शोध सार : किसी भी लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में नियमित चुनाव का होना एक आम प्रक्रिया होती है। भारत के सन्दर्भ में भी यह पूरी तरह से सच है, जहाँ चुनाव नियमित रूप से होते रहते हैं। सरकार का संघीय रूप होने के कारण जहाँ चुनाव ना सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर सरकार चुनने के लिए होते है बल्कि राज्य की विधानसभाओं के लिए भी नियमित रूप से चुनाव होते रहते हैं।1992 में 73वें व 74वें संवैधानिक संशोधन के पश्चात् भारतीय लोकतंत्र का विकेंद्रिकरण हुआ है तथा अब स्थानीय स्तर पर भी पंचायतों, नगरपालिकाओं, जिला परिषद् इत्यादि के लिए चुनाव होते हैं। मतदान व्यवहार का अध्ययन इस बात की जांच करता है कि लोग कैसे मतदान करते हैं और वह अपना मतदान पर कैसे निर्णय लेते हैं। इसमें विशिष्ट निर्धारकों की पहचान भी शामिल है जो एक मतदाता को मतदान के विकल्प पर पहुंचने में मदद करते हैं। मतदान व्यवहार का अध्ययन हमें आम आदमी की जरूरतों और आकांक्षाओं से अवगत करवाता है।भारत में चुनावी अध्ययन की शुरुआत आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी परन्तु समय के साथ इसके विस्तार वह अध्ययन पद्धति में अधिक विकास हुआ है तथा चुनावी अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक बनाया गया है| इस अध्ययन में भारत मेंचुनावी अध्ययन के विकासक्रम को दर्शया गया है जिसके लिए विश्लेष्णात्मक अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया गया है|
बीज शब्द : शब्द-मतदान व्यवहार,
राजनीतिक व्यवहार,
चुनाव अध्ययन,
लोकनीति,
राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन
मूल आलेख : मतदान व्यवहार को राजनीति विज्ञान के अध्ययन के क्षेत्र के रूप में माना जाता है जिसका अध्ययन वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप से किया जा सकता है। परंपरावादी मुख्य रूप से संस्थानों, संगठनों आदि के व्यवहार और कार्यों के अध्ययन से संबंधित थे। उन्होंने अन्य सामाजिक और भौतिक विज्ञानों से प्राप्त मॉडल, तकनीकों, विधियों की मदद से व्यक्तियों के राजनीतिक व्यवहार का विश्लेषण करना शुरू किया। मतदान व्यवहार या चुनावी व्यवहार न केवल राजनीतिक व्यवहार बल्कि राजनीतिक भागीदारी के साथ भी निकटता से जुड़ा हुआ है। परन्तु यहाँ यह समझना महत्यपूर्ण है कि राजनीतिक व्यवहार और राजनीतिक भागीदारी का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है जबकि चुनावी व्यवहार उनका एक हिस्सा है। राजनीतिक भागीदारी में राजनीतिक चर्चा, निर्णय लेने में भागीदारी आदि शामिल हैं। राजनीतिक व्यवहार एक विशेष सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में होता है। यह सामाजिक संरचना, आर्थिक विकास और ऐतिहासिक कारकों से प्रभावित होता है।लोकतंत्र में चुनावी व्यवहार का अध्ययन और भी आवश्यक हो जाता है।मतदाताओं के व्यवहार को आकार देने में श्रव्य-दृश्य और प्रिंट मीडिया निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मतदान व्यवहार के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण मुद्दा जांच करने और पता लगाना है कि मतदाता किस प्रकार निर्णय लेता है कि वह क्यों,
