- सुनील यादव
शोध सार : समय निरंतर बदलता है और बदलता है उसके साथ जीवन और साहित्य। जैसे किसान के हल को ले लीजिए, आज से लगभग पंद्रह साल पहले अस्सी प्रतिशत किसानों के पास हल और बैल था, जिससे वह स्वयं खेती करता था। किसान को बैलों से बड़ा प्रेम था, यहाँ तक की किसान बैल को अन्न खिलाता और घी पिलाता था। बैल एक प्रकार से उसके परिवार का सदस्य था। उस परिस्थिति में प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा' ज्यादा प्रासंगिक और अर्थवान थी, क्योंकि बैल से आदमी का सीधा जुड़ाव था। किन्तु वर्तमान में निन्यानवे प्रतिशत किसानों की खेती ट्रैक्टर से होती है और बैल नीलगायों की तरह छुट्टा घूम रहे, यहाँ तक कि वे अब किसानों की सबसे बड़ी समस्या बन बैठे हैं। ऐसे में आने वाले दस-बीस साल में हल और बैल की खेती देखने और करने वाले दोनों ही जब विलुप्त हो जायेंगे तब उन ‘दो बैलों' का मर्म एवं प्रासंगिकता और भी संदिग्ध हो जाएगी, क्योंकि जब बैल और किसान के संबंध का विषय ही विलुप्त हो जायेगा तो उस कथा का अर्थ अनभिज्ञ सा हो जायेगा; जैसे कभी अतिशयोक्ति-पूर्ण वीर काव्य हुआ करते थे। हालांकि पशु-प्रेम, सहयोग-भावना जैसे विषयों के लिए वह कहानी सदैव प्रासंगिक और अर्थवान रहेगी।
चूँकि जिन उपदानों का प्रयोग कर किसी रचना की सिद्धि की जाती है यदि वह उपादान वर्तमान हो या प्रचलित हो तो कहानी की मारक छमता अधिक होती है। अतः समय के साथ साहित्य भी अपनी अर्थवत्ता खोता है, खास करके यथार्थ चित्रण वाले वस्तु-रूप में परन्तु यह बात भी पूर्णतः सत्य नहीं है। जब हम किसी बीती बात की वर्तमान की बातों से तुलना कर किसी एक बात को ख़ारिज करते हैं तो समय के उस बदलाव को पूर्णतः नजरअंदाज करते हैं जो एक मजबूत धागे की तरह दोनों से जुड़ा हुआ होता है। अब आलोचना में अक्सर ऐसा देखा जाने लगा है। लेकिन किसी रचना के प्रति यह नजरिया बिल्कुल ही ग्राह्य नहीं है। हमें आलोचना में उस बदलाव को भी चिन्हित करते हुए उसके बदले स्वरूप के साथ विश्लेषण करना होगा तब जाकर किसी पूर्ववती रचना के प्रति न्याय हो सकेगा। मुंशी जी का दातादिन भले ही आज विलुप्त हो गया है लेकिन उसकी जगह लोन-बाबू (बैंक) ने ले लिया है। बस उसका स्वरूप बदला है लेकिन चाल-चलन और छल-कपट दातादीन से भी शातिर है। अतः ऐसे में प्रेमचंद साहित्य की आलोचना नए परिप्रेक्ष्यों के सरोकारों और पुराने सरोकारों के परिवर्तन के साथ देखना ही आलोचना की ईमानदारी होगी और यही समय की मांग भी। इन्ही सब विषयों को लेकर यह आलेख संक्षिप्त रूप में लिखा गया है।
बीज शब्द : आलोचना, परिप्रेक्ष्य, यथार्थ, आदर्श, प्रासंगिकता, साहित्य, विश्लेषण, तर्क, व्यावहारिकता।
मूल आलेख
: लेखक के लेखन में उसके आसपास का वातावरण और काल ही उसके चिंतन के ‘टूल्स’ बनते हैं। रचना भले ही यथार्थ से कोशों दूर कल्पना के आसमान में पतंग की तरह उड़ रही हो पर उस सृजन का काल और वातावरण (यथार्थ) उस पतले मँझे की तरह कल्पना (पतंग) से जुड़ा होता है, जो थोड़ी पतंगबाज के हाथ में दिखता है और थोड़ी धुप के चमकने पर चमक जाता है पर वह पतंग के साथ बड़ी ही मजबूती से जुड़ा रहता है। हाँ! लेखक का मस्तिष्क भी वही कल्पना कर सकता है जिसमें कहीं-न-कहीं वह होने की गुंजाइश हो। लेखक की रचना में उस काल की व्यवस्था, जीवनचर्या, जीवजगत् (प्रकृति) ही उसकी लेखनी के शब्द बनते हैं। लेखक कल्पना भले ही करता है पर कल्पना का मूल वास्तविकता का पृष्ठ-प्रेषण ही होता है, भले ही वह कल्पना वास्तविकता से चार-आठ कदम आगे या पीछे हो। प्रेमचंद ‘साहित्य के उद्देश्य’ में लिखते हैं- “साहित्य अपने काल का प्रतिबिम्ब होता है। जो भाव और विचार लोगों के हृदयों को स्पन्दित करते हैं, वही साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं।”1 अर्थात् साहित्य सृजन में यथार्थ (अपने काल) का महत्व स्पष्ट है। वह यथार्थ उस साहित्य से दो रूपों में संलिप्त होता है; पहला दृश्य रूप में और दूसरा प्रतीक रूप में। प्रेमचंद पूर्व का यथार्थ प्रतीक रूप में है तथा प्रेमचंद युग और उनके बाद का यथार्थ दृश्य रूप में। आधुनिक युग के उस दृश्य रूप में भी पोतन और थोड़ी बहुत कलई है, पर प्रेमचंद साहित्य में जस-का-तस है।
