- आशु मंडोरा
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सार :
चित्रा
मुद्गल
समकालीन
साहित्य
की
एक
सुप्रसिद्ध
एवं
सफल
लेखिका
है।
वह
अपने
लेखन
कार्य
में
अभी
भी
कार्यरत
है
एवं
समय-समय
पर
समाज
में
उपस्थित
किसी
नये
एवं
ज्वलंत
विषय
के
रूप
में
अपनी
रचना
पाठकों
के
समक्ष
प्रस्तुत
करती
है
।
उनका
कथा
साहित्य
समाज
के
दर्पण
के
समान
जान
पड़ता
है
जिसमें
समाज
में
उपस्थित
छोटे
से
छोटा
समझा
जाने
वाला
बिंदु
साहित्य
का
कथा
का
रूप
लेकर
प्रकट
होता
है।
उनके
प्रत्येक
उपन्यास
का
विषय
एक
दूसरे
से
सर्वदा
भिन्न
एवं
विशिष्ठ
हैं।
उसी
प्रकार
उनकी
कहानियों
में
भी
विविध
परिदृश्य
देखने
को
मिलते
हैं।
चित्रा
जी
अपनी
एक
कहानी
के
माध्यम
से
केवल
एक
नहीं
दो
या
दो
से
अधिक
बिन्दुओं
पर
प्रकाश
डालती
चलती
हैं।
चित्रा
मुद्गल
का
कथा
साहित्य
में
प्रस्तुत
वैविध्यपूर्ण
विषयों
के
कारण
ही
उनका
साहित्य
समकालीन
साहित्य
में
एवं
समकालीन
पाठकों
के
लिए
अत्यंत
आवश्यक
हो
जाता
है।
बीज
शब्द :
समकालीन,
कलेवर,
गद्य
रचनाओं,
ज्वलंत,
विज्ञापन,
पत्रकारिता,
पूंजीवाद,
समाज,
ट्रेड
यूनियन,
दुर्व्यवहार,
वृद्धों,
मनोविज्ञान,
किन्नर
विमर्श,
पत्र
शैली,
संवेदनात्मक
विषय,
बाल-मनोविज्ञान।
मूल
आलेख :
साहित्य
के
क्षेत्र
में
कथा
कहने
की
परम्परा
एवं
कथा-विधा
सर्वाधिक
प्राचीन
है।
आदि
युग
में
जब
मनुष्य
ने
भाषा
को
जन्म
दिया
और
भाषा
के
माध्यम
से
अपनी
अनुभूतियों
एवं
भावनाओं
का
आदान-प्रदान
आरंभ
किया, तभी
से
कथा
का
जन्म
हो
चूका
था
अपितु
उसका
स्वरूप
समकालीन
कथा
जैसा
नहीं
था।
कथा
कहना, सुनना, उससे
अर्थ
एवं
रस
ग्रहण
करना, उससे
प्रेरणा
एवं
सीख
लेना
मनुष्य
की
स्वभावज
प्रवृत्ति
है।
यह
सदियों
से
चली
आने
वाली
सनातन
क्रिया
है।
सहस्त्राब्दियों
से
हमारी
दादी-नानी
संदेशात्मक
एवं
जीवन
आदर्शों
से
संबंधित
पंचतंत्र
की
कथाएँ
सुनती
रही
हैं, जिससे
आज
तक
न
हमारा
मन
भरा,
न
ही
कभी
ऊब
पैदा
हुई।
चाँद
पर
बैठी
चरखा
कातती
बूढी
अम्मा
सृष्टि
के
आरंभ
से
कथा
कह
रही
है, जो
अब
तक
भी
समाप्त
नहीं
हुई
है।
इसका
अर्थ
यह
नहीं
है
कि
कथा
का
संबंध
केवल
दादी-नानी
की
कहानियों
तक
ही
सीमित
है।
कथा
का
कलेवर
अपने
आप
में
एक
विशाल
कलेवर
हैं
जिसके
संदर्भ
में
गणपति
चंद्र
गुप्त
का
यह
कथन
आवश्यक
हो
उठता
हैं, "जब
किसी
युग-विशेष
में
जीवन
का
दृष्टिकोण
बौद्धिकतापरक
यथार्थवादी
वस्तुवादी
एवं
व्यावहारिक
अधिक
होता
है
तो
उसमें
गद्य
को
अधिक
प्रोत्साहन
मिलता
है
जबकि
इसके
विपरीत
जीवन
में
भावुकता, तर्क-शून्यता, आध्यात्मिकता
एवं
काल्पनिकता
की
प्रतिष्ठा
होने
पर
उसमें
अभिव्यक्ति
पद्य
का
माध्यम
अपनाती
हैं।"1
समकालीन
साहित्य
में
गद्य
रचने
वाले
अनेकों
लेखक-लेखिकाएँ
सामने
आते
हैं
जो
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
समाज
में
उपस्थित
जटिल
विद्रूपताओं
को
सटीक
एवं
तीक्ष्ण
रूप
में
पाठक
वर्ग
के
समक्ष
रखते
हैं।
चित्रा
जी
भी
अपनी
गद्य
रचनाओं
में
समाज
में
उपस्थित
ज्वलंत
विषयों
को
पाठक
वर्ग
के
सामने
रखती
है।
वह
सूक्ष्म
भाषिक
संवेदना
के
साथ
अपनी
रचनाओं
में
एक
साथ
कई
परतों
में
अनेक
छवियों
को
अन्वेषित
करती
है।
समकालीन
साहित्य
में
रचनाकार
का
दायित्व
गंभीर
हो
चला
है।
एक
रचनाकार
के
रूप
में,
समाज
में
उपस्थित
हर
