शोध आलेख : भारत और ग्वाटेमाला की आदिवासी कविताओं में वेदना और विद्रोह : एक तुलनात्मक अध्ययन / डॉ. अश्वनी कुमार

भारत और ग्वाटेमाला की आदिवासी कविताओं में वेदना और विद्रोह : एक तुलनात्मक अध्ययन
- डॉ. अश्वनी कुमार

शोध सार : यह लेख एक तुलनात्मक अध्ययन है जिसमे भारतीय आदिवासी स्त्रियां तथा लातिनी अमरीका के देश ग्वाटेमाला की मूल निवासी स्त्रियों द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक समस्याओं का अध्‍ययन किया गया है। इसके साथ ही, कैसे ये महिलाएं अपने साहित्य में अपनी स्थिति के खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश कर रही हैं, उनको कविताओं के माध्यम से दर्शाने की कोशिश की गई है। चुकी दोनों समुदाय की महिलाएं सामान रूप से भेदभाव, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, यौन शोषण आदि का शिकार रही हैं। उनकी आवाज़ में भी समान रूप से आक्रामकता देखने को मिलता है। लेख का मक़सद यह भी दर्शाना है कि किस प्रकार दो अलग-अलग भू-भागों में रह रही महिलाओं की स्थिति एक समान है और किस प्रकार दोनों समुदाय की स्त्रियां अपनी समस्या बयां कर रही हैं जो उनको वैश्विक स्तर पर जोड़ रहा है और उनके संघर्ष को और मजबूती प्रदान करने का काम कर रहा है।

बीज शब्द : भारतीय आदिवासी महिलाएं, लातिनी अमरीकी मूल निवासी महिलाएं, सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, रूढ़िवादिता, शोषण, साहित्य, अस्तित्व, अस्मिता, विद्रोह।


मूल आलेख : 2018 के जनगणना के आंकड़े तथा अन्य विशेष अध्ययनों से पता चलता है कि ग्वाटेमाला के मूल निवासी और गैर-मूल निवासी लोगों के बीच गहरी असमानताएं मौजूद हैं।  स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार तथा आय के संबंध में जब मूल निवासी महिलाओं की बात आती है तो ये असमानताएं और भी अधिक गहरी हो जाती हैं। ग्वाटेमाला में मूल निवासी लोगों को सामाजिक, आर्थिक, सामाजिक बहिष्कार, जातिवाद, नस्लवाद जैसी समस्याओं के कारण गहरी असमानताओं का सामना करना पड़ता है जो उन्हें गरीबी या अत्यधिक गरीबी की स्थिति में ला खड़ा करता है। मूल निवासियों में गरीबी 75 प्रतिशत तथा गैर-मूलनिवासियों में 36 प्रतिशत है, उनमे से 58 प्रतिशत मूल निवासी तथा 38 प्रतिशत गैर-मूल निवासी कुपोषण के शिकार है।([i])


संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मूल निवासी महिलाओं में विशेष रूप से गरीबी का स्तर उच्च तथा शिक्षा का स्तर निम्न है। स्वास्थ्य तक सीमित पहुंच है, बुनियादी स्वच्छता, ऋण, रोजगार तथा राजनीतिक जीवन में सीमित भागीदारी है। घरेलू और यौन हिंसा से पीड़ित हैं। इसके अलावा पैतृक भूमि और संसाधनों पर नियंत्रण के उनके अधिकारों का सदियों से उल्लंघन किया गया है।([ii])


यह सत्य है की हिंसा मूल निवासी महिलाओं के साथ भेदभाव का मुख्य हथियार होता है। और वो इस प्रकार की रूढ़िवादिता की शिकार होती हैं जिसमे उनको हिन तथा यौन रूप से उपलब्ध माना जाता है। ग्वाटेमाला में मूल निवासी तथा अफ़्रीकी मूल के लोगों का हर क्षेत्र में उपेक्षा होती है। उनको निम्न स्तर का कार्य ही करने को मिलता है।