किसके लिए मतदान करने जा रहा है। यह पहलू कई कारकों पर निर्भर करते हैं जैसे मतदाता का समझ, विभिन्न प्रभाव, जिसके अधीन वह है, राजनीतिक घटनाओं पर उसकी अपनी धारणा, सरकार पर राय, उम्मीदवार के राजनीतिक दल का मूल्यांकन इत्यादि ये सभी कारक मतदाताओं को निर्णय लेने में प्रभावित करते हैं। वोट किसे देना है, इस बारे में निर्णय का समय भी मतदाताओं की राजनीतिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों के साथ उनकी पहचान पर निर्भर करता है।मतदान व्यवहार का अध्ययन सिर्फ मतदान के आकड़ों को एकत्रित करना या चुनावी बदलाव की गणना करना नही होता है बल्कि इसका अर्थ इससे कही आगे व्यक्तिगत मनोविज्ञान,
धारणा वह भावनाओं का उनके वोट के निर्णय,
उनकी राजनीतिक क्रिया व उसका चुनावों पर क्या प्रभाव है,
उसका विश्लेषण है।
अध्ययन का उदेश्य
1. मतदान व्यवहार के अध्ययन की आवश्यकता का अध्ययन करना ।
2. भारत में मतदान व्यवहार व चुनावी राजनीति के अध्ययन के विकास का अध्ययन करना।
3. मतदान व्यवहार के अध्ययन में सीएसडीएस की भूमिका का अध्ययन करना।
शोध प्रविधि
इस शोध लेख का उदेश्शय भारत में मतदान व्यवहार व चुनावी राजनीति के अध्ययन के विकास का विश्लेष्णात्मक अध्ययन करना है। अध्ययन के लिए द्वितीयक स्त्रोतों का प्रयोग किया गया है, जिसमे मुख्य रूप से सीएसडीएस, लोकनीति द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट्स का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त शोध पुस्तकें, पत्रिकाएं,
लेख तथा वेबसाइट इत्यादि का प्रयोग किया गया है तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन पद्धति को अपनाया गया है।
मतदान व्यवहार के अध्ययन की आवश्यकता
भारतीय चुनाव आयोग के द्वारा मात्रात्मक रूप से पूरी चुनावी प्रक्रिया की आधिकारिक जानकारी सार्वजानिक की जाती है। परन्तु चुनाव आयोग मतदान व्यवहार वह मतदाताओं के दृष्टिकोण से सम्बंधित किसी प्रकार का कोई आंकड़ा एकत्रित नहीं करता है तथा ना ही मतदान व्यवहार को समझने हेतु किसी प्रकार की कोई जानकारी सार्वजनिक की जाती है। चुनाव आयोग से हमें यह जानकारी नही मिलती है कि किस जाति वह सामाजिक समूह का मतदान व्यवहार चुनाव में किस दल के प्रति सकारात्मक रहा है,
वह कौन का दल किस जाति,
वर्ग,
आयु के लोगों को अधिक आकर्षित करने में कामयाब रहा है|
इसके अतिरिक्त भी चुनावों से सम्बंधित कई सवाल होते है जिनकी जानकारी चुनाव आयोग से प्राप्त नही होती है। उदाहारण के लिए नौजवानों के मतदान व्यवहार व बुजुगों के मतदान व्यवहार में क्या अंतर है?
क्या महिलाएं अपने वोट का निर्णय स्वतन्त्र रूप से कर रही है या अपने पति या पिता के निर्णय पर वोट कर रही है?
किसी विशेष चुनाव में कौन सा मुद्दा ज्यादा प्रभावी है तथा कौन सा कम प्रभावी है?
चुनाव आयोग द्वारा उपलब्ध किए गए आंकड़ों के माध्यम से बहुत से सवालों के जबाब नही मिलते है। जैसे क्या भारत के मुस्लिम समुदाय दक्षिणपंथी पार्टियों को वोट देते हैं?
या क्या वह सामूहिक व रणनीतिक रूप से किसी दल को हराने के लिए मतदान करते है?
‘उच्च जातियां’
पारम्परिक रूप से राष्ट्रीय दलों की समर्थक मानी जाति है,
क्या वह किसी राज्य मे अन्य क्षेत्रीय पार्टी को अधिक समर्थन करती है?
दलितों तथा आदिवासियों का चुनावों में मतदान प्रतिरूप क्या रहता है?
क्या एससी/
एसटी की पहचान पर आधारित राजनैतिक दल इन समुदायों के वोटों को अपने पक्ष में कर पाए है?
राष्ट्रीय स्तर पर वह राज्यों के स्तर पर दलों के समर्थन का आधार क्या है?
तथा उनका मतदान किस वर्ग,
जाति,
व्यवसाय से सम्बंधित रखता है?