महत्वपूर्ण
विषय
को
साहित्य
में
जगह
देना
सरल
कार्य
नहीं
है।
फिर
भी
इस
कार्य
को
अपनी
संपूर्ण
क्षमता
एवं
निडरता
के
साथ
चित्रा
जी
द्वारा
प्रस्तुत
किया
गया
हैं।
समकालीन
यथार्थ
की
बहुआयामी
एवं
जटिल
विद्रूपताओं
में
सर्वथा
अलक्षित
अंतर्सत्यों
का
चित्रण
वह
जिस
सूक्ष्म
भाषिक
संवेदना
के
साथ
अपनी
कथा-रचनाओं
में
परत
दर
परत
अनेक
रूपों
में
अन्वेषित
करती
हैं,
वह
वास्तव
में
प्रशंसनीय
है।
उनके
कथा
साहित्य
में
पात्रों
के
अंतर्द्वंद्व
से
निर्मित
मनोविज्ञान
को
वह
जिस
तरह
अपनी
रचना
के
माध्यम
से
पाठकों
को
आद्योपरांत
बांधे
रखने
वाले
विशेष
गुण
केवल
उनके
शिष्ट-वैशिष्ट्य
को
ही
रेखांकित
नहीं
करता,
बल्कि
पाठक
की
चेतना
पर
दस्तक
देने
के
गहन
सर्जनात्मक
लक्ष्य
को
भी
इंगित
करता
है।
समकालीन
रचना
जगत
में
स्त्री
अस्मिता
की
स्थापना
के
लिए
संघर्षरत
लेखिका
के
रूप
में
श्रीमती
चित्रा
मुद्गल
का
विशेष
स्थान
है।
चित्रा
मुद्गल
के
चिंतन
और
संवेदना
के
केंद्र
में
नारी
की
व्यथा
और
संघर्ष
है।
अपनी
रचनाओं
के
जरिये
परम्परा
और
परिवेश
से
जुड़ती
और
कटती
नारी
की
इकाई
को
विभिन्न
कोणों
से
देखने
का
और
आंतरिक
छटपटाहट
को
पकड़ने
का
प्रयास
चित्रा
मुद्गल
करती
है।2
चित्रा जी के
लिए
साहित्य
और
समाज
में
कभी
कोई
अंतर
नही
रहा।
जितनी
सक्रिय
वह
अपनी
सामाजिक
गतिविधियों
में
रही
उनसे
ही
प्राप्त
होने
वाले
अनुभवों
को
उन्होंने
अपनी
रचनाओं
में
प्रदर्शित
किया।
लेखन
कार्य
में
रचनाओं
के
बीच
मिलने
वाले
अंतराल
का
कारण
उनका
सामाजिक
गतिविधियों
में
व्यस्त
रहना
था।
चित्रा
जी
ने
विद्यार्थी
जीवन
से
ही
आंदोलनों
में
हिस्सा
लेना
शुरू
कर
दिया
था।
सामाजिक
न्याय
की
उन्होंने
पहली
लड़ाई
उन
‘बाईयों’ के अधिकारों
के
लिए
लड़ी,
जो
मुंबई
की
झोपड़पट्टीयों
में
रहकर
बड़े
घरों
में
बर्तन
मांजने
और
झाड़ू-पोंछा
का
काम
किया
करती
थीं।
इससे
पता
चलता
है
कि
चित्रा
जी
का
साहित्य
औरों
से
अधिक
महत्वपूर्ण
किन
कारणों
से
हो
जाता
है।
उनका
साहित्य
गहरे
अनुभव
से
निर्मित
है।
भाषा
की
दृष्टि
से
भी
इसलिए
ही
उनका
साहित्य
महत्वपूर्ण
हो
जाता
है
कि
उनके
अनुभव
उस
समाज
को
केवल
ऊपरी
तौर
से
नहीं
भीतर
से
समझते
है
जिससे
उस
वर्ग
के
निकट
जाना
सरल
जान
पड़ता
है।
‘एक
जमीन
अपनी’
चित्रा
जी
का
प्रथम
उपन्यास
है।
उनमें
चित्रा
जी
का
उपन्यास
‘एक जमीन अपनी’
भूमंडलीकरण
के
नजरिये
से
विशेष
ध्यातव्य
है।
इस
पितृसत्तात्मक
व्यवस्था
में
उत्तर-औपनिवेशिक
स्थितियां
तथा
भूमंडलीकरण
की
प्रक्रिया
स्त्री
जीवन
पर
जो
नकारात्मक
एवं
सकारात्मक
प्रभाव
डाल
रही
है,
उसका
खुलासा
इस
उपन्यास
में
हुआ
है।
“पूंजीवाद की
ओर
अग्रसर
तीसरी
दुनिया
की
भूमंडलीय
आर्थिक
प्रणाली
के
देशों
में
स्त्री
की
जो
पहचान
उभरती
है,
वह
पश्चिमी
नकल
पर
नहीं
है।
परिणामस्वरूप
स्त्री
जीवन
की
नई
भूमिकाएं
और
उनसे
उभरी,
स्त्री-शक्ति
के
बावजूद
व्यापक
स्तर
पर
स्त्री
को
नई
असमानताओं
एवं
असुरक्षा
का
सामना
करना
पड़
रहा
है।3
इस उपन्यास
में
उपन्यासकार
एक
ओर
बाजारीकरण
के
दौर
में
विज्ञापन
का
स्थान
और
उसके
साथ
जुड़ी
ज्यादतियां,
छलकपट
आदि
की
बाल
की
खाल
निकलती
हैं
तो
दूसरी
ओर
स्त्री
शरीर
को
विज्ञापनबाजी
का
उपकरण
बनाने
वाली
जो
संस्कृति
पनप
रही
है,
इसका
संजीदगी
से
बयान
करती
है।
इस
उपन्यास
में
एक
ओर
