शोध आलेख : प्रेमचंद के उपन्यास और उनका फिल्म रूपांतरण / संध्या

प्रेमचंद के उपन्यास और उनका फिल्म रूपांतरण
- संध्या

शोध सार : प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य के सबसे प्रसिद्ध और प्रासंगिक लेखक हैं। उनके पाठकों में प्रत्येक वर्ग के लोग शामिल हैं। यही कारण है कि उनके कथा साहित्य का विभिन्न रूपों में रूपांतरण हुआ है। प्रेमचंद के कथा साहित्य को हम फिल्म रूपांतरण, धारावाहिक रूपांतरण और नाट्यरूपांतरण के रूप में अलग-अलग मंचों पर प्रदर्शित होते हुए देखते हैं। उनके उपन्यासों पर समय-समय पर फिल्में भी बनी हैं। त्रिलोक जेटली निर्देशितगो-दान’, कृष्ण चोपड़ा और हृषिकेश मुखर्जी निर्देशितगबन और अजय मेहरा निर्देशितसेवासदन औरबाज़ार--हुस्नप्रेमचंद के उपन्यासों के फिल्म रूपांतरण का उदाहरण हैं। प्रस्तुत लेख में इन रूपांतरणों में अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद की तकनीक अभिवर्धन, अध्याहरण, परिवर्तन का किस प्रकार प्रयोग हुआ है, इसका वर्णन किया गया है।

बीज शब्द : प्रेमचंद, उपन्यास, रूपांतरण, गोदान, गबन, सेवासदन, अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद।

मूल आलेख : प्रेमचंद का नाम हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य में भी बहुत आदार से लिया जाता है। उनकी रचनाएँ हर युग और हर वर्ग के पाठकों को आकर्षित करती हैं। अनुवाद वर्तमान युग की एक बहुत बड़ी आवश्कता बन चुका है। अनुवाद ने विश्व को एक छोटा ग्राम बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। अनुवाद ने ही प्रेमचंद को पूरी दुनिया में पहचान दिलाई है। अनुवाद के ही माध्यम से वह पूरी दुनिया में पढ़े गए हैं। हम जानते हैं कि अनुवाद के तीन भेद होते हैं- अंतरभाषिक अनुवाद, अंतःभाषिक अनुवाद और अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद। एक भाषा की रचना का दूसरी भाषा में अनुवाद अंतरभाषिक अनुवाद कहलाता है। एक भाषा की किसी रचना का अनुवाद उसी भाषा के किसी दूसरे रूप में अनुवाद अंतःभाषिक अनुवाद कहलाता है। अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद में एक प्रतीक व्यवस्था की रचना का दूसरी प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद होता है। प्रेमचंद के उपन्यासों का फिल्म रूपांतरण इसी प्रकार के अनुवाद की कोटि में आता है।

किसी साहित्यिक कृति का फिल्म रूपांतरण दर्शकों से तो कुछ अपेक्षा रखता ही है साथ ही उसके निर्देशक पर भी एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। इस विषय पर मृणाल सेन लिखते हैंमैं जब भी कोई फिल्म बनाने वाला होता हूँ तो मैंने हमेशा ये महसूस किया है कि मुझे एक समय में तीन प्रेमिकाओं की सेवा करनी है (1) मेरी कहानी जो एक काल-विशेष में स्थित है। (2) मेरा माध्यम सिनेमा जिसके प्रति मेरे आभार हैं और (3) मेरा अपना समय जिससे मैं कभी भी नहीं भाग सकता। तीनों मुझसे खास ध्यान की माँग करते हैं और मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं सबके प्रति समर्पित हूँ। बोयम कहते हैं कि सन् 1930-40 के दशक में जब कोई फिल्मकार किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाता था तो सबसे पहले वह किताब को ही सूट करके उसे पर्दे पर दिखलाता था, फिर उसी पुस्तक के कुछ पन्नों और फिर कुछ पंक्तियों को भी पर्दे पर दिखलाया जाता था जैसे यह बताने के बाद कि बहुत पहले किसी समय में इटली के एक छोटे से गाँव में एक किसान रहता था, फिल्म के पर्दे पर किसान के घर और गाँव का एक छोटा-सा रेखांकन उभरता था। इसके बाद उसी रेखांकन को लोकेशन शूटिंग में बदल दिया जाता था। इसके बाद यह तकनीक पुरानी पड़ गई। फेदोरिका कोलिनी ने इसी तकनीक में थोड़ा सा फेरबदल किया और उसके पन्नों को फिल्म के पर्दे पर दिखलाना जारी रखा लेकिन उसके शीर्षक के प्रस्तुतीकरण में थोड़ा-सा बदलाव ले आए। उदाहरणस्वरूप केवलसैटेरिकोन या मेमौयरस आफ जैक्स कैसेनोवा लिखने के बजाय उन्होंनेफैलेनीज सैटोरिको याफेलिनीज कैसेनोवा लिखकर अपनी फ़िल्में पेश करनी प्रारंभ की (पृष्ठ, 40) मराल्ड बैरेट ने सिनेमा के रूपांतरण को दो भागों में विभक्त किया है। उनके मुताबिक किसी भी रूपांतरण के लिए सिर्फ़ भावानुवाद (पैराफ्रेज) या शब्दानुवाद (मेटाफ्रेज) ही होना मुश्किल है। उनका मानना है कि रूपांतरण या तो हमेशा अनुकरण होता है या एक ढीला-ढाला अनुवाद होता है।

