शोध सार : स्त्रियों का शोषण सदियों से होता रहा है और यह आज भी बदस्तूर जारी है। यह शोषण सिर्फ दैहिक नहीं है बल्कि श्रम का भी है। इसकी शिनाख्त आधुनिक युग के दौर में हुयी। मौजूदा दौर में स्त्री विमर्श के नाम पर शहरी स्त्रियों की समस्या हमारे चिंता का मुख्य विषय होती है, गांव इस चिंतन प्रक्रिया के केन्द्र में हाशिए पर है। औद्योगीकरण के चलते शहरों में कायापलट हुआ है लेकिन गांवों में आज भी परंपरा के नाम पर स्त्री का शोषण जारी है। वर्जनाओं को तोड़ना उसके लिए बुरा माना जाता है और पंचायतों द्वारा उसकी सजा उसे दी जाती है। जाति के आधार पर स्त्री को शोषण का सामना करना पड़ता है। यह मुद्दे आज भी मुख्य धारा की मीडिया से गायब हैं। इस आलेख में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'फ़रिश्ते निकले' के बहाने से गांव की स्त्रियों के संघर्ष की पड़ताल की गयी है।
बीज शब्द : स्त्री अस्मिता, परम्परा, पितृसत्ता, शोषण, बलात्कार, विद्रोह।
मूल आलेख : मैत्रेयी पुष्पा हिन्दी कथा जगत का एक चिर-परिचित नाम है। इनके अधिकांश उपन्यास और कहानियाँ बुंदेलखंड के समकालीन परिवेश और लोक कथाओं पर आधारित हैं। बुंदेलखंड के गाँवों की खुशबू से सराबोर कहानियाँ और उपन्यासों में इन्होंने स्त्री को एक नया और विद्रोही तेवर दिया है, जो इनकी नायिकायों को हिन्दी कथा जगत में अलग स्थान पर खड़ा कर देता है। इसके बाद पाठक और आलोचक उनको अपने-अपने कोण पर देखते, समझते और आलोचना करते हैं। अपनी रचनाओं में मैत्रेयी ने मुख्य रूप से ग्रामीण स्त्री के जीवन संघर्ष को चित्रित किया है। ग्रामीण भारत के पुरुष प्रधान समाज के समक्ष, ग्रामीण स्त्री के साहस एवं संघर्ष के वृत्तांतों से लेखिका ने अपने उपन्यासों की कथा गढ़ी है। इन कथाओं को देखकर लगता है कि मैत्रेयी ने इन ग्रामीण महिलाओं की व्यथा को बहुत नजदीक से देखा समझा है। ग्रामीण महिलाओं ने लेखिका को एक नवीन दृष्टि प्रदान की है। ये ग्रामीण स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं। लेखिका की यही नवीन दृष्टि उसे अन्य साहित्यकारों से भिन्न बनाती है। इनके उपन्यासों में पुरुष वर्चस्व के समक्ष स्त्री कमजोर नहीं पड़ती, बल्कि अपनी अदम्य जिजीविषा साहस संकल्प और दृढ़ इच्छा शक्ति से बार-बार उठ खड़ी होती है। शोषण को अपनी नियति न मानकर उसके खिलाफ आवाज उठाती स्त्रियाँ मैत्रेयी के उपन्यासों में खूब दिखाई देती हैं। मैत्रेयी के उपन्यासों के मूल में स्त्री-शोषण और परम्परागत रूप से चली आ रही वह सारी समस्याएं एक-एक कर उठाई गयी हैं, जो अब तक औरतों के लिए धर्म और समाज द्वारा प्रचारित की गईं हैं। पराधीनता, शोषण और पितृसत्तात्मक जकड़बन्दियों में कसमसाती स्त्री किस प्रकार आजादी की दरकार कर रही है, इन सारे मुद्दों पर लेखिका ने अपने उपन्यासों में प्रकाश डाला है। स्त्री की पराधीनता के मूल पर विचार करते हुए ‘मृणाल पाण्डे’ लिखती हैं कि, “पराधीनता के मूल में हर कहीं शक्ति का एक विषम असंतुलन होता है और जहां भी मनुष्य समाज में एक वर्ग की स्वाधीनता और गरिमा घटती है वहाँ कहीं न कहीं उसके क्षय से समाज के किसी दूसरे वर्ग को लाभ अवश्य हो रहा होता है। मनुष्य-जाति धर्म, परंपरा या कुदरती नियमों के नाम पर इस असंतुलन को कई तरह से जायज़ ठहराती आई है, पर स्त्रियों की स्थिति के ईमानदार अध्ययन से यह साफ प्रमाणित होता है कि यह असंतुलन कुदरती या दैवी कारणों से नहीं उपजा, बल्कि ठोस भौतिक लाभ उठाने के लिए एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग के विरुद्ध उपजाया गया है, और इसे स्थायी बनाए रखने के लिए हर तरह के साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल किया जाता रहा है।”1
