- प्रीती सिंह पटेल
शोध
सार : विद्वानों
का
मानना
है
कि
हिन्दी
में
उपन्यास
लेखन
बंगला
उपन्यासों
के
प्रभाव
स्वरूप
शुरू
हुआ,
किन्तु
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
को
बंगला
उपन्यास
का
पूर्णतः
नकल
मानना
तर्कसंगत
नहीं
जान
पड़ता
है।
शुरुआती
दौर
के
हिन्दी
उपन्यासों
में
स्त्री
जीवन
और
प्रश्नों
को
लेकर
बहुत
ही
सकरात्मक
विचार
है,
बंगाल
के
आरम्भिक
उपन्यासकार
बंकिमचंद्र
का
स्त्री
प्रश्नों
पर
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासकारों
से
विपरीत
विचार
रखते
है।
हिन्दी
के
इन
उपन्यासों -
‘देवरानी जेठानी की
कहानी’,
‘भाग्यवती’, ‘वामा
शिक्षक’,
‘स्वर्गीय कुसुम’
आदि
के
केंद्र
में
भले
ही
स्त्री
प्रश्न
है
फिर
भी
इन
उपन्यासकारों
ने
भी
स्त्री
प्रश्नों
के
लिए
एक
सीमा
बना
रखी
थी
जिसके
अंतर्गत
ही
उन
प्रश्नों
को
उठाया
है।
स्त्रियों
को
लेकर
ये
सीमाएं
हमें
बस
हिन्दी
उपन्यासकारों
के
यहाँ
ही
नहीं
बल्कि
जिन
बंगला
उपन्यासकारों
के
प्रभाव
स्वरूप
हिन्दी
उपन्यास
का
विकास
बताया
जाता
है
उनके
यहाँ
भी
देखने
को
मिलती
है।
बीज शब्द :
स्त्रीप्रश्न,
नवजागरण,
उन्नीसवीं
शताब्दी,
अंतर्विरोध,
समाज
वैज्ञानिक,
समाज
सुधार
आंदोलन,
स्त्री
शिक्षा,
सती
प्रथा,
विधवा
पुनर्विवाह,
बाल
विवाह।
मूल
आलेख : इतिहासकारों
एवं
समाज
वैज्ञानिकों
ने
उन्नीसवीं
सदी
को
भारत
में
बदलावों
एवं
परिवर्तनों
की
सदी
के
रूप
में
विश्लेषित
किया
है।
राजनीतिक
दृष्टि
से
जहां
एक
ओर
केन्द्रीकृत
मुगल
सत्ता
का
पतन
हो
रहा
था, वहीं
दूसरी
ओर
सदियों
से
चली
आ
रही
सामाजिक,
आर्थिक
तथा
सांस्कृतिक
क्षत्रों
में
भी
हमें
कई
महत्वपूर्ण
परिवर्तन
दिखाई
पड़ते
है।
समाज
का
हर
अंग
इस
परिवर्तन
के
जद
में
था
और
यह
परिवर्तन
घर
की
चहारदीवारी
के
अंदर
बैठी
स्त्री
के
जीवन
को
भी
गहरे
से
प्रभावित
करता
है।
उस
समय
के
भारतीय
समाज
सुधारकों
द्वारा
चलाए
गए
समाज
सुधार
आंदोलनों
की
गूंज
चतुर्दिक
फैली
हुई
थी
जिसके
केंद्र
में
प्रमुख
रूप
से
‘स्त्री-जीवन’ और
‘उसके प्रश्न’ थे।
समाज
में
हो
रही
इन
हलचलों
का
प्रभाव
हमें
साहित्य
और
कला
पर
भी
दिखाई
पड़ता
है।
तत्कालीन
समाज
में
सामाजिक
सुधार
आंदोलनों
के
माध्यम
से
उठ
रहे
‘स्त्री प्रश्नों[1]
की
वजह
से
साहित्य
में
भी
स्त्री
को
देखने
का
नजरिया
बदला
हुआ
दिखाई
पड़ता
है।
साहित्य
में
स्त्री
अब
वस्तु
मात्र
नहीं
रह
गई
बल्कि
वह
स्त्री
के
वास्तविक
स्वरूप
में
नजर
आती
है।
उस
समय
के
समाज
के
साथ
ही
साहित्य
में
स्त्री
को
देखने
के
बदलते
नजरिए
के
बारें
में
रूपा
गुप्ता
लिखती
हैं
- “भारतीय
संदर्भ