हर साहित्य पूर्णतः यथार्थ भी नहीं होता है उसमें कल्पना भी किसी-न-किसी रूप में उपस्थित रहती है। कल्पना दृश्य और अदृश्य के बीच की डोर है। ऐसा बहुत बार हुआ है कि कल्पना वास्तविकता में परिवर्तित हो जाती है और वास्तविकता कल्पना में। हालाँकि वास्तविकता कल्पना में परिवर्तित हो ऐसे मामले अपवाद हैं; जैसे, डायनासोर का होना। पर कल्पना वास्तविकता में परिवर्तित हो ऐसा सामान्य तौर पर बहुतयात है। हवाईजहाज होने का लक्षण उन्नीसवीं शताब्दी के पहले नहीं मिलता है पर रामायण, रामचरितमानस आदि रचनाओं में पुष्पक विमान की कल्पना स्पष्ट है और आज वह कल्पना स-साक्ष्य साकार है। कहने का तात्पर्ययह है कि साहित्यकार अपनी रचनाओं में कल्पना और यथार्थ का ऐसा सम्मिश्रण रखता है, जिससे रचना पाठक के मन में चेतन-अवचेतन के बीच झूलते हुए उसमें गति, संघर्ष, बेचैनी, समझ और आनंद पैदा कर दे। परंतु प्रेमचंद की कल्पना कवियों वाली नहीं है। प्रेमचंद की कल्पना कलाकारों वाली है, जिसमें उतर कर प्रेमचंद उस पात्र के वास्तविक मर्म को समझ, यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर देते हैं। वे हल्कू के अंतर्मन में उतरकर उसकी मनोभूमि को समझ सकते हैं, तो राय साहब के मन में उतरकर उनके काइयेपन को भी। वे हीरा और मोती के मन में उतरकर उनका अभिनय कर सकते हैं, तो हामिद के नन्हें मस्तिष्क में उतरकर उसका पार्ट भी खेल सकते हैं। ऐसी कल्पना में कल्पना कम, संवेदना और समझ (अनुभव-दृष्टि) ज्यादा महत्व रखती है।
यथार्थ वह वास्तविक भूमि है, जिसमें कोई कलई या पोतन नहीं है। यथार्थ वह कठोर धरातल है, जिसपर जीवन के विविध रंग हैं। जिसमें सुख-दुःख, पाप-पुण्य, प्रेम-हिंसा, अमीरी-गरीबी आदि मौजूद हैं। परन्तु यथार्थ स्थायी नहीं है, वह परिवर्तनशील है। कहा जाता है ‘सामयिक समस्याओं का चित्रण करने वाला साहित्य कभी स्थायी नहीं होता है।' पर उस अस्थायी साहित्य में भी एक गति, संघर्ष और बेचैनी छुपी होती है जो उस यथार्थ के गंदले चित्र को साफ कर एक मनमोहक, सुखकारी चित्र वर्तमान और भविष्य दोनों को प्रेषित करती है।
प्रेमचंद को यथार्थवादी लेखक कहा जाता है, लेकिन प्रेमचंद यथार्थ से डरते हैं और साहित्यकारों को इससे बचने के लिए भी कहते हैं। कायाकल्प में चक्रधर से कहलवाते हैं- “यह मैं नहीं कहता कि तुमने जो कुछ लिखा है, वह यथार्थ नहीं है। उनकी (इच्छाओं और प्रवृत्तियों की) नग्न यथार्थता ही ने उन्हें इतना घृणित बना दिया है। यथार्थ का रूप अत्यंत भयंकर होता है, और हम यथार्थ को ही आदर्श मान लें, तो संसार नर्क तुल्य हो जाय।”2 यथार्थ डर और संशय पैदा करता है पर उस यथार्थ को आदर्श में विलोपित कर देने पर यथार्थ का भय कम हो जाता है। जो मनुष्यता को एक सबल और निरंतर आगे बढ़ने का साहस देता है। इसीलिए मुंशी प्रेमचंद ‘आदर्शोंमुखी यथार्थवादी’ लेखक हो जाते हैं, जिसमें यथार्थ की नग्नता को परिवर्तित करने का साहस होता है।
साहित्य में साहित्यकार की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। सिर्फ साहित्य रच देना साहित्य सेवा नहीं है। साहित्य मनुष्यता के लिए कितना उपयोगी हो यह साहित्य और साहित्यकार के लिए बड़ा प्रश्न होता है। प्रेमचंद ‘साहित्य का उद्देश्य’ में लिखते हैं- “जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य प्रेम न जागृत हो-जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाईयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।”3 हमारा साहित्य पहले मनोरंजन और सूचना का साधन मात्र था, जिसमें उत्तरोत्तर सुधार एवं परिवर्तन हुआ और वही परिवर्तन आधुनिक काल में जाकर एक स्थायी कठोर धरातल को पा सका। रीतिकाल से भारतेंदु युग में चमत्कारी परिवर्तन के बाद द्विवेदी युग ने सुधार का बाना बांधा। ‘हमारा साहित्य हो कैसा?’ व्याकरण से लेकर विषय-चयन तक में साहित्य की कसौटी को परखा गया। कथा क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद उसके सबल बने- “हमारे कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो-जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”4 साहित्य में साहित्यकार की प्रतिबद्धता को सूचित करते हुए 1936 ई. के ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के अध्यक्षीय उद्बोधन में मुंशी प्रेमचंद कहते हैं- “साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है-उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चाई है।”5
हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका रचना संसार इतना व्यापक और समृद्ध है जो न सिर्फ हिंदी साहित्य को गर्व करने की वजह देता है, बल्कि देश-दुनिया में हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहचान रखता है। ‘प्रेमचंद कथा लेखन के उस्ताद हैं।’ आचार्य रामचंद शुक्ल ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ प्रकरण-5 के ‘गद्य साहित्य की वर्तमान गति’ में लिखते हैं- “इस तृतीय उत्थान में हमारा उपन्यास कहानी साहित्य ही सबसे अधिक समृद्ध हुआ है। नूतन विकास लेकर आने वाले प्रेमचंद जी जो कर गये वह तो हमारे साहित्य की एक निधि ही है।”6 प्रेमचंद विश्वस्तरीय लेखक हैं। उन्हें हिंदुस्तान तो जानता ही है, हिन्दुस्थान के बाहर भी उन्हें पढ़ा जाता है। “प्रेमचंद उन लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं से बाहर के साहित्यप्रेमी हिंदुस्तान को पहचानते हैं।”7 उन्होंने कई अदद उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक आदि का लेखन किया है, जो आज भी कथा साहित्य में मील का पत्थर है। उन्होंने अपने साहित्य में इस बात का ख्याल रखा है कि मेरे साहित्य के केंद्र में जनता हो और उसी का नतीजा है कि आज भी जनता में प्रेमचंद हैं।