इन सब सवालों के जबाब किसी भी लोकतंत्र के सामाजिक अध्ययन के लिए बहुत आवश्यक हो जाते है। परन्तु चुनाव आयोग के द्वारा इन प्रश्नों पर अध्ययन नही जाता है। मतदान व्यवहार के अध्ययन व चुनावी अध्ययनों में इन्ही सवालों के जवाब को ढूंढने व समझने का प्रयास किया जाता है|
भारत में चुनावी अध्ययन का विकास
भारत में मतदान व्यवहार को अध्ययन व जाँच करने का उद्देश्य लगभग उसी प्रकार का है जिस उद्देश्य से मतदान व्यवहार को अन्य देशो में अध्ययन किया जाता है। जिसमे कुछ विशेषताए होती है जोकि किसी देश के लिए बाकि दुनिया से अलग होती है। भारत में चुनावी अध्ययन करने लिए हमें यह जानकारी होनी चाहिए की चुनावी अध्ययन के लिए हमें मुख्य आंकड़ों के लिए आधिकारिक स्त्रोत क्या है?
तथा भारत के चुनाव आयोग ने चुनावी आकड़ों को कब तक तथा किस प्रकार से संग्रहीत किया हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात् हुए सभी लोकसभा तथा विधानसभा चुनावो के परिणाम तथा उससे जुड़े विभिन्न आंकडें भारतीय चुनाव आयोग द्वारा एकत्रित रखे गए है। यह आकड़ें सार्वजानिक तौर पर भारतीय चुनाव आयोग की अधिकारिक बैबसाईट पर एकत्रित रहते है जिन्हें आसानी से उपलब्ध करवाया जा सकता है। भारतीय चुनाव आयोग के द्वारा निम्नलिखित सूचना सार्वजानिक तौर पर उपलब्ध करवाई जाती है-
(1) संसदीय व राज्य विधानसभा के चुनावों में मतदान करने वाले मतदाताओं की संख्या (2)
भारतीय चुनाव आयोग उम्मीदवारों द्वारा दाखिल हलफ्नामा जिसमे उम्मीदवार अपनी व्यक्तिगत जानकारी जैसे उसके खिलाफ कितने न्यायिक मामले लंबित है या उसकी संपत्ति इत्यादि को भी सार्वजनिक किया जाता है (3)
एक विशेष चुनाव में चुने गए अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों की संख्या (4)
चुनाव में भाग लेने वाले दल व उनको मतदान में हासिल होने वाला मतदान प्रतिशत (5)
चुनाव में प्रतियाशियों की नाम सहित संख्या इत्यादि।
मतदान व्यवहार व मतदाताओं के दृष्टिकोण को समझना व उन्हें आंकड़ों के रूप में प्रस्तुत करना चुनावी अध्ययन का मुख्य लक्ष्य होता है। चुनावी अध्ययन के क्षेत्र में पिछले कुछ बर्षों में काफी तेजी आई है।लोकसभा के चुनाव हो या किसी राज्य विशेष में विधानसभा के चुनाव हो बड़ी संख्या में अलग-अलग संस्थाओं द्वारा जनमत सर्वेक्षण करवाए जाते है तथा लोगो के मतदान व्यवहार को समझने की कोशिश की जाती है।
आरंभिक चुनावीअध्ययन
दुनिया के सन्दर्भ में सर्वेक्षणों के आधार पर चुनावी अध्ययन व मतदान व्यवहार को अध्ययन करने की शुरुआत डा.
गल्लुप के द्वारा स्थापित अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन 1935
के माध्यम से की गई थी। डा.
गल्लुप के द्वारा अपने अध्ययनों में न सिर्फ अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों का सटीक अनुमान लगाया बल्कि अमेरिकी मतदातों के मतदान व्यवहार का भी व्यापक विश्लेष्ण किया|
भारत में चुनावी सर्वे व मतदान व्यवहार को अध्ययन करना कोई नई प्रवृति नही है। बल्कि आजादी के बाद 1950
के दशक से ही मतदान व्यवहार को अध्ययन व चुनावी सर्वे करवाए जा रहे है। वर्तमान में सोशल मीडिया व डिजिटल मीडिया के कारण मतदान व्यवहार के अध्ययन को और अधिक प्रसिद्धि मिली है।
1950 के दशक में ही अमेरिकी संगठन अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन के आधार पर इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन का गठन डा एरिक डा.
