शोध सार : मनुष्य पूर्ण रूप से प्रकृति पर आश्रित है। निर्झरों की कल-कल नाद, फल-फूलों से लदे वृक्ष, पक्षियों का संगीत, सरिता की कलकल-छलछल की ध्वनि, कोकिल की पंचम तान, कलियों की खिलखिलाहट, चातक, चकोर, उषा, मराल, मीन, मेघ, पुष्प, नक्षत्रों का मौन निमंत्रण, निशा, संध्या के मधुमय संदेश आकाश मंडल में चमकते हुए तारे, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र की उताल तरंगें, हरे-भरे वन, रंग-विरंगे फूल, अनुगूँजन करते भ्रमर, क्षितिज को घेरतेबादल, मस्तक उठाए हुए पर्वत शृंग, घाटियों से निकलकर कभी मंथर गति से कभी भयंकर वेग से गर्जन करती सरिताएँ, हरी-भरी वनस्पतियों और उन्हें आंदोलित करता पवन, वनों में उछलते-घूमते पशु-झुण्ड आदि प्रकृति के अंग हैं। मध्यकालीन कुमाउनी कवियों में प्रकृति के मानवीकरण रूप का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। कुमाऊँ प्रकृति की गोद में स्थित है। प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति से चिर-परिचित है, वही प्रकृति उसके कवित्व व्यवहार पर अभिव्यक्त हुई है, प्रकृति को सुख व दुख में अपना साथी मानकर रचनाएँ की हैं। वृक्षों, पशु-पक्षी एवं पर्वत का मानवीय क्रियाओं की भाँति सूक्ष्म से सूक्ष्म चित्रण किया है।
बीज शब्द : अघ्याड़ी,
विलाप,
डान- कान, जसै,
न्हा,
न्यूती,
वुडनक आदि
मूल आलेख : अखिल सृष्टि में प्रकृति मनुष्य की असीम संगिनी है। संपूर्ण चराचर ब्रह्माण्ड को ईश्वर की संरचना कहा जाता है। मनुष्य भी उसी सकल ब्रह्माण्ड का अंश है। प्रकृति ही मनुष्य के साथ- साथ संसार में रहने वाले सभी प्राणियों का भरण-पोषण करती है। प्रकृति ने सभी सजीव एवं निर्जीव प्राणियों को अमूल्य वस्तुएं से उपहार स्वरूप प्रदान की हैं। इन उपहारों में पीने के लिए, भोजन के लिए फल- अनाज,
साग-सब्जी, खेती के लिए धरती, रोग के लिए औषधि, कल-कल (सुंदर ध्वनि) करते झरने, ऊँचे-ऊँचे पर्वत ऑक्सीजन के लिए पेड़-पौधे आदि प्रदान किए। प्राणी सदैव प्रकृति के ही संरक्षण में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। प्रकृति के अभाव में मनुष्य एक साँस भी नहीं ले सकता है। प्रकृति के विषय में किरण कुमारी गुप्त लिखती हैं ‘‘जन्म काल से ही मानव प्रकृति की गोद में पलता है। आरंभ में प्रकृति मानव की सहज वृत्तियों का समाधान करती है और अव्यक्त रूप में मानव का उसके साथ संबंध स्थापित हो जाता है। उसके साहचर्य में मानव कभी उसके अंग-प्रत्यंगों के आकार के विषय में विचार करता और कभी उसके स्वाभाविक सौंदर्य पर मुग्ध होकर चकित-सा देखता रह जाता है।"1
‘हिमालय’
संस्कृत के हिम तथा आलय दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है, बर्फ से बना घर। हिमालय के लिए ऋग्वेद में हिमवंत तथा महाभारत में उत्तरकुरु शब्द प्रयुक्त हुए हैं। संस्कृत के महाकवि कालिदास इसके लिए ‘नागाधिराज’
शब्द का प्रयोग करते हैं। इनके कुमारसंभव में हिमालय का चित्रण है-