“प्रेमचंद दुखी हिदुस्तान के गरीबों के लेखक थे। उनका साहित्य तमाम पीड़ितों का मानसिक संबल है।”8 जब आप ‘गोदान’ को पढ़ते हैं, खास कर वह लोग जो गाँव और खेती-किसानी से प्रेम करते हैं, गाँव के परिवेश को रसात्मक और उल्लास की दृष्टि से देखते हैं तो उनके मन में गाँव का वह उल्लास, वह टीस, वह उमंग, वह क़सक जागृत हो जाती है, जिसमें सिर्फ अंतर्मन प्रफुल्लित और दुःखी होता है। लेकिन वह शब्द रूप में बाहर नहीं निकलता है। आज साहित्य कितना भी अभिव्यक्त है पर उस भाव को व्यक्त तो हृदय ही आत्म करता है। बाहर तो असंभव जान पड़ता है। वह वही भाव है जिसके लिए साहित्य में अभी शब्द नहीं हैं। जैसे, स्त्री को विदाई के वक़्त एक तरफ सबकुछ के त्याग का दुःख होता है और दूसरी तरफ पिया-मिलन का मीठा एहसास। वह यही भाव होता है; जैसे, आप खूब पसंदीदा मिठाई खा रहें हों, उसके स्वाद में अंतर्मन डूब-उतरा रहा हो और कहीं उसी में कड़वाहट पड़ जाए। वह यही भाव होता है; जैसे, अभाव में बैठकर खूब धन-शोहरत, पाने-मिलने का मानसिक चोचला कर रहे हों और अचानक कोई टोक दे। अभी तक ऐसा भाव सिर्फ भावना से जुड़ा महसूस हो लेता है, पर अभिव्यक्त नहीं। पर वही भाव ‘गोदान’ आदि में अभिव्यक्त हुआ है, बल्कि प्रेमचंद साहित्य ही उसे अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। ‘गोदान’ सिर्फ एक रचना ही नहीं है, एक युग है। गोदान एक शब्द चित्र है, पर उनके लिए जिसने उस युग-चित्र और दुःख को साक्षात् दर्शित किया हो, भोगा हो या उसके लिए जो उस मर्म को समझता हो या उसके लिए जिसके भीतर प्रेम और संवेदना का उद्दाम सागर लहरा रहा हो।
‘प्रेमचंद भारतीयता के पुजारी हैं।’ ग्रामीण भारत को इतने पास से, इतनी सूक्ष्मता से और इतनी गहनता से शायद ही कोई लेखक या कवि देखा होगा, जितने पास और गहनता से मुंशी प्रेमचंद। उन्होंने गाँव और गाँव के लोगों का इस प्रकार वर्णन किया है कि जब वे उसे साहित्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो जैसे लगता है वह पात्र और उससे जुड़ी घटना अपने वास्तविक रूप में पन्नों पर अच्छरों के रूप में चित्रित हो गयी है। उन चित्रों में भारतभूमि के एक-एक रंग स्पष्ट दिखाई देते हैं।
प्रेमचंद को किसी 'वाद' में बाँधा नहीं जा सकता। वे मुक्त चेतना के श्रावक थे। वे समाज को आदर्श रूप में देखना तो चाहते थे, लेकिन यथार्थ को अनदेखा करके नहीं। वे सत्य के करीब पहुँच कर अच्छाई की राह निकालते थे। उनके यथार्थ में रंग-रोगन नहीं था। उनकी भाषा में पॉलिस नहीं थी। उनके शब्दों में स्वर्णावरण नहीं था, लेकिन यथार्थ जस-का-तस था। धूल-धूसरित, फीका किन्तु स्पष्ट।
‘प्रेमचंद कभी गांधीवाद की तरफ तो कभी मार्क्सवाद की तरफ झुकते दिखते हैं।’ लेकिन देखा जाए तो वे झुँकते नहीं थे, समीक्षकों और पाठकों ने अपने सहृदयता के कारण उन्हें अपने पसंद के 'वाद' की तरफ झुँकाया है। वास्तव में प्रेमचंद ख़ालिस कलमकार थे। प्रेमचंद ने ग्रामीण-जीवन से संबंधित हर एक उत्सव या समस्या को अपनी कहानी का विषय बनाया है। उनकी कहानियों की भूख गाँव के रोजमर्रा को देख कर बढ़ती गई, तभी उन्होंने तीन-सौ के पार कहानियों का सृजन कर डाला। हल पर, बैल पर, चोरी पर, डकैती पर यहाँ तक की आकस्मिक व्याधियों पर भी पुष्ट कलम चलायी है। जब उनके तीन-सौ कहानियों से भी गाँव और उसका रंग अंट नहीं पाया तो 'गोदान' जैसा महाकाव्य रच डाला। गाँव के हर एक रंग को, बल्कि उनकी दृष्टि जहाँ तक पहुँची वहाँ तक कलम चलायी। यदि उनके सम्मान में यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी कि ‘प्रेमचंद अपने आप में ही एक अलग वाद हैं।’ ऐसे में उन्हें किसी विशेष वाद में बांधना उनके साहित्य के प्रति अन्याय होगा।