पारिवारिक
जीवन
की
ऊष्मा
है
तो
दूसरी
ओर
संबंधों
की
टूटन
भी।
राजी
सेठ
स्त्री
की
दो
प्रकृतियों
में
अंतर
कुछ
इस
तरह
बताती
हैं
“एक है,स्त्री
की
मूल
प्रकृति
और
दूसरी
है, समाज द्वारा
बनायीं
उसकी
आकृति।4
यही नहीं
चित्रा
जी
द्वारा
इस
उपन्यास
में
अपने
पात्रों
के
माध्यम
से
स्त्री-पुरुष
के
संबंधों
से
संबंधित
कई
महत्वपूर्ण
पहलुओं
पर
ध्यान
केन्द्रित
किया
हैं।
उदहारण
के
लिए
अंकिता
द्वारा
पति
सुधांशु
को
कहे
जाने
वाला
यह
कथन
कई
परतें
खोलता
हैं
‘सुधांशुजी औरत
बोनसाई
का
पौधा
नहीं,
जब
जी
चाहा,
उसकी
जड़ें
काटकर
उसे
वापस
गमले
में
रोप
लिया,
वह
बौना
बनाए
रखने
की
इस
साजिश
को
अस्वीकार
भी
कर
सकती
है।’5
पात्रों के साथ
ही
विज्ञापन
जगत
में
भाषा
के
बदलते
स्वरूप
पर
भी
बात
की
गई
है।
विज्ञापनों
को
मूलतः
अंग्रेजी
में
लिखे
जाने
की
परम्परा
को
समाप्त
करना
है,
क्योंकि
अंग्रेजी
में
तैयार
विज्ञापन
जब
हिंदी
में
अनूदित
होकर
आ
जाता
है
तो
हिंदी
भाषा
की
सहज
शैली
एवं
निजता
नष्ट
हो
जाती
है।
अंग्रेज़ी
को
अवांछित
महत्ता
देकर
सभी
क्षेत्रों
में
इसका
प्रयोग
करने
पर
अन्य
भारतीय
भाषाओँ
के
स्तर
में
गिरावट
आ
सकती
है।
दूसरी
ओर
उपन्यास
में
विज्ञापन
के
साथ
जुड़े
हुए
दूरदर्शन
और
पत्रकारिता
के
क्षेत्र
की
कई
चुनौतियों
का
भी
चित्र
खींचा
गया
है।
भारतीयता और
भारतीय
संस्कार
के
महत्व
पर
उपन्यासकार
ने
बल
दिया
है।
वह
अंकिता
और
नीता
के
बीच
के
अंतर
के
साथ
यही
समझाने
की
कोशिश
करती
है
कि
स्त्री
को
पुरुष
के
समान
नहीं
होना
है
उसे
अपने
गुणों
के
साथ
आधुनिकता
को
आत्मसात
करना
है।
इसके
साथ
ही
चित्रा
जी
द्वारा
इस
उपन्यास
में
एक
और
महत्वपूर्ण
प्रश्न
उठाया
गया
है,
‘पुरुष के लिए
जीवन
का
संपूर्ण
अर्थ
स्त्री
मात्र
नहीं
होती,
स्त्री
चाहे
जितनी
आगे
बढ़
जाए-
पद,
प्रतिष्ठा,
ख्याति
अर्जित
कर
ले,
उसका
पूरा
जीवन
एक
अदद
पुरुष
क्यों
हो
उठता
है?’6
ऐसे
कई
महत्वपूर्ण
प्रश्नों
पर
चित्रा
जी
प्रकाश
डालती
है
व
सुगमता
से
उनका
विश्लेषण
करती
है
।
‘आंवा’ चित्रा
जी
का
दूसरा
उपन्यास
है।
यह
उपन्यास
बहुत
प्रसिद्ध
उपन्यास
है।
आवां
एक
संघर्ष
का
उपन्यास
माना
जाता
है।
इस
उपन्यास
में
नमिता
के
माध्यम
से
पूँजीवादी
व्यवस्था
में
सामने
आने
वाले
संघर्षों
का
सजीव
वर्णन
किया
हैं।
समाज
में
उपस्थित
असमानता
का
भाव,
वह
श्रमिक
वर्ग
के
लिए
हो
या
स्त्री
के
लिए,
मानवता
की
नीवं
को
कमज़ोर
करता
है।
जिसका
प्रमाण
इस
उपन्यास
में
युवा
वर्ग
के
व्यवहार
एवं
उनकी
प्रतिक्रियाओं
में
देखा
जा
सकता
है।
दूसरे शब्दों में
कहे
तो
‘पांचसौ से ज्यादा
पृष्ठों
के
विशाल
कलेवर
का
‘आवां’ उपन्यास
मजदूर
राजनीति
के
अंतर्विरोध, आपसी वैमनस्य, प्रतिद्वंदिता और
आपराधिकता
को
ही
नहीं, पूंजीवादी वर्ग
के
शोषण, छल-छद्म
और
निकृष्ट
हथकंडों
को
भी
बेबाकी
से
अनावृत
करता
है।
इस
उपन्यास
के
माध्यम
से
मजदूर
आंदोलन
की
सीमाओं
को
सहज
ही
समझा
जा
सकता
है।
यह
उपन्यास
नारी
सरोकारों
के
प्रति
सतर्क
चिंता
और
संवेदनशील
दृष्टि
से
भी
महत्वपूर्ण
है।
नारी
के
बहुविध
उत्पीड़न
का
यह
दस्तावेज
है।’7
आवां उपन्यास
की
एक
उल्लेखनीय
बात
यह
है
कि
पूरा
उपन्यास
सृजन
का
एक
प्रतीकात्मक
रूप
है।
इसका
प्रत्येक
पात्र
एक
प्रतीक
है,
अन्ना
साहब
की
मृत्यु,
नमिता
के
गर्भ
का
गिरना,