प्रेमचंद रचित उपन्यास गोदान  और त्रिलोक जेटली निर्देशित फिल्म गो-दान -

प्रेमचंद रचित उपन्यासगोदान को हिंदी साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसे किसान जीवन के महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त है। इस उपन्यास की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सन् 1936 में लिखा गया यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना अपने लेखन काल में था।गोदान औपनिवेशिक भारत के किसान जीवन की कहानी के साथ तत्कालीन भारत के शहरी जीवन, वैचारिक बदलाव को भी दर्शाता है। इसमें एक तरफ किसान की त्रासद स्थिति का चित्रण है तो दूसरी तरफ ग्रामीण जीवन में फैले जातिवाद, धार्मिक आडम्बर, ग़रीबों के शोषण और स्त्री की सोचनीय स्थिति का भी चित्रण है।  

गोदान में ग्रामीण और शहरी दो कथानक समानांतर चलते हैं जिनके माध्यम से प्रेमचंद ने बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतवर्ष- विशेषकर उत्तर प्रदेश- के ग्रामीण-जीवन एवं उनके संघर्षों, स्वाधीनता आन्दोलन, औद्योगिकीकरण एवं उसकी समस्याओं, सामाजिक-आर्थिक विषमता आदि का विस्तृत एवं गहरा चित्रण किया है जिसका आधार उनका स्वानुभव था, केवल सुनी-सुनाई या कपोल कल्पना नहीं। देश के ग्रामीण जीवन एवं श्रमिक आंदोलन दोनों से उनका गहरा संबंध था। गोदान का महत्त्व उसके इस बृहत पटल और भावों तथा परिस्थितियों के गंभीर आतंरिक वर्णन के कारण है। गोदानके दृश्य-श्रव्य रूपांतरण में मूल- कथा जहाँ प्रेमचंद केगोदानसे ही ली गयी है वहीं इसमें बहुत सारे पक्षों को नजरअंदाज भी किया गया है। गोदान उपन्यास प्रेमचंद ने सन् 1936 में लिखा था और त्रिलोक जेटली ने इसका फिल्म रूपांतरण सन् 1963 में किया। इस बीच जिन समस्याओं को प्रेमचंद ने अपने उपन्यास में उठाया था वह और भी विकराल रूप धारण कर चुकी थी। झुनिया के जरिये विधवा विवाह के प्रसंग, सिलिया के द्वारा जातिवाद के प्रश्न तथा दातादीन- मातादीन के धार्मिक कर्मकांडों की आड़ में गरीबों के शोषण को निर्देशक ने फिल्म रूपांतरण में जगह नहीं दी। मेहता- मालती के एक दो प्रसंग को छोड़ दिया जाए तो निर्देशक शहरी जीवन से भी अपनी फिल्म को कहीं भी नहीं जोड़ पाता है। फिल्म का अतिरिक्त गीत इसकी साहित्यिक कथा के प्रवाह को अवरोधित करता है जबकि उपन्यास में होरी द्वारा गाया गया गीत कथा के रस में वृद्धि करता है। मूल कृति गोदान की पात्र होरी की बेटी सोना जहाँ छोटे से किरदार में भी अपनी आधुनिक संवेदना के कारण पाठकों पर एक छाप छोड़ती है वहीं रूपांतरित पाठ की सोना एक निष्क्रिय पात्र के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती है। बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति रूपा और झुनिया की भी है। प्रेमचंद का गोबर जहाँ आधुनिक युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ, मजदूर संगठन, मजदूर आंदोलन में भाग लेता है वहीं त्रिलोक जेटली का गोबर एक बेहद साधारण अपनी स्वार्थसिद्धि में लिप्त युवक के रूप में हमारे समक्ष आता है।

हालांकि इन बदलावों के पीछे बहुत कुछ स्थान विधागत परिवर्तन का भी है। 300 पृष्ठों के उपन्यास को लगभग दो घंटे की फिल्म में सबकुछ दिखा पाना बहुत मुश्किल होता है परन्तु फिर भी बहुत कुछ बचाया जा सकता था। प्रेमचंद के उपन्यास गोदान का अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद करते हुए त्रिलोक जेटली हर कदम पर प्रेमचंद को रखते हैं। अगर गीतों को छोड़ दिया जाए तो इसके एक-एक संवाद में प्रेमचंद के शब्द नजर आते हैं। अंतर महज इतना है कि यहाँ भाषा की व्यंजना में प्रेमचंद की भाषा की धार का लोप है। अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद की प्रक्रिया में मुख्यतः तीन कार्य किए जाते हैं।