में
उन्नीसवीं
शताब्दी
प्रश्नों
की
झड़ी
लगाती
शताब्दी
है।
पुरातन
और
नूतन
के
द्वन्द्व
में
फँसे
अठारह
सौ
से
लेकर
उन्नीस
सौ
तक
के
इतिहास
को
बहुत
से
नए
प्रश्नों
के
उत्तर
ढूँढने
में
संलग्न
होना
पड़ा।
उन्नीसवीं
सदी
ने
अपने
संबोधित
प्रश्नों
की
परिधि
में
स्त्री-प्रश्न
को
भी
समेटा।
इस
सम्बोधन
की
प्रमुख
विशेषता
यह
थी
कि
नायिका
भेद
के
तंग
गलियारों
में
भटकती
पद्मिनी,
हंसिनी,शंखिनी,और
हस्तिनी
को
पहली
बार
स्त्री
रूप
में
स्वीकार
किया
गया।”[2]
उन्नीसवीं
शताब्दी
में
ही
साहित्य
में
व्यवस्थित
रूप
से
गद्य
लेखन
की
शुरुआत
हुई
जिससे
अनेक
गद्य
विधाओं
का
जन्म
हुआ,
उपन्यास
गद्य
की
महत्वपूर्ण
विधा
के
रूप
उसी
समय
विकसित
हुआ।
मैनेजर
पाण्डेय
भारतीय
उपन्यास
के
विकास
के
बारें
में
लिखते
है
कि
“भारतीय उपन्यास
वास्तव
में
तब
आरम्भ
हुआ
जब
वह
मुक्ति
के
आख्यान
के
रूप
में
विकसित
होने
लगा।
बांग्ला
में
बंकिमचंद्र
ने
ऐतिहासिक
रोमांस
के
माध्यम
से
राष्ट्र
की
कल्पना,राष्ट्रीय
चेतना
की
सजगता
और
स्वाधीनता
की
आकांक्षा
को
व्यक्त
करते
हुए
उपन्यास
को
मुक्ति
का
आख्यान
बनाया।
हिन्दी
में
आरम्भ
में
उपन्यास
सामाजिक
रूढ़ियों
से
मुक्ति
की
आकांक्षा
के
रूप
में
विकसित
हुआ,
लेकिन
उसे
सामाजिक
के
साथ-साथ
राजनीतिक
स्वाधीनता
का
आख्यान
बनाया
प्रेमचंद
ने।”[3]
भारतीय
उपन्यास
के
विकास
में
विद्वान
नवजागरण
की
भी
महत्वपूर्ण
भूमिका
मानते
है।
जिन
क्षेत्र
में
नवजागरण
पहले
घटित
हुआ
वहीं
के
अंग्रेजी
पढ़ें-लिखे
नए
मध्यवर्गीय
पीढ़ी
के
मांग
स्वरूप
वहाँ
पर
उपन्यास
विधा
का
जन्म
अन्य
भारतीय
क्षेत्रों
से
पहले
हुआ।
हिन्दी
प्रदेश
में
नवजागरण
की
प्रक्रिया
बंगला
और
मराठी
क्षेत्र
की
अपेक्षा
थोड़ी
देर
से
घटित
हुई
जिसकी
वजह
से
यहाँ
उपन्यास
लेखन
की
शुरुआत
भी
इन
क्षेत्रों
की
अपेक्षा
थोड़ी
देर
से
हुई।
बहुत
सारे
आलोचकों
का
यह
भी
मानना
है
कि
हिन्दी
में
उपन्यास
लेखन
की
शुरुआत
बंगला
उपन्यास
से
प्रभावित
होकर
ही
हुई
-“हिन्दी में उपन्यास
साहित्य
का
वह
पौधा
था,
जिसे
अगर
सीधे
पच्छिम
से
नहीं
लिया
गया
हो
तो
उसका
बंगला
कलम
तो
लिया
ही
गया
था,न
की
सुबंधु,
दण्डी
और
बाण
की
लुप्त
परंपरा
पुनरुज्जीवित
की
गयी
थी।”[4]
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
के
साथ
बंकिमचंद्र
के
उपन्यासों
को
लेने
के
पीछे
पहला
कारण
यह
है
कि
ज्यादातर
विद्वान
हिन्दी
में
उपन्यास
लेखन
की
शुरुआत
के
लिए
बंगला
उपन्यास
की
भूमिका
को
महत्वपूर्ण
मानते
है
और
दूसरा
कारण
यह
है
कि
बंकिमचंद्र
आधुनिक
बंगला
साहित्य
के
निर्माता
लेखकों
में
थे,
जिनके
लेखन
से
