
बच्चों
के
साथ
उठना-बैठना।
साहित्य
में
भी
कई
कहानी
इस
दर्द
को
बयान
कर
चुकी
हैं
और
सिनेमा
भी
इस
समस्या
को
लगातार
दिखा
रहा
है।
स्केटर
गर्ल
2021 में आई एक
सामाजिक
फ़िल्म
है
जिसमें
समाज
में
हो
रहे
भेदभावों
पर
दृष्टि
डाली
गई
है।
इस
फ़िल्म
में
निम्न
जाति
और
उच्च
जाति
के
बच्चों
में
खेल
के
माध्यम
से
भेदभाव
को
मिटाने
का
प्रयास
है
और
साथ
ही
लड़का
और
लड़की
में
हो
रहे
भेद
को
भी
दूर
करने
की
कोशिश
शामिल
है।
सदियों
से
स्त्री
को
अपनी
पहचान,
इच्छाएं,
प्रतिभाएं
छुपानी
पड़
रही
हैं
क्योंकि
पितृसत्तात्मक
समाज
ने
स्त्रियों
को
पूरी
आजादी
नहीं
दी।
स्त्री
को
यह
पाबंदियाँ
बचपन
से
ही
झेलनी
पड़ती
हैं।
ऐसी
ही
एक
बाल
फ़िल्म
है
सीक्रेट
सुपरस्टार
जो
कि
पितृसत्तात्मक
समाज
पर
गहरी
चोट
करती
है।
यह
फ़िल्म
समाज
के
खिलाफ़
अपने
सपनों
की
कहानी
है
जिसे
एक
स्कूल
की
लड़की
इंसिया
लड़ती
है।
कह सकते
हैं
कि
बाल
सिनेमा
ने
समाज
को
एक
आईना
दिखाने
का
प्रयास
किया
है
कि
समाज
की
इन
समस्याओं
से
मासूम
बच्चों
की
दुनिया
भी
अछूती
नहीं
है।
यूं
बच्चे
किसी
समाज
के
नियम
से
परे
होते
हैं
लेकिन
समाज
में
जो
घट
रहा
है
उसे
वे
भली
प्रकार
पहचानते
हैं
और
अपनी
मासूम
कोशिशों
से
उन
समस्याओं
को
दूर
करने
का
प्रयास
भी
करते
हैं।
आर्थिक
समस्याएं -
हमारा देश
गरीब
देशों
में
भले
ही
न
आए
लेकिन
यहाँ
गरीबी
अपने
चरम
पर
है। व्यक्ति अपनी
मूलभूत
आवश्यकताओं
को
भी
पूरा
करने
में
असमर्थ
है।
रोटी,
कपड़ा
और
मकान
यहाँ
सबके
पास
नहीं।
जीवित
रहने
के
लिए
न्यूनतम
आय
के
संदर्भ
में
निर्धनता
को
इस
प्रकार
प्रकाशित
किया
गया
है
कि
यह
‘‘वह स्थिति है
जो
शारीरिक
आवश्यकताओं
की
पूर्ति
करने
में,
यानि
कि
जीवित,
सुरक्षित
और
निश्चिंत
रहने
की
आवश्यकताओं
की
पूर्ति
करने
में
असमर्थ
है।’’10
सिनेमा समय-समय
पर
देश
में
बिखरी
ग़रीबी
को
दर्शाता
है।
शायद
ही
भारतीय
सिनेमा
में
ऐसी
कोई
फ़िल्म
होगी
जिसमें
ग़रीबी
का
प्रदर्शन
न
हो।
बाल
सिनेमा
भी
इससे
अछूता
नहीं
है।
बाल
सिनेमा
में
उन
बच्चों
की
कहानियाँ
सम्मलित
हैं
जिनमें
बालक
के
ऊपर
ग़रीबी
का
प्रभाव
पड़ा
है।
1954 में आई बूट
पॉलिश
आर्थिक
समस्याओं
को
उजागर
करती
एक
महत्वपूर्ण
फ़िल्म
है।
फ़िल्म
में
बच्चे
ग़रीब
हैं
लेकिन
भीख
मांगने
की
बजाय
काम
करके
मेहनत
का
कमाना
चाहते
हैं।
यूं
तो
छोटी
उम्र
में
बच्चों
का
काम
करना
अपराध
है
लेकिन
भीख
माँगना
उससे
भी
बड़ा
अपराध
है।
यह
एक
छोटे
बच्चे
की
कहानी
है
जो
भीख
मांगकर
बूट
पॉलिश