ग्वाटेमाला की स्थिति के बारे में वहां की प्रसिद्ध लेखिका तथा सामाजिक कार्यकर्त्ता रिगोबेर्ता मेंचू बहुत विस्तार में बताती हैं। उनका मानना है की ‘‘वहां के मूल निवासी जो की माया सभ्यता के लोग हैं, गरीबी से जूझते हैं, उनके जमीन पर मनमाने तरीके से कब्ज़ा कर लिया जाता है जो इनके जीवन के सारे संसाधनों को सीमित कर देता है। इसके साथ ही इनको बलपूर्वक खेतों में काम करने को मजबूर किया जाता है। इसमें उनको बहुत कम दिहाड़ी मिलती है, इसके साथ ही उनका मतदान का अधिकार दस्तावेजों में ही रह जाता है। नेताओं द्वारा इनकी समस्याओं को अनदेखा किया जाता है। सेना द्वारा उनको हिंसा का सामना करना पड़ता है, इस वजह से अधिकतर माया समाज के लोग अपने अधिकार की लड़ाई में शामिल हो जाते हैं, जिस दौरान उनको कितनी बार हिंसा का सामना करना पड़ता है या निर्वासन भी झेलना पड़ता है।’’([iii])


ग्वाटेमाला में 79 प्रतिशत मूल निवासी लोग गरीबी में रहते हैं। पितृसत्ता समाज मूल निवासी महलाओं के लिए अवसर के द्वार सीमित कर देता है। सुप्रसिद्ध मूल निवासी गायिका सारा कहती हैं की ‘‘मूलनिवासी महिलाएं गृहिणी ही बन कर रह जाती हैं। माता-पिता अपने बच्चों को परिवार के देखभाल या साफ सफाई वाले काम में लगा देते हैं जिसके कारण वो स्कूल जाने से वंचित रह जाते हैं।’’([iv])


दूसरे शब्दों में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ग्वाटेमाला की ज्यादार मूल निवासी महिलाएं आर्थिक हाशिए पर हैं, शिक्षा से दूर हैं और राजनीति में उनकी भागीदारी ना के बराबर है।


इस परिदृश्य को देखते हुए एक महिला आंदोलन की शुरुआत स्वाभाविक और अनिवार्य हो जाता है। अब कुछ मूल निवासी स्त्रियां भी पढ़ने-लिखने लगी हैं। उनमे जागरूकता आयी है। वो संगठित होकर अपने साहित्य द्वारा अपनी बातों को रखने में सक्षम हो रही हैं। समकालीन कवयित्रियों द्वारा लिखे गए कुछ कविताओं का अध्यनन आगे इस लेख में प्रस्तुत किया जायेगा।


दूसरी तरफ, यही स्थिति भारतीय आदिवासी महिलाओं की है। उनकी स्थिति भी लातिनी अमरीकी मूल निवासी स्त्रियों की बिलकुल तुलनीय है। पुरुष के मुकाबले आदिवासी महिला का वेतन कम होता है, उनको भी यौन शोषण का सामना करना पड़ता है। उनके पास सम्पति के अधिकार नहीं होते हैं, और उनमें साक्षरता दर सामान्य आबादी की तुलना में बहुत कम होता है। उनमे से ज्यादातर कुपोषण के शिकार तथा विभिन्न बीमारियों से पीड़ित होती हैं।


भारतीय समाज में अगर देखा जाए तो आदिवासी महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय है। उनकी सबसे बड़ी समस्या गरीबी है।


शहरीकरण के वजह से बहुत सी जनजातियों का विस्थापन होते रहा है, वो आर्थिक संकट से जूझती हैं, भुखमरी-लाचारी के शिकार होती है, आदिवासी महिलाओं को गिरवी रखा जाता है, या उनको बेच-खरोस्त भी किया जाता है। आदिवासी लड़कियां मानव तस्करी का शिकार होती हैं या उनको योगिनी बनाकर मंदिरों में रख दिया जाता है जहाँ उनका दैहिक शोषण होता है। ([v])  


