- डॉ. अश्विता त्रिपाठी
‘वृत्ति’ शब्द की व्युत्पत्ति वृत् धातु से क्तिन् प्रत्यय करने से होती है, जिसका अर्थ है-‘जीवन की सहायक जीविका’। वृत्ति शब्द का सामान्य अर्थ जीविका का व्यापार है, परन्तु काव्यशास्त्र में यह विशिष्ट अर्थ का वाचक है। वहाँ यह तीन विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है- 1. शब्दशक्ति के रूप 2. काव्यवृत्तियों के लिए और 3. नाट्यवृत्तियों के लिए।‘नाट्यवृत्ति’ का अर्थ है नटों की क्रिया या व्यापार जिसका रूपक में प्रदर्शन होता है।नाटक की वृत्तियों की कल्पना का मूल आधार वाचिक तथा आङ्गिक अभिनय है।समाज में प्राणियों के भाव या चेष्टाओं का अनुकरण काव्य में किया जाता है।वृत्ति केवल वही नहीं है, जिसका शरीर के विभिन्न अङ्गों से प्रदर्शन किया जाए, अपितु मन तथा वागिन्द्रिय का व्यापार भी ‘वृत्ति’ के अन्तर्गत ही आता है सभी प्रकार के काव्य के अस्तित्व का कारण वृत्तियाँ होने से माता और उसकी सन्तति में जो सम्बन्ध होता है वही वृत्ति तथा काव्य का सम्बन्ध होने से वृत्तियाँ‘नाट्य-माता’ कहलाती हैं। भारतीय साहित्यशास्त्र में वृत्तियाँ दो रूपों में प्राप्त होती हैं-प्रथम काव्यवृत्ति और द्वितीय नाट्यवृत्ति। काव्यवृत्ति में उपनागरिका,परुषा तथा कोमला वृत्तियों का वर्णन होता है तथा नाट्यवृत्ति के अन्तर्गत भारती, सात्त्वती,कैशिकी एवं आरभटी का वर्णन प्राप्त होता है।
आचार्य आनन्दवर्धन ने काव्यवृत्ति को शब्द की वृत्तियाँ कहा है। काव्य वृत्तियों में रस के अनुरूप ही वर्ण-विन्यास होता है तथा रस के व्यञ्जक वर्ण-निबन्धन को ही वृत्ति कहते हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार नियत वर्णों में निहित रस-व्यञ्जना सम्बन्धी व्यापार को वृत्तिकहते हैं
वृत्तिर्नियतवर्णगतोरसविषयोव्यापार:[1]।
वृत्ति, रीति, मार्ग, सङ्घटना तथा शैली ये शब्द प्रायः समानार्थक ही प्रतीत होते हैं। एक ही पदार्थ को भिन्न-भिन्न आचार्यों ने इन भिन्न-भिन्न नामों से व्यवहृत किया है। वृत्ति शब्द का प्रयोग आचार्य उद्भट ने किया है।इन्होंने अपने ‘काव्यालङ्कारसारसङ्ग्रह’ नामक ग्रन्थ में उपनागरिका, परुषा तथा कोमला नाम से तीन प्रकार की वृत्तियों का वर्णन करते हुए उनके लक्षण निम्नलिखित प्रकार से दिया है-
आगे चलकर प्रतिहारेन्दुराज ने कहा कि भामह द्वारा अनुप्रास नामक भेद के रूप में उपनागरिका तथा ग्राम्या नामक दो वृत्तियों की उद्भावना की गई थी-
भामहो हि ग्राम्योपनागरिका वृत्तिभेदेन द्विप्रकारमेवानुप्रास व्याख्यातवान्।
- उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज द्वारा 1/2 की लघुवृत्ति
इन्हीं तीन प्रकार की वृत्तियों को आचार्य वामन ने तीन प्रकार की ‘रीतियों’ के रूप में, आचार्य कुन्तक तथा आचार्य दण्डी ने तीन प्रकार के मार्गों के रूप में और आचार्य आनन्दवर्धन ने तीन प्रकार की सङ्घटना के रूप में माना है।अत: आचार्य उद्भट की वृत्तियाँ, आचार्य वामन की रीतियाँ तथा आचार्य दण्डी के और आचार्य कुन्तक के मार्ग एवं आचार्य आनन्दवर्धन की सङ्घटना एक ही भाव को व्यक्त करते हैं। आचार्य उद्भट ने इन तीनों वृत्तियों में वर्णसाम्य को वृत्यानुप्रास कहा है-