बाद
के
लेखकों,
जिसमें
रवींद्रनाथ
टैगोर
जैसे
बड़े
लेखक
के
साथ
ही
हिन्दी
के
लेखकों
ने
भी
प्रेरणा
ग्रहण
की
थी।
इन
दोनों
(बंगला और हिन्दी)
उपन्यासों
की
संगतियों
पर
तो
विद्वानों
द्वारा
खूब
चर्चा
भी
हुई
लेकिन
इनमें
कुछ
असंगतियां
भी
थी
जिसपर
कम
बात
की
गयी
है।
इस
लेख
के
माध्यम
से
बंकिमचंद्र
और
हिन्दी
के
आरंभिक
उपन्यासों
में
स्त्री
प्रश्नों
को
लेकर
जो
संगतियाँ
और
असंगतियाँ
है
उन
पर
विचार
किया
जाएगा।
बंकिमचंद्र
बंगला
साहित्य
के
प्रख्यात
कवि,
उपन्यासकार,
निबंधकार
के
रूप
में
लोगों
के
बीच
में
प्रसिद्ध
है।
इन्होंने
दुर्गेशनंदिनी,कपालकुंडला,विषवृक्ष,इंदिरा,
युगलांगुरीय,
राधारानी, देवी चौधरानी, आनंदमठ इत्यादि
उपन्यासों
की
रचना
की।
इसमें
ज्यादातर
उपन्यास
स्त्री
पात्रों
के
नामों
पर
लिखे
गए
हैं
पर
इनका
उद्देश्य
स्त्री
प्रश्न
और
उसके
जीवन
की
दुश्वारियों
को
दिखना
नहीं
था
बल्कि
स्त्रियाँ
यहाँ
रोमांस
के
साधन
के
रूप
में
आई
हैं।
जबकि
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
- ‘देवरानी जेठानी
की
कहानी,
भाग्यवती,
वामाशिक्षक,
स्वतंत्ररमा
परतंत्र
लक्ष्मी,
स्वर्गीय
कुसुम
वा
कुसुम
कुमारी,
श्यामा
स्वप्न,
ठेठ
हिन्दी
का
ठाठ,
आदि
में
तत्कालीन
स्त्री
प्रश्न
को
केंद्र
में
रखा
गया
है।
उन्नीसवीं
सदी
के
समाज
में
पूर्ववर्ती
समाज
की
अपेक्षा
स्त्री
प्रश्नों
के
प्रति
सकारात्मक
विचार
दिखाई
पड़ता
है।
‘स्त्री शिक्षा’ उस
युग
में
स्त्रियों
के
लिए
वरदान
था-
“स्त्री शिक्षा उन्नीसवीं
शताब्दी
का
वह
सकरात्मक
वरदान
है
जिसका
वास्तविक
परिणाम
बीसवीं
शताब्दी
के
उत्तरार्द्ध
में
मिला।
अब
तक
स्त्री
अनपढ़
और
मूर्ख
थी,
किसी
भी
प्रकार
के
ज्ञान
से
वंचित।
स्त्री
और
दलित
के
लिए
पुस्तक
दुर्लभ
थी।
सम्पन्न-समृद्ध
परिवारों
की
सामान्य
से
सामान्य
वस्तुओं
से
उन्हे
मूर्खता
की
पराकाष्ठा
तक
अनभिज्ञ
रखा
गया।
इस
मूर्खता
ने
उनकी
अर्थहीनता
विवशता
को
और
बढ़ाया।
विचारकों
द्वारा
समाज
सुधार
की
प्रक्रिया
में
बारम्बार
इस
बात
पर
बल
दिया
गया
कि
स्त्री
को
कम
से
कम
अक्षर
ज्ञान
हो।
माता
के
पढ़े
बिना
पुत्र
को
शिक्षा
की
ओर
उन्मुख
करना
कम
सहज
होगा”[5]
तत्कालीन
समाज
में
स्त्री
शिक्षा
को
लेकर
जो
सकारात्मकता
दिखाई
पड़ता
है,
उसके
पीछे
सामाजिक
सुधार
आंदोलनों
की
भूमिका
के
साथ
ही
नवोदित
मध्यवर्गीय
पुरुषों
की
महत्वाकांक्षा
का
भी
महत्वपूर्ण
योगदान
रहा
है।
भारत
में
समाज
सुधार
आंदोलन
की
शुरुआत
बंगाल
से
हुई
तथा
इन
आंदोलनों
के
नेतृत्वकर्ता
भी
ज्यादातर
बंगाली
विद्वान
ही
थे।
बंकिमचंद्र
तत्कालीन
बंगला
साहित्य
के
प्रमुख