हिंदी संसार में प्रेमचंद ऐसे लेखक हैं, जिन पर सबसे ज्यादा आलोचना और शोधकार्य हुए हैं। हिंदी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास के बाद कोई जन-जन के मन में बसा है तो वे प्रेमचंद हैं। स्वाभाविक है ज्यादा पढ़े जायेंगे तो आलोचना-विवेचना भी ज्यादा ही होगी। उनके साहित्य को ठेलों से लेकर बड़ें पुस्तकालयों तक में बड़ी आसानी से पाया जा सकता है। प्रेमचंद पर बात करने वालों में एक गाँव के अदना आदमी से लेकर साहित्य के बड़े-बड़े आलोचक शामिल हैं। रामविलास शर्मा, प्रेमचंद के बड़ें आलोचक हैं। उन्होंने प्रेमचंद के बारे में जो कुछ लिखा है, वह प्रेमचंद-आलोचना के केंद्र में है। आज प्रेमचंद की आलोचना रामविलास शर्मा के आलोचना के इर्द-गिर्द ही घूमती पाई जाती है। परंतु जैसे-जैसे समय बदला वैसे-वैसे आलोचना की धारणाएं बदलीं, अध्ययन की सीमाएं बदलीं, यथार्थ का रूप बदला, आदर्शता के पैमाने बदले और बदले प्रासंगिकता के सरोकार। आलोचना उत्तरोत्तर तर्क और व्यावहारिकता के समीप पहुँचती गयी, ऐसे में समय के साथ प्रेमचंद की आलोचना भी बदलनी चाहिए।
आलोचना या इतिहास लेखन में समय की प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण होती है। समय के साथ उस घटना या मनोवृत्ति में परिवर्तन स्पष्ट होता है। प्रेमचंद लेखन के दौर के लोगों में और आज के नये दौर के लोगों में पर्याप्त समयांतराल है, जिससे प्रेमचंद साहित्य पर नये-नये प्रश्न उपस्थित होते रहते हैं; जैसे, ‘गोदान’ उपन्यास पर अक्सर यह टिप्पणी की जाती हैं कि ‘गोदान’ बहुत अच्छा उपन्यास है, लेकिन ग्रामीण पात्रों के अलावा अन्य चरित्रों को जैसे बेमतलब ठूसा गया है। उपन्यास में इतने पात्र हो गए हैं कि उपन्यास बोझिल हो जाता है।' कुछ ऐसी ही और टिप्पणीयां देखी-सुनी जा सकती हैं- 'गोदान में किसान पक्ष की अपेक्षा शहर पक्ष हल्कापन लिए हुए है, दोनों में कोई सटाव नहीं है।' ‘गोदान में पात्रों का यथार्थ कुछ चटख (बनावटी) सा प्रतीत होता है। 'ऐसी टिप्पणियाँ प्रेमचंद को तो ख़ारिज करती ही हैं साथ ही उस साहित्य को भी ख़ारिज करती हैं, जिसका आजतक हम दम भरते रहे हैं। आजकल कुछ ऐसी भी टिप्पणियाँ मिलती हैं, जिसमें प्रेमचंद के यथार्थ और प्रासंगिकता को भी ख़ारिज कर दिया जाता है। ऐसे ख़ारिज दौर और प्रश्नों से आलोचना-पद्धति पर भी सवालिया नजर उठनी लाज़िमी है।
उपर्युक्त सन्दर्भों के प्रश्न खड़े होने में गाँव के प्रति अज्ञानता सबसे बड़ा कारण है। यह जल्दबाजी का निर्णय हमारी सभ्यता और शिक्षा-पद्धति पर सवाल खड़ा करता है। यह उतावलापन हमारे बुजुर्गों की तौहीन करता है। हर नई पीढ़ी अपने को पुरानी पीढ़ी से अधिक चतुर और उन्नतशील समझती है, पर वह ध्यान नहीं देती है कि पिछली पीढ़ी भी अपनी अगली पीढ़ी से अधिक चतुर और उन्नतिशील रही होगी। उन्नतिशीलता उत्तरोत्तर है, लेकिन उसकी नींव उसी भूत पर टिकी होती है, जिस पर आधुनिकता का महल खड़ा होता है।
‘गोदान’ का एक-एक पात्र अपने वर्ग, जातियता, धर्म (कर्तव्य), समस्या आदि का प्रतिनिधित्व करता है। यही नहीं प्रेमचंद की हर रचना का पात्र अपने वर्ग, समस्या, जाति आदि का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। प्रेमचंद की सूक्ष्म दृष्टि से भारतभूमि का कोई समाज छूटने नहीं पाया है। जुआदार, वेश्या, दरोगा, सिपाही, मुसलमान, पहलवान, प्रेम, दोस्ती, मेला, पंचायत, धोखा, अंधविश्वास यहाँ तक कि कुत्ता और बैल भी उनके पात्र बने हैं। उन्होंने बच्चों की मनोभूमि से लेकर बुढ़ी काकी के जीभ तक का स्वाद परखा है। शिकार से लेकर सूरदास तक की आँखिन देखी है। शराब, कबाब, मिट्टी-धुर कुछ भी तो नहीं छोड़ा। उन्होंने हर समस्या, कुरीति, उदंडता से मनुष्य को बचाकर उसे आदर्शता के दीपक तले उत्तरोत्तर आगे बढ़ने का मार्ग दिखाया है, तभी ‘प्रेमचंद हिंदीपन के आदर्श लेखक हैं।’
ऐसा लगता है ‘गोदान’ में दो कथाएं अलग-अलग चलती हैं; एक, शहर के रसूखदारों की और दूसरी, गाँव के बीमारों की। दोनों चलती तो सामानांतर हैं, पर दोनों में कोई मेल नहीं दिखता हैं। पर नहीं; प्रेमचंद इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं थे! प्रेमचंद ने 1936 ई० के पहले के भारत का वह चित्र खींचा है, जिसमें शहर गाँव को कैसे प्रभावित करता है और गाँव कैसे अपने में पिसता है, उसका। क्या आज गाँव और शहर का मेल है? न कभी था, न कभीं होगा। आज भी दोनों की सभ्यताओं, रहन-सहन, जीवनचर्या में व्यापक अंतर है। भले ही शहर का अतिक्रमण गाँवों में आज बेहिसाब हुआ हो, लेकिन दोनों में जमीन और आसमान का भेद है। दोनों में कोई सम्बन्ध एक-दूसरे से वाजिब नहीं लगता है, पर है भी। वह सम्बन्ध है महाजन और असामी का। वह सम्बन्ध है, खरीद और बिक्री का। वह सम्बन्ध है बेटे और बाप का। ठीक उसी तरह ‘गोदान’ के दोनों कथाओं में एकरूपता नहीं झलकती है, पर है। मुंशी जी अगर गाँव और शहर की कथा को एक रंग में रंगकर उपन्यास प्लाट को साधने लगते तो ‘गोदान’ का महत्व ही जाता रहता। गाँव शहर से भिन्न है तो है, वह भिन्न और जुदा-जुदा दिखना भी चाहिए और ‘गोदान’ में बड़े सलीके से उस भिन्नता को निभाया गया है। यदि दोनों में सामंजस्य दिख जाता तो गाँव और शहर का भेद ही जाता रहता?