नमिता
की
वापसी,
उपन्यास
का
ट्रेन
यात्रा
से
शुरू
होकर
ट्रेन
यात्रा
में
समाप्त
होना,
ये
सब
उपन्यास
को
प्रतीकात्मक
बनाते
है।
प्रत्येक
महान
रचनाकार
की
अपनी
एक
आत्मदृष्टि
होती
है।
चित्रा
जी
की
आत्मदृष्टि
का
परिणाम
है
यह
प्रतीकात्मक
उपन्यास।
आवां
एक
महाकाव्यात्मक
ऐतिहासिक
उपन्यास
है
क्योंकि
यह
कथा
हमारे
इतिहास
की
है
और
अनेक
कथाओं
एवं
उपकथाओं
को
पिरोकर
एक
संतुलित
महाकथा
की
सृष्टि
करती
है।
‘स्त्री अस्तित्व
संघर्ष
की
दृष्टि
से
चित्रा
मुद्गल
का
दूसरा
उपन्यास
‘आवां’ भी
महत्वपूर्ण
है।
बाजारीकृत
समाज
में
स्त्री
का
अस्तित्वहरण
जिस
पैमाने
पर
हो
रहा
है
उसका
जटिल
अनुभव
बोध
‘आवां’ के
पठन-पुनः
पठन
से
परत-दर-परत
खुलते
रहते
है।
‘आवां’ में आवां
उस
जलती
भट्टी
का
प्रतीक
है,
स्वत्व
संघर्ष
की
ज्वाला
का
प्रतीक
है
जिसमें
स्त्री
अपने
को
तपा-गढ़ाकर
नए
रूप
में
परिभाषित
करने
के
लिए
बाध्य
है।’8
आवां उपन्यास
में
मिलने
वाले
विविध
पहलुओं
को
के.वनजा
द्वारा
विविध
शीर्षकों
में
विभाजित
करते
हुए
विश्लेषित
किया
गया
हैं,
‘वनजा जी द्वारा
इस
उपन्यास
का
विश्लेषण
करते
समय
बहुत
सटीक
उपशीर्षकों
का
निर्माण
किया
है।
संगठन
के
बिना
संघर्ष
नहीं,
ट्रेड
यूनियन
की
संघर्ष
गाथा,
श्रमजीवी
संस्था
एवं
गांधीचिंतन
की
प्रतिष्ठा,
महिला
मोर्चा
और
नारी
चेतना,
ट्रेड
यूनियन
की
अखंड
नीति
में
खंड
नीति,
आभूषण
उद्योगपतियों
का
चक्रव्यूह,
नारी
शोषण
एवं
नारी
जागरण,
उपन्यासकार
की
कलात्मक
रूचि
तथा
आवां
का
अंतःसूत्र
जैसे
शीर्षकों
के
साथ
वनजा
जी
अपने
विश्लेषण
को
सार्थक
बनाती
है।’9
इसके
साथ
ही
चित्रा
जी
द्वारा
विविध
पहलुओं
को
उजागर
करने
के
क्रम
में
अनुकूल
भाषा
का
उपयोग
किया
गया
है
जिससे
यह
उपन्यास
एक
सफल
उपन्यास
के
सभी
गुणों
से
परिपूर्ण
जान
पड़ता
हैं।
‘आवां’ उपन्यास
की
भाषा
के
सन्दर्भ
में
डॉ.करुणाशंकर
उपाध्याय
उसकी
भाषिक
संरचना
की
विशेषताओं
का
उल्लेख
करते
हुए
लिखते
हैं
: ‘चित्रा मुद्गल ने
'आवाँ' के
भाषिक
प्रयोग
को
विविधतापूर्ण
बनाए
रखने
के
लिए
पात्रानुकूल
भाषा
का
प्रयोग
किया
है।
इस
उपन्यास
के
पात्रों
की
संख्या
बहुत
ज्यादा
है
और
अनेक
वर्गों
से
संबद्ध
पात्र
भी
हैं।
अतः
केवल
परिमार्जित
और
प्रांजल
भाषा
के
प्रयोग
से
स्वाभाविकता
नष्ट
हो
जाती।
अतः
लेखिका
ने
संवादों
और
कथोपकथन
का
लहजा
पात्र
की
मानसिक
हैसियत
के
अनुकूल
रखा
है।
इसका
एक
उल्लेखनीय
पक्ष
यह
भी
है
कि
इसमें
छोटे-बड़े
संवादों
का
पूरी
सफलता
के
साथ
विनियोग
हुआ
है।
लेखिका
ने
यदि
अन्ना
साहब
के
संवादों
में
तराशे
हुए
चतुराई
से
पूर्ण
शब्दों
का
प्रयोग
किया
हो, तो
उसके
विपरीत
पवार
की
भाषा
में
अक्खड़पन
है।
इसी
तरह
यदि
नमिता
की
भाषा
शालीनता
से
युक्त
है, तो
सुनंदा
की
भाषा
आक्रोशपूर्ण
है।’10
'गिलिगडु' चित्रा
जी
का
तीसरा
महत्त्वपूर्ण
उपन्यास
है।
इसमें
उन्होंने
वृद्धों
के
मनोविज्ञान
को
आधार
बनाकर
नई
पीढ़ी
द्वारा
उनके
प्रति
होने
वाले
दुर्व्यवहार
का
चित्रण
किया
गया
है, जो
लेखिका
के
व्यापक
और
प्रौढ़
अनुभव
का
प्रमाण
है।
डॉ.गोरक्ष
थोरात
के
शब्दों
में,
‘'गिलिगडु' दो
वृद्धों
की
कथा
है, जो
सैर
के
समय
प्रातः
अनायास
मिलते
हैं
और
एक-दूसरे
में
अपनी
संवेदना
और
स्वरूप
का
प्रतिबिम्ब
ढूँढते
हुए
आत्मीयता
का
तरल
संस्पर्श
पाकर
अंतरंग