हस्ताक्षर
थे
लेकिन
हमें
उनके
लेखन
पर
सुधार
आंदोलनों
का
कोई
खास
प्रभाव
नहीं
दिखाई
पड़ता
है।
स्त्री
शिक्षा
जो
की
उन
आंदोलनों
का
प्रमुख
बिन्दु
था,उसको
लेकर
बंकिम
के
उपन्यासों
में
कोई
खास
प्रतिबद्धता
नहीं
दिखाई
पड़ती।
उनके
उपन्यास
में
कहीं
कोई
स्त्री
कुछ
पढ़ते
हुए
दिख
जाए
तो
यह
और
बात
है,
क्योंकि
उस
पढ़ाई
का
इन
उपन्यासों
में
कुछ
हासिल
नहीं
है।
‘दुर्गेशनंदनी’ के
नायिका
को
संस्कृत
की
किताबें
पढ़ते
हुए
दिखाया
जाता
है
लेकिन
रहती
तो
वह
पारंपरिक
भारतीय
स्त्री
ही
है,
बार-बार
अपने
सतीत्व
की
दुहाई
देती
हुई।
‘देवी चौधरानी’
बंकिम
का
स्त्रियों
पर
लिखा
गया
सबसे
सशक्त
उपन्यास
है
इस
उपन्यास
में
पहली
बार
बंकिम
की
स्त्री
पात्र
को
पुरुषों
द्वारा
किए
जाने
वाले
कार्यों
को
करते
हुए
दिखाया
गया
है।
प्रफुल्ल
एक
सामान्य
भारतीय
स्त्री
के
रूप
में
घर
से
बाहर
आती
है
भवानी
ठाकुर
उसकों
सारे
शास्त्रों
और
शस्त्रों
की
शिक्षा
देता
है
जिससे
आगे
चलकर
प्रफुल्ल
सफलता
पूर्वक
उसके
दल
का
नेतृत्व
करती
है।
वह
दुबारा
जब
अपने
ससुराल
आती
है
तो
कभी
भी
अपनी
शिक्षा
और
ज्ञान
को
ससुरालवालों
पर
प्रकट
नहीं
करती
जिसके
लिए
बंकिम
उस
पात्र
का
महिमामंडन
करते
है
-“प्रफुल्ल अद्वितीय
महामहोपाध्याय
भवानी
पाठक
की
शिष्या
और
स्वयं
परम
विदुषी
थी,
लेकिन
वह
बात
दूर
रहीं,
किसी
को
यह
भी
न
मालूम
हो
सका
कि
वह
साक्षर
है।”[6]
स्त्री
शिक्षा
को
लेकर
बंकिम
के
ऐसे
ही
विचार
उनके
लगभग
सभी
उपन्यासों
में
देखने
को
मिलता
है।
इसके
विपरीत
हम
देखते
है
कि
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यास
सामाजिक
सुधार
आंदोलनों
से
गहरे
से
प्रभावित
हैं
या
कहें
कि
इनकी
रचना
ही
सुधार
आंदोलनों
के
प्रभाव
स्वरूप
हुई
तो
इसमें
कोई
अतिशंयोक्ति
न
होगी।
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
में
स्त्री
शिक्षा
महत्वपूर्ण
विषय
है।
देवरानी
जेठानी
की
कहानी,
वामा
शिक्षक,
भाग्यवती
जैसे
उपन्यासों
की
रचना
स्त्री
शिक्षा
के
महत्त्व
को
बताने
के
लिए
ही
की
गयी
है।
इन
उपन्यासों
में
शिक्षित
स्त्री
के
गुणों
को
छुपाया
न
जाकर
उसकों
प्रचारित
किया
गया
जिससे
समाज
स्त्री
को
शिक्षित
करने
के
लिए
प्रेरित
हो।
शिक्षित
स्त्री
घर
का
सभी
काम
होशियारी
से
करती
है
और
दूसरे
स्त्रियों
को
भी
पढ़ना
लिखना
सिखाती
है-
“सुखदेई का अभी
गौना
नहीं
हुआ
था।
बाप
ही
के
घर
थी।
ननद-भावजों
का
बड़ा
प्यार
हो
गया।
दोनों
पढ़ी-पढ़ी
मिल
गयीं।
सुखदेई
इतनी
पढ़ी
हुई
ना
थी।
परंतु
चिट्ठी-पत्री
तो
अच्छी
तरह
से
लिख
लिया
करती
थी।
इसने
अपने
सब
सहेलियों
को
बुलाया
और