अगर ‘गोदान’ के पात्रों की देखी जाए तो उसका नायक होरी-धनिया सिर्फ गोदान के होरी-धनिया नहीं हैं। वह भारत के हर उस घर का होरी-धनिया है, जिस घर में किसानी होती है, खेती होती है। होरी-धनिया की एक-एक भंगिमा, होरी-धनिया का एक-एक चित्र भारत देश के हर किसान का चित्र खींचता है। उसकी विवशता, उसकी चुहलता, उसका पछताना, उसका रोना, उसका मारना-पीटना सब उस किसान से मिलता है, जो भारत के किसी भी किसान में होता है। भारत का किसान कैसे अपने आत्मसम्मान और सामाजिक लोकलाज के डर से, समाज के बनावटी जोंक रूपी सभ्यों से चूसता रहता है, इसका जीवंत निर्वहन ‘गोदान’ के होरी और धनिया करते हैं। ‘तब होरी उधारी लायी गाय को लेकर पिसता था, आज होरी लोन पर लाये ट्रेक्टर को लेकर पिसता है।’
गोबर का चरित्र 1936 ई. के किसी किसान के बेटे का चरित्र भर नहीं है। वह आज के हर उस किसान के बेटे का चरित्र है, जो यहाँ हर घर में मौजूद है। गोबर की एक-एक सिलवट आज नौजवान का हूबहू प्रतिचित्र है। बस बदला है तो उस दृश्य के पीछे का बैकग्राउंड। होरी की तंगहाली, धनिया की जद्दोजहद में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, क्योंकि आज का बेटा भी रोजगार की तलाश में शहर-दर-शहर भटक रहा है। वह न तो होरी के कर्ज का देनदार बन पाता है औरन ही धनिया की विवशता का सबल बन पाता है। वह गोबर आज भी रोजगार पाने या पाते ही अपनी बीबी को लेकर पलायन कर जाता है। घर पर वही होरी बचता है, जो अपनी जरूरतों से जूझते हुए अपनी जिंदगी को बैंक, महाजन, महंगाई और दवाई के सूद में होम कर जाता है। हर किसान की बेटी रूपा और सोना का वही हस्र होता है जो ‘गोदान’ के रूपा और सोना का होता है।
प्रेमचंद हिंदी के जातीय लेखक हैं। उनका लेखन धार्मिक नहीं है, उनका लेखन विरोधी नहीं है, उनका लेखन किसी वाद का मुंशी भी नहीं है। वे सच्चे अर्थों में ईमानदार लेखक हैं। यदि किसी सेठ में अच्छाई दिखी तो अच्छाई दिखाते, बुराई दिखी तो बुराई दिखा दिया। किसी किसान में कमजोरी आई तो 'होरी को बांस का पैसा' दबाते दिखा दिया। किसी महिला का सद्विचार अच्छा लगा तो ‘सुभागी’ को कर्मठशील दिखा दिया और जो किसी का बुरा लगा तो ‘कर्कसा’ बता दिया। किसी बच्चे का वात्सल्य खींचा तो ‘हामिद’ को दिखा दिया और किसी बूढ़े की श्रद्धा खींची तो ‘बूढ़ी काकी’ को दिखा दिया। किसी धर्म का मर्म अच्छा लगा तो ‘जुम्मन’ को दिखा दिया, किसी का बुरा लगा तो डॉक्टर चड्ढा को दिखा दिया। वे दातादीन को गिद्ध भी दिखाते हैं तो सहूआईन को थोड़ी नरम भी दिखाते हैं। वे 'सवा सेर गेहूं' भी लिखते हैं तो 'कफ़न' भी लिखते हैं। प्रेमचंद साहित्य में बधाव नहीं है, किसी की वाली नहीं है। ख़ालिस ईमानदार साहित्य है। उनके यहाँ कोई लीक नहीं है। उनके साहित्य में केवल मनुष्य है और उसको मनुष्य बनाने में वे उत्तरोत्तर प्रयत्नशील हैं।
प्रेमचंद ने हर चरित्र के दो रंग दिखाए हैं। कहीं-कहीं तो एक ही चरित्र के दोनों रूप दिखा दिए हैं। उन्हें मालूम था हर व्यक्ति में अच्छाई और बुराई समान रूप से विद्यमान रहती हैं, बस उसमें जैसी लौ लग जाए वैसी जल उठती है। “बुरा आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता, उसमें कहीं देवता अवश्य छिपा होता है- यह मनोवैज्ञानिक सत्य है।” (‘साहित्य का उद्देश्य’, प्रेमचंद, पृष्ठ-33) ‘गोदान’ के राय साहब, खन्ना, मिस्टर तन्खा आदि के दोनों रूपों का बड़ी बारीकी से चित्रण किया हैं। वहीं किसी कहानी में पंडित जी के चरित्र की लाखों अच्छाईयां गिनाते नहीं थकते, तो उसी में आगे चलकर उनकी बुराईयों और चालबाजियों को दिखा देते हैं। उन्हें पता था “सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब रखने का नाम है।”9 ‘भुत’ कहानी में चौबे जी का व्यक्तित्व कुछ यूँ निखारते हैं- “वे (चौबे जी) सच्चे पत्नीपरायण मनुष्य थे। साधारणतः महफ़िलों में वेश्याओं से हँसी-मजाक कर लेना उतना बुरा नहीं समझा जाता; पर पंडित जी अपने जीवन में कभी नाच-गाने की महफ़िल में गये ही नहीं।” अर्थात पण्डित जी बहुत चरित्रवान व्यक्ति थे। वहीं आगे उन्हीं पंडित जी के बारे में लिखते हैं जब उनकी पत्नी का देहावसान हो जाता है। तब अपनी बेटी समान उसी साली को कैसे देखते हैं- “पंडित जी ने बिन्नी को सतृष्ण नेत्रों से देखा.... वह अब बिन्नी को पिता की नजरों से नहीं देख सकते थे। बिन्नी अब मंगला की बहन और उनकी साली है। जमाना हँसेगा तो हँसे, जिंदगी तो आनंद से गुजरेगी। उनकी भावनाएं कभी इतनी उल्लासमयी न थीं। उन्हें अपने अंगों से फिर जवानी की स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था।”