अभिवर्धन - जो मूल पाठ में नहीं है उसका रूपांतरित पाठ में समावेशीकरण।

अनूदित पाठ में स्थान-स्थान पर गीतों का प्रयोग इसका उदाहरण है जबकि मूल पाठ में महज एक गीतजिया जरत रहत दिन रैन का प्रयोग किया गया है।

अध्याहरण - जो मूल पाठ में है उसका मंचीय पाठ में लोपीकरण अथवा त्याग अध्याहरण कहलाता है।

मूल पाठ में ऐसा बहुत कुछ है जिसका रूपांतरित पाठ में लोपीकरण हुआ है जैसे शहरी जीवन का अधिकांश भाग, झुनिया का विधवा होना, सिलिया-मातादीन प्रसंग, तंखा और राय साहब के परिवार का प्रसंग आदि ऐसे बहुत सारे प्रसंगों का रूपांतरित पाठ में लोपीकरण हुआ है।

परिवर्तन - जैसा मूल पाठ में है वैसा प्रस्तुत कर उससे अलग, परिवर्तित रूप में प्रस्तुत करना परिवर्तन है। 

गोदान का फिल्म रूपांतरण करते हुए निर्देशक ने बहुत ही कम परिवर्तन किए हैं और जो किए भी हैं वह सतही तौर पर नजर नहीं आते जैसे रूपांतरित पाठ में झुनिया को विधवा दिखाकर अविवाहित लड़की के रूप में दर्शाया गया है।

गोदान उपन्यास में प्रेमचंद पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करते हैं जो चरित्र निर्माण में सहायक है। इसी कारण हम देखते हैं कि अनूदित पाठ में निर्देशक धनिया को वही भाषा देकर चरित्र को बचा लेता है परन्तु झुनिया को निर्देशक ने कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों पर मौन ही रखा है जैसे भोला द्वारा बैल खोलकर ले जाने पर मूल पाठ की झुनिया विरोध करती है जबकि अनूदित पाठ की झुनिया मौन रहती है। अपनी भाषागत तेवर की वजह से ही मूल पाठ की झुनिया जहाँ विधवा होकर भी गोबर से प्रेम कर उसके साथ जीवन बिताने का फैसला करके एक बड़ा कदम उठाती है वहीं अनूदित पाठ की झुनिया एक साधारण लड़की नजर आती है।

गोदान के मूल पाठ और अनूदित पाठ दोनों ही अपने समय का समाज चित्रित करते हैं। इन दोनों पाठों के बीच 27 वर्ष का अंतराल है परन्तु अनूदित पाठ अपने समय को उस बारीकी से चित्रित करने में असफल रहा है जिस बारीकी से प्रेमचंद अपने उपन्यासगोदान में चित्रित करते हैं।

मुंशी प्रेमचंद रचित गबन और उसका फिल्म रूपांतरण -

मुंशी प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास गबन पर सन् 1966 में कृष्ण चोपड़ा और हृषिकेश मुखर्जी के संयुक्त निर्देशन में इसी नाम से फिल्म बनी। हिंदी की किसी भी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की यह पहली  गंभीर कोशिश थी। उपन्यास के सभी प्रमुख पक्षों को सामने रखने में यह फिल्म पूर्णतः सफल रही। शायद प्रेमचंद की कृति पर बनी यह पहली फिल्म है जिसका संगीत कथा में बाधक नहीं बनता। यह फिल्म महज प्रेमचंद के पाठकों की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सिनेमा के दर्शकों की  दृष्टि से भी संतुलित फिल्म रही। सुनील दत्त, साधना, कन्हैयालाल, लीला मिश्रा, कमल कपूर, बद्री प्रसाद, सुरेखा पंडित आदि प्रसिद्ध कलाकारों के सफल अभिनय ने उपन्यास के पात्रों को जीवंतता प्रदान की। हालांकि प्रहलाद अग्रवाल इस फिल्म के विषय में लिखते हैंनिश्चित यह प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास को जीवंत करने में असफल रही। यह एक सामान्य मेलो ड्रामा बनकर रह गई।परन्तु अगर उन्होंने यह फिल्म और प्रेमचंद के उपन्यास गबन को गौर से पढ़ा होता तो ऐसा कहते। उपन्यास की कहानी ही इतनी रोचक है कि उपन्यास के किरदारों को जब फ़िल्मी पर्दे पर उतारा गया तो इसे भी लोगों ने खूब सराहा। कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें अनावश्यक किरदारों का जाल नहीं है। विषयवस्तु बिल्कुल भी बनावटी नहीं लगती ही उपन्यास कहीं बोर करता है। अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद की प्रक्रिया की दृष्टि से देखें तो इसमें अभिवर्धन, अध्याहरण, और परिवर्तन तीनों का प्रयोग हुआ है परन्तु अध्याहरण का प्रयोग अधिक हुआ है, अभिवर्धन नाम मात्र का हुआ है और परिवर्तन बहुत थोड़ा हुआ है।  