मैत्रेयी पुष्पा ने ‘इदन्नमम्’, ‘चाक’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘कहे इसुरी फाग’, ‘झूला नट’, ‘फ़रिश्ते निकले’ एवं अन्य महत्वपूर्ण उपन्यासों की रचना की है। ‘इदन्नमम्’ तीन पीढ़ी की स्त्रियों के शोषण उत्पीड़न और संघर्ष की त्रासद कथा है तो ‘चाक’ रेशम और सारंग जैसी स्त्रियों के परंपरा से विद्रोह और संघर्ष की गाथा है। सारंग जैसी तमाम स्त्रियाँ अपनी रूढ़िगत नियति से बार-बार टकराती हुईं दिखाई देती हैं। यहाँ हम मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘फ़रिश्ते निकले’ में चित्रित स्त्री की त्रासदी पर बात करेंगे। इस उपन्यास में बुंदेलखंड की लोहे का कार्य करने वाली जनजातियों के यातनापूर्ण जीवन की दर्दनाक कहानी का चित्रण किया गया है। उपन्यास की मूल कथा से अनेक अंतर्कथाओ का जन्म होता है। मूल कथा नायिका ‘बेलाबहु’ के माध्यम से अनेक उपनायिकाओं की कथाओं का जन्म होता है।
हमारे परम्परागत समाज में स्त्री को सौन्दर्य और प्रेम से जोड़ कर ही देखा जाता है, स्त्री को सदैव सुंदर और सुघड़ बनने की ओर ही धकेला जाता है। स्त्री की उपमा भी रूई और ओस की बूँदों से की जाती है। स्त्री को सदैव कोमल और सुकुमार बनाने की कोशिश की जाती है, जो की उनके व्यक्तित्व के विकास में सदैव बाधक सिद्ध हुआ है। ‘जॉन स्टुवर्ट मिल’ ने अपनी पुस्तक ‘स्त्री और पराधीनता’ में इस विषय पर विस्तार से बातचीत की है। किस प्रकार बचपन से ही लड़का-लड़की के पालन-पोषण में फर्क किया जाता है जबकि जैविक रूप से दोनों में कोई फर्क नहीं होता सिवाय लिंग के। मिल का मानना है कि, “किसी के लड़की या लड़के के रूप में पैदा होने को उसी तरह देखना चाहिए जैसे कोई इंसान गोरा तो कोई काला पैदा होता है, कोई शाही तो कोई आम पैदा होता है - और इस तथ्य के आधार पर उसके जीवन को किसी साँचे में ढालने की और उसके कार्यक्षेत्रों को तय करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।”2 इसी बात को विस्तार देते हुए बाद में ‘सिमोन द बोउवार’ ने अपनी पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ में यह स्थापना दी कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है।’ इन्ही परम्परागत विचारधाराओं को तोड़ते हुए और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए इस उपन्यास में लेखिका ने एक नई औरत को गढ़ा है, जो शोषित होने के बाद भी स्वयं को नई ऊंचाइयों तक ले जाती है और दूसरों का आसरा बनती है। अपनी इसी जिजीविषा के साथ ‘बेला बहु’ हिन्दी उपन्यास साहित्य के कुछ अविस्मरणीय पात्रों में अपनी जगह बनाती है। उपन्यास में एक जगह बेला कहती है, “हम आदमी (पुरुष) की तरह क्यों नहीं हो सकते कि अपने लिए अपने आप ही सोचें? अम्मा सब कुछ तो अपने हाथ में लेकर संभालने लगी थी, इस आदमी को देखकर कैसे कमजोर पड़ गयी? अपनी हिम्मत की कमी हमें कहीं का नहीं छोड़ रही।”3
मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों में किसानों, मजदूरों, दलितों एवं स्त्रियों के जीवन की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सच्चाईयों को परत दर परत उधेड़ कर रख दिया है। यह उपन्यास बुंदेलखंड के आंचलिक हिस्सों में हो रहे बदलावों को भी बखूबी दर्शाता है। इस उपन्यास की रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लेखिका ने लिखा है, “यह मेरे ही घर के वासवदत्ता, अल्मा और सिताब जैसे बड़े होते बच्चों की उम्मीदों के लिए है और उन जैसे हजारों-लाखों किशोर वय बच्चों तथा उनके माता-पिताओं के वास्ते,जो समझेंगे कि समाज में अभी भी वे लोग बचे हुए हैं जो जिंदगी में स्वाभिमान को मनुष्य की सबसे बड़ी दौलत मानते हैं। वे अपनी हिम्मत,आन-बान और इंसानियत को सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। मैंने ऐसे ही लोगों की छोटी-छोटी कहानियों से इस उपन्यास का ताना-बाना बुना है कि कैसे वे मामूली लोग ‘बड़े और बड़ों’ के अन्यायों, अत्याचारों और खुद पर लादी हुई गुलामी के खिलाफ लड़े ताकि मोहब्बत, भाईचारे और इंसानियत का सपना सच हो सके।”4
उपन्यास में बेला बहू अपनी आप बीती लेखिका को सुनाती है और कहती है बिन्नू हमारी कहानी लिखो और दुनिया को बताओ की हमने कितना संघर्ष किया है। बेला बहु चाहती है की उसकी कहानी हर वो इंसान जाने जो हाशिये के समाज के प्रति तनिक भी संवेदना रखता है। बेला बहू की इस इच्छा पर लेखिका का कहना है, “बेला बहू! परिवार की पोल खुलेगी लेकिन तुम्हारा चाल-चलन तो जितना भी खुलेगा लोगों की दिलचस्पी की चीज होगी। समाज हो या साहित्य या की राजनीति, इनमें आने वाली स्त्री ‘कैंची पॉइंट’ मानी जाती है। मर्दों के चरित्र को कौन देखता है ?”5 बेला बहु उपन्यास की मुख्य नायिका है जो पिता की असमय मृत्यु के कारण एक अनिच्छित ब्याह में बांध दी जाती है ताकि उसे और उसकी माँ को किसी पुरुष का संरक्षण प्राप्त हो सके। इस उपन्यास में बेला बहु अपने दारुण जीवन का आख्यान प्रस्तुत करती है, लेकिन सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर हम पाएंगे कि यह कहानी सिर्फ बेला या उजाला जैसी स्त्रियों की न होकर सम्पूर्ण समाज की दलित, दमित, शोषित महिलाओं के जीवन की वास्तविकता है। संतान न होने पर किस प्रकार एक स्त्री को मानसिक एवं शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है, इसके उदाहरण इस उपन्यास में देखे जा सकते हैं। प्रेम के नाम पर ‘भारत सिंह’ जैसे दरिंदों के चंगुल में फंस कर पाँच-पाँच पुरुषों के द्वारा यौन शोषण का शिकार होती बेला बहु जैसी बहुत सी स्त्रियाँ आज भी हमें दिखाई दे जाती हैं। लेकिन इस उपन्यास में लेखिका ने स्त्री के संघर्ष को एक दिलचस्प मोड दिया है। बेला प्रेम में मात खाने के बाद जीवन में ऐसी उचाइयाँ प्राप्त करती है जहां से वह अपने जैसी उन तमाम शोषित महिलाओ का सहारा बन सके। इस स्टेज पर पहुँच कर बेला बहु के किरदार को फूलन देवी जैसी शख्सियत बनते दिखाया गया है। अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध बेला का यह असाधारण विद्रोह नारी मनोविज्ञान का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। “इलाके में फूलन देवी का रुतबा क्या जमा कि घर-घर लड़कियां बगावत पर उतर आईं। बहादुरी और हिम्मत परस्ती की यही तो खासियत होती है कि वह एक इनसान से दूसरे इनसान के तन-मन में उतरकर चले आ रहे बेरहम ढर्रों को ललकारने लगती है।”