करने
का
काम
शुरू
करना
चाहता
है।
बाल
सिनेमा
के
अंतर्गत
आई
फ़िल्म
‘स्टेनली का डब्बा’
भी
आर्थिक
समस्या
और
भूख
को
उजागर
करती
है।
स्टेनली
स्कूल
में
पढ़ने
वाला
बच्चा
कभी
लंच
नहीं
लेकर
जाता
क्योंकि
वह
अपने
चाचा
के
ढाबे
पर
काम
करता
है
और
उसका
चाचा
उसे
बिल्कुल
प्यार
नहीं
करता
है।
एक
अनाथ
बच्चा
जो
अपनी
गरीबी,
अपने
अनाथ
होने
को
सबसे
छुपाता
है।
वह
कभी
जाहिर
नहीं
होने
देता
कि
उसकी
आर्थिक
स्थिति
में
दोपहर
का
खाना
नहीं
आ
सकता।
फ़िल्म
के
कई
दृश्यों
में
दिखाया
गया
है
कि
वह
कई
बार
पानी
पीकर
अपना
पेट
भरता
है
तो
कई
बार
दूसरों
के
लंच
बॉक्स
को
दूर
से
देखकर।
लेकिन
स्टेनली
एक
होनहार
और
समझदार
बच्चा
है
जो
अपनी
स्थिति
पर
किसी
की
सुहानुभूति
नहीं
चाहता।
ये
फ़िल्में
उन
बच्चों
को
उम्मीद
और
हौंसला
देती
हैं
जो
आर्थिक
अभाव
में
अपना
जीवन
जी
रहे
हैं।
‘आई एम कलाम’
फ़िल्म
एक
ऐसे
ही
बच्चे
की
कहानी
है
जो
आर्थिक
अभाव
में
एक
ढाबे
पर
काम
तो
कर
रहा
है
लेकिन
उसे
यकीन
है
कि
एक
दिन
वह
बड़ा
आदमी
बनेगा
।
इसी
प्रकार
2010 में आई बम-बम
बोले
मासूमियत
से
भरी
फ़िल्म
है।
इस
फ़िल्म
को
देखकर
लगता
है
कि
इसमें
संवादों
की
ज़रूरत
नहीं।
बाल
अभिनेता
अपने
हाव-भाव
के
माध्यम
से
दर्शकों
से
रु-ब-रु
हो
रहे
हैं।
यह
फ़िल्म
दो
बच्चों
के
घर
की
खराब
आर्थिक
स्थिति
के
साथ-साथ
उनकी
सूझबूझ
और
मेहनत
को
भी
दर्शाती
है।
आर्थिक समस्याओं
को
उजागर
करने
वाली
यह
फ़िल्में
बिल्कुल
भी
लाचार
प्रतीत
नहीं
होतीं
वरन्
जुनून
और
गर्व
की
मिसाल
कायम
करती
हैं।
बालश्रम
की समस्याएं -
बालश्रम बाल
दुर्व्यवहार
से
उपजता
है।
कुछ
अध्ययनों
ने
‘बाल-दुर्व्यवहार’
को
यह
कहकर
कि
‘‘वे जिन्हें
गंभीर
शारीरिक
चोट
दुर्घटना
के
कारण
न
लगकर
जानबूझकर
लगाई
गई
है’’
सीमित
कर
दिया
है।11 सामाजिक
वैज्ञानिकों
ने
इस
परिभाषा
को
स्वीकार
नहीं
किया
है,
क्योंकि
‘गंभीर’ शब्द में
अस्पष्टताएं
हैं
और
शारीरिक
चोट
में
विविधताएं
हैं।
बाल-दुर्व्यवहार
की
की
किसी
भी
परिभाषा
को
मान्य
नहीं
समझा
जा
सकता,
जब
तक
कि
उसमें
बच्चे
की
मानसिक
चोट,
उपेक्षा
और
उसके
साथ
किया
गया
दुर्व्यवहार
सम्मिलित
नहीं
हो।
बर्गस ने
बाल-दुर्व्यवहार
की
और
अधिक
व्यापक
परिभाषा
दी
है।
उसके
अनुसार,
बाल-दुर्व्यवहार
ऐसे
किसी
भी
बच्चे
की
ओर
संकेत
करता
है
जिसे
माता-पिता,
अभिभावकों
और
मालिकों
के
कार्यों
और
अनाचरण
की
त्रुटियों
के
कारण
बगैर
दुर्घटना
के
शारीरिक
और
मनोवैज्ञानिक
चोट
लगती
है।12
बालश्रम हमारे
देश
और