अभिवर्धन - फिल्म गबन में गीतों का समावेश उपन्यास से नहीं लिया गया है। गीतकार शैलेन्द्र- हसरत और संगीतकार शंकर जयकिशन की जोड़ी ने फिल्म के संगीत को सदा के लिए अमर कर दिया।अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तोंगीत तो आज भी लोगों की जुबान पर है। फिल्म की व्यावसायिकता की दृष्टि से तो संगीत बेहद सफल है परन्तु उपन्यास के रूपांतरण की दृष्टि से संगीत ने बहुत अतिरिक्त समय ले लिया है जिसके अंतर्गत उपन्यास के और भी महत्त्वपूर्ण पक्षों को लिया जा सकता था।

अध्याहरण - ढाई सौ पृष्ठों के उपन्यास को दो घंटे तैतीस मिनट में प्रस्तुत करने में अध्याहरण स्वाभाविक है इसलिए फिल्म रूपांतरण में बहुत कुछ अध्याहरण किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में जलापा-रामनाथ की मुख्य कथा के साथ- साथ देवीदीन- रतन और जोहरा नर्तकी की कथा भी सहायक कथा के रूप में चलती है जिसका फिल्म में लोपीकरण किया गया है। मूल पाठ में रतन का चरित्र एवं रतन की कथा बहुत उच्च एवं भावुक है परन्तु फिल्म रूपांतरण में रतन महज कंगन बनवाने और गबन के सन्दर्भ में ही आती है। जालपा के साथ रतन की दोस्ती, कलकत्ता पहुँचाने में रतन की मदद आदि सन्दर्भों को फिल्म में जगह नहीं मिली, ही रतन के उच्च आदर्शों का स्पष्टीकरण फिल्म में हो पाया है। इसके साथ ही जोहरा का फिल्म रूपांतरण में मात्र एक नृत्य में नजर आती है उसका चरित्र रूपांतरित पाठ में कुछ भी नहीं है। दीनदयाल का चरित्र, शतरंज के खेल की मदद से रमानाथ का पता चलना आदि बहुत से बिंदु हैं जिनका रूपांतरित पाठ में लोप किया गया है।

परिवर्तन - गबन उपन्यास के फिल्म रूपांतरण में बहुत परिवर्तन नहीं किये गए। कथानक तो वही रहा बस घटनाओं में थोड़ा परिवर्तन किया गया। रूपांतरित पाठ में गबन के पश्चात घर से भागने पर रामनाथ का पता देवीदीन के तार के माध्यम से मिलता है जबकि मूल पाठ में जालपा रमानाथ का पता जानने के लिए शतरंज की बाजी के विज्ञापन का सहारा लेती है। जालपा को कलकत्ता पहुँचाने के लिए रतन भी अपनी तरफ से बहुत मदद करती है जबकि रूपांतरित पाठ में मात्र एक पात्र रमानाथ के द्वारा भेजने से तथा एक तार देवीदीन के द्वारा भेजने से रमानाथ का पता मिल जाता है। फिल्म के अंत में भी बहुत से परिवर्तन किये गये हैं। मूल पाठ में रमानाथ मजिस्ट्रेट के घर जाकर अपना सही बयान देता है तथा अपने गुनाह कुबूल करता है जबकि रूपांतरित पाठ में कोर्ट में सही बयान देते एवं अपने गुनाह को कुबूल करते दिखाया गया है। रमानाथ को कैद से छुड़ाने के लिए जोहरा के प्रयत्न को भी यहाँ रमानाथ के स्वप्रयत्न तक ही सीमित कर दिया गया है।

एक बेहद अजीबोगरीब परिवर्तन फिल्म की भाषा को लेकर किया गया है। फिल्म रूपांतरण में कलकत्ता की भाषा भोजपुरी दर्शाया गया है। देवीदीन, जग्गो, तथा कलकत्ता के हवलदार तक भोजपुरी बोलते है जबकि मूल पाठ में प्रेमचंद ऐसा कोई प्रयोग नहीं करते। संकलनत्रय की दृष्टि से भी यह प्रयोग उचित नहीं प्रतीत होता। माना कि कलकत्ता के जिन चरित्रों को मुख्य रूप से केंद्र में रखा गया है उनकी भाषा का तेवर कुछ अलग है, परन्तु यह भाषागत अंतर के रूप में नहीं है। कलकत्ता में भाषागत परिवर्तन अगर फिल्मकार करना ही चाहता था तो वह कलकतिया हिंदी का प्रयोग कर सकता था। कलकत्ता के रहने वाले पात्रों के मुख से भोजपुरी असंगत प्रतीत होती है। फिल्म के संवाद लेखक अख्तर उल रहमान ने सभी संवाद तो पात्रानुकूल लिखे बस कलकत्ता के पात्रों का संवाद देशकाल के अनुरूप नहीं हो पाया। इस प्रकारगबन उपन्यास का फिल्म रूपांतरण एक सफल फिल्म रूपांतरण की अच्छी कोशिश कह सकते हैं। हिंदी उपन्यासों के फिल्म रूपांतरण की शृंखला में यह एक उम्दा कोशिश थी।