10 प्रेमचंद उस यथार्थ को रखते हैं जिसमें कोई कलई न पुती हो, पर उस यथार्थ के नग्नता से वे डरते थे। उसे वैसे ही देखने के वे पक्षधर नहीं थे। वे उस समस्या के समाधान का आदर्श रूप प्रस्तुत कर उसे सुधरने का मौका देते थे। जो उनका आदर्श था वह कपोलकल्पित टपकाया हुआ नहीं था, वह इसी यथार्थ के सैकड़ों रंगों से चुना हुआ होता था। कहीं अन्धविश्वास की बखिया उधेड़ते तो कहीं मंत्र को साध कर समाज को आदमियत (मंत्र के भगत) का मंत्र देते। पंडित जी को मंगला का भुत दिखा कर उस गिजबिजाते दलदल से बाहर निकाल लाते हैं। वह मंगला का भुत नहीं था, बल्कि वह पंडित जी के भीतर का वह आदर्श था जो उनके मस्तिष्क में बैठकर घृणित काम करने से रोकता है। क्योंकि जिसे तुमने बेटी माना है उसे यदि पत्नी मानोगे तो वह कुंठा जिंदगी भर तुम्हारे मस्तिष्क में भुत की तरह दिखती रहेगी, जब-जब उस सम्बन्ध को तार-तार करोगे। तुम कभी उस अभिप्राय का सुख नहीं ले पाओगे।
प्रेमचंद का यथार्थ-सौंदर्य के प्रति आदर्शता का पैमाना देखिए। ‘गोदान’ में शहर की स्त्री मालती के यौवन और गाँव के एकदम खाटी देहाती महिला के यौवन में भिन्नता और आदर्शता का निर्वहन देखिए। जब मेहता और मालती राय साहब के साथ जंगल में शिकार खेलने को जाते हैं तब उस नदी के तीर पर बसे आदिवासी कन्या के प्राकृतिक सुघड़ता के आगे शहरी मालती के पीछे लाट्टूदार सौन्दर्य की एकता और अनेकरूपता, ग्रामीण और शहरी भिन्नता का स्पष्ट रूप परिलक्षित होता है। मालती और युवती की तुलना देखिए- “दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़ आयी हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात् प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूटकर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन; जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव; मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया हो।”11 वहीँ- “एक युवती किनारे के झोपड़े से निकली, चिड़िया को बहते देखकर साड़ी को जांघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। .....युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़, आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मण्डल का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुन्दर या सुघड़ कहा जा सके; लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छन्द हो गए थे कि यौवन का चित्र खींचने के लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।”12 लेकिन प्रेमचंद तो प्रेमचंद हैं! दोनों के सौंदर्य को खींचा पर उसमें वासना को जगह न दिया। “मेहता ने युवती से कहा- अब मुझे आज्ञा दो बहन; तुम्हारा यह स्नेह, तुम्हारी यह निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी।”13 ऐसी ही बातों पर खरा उतरने के लिए ‘साहित्य के उद्देश्य’ में कहते हैं- “हमारी कला यौवन के प्रेम में पागल है और यह नहीं जानती कि जवानी छाती पर हाथ रखकर कविता पढ़ने, नायिका की निष्ठुरता का रोना रोने या उसके रूप-गर्व और चोंचलों पर सिर धुनने में नहीं है। जवानी नाम है आदर्शवाद का, हिम्मत का, कठिनाई से मिलने की इच्छा का, आत्म-त्याग का। उसे तो इक़बाल के साथ कहना होगा।”14 मुंशी जी बस एक वाक्य ‘मुझे आज्ञा दो बहन’ कह कर अपने आदर्शवाद, त्याग, इंकलाब को साध देते हैं। गाँव और शहर पास-पास आकर भी दूर हो जाते हैं, गाँव शहर दूर-दूर होकर भी पास हो जाता है।
प्रेमचंद स्त्रियों का बड़ा सम्मान करते हैं। प्रेमचंद साहित्य की स्त्री साधारण स्त्री नहीं है और न ही असाधारण है। उनकी स्त्री 'भारतीयता लिए हुए एक सशक्त, संघर्षशील, आदर्श स्त्री है' जिसमें धैर्य, ममता, विद्रोह, प्रेम, समझ और संवेदना प्रचुर मात्रा में उपस्थित है। उन्होंने स्त्री चरित्र को बड़े मनोयोग से परखा है। स्त्रियों के हर उस चित्र को स्पष्ट चित्रित किया है जो भारतीय समाज में वर्तमान था। उन्होंने स्त्री को मनुष्य कोटि में सर्वश्रेष्ठ माना है- "स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और दया और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है।" (‘गोदान’, मुंशी प्रेमचंद, पृष्ठ-127)
उनके स्त्री चरित्र में क्षमा, त्याग, अहिंसा आदि धर्म नैसर्गिक है। स्त्री पात्रों की बहुरूपता में भी उसका मूल स्वरूप एकरूप है। 'घासवाली' कहानी की मुलिया हो, चाहे 'गोदान' की धनिया, झूनिया, मालती आदि हों या फिर 'सुभागी' कहानी की सुभागी हो सबमें उपर्युक्त तत्व मौजूद हैं। दुनिया कहती है मर्द कमाता है और स्त्री खाती है, लेकिन प्रेमचंद की स्त्री अपने पति के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर पुरुष का सबल बनती है। यहाँ तक कि पति के न रहने पर उसके सारे दायित्व, बल्कि उससे भी कुछ बढ़कर दायित्वों का निर्वहन करती है। ‘कफ़न’ की बुधिया जब तक थी, दोनों का पेट पालती रही। ‘गोदान’ की धनिया होरी से दो जौ आगे ही रही, बल्कि यह कहना कि ‘गोदान’ का हीरो होरी नहीं धनिया थी, तो अतिश्योक्ति न होगी। ‘सुभागी’ कहानी की सुभागी अपने कर्तव्य का ऐसे निर्वहन करती है कि उसके भाई पीछे छूट जाते हैं। अंततः यह कि प्रेमचंद की कहानी और उपन्यास की सफलता का राज ऐसे ही चरित्रों से मिल कर बना है, जिनमें भारतीयता और भारतभूमि की सुगंध सर्वव्याप्त है।