मित्र
बन
जाते
हैं।
साथ-साथ
दिल्ली-दर्शन, खरीददारी, रेस्तरां
में
डिनर, सैर
के
अतिरिक्त
उनकी
साझी
जिंदगी
में
शामिल
हो
जाने
वाले
ये
कुछ
अविस्मरणीय
पल
हैं, जिनके
साथ
अपने-अपने
राज
खोलती
भावुक
सरलताएँ
जुड़ी
हैं।
इतना
होते
हुए
भी
दोनों
की
दुनिया
बिल्कुल
अलग
है।’11
कानपुर से
सेवानिवृत्त
इंजीनियर
बाबू
जसवंत
सिंह
अपनी
पत्नी
और
दोस्त
के
निधन
के
बाद
बिल्कुल
अकेले
हो
जाते
हैं।
इस
अकेलेपन
की
बीमारी
से
छुटकारा
पाने
के
लिए
डॉक्टर
की
सलाह
मानकर
वे
दिल्ली
में
अपने
बेटे
नरेन्द्र
के
पास
आकर
रहने
लगे
हैं।
यहाँ
आकर
उन्हें
पता
चलता
है
कि
बेटे
नरेन्द्र
के
मन
में
उनके
प्रति
कोई
आदर
का
भाव
नहीं
है।
कुछ
हैं
तो
ग्रंथि
बनी
ढेर
सारी
वे
कटुताएँ
जो
जब-तब
पिता
के
कठोर
अनुशासन
भरे
अतीत
का
स्मरण
दिलाकर
उन्हें
क्रूर
व्यक्ति
के
कटघरे
में
खींच
लाती
हैं, परन्तु
उन
सुविधाओं
के
लिए
कृतज्ञ
नहीं
हैं
जिन्हें
जुटाने
में
बाबू
जसवंत
सिंह
ने
अपना
शौक
और
जवानी
गला
दी।
कर्नल
साहब
की
कथा
इससे
ज्यादा
वेदना
उत्पन्न
करने
वाली
है।
पत्नी
की
मौत
के
बाद
कर्नल
स्वामी
निपट
अकेले
हो
गए
थे।
तीनों
बेटों
ने
तब
तक
नई
नौकरियां
पाकर
नए
भविष्य
की
तलाश
में
नए-नए
शहरों
को
अपना
डेरा
बना
लिया
होगा।
तीनों
ने
अपने-अपने
शहर
में
प्लाट
खरीद
लिए
हैं
और
अब
उन्हें
इस
बात
की
जरूरत
महसूस
हो
रही
है
कि
अपने
प्लाटों
पर
वे
अपने
मनपसंद
बंगले
का
निर्माण
कर
जितनी
जल्दी
हो
सके, खुले
घरों
में
पहुंच
खुलकर
रह
सकें।
खुलकर
रहने
के
लिए
उन्हें
तगड़ी
रकम
की
जरूरत
है।
लोन
के
चक्कर
में
बैठे-बिठाए
फंसना
उन्हें
मंजूर
नहीं, मंजूर
भी
क्यों
हो, जब
साधन
घर
में
मौजूद
हो।
‘नई पीढ़ी की
एक
विशेषता
यह
है
कि
वे
अपनी
कमाई
के
बल
पर
जीना
नहीं
चाहते।
उनको
मां-बाप
की
संपत्ति
पर
जीने
में
कोई
शरम
नहीं
है।
यह
अपना
अधिकार
वे
समझते
हैं, लेकिन
पुरानी
पीढ़ी
अपनी
कमाई
पर
सीमित
होने
में
गर्व
महसूस
करती
थी।’12
'पोस्ट बॉक्स
नं.203-नाला
सोपारा' चित्रा मुद्गल
द्वारा
लिखा
गया
यह
उपन्यास
एक
भिन्न
प्रकार
का
उपन्यास
है।
किन्नर
विमर्श
पर
आधारित
यह
उपन्यास
अपने
समकालीन
साहित्य
को
एक
नयी
दृष्टि
एवं
विचार
करने
के
लिए
एक
नयी
भूमि
प्रदान
करता
है।
यहाँ
तक
कि
चित्रा
जी
इस
उपन्यास
के
माध्यम
से
न
केवल
एक
विविध
विषय
को
सामने
लाती
है
बल्कि
संरचना
के
आधार
पर
एक
नए
प्रकार
की
पत्र
शैली
हमारे
सामने
रखती
है
।
चित्रा
जी
के
इस
कौशल
के
बारे
में
शरद
सिंह
अपने
विचार
व्यक्त
करते
हुए
कहती
हैं,
‘'पोस्ट
बॉक्स
नं.203-नाला
सोपारा' हिन्दी
साहित्य
में
ऐसा
पहला
उपन्यास
है
जो
किसी
किन्नर
की
उस
भावना
से
साक्षात्कार
कराता
है
जो
उसे
उसके
जैविक
परिवार
से
सदैव
जोड़े
रखता
है।
यह
उपन्यास
समाज
में
किन्नरों
की
मनोदैहिक
उपस्थिति
को
रेखांकित
करता
है।
'पोस्ट
बॉक्स
नं.
203-नाला
सोपारा' की
लेखिका
चित्रा
मुद्गल
ने
अपनी
सिद्धहस्त
लेखनी
से
एक
मां
और
उसके
किन्नर
पुत्र
के
परस्पर
प्रेम
को
जिस
मार्मिक
ढंग
से
प्रस्तुत
किया
है, वह
अद्भुत
है।
'एक
ज़मीन
अपनी', 'आवां', 'गिलिगडु' जैसे
सामाजिक
सरोकारों
के
बहुचर्चित
उपन्यासों
की
लेखिका
चित्रा
मुद्गल
समाजसेवा
से
जुड़ी
हैं।
उनके
ज़मीनी
अनुभव
उनके
उपन्यासों
को
दस्तावेज़ी
बना
देते
हैं।
उनका
उपन्यास
'पोस्ट
बॉक्स
नं.