मुंशी प्रेमचंद कृत उपन्यास सेवासदन का फिल्म रूपांतरण -

मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास सेवासदन का दो बार फिल्म रूपांतरण किया  गया। दोनों ही बार फिल्म रूपांतरण अजय मेहरा द्वारा किया गया। परन्तु इनमें उपन्यास को मात्र कथा के आधार के रूप में रखा गया बाकि सबकुछ परिवर्तित कर दिया गया। दोनों ही बार कथा एक सी है जिसमें मात्र पात्र और कथा का आधार एक है परन्तु चरित्रों का विकास निर्देशक ने अपने अनुसार किया है। फिल्म को रूपांतरित करने के बजाय परिवर्तित अधिक किया गया है।

पहली बार जब अजय मेहरा द्वारा उपन्यास का रूपांतरण किया गया तो शुरुआत पूरी तरह से मूल पाठ की तरह होती है जिसके अंतर्गत दरोगा कृष्णचंद एक ईमानदार दरोगा हैं जिन्हें जीवन में पहली बार अपनी बेटी सुमन के विवाह हेतु रिश्वत लेनी पड़ती है परन्तु वह पकड़े जाते हैं। गजाधर बाबू को जेल हो जाती है और सुमन का विवाह टूट जाता है। सुमन को उसके मामा, माँ और बहन समेत अपने घर ले जाते हैं। उनका वहाँ जाना सुमन की मामी और उनकी बेटियों को अच्छा नहीं लगता। बस यही इतनी कथा उपन्यास का रूपांतरण प्रतीत होती है। इसके आगे कथा का विकास निर्देशक अपने अनुसार करता है। सदन का अपने दोस्त के परिवार के साथ सुमन को, दोस्त के रिश्ते के लिए देखने आना, मामा के घर जाकर सुमन का सदन से मिलना और प्रेम प्रसंग, सदन के पिता मदन सिंह को एक क्रूर जमींदार के रूप में प्रस्तुत करना आदि सबकुछ निर्देशक कल्पना के अनुसार करता है जिसे हम रूपांतरण नहीं कह सकते।

दूसरी बार जब अजय मेहरा सेवासदन का फिल्म रूपांतरण करते है तो इसका शीर्षक प्रेमचंद के इसी उपन्यास के मूल उर्दू शीर्षक के आधार पर बाज़ार--हुस्न रखते हैं। यहाँ भी कथा पूर्व कथा के अनुसार ही है बस शुरुआत को बदल दिया गया। फिल्म की शुरुआत सदन द्वारा सुमन की खोज और सुमन को सदन से छुपने के द्वारा दर्शाया गया है। इसके पश्चात सुमन द्वारा भोली को अपनी कहानी सुनाते हुए फ्लेशबैक शैली में सेवासदन उपन्यास का रूपांतरण शुरू होता है। परन्तु यहाँ भी कथा विकास के साथ वैसे ही परिवर्तित होती है जैसे पूर्व फिल्म में हुई थी। यहाँ सुमन का विवाह सदन से ही तय होता दर्शाया जाता है जिसमें सदन के पिता मदन सिंह द्वारा दरोगा कृष्णचंद को रिश्वत लेने के आरोप में फँसा दिया जाता है। इस तरह सदन और सुमन का रिश्ता टूट जाता है। इसके पश्चात घटनायें थोड़ी दूर तक उपन्यास के अनुसार ही बढ़ती हैं। विवाह के पश्चात फिल्म रूपांतरण में सुमन की जिन्दगी मूल पाठ से भिन्न है। यहाँ सुमन के पति गजाधर पांडे एक खलनायक के रूप में सामने आता है जो सुमन पर शक करता है। गजाधर पांडे एक लालची मनुष्य है। रूपांतरित पाठ में वह भोली के कोठे पर भी जाता है, भोली को सुमन के कंगन तोहफे में देता है। गजाधर पांडे अपनी लालच में अपनी पत्नी को दाँव पर लगा देता है तथा उसे अपने सेठ को सौंप देता है जिससे बचने के लिए सुमन भोली वेश्या की शरण लेती है। यहाँ से फिर कहानी किसी मसाला फिल्म की तरह जिसके अंतर्गत सुमन नायिका है, भोली सहायक नायिका, सदन नायक, दरोगा कृष्णचंद सहनायक तथा गजाधर पांडे और मदन सिंह खलनायक की तरह प्रस्तुत किए जाते हैं।

गौरतलब है कि पहली बार रूपांतरित करते हुए अजय मेहरा फिल्म का शीर्षक सेवासदन देते हैं जिसमें सेवासदन केंद्र में है जबकि दूसरी बार रूपांतरित करते हुएबाज़ार--हुस्नशीर्षक रखते हैं जिसके केंद्र में बाज़ार है। यहाँ सुमन और भोली का बाज़ार में होना केंद्र बिंदु है। प्रस्तुत रूपांतरण में भोली का चरित्र बहुत उज्ज्वल देते हुए उसे सुमन को बचाते हुए अपना बलिदान करते दिखाया गया है जबकि मूल पाठ में भोली मात्र एक वेश्या है जिसका चरित्र महज इतना ही दिया गया है कि वह अपने बनाव सिंगार और ठाट-बाट से सुमन के भावों को भड़काती है तथा सुमन को शरण देती है।