‘‘आदिवासी जमात मूलतः शोषण का शिकार अधिक रही है। भंवरी देवी जो शिक्षा का प्रसार और अज्ञान तथा कुसंस्कारों का विरोध कर रही थी, उसका स्वर्णों ने बलात्कार किया।  आदिवासियों ने भी वीरभूम में आदिवासी लड़की को कई किलोमीटर तक नग्न करके घुमाया था। दूसरी तरफ आदिवासी लड़की को गैर जाती के लड़के से प्रेम करने के कारण अर्थदंड दिया जाता है। ग्राम पंचायत के कुछ आदिवासियों द्वारा सामूहिक बलात्कार कराया जाता है। बस्तर के सोनी सोरी हों, लिंगाराम हों या अरुणाचल प्रदेश की इरोम श्यामली, सरकार की दमन की एक सी कहानी है। कभी उसका नाम सलवा जुडूम, कभी ग्रीनहंटए कभी कुछ और...’’([vi])


दूसरे शब्दों में कहें तो आदिवासी महिलाएं रूढ़िवादिता, पितृसत्ता और गरीबी की शिकार रही हैं। हालाँकि ये महिलाएं आदिवासी आंदोलन में सक्रिय होने लगी हैं लेकिन उनको अभी भी विशेष नेतृत्व की आवश्यकता है। उनमे अब धीरे-धीरे चेतना आने लगी है, वो शोषण के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं। अपने साथ सभी महलाओं को संगठित कर अपने संघर्ष को मजबूत कर रही हैं। आदिवासी महिलाएं न केवल राजनीतिक तौर पर सक्रीय हो रही हैं बल्कि अब वो साहित्य द्वारा अपनी प्रखर आवाज को बुलंद करने में लग गयीं हैं। झारखण्ड में निर्मला पुतुल एक प्रखर संथाली आदिवासी लेखिका के रूप में उभरी हैं। झारखण्ड की ही दूसरी महत्वपूर्ण आदिवासी लेखिका वंदना टेटे हैं जो आदिवासी लोकगीतों और कविताओं द्वारा अपनी आवाज उठा रही हैं।


 भारत और लातिनी अमरीका की मूल निवासी स्त्रियों की समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति के बाद अब हम देखेंगे कैसे ये स्त्रियां अपने साहित्य के द्वारा अपनी यातना को व्यक्त करने की कोशिश कर रही हैं। आगे हम उनकी कुछ कविताओं का विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे। शुरुआत हम लातिनी अमरीकी कवयित्रियों की कविताओं का विश्लेषण से करेंगे और फिर भारतीय आदिवासी कवयित्रियों की कविताओं का विश्लेषण करेंगे और उनमे तुलनात्मक बिन्दुओं को प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगे। 


ग्वाटेमाला की कवयित्री नोर्मा गार्सिआ मैनिएरी (1940-1998) लिखती हैं कि  मार्जिनलिया (कविता संग्रह) महिलाओं के विषय के इर्द-गिर्द घूमती है, समाज के भीतर उनके सामने आने वाली कई समस्याओं को उजागर करती है और कुछ पारंपरिक योजनाओं को बदलने की आवश्यकता व्यक्त करती है। एक ओर शोषण और अन्याय की स्थितियों का सीधा विरोध करती है वहीँ दूसरी ओर उनकी महिला होने की पुष्टि करती है जो कई कविताओं में आत्मकथात्मक नजर आती हैं।


(पसंद) कविता में कवयित्री अपने अस्तित्व को लेकर बहुत चिंतित है। पितृसत्तात्मक समाज ने उनको घरेलु कार्यों तक सीमित करके रख दिया है। वो इससे ऊपर उठना चाहती है। वो अपने हक़ और बराबरी की अधिकार की लड़ाई खुद लड़ना चाहती है।



मैं काम करके थक गयी हूँ
हमारा कोई महत्व ही नहीं है
घर की सफाई करना
दोपहर का खाना बनाना
कपडे धोना
बच्चे पैदा करना
उनकी देखभाल करना, और उन्हें उनके पिता के साथ खाना खिलाना
ऑफिस के काम जैसा काम करना
जो काम, काम जैसा लगे।
इस देशद्रोही समाज में
मुझे आधा अधिकार शक्ति में दिलचस्पी है
बस। (मेरा अनुवाद)([vii])


इस कविता में देख सकते हैं कि स्त्री घरेलु काम से तंग आ गयी है, अब वो दमनकारी पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ बराबरी का अधिकार के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहती है।