हिमालय दैवीय आनंद प्रदान करने वाला एवं विभिन्न रत्नों से जड़ित है। इसी हिमालय की तलहटी में प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण-कुमाऊँ स्थित है। कुमाऊँ प्रकृति से आच्छादित है। यहाँ प्रकृतिमय वातावरण कवियों को प्रकृतिपरक रचना करने के लिए प्रेरित करता है। कुमाउनी भाषा के मर्मज्ञ समालोचक डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय लिखते हैं ‘‘स्थानीय परिवेश की विशिष्ट भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशेषताएँ इन रचनाओं द्वारा उभरती हुई प्रतीत होती हैं। इनसे ज्ञात होता है कि किस प्रकार यहाँ के निवासी इस परिवेश से प्रभावित व परिचालित होते रहे हैं। इन निवासियों की परंपरा के प्रति निष्ठा और प्रगतिशीलता दोनों का रहस्य इस परिवेश में जैसे छिपा हुआ है। हरी-भरी घाटियाँ, घास के विस्तृत बुग्यालों, हिमानी शिखरों ने यदि इन निवासियों को भावुक और कल्पनाशील बनाया है तो आदर्श, प्रिय और सरल हृदय बनने की प्रेरणा भी दी है। सीढ़ीदार खेतों में काम करती हुयी स्त्रियों ने यदि उन्हें सौन्दर्य प्रेमी कवि बनाया है तो पथरीली पहाड़ियों ने संघर्ष झेलने की शक्ति भी दी है। जीवन यापन की कठिनाइयों ने यदि दूर-दूर देशांतरों में जाने के लिए बाध्य किया है तो विरही हृदय की व्याकुलता से भी भर दिया है।"3
मध्यकालीन कुमाउनी काव्य की समय सीमा सन् 1900-1950 तक है। इस काल में अनेक कवियों के काव्य में मानवीकरण रूप में प्रकृति चित्रित हुई है। मानवीकरण रूप में प्रकृति का अर्थ है- प्रकृति पर मानवीय क्रियाओं अथवा व्यवहार का आरोपण। इस रूप में प्रकृति अवचेतन न रहकर मानव की भाँति व्यवहार करते हुए दिखाई पड़ती है। लालता प्रसाद सक्सेना के अनुसार "भावुक कवि के लिए प्रकृति का स्वतंत्र अस्तित्व एवं पूर्ण व्यक्तित्व है। निर्जीव खाद्य पदार्थों के समान वह केवल उसके उपभोग की वस्तु नहीं। उसका निजी संसार है, जहाँ वह मानव के समान ही सुख-दुःखमय जीवनयापन करती है। कवि की दृष्टि में दूर्वादल के हिम-बिन्दुओं का रमणी के अश्रुओं से कम महत्त्व नहीं। उषा की अरुणा-अरुणाभा तथा मादक तरुणी के आरक्त कपोलों दोनों ही उसके लिए आकर्षक है। दामिनी की दमक उसे भागिनी की मृदुल स्थिति के समान और कोकिल का पंचम-राग कामिनी के मधुमय संगीत सदृश प्रतीत होता है।"4
प्रकृति मानव को सजीव की भाँति लगती है। मध्यकालीन कुमाउनी कवियों ने प्रकृति का मानवीकरण रूप में सुंदर चित्रण किया है। गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा, ‘वृक्षन को विलाप’
में वृक्षों की दुःख-पीड़ा चित्रण करते हैं। वृक्ष मनुष्य को अपनी स्थिति बयां करते हुए अभिव्यक्त करते हैं कि मनुष्य तुम हम वृक्षों के विषय में सुनिए, संसार में निवास करने वाले सभी व्यक्तियों का उत्थान हो रहा है किंतु आप हमें नष्ट करने में लगे हुए हैं। हम आपके समक्ष कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकते हैं। हे मनुष्य हमारे लिए आप काल(मृत्यु) हैं-