इसके
भविष्य
के
लिए
अभिशाप
है।
बालश्रम
से
तात्पर्य
है
बचपन
की
दुनिया
को
भूलकर
श्रमिक
हो
जाना।
सिनेमा
और
बालश्रम
का
रिश्ता
बिल्कुल
नया
नहीं
है।
जब
से
सिनेमा
की
शुरुआत
हुई
तब
से
इसकी
झांकिया
फ़िल्मों
में
देखने
को
मिलती
हैं।
कई
बार
तो
फ़िल्म
पूरी
तरह
से
इसी
पर
आधारित
होती
है।
इस
बात
में
कोई
दोराय
नहीं
कि
बाल
विषयक
सिनेमा
ने
इस
समस्या
पर
गंभीरता
से
विचार
किया
है
और
यह
प्रस्तुत
किया
है
कि
बालश्रम
बच्चों
की
एक
अभिशापित
दुनिया
है।
बालश्रम पर
बात
करें
तो
हिंदी
की
पहली
बाल
विषयक
फ़िल्म
बूट
पॉलिश
मानी
जाती
है।
यह
भोला
और
बेलू
की
सामाजिक-आर्थिक
स्थिति
को
बयां
करती
हुई
उन्हें
भीख
और
बालश्रम
में
से
कोई
एक
चुनने
पर
मजबूर
कर
देने
वाली
फ़िल्म
है।
इस
फ़िल्म
में
गरीबी,
भूख
से
लड़ते
उन
बच्चों
के
संघर्ष
की
कहानी
है
जो
शिक्षा,
बचपन
को
छोड़
बालश्रम
को
चुनने
के
लिए
मजबूर
हैं।
2011 में आई स्टेनली
का
डब्बा
महानगर
के
एक
लड़के
की
कहानी
है
जिसे
देखकर
कोई
यकीन
नहीं
कर
सकता
कि
यह
होनहार
बच्चा
बालश्रम
के
चंगुल
में
फँसा
हुआ
है।
इस
फ़िल्म
में
स्टेनली
के
बाल
मज़दूर
होने
का
रहस्य
अंत
में
ही
खुलता
है।
2010
में
आई
बाल
फ़िल्म
आई
एम
कलाम
कुछ
इसी
प्रकार
की
ज़िद
भरी
कहानी
है
जिसमें
छोटू
बालश्रम
से
निकलने
के
लिए
केवल
छटपटाता
नहीं
हैं
बल्कि
उससे
निकलने
की
पूरी
तैयारी
करता
है।
पारिवारिक
वातावरण की
समस्याएं -
परिवार जीवन
के
लिए
महत्वपूर्ण
है
और
एक
बच्चे
की
ज़िंदगी
में
यही
पूरा
संसार
है।
बच्चा
अपनी
पहली
सीख
परिवार
से
ही
सीखता
है।
परिवार
का
असर
बच्चे
पर
ज़िंदगी
भर
रहता
है।
21वीं सदी
से
पहले
की
फ़िल्में
देखें
तो
परिवार
उन
फ़िल्मों
का
एक
मुख्य
अंग
रहा
है।
पारिवारिक
अवधारणा
पर
आधारित
फ़िल्में
दर्शकों
को
ख़ूब
पसंद
आई
हैं।
लेकिन
अब
धीरे-धीरे
सिनेमा
उन
फ़िल्मों
के
आदर्श
से
निकलकर
यथार्थ
की
ओर
बढ़ने
लगा
है।
जिन
फ़िल्मों में आदर्श
परिवार
की
अवधारणा
थी,
वह
21वीं सदी में
कमज़ोर
होती
चली
गईं।
आदर्श
और
यथार्थ
में
अंतर
होता
है।
आदर्श
को
यथार्थ
में
परिवर्तित
करना
बेहद
कठिन
है।
सिनेमा
अपने
उस
आदर्श
से
बाहर
आया
और
समाज
में
परिवार
की
जो
स्थिति
है
उसे
दर्शाने
लगा।
बच्चा परिवार
का
महत्वपूर्ण
अंग
है
लेकिन
परिवार
के
जिन
मसलों
को
बड़े
लोग
परिपक्वता
से
हल
कर
लेते
हैं
छोटा
बच्चा
नहीं
कर
पाता।
इसलिए
सबसे
ज़्यादा
असर
बच्चे
और
उसके
जीवन
पर
पड़ता
है।
मुख्य
धारा
सिनेमा
में
आदर्श
परिवार,
उसकी
टूटन,
उसका