6 इसके बाद बेला बहु अपनी बाकी जिंदगी ऐसी तमाम शोषित महिलाओं और हाशिये के समुदायों की अमानवीय त्रासदियों की खोज में निकल पड़ती है। बुंदेलखंड और मध्य प्रदेश के जंगल-बियाबानों में ऐसी अनेक जनजातियाँ मिलती हैं जो सामाजिक हिंसा, यौन-शोषण, अत्याचार और अन्याय से अकेले जूझ रही हैं। इन त्रासद घटनाओं को बेला सिर्फ बिन्नू अर्थात लेखिका के समक्ष ही उजागर करती है। जिससे ये करुण गाथाएं कागज के पन्नों पर उकेरी जा सकें और इन लोगों को सामाजिक न्याय और पहचान मिल सके।
उपन्यास में जहां एक तरफ चम्बल की महिला बागियों की जीवन गाथा वर्णित है तो वहीं दूसरी तरफ लोहा पीटने वालों का सामाजिक और ऐतिहासिक संघर्ष भी लेखिका ने बखूबी दर्शाया है। इस उपन्यास में मैत्रेयी अपनी सशक्त भाषा से कई बार मंटो की याद दिलाती है। उपन्यास की दूसरी प्रमुख कथा उजाला की है। उजाला रामरतन लोहपीटा की बेटी है, जो तथाकथित सभ्य समाज के एक पुरुष शिक्षा मित्र से प्रेम कर बैठती है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाती और वर्ण के कठोर बंधनों एवं परंपराओं की भेंट अक्सर स्त्री ही चढ़ती है। उजाला के साथ भी यही होता है। वीर सिंह से प्रेम करने के गुनाह की सजा स्वरूप तथाकथित सभ्य समाज के पुरुषों द्वारा कई दिनों तक लगातार उसका बलात्कार किया जाता है और अधमरी अवस्था में उसे जंगल में मरने के लिए फेंक दिया जाता है। “उजाला कब समझती थी कि यही खानाबदोश जिंदगी का हासिल है। अब जब वह छोटी बच्ची नहीं है कि ट्रैक्टर या ट्रॉली पर चढ़ने के अपराध में उसे पटक दिया जाए चोट खाने के लिए। वह बड़ी हो गई तो सजा भी अपना रूप बदलने लगी तभी तो उसकी देह टुकड़े-टुकड़े और किरच-किरच के रूप में छितरा दी। देह के भीतर ऐसा कौन सा जहर प्रवेश कर गया कि नस-नस ऐसे सुलग रही है जैसे भट्ठी पर लोहे की सलाखें सुलग कर लाल हो जाती हैं।”7
वीर और उजाला एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। वीर तो उजाला के प्रेम में जोगी बना फिरता है, और अंततः पिता के खिलाफ बग़ावत कर बैठता है। वीर ने उजाला को पढ़ना-लिखना भी सिखाया है। उजाला अपनी बस्ती की एकलौती पढ़ी-लिखी लड़की है। लेकिन अपनी परम्परागत रूढ़ियों और खोखली आन में लिपटे लोहापीटाओं को उजाला जैसी लड़की ब्याह के लिए नहीं भाती है। तभी तो उजाला वीर से कहती है कि, “ हमारे यहाँ तो आज भी लड़के-लड़कियों की जिंदगी महाराणा प्रताप के जमाने में तय की गई रिवाजों में उलझी हुई है। कबीलों की रस्में, हिदायतें और कायदे हमें उन भुतहा खंडहरों जैसे लगते हैं, जिनको अपनाने में हमारा दम घुटता है। पर हम सब रिवाजों को ढोते हुए चुपचाप चलते रहते है। नींद में भले कोई सपना दूसरी तरह का देख लें। महसूस कर लें कि हाथी दांत के बांह से लेकर कलाई तक जकड़न भरे चूड़े, सिर को घोंटने वाले बोलड़े आउए बिछुआ-खड़ुआ से मुक्ति मिल गयी। नींद टूटते ही फिर कैदें।”8
भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए परम्परागत संहिताएं निश्चय ही अत्यन्त कठोर बनाई गईं हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में परम्परागत रूढ़ियों एवं विचारधाराओं के विपरीत जाने वालों के लिए समाज अत्यन्त कठोर दंड का प्रावधान करता है। ये प्रावधान तब और कड़े एवं वीभत्स हो जाते हैं जब अपराधी स्त्री हो। समाज के इस मनुवादी विधान में स्त्री को उसकी विभिन्न अवस्थाओं में पिता, पति एवं पुत्र के अधीन माना गया है। इनके अनुसार स्वतंत्र स्त्री की कल्पना करना भी गुनाह है। तुलसीदास ने भी लिख ही दिया कि, ‘जिमी स्वतंत्र होही, बिगरही नारी।’ पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के उदय पर ‘सिमोन’ का कहना है कि, “पितृसत्ता की विजय न तो आकस्मिक कोई घटना नहीं थी और न ही किसी हिंसक क्रांति का परिणाम। मानवता के प्रारम्भिक दिनों से ही पुरुष ने अपनी जैविक विशिष्टता की वजह से हमेशा स्वयं को सर्वोच्च सत्ता के रूप में रखा और आज तक रखता आया है। उसने अपने स्वतंत्र अस्तित्व का कुछ हिस्सा ही प्रकृति और स्त्री के लिए आदियुग में त्यागा था, किन्तु कृषि-युग के बाद उसने वापस अपनी संपूर्णता हासिल कर ली। औरत बाध्य हुई अन्या की भूमिका निभाने के लिए।”9
इस उपन्यास में बेला और उजाला के अतिरिक्त लिली, बसंती जैसी अन्य स्त्रियाँ भी हैं, जिनके संघर्ष, साहस और स्वाभिमान से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर इस उपन्यास में प्रकाश डाला गया है। इनमें कुछ बागी लड़कियां हैं, कुछ प्रेम की विफलता की मारी हैं, और कुछ समाज की सड़ी-गली प्रथाओं एवं परंपराओं में जकड़ी हुई लड़कियां भी हैं। उपन्यास में बसंती नाम की एक स्त्री पात्र है, जो अपने घर के विपरीत हालातों में मजबूर होकर डाकुओं के गिरोह को भोजन पहुँचाने का काम करने लगती है। सत्ता के खोखले विकास के दावों के बीच बसंती का परिवार सरकारी अफसरों द्वारा ही सताया जा रहा था। कर्ज और नीलामी की परिस्थितियों का मारा उसका पूरा परिवार भूख और कंगाली से गुजर रहा था। इन स्त्री पात्रों ने स्वाभिमान और आत्मसम्मान पूर्ण जिंदगी पाने के लिए काफी संघर्ष किया है। लेखिका ने इन महिला पात्रों को स्त्री के परम्परागत ढ़ाचे से निकाल कर स्त्री की हैसियत में बदलाव लाने की कोशिश की है। हैसियत की इसी चक्की में उजाला और वीर का प्रेम भी पीस गया था। “वीर की मोहब्बत, उजाला का सौभाग्य या दुर्भाग्य ?”10
स्त्री शोषण के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करता यह उपन्यास ग्रामीण स्त्री के संघर्ष और साहस को एक नई दिशा प्रदान करता है। लेखिका ने वैश्वीकरण के इस दौर में नारी शक्ति को एक नई ऊर्जा प्रदान करने का कार्य इन स्त्री पात्रों के माध्यम से किया है। मैत्रेयी अपने उपन्यासों में बार-बार यह सिद्ध करती हैं कि पुरुष स्त्री की देह को इस कदर रौंदता और कुचलता है कि उसकी आत्मा तक हमेशा के लिए मर जाए। शोषण और उत्पीड़न की इन्हीं कथाओं से बेला बहु जैसे कुछ फरिश्तों का जन्म होता है। जो मानवता के लिए मिसाल बन जाते हैं।
संदर्भ :
- स्त्री:देह की राजनीति से देश की राजनीति तक, मृणाल पाण्डे, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 6
- स्त्री और पराधीनता, जॉन स्टुअर्ट मिल, संवाद प्रकाशन, मेरठ,पृ. 40
- फ़रिश्ते निकले,मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल प्रकाशन,पृ. 25
- वही,पृ. भूमिका
- वही, पृ. 13
- वही, पृ.116
- वही, पृ.141
- वही, पृ.184
- स्त्री उपेक्षिता, सिमोन द बोउवार,हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, पृ. 56
- फ़रिश्ते निकले, मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ.193
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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