ग्वाटेमाला की दूसरी बहुचर्चित लेखिका इसाबेल दे लॉस एंजेलेस रुआनो (1945) बताती हैं कि कैसे मूलनिवासी स्त्रियों को शिक्षा से बंचित रखा जाता था। उनको छोटे कार्यों में उलझा के रखा जाता था। अगर कोई स्त्री पढ़ लिख जाये, अपनी आवाज़ उठाये तो उसको नियंत्रित करके रखा जाता था। कितनी बार तो नौबत ये आ जाती थी की उन स्त्रियों को निर्वासित कर दिया जाता था। खुद इस कवयित्री और सुप्रसिद्ध लेखिका रिगोबेर्ता मेंचू के साथ भी ऐसा ही हुआ। अगली कविता में कवयित्री इसी बात को उजागर करती है और इसकी भर्त्सना करती है।

 


मेरी कविता
उन्होंने मेरी मां से मेरी कविता के बारे में पूछा।
मुझे निर्वासित कर दिया गया।
उन्हें कैसे बताऊं कि मैं शब्द के साथ पैदा हुई हूं
तथा औरो से भिन्न हूँ? (मेरा अनुवाद)([viii])


इससे साफ़ पता चलता है कि स्त्रियों की आवाज़ को निर्वासन का डर दिखाकर दबा दिया जाता था।


ग्वाटेमाला के माया कीचे समुदाय की प्रतिष्ठित कवयित्री रोसा चावेष (1980) अपनी किताब कितापेनास (दर्दमुक्त)(2010) में  ग्वाटेमाला में प्रतिरोध के बारे  में बात करती है। ग्वाटेमाला में मूल निवासी लोग भयानक हिंसा और आतंक की स्थिति में रहते आये हैं और कवयित्री इसका विरोध कैसे करती है यह निम्नलिखित कविता में दर्शाया गया है।

 


वे हमारा सर काट लेते हैं
और दिल धड़कता रहता है
वे हमारी खाल उधेड़ देते हैं
और दिल धड़कता रहता है
वे हमारे शरीर के दो टुकड़े कर देते हैं
और दिल धड़कता रहता है
वे हमारा खून पीते हैं
और दिल धड़कता रहता है
हम बिना आराम के पीटने के लिए तैयार रहते हैं। (मेरा अनुवाद)([ix])

 


स्त्रियों की वेदना और शोषण का कोई सीमा नहीं है, जिसको कवयित्री इस कविता में बहुत सरलता से प्रस्तुत की है, और इस प्रकार उनके खिलाफ हो रहे शोषण का पुरजोर विरोध भी करती है।


अगली कविता में कवयित्री रोसा चावेष अपनी पुरानी यादों को दर्शाती है जो मुक्ति प्रक्रिया की शुरुआत करती है। यह कविता मूल निवासियों पर लम्बे समय से होते आ रहे शोषण पर काबू पाने की ओर इशारा करती हैं जिससे कवयित्री भी खुद को मुक्त करने की कोशिश करती हुई दिखती है। 


 

मैं अपने पुराने घाव और दुःख को कुरेदती हूँ
मैं उनसे मुक्त होती हूँ जो मुझे बांध कर रखता है
मातृ जगत मुझे मुक्त करता है
पितृ जगत मुझे मुक्त करता है
उन्मुक्त घूमती हूँ
एक जगह से दूसरी जगह
बकरियां चराती हुई
शहरी पहाड़ियों के बीच
कठोर पहाड़ पर
अवतल पहाड़ पर
सौंदर्य-देवी के पहाड़ पर
पार कर चुके पहाड़ पर
मै उन्मुक्त घूमती हूँ
सचेत। (मेरा अनुवाद)([x])

 

इस प्रकार, मुक्ति के लिए शोषण के खिलाफ संघर्ष का दृढ संकल्प पूरी कविता में देखने को मिलता है जिसमे उन्मुक्त होने का तात्पर्य मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करने से है। इसके साथ ही कवयित्री सभी व्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज़ उठाती है जो पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पितृसत्तात्मक व्यवस्था से लेकर राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व आदि तक कवयित्री के अस्तित्व को सीमित करती है। अर्थात, कवयित्री इन छंदो के द्वारा सभी प्रकार के उत्पीड़न को संदर्भित करती है और साथ ही उनसे छुटकारा पाने के लिए काव्यात्मक आवाज को बुलंद करती है और अपने अस्मिता और अस्तित्व को कायम करती है। इस प्रकार अंत के दो छोटे छंद उनकी हासिल की हुई स्वतंत्रता की पुष्टि भी करते हैं।  