लगाव,
फिर
से
जुड़ना
तो
दिखाया
लेकिन
वहाँ
बच्चा
केंद्र
में
नहीं
था।
बच्चे
पर
परिवार
की
स्थितियों
का
जो
असर
पड़ता
है
वह
बाल
सिनेमा
के
संसार
में
देखने
को
मिला।
बाल
सिनेमा
में
परिवार
का
दृश्य
तो
है
लेकिन
बच्चे
केंद्र
में
हैं।
परिवार
बच्चे
के
इर्द-गिर्द
घूमता
है।
इससे
दर्शक
जान
पाते
हैं
कि
बच्चे
परिवार
को
किस
नज़रिए
से
देख
रहे
हैं।
वे
बच्चे
की
प्रतिक्रिया
का
कारण
जान
पाते
हैं।
उसके
आस-पास
का
वातावरण
उसके
जीवन
की
नींव
रखता
है।
बाल
सिनेमा
ने
इन
बिंदुओं
को
दिखाने
का
प्रयास
किया
है।
‘फरारी की सवारी’
फ़िल्म
पूरी
तरह
बाल
विषयक
नहीं
है
लेकिन
फिर
भी
बच्चा
इस
फ़िल्म
के
केंद्र
में
है।
इस
फ़िल्म
की
कहानी
तीन
पीढ़ियों
की
कहानी
है।
दादा-पिता-पुत्र
की
यह
कहानी
दिल
छूने
वाली
है।
इस
फ़िल्म
में
पिता
अपने
बच्चे
को
आदर्शवादी
जीवन
जीना
सिखाना
चाहता
है
और
वह
ख़ुद
भी
ईमानदारी
से
ही
जीवन
जीता
है।
वह
बच्चे
के
सामने
एक
आदर्श
समाज
की
प्रस्तुति
करता
है
ताकि
बच्चा
भी
ईमानदार
बने।
इसलिए
यह
फ़िल्म
जरूरी
है।
बच्चों
पर
आधारित
न
होते
हुए
भी
इसमें
बच्चों
को
आदर्श
जीवन
जीने
की
प्रेरणा
छुपी
हुई
है।
आधुनिक
समय
में
परिवार
सिमटते
जा
रहे
हैं।
संयुक्त
परिवार
की
अवधारणा
खत्म
होती
जा
रही
है।
परिवार
के
मूल्य
भी
सिमटते
जा
रहे
हैं।
कई
सारी
घटनाएं
अक्सर
पढ़ने
को
मिलती
हैं
कि
बच्चे
अपने
माता-पिता
को
वृद्धाश्रम
में
छोड़
आते
हैं
क्योंकि
वे
उनकी
देखभाल
नहीं
करना
चाहते।
या
कई
बच्चे
अपने
माता-पिता
को
अकेला
छोड़
कर
विदेश
चले
जाते
हैं
और
कोई
खोज
ख़बर
नहीं
लेते।
उनके
वापस
आने
पर
उन्हें
पता
चलता
है
कि
वे
इस
दुनिया
में
नहीं
हैं।
यह
सब
पारिवारिक
मूल्यों
का
हास
है।
2008 में आई ‘भूतनाथ’
ऐसी
ही
एक
फ़िल्म
है।
यूं यो
संयुक्त
परिवार
की
अवधारणा
पूरी
तरह
खत्म
नहीं
हुई
है
लेकिन
कह
सकते
हैं
कि
समाप्त
होने
के
नजदीक
है।
आज
हर
कोई
एकल
परिवार
में
ही
रहना
चाहता
है।
शहर
में
व्यक्ति
नौकरी
करने
आता
है।
शहर
ही
भागदौड़
भरी
ज़िंदगी
में
घर
में
नन्हे
बच्चे
का
भी
ध्यान
नहीं
रहता।
आपसी
अलगाव
के
कारण
माता-पिता
दोनों
ही
बच्चे
पर
ध्यान
नहीं
देते।
शहरों
का
जीवन
एकाकीपन
से
भरा
हुआ
है।
इस
एकाकीपन
का
शिकार
कहीं
न
कहीं
बच्चे
भी
है।
बच्चों
के
लिए
बेहद
ज़रूरी
है
पारिवारिक
स्थिति।
पारिवारिक
स्थिति
बच्चों
के
जीवन
पर
गहरा
असर
करती
है।
पीहू
इसी
तरह
की
फ़िल्म
है
जिसमें
जीवन
और
परिवार
के
एकाकीपन
को
दर्शाया
गया
है।
यह
शहरों
में
रहने