कोस्टा के द्वारा किया गया था।
1957 में दुसरे लोकसभा चुनावों से पहले भारत में पहला देशव्यापी चुनावी सर्वे किया गया तथा सर्वे में भारतीय मतदाताओं पर उनके व्यवसाय,
जाति,
धर्म इत्यादि का उनके मतदान व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है इस पर मुख्य जोर दिया गया तथा इसी सर्वे में नेताओं की लोकप्रियता को भी रिपोर्ट किया गया। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन के द्वारा 1980
तक चुनावी सर्वे किए गए तथा मतदान व्यवहार को अध्ययन किया गया परन्तु 1980
के पश्चात् इस सगठन ने चुनावी अध्ययन करना बंद कर दिया। इसके अलावा 1950
के दशक में एस.
वी.
कोगेकर के द्वारा किए गए चुनावी अध्ययन प्रमुख है इन्होने राज्य वार अध्ययन किया तथा वर्णात्मक व सामान्य प्रकृति की रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसका मुख्य उदेश्य दलों के गठबंधन,
प्रत्याशियों का चयन,
तथा मीडिया के रोल व मतदाताओं की जागरूकता को अध्ययन करना था जिसके लिए राज्य वार राजनीतिक वैज्ञानिको के माध्यम से राज्य विशेष की व्यापक चुनावी रिपोर्ट प्रस्तुत की गई।
1950-60 के दशक में कुछ व्यक्तिगत राजनीतिक विश्लेषको के द्वारा भी मतदान व्यवहार को अध्ययन किया गया जिसमे वी.
एम.
सिर्सिकर के द्वारा पूना लोकसभा क्षेत्र का अध्ययन प्रमुख है,
जोकि 1962
के आम चुनावों में किया गया था तथा इस चुनावी अध्ययन के लिए सैंपल सर्वे का प्रयोग किया गया था।एक अन्य चुनावी अध्ययन मायरोंन वीनर व जॉन ऑसगुड के द्वारा एम्आईटी सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज के लिए किया गया था। इस प्रोजेक्ट को एम्आईटी इंडियन इलेक्शन डाटा प्रोजेक्ट के नाम से जाना जाता है जिसकी स्थापना 1968
में की गई थी। उन्होंने अपने आंकडें स्टडीज इन इलेक्टोरल पॉलिटिक्स इन दि इंडियन स्टेट नाम पुस्तक में प्रदर्शित किए।इनका मुख्य उदेश्शय 1952
से भारत के चुनावों का कंप्यूटर आधारित अध्ययनों की श्रृंखला शुरू करना था। इन्होने भारत के राज्य विधानसभाओं पर ध्यान केन्द्रित किया जिसमे 3000
से अधिक निर्वाचन क्षेत्र शामिल थे।
सीएसडीएस सर्वे (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवेलपिंग सोसाइटीस)
अखिल भारतीय स्तर पर सर्वेक्षणों के आधार पर चुनावों का संस्थागत अध्ययन 1960
के दशक में सेण्टर फॉर द स्टडीज ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस)
के द्वारा शुरू किया गया। यह अध्ययन ‘राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन’
(एनइएस) के नाम से जाना गया।
1967 में पहली बार भारतीय मतदाताओं के व्यवहार व दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करने का आयोजन किया गया। राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन का तात्कालिक उदेश्शय भारतीय मतदाताओं के व्यवहार व दृष्टिकोण को मापना व चुनावी नतीजों की विस्तृत व्याख्या करना था। राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन 1967
के द्वारा देश के चुनावी रुझान व प्रतिरूप को विस्तार से प्रस्तुत किया गया। इस अध्ययन में पहली बार देश के स्तर पर बड़े सैंपल सर्वे के साथ देश के मतदाताओं के राजनीतिक व्यवहार व राजनीतिक दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तरीकों के साथ अध्ययन किया गया। इस सर्वे की मुख्य विशेषता इसमें अपनाई गई अध्ययन अनुसंधान विधि थी जिसमे संभाव्यता सैम्पलिंग,
गहन प्रश्नावली शामिल था। इस अध्ययन में रैंडम सैंपलिंग का प्रयोग किया गया तथा यह प्रयास किया गया कि भारतीय समाज के बीच सभी विविधताओं का प्रतिनिधित्त्व शामिल हो। दलों की प्रतिस्पर्धा के आधार पर स्तरीकृत करके कुल 55
लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों को चुना गया।
1967 के अध्ययन के पश्चात् दूसरा राष्ट्रीय चुनावी अध्ययन 1971
में आयोजित किया गया।1967
के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन की सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसमें महिलाओं को सैंपल के लिए नही चुना गया था। महिलाओं को सैंपल के लिए नही चुने जाने का सबसे बड़ा कारण यह समझ थी कि पुरुषों व महिलाओं के मतदान व्यवहार में कोई खास अंतर नही होता है। इस कमी को राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन 1971
में दूर कर लिया गया तथा महिलाओं को भी सैंपल में शामिल किया गया ताकि महिलाओं के मतदान व्यवहार व दृष्टिकोण को भी पुरषों से अलग समझा जा सके। सीएसडीएस के द्वारा सिर्फ चुनावी नतीजों का अनुमान लगाने को ही अपना एकमात्र उदेश्य नही माना गया बल्कि लोगों का राजनीतिक व्यवहार,
प्रमुख रुझान व प्रतिरूप को समझने का प्रयास किया गया।
सीएसडीएस द्वारा करवाए जाने वाले चुनावी अध्ययन की सबसे प्रमुख विशेषता उनके द्वारा सर्वेक्षण के लिए तैयार की गई विस्तृत प्रश्नावली थी। इस प्रश्नावली के लिए मतदाताओं के आमने -
सामने घंटों बैठ कर उनके जबाव लिए जाते थे। इस प्रश्नावली में 200
से लेकर 300
तक प्रश्न शामिल होते थे। इन प्रश्नावली का निर्माण सिर्फ तात्कालिक चुनावों के अध्ययन के लिए नही बल्कि राजनीतिक विषयों की एक व्यापक समझ बनाने की उदेश्य से तैयार किया जाता था,
बल्कि अधिक महत्त्व राजनीतिक व्यवहार,
मतों व रुझानों की व्यापक विषय वस्तु को दिया जाता था।
सीएसडीएस के द्वारा जहाँ 1980
के चुनावों के अध्ययन के पश्चात् राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के कार्यक्रम को रोक दिया गया था,
1990 के दशक के मध्य में बड़े व्यापक रूप पर द्वारा शुरू किया गया। सीएसडीएस के द्वारा 1996
के संसदीय चुनावों में राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन की योजना बनाई गई तथा लोकतंत्र के तुलनात्मक अध्ययन के लिए ‘लोकनीति’
प्रोग्राम का आरम्भ किया गया।
1996 के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन में मतदाताओं के व्यवहार को अध्ययन के लिए पैनल डिजाईन सैम्पल का प्रयोग किया गया जिसे तीन दौर में पूरा किया जाना था अर्थात चुनाव-पूर्व,
चुनाव के बीच में,
तथा मतदान के पश्चात्। पैनल डिजाईन सैम्पल में जिन मतदाताओं को एक बार सैम्पल के लिए चुना गया उन्ही मतदाताओं को अगली बार भी साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। तीनों ही स्तरों पर 9000
से अधिक मतदाताओं को सैंपल के लिए चुना गया। इसके अतिरिक्त इन चुनावों में ‘लोकनीति’
के द्वारा 17,604
मतदातों के बहुत बड़े सैम्पल के आधार पर एक एग्जिट पोल का भी आयोजन सीएसडीएस के द्वारा किया गया। जिसने बड़े स्तर पर राजनीतिक वैज्ञानिक व राजनीतिक विश्लेषकों को भारतीय राजनीति को समझने में मदद मिली।
1996
के सफल राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के पश्चात् संस्थान के द्वारा 1998
के लोकसभा चुनाव का अध्ययन दो दौर अर्थात चुनाव-पूर्व सर्वे और मतदान के बाद सर्वे किए जाने का निर्णय लिया गया।इसमें भी पैनल डिजाईन सर्वे को ही माध्यम बनाया गया तथा 1996
के चुनावी अध्ययन में जिन लोगों की प्रतिकिया ली गई थी उन्ही मतदाताओं से प्रतिक्रिया लिया जाने का निर्णय लिया गया। परन्तु 1999