आगे वृक्ष कहते हैं कि हमारे बिना आपका एक भी कार्य पूर्ण नहीं होता है। ईंधन बनाने,
घरों की छत बनाने में,
भोजन बनाने में,
मशाल बनाने में प्रसूता स्त्री को ठंड से बचाने में, यहाँ तक कि जब आपकी मृत्यु होती है तो शमशान घाट तक हमारा ही सहारा लेकर पहुँचाया जाता है और चिता भी हमारे कारण ही जलती है। हमारे द्वारा हर विपत्ति में आपका सहयोग किया जाता है। हम ही आपको जंगली जानवरों के खतरे से भी बचाते हैं-
वृ़क्ष आगे अपने विषय में विस्तार से बताते हैं कि हम ही खेती-बाड़ी में भी मनुष्य के काम आते हैं। हमसे ही हल,
नस्यूड़ा,
दन्याल,
दरांती,
कुदाल के हथिया भी बनते हैं। इसलिए हे! मनुष्य हम पर दया करो। तुम निर्दयी बनकर हमारा हलाल करते हो। छोटे-छोटे वृक्षों को समाप्त कर देते हो, जबकि हम आठों पहर आपकी सेवा में तल्लीन रहते हैं-
वृक्ष आगे कहते हैं आप जब ग्रीष्मकाल में गरमी से तपते हैं तो हम ही आपको शीतलता प्रदान करते हैं। आपकी छाती को शीत ऋतु में लकड़ी एवं कोयले जलाकर गरम करते हैं। विभिन्न प्रकार के फल एवं औषधि का सेवन भी आप करते हैं। हमसे ही बंदूक का कुंदा एवं पुलिस का डंडा भी बनता है। हमसे ही आपके माथे सुशोभित चंदन बनता है-
आगे वृक्ष कहते हैं कि आपने हमारे ऊपर अत्याचार किए हैं खून के रूप में आप लीसा निचोड़ते हो। हमें चीर फाड़कर टाल बनाते है,
हमसे ही टोकरी,
पिटारी,
सूप एवं डलिया का निर्माण होता है। हमारी जड़ों द्वारा ही तालाब एवं धारा में जल छलकता है। वृक्ष कहते हैं कि हम आप से यही निवेदन करते है कि हमारे अस्तित्व को मत मिटाइए जैसे संसार में विचरण करने वाले प्राणियों में जीवन है वैसे ही हम में प्राण हैं, केवल वैषम्यता यहाँ है कि हम अपनी पीड़ा अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। हमारा रक्षक पोषक ईश्वर ही है-
रामदत्त पंत मध्यकालीन कुमाउनी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ‘रात’
और नाँच कविता में मानवीकरण रूप प्रकृति चित्रित हुई है। साँझ का समय है एवं दिवस गंतव्य की ओर अग्रसर है। धूप पर्वत-शिखरों में कदम रख चुकी है। सूर्य का प्रकाश मंद-मंद गति से अंधकार की ओर परिवर्तित हो रहा है-
‘नाच’
कविता में पुष्पों से सुसज्जित वन को,
एवं आसमान रूपी रंगमंच पर सूर्य एवं चन्द्रमा को नृत्य करते हुए दिखाया है-
‘‘जै घड़ि समाज पड़ के भुल हैं जैछ’ कविता मे चिंतामणि पालीवाल ने पहाड़ दूर से रोज़गार की खोज में गए दो व्यक्ति अपने पहाड़ के हिसालू,
काफल,
बेडू(पर्वतीय फल) का हरे-हरे तन एवं पक्षियों की सुमधुर ध्वनि का स्मरण करके भाव विभोर हो जाते हैं-
‘‘चिड़ियों की बरात’ कविता में पक्षियों,
फल,
सब्जी पर मानवीय क्रियाओं का आरोप किया है। दो महिलाएँ आपस में वार्तालाप कर रही हैं। बानड़ी देवी(माता का मंदिर) के जंगल में बीते दिन बहुत रौनक थी, कल दीदी मैंने अपने ससुर से सुना कि शामा के जंगल में चिड़ियों की बरात पहुँची थी,
बहुत धूमधाम थी और ही मनोरंजक दृश्य था-