वाले
एकल
परिवार
के
बच्चों
की
कहानी
है
जो
किसी
कारणवश
अकेले
रह
गए
हैं।
यह
फ़िल्म
एक
सच्ची
घटना
पर
आधारित
है।
यह
फ़िल्म
शहरी
जीवन
के
एकाकीपन
को
बेहतरीन
तरीके
से
प्रदर्शित
करती
है।
माता-पिता
अपनी
परेशानियों
से
इतना
घिरे
हुए
हैं
कि
उन्हें
छोटी
सी
पीहू
का
ध्यान
ही
नहीं
रहता।
आपसी
अलगाव
के
कारण
पीहू
के
पिता
नौकरी
पर
चले
जाते
हैं
और
उसकी
माँ
आत्महत्या
कर
लेती
है।
पीहू
जागती
है
अपनी
मृत
माँ
के
पास।
उसे
लगता
है
कि
उसकी
माँ
अभी
जागी
नहीं
है
इसलिए
वह
उसे
जगाने
की
कोशिश
में
लगी
हुई
है।
वह
इस
बात
से
अंजान
है
कि
उसकी
माँ
दुनिया
में
नहीं
है।
पीहू
घर
में
अकेले
होने
के
कारण
बहुत
से
ऐसे
कार्य
अंजाने
में
करने
लगती
है
जो
उसके
लिए
खतरनाक
हो
सकते
थे।
शहरों
में
पड़ोसी
तो
हैं
लेकिन
घरों
को
भरने
के
लिए।
पीहू
की
मदद
के
लिए
कोई
नहीं
आता
और
न
ही
कोई
उसकी
खोज
ख़बर
लेता
है।
छोटी
सी
पीहू
पूरे
घर
में
अकेले
इधर-उधर
घूमती
रहती
है।
शहरों
में
एकल
परिवारों
में
पल
रहे
बच्चों
के
लिए
यह
एक
ज़रूरी
फ़िल्म
है
।
निष्कर्ष : सिनेमा अब
कला
के
रूप
में
विख्यात
है।
कलाओं
में
सिनेमा
एक
जरूरी
आयाम
है।
“सिनेमा को कला
का
दर्जा
देकर
उसे
सभी
कलाओं
का
सिरमौर
कहा
जाने
लगा
है।’’13 सिरमौर सिनेमा
को
केवल
नाम
के
लिए
नहीं
बल्कि
उस
बेहतरीन
प्रयास
के
लिए
कहा
जाता
है
जिसे
सिनेमा
व्यक्ति,
समाज
और
राष्ट्र
के
लिए
कर
रहा
है।
सिनेमा का हर पक्ष लगातार समाज को बेहतर बनाने में तल्लीन है। बाल सिनेमा भी धीरे-धीरे इस आयाम में अपना मजबूत हस्तक्षेप करने की कोशिश में है। कहना गलत
न
होगा,
कि
‘‘सिनेमा में विज्ञान
की
शक्ति
और
कला
की
सुंदरता
है
जो
बुद्धि
को
खाद्य
देती
है
और
हृदय
को
आंदोलित
करती
है।’’14 यही
खाद्य
और
आंदोलन
समाज
और
व्यक्ति
को
बदलने
का
कार्य
करते
हैं।
इस
लेख
में
बाल
सिनेमा
में
निहित
बच्चों
से
सम्बद्ध
समस्याओं
को
उजागर
किया
गया
है।
बाल
सिनेमा
में
निहित
समस्याओं
के
अध्ययन
से
हमें
बाल
सिनेमा
की
व्यापकता
का
पता
चलता
है।
बाल
सिनेमा
को
अब
तक
केवल
मनोरंजन
या
बच्चों
तक
सीमित
कर
दिया
जाता
रहा
है
लेकिन
उसके
अध्ययन
के
बाद
उसकी
गंभीरता
का
पता
चलता
है।
इस बात
में
कोई
दोराय
नहीं
कि
‘‘हिंदी सिनेमा समाज
का
एक
प्रमाणित
और
वैज्ञानिक
दस्तावेज
भले
न
हो
लेकिन
एक
समाज
उसके
भीतर
से
रिफ्लेक्ट
होता
है।
हम
सभ्यता
के
और
समय
के
जिस
बिंदु
पर
खड़े
हैं
वहाँ
सिनेमा
हम
पर
असर
डालता
है।
हमारी
ज़िंदगी
को
गढ़ने-बिगाड़ने
की
कोशिश
