ये वे दिन थे जब जोहड़ की जमीन आकड़ों और धमासों से भर उठती थी। धमासे के पौधे नन्हें गुलाबी फूलों से भरे होते, बीच- बीच में सत्यानाशी के पीले फूल अपने मोहक सौंदर्य के साथ उग आते। इसके पीताभ फूल जिसने देखे हैं, वही उनकी खूबसूरती जान सकता है,श्वेत-पीत पंखुडियों की गोद में पीले पुंकेशरों के बीच खिली कत्थई-गुलाबी बुँदिया! न जाने किस सत्यानाशी ने इसका नाम सत्यानाशी रखा! पता चला संस्कृत में तो इसे स्वर्णक्षीरी कहते हैं। संस्कृत ने तो हमारे खेतों में उगनेवाली लम्बी 'साटा' घास को भी पुनर्नवा जैसा काव्यात्मक नाम दिया है। आयुर्वेद में स्वर्णक्षीरी को रोगों का सर्वनाश करने वाली माना गया है, रोगों का सत्यानाश करनेवाली होने के कारण ही हो सकता है इसे सत्यानाशी कहा जाने लगा हो।
खैर जो भी हो मगर सबेरे स्कूल जाते वक्त तो इन्हीं धमासों, आकड़ों और सत्यानाशियों से मुलाकात होती। इन्हीं के बीच से आने जाने से वह पगडण्डी बन गई थी जिसे हम 'गेली' कहते थे। स्कूल के बाहर एक बड़ा जाँट (खेजड़ा) उगा था ,जिसकी छाँव में स्कूल के बच्चे कबडी (कबड्डी) खेलते। वह जाँट तो अब भी है बस कबडी प्रगति करके क्रिकेट हो गई।
प्रगति अक्सर स्थान परिवर्तन का योग लेकर आती है और पीछे कइयों को अकेला कर जाती है। बूढ़ा जाँट शहर में पलायन कर गए बेटों के गाँव में छूटे बुजुर्ग पिता की तरह अब भी तन्हा खड़ा मिलता है। इसी जाँट की मजबूत डालों पर हींडा (झूला) डालकर तीज-गणगौर के मौके पर नव ब्याहता नणद-भौजाइयाँ झूलती थीं। इसी जाँट की छाँव में बैठकर सीकर, लिछमगढ़ और सालासर जानेवाली मौहल्ले भर की सवारियाँ मोटर का इंतजार करती थी। आज वह दरखत इंतजार में खड़ा मिलता है। अब उसकी टिकटोळी (सर्वोच्च शिखर) पर बैठकर मुसाफरी पर जाने वालो को सोनचिड़ी शगुन नहीं देती। अब तो शायद काग भी मोटे तिनके बटोरकर उसके तुरंग्यों पर घौंसला नहीं बनाते। कारण यह है कि कौए बेहद कम हो गए हैं आजकल गाँवों में। मोबाइल के जमाने में अब कोई शगुन के काग नहीं उड़ाता। अब तो 'कद म्हारो पिव जी घर आसी' का अपडेट काळे कागले से बेहतर वाट्सएप का स्टेटस देने लगा है। तीसरी पास आदमी भी स्टेटस लगाता है - ' गोइंग टू गाँव।' शहरों में तो कौए और भी कम हो गए हैं। इक्कादुक्का ही नजर आते हैं। हो सकता है गिद्धों की तरह कौए भी कुछ ही बरसों में लुप्त हो जाएँ। लगता है कौओं और गिद्धों की भूमिका में खुद इंसान ही आ गया है।
कुछ परिंदे बढ़े भी हैं। गाँव हो या शहर तोतों और कबूतरों की तादाद बढ़ी है। इंसानों में भी कबूतरों और तोतों की नस्ल खूब पनपी है। अगर खतरे से आँख मूँदकर रहना आ जाए, पड़ौसी का शिकार होते देखकर भी घौंसले में दुबकना आ जाए या तोते की तरह 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' की आदत हो जाए तो चुग्गे की कोई कमी नहीं। ऐसों के लिए तो खुद गिद्ध - कौए भी चुग्गा जुटाने लग जाएँ। इंसानी चिड़ियाघर से वापस परिंदों पर आता हूँ । स्कूल के उस जाँट पर तरह-तरह के पंछी आकर बसेरा करते।
'कुक्कुऊ-कु' 'कुक्कुऊ-कु' करती धोळी और लाल कमेड़ी बैठती। कभी-कभार कोई भूली भटकी हरियल आ बैठती। खेजड़े के कच्चे गोभळ्ये (कोंपलें) उसके पाँखड़े सहलाते। कभी बया आकर मींझर का मुँह चूमता। जब मींझर आती तो खेजड़े की हरियल डालियाँ दुल्हन सी सिंगार की हुई नजर आतीं। हरी सुन्त्याळी डालियों में मींझर यों लगती जैसे कलाई से कोहनियों तक भरे लाख के चूड़े में राखियों के अनगिनत फूँदने बाँध दिए हों। कच्ची मींझर हरी दानेदार होती जिसे हल्के हाथ की चूँटी (अगूँठे व तर्जनी के पौर मिलाने से बनी आकृति) से सूँतकर खाया जाता। हल्की पकने पर मींझर नन्हें धोले-पीले फूलों से भर जाती तब उसे सूँतकर खाने का और भी मजा था, होली के बाद ढूँढ पर बतासे मिले ज्वार के फूल्यों की तरह मींझर मिठास से भर जाती। नीचे झरी मींझर को चींटियाँ उठाकर बिल में ले जातीं, रही सही खेजड़े की गोद में बिखरी रहती जैसे रात को देवताओं ने खेजड़े पर फूल बरसाए हों और सबेरे वे ही नन्हें देवपुष्प धरती की गोद में सो रहे हों। हवाएँ बुहारकर उन्हें इकट्ठा कर देतीं।