के लोकसभा चुनाव में सीएसडीएस के द्वारा दो -
तीन स्तरों पर होने वाली सैंपलिंग को छोड़ सिर्फ मतदान के पश्चात् अर्थात पोस्ट पोल सर्वे तक सीमित करना पड़ा जिसका मुख्य कारण आर्थिक संसाधनों की कमी थी। राष्ट्रव्यापी बड़े सैंपल के सर्वे करने के लिए बड़े स्तर पर संसाधनों की आवश्यकता थी अतः1996
के पश्चात् लगातार लोकसभा चुनाव होने के कारण अलग –
अलग स्तरों पर सर्वे करना संभव नही हो पाया तथा सीएसडीएस के द्वारा 1999
के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन में सिर्फ पोस्ट पोल सर्वे करने का निर्णय लिया गया।
1999 के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन में उसी पैनल का साक्षात्कार फिर से लिया गया जिनका चयन 1996
व 1998
के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन ले लिए किया गया था। इस प्रकार 1996
के लोकसभा चुनाव के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन से लेकर 1999
के लोकसभा चुनावों के अध्ययन तक छह दौर के सर्वे हुए जिन्होंने भारतीय जनमानस के मुद्दों,
अवधारणाओं को समझने में मुख्य भूमिका निभाई।
सीएसडीएस ने अपनी राष्ट्रीय चुनावी अध्ययन की परम्परा को समय के साथ और अधिक विस्तार दिया तथा क्रियाविधि को भी अधिक वैज्ञानिक बनाने का प्रयास किया है।
2014 के चुनावी अध्ययन में पहली बार चुनावों को ट्रैक करने की नीति अपनाई गई तथा 2014
के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन में संस्थान के द्वारा पहली बार चुनाव से लगभग एक साल पहले से ही लोगों के भाव को मापना शुरू कर दिया था। जुलाई 2013
में ही 2014
के लोकसभा चुनाव के अध्ययन का कार्य शुरू कर दिया गया जिसमे प्रोबलिटी परपोर्श्नल टू साइज़ मेथड के आधार पर देश के लगभग 267
लोकसभा क्षेत्रों के सैंपल के आधार पर देश की राजनीतिक स्थिति को देखा गया। इसी के तहत दूसरा ट्रैकर 18
राज्यों के अंदर जनवरी 2014
में पूरा किया तथा तीसरा ट्रैकर 6
राज्यों में फरवरी 2014
में पूरा किया गया। चुनावों की ट्रैक करने की इस नई परम्परा के साथ-साथ पुरानी परम्परा प्री-पोल सर्वे वह पोस्ट-पोल सर्वे का भी आयोजन किया गया। वही 2019
के लोकसभा चुनावों में भी मल्टीस्टेज सैंपल के आधार पर प्री-पोल वह पोस्ट-पोल सर्वे के माध्यम से चुनावी अध्ययन को पूरा किया गया।
सीएसडीएस के द्वारा 1960
के दशक से ही ‘राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन’
के माध्यम से देश के लोकसभा चुनावों का अध्ययन किया जा रहा है इसमें अपवाद के रूप में 1980
के पश्चात् व 1996
के लोकसभा चुनाव से पहले के चुनाव है जब अध्ययन की यह श्रंखला टूट गई थी। सीएसडीएस के द्वारा लोकसभा चुनाव के अध्ययनों के साथ –
साथ ही 1995
के बिहार विधानसभा चुनाव से राज्यों के विधानसभा चुनावों के अध्ययन को भी शामिल किया गया है।
1995 के पश्चात् लगभग प्रत्येक विधानसभा चुनावों का अध्ययन किया जा रहा है ताकि राज्य की राजनीति में होने वाले बदलावों को भी समझा जा सके।
एथनोग्राफिक अध्ययन
चुनावी अध्ययनों में सर्वे तकनीक ही अधिक लोकप्रिय रही है परन्तु कुछ विश्लेषकों के द्वारा केस अध्ययन या एथनोग्रफिक अध्ययन के प्रयोग से भी लोगो के मतदान व्यवहार को अध्ययन करने का प्रयास किया गया है।एथनोग्रापिक अध्ययन में प्रतिभागी अवलोकन के माध्यम से लोगो के व्यवहार को समझने का प्रयास किया जाता है जहा अनुसंधानकर्ता कई दिनों तक उन्ही लोगों के साथ समय व्यतीत करता है जिस समूह को सैंपल के लिए चुना गया है। इस अध्ययन में मात्रात्मक परिणामों की अपेक्षा गुणात्मक परिमाणों पर अधिक बल दिया जाता है। पॉल ब्रान्स के द्वारा सबसे पहले 1977