203-नाला
सोपारा' भी
अपने
आप
में
यथार्थ
का
एक
ऐसा
दस्तावेज़
सामने
रखता
है
जिसका
एक-एक
शब्द
पढ़ते
हुए
कभी
रोमांच
होता
है
तो
कभी
सिहरन, तो
कभी
मानसिक
उद्वेलन।
लेखिका
ने
अपने
उपन्यास
के
माध्यम
से
यह
प्रश्न
उठाया
है
कि
यदि
कोई
शिशु
लिंग
दोष
के
साथ
जन्म
लेता
है
तो
भला
उसमें
इसका
क्या
दोष?’13
यह उपन्यास
विनोद
नामक
एक
ऐसे
युवक
की
कहानी
है
जिसे
हिजड़ा
यानी
थर्ड
जेंडर
होने
की
वजह
से
जबरिया
घर
से
निकाल
दिया
गया
था।
समाज
ने
उससे
दूरी
बना
ली।
उसके
सपने
बिखर
गए।
वह
हिजड़ों
के
बीच
रहने
को
मजबूर
हो
गया।
विनोद
से
वह
बिन्नी
बन
गया।
लेकिन
उसने
अपने
जीवन
मूल्यों
से
किसी
तरह
का
कोई
समझौता
नहीं
किया।
यह
युवक
अपने
परिवार
खासकर
अपनी
मां
से
सवाल
करता
है
कि
लंगड़ा-लूला, बहरा
व
मानसिक
रूप
से
विकलांग
होने
पर
तो
कोई
मां
अपने
बच्चे
को
घर
से
बाहर
नहीं
निकाल
देती, लेकिन
अगर
मैं
लिंग
से
विकलांग
पैदा
हुआ, जिसमें
मेरा
कोई
दोष
भी
नहीं
है
तो
मुझे
घर
से
बाहर
क्यों
निकाल
दिया
गया।
सुधा
उपाध्याय
के
शब्दों
में,
‘चित्रा मुद्गल का
उपन्यास
'पोस्ट
बॉक्स
नं.
203
- नाला सोपारा' किन्नरों
की
ज़िन्दगी
की
असलियत
को
दिखाने
के
क्रम
में
समाज
का
ऐसा
चेहरा
दिखाने
में
सफल
है, जिसमें
रिश्ते, घर-परिवार, समाज, सब
खोखला
दिखाई
देता
है
जब
आप
उस
खोखले
समाज
के
अन्दर
झांकते
हैं
तो
त्रासदी
और
गहरी
होती
जाती
है
और
अंततः
पुलिस
को
एक
किन्नर
की
एक
फूली
हुई
लाश
मिलती
है, इस
मामले
को
पुलिस
किन्नरों
की
आपसी
रंजिश
की
वजह
से
हत्या
का
जामा
पहनाकर
बन्द
कर
देती
है।’14
चित्रा जी
ने
समकालीन
जीवन
के
दवाबों
व
तनावों
को
पूरी
संजीदगी
से
अपनी
कहानियों
में
व्यक्त
किया
है।
बदलते
परिवेश
में
मानवीय
संबंधों
में
आई
शिथिलता
के
साथ
चित्रा
जी
निम्न
वर्गीय
समाज
के
सजीव
यथार्थ
को
भी
अपनी
कहानियों
के
माध्यम
से
हमारे
समक्ष
रखती
हैं।
डॉ.गोरक्ष
थोरात
के
शब्दों
में
‘चित्रा मुद्गल की
कहानियाँ
भी
जीवन
के
विविध
आयामों
को
उद्घाटित
करती
है।
उनकी
कहानियाँ
सामाजिक
परम्पराओं
तथा
रूढ़ियों
पर
तेज
प्रहार
करने
के
साथ-साथ
समाज
में
फैला
शोषण, समाज
में
स्त्री
की
स्थिति, स्त्री
के
प्रति
पुरुषों
की
मानसिकता, पुरुषों
का
स्त्री
की
लेकर
प्रकाश
में
आता
दोगला
चरित्र, श्री
जीवन
की
अपनी
समस्याएँ
आदि
कई
आयामों
को
छूती
और
अन्तर्मुख
करती
हैं।
चित्रा
मुद्गल
की
कहानियों
के
बारे
में
कहा
जाता
है
कि
वे
श्री
जाति
की
पक्षधर
हैं।
वास्तव
में
उनकी
कहानियों
में
न
स्त्री
प्रमुख
है
न
पुरुष
बल्कि
उनमें
मनुष्य
प्रमुख
है।’15
भारतीय
जीवन
की
आधारशिला
के
रूप
में
परिवारिक
जीवन
को
देखने
वाली
चित्रा
जी
समकालीन
जीवन
में
उसके
मूल्य
विघटन
को
सजीवता
से
अपनी
कहानियों
में
व्यक्त
करती
है।
उनकी
कहानियों
का
विषय
समाज
में
उपस्थित
प्रत्येक
उच्च,
निम्न
व
मध्यवर्गीय
शोषक-शोषित
वर्ग
है।
मानव
ही
नही
उन्होंने
अपनी
कहानियों
के
माध्यम
से
बाल
मोविज्ञान
एवं
जीव-जंतुओं
से
संबंधित
हर
उस
प्रश्न
को
उजागर
किया
है
जो
आज
के
समाज
में
आवश्यक
हो
चला
है।
एक सच्ची
समाजसेविका
की
छाया
उनकी
कहानियों
में
प्रतिबिंबित
होती
है। वह अपनी
सर्जनात्मकता
के
विषय
में
स्वयं
भी
कहती
है
कि
वे
अपनी
चेतना
की
अभिव्यक्ति
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
करती
है।
कहना
न
होगा
कि
‘समकालीन जीवन के
दबावों
एवं
तनावों
को
पूरी
संजीदगी
के
साथ
उनकी
कहानियां
पेश
करती
हैं।
बदलते
परिवेश
में
मानवीय
संबंधों
में
जो
शिथिलता
आ
गई, उसका
खुलासा
एक
ओर
है
तो
दूसरी
ओर
निम्नवर्गीय
जीवन
का
यथार्थ
है।
पारिवारिक
जीवन
के
सुदृढ़
संबंधों
को
भारतीयता
की
आधारशिला
मानने
वाली
चित्राजी
उसमें
आ
गई
टूटन
को
समकालीन
मूल्य
विघटन
मात्र
मानती
हैं।
शोषण
के
शिकार
बनने
वाले
स्त्री