मूल पाठ की वेश्या समस्या, सेवाभाव, देश सुधार के लिए चलने वाले विभिन्न कार्य सदन सिंह और सुमन के चरित्र की स्वाभाविक धुंधले पक्ष का, पद्म सिंह और विट्ठलनाथ के महत्त्वपूर्ण चरित्र का लोपीकरण किया गया है। सेवासदन के दोनों ही रूपांतरण में उपन्यास का मूल संदेश नदारद रहा। पहले रूपांतरण में अगरसेवाका नामोनिशान नहीं है तो दूसरे रूपांतरण में वेश्या समस्या को नहीं उठाया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि सेवासदन के रूपांतरित पाठ में मूल पाठ की समस्या से ही पलायन कर लिया गया है। अगर इसे हम रूपांतरण कहकर छायारुपांतरण कहें तो बेहतर होगा। अगर कोई मुंशी प्रेमचंद की कृति सेवासदन को ध्यान में रखकर रूपांतरण का आनंद लेना चाहेगा तो उसे निश्चित रूप से निराशा ही हाथ लगेगी।

साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को लेकर अनफोर्चुनेट विक्टिम (1925 के आस-पास) नामक अपनी किताब में वर्जीनिया वूल्फ ने लिखा है कि साहित्य और सिनेमा के संबंध अस्वाभाविक हैं इसलिए खतरनाक हैं। सिर्फ साहित्य के लिए सिनेमा खतरा है बल्कि सिनेमा के लिए साहित्य भी (बोयाम,15) शरतचंद्र की कृति देवदास पर इसी शीर्षक से फिल्म बनाने वाले श्री पी.सी बरुआ (1935) ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में बड़े भारी दिल से कहा था कि देवदास फिल्म को बनाने से पहले जिस प्रकार देवदास उनमें हर समय व्याप्त था वह फिल्म बनाने के बाद उनमें ख़त्म हो गया, देवदास की सारी रोमानियत उनके अन्दर से लुप्त हो गई। ब्लुस्टोन ने पहली बार जोर देकर कहा कि साहित्य और सिनेमा दो अलग विधा है। उनके मुताबिक कथानक या पाठ का विखंडन पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में अनिवार्य होता है। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो विखंडन के साहित्य के पाठ या कथानक का संयोजन कर ही नहीं सकता उनके मुताबिक यह शब्द को छवि में बदलने की अनिवार्य शर्त है इस वजह से यह छवि की जगह शब्द की महत्ता पर बल देते हैं। आगे उन्होंने यह भी लिखा की साहित्य का रूपांतरण चाहे जितना भी उत्कृष्ट क्यों हो वह अपने मूल श्रोत से कमतर ही ठहरता है। उसकी सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि एक बार जब कुछ लिख दिया जाता है तो फिर उसके साथ किसी भी तरह का उलटफेर अनुचित है। परन्तु विलियम लुअर और लेमैन ने सिनेमा के पक्ष में कहा कि एक बार जैसे ही कोई कृति पुनरुत्पादित हो जाती है वैसे ही कृति की कहानी सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि से उस पुनरुत्पादित रूपांतरित पाठ के लिए अप्रासंगिक हो जाती है।