सरूपव्यञ्जनन्यासं तिसृष्वेतासु वृत्तिषु। पृथक् पृथगनुप्रासमुशन्ति कवय: सदा॥
– उद्भट
आचार्य रुद्रट ने पाँच वृत्तियाँ मानी- मधुरा, प्रौढा, परुषा, ललिता तथा भद्रा। किन्तु ये वृत्तियाँ मुख्यत: अनुप्रास से ही सम्बन्धित हैं। इन सभी वृत्तियों में रुद्रट ने विविध प्रकार के अक्षरों का विधान बतायाहै। मधुरा वैदर्भी रीति के या उपनागरिका वृत्ति के सदृश मानी जाएगी, भद्रा कोमला या ग्राम्याके सदृश और शेष तीनों वृत्तियाँ परुषा वृत्ति के समकक्ष मानी जाएंगी।
आचार्य मम्मट ने उपनागरिका, परुषा तथा कोमला वृत्तियों को वृत्यानुप्रास के तीन प्रकार माना है। माधुर्य के व्यञ्जक वर्णों से युक्त उपनागरिका वृत्ति कहलाती है[3]। ओज के प्रकाशक वर्णों से युक्त परुषा वृत्ति कहलाती है[4], शेष वर्णों से युक्त कोमलावृत्ति होती है[5]।कोई इसे ही ग्राम्या वृत्ति भी कहते हैं। उद्भट को अभिमत यह तीनों वृत्तियाँ ही वामन इत्यादि आचार्यों के मत में क्रमशः वैदर्भी, गौडी और पाञ्चाली नामक रीतियाँ मानी जाती हैं।[6]
वृत्ति का सर्वप्रथम वर्णन ‘नाट्यशास्त्र’ में हुआ है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र के 22वें अध्याय में इस विषय का विचारोत्तेजक वर्णन स्वतन्त्र रूप से अत्यधिक विस्तार के साथ किया है।
भरतमुनि ने नाट्यवृत्तियों को काव्य की माता कहा है-
भरतमुनि ने वृत्तियों की उत्पत्ति के विषय में एक रोचक पौराणिक कथा प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत कथा का सम्बन्ध भगवान विष्णु द्वारा मधु-कैटभ वध से है। मधु-कैटभ नामक असुरों के वध के क्रम में भगवान विष्णु ने जो चेष्टायें प्रदर्शित कीं, उनसे ही नाट्य वृत्तियों का जन्म हुआ। सङ्ग्राम के प्रसङ्ग में भगवान विष्णु ने जैसे ही अपना पैर पृथ्वी पर स्थापित किया तो भार से पृथ्वी ऊपर उठ गई और इससे भारती वृत्ति की उत्पत्ति हुई। भगवान विष्णु की वीर रसानुकूल चेष्टाओं से सात्त्वती वृत्तिका उद्भव हुआ तथा उस युद्ध के समय भगवान ने लीला पूर्वक विभिन्न आङ्गिक चेष्टाओं के साथ अपने शिखाकेशों को बाँधा, उसी से कैशिकी वृत्ति का निर्माण हो गया। युद्ध के समय आवेग तथा नाना प्रकार के पैंतरे बाँध कर चकित कर देने वाले भगवान विष्णु के कार्यों से आरभटी वृत्ति का निर्माण हुआ। भगवान विष्णु द्वारा विभिन्न क्रियाओं से उत्पन्न होने वाली जिन जिन वृत्तियों का जब-जब प्रदर्शन किया गया भगवान ब्रह्मा ने उनका तत्कालीन उचित शब्दों के द्वारा अभिनन्दन किया[8]।
इस प्रकार यह बात सिद्ध होती है कि वृत्तियों का सम्बन्ध आङ्गिक, वाचिक, सात्विक तथा आहार्य अभिनयों से है। भरतमुनि ने वृत्तियों का सम्बन्ध चारों वेदों से भी स्थापित किया है[9]- इनके अनुसार भारती वृत्तिका ‘ऋग्वेद’ से सात्त्वती वृत्ति का ‘यजुर्वेद’ से, कैशिकी वृत्तिका ‘सामवेद’ से तथा आरभटी वृत्ति का ‘अथर्ववेद’ से उद्भव हुआ है। आचार्य आनन्दवर्धन ने वृत्ति का अर्थ व्यवहार या व्यापार से किया है-
व्यवहारो हि वृत्तिरित्युच्यते[10]।
अभिनवगुप्त ने वृत्तियों की व्याख्या करते हुए इन्हें पुरुषार्थ-साधक व्यापार कहा है-
तस्माद्व्यापारा:पुमर्थसाधकोवृत्ति:।