अगली कविता में कवयित्री सभी मूल निवासी लोगों पर वर्षों से होते आ रहे अत्याचार, शोषण तथा हिंसा को बहुत ही बखूबी दर्शाते हुए अपनी आवाज उठाती है जिससे यह पता चलता है कि स्थिति में बदलाव लाने के लिए मूल निवासी महिलाएं अपनी कलम चलाना शुरू कर चुकी हैं।


 

उन्होंने मेरा मुँह बंद किया
अब मैं सच को चिल्ला-चिल्ला कर बताती हूँ
उन्होंने मेरा दुःख को दबाया
अब मैं ज़ोर-जोर से हंसती हूँ
उन्होंने मेरे पैर बांध दिये
अब मैं हड्डियां टूटने तक नाचती हूँ
उन्होंने मेरी नसें काट दी
अब मैं अपने खून का जश्न मनाती हूँ।
उन्होंने मेरे चेहरे पर जोर का प्रहार किया
अब मैं उनसे सन्मुख होती हूँ
उन्होंने मुझे हज़ारों बार मारा
अब मैं अनेक में से एक हूँ और बहुवचन हूँ
उन्होंने मेरा मांस खाया
अब मैं वह इतिहास हूँ जो उन्हें काटता है। (मेरा अनुवाद)([xi])

 


दूसरी तरफ भारतीय आदिवासी समाज में स्त्रियों का अधिकार का प्रावधान है लेकिन  स्थिति ऐसी है कि इस बाजारीकरण के दौर में स्त्री को भोग की वस्तु ही समझा जाता रहा है। ये स्त्रियां अपना पूरा जीवन अपने परिवार को सँवारने में खपा देती हैं। फिर भी स्त्री को पुरुषों की तुलना में कमजोर ही समझा जाता है और उनकी मेहनत को मेहनत समझा ही नहीं जाता है। आज वो अपने ही समाज में प्रताड़ित है। पितृसत्तामक समाज स्त्री को अपने पंजों में जकड लिया है। हालाँकि आदिवासी महिलाएं गैर-आदिवासी महिलाओं के तुलना में स्वतंत्र होती हैं। पर आदिवासी महिलाएं अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए मशक्कत कर रही हैं। आदिवासी महिलाएं या बच्चे मानव तस्करी और दैहिक शोषण के बहुत आसान शिकार होते हैं। समाज के लोग एक आदिवासी स्त्री की देह को अश्लील नजरों से देखते हैं। इसी समस्या को हिंदी की सुप्रसिद्ध कवियित्री निर्मला पुतुल व्यक्त करती हैं।


 

मेरा सबकुछ अप्रिय है उनकी नज़रों में
प्रिय है तो बस
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल, फल, लकड़ियां
खेतों में सब्जियां, घर की मुर्गियां
उन्हें प्रिय है मेरी गदराई देह
मेरा मांस प्रिय है उन्हें।([xii])

 


आदिवासी स्त्रियां अशिक्षित, गरीब और भोली-भाली होती हैं जिस कारण वो मानव तस्करी का आसान शिकार हो जाती हैं। दलाल उनको नौकरी या अच्छा जीवन का झांसा देकर अपने साथ शहर ले जाते हैं और उनको वेश्यालयों में बेच देते है। शहर पहुंचने के बाद इन  लड़कियों का पता ही नहीं चलता है, मानो जैसे शहर उनको निगल जाता है। कवयित्री की अगली कविता इसी बात को इंगित करती है।


 