उनका
लिखना-पढ़ना
अपनी
भावज
को
दिखलाया।”[7]
इस
पूरे
उपन्यास
में
अनपढ़
स्त्री
के
बरक्स
पढ़ी-लिखी
स्त्री
को
रखकर
उनके
सारे
कामों
की
तुलना
की
गयी
है
और
दिखाया
गया
है
कि
घर
के
काम
को
पढ़ी
लिखी
स्त्री
कैसे
बेहतर
ढंग
से
करती
है।
इसी
तरह
‘वामा शिक्षक’ और
‘भाग्यवती’ उपन्यास
में
भी
शिक्षित
स्त्री
के
महत्व
को
रेखांकित
करने
के
साथ
ही
स्त्री
शिक्षा
के
विरोधियों
की
आलोचना
भी
की
गई
है-
“धिक्कार है उन
पर
कि
जो
यह
बात
कहा
करते
है
कि
स्त्री
को
विद्या
नहीं
पढ़ानी
चाहिए
और
बड़े
ही
मूर्ख
है
वे
लोग
जो
अपने
मुख
से
ये
बात
कहा
करते
है
कि
विद्या
पढ़ी
हुई
स्त्री
बिगड़
जाती
है।”[8]
हम
देखते
हैं
कि
हिन्दी
के
इन
शुरुआती
उपन्यासों
की
रचना
स्त्री
शिक्षा
को
बढ़ावा
देने
के
लिए
की
गई
है,
जबकि
बंकिम
के
यहाँ
हमें
स्त्री
शिक्षा
के
प्रति
हिन्दी
की
तरह
प्रतिबद्धता
देखने
को
नहीं
मिलती
है।
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासकारों
में
अपवाद
स्वरूप
लज्जाराम
मेहता
जैसे
उपन्यासकार
भी
हुए
जो
स्त्री
शिक्षा
के
विरोधी
थे।
स्वतंत्र
रमा
परतंत्र
लक्ष्मी’
नामक
उपन्यास
में
उन्होंने
पढ़ी-लिखी
स्वतंत्र
विचार
वाली
रमा
को
खलनायिका
के
रूप
में
चित्रित
किया
है।
उन्नीसवीं
सदी
के
स्त्री
प्रश्नों
में
अगला
महत्वपूर्ण
प्रश्न
‘सती प्रथा’ था।
उस
समय
बंगाल
में
इस
प्रथा
का
सबसे
ज्यादा
बोलबाला
था
इस
प्रथा
के
विरुद्ध
बंगला
के
महान
समाज
सुधारक
राजाराम
मोहनराय
आंदोलन
चलाने
वाले
पहले
भारतीय
थे।
सती
प्रथा
के
विरोध
के
कारण
उनको
रूढ़िवादी
हिंदुओं
से
बहुत
लड़ाई
लड़नी
पड़ी
थी।
जहां
एक
तरफ
राजाराम
मोहनराय
सती
प्रथा
की
समाप्ति
के
लिए
अंग्रेजी
सरकार
और
समाज
के
पुरातन
पंथियों
से
लड़
रहे
थे,
वहीं
बंकिमचंद्र
जो
उस
समय
के
बड़े
बंगला
साहित्यकार
थे
अपने
उपन्यासों
में
सती
प्रथा
को
सही
बता
रहे
थे।
‘कपाल कुंडला’ मे
एक
जगह
सती
होती
स्त्री
की
जो
स्थिति
होती
है
उससे,
उसके
नायक
के
हृदय
की
व्याकुलता
की
तुलना
की
गई
है।
‘मृणालनी’ उपन्यास
में
मनोरम
के
सती
होने
की
घटना
का
बंकिम
ने
बहुत
ही
गौरवपूर्ण
ढंग
से
उल्लेख
किया
है-
“मैं वही उनकी
पत्नी
हूँ,
जिसका
बहुत
दिनों
से
पता
नहीं
था।
सती
होने
के
भय
से
मेरे
पिता
ने
मुझे
अब
तक
छिपाकर
रखा
था।
आज
समय
पुरा
होने
पर
विधाता
का
विधान
पूर्ण
करने
के
लिए
सती
होने
आई
हूँ।
......... अब मैं
स्त्री-जगत
का
कर्तव्य
पूरा
करूंगी।
तुम
लोग
उसकी
तैयारी
करो।”[9]
दुर्गादास
द्वारा
मनोरमा
को
सती
होने
से
रोकने
पर
मनोरमा
उसको
कहती
है
-“ब्राम्हण होकर
अधर्म
में
प्रवृत्ति
क्यों
देते
हो?