तथा इन वृत्तियों को समस्त जीवलोक में व्याप्त माना है। इन्होंने काव्य तथा नाटक के पात्रों की कायिक, वाचिक एवं मानसिक चेष्टा को वृत्ति कहा-
कायवाङ् मनसाचेष्टाएवसहवैचित्र्येणवृत्तय:[11]।
नाट्यदर्पणकार आचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र का यह वृत्तितत्व-विमर्श भी यहाँ ध्यान देने योग्य है-
इन्होने भी वृत्तियों को काव्यबन्ध की जननी कहा है।ये नाट्यवृत्तियाँ विविधप्रकार की नाट्यशैलियाँ ही हैं। आगे चलकर इसी आधार पर काव्य- वृत्तियों का आविष्कार हुआ। काव्यवृत्तियों के वर्गीकरण का आधार शैली ही है। काव्यशास्त्र के आदि आचार्य भामह के समय में काव्यप्रकारों का वर्गीकरण प्रदेशों के आधार पर किया जाता था। उनके समय में वैदर्भ और गौड दो प्रकार के काव्य प्रचलित थे। वैदर्भ को गौड की अपेक्षा श्रेष्ठ माना जाता था। भामह ने इस प्रकार का भेद नहीं माना और स्पष्ट कहा कि वैदर्भी काव्य स्पष्ट, लघु और होते हुए भी यदि पुष्टार्थ और वक्रोक्ति से युक्त नहीं है तो वह मात्र श्रुतिमधुर होगा। इसके विपरीत अलङ्कारयुक्त ग्राम्यता रहित अर्थवान्, न्याय्य और जटिलतारहित गौडीय काव्य भी श्रेष्ठ होगा।
दण्डी ने वैदर्भ और गौड़ को मार्ग नाम दिया है और गौडी की अपेक्षा वैदर्भी को श्रेष्ठ माना है। आचार्य कुन्तक ने काव्यमार्गों का उललेख किया है, किन्तु उनका वर्गीकरण प्रदेशों के आधार पर नहीं है। उनके अनुसार केवल तीन मार्ग हैं- सुकुमार, विचित्र और मध्यम। उनका मानना है कि देशभेद के आधार पर मार्गभेद उचित नहीं। उसका आधार कवियों का स्वभावगत भेद ही होना चाहिए। यद्यपि कवियों का स्वभाव अलग-अलग होता है, इसलिए मार्ग भी अनन्त हो सकते हैं, लेकिन उनकी गणना असम्भव होने से तीन प्रकार के मार्ग ही मानना श्रेयस्कर है।
यहाँ यह बात स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है कि काव्यरचना की शैली का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया जाता रहा है। देशभेद के आधार पर, कवि स्वभाव के आधार पर। रचनाकार अपने परिवेश, अपने संस्कारों से सदैव प्रभावित होता है, उसकी भाषा पर उसके देशकाल का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है और इसी आधार पर उसकी शैली में भी वैशिष्ट्य होता है और इसीलिए हम उसकी भाषा शैली से उसके स्थानादि से परिचित हो जाते हैं। इस वैशिष्ट्य को स्पष्ट करने के लिए ही संस्कृत के आचार्यों ने रीति, वृत्ति, प्रवृत्ति, मार्ग, सङ्घटना आदि शब्दों का प्रयोग किया है।
भरतमुनि ने नायकादि की मन, वाणी और शरीर की विभिन्न प्रकार की चेष्टाओं को ही वृत्ति कहा है। वृत्तियाँ मुख्य रूप से चार हैं- भारती, सात्त्वती, कैशिकी तथा आरभटी।[13]
भारती वृत्ति : भरतमुनि के अनुसार इसमें संस्कृत वाणी का बाहुल्य होता है। यह केवल पुरुष पात्रों द्वारा ही प्रयुक्त की जाती है। स्त्रियों के द्वारा इसका प्रयोग नहीं किया जाता है। भारती वृत्ति के चार प्रकार होते हैं- प्ररोचना, आमुख,वीथी तथा प्रहसन। यह करुण रस एवं अद्भुत रसों में प्रयुक्त होती है।[14]