वर्ग, मजदूर
वर्ग, अपने
अधिकारों
से
वंचित
लोग, कई
प्रकार
से
ताड़ित-प्रताड़ित
लोग, इन
सबको
उजागर
करने
का
अथक
प्रयास
उनकी
कहानी
की
खासियत
है।’16
चित्रा जी
की
कुछ
महत्वपूर्ण
कहानियों
को
यहाँ
उल्लेखित
किया
जा
रहा
हैं।
चित्रा
जी
की
‘गेंद’
कहानी
के
केंद्र
में
समकालीन
समाज
के
महत्वपूर्ण
पहलु
रखे
गए
हैं।
पहला,
सचदेव
जी
के
माध्यम
से
वृद्धों
की
समस्या
को
दर्शाया
गया
है
तो
दूसरी
ओर
एक
बालक
का
चित्रण
किया
गया
है
जो
एक
कामकाजी
माता-पिता
की
संतान
है।
बालक
को
घर
में
बंद
करके
रखा
जाता
है
जो
बाहर
गेंद
जाने
पर
सचदेव
जी
से
गेंद
वापस
कमरे
के
अंदर
देने
के
लिए
सहायता
मांगता
है।
वहीँ
सचदेव
जी
अपनी
उम्र
के
तकाजे
के
चलते
अपनी
श्रवण
शक्ति
खो
बेठे
हैं।
जिसके
इलाज
के
लिए
वह
अपने
बेटे
से
तार
भेजकर
पैसे
मांगने
पर
विवश
है।
अपनी
सारी
संपति
अपने
बच्चों
के
नाम
करने
के
बाद
वृद्ध
माता-पिता
की
स्थिति
को
यहाँ
बहुत
ही
मार्मिक
तरीके
से
व्यक्त
किया
गया
है।
बालक
बाहर
से
बंद
है
और
वृद्ध
भीतर
से।
‘हथियार’
कहानी
एक
महत्वपूर्ण
कहानी
है
जिसमें
समकालीन
समाज
में
माता-पिता
के
संबंधों
में
आ
जाने
वाले
अलगाव
के
कारण
उनकी
संतान
के
मानसिक
द्वंद
को
दर्शाया
गया
है।
इस
कहानी
के
माध्यम
से
चित्रा
जी
ने
समाज
के
उस
अनकहे
पहलु
को
उजागर
किया
है
जिस
पर
कम
ही
लोगों
का
ध्यान
जाता
है।
समकालीन
समाज
में
रिश्तों
का
बनना-टूटना
बहुत
आसान
हो
गया
है।
रिश्तों
के
बीच
से
आवश्यक
गंभीरता
व
संयम
विलुप्त
सा
हो
गया
है।
चित्रा
जी
की
इस
कहानी
पर
एक
लघु
फिल्म
भी
बनाई
गई
है
जिससे
इस
विषय
की
गंभीरता
को
समझा
जा
सकता
है।
चित्रा
जी
की
‘जिनावर’ कहानी में
मानव
और
पशु
के
बीच
का
रिश्ता
दिखाया
गया
है।
यह
घोड़ी
सरवरी
और
मालिक
असलम
के
बीच
अनकहे
संबंधों
की
अप्रतिम
कहानी
है।
असलम
तांगे
वाला
है
जिसके
परिवार
में
आठ
बच्चे
और
उसकी
पत्नी
है
जिनका
गुजर-बसर
तांगे
से
ही
होता
है।
सरवरी
एक
ऐसे
रोग
से
ग्रस्त
है
जिसका
कोई
इलाज
नही।
ऐसे
में
परिवार
चलने
का
कोई
दूसरा
स्रोत
न
होने
पर
असलम
बीमार
घोड़ी
को
लेकर
ही
सवारी
के
लिए
निकल
जाता
है।
जिस
कारण
घोड़ी
एक
गाड़ी
से
टकरा
जाती
है।
असलम
इस
घटना
का
लाभ
उठाते
हुए
गाड़ी
चला
रही
महिला
से
पैसा
वसूल
कर
सरवरी
को
उसी
हालत
में
छोड़
भाग
जाता
है।
‘जंगल’
कहानी
में
घरों
में
पाले
जाने
वाले
जानवरों
की
दशा
की
ओर
चित्रा
जी
हमारा
ध्यान
आकर्षित
करती
है।
इस
कहानी
में
एक
बालक
के
माध्यम
से
चित्रा
जी
एक
तरफ
तो
बाल-मनोविज्ञान
का
मार्मिक
चित्रण
करती
है
दूसरी
ओर
घर
में
पाले
जाने
वाले
पशुओं
की
दशा
भी
प्रस्तुत
करती
है।
चित्रा
जी
की
‘भूख’
कहानी
एक
अत्यंत
संवेदनात्मक
विषय
पाठकों
के
समक्ष
रखती
है।
गरीबी
की
मार
से
पीड़ित
व्यक्ति
अपना
पेट
भरने
के
लिए
क्या
कुछ
करने
पर
विवश
हो
जाता
है
इस
कहानी
में
चित्रित
है।
समकालीन
समाज
की
सबसे
बड़ी
विडंबना
है
कि
मनुष्य
अपनी
भूख
के
आगे
इतना
विवश
होकर
एक
शिशु
को
आमदनी
के
लिए
साधन
स्वरूप
उपयोग
में
लेने
लगा
है।
शिशु
व्यापार
की
तरह
समाज
के
एक
संकीर्ण
विषय
को
उजागर
करती
है
चित्रा
जी
की
‘वाइफ स्वैपी’ कहानी।
इस
कहानी
में
चित्रा
जी
ने
भारतीय
संस्कृति
के
नाम
पर
उच्च
स्तरीय
वर्ग
में
चलने
वाली
संकीर्ण
मनोवृति
को
प्रदर्शित
किया
है।
भारतीय
समाज
में
पति-पत्नी
के
संबंध
का
एक
नया
रूप
यहाँ
देखने
को
मिलता
है।
अंत
में
चित्रा
जी
द्वारा
अपने
जीवन
में
आने
वाली
कठिनाइयों
पर
लिखी
गई
एक
कहानी
का
वर्णन
करना
चाहूंगी।
‘अवांतर कथा’ चित्रा
जी
के
निजी
अनुभव
पर
लिखी
गई
कहानी
मानी
जाती
है।
इस
कहानी
में
चित्रा
जी
एक
ज्वलंत
मुद्दा
पेश
करती
है।
साहित्य
में
अपना
नाम
कमाने
वाली
एक
लेखिका
जब
एक
संपादक
की
पत्नी
हो
जाती
है
तो
उसके
जीवन
में
आने
वाली
कठिनाइयों
को
यहाँ