मैं
जो
कहती
हूँ,उसका
उद्योग
करो।”[10]
इसके
विपरीत
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
में
स्त्रियों
को
सती
होते
या
लेखकों
को
सती
प्रथा
के
समर्थन
में(एकाध
अपवाद
को
छोड़कर)
तर्क
देते
कहीं
नहीं
देखा
गया
है।
इसके
पीछे
हिन्दी
के
इन
उपन्यासकारों
पर
सामाजिक
सुधार
आंदोलन
का
प्रभाव
कहिए
या
अंग्रेजी
सरकार
के
कानून
का
प्रभाव
जो
भी
हो,सती
प्रथा
के
समर्थन
में
न
लिखना
हिन्दी
उपन्यास
का
एक
प्रगतिशील
पहलू
है।
‘विधवा
पुनर्विवाह’
भी
उस
सदी
का
महत्वपूर्ण
स्त्री
प्रश्न
था।
उन्नीसवीं
शताब्दी
के
समाज
में
बाल-विवाह
होने
से
लड़कियां
कम
उम्र
में
विधवा
हो
जाती
थीं
और
वे
हर
जगह
उपेक्षा
और
उत्पीड़न
की
शिकार
होती
थीं।
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
ने
शास्त्र
सम्मत
युक्तियाँ
देकर
विधवा
पुनर्विवाह
के
लिए
एक
अभियान
चलाया
था।
बंकिमचंद्र
उसी
बंगला
समाज
के
महान
लेखक
थे
जहां
से
स्त्री
प्रश्नों
को
लेकर
सुधार
आंदोलनों
को
खड़ा
किया
गया।
‘विधवा पुनर्विवाह’
के
विषय
पर
बंकिमचंद्र
के
विचार
संकुचित
है
वे
बार-बार
अपने
पुरुष
पात्रों
द्वारा
विधवाओं
को
अपने
सतीत्व
की
रक्षा
की
शिक्षा
देते
है
-“स्त्री जाति के
लिए
सतीत्व
से
बढ़कर
कोई
धर्म
नहीं
है।
जिस
स्त्री
का
सतीत्व
खंडित
हो
गया,
वह
शूकरी
से
भी
अधम
है।
सतीत्व
की
हानि
केवल
कार्य
से
नहीं
होती।
स्वामी
के
सिवा
अन्य
पुरुष
का
विचार
भी
सतीत्व
के
लिए
विघ्नस्वरूप
है।
तुम
विधवा
हों।
यदि
तुम
स्वामी
के
अलावा
अन्य
पुरुष
को
मन
से
भी
सोचों
तो
तुम
इस
लोक
और
परलोक
में
स्त्री
जाति
में
अधम
होकर
रहोगी!
अतएव
सावधान
हो
जाना।”[11]
बंकिमचंद्र
का
विधवाओं
के
प्रति
ऐसे
विचार
के
बारें
में
वैभव
सिंह
भी
लिखते
है-“टैगोर
से
पहले
बंकिमचंद्र
ने
उपन्यास
लेखन
करते
समय
विधवाओं
के
बारें
में
एक
दोहरा
रवैया
अपनाया
था।
बंकिम
भी
विधवाओं
का
प्रयोग
कथानक
में
रोमांस
और
उत्तेजना
पैदा
करने
के
लिए
करते
थे,पर
उन्हे
किसी-न-किसी
बिन्दु
पर
ले
जाकर
मृत
बना
देते
थे”[12]
इसके विपरीत
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासकार
विधवा
पुनर्विवाह
की
बात
को
बंकिम
की
भांति
सिरे
से
नकारतें
नहीं
है
बल्कि
उसके
प्रति
उनके
विचार
बहुत
सकारात्मक
है
-“पत्थर तो हमारी
जाति
में
पड़ी
है।
मुसलमानों
और
साहबलोगों
में
दूसरा
बिवाह
हो
जाता
है।
और
तो
और
बंगालियों
में
भी
होने
लगा
है।
जात,गूजर,
नाई,
धोबी,
कहार,
अहीर,
आदियों
में
तो
दूसरा
विवाह
की
कुछ
रोक-टोक
नहीं।
आगे
धर्म
शास्त्र
में
भी
लिखा
है
कि
जिस
स्त्री
का
संभाषण
नहीं
हुआ
हो
और
विवाह
के
पीछे
पति
का
देहांत
हो
जाय,
तो
वह
पुनर्विवाह
योग्य
है।”[13]
इसी
तरह
के
प्रसंग