व 1980
के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के 5
निर्वाचित क्षेत्रों में केस अध्ययन किया गया(पॉल,
1984)
। समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास और ए एम शाह के द्वारा 1960
के दशक में मतदाताओं के व्यवहार को अध्ययन करने के लिए सहभागी अवलोकन का प्रयोग किया गया(श्रीनिवास &
शाह,
2007)।इसके अतिरिक्त मुकुलिका बनर्जी के द्वारा 2007
में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मतदान व्यवहार को अध्ययन करने के लिए गाँव में एथनोग्रफिक अध्ययन का आयोजन किया गया।इन अध्ययनों में सहभागी अवलोकन के माध्यम से मतदाताओं के मतदान व्यवहार को मापने का प्रयास किया गया था,
तथा उसके गुणात्मक आयामों को प्रस्तुत किया गया।
मुकुलिका बनर्जी के द्वारा बंगाल के विधानसभा चुनाव में दो गाँव में एथनोग्राफिक अध्ययन का आयोजन किया गया,
इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य गुणात्मक रूप से यह समझना था की लोगो में मतदान को लेकर आखिर इतना उत्साह क्यों रहता है।बंगाल के विधानसभा चुनाव का अध्ययन सिर्फ दो गावं के अध्ययन पर आधारित था परन्तु 2009
के लोकसभा चुनावों के दौरान व्यापक रूप से एथनोग्रफिक चुनावी अध्ययन का आयोजन किया गया,
जहाँ पहले सिर्फ एक विशेष क्षेत्र का अवलोकन किया जाता था,
अब देश के अलग-अलग 12
जगहों पर एथनोग्रफिक अध्ययन का प्रोजेक्ट चलाया गया। इस अध्ययन के संचालन का उद्देश्य भारतीय चुनावों के बड़ेपैमाने पर किए गए सर्वेक्षणों और स्थानीय स्तर पर किए गए सह्भागितामुलक अनुसंधानों की शक्तियों को एक साथ मिलाकर तुलनात्मक अध्ययन करना था। इस अध्ययन को ‘काम्पेरेटिव इलेक्टोरल एथनोग्रफिक प्रोजेक्ट’
के नाम से मुकुलिका बनर्जी के द्वारा सीएसडीएस दिल्ली के सहयोग से पूरा किया गया। इस अध्ययन के अंतर्गत मुकुलिका बनर्जी के द्वारा अपने 12
सहयोगियों को क्षेत्रीय विशेषज्ञ के साथ देश के अलग-अलग 12
राज्यों में भेजा गया जिसमे एक बिहार,
छतीसगढ़,
दिल्ली,
गुजरात,
केरल,
मध्यप्रदेश,
महाराष्ट्र,
राजस्थान,
तमिलनाडू,
तथा पश्चिम बंगाल शामिल थे(मुकुलिका 2014)।
इसके अतिरिक्त मनीषा प्रियंम के द्वारा भी अपने चुनावी अध्ययनों में एथनोग्राफिक अध्ययन का प्रयोग किया गया है। मनीषा प्रियंम के द्वारा साउथ दिल्ली के अनाधिकृत कालोनी संगम विहार में 2014
के लोकसभा चुनाव में लोगो के मतदान व्यवहार को जानने का प्रयास किया गया जिसमे 2013
में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भी यहाँ अध्ययन का एक दौर चलाया गया था। इस अध्ययन को लगभग आठ महीनें तक चलाया गया। इसका मुख्य उद्देश्य केवल राजनीतिक पसंद का पता लगाना नही था बल्कि विस्तृत रूप से लोगों के राजनीतिक,
सामाजिक,
आर्थिक व्यवहार को समझना था। संगम बिहार एक अनाधिकृत कालोनी है जहाँ लगभग ढाई लाख की आबादी रहती है जोकि अधिकतर उत्तर प्रदेश वह बिहार से आए हुए लोग है तथा अधिकतर निम्नवर्गीय परिवार है जहाँ पानी भी टैंकर के द्वारा पहुचाया जाता है(प्रियम,
2015)
1990
के दशक के बाद चुनावी अध्ययन
बदलते समय के साथ मतदान व्यवहार के अध्ययन को और अधिक वैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत किया जाने लगा है तथा 1990
के दशक में चुनावो से पहले जनमत सर्वेक्षणों के माध्यम से चुनावी नतीजों का अनुमान लगाया जाने लगा। इसमें सबसे प्रमुख डा.
प्रणय राय ने चुनावों के समय जनमत सर्वेक्षणों के माध्यम से देश के मतदाताओं के मिजाज को दर्शाने को लोकप्रिय बनाया।डा.