उपन्यास के फिल्म रूपांतरण में सबसे बड़ी समस्या बड़े कलेवर को कम से कम समय में प्रस्तुत करने को लेकर आती है। मित्सी ने इस बात की ओर इशारा किया कि अधिकांश मामलों में उपन्यासों का रूपांतरणनावेलकोनावेला’ (छोटी कहानी) बना देते हैं। उनका तर्क है कि 90 मिनटों में चरित्र का समुचित विकास नहीं दिखाया जा सकता आप 30 पृष्ठों में एक धारावाहिक नहीं लिख सकते इसी प्रकार आप उपन्यास की अवधि को एकाध घंटे के फ़िल्मी समय में नहीं विकसित कर सकते (पृष्ठ, 54 मित्री शायद सत्यजीत राय के इस कथन से सहमत होते हैंफिल्म बनाने के लिए मैं गाथाओं या विस्तृत औपन्यासिक विषयों की ओर कभी आकृष्ट नहीं होता। मैं पूरी तौर पर यह मानता हूँ कि एक लम्बी कहानी किसी दो घंटे की सामान्य व्यवसायिक फिल्म के लिए आदर्श है उपन्यास का स्पेस संकल्पनात्मक (कन्सेप्त्चुअल) होता है। परन्तु शब्दों द्वारा स्थापित उनकी अवधि महसूस की जा सकती है जिससे उसके स्पेस को एक किस्म की प्रामाणिकता मिल जाती है। सिनेमा में अवधि तथ्यों एवं घटनाओं द्वारा स्थापित की जाती है एवं स्पेस का सच अवधि के पूर्व अनुभव किया जा सकता है। मिस्त्री के शब्दों में उपन्यास एक वृत्तान्त है जो अपने को एक दुनिया के रूप में संगठित कर लेता है, फिल्म एक दुनिया है जो अपने को वृत्तान्त के रूप में संगठित कर लेती है। सिनेमा में हमें अवधि का बोध नहीं होता हम अवधि को जीते हैं। अगर हमें समय का भान होने लगे तो इसका तात्पर्य यह है कि फिल्म हमारे लिए उबाऊ है। उपन्यास हमेशा अतीत में स्थित होता है कहानी कहने से पहले किसी किसी का होना आवश्यक है और कथा कहे जाने से पूर्व उसका घटित होना आवश्यक है वहीँ दूसरी ओर फिल्म हमेशा वर्तमान में मौजूद रहती है। फिल्म में यथार्थ के सदृश्य एकस्पैटियो-टेम्पोरल कथाकी स्थापना की जाती है दूसरी ओर उपन्यास में कथा जगत् अपने को एक देश काल जिसे वास्तविक (रियल) समझा जाता है के इर्द-गिर्द उत्तरोत्तर रूप में संगठित कर लेता है (पृष्ठ- 46-47) उपन्यास की भाँति फिल्म घटनाओं की एक शृंखला में शामिल चरित्रों को पेश करता है जिसके संबंध सार्वभौमिक होकर प्रासंगिक होते हैं ये घटनाएँ ऐसी अर्थवत्ता को जन्म देती हैं जिन्हें महज इन घटनाओं में रिड्यूज नहीं किया जा सकता और उनकी अवधि विस्तार ग्रहण करके परिस्थितियों को क्रमबद्ध करने मात्र के लिए नहीं होती, बल्कि व्यक्तियों उनकी मनोवैज्ञानिक गतिशीलता उनका दुविधापन उजागर करने के लिए होती है फलतः पुरानी फिल्मों के बंद संसार को एक खुले जगत् में विस्थापन कर दिया है और वृत्तांत की भाँति बद्ध ढाँचे से मुक्त समय को शामिल करने की समस्या के साथ भटकता है। उसकी वृत्ति का प्रस्फूटन नदी की भाँति धीमा और घुमावदार होता है। उपन्यास और फिल्म में शैलीगत विशेषताएँ और अंतर चाहे जो भी हो परन्तु उनका लक्ष्य एक ही है। साहित्य और सिनेमा के भाषागत लक्ष्य भी एक से हैं।

यह ठीक है कि शब्द और चित्र दो भिन्न वर्ग के संकेत हैं पर ध्यान देने की बात है कि दोनों संकेत हैं। दूसरे शब्दों में शब्द और चित्र दोनों मनुष्य की अभिव्यक्तिपरक व्यवहार के दो महत्त्वपूर्ण सहारे हैं यानी दोनों कहीं कहीं अभिव्यक्ति के अर्थ से वास्ता रखते हैं। यहीं आकर शब्द और चित्र एक दूसरे के काफी करीब जाते हैं तब भले ही चित्र विचरणशील हो या उसके पास अपना शब्दकोश हो कोई फर्क नहीं पड़ता। तब महत्त्वपूर्ण यह तथ्य हो जाता है कि चित्रों का माध्यम सिनेमा भी सूचना देने, ब्याख्या करने किसी मुद्दे पर फिल्म लेकिन लगातार बहस करने और मौखिक भाषा जो इन सारी बहसों को संभव बनाती है, का इस्तेमाल करती है इसलिए सिनेमा भले ही ठोस अर्थों में भाषा हो परन्तु चूँकि वह किसी किसी स्तर पर एक पाठ की संरचना करता है इसलिए किसी भी अर्थ में भाषा है तो जरूर। एरिक होमर और स्टेनली ब्युरिक कहते हैं कि फिल्म की भाषा साहित्य की भाषा की तुलना में अधिक पारदर्शी है और इसलिए अधिक निर्मम होती है। उनके मुताबिक साहित्य की भाषा का महत्त्व इसी बात में निर्भर है कि वह अपने अन्दर तमाम अंतर्विरोधी बातें समाहित कर सकती है। साहित्य में भाषा का कोई क्लोसएंड नहीं होता। सिनेमा में कुदाल को कुदाल कहने की मज़बूरी है इसी कारण से उसकी भाषा अधिक क्रूर और आक्रमक रुख अपनाते हुए वे पूछते हैं कि सिनेमा के मास्टर पीसेस कौन-कौन से हैं? यह कौन-सा सिनेमा है जिसकी तुलना सोफोक्लीज़, एशएयुलास, युरिपिदेस, अरिस्तोफेंस, होमर, वर्जिल, दांते, शेक्सपीयर, मोएलियर, गेटे के साहित्य से की जा सकती है? मित्री फिल्म की भाषा को सबसे पहले परिभाषित करते हुए इसे भाषा के द्वारा सौन्दर्यात्मक सृजन की भाषा कहा है। उनके अनुसार यह भटकावापूर्ण (डिस्कर्सिव) भाषा होकर एक विस्तारपूर्ण (एलैगेरेट) भाषा है।