करता
दिखता
है।
साथ
ही
दृश्य
और
श्रवण
का
यह
माध्यम
हमारी
ज्ञानेन्द्रियों
से
अनुभूत
नब्बे
प्रतिशत
सूचनाएं
मस्तिष्क
तक
पहुँचाने
में
सक्षम
होता
है।
निश्चय
ही
फिल्में
वह
माध्यम
हैं
जो
समाज
में
दर्पण,
दीपक
और
दिगसूचक
तीनों
की
भूमिका
निभाती
है।’’15
यह
कथन
सिनेमा
के
बाल
विषयक
पक्ष
पर
भी
पूरी
तरह
सही
बैठता
है।
1. दिनेश श्रीनेत, पश्चिम और सिनेमा, वाणी प्रकाशन, 2012, पृष्ठ 26
2. विनोद भारद्वाज, समय और सिनेमा, प्रवीण प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1994, नई दिल्ली, पृष्ठ सं – 11
3. संपादक मृत्युंजय, हिंदी सिनेमा का सच, समकालीन सृजन प्रकाशन, वितरक वाणी प्रकाशन, संस्करण 1997, पृष्ठ सं – 63
4. https://www.ichowk.in/cinema/importance-of-kids-and-their-problems-in-indian-cinema-and-our-approach/story/1/8847.html)
5. प्रसून सिन्हा, भारतीय सिनेमा, श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ 15
7. https://jyoti834.wordpress.com/film-review-of-taare-zameen-par/
8. (https://www.amarujala.com/photogallery/entertainment/bollywood/these-bollywood-films-talk-about-serious-mental-issues-know-here-full-details-about-these-diseases?pageId=4)
10. राम आहूजा, सामाजिक समस्याएं, तृतीय संस्करण, रावत पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 24
11. जॉर्थ, सी. डब्ल्यू. एण्ड ऑस्टरोव, ई., द सेल्फ इमेज ऑफ फिजिकली अब्यूज़ड अड़ोलसेंट्स, जर्नल ऑफ यूथ एण्ड अडोलसेंस, वॉल्यूम 11, नंबर 2, 1982
12. आर. एल. बर्गस, चाइल्ड अब्यूज़:ए सोशल इन्टरैक्शनल एनलाईसिस, इन बेन लाहे एण्ड एलन काज़दिन (ईडीएस), अड्वान्सज़ इन क्लीनिकल चाइल्ड साइकॉलजी, वॉल्यूम 2, प्लेनम प्रेस, न्यूयॉर्क 1979
13. विष्णु खरे, सिनेमा पढ़ने के तरीके, प्रथम संस्करण, नीलकंठ प्रकाशन, 2012, पृष्ठ फ्लैप से
14. डॉ. अर्जुन तिवारी, आधुनिक पत्रकारिता, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2008, पृष्ठ 222
15. डॉ. देवेन्द्र नाथ सिंह, डॉ. वीरेंद्र सिंह यादव, भारतीय हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा, राज प्रकाशन, 2012, पृष्ठ 57-58
शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली - 110007
Gautamshruti04@gmail.com, 8178424091
पी.जी.डी.ए.वी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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