राय के द्वारा जनमत सर्वेक्षणों को वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करने का प्रयास किया गया ताकि चुनावी अध्ययन व चुनावों में दलों को मिलने वाले मत प्रतिशत की भविष्यवाणी वैज्ञानिक तरीके से की जा सके। इसी के तहत 1989
के चुनावों में डॉ राय के द्वारा मार्केटिंग एंड रिसर्च ग्रुप के साथ मिल कर ‘एग्जिट पोल’
किया जोकि मतदान केंद्र पर वोट डाल कर बाहर आए 7700
मतदाताओं के साक्षात्कार पर आधारित था।
1990 के दशक में ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया का प्रचार प्रसार बड़ा तथा चुनावों के दौरान जनमत सर्वेक्षण तथा वोटिंग के पश्चात् एग्जिट पोल काफी लोकप्रिय हुए।
1990 के दशक में चुनावी अध्ययनों वह चुनावी सर्वेक्षणों की बडती लोकप्रियता के कई कारण माने जाते है (1) इसने मतदाताओं तथा साथ ही साथ राजनीतिक दलों में भी मतदाताओं की पसंद,
मुद्दे वह धारणाओं को देखने समझने के लिए उत्सुक किया (2)
मीडिया व राजनीतिक विशलेषकों के लिए महत्यपूर्ण आंकड़े मिले जिसके आधार पर मतदान व्यवहार,
मुख्य चुनावी ट्रेंड्स व पैटर्न्स को समझा जा सकता था(संजय&
राय,2013)।
निष्कर्ष : चुनावी अध्ययन का विस्तार 1990 के दशक के बाद बडे पैमाने पर हुआ है। यह एक बाजार के रूप में विकसित हुआ है जहाँ विभिन्न संस्थानों के द्वारा समय- समय पर लोगों के मतदान व्यवहार को समझने के लिए कार्य किया जाता है।इन कार्यों को मीडिया के माध्यम से प्रचारित किया जाता है।21वी शताब्दी के आरम्भ से ही जनमत सर्वेक्षणों के माध्यम से किए जा रहे चुनावी अध्ययनों में और अधिक वृधि व लोकप्रियता देखी गई।मीडिया के द्वारा विभिन्न अनुसंधान संगठनों की सहायता से जनमत सर्वेक्षण करवाए जाने लगे है। मतदाताओं के व्यवहार को समझने व लोगों के मुद्दे व धारणाओं को समझने के लिए कई संस्थान सामने आए जिन्होंने चुनावों से पहले जनमत सर्वेक्षणों के माध्यम से चुनावी नतीजों की भविष्यवाणी की है,इसमें ए.सी. नीलसन, ओआरजी एम्एआरजी, सेंटर फॉर मीडिया स्टडी, सी वोटर इत्यादि प्रमुख हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के साथ ही प्रिंट मिडिया ने भी व्यवहार को अध्ययन करने व जनमत सर्वेक्षणों के माध्यम से चुनावी ट्रेंड्स व धारणाओं को समझने का प्रयास किया है। इंडिया टुडे ने 1989 में अपना पहला सर्वेक्षण प्रस्तुत किया उसके बाद व लगातार सर्वेक्षणों के माध्यम से चुनावी अध्ययन करते रहे है। मतदाताओं के व्यवहार को समझने के लिए जनमत सर्वेक्षणों का प्रयोग सिर्फ मिडिया या राजनीतिक विश्लेषकों के द्वारा ही नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के द्वारा भी प्रयोग किया जा रहा है।
भारत में होने वाले चुनावी अध्ययन समय के साथ काफी वैज्ञानिक स्तर पर किया जाने लगेंहैं तथा ना सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि राज्य की चुनावी राजनीति को अपने अध्ययन में शामिल किया गया है। सीएसडीएस ने इन अध्ययनों में निर्णायक भूमिका निभाई है तथा चुनावी राजनीति के अध्ययन को एक अलग पहचान प्रदान की है।
1. Ahmad, Imtiaz. 1977. “ Election studies in India,” Economic and Political weekly, September 24,XII(39): 1667-80.
13.Priyam, M. (2015). Electing the Ruling Party and the Opposition: Voter Deliberations from Sangam Vihar, Delhi, Lok Sabha Elections 2014. Studies in Indian Politics, 3(1), 94–110. https://doi.org/10.1177/2321023015575227
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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