सात्त्वती वृत्ति: इसका प्रयोग सत्वशाली पुरुषों द्वारा होता है। इसमें सत्वगुण की प्रधानता होती है, तथा न्याय-सम्पन्न वृत्त का निबन्धन एवं हर्ष का सन्निवेश होता है। सात्त्वती वृत्ति में शोक का सर्वथा अभाव होता है। इसका प्रयोग वीर, अद्भुत एवं रौद्र रसों में अधिकता के साथ तथा करुण एवं शृङ्गार रस में अल्पता के साथ होता है। इसमें वास्तविक शक्तिशाली व्यक्तियों की वीरभावनात्मक चेष्टाएं अभिव्यक्त होती हैं। इसके भी चार अङ्ग होते हैं- उत्थापक, परिवर्तक, संलापक एवं सङ्घातक।[15]
कैशिकी वृत्ति :कैशिकी वृत्ति का सम्बन्ध केश से है। भरतमुनि के अनुसार यह वृत्ति सुन्दर नेपथ्य- विधान से चित्रित, आकर्षक वेशभूषा से परिपूर्ण, नृत्य-गीतों तथा वाद्यों की बहुलता से सम्पन्न तथा कामोपभोग के उपचारों से परिपूर्ण होती है।कैशिकी वृत्तिके भी चार प्रकार बताए गए हैं- नर्म, नर्मस्फूर्ज, नर्मस्फोट तथा नर्मगर्भ। यह वृत्ति शृङ्गार रस एवं हास्य रस में प्रयुक्त होती है।[16]
आरभटी वृत्ति: आरभटी वृत्ति का उद्भव ‘अरभट’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है- साहसी एवं उद्धत पुरुष। इसका सम्बन्ध मायायुक्त इन्द्रजाल के वर्णन, अनेक प्रकार से नीचे गिरने, कूदने,बाँधने की क्रियाओं से होता है। इसमें अनेक प्रकार के युद्धों का अभिनय भी प्रस्तुत किया जाता है। इसके चार भेद बताए गए हैं- संक्षिप्तक, अवघातक, वस्तुस्थापन एवं सम्फेट। इस वृत्ति का प्रयोग वीभत्स, भयानक तथा रौद्र रसों में होता है।[17]
ये वृत्तियाँ नाट्यरचना में उपयोगी होती हैं।यद्यपि कवि का अभिप्रेत नाटक के माध्यम से रसोन्मीलन करना होता है और इस कार्य की साधिका वृत्तियाँ होती हैं। श्रङ्गार और हास्य रस में कैशिकी, वीर, रौद्र तथा अद्भुत रसों में सात्त्वती वृत्ति, भयानक, वीभत्स और रौद्र रसों में आरभटी वृत्तिका तथा करुण और अद्भुत रसों में भारती वृत्तिप्रयोग किया जाना चाहिए।[18] इसीलिए इन वृत्तियों को सङ्घटना धर्म विशेष माधुर्य, ओज आदि गुणों से अभिन्न कहा गया अतः इनकी स्वतन्त्र सत्ता समाप्त हो गई।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रीति और वृत्ति में विशेष अन्तर नहीं है। वृत्तियों में अर्थयोजना पर अधिक महत्व दिया जाता है और रीतियों में शब्दयोजना पर जिस प्रकार शब्द से अर्थ और अर्थ से शब्द पृथक नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार रीति और वृत्ति भी संयुक्त हैं।
सन्दर्भ : [2]काव्यालङ्कारसारसंग्रह[3]काव्यप्रकाश नवम उल्लास/सूत्र107[4]काव्यप्रकाश नवम उल्लास/सूत्र108[5]काव्यप्रकाश नवम उल्लास/सूत्र109 [6]काव्यप्रकाश नवम उल्लास/सूत्र110[7]नाट्यशास्त्र 20/4[8]नाट्यशास्त्र22/15[9]नाट्यशास्त्र 22/24[10]ध्वन्यालोक [18]नाट्यशास्त्र 22/64-65
डॉ. अश्विता त्रिपाठी
प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक (संस्कृत), जनता इण्टर कालेज, बभनौली, रामपुर, गाजीपुर।
ashvitatripathi@gmail.com
डॉ. अश्विता त्रिपाठी
प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक (संस्कृत), जनता इण्टर कालेज, बभनौली, रामपुर, गाजीपुर।
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सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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