हमें
‘भाग्यवती’ के
पहले
संस्करण
में
देखने
को
मिलता
है
बाद
के
संस्करण
में
सरकार
इस
प्रसंग
को
हटवा
देती
है।
विधवा
पुनर्विवाह
के
प्रति
यह
सकारात्मकता
इन
लेखकों
के
रूढ
परंपराओं
के
प्रति
विरोध
को
दिखाता
है।
इन
स्त्री
प्रश्नों
के
अलावा
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
में
बाल-विवाह
की
समस्या
को
भी
उठाया
गया
है।
भाग्यवती
उपन्यास
में
पंडित
उमादत्त
अपनी
बेटी
का
बाल-विवाह
करने
के
पक्ष
में
नहीं
थे
अपने
पत्नी
को
बाल-विवाह
के
हानि
बारे
में
समझाते
हुए
कहते
है-
“हम लड़की का
विवाह
ग्यारह
वर्ष
से
पहले
होना
कभी
श्रेष्ठ
नहीं
कहेंगे।
जब
हम
बालक
का
विवाह
अठारह
वर्ष
ठहराया
तो
लड़की
ग्यारह
वर्ष
से
छोटी
क्यों
ब्याही
जा
सकती
है?........
देखो
सेठ
रामरत्न
ने
सात
वर्ष
की
कन्या
का
विवाह
करके
जब
दो
वर्ष
पीछे
उसका
पति
मार
गया
तो
कितना
दुःख
उठाया।”[14]
अनमेल
विवाह
की
समस्या
को
भी
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
में
उठाया
गया
है।
निष्कर्ष :
इस तरह इन
दोनों
उपन्यासकारों
की
तुलना
करने
पर
हम
पाते
है
कि
बंकिम
की
अपेक्षा
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासकारों
के
यहाँ
स्त्री
जीवन
में
सुधार
को
लेकर
ज्यादा
तार्किक
और
सकारात्मक
विचार
रखते
हैं।
इन
उपन्यासकारों
ने
तत्कालीन
सभी
स्त्री
प्रश्नों
को
अपने
उपन्यास
का
विषय
बनाया
है;
जबकि
बंकिमचन्द्र
के
उपन्यास
लेखन
की
प्रेरणा
स्त्री
प्रश्न
न
था।
इसके
पीछे
का
कारण
यह
भी
है
कि
उनके
ऐतिहासिक
रोमांसों
के
केंद्र
में
देश
की
मुक्ति
थी
न
कि
स्त्री
की
मुक्ति।
स्त्री
उनके
यहाँ
साधन
मात्र
है
जो
उनके
उद्देश्य
को
सफल
बनाती
है।
इन
दोनों
उपन्यासों
के
लेखन
के
उद्देश्य
में
अंतर
होने
के
बावजूद
हम
स्त्री
पात्रों
के
विषय
में
इन
लेखकों
के
राय
में
बहुत
समानता
देखते
हैं।
बंकिमचंद्र
की
स्त्री
पात्र
हमें
डकैत,
जासूस,
तलवारबाज
जैसी
अनेक
भूमिकाओं
में
नज़र
आती
हैं,
लेकिन
उनमें
हमें
स्वत्व
की
चेतना
कहीं
नहीं
दिखाई
देती
है।
वह
केवल
अच्छी
पत्नी,
आदर्श
बहू,
बेटी
की
भूमिका
में
है।
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
को
लिखने
के
उद्देश्य
भले
ही
तत्कालीन
स्त्री
प्रश्न
रहे
हों
लेकिन
इनमें
और
बंकिमचंद्र
की
स्त्री
पात्रों
में
बहुत
अंतर
हमे
नहीं
दिखाई
पड़ता
है।
हिन्दी
के
इन
उपन्यासों
की
स्त्रियाँ
भी
पढ़-लिखकर
एक
आदर्श
गृहणी
बनने
का
गुण
सीखती
है।
एक
पारंपरिक
भारतीय
स्त्री
में
जो
गुण
होने
चाहिए
इन
स्त्रियों
में
वे
सभी
गुण
विद्यमान
हैं।
हिन्दी
के
इन
आरम्भिक
उपन्यासकारों
में
स्त्री
प्रश्नों
को
लेकर
यह
जो
अंतर
विरोधी
दृष्टिकोण
की
स्थिति
हमें
दिखाई
पड़ती
है