मुशिया(पर्वतीय पक्षी विशेष) ने घुघुते(पक्षी विशेष) की बेटी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, दीदी आप इसको मज़ाक में मत लीजिए,
बरातियों के लिए बड़ा इंतजाम था, आमंत्रित पक्षी कहाँ-कहाँ से पहुँचे थे-
सुवा पक्षी सगुनाखर गीत गा रहे थे,
कौआ बरात की अगवानी कर रहा था। कौए की पत्नी नाते-रिश्तेदारों का निमंत्रण देने का कार्य कर रही थी। कवि ने इन मानवों पर प्राणियों के माध्यम से भाव व्यक्त किए हैं। कफू नामक पक्षी पंडित था,
रीछ ने रसोइए का ज़िम्मा संभाला था-
पपीहा नामक वियोगी चिड़िया भी विवाह-समारोह में पहुँच गए। अपनी करुण पुकार से उसने वर्षा को धरती में बुला दिया। ये पक्षी अपने-अपने व्यवहार से सबका मनोरंजन कर रहे थे-
कवि अनेक कल्पनाएँ करता है कि जिस प्रकार मनुष्य जीवन में उसके रिश्तेदार रिश्ते-नाते निभाते हैं,
उसी प्रकार पक्षियों का भी चित्रण किया हैं-
कवि ने अनेक कल्पनाओं से इन मानवेत्तर प्राणियों को मानव रूप में चित्रण किया है। सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान थे। कुमाउनी में उनकी एकमात्र कविता का उल्लेख मिलता है जिसका नाम है ‘बुरूँश।’ बुरूँश कविता में कवि ने पर्वतीय पुष्प बुरूश का सुंदर शब्द चित्र खींचा है। कवि ने प्रकृति को नैकट्य से परखा है। पंत जी बुरूँश को संबोधित करते हुए कहते हैं कि सारे वन में तेरा जैसा पुष्प कोई नहीं है। इस वन में साल, देवदार हैं, किंतु बुरूँश में यौवन के साथ प्यार भी है-
कुलानंद भारती ने संध्या का सुंदर चित्रण किया है। संध्या ने ठुमक-ठुमककर क़दम रख दिए है। चमकते तारों के उजाले में विश्रांत कृषक हुक्का पी रहा है-
कृषक अन्न व सब है ठुलि’
कविता में धरती को माँ के रूप में दिखाया गया है। कवि के इस प्रकार भाव व्यक्त किया है,
जिस प्रकार शिशु के जन्म होने पर माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती एवं भात खिलाती है,
अनेक प्रकार की रसमयी चीज़ें देती है,
भरण-पोषण करती है, उसी प्रकार धरती माँ भी हमारा भरण-पोषण करती है-
निष्कर्ष : इस काल के कवि प्रकृति का मानवीकरण रूप से चित्रण करने में सफल हुए हैं,
शीतल जल, हिसालू और फिल्मोड़ा की अनुपम छटा, काफल की मिठास ने कवियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। उस उल्लास में पक्षी ही नहीं गा रहे हैं वरन वृक्ष भी अपना सुख-दुःख व्यक्त कर रहे हैं।
1. किरण कुमारी गुप्त- हिंदी काव्य में प्रकृति चित्रण: हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, पृ015
7. वहीं
8. वहीं
9. वही,161
12. चिंतामणि पालीवाल, ; शैलानीः कुमाउनी साहित्य मंडल,दिल्ली,सन्1975 पृ019
16. वहीं
17. वहीं
18. भवानी दत्त कांडपाल, कुमाउनी का संस्कृत मूलक व्याकरण, भाषा विज्ञान एवं साहित्य, संस्कृत अकादमी हरिद्वार उŸाराखण्ड, सन ्2007, पृ0504
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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