मुंशी जी पूरे ‘गोदान’ में गाँव की आदमियत और प्रकृति की अभिन्नता से शहर की चालबाजी और कृत्रिमता से टक्कर कराते रहते हैं और अपने आदर्श को साधते रहते हैं, पर उस यथार्थ को अंततः धूमिल भी नहीं होने देते जिससे ‘गोदान’ के महत्व को कमतर आँका जा सके।
जब हम प्रेमचंद को पढ़ते हैं तो देखते हैं वे घटनाओं की पेंच को बड़ी सहजता और सरलता से प्रस्तुत कर देते हैं। व्यक्ति अपने पर पड़ने पर कैसे छटपटाता है और दूसरे पर पड़ने पर कैसे प्रफुल्लित होता है? गाँव में व्याप्त दलालियों का फेर कैसा होता है? पुलिस के रुपये खाने की नियत कैसी होती है? ऐसे वाकये को प्रेमचंद सिर्फ एक पन्ने में साध देते हैं। उनकी कहानियों, उपन्यासों में गाँव का महाजन, बनिया और जमींदार; गाँव के उन गरीबों पर नजर बनाये रखते थे जो संकट और आपदा में होता था। जैसे ही उसपर संकट का पहाड़ टूटता ये लोग वहाँ पहुँच कर उसको 'चुपड़ी' सांत्वना के साथ तुरंत सूद (लोन) पर रुपये दे-देते थे। जो उस गरीब के क़ब्र के साथ उसके पीढ़ियों तक चलता था और अंततः उसकी पूर्ति पुस्तैनी जायदाद पर जाकर समाप्त होती थी। प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों में साफ दिखता है सेठ-साहूकार 'आपदा को अवसर में बदले थे।'
ध्यान देने की बात यह है वे समाज के कौन लोग थे? उनकी नियत क्या थी? वे आपदा को अवसर में क्यों बदलते थे? उनकी मंसा क्या थी? क्या आज वैसे लोग नहीं हैं?
वे टूटती रोती स्त्री के अस्मत पर हाथ डालते थे, वे संकट में फंसे किसान की बेटी का सौदा करते थे, वे उनके गायों-बैलों को खोल ले जाते थे, वे उनकी जमीन को हड़प लेते थे, उन्हें दाने-दाने को मोहताज कर देते थे और अंततः वह उन्हें बिना दाम का मजदूर बना लेते थे जो जीवन भर उनके लिए खटता था। क्या आज ऐसा नहीं होता है? होता है। सिर्फ तरीके बदले हैं, घटना का रंग बदला है, घटना का खोल बदला है लेकिन घटना का मूल वही है, घटना में व्याप्त लोग वही हैं।
‘गोदान’ में होरी का भाई हीरा जब वैमनस्यता-वश होरी की उधार लायी गाय को जहर खिला देता है तो उसकी तहकीकात को शहर से दारोगा जी का आगमन होता है। तब गाँव के सारे गिद्ध; दारोगा रूपी भेड़िये की अगुवाई में जमा हो जाते हैं और अपना-अपना पार्ट खेलने लगते हैं। होरी भारत के हर किसान की तरह अपने भाई-प्रेम और कुल-मर्यादा की इज्जत के खातिर कर्ज का एक और वार अपने ऊपर लेने को तैयार हो जाता है, पर धनिया के विद्रोह के चलते उसे पूरा नहीं कर पाता। उस यथार्थ का खेल और आज की प्रासंगिकता (आज जब किसी झगड़े में फौजदारी या थाने में रपट होने पर गाँव के दलाल, छुटभैया नेता या रसूखदार लोग दारोगा जी के इर्द-गिर्द घूम, मामले को घूस खा-खिला रफा-दफ़ा करवाते हैं) के साथ मेल कराइये और ‘गोदान’ का यह चित्र देखिए -
“कहाँ है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलासी लूँगा।’
पटेश्वरी ने आगे बढ़ कर दरोगा जी के कान में कहा- ‘तलासी लेकर क्या करेंगे हुजूर, उसका भाई आपकी तवेदारी के लिए हाजिर है।’
दोनों आदमी जरा अलग ले जाकर बातें करने लगे।
‘कैसा आदमी है?’
‘बहुत गरीब है हुजुर। भोजन का भी ठिकाना नही है।’
'सच?'
'हाँ, हुजूर, ईमान से कहता हूँ।'
'अरे, तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है?’
'कहाँ की बात हुजूर! दस मिल जायँ, तो हजार समझिए! पचास तो पचास जनम भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।'
दारोगाजी ने एक मिनट तक विचार करके कहा- ‘तो फिर उसे सताने से क्या फायदा? मैं ऐसों को नहीं सताता, जो आप ही मर रहे हों।’
(खेल चल रहा है ....ऐसे तब भी चलता था आज भी चलता है, दारोगा गाँव के ही किसी रसूखदार या नेता को लेकर आज भी गरीब के घर तहकीकात को पहुँचता है)
पटेश्वरी ने देखा, निशाना और आगे जा पड़ा। बोले- ‘नहीं हुजूर, ऐसा न कीजिए, नहीं फिर हम कहाँ जायँगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है?’
‘तुम इलाके के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो?’
'जब ऐसा ही कोई अवसर आ जाता है, तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं, नहीं पटवारी को कौन पूछता है?'
'अच्छा जाओ, तीस रुपये दिलवा दो; बीस रुपये हमारे, दस रुपये तुम्हारे।'
‘चार मुखिया हैं, इसका ख्याल कीजिए।'
‘अच्छा आधे-आध पर रखो, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।
(लेकिन धनिया के तेवर के आगे इन गिद्धों और भेड़ियों का वार खाली चला जाता है, परन्तु भेड़िया तो भेड़िया ठहरा उसे तो खुराक चाहिए ही। दारोगा दलालों पर ही टूट पड़ता है। कभी-कभी आज का दलाल भी फंस जाता है)
........