निष्कर्ष : सिनेमा के अध्ययन में उसके संदेश के साथ-साथ उसका माध्यम भी महत्त्वपूर्ण होता है। अर्थात सिनेमा क्या कह रहा है यह तो महत्त्वपूर्ण है ही साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि वह कैसे कह रहा है।कैसे कह रहा हैसे तात्पर्य यहाँ यह है कि वह किस तकनीक का सहारा ले रहा है। साहित्य की प्रस्तुति या शैली से यह पृथक सवाल है इसलिए सिनेमा में रूप और अंतर्वस्तु का जो रिश्ता है वह साहित्य के रूप और अंतर्वस्तु की तुलना में अधिक जटिल होता है। यह निर्विवाद है कि सिनेमा का प्रभाव क्षेत्र साहित्य की अपेक्षा बहुत व्यापक है। साहित्य जहाँ पढ़े-लिखे और उनमें सुधी पाठकों तक ही पहुँच पाता है वहीँ सिनेमा जनसमुदाय तक आसानी से पहुँच जाता है। यह उच्चतम से निम्नतम वर्ग तक एक साथ संप्रेषित होने का सामर्थ्य रखता है। यह सबसे पहले आखिरी पायदान पर खड़े आवाम का माध्यम है। जहाँ साहित्य सृजन नितांत व्यक्तिगत कर्म है वहीं सिनेमा सामूहिक रचनात्मक विधा है। इसमें एक साथ विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हुए सैकड़ो लोगों की संलग्नता आवश्यक होती है। जहाँ साहित्य सृजन में पूंजी की भूमिका लगभग नगण्य होती है वहीं सिनेमाई सृजन एक बड़ी पूंजी की माँग करता है इसलिए चाहते हुए भी यह एक व्यावसायिक कला बन जाने के लिए अभिशप्त है इसलिए इसके सृजन कर्म में पूंजी के दबाव और हस्तक्षेप को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। साहित्य की अपेक्षा सिनेमाई सृजन में सर्जक के लिए अपनी स्वायत्तता बनाये रखना एक अत्यंत मुश्किल काम होता है। भारतीय विद्वानों के प्रिय एवं सम्मानित फिल्मकार फ्रांसुआ-तुफो स्पष्ट रूप से लोकप्रिय एवं कला सिनेमा के विभाजन को अस्वीकार करते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि सभी फिल्मे व्यावसायिक वस्तु होती हैं। अंततः उन्हें खरीदा और बेचा जाता है। इस तरह से प्रेमचंद के उपन्यासों के फिल्म रूपांतरण पर जब चर्चा करते हैं तथा उनकी सफलता असफलता पर बात करते हैं तो इन बिन्दुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। बिना इन दो कलाओं की अपनी विशेषताओं को जाने इनकी तुलना करना बेमानी होगा।

सन्दर्भ :

  1. प्रहलाद अग्रवाल : हिंदी सिनेमा आदि से अनंत,  इलाहाबाद, साहित्य भण्डार, 2014, मुद्रित
  2. अनुपम ओझा : भारतीय सिने सिद्धांत, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली-2, संस्करण-2009
  3. रामप्रकाश कपूर : हिंदी के सात युगांतकारी उपन्यास, वाराणसी, नंदकिशोर एंड ब्रदर्स, संस्करण-1958, मुद्रित
  4. प्रकाशचंद गुप्त : भारतीय साहित्य के निर्माता प्रेमचंद, रविन्द्र भवन, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण 2006 
  5. मुंशी प्रेमचंद  : गबन,  वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2007, मुद्रित 
  6. मुंशी प्रेमचंद : गोदान, अनीता प्रकाशन, दिल्ली-06, संस्करण-2011, मुद्रित
  7. मुंशी प्रेमचंद सेवासदन, विशु बुक्स, दिल्ली, 2017, मुद्रित

 अंग्रेजी

  1. Bluestone, George, ‘Novel into film’, Berkley, university of California press, edition 1957, print
  2. Boyum,  jou gould, Double exposure: fiction into film, Calcutta, originally published in the USA in 1985, seagull books, first India edition-1989, print
  3. Chakravarty, Sumita Das, ‘National Identity in Indian Popular Cinema’, Seniestal, edition 4, 1995, print   
  4.  Giddings, Robert, ‘Screening the novel’, Macmillan, London, first edition- 1990
  5. Reynolds, Peter, ‘Novel images:  literature in performance’,  first published by Routledge in 1992, 2nd, New Fetter lane, London, EC4P4EE, print
  6. Sen, mrinaal, ‘Ques on Cinema’, Ishaan, edition 1997, print 

 

संध्या
संपादक, प्रथम बुक्स
Sandhyaiksha91@gmail.com, 9560708355

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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