प्रस्तुत
किया
गया
है।
वह
लिखती
है
कि
किसी
भी
लेखिका
को
किसी
भी
संपादक
की
पत्नी
नहीं
होना
चाहिए।
अंततः कहा
जा
सकता
है
कि
चित्रा
मुद्गल
के
संपूर्ण
कथा
साहित्य
का
कलेवर
विषय
की
दृष्टि
से
अत्यंत
समृद्ध
रहा
हैं।
समाज
में
उपस्थित
तत्कालीन
समस्याओं
को
चित्रा
जी
अपने
साहित्य
में
स्थान
प्रदान
करती
हैं।
समाज
के
जिन
गाढ़े
सच
की
ओर
सामान्यतः
आम
आदमी
देखकर
भी
मुँह
फेर
लेता
है
या
उसे
अनदेखा
कर
देता
है,
उसे
चित्रा
जी
द्वारा
अपने
साहित्य
में
पूरी
सच्चाई
के
साथ
प्रदर्शित
किया
गया
हैं।
उनका
साहित्य
समकालीन
साहित्य
में
रचे
जा
रहे
साहित्य
में
एक
विशेष
एवं
गंभीर
स्थान
रखता
है
जो
पाठक
को
अपने
समाज
एवं
साहित्य
के
विषय
में
सोचने
पर
मजबूर
कर
देता
है।
अंत
के.वनजा
के
इस
कथन
से
करना
गलत
न
होगा
कि
‘चित्राजी के
कथा
साहित्य
के
अध्ययन
के
उपरांत
मुझे
मालूम
हुआ
कि
मानवीयता
उनकी
छाप
है।
वे
जीवन
के
सत्य
की
खोज
अपनी
रचनाओं
के
जरिये
करती
आ
रही
हैं।
सच
को
सच
बोलने
और
झूठ
को
झूठ
बोलने
के
लिए
कबीर
उनके
गुरु
रहे।
उनसे
प्रेरणा
पाकर
निर्भीक
होकर
निरंतर
अपनी
साहित्यिक
साधना
में
वे
लीन
रही
हैं।
आम
आदमी
की
हमदम
चित्राजी
की
रचनाओं
का
प्रतिमान
स्नेह
से
उत्प्रेरित
मानवीयता
है
या
यों
कहिए
कि
उनके
व्यक्तित्व
और
कृतित्व
में
कोई
फर्क
नजर
नहीं
आता।
ऐसे
रचनाकार
साहित्य
जगत
में
विरले
ही
दिखाई
देते
हैं।’17
संदर्भ
:
- डॉ.
गणपति चन्द्र
गुप्त, हिंदी
साहित्य का
वैज्ञानिक इतिहास,
लोकभारती प्रकाशन,
संस्करण 2007, पृष्ठ
सं. 318
- विजयश्री
के.वी.,
स्त्री का
प्रतिरोध : चित्रा
मुद्गल के
उपन्यास ‘एक
जमीन अपनी’
में, जवाहर
पुस्तकालय 2010, पृष्ठ
सं. 56
- के.
वनजा, चित्रा
मुद्गल : एक
मूल्यांकन, सामयिक
बुक्स,
संस्करण 2016, पृष्ठ सं.
11
- राजी सेठ, इक्कीसवीं सदी की ओर, संपादक : सुमन कृष्णकांत व शिला झुनझुनवाला, लेख- स्त्री : स्वायत्तता के अर्थ, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2001, पृष्ठ सं. 85
- चित्रा मुद्गल, एक जमीन अपनी, सामयिक प्रकाशन, संस्करण 2016, पृष्ठ सं. 235
- चित्रा
मुद्गल, एक
जमीन अपनी,सामयिक
प्रकाशन,
संस्करण 2016, पृष्ठ
सं. 264
- गोरक्ष
थोरात, चित्रा
मुद्गल के
कथा साहित्य
का अनुशीलन,
अन्नपूर्णा प्रकाशन,
प्रथम संस्करण
2009, पृष्ठ सं.
23
- विजयश्री
के.वी.,
स्त्री का
प्रतिरोध : चित्रा
मुद्गल के
उपन्यास ‘एक
जमीन अपनी’
में, जवाहर
पुस्तकालय 2010, पृष्ठ
सं. 46-47
- के.
वनजा, चित्रा
मुद्गल : एक
मूल्यांकन, सामयिक
बुक्स,
संस्करण 2016, पृष्ठ सं.
39-86
- संपादक- डॉ. कृपाशंकर उपाध्याय, आवां विमर्श, सामयिक बुक्स 2010, पृष्ठ सं. 159
- गोरक्ष थोरात, चित्रा मुद्गल के कथा साहित्य का अनुशीलन, अन्नपूर्णा प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2001, पृष्ठ सं.24
- के. वनजा, चित्रा मुद्गल: एक मूल्यांकन, सामयिक बुक्स- नई दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ सं. 97
- संपादकीय–शरद
सिंह, सरस्वती
(पत्रिका): वर्ष-4, अंक-16, जनवरी-मार्च 2019, पृष्ठ
सं. 5-6
- सुधा
उपाध्याय, लेख-
मानवीय संरचना
के खंडित
मूल्य, सरस्वती
(पत्रिका): वर्ष-4,
अंक-16, जनवरी-मार्च
2019, पृष्ठ सं.
15-16
- गोरक्ष
थोरात, चित्रा
मुद्गल के
कथा साहित्य
का अनुशीलन,
अन्नपूर्णा प्रकाशन,
प्रथम संस्करण
2001, पृष्ठ सं.94
- के.
वनजा, चित्रा
मुद्गल: एक
मूल्यांकन, सामयिक
बुक्स- नई
दिल्ली, संस्करण
2016, पृष्ठ सं.
114
- के. वनजा, चित्रा मुद्गल: एक मूल्यांकन, सामयिक बुक्स- नई दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ सं. 10
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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