कहाँ हो तुम माया?
दिल्ली के किस कोने में हो
मयूर विहार, पंजाबी बाग़ या शहदरा में?
कहाँ हो तुम माया? कहाँ हो?
कहीं हो भी सही सलामत या
दिल्ली निगल तो नहीं गयी तुम्हे?
क्या सचमुच इतने लोगों से होकर गुजारी तुम
या वे सब के सब गुजरे
अनचाहे तुम्हारी जिंदगी से?
दिल्ली
नहीं है हम जैसे लोगों के लिए
क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता माया
कि वह ऐसा शमशान है जहाँ
जिंदा दफ़न होने के लिए भी लोग लाईन
में खड़े है?
..........
तुम जहाँ भी हो लौट आओ माया!
लौट आओ!([xiii])

 


इस कविता में कवयित्री आदिवासी लड़कियों की समस्याओं को दर्शाती हैं कि कैसे आदिवासी लड़कियां रोजगार की खोज में दिल्ली जाती हैं या झांसे में फंसा कर ले जाई जाती हैं और वहीँ गुम हो जाती हैं या उनका शारीरिक शोषण होता है।


निर्मला जी अपनी कविताओं में स्त्री मुक्ति की बात भी करती हैं। उनकी कविता स्त्रियों की स्थिति पर सोचने पर मजबूर करती है। इनकी कविताओं का मुख्य मकसद स्त्री की स्वतंत्रता ही है। स्त्री का अस्तित्व और अस्मिता ही उनकी कविताओं का उद्देश्य है।


 

स्त्रियों को इतिहास में जगह नहीं मिली
इसलिए हम स्त्रियां लिखेंगे अपना इतिहास
..........
हम खून से लिखेंगे अपना इतिहास
हम समय के छाती पर पाँव रखकर
चढ़ेंगे इतिहास की सीढियाँ
और बुलंदियों पर पहुंचकर
फहराएंगे अपने नाम का झंडा
कुछ इस तरह
हम स्त्रियां दर्ज कराएंगी
इतिहास में अपना इतिहास।([xiv])

 

कवयित्री शोषित, प्रताड़ित स्त्रियों को अपना इतिहास लिखने का प्रोत्साहन दे रही है। यह विद्रोही स्वर जन-चेतना जगाने का काम अवश्य करेगा। निर्मला जी अपने आदिवासी समाज के सभी लोगो को शोषण के खिलाफ उठने को बोलती हैं :


 

उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साज़िश के ख़िलाफ़।([xv])

 

झारखण्ड की दूसरी प्रतिष्ठित कवयित्री बन्दना टेटे जी हैं जो अपने साहित्य मे अपनी प्रखर आवाज़ द्वारा आदिवासी स्त्रियों की समस्यायों को उजागर करती हैं और उसका विरोध भी करती हैं। वो आदिवासी चेतना के साथ-साथ स्त्री चेतना पर अपनी कविताओं में जोर देती हैं। उनकी यह कविता स्त्री की वेदना को व्यक्त करती है।

 


तुम जला दी जाती हो
रूप कुंवर की तरह
समाज क़त्ल कर देता है तुम्हारा
जब तुम प्रेम करती हो
संस्कृति की गर्म सलाखों से
फोड़ दी जाती है तुम्हारी आँखें
और जब जुबान खुलती है तुम्हारी([xvi])

 


ग्वाटेमाला की मूल निवासी स्त्रियों की तहर ही भारतीय आदिवासी स्त्रियों को अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। यहाँ तक की उनका क़त्ल तक किया जाता है, उनका यौन शोषण किया जाता है, जिन्दा जलाया जाता है। ऐसे में इस प्रकार की कवितायेँ स्त्रियों की आवाज़ को पितृसत्ता के सोच को उखाड़ फेंकने का काम करेंगी।


निर्मला पुतुल की तरह वंदना टेटे भी आदिवासी स्त्रियों और पुरुषो को भी अपनी लड़ाई खुद लड़ने को प्रोत्साहित करती हैं। उनको पता है कि बाहरी ताकतें उनकी समस्याओं को स्पष्टता से चित्रित नहीं कर पाएंगी। इसलिए अपनी अस्मिता की लड़ाई खुद लड़ने को बोलती हैं। वो कहती हैं :


 

कब तक जोहते रहोगे
अपनी पहचान जानने
के लिए दूसरे का मुंह
और कब तक आसरे में
रहोगे की कोई आए
और तुम्हारे लिए लड़े।([xvii])