‘हुजूर के पन्द्रह गये।'
‘मेरे कहाँ जा सकते हैं? वह न देगा गाँव का मुखिया देंगे और पन्द्रह की जगह पूरे पचास रूपये। आप लोग चटपट इंतजाम कीजिये।'
मगर हुजुर...?
'मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता।'
झिंगुरीसिंह ने साहस किया- ‘सरकार, यह तो सरासर.....’
'मैं पन्द्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपये न आये, तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गण्डासिंह को जानते हो? उसका मारा पानी भी नहीं माँगता।'
पटेश्वरीलाल ने तेज स्वर में कहा- ‘आपको अख्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाय।'
'मैंने पचीस साल थानेदारी की है, जानते हो?'
'लेकिन ऐसा अन्धेर तो कभी नहीं हुआ।'
'तुमने अभी अन्धेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूँ? एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बायें हाथ का खेल है। एक डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना!'
चारों सज्जन चौपाल के अन्दर जाकर विचार करने लगे। फिर क्या हुआ, किसी को मालूम नहीं। हाँ, दारोगाजी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे और चारों सज्जनों के मुँह पर फटकार बरस रही थी।
दारोगा घोड़े पर सवार होकर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे;
(अब उन्हीं सज्जनों का अपने पर पड़ने पर रंग देखिए, उनका दर्द जाग उठता है, उनका श्राप जाग जाता है, उनका तेवर जाग जाता है। यही प्रेमचंद की खूबी है वे पात्रों के दोनों चरित्रों को उजागर करते हैं, वह भी एक ही व्यक्ति के,एक ही समय में)
इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों।
सहसा दातादीन बोले- ‘मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ।'
नोखेराम ने समर्थन किया- ‘ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।'
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी की- ‘हराम की कमाई हराम में जायगी।'
झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में सन्देह हो गया था।
भगवान् न जाने कहाँ है कि यह अन्धेर देखकर भी पापियों को दण्ड नहीं देते। इस वक्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक थी।”15
प्रेमचंद गंभीरबोध-शैली के लेखक नहीं हैं। हालाँकि उनका उद्देश्य अत्यंत गंभीर होता है, पर उसे प्रस्तुत करने का तरीका अपेक्षाकृत कम गंभीर होता है। वे अपनी बात को उस गंभीरता के साथ नहीं कहते हैं, जिस गंभीरता से कहने लायक वह होती है। उनकी गंभीर बातों में भी एक हल्का-सा मजाकियापन होता है। ‘ईदगाह’ कहानी हो या ‘कफ़न’ हो, ‘बुढ़ी काकी’ हो या ‘मंत्र’ हो, ‘गोदान’ हो या ‘रंगभूमि’ हो सबमें एक मजाकियापन मौजूद है। वे दुःख-दर्द को भी मज़ाकिया लहजे में कहते हैं। शायद! ऐसा करने की वजह भी स्वभावतः प्रकृति-प्रदत्त हो। गाँव का किसान कितना भी कर्ज, दुख, त्रासदी में डूबा हुआ होता है लेकिन होली मनाता है, दीवाली मनाता है, शादी-ब्याह करता है क्योंकि उसकी प्रेरणा उसे प्रकृति से प्राप्त है। यदि किसान का हृदय ऐसा न होता तो वह प्रकृति के बार-बार प्रहार से कब का विलुप्त हो चूका होता। किन्तु प्रकृति के इस टकराव ने उसे दुखों को दरकिनार कर खुशियों में प्रतिभाग करने की अपार शक्ति दी है। वह शक्ति प्रेमचंद से भी अछूती नहीं है, इसीलिए उनकी कहास जिन्दादिली की है न की गम्भीरबोध की। वस्तुतः यह शैली पहले से चली आती परम्परा से भी जुड़ी हो सकती है। भारतेन्दु के समय जो नाट्य परम्परा का विकास हुआ उसमें व्यंग्यात्मक हसोंमुखता की बहुलता देखी जा सकती है, वही मजाकियापन प्रतापनरायण मिश्र आदि के निबंधो में भी दिखलाई देता है। तिलस्मी, एयारी, होशरुबाकी कहानियों-उपन्यासों में तो यह हसोंमुखता भरी पड़ी है, जिसका प्रभाव मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर पड़ा हो इससे नकारा भी नहीं जा सकता है।
प्रेमचंद ऐसे कथाकार थे जो अपने साहित्य में भावों का सामंजस्य रखते थे। वे न तो केवल तर्क की बात करते थे, न तो केवल व्यावहारिकता की; वे तर्क, व्यावहारिकता और उसके उदाहरण के साथ उपस्थित होते थे। उसी तरह प्रेमचंद साहित्य का विश्लेषण भी तर्क और व्यावहारिकता के साथ होगा तभी उनका महत्व स्पष्ट होगा। केवल तर्क या केवल व्यावहारिकता प्रेमचंद साहित्य का विश्लेषण कर पाये, ऐसा संभव नहीं है।
संदर्भ :
1- साहित्य का उद्देश्य, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-3
2- कायाकल्प, मुंशी प्रेमचंद, साधना पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 2017, पृष्ठ-90
3- साहित्य का उद्देश्य, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-4
4- साहित्य का उद्देश्य, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-14
5- साहित्य का उद्देश्य, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-11
6- हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, विजय प्रकाशन मंदिर, वाराणसी 2014, पृष्ठ-360
7- प्रेमचंद और उनका युग, डॉ० रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2018, पृष्ठ- भूमिका से
8- प्रेमचंद और उनका युग, डॉ० रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2018, पृष्ठ-28
9- सभ्यता का रहस्य, मुंशी प्रेमचंद, ‘प्रेमचंद की सम्पूर्ण कहानियां’, सुमित्र प्रकाशन, इलाहाबाद 2010, पृष्ठ-777
10- भुत, प्रेमचंद, ‘प्रेमचंद की सम्पूर्ण कहानियाँ’, सुमित्र प्रकाशन, इलाहाबाद 2010, पृष्ठ-768
11- गोदान, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-42
12- गोदान, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-63
13- गोदान, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-67
14- साहित्य का उद्देश्य, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-10
15- गोदान, मुंशी प्रेमचंद, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी 2017, पृष्ठ-88/89/90
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
प्रेमचंद के कथा साहित्य की प्रासंगिकता पर शानदार लेख है।
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