वह
उस
सदी
के
प्रगतिशील
कहे
जाने
वाले
लेखकों
के
यहाँ
भी
देखने
को
मिलता
है।
हम
हिन्दी
के
इन
आरम्भिक
उपन्यासकारों
को
स्त्री
को
एक
दायरे
में
रखने
के
लिए
प्रश्नांकित
तो
कर
सकते
हैं
किन्तु
उनको
स्त्री
विरोधी
कह
कर
खारिज
नहीं
कर
सकते,
क्योंकि
हम
स्त्री
प्रश्न
पर
बंकिम
जैसे
बड़े
लेखक
के
दृष्टिकोण
को
ऊपर
देख
चुके
हैं।
हिन्दी
के
इन
आरम्भिक
उपन्यासकारों
ने
स्त्री
प्रश्नों
को
केंद्र
में
रखकर
स्त्रियों
पर
जिस
सकारात्मक
बात
की
शुरूआत
की
वो
आगे
आने
वाले
उपन्यासकारों
को
स्त्री
जीवन
के
हर
पक्ष
को
विस्तार
से
लिखने
का
मार्ग
प्रशस्त
करती
हैं।
उन्नीसवीं
सदी
के
उत्तरार्द्ध
तक
स्त्री
प्रश्नों
पर
इन
पुरुष
लेखकों
के
विचारों
से
इतर
कुछ
स्त्री
लेखिकाएं
स्त्रीवादी
नजरिए
से
भी
लिख
रही
थीं,
इनमें
अज्ञात
हिन्दू
महिला
जैसी
लेखिकाएं
शामिल
हैं
जो
पुरुषों
द्वारा
स्त्रियों
पर
थोपे
नियमों
को
तोड़ने
की
बात
करती
हैं।
इसी
कारण
नवजागरण
कालीन
इन
पुरुष
लेखकों
द्वारा
स्त्रियों
को
एक
दायरे
में
दर्ज
करने
को
आधुनिक
स्त्रीवादी
लेखिकाएं
पितृसत्तात्मक
मानसिकता
की
सोची
समझी
चाल
बताती
है।
गरिमा
श्रीवास्तव
अपने
लेख
में
आरम्भिक
दौर
में
लिखे
उपन्यासों
को
पुरुषों
द्वारा
लिखी
‘आचरण संहिता कहती’
हैं[15]
बहरहाल।
हिन्दी
के
आरम्भिक
उपन्यासों
में
स्त्रियाँ
अपने
प्रश्न
को
लेकर
भले
ही
बोलती
नजर
नहीं
आती
हैं
लेकिन
उनके
पुरुष
पात्र
सभी
स्त्री
प्रश्नों
को
लेकर
सवाल
ही
नहीं
उठाते
बल्कि
अपने
घर
की
स्त्रियों
के
जीवन
में
उसको
लागू
भी
करते
है।
‘भाग्यवती’ में
पंडित
जगदीश
जी
अपनी
बेटी
को
शिक्षित
करने
के
साथ
ही
उसके
बाल-विवाह
का
भी
विरोध
करते
हैं।
ऐसे
ही
‘देवरानी जेठानी की
कहानी’
की
मुख्य
स्त्री
पात्र
पढ़ी-लिखी
है।
उस
युग
की
स्त्रियों
की
शिक्षा
की
सीमा
है
फिर
भी
उपन्यासों
में
शिक्षित
स्त्री
को
दर्ज
करना
ही
आगे
आने
वाले
उपन्यासों
में
स्त्रियों
को
सम्पूर्ण
अस्तित्व
के
साथ
दर्ज
करने
के
रास्ते
को
खोलता
है।
1. स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह निषेध, सती प्रथा आदि।
2. रूपा गुप्ता, औपनिवेशिक शासन उन्नीसवीं शताब्दी और स्त्री प्रश्न, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 149
8. श्रध्दाराम फिल्लौरी, भाग्यवती, सं. सरनदास भनोट, नेशनल पब्लिकेशिंग हाउस, दिल्ली,1966, पृष्ठ 266
असिस्टेंट प्रोफेसर, एम जी पी जी कॉलेज फिरोजाबाद,
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू, विश्वविद्यालय,वाराणसी
Pritisinghbhu306@gmail.com, 9794135155
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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