 

निष्कर्ष : अंततः यह कहा जा सकता है कि भारतीय आदिवासी तथा ग्वाटेमाला की मूलनिवासी स्त्रियां अपने समाज द्वारा शोषित व प्रताड़ित हैं। दोनों समुदाय की महिलाएं गरीबी, बेरोजगारी, पितृसत्ता तथा शारीरिक शोषण की शिकार रही हैं। ये समान रूप का रूढ़िवादिता का शिकार रही हैं। उनका अस्तित्व और अस्मिता अपने समाज में ना के बराबर रहा है। कई मामलों में दोनों समुदाय की स्त्रियों की स्थिति तुलनीय है। महान दार्शनिक माइकल फूको का कहना सच है कि जहां शक्ति होता है वहां प्रतिरोध भी होता है। ठीक इसी प्रकार आदिवासी तथा मूलनिवासी कवयित्रियां स्त्री के साथ हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ अपने साहित्य के द्वारा अपनी प्रखर आवाज को बुलंद करने लगी हैं। निर्मला पुतुल और बन्दना टेटे के साहित्य को काफी सराहा जा रहा है, ठीक उसी प्रकार ग्वाटेमाला की रोसा चावेष का नाम वहां के महत्वपूर्ण कवयित्रियों में गिना जाता है। यह लेख निश्चित रूप से इन कवयित्रियों को वैश्विक अस्तर पर एकजुट होने में योगदान देगा और उनके संघर्ष को और मजबूती प्रदान करेगा।


सन्दर्भ :
[i] Situation of human rights in Guatemala: Approved by the Inter-American Commission on Human Rights, OEA/Ser.L/V/II. Doc. 208/17 31 December 2017 Page-9
[ii]https://www.eeas.europa.eu/eeas/las-mujeres-ind%C3%ADgenas-el-latido-que-mantiene-vivas-las-comunidades-ancestrales_es?s=187, अभिगमन तिथि 22/6/2023
[iii] Rigoberta Menchu Tum, I, Rigoberta Menchu, An Indian Woman in Guatemala, ed. Elisabeth Burgos-Debray, trans. Ann Wright, London:1984. P. 19
[iv] https://assembly.malala.org/stories/kaqchikel-artist-guatemala, अभिगमन तिथि 23/6/2023
[v] https://samwadsutra.com/status-of-tribal-women-in-indian-society/  अभिगमन तिथि 23/6/2023
[vi] डॉ. माधव सोनटक्के, डॉ. संजय राठोड: संपादन, भारतीय साहित्य और आदिवासी विमर्श, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 12
[vii] Anabella Acevedo / Aida Toledo, Para conjurar el sueño, poetas guatemaltecas del siglo XX, Ediciones Papiro, S. A., Guatemala, 1998, p.48
[viii] वही, पृ. 58
[ix] Quitapenas. Chavez, Rosa. Editorial Catafixia. Guatemala. 2010) cuadernos de literatura Vol. XIX n.º38 • julio-diciembre 2015, pages. 357-359
[x] https://libroemmagunst.blogspot.com/2018/07/rosa-chavez-5-poemas-5.html अभिगमन तिथि 25/6/2023
[xi] https://fipq.org/rosa-chavez-guatemala-2/ अभिगमन तिथि 25/6/2023
[xii] निर्मला पुतुल: नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञान पीठ, 2005, पृ.73
[xiii] निर्मला पुतुल: -अपने घर की तलाश में, रमणिका फाउंडेशन, 2004, पृ. 31-33
[xiv] निर्मला पुतुल: -बेघर सपने, आधार प्रकाशनपंचकुला हरियाणा, 2014, पृ.75
[xv] https://www.hindwi.org/kavita/bitiya-murmu-ke-liye-nirmala-putul-kavita, अभिगमन तिथि 27/6/2023
[xvi] वंदना टेटे: कोनजोगा, कविता संग्रह, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, 2015, पृ. 51
[xvii] वही, पृ
. 68

 

डॉ. अश्वनी कुमार
सहायक प्राध्यापक, स्पेनी एवं इतालवी अध्ययन विभाग,
अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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