कुछ दिनों बाद खेजड़े में हरी कच्च पतली-पतली सांगरी लटूमने लगतीं। खेजड़ा जैसे पूरे गाँव का परदादा! गाँव वाले जैसे पोते पोतियाँ! काँधे चढ़कर सिर की स्यापी में खुसे चिटकी -पतासों की तरह साँगरी -खोखों व गोंद पर सब का बराबर हक। पहले आओ पहले पाओ का सिद्धांत! हरी साँगरी का साग बनता। कढ़ी बनती। शेखावाटी की अर्ध मरुस्थलीय बारानी धरती में साँगरी, खिंपोळी, कंकेड़िया, बाड़ करेला, टींडसी, काचरा-मतीरी जैसी गिनी-चुनी हरी सब्जियाँ ही तो थीं। हरा साग माने उत्सव! वर्ना तो किस्सा वही था जो कभी स्कूल की शनिवारीय अंत्याक्षरी में म्हाबू भाया ने सुनाया था।
म्हाबू भाया ने जो सुनाया वह आप भी सुन लीजिए। स्कूल में शनिवार को आखिरी दो कालांशों में अंत्याक्षरी होती। कक्षा छह, आठ, दस इधर तो पाँच,सात, नौ उधर। एक तरफ मित्र राष्ट्र तो दूसरी तरफ धूरी राष्ट्र! बीचों बीच हथियार बनाने वाली कंपनियों की तरह अध्यापक! आप तो लड़ो हम हैं ना! इक्कादुक्का अध्यापक दोनों दलों के बीच चौकीदार बनकर बैठते ताकि कोई रुँगस नहीं खाए। रूँगस माने चिटिंग! किताब में से देखकर बोलना।
एक आध बार ऐसे प्रयोग भी हुए कि लड़के एक तरफ तो सारी लड़कियाँ एक तरफ! मगर उस दिन अंत्याक्षरी लम्बी नहीं चल पाती। अंग्रेज़ी में तो फिर भी कुछ देर रुड़कती मगर हिंदी में तो पान-सात मिनट में ही टें बोल जाती। कारण यह था कि अधिकतर लड़के पूरी स्कूल के सामने कविताएँ, गीत, दोहे सुनाने का साहस नहीं जुटा पाते थे। शरमाते थे। लड़कियाँ अलबत्ता प्रार्थना की अगुवाई किया करती थीं तो अंत्याक्षरी बोलने में उन्हें उतनी शर्म नहीं आती थी। उनको शरमाने के अलग मौके मिलते थे। जैसे गृहकार्य जाँच करवाते समय अध्यापक द्वारा कुछ पूछ लिए जाने, चाहे खुद का नाम ही पूछा गया हो, वे शरमा जातीं। रास्ते में, बारामदे में, कक्षा के दरवाजे पर अगर किसी अध्यापक या लड़के को अकेली मिल जातीं तो शरमा जातीं। शरमाने का तरीका था, हाथ में पकड़ी कोपी-किताब से मुँह को छुपा लेना। कोपी-किताब न हो तो खुद के दुपट्टे से मुँह छुपा लेना। कुछ भी न हो तो खाली हाथ से मुँह को छुपा लेना। बेंच के बीच खड़ी हो तो मुँह को छिपाने के लिए क्षण भर के लिए आधा पीछे घूम जाना। दो लड़कियाँ साथ हों तो ज्यादा शरमाने वाली कम शरमाने वाली के ओट होकर शरमा लेती। मगर लड़कियाँ पढ़ने में कम शरमाती थीं, हालांकि पढ़ने के मौके उन्हें कम मिलते थे। लड़के पढ़ाई को छोड़कर बाकी घरेलू कामों में कम शरमाते थे हालांकि उसके मौके उन्हें कम मिलते थे।
तो दोनों दल बैठे ; कौरव-पांडवों की सेना की तरह। बीच में लकड़ी की फ्रेम में गुॅंथे प्लास्टिक के सफेद तारों की केनिंग कुर्सी की पिछली फ्रेम से टिककर बर्बरीक के सिर की तरह हेडमास्टर जी का सिर स्थापित हुआ। शेष शरीर शेष कुर्सी पर! अंत्याक्षरी शुरू करने का इशारा हुआ -'हाँ ,शुरू करो' मानों कुरुक्षेत्र के मैदान में पितामह भीष्म ने युद्ध का शंखनाद कर दिया हो। एक पक्ष से एक लड़की ने हर बार की तरह उठकर कहा -
"बैठे-बैठे क्या करो, करना है कुछ काम।
शुरू करो अंतासरी लो ह ..री - का ना…मअ।"
दूसरी तरफ से जवाब आया -
"मिलिता है सच्चा सुखि केवल भगिवान तुम्हारे चरिणों में।
यह बिनती है पलि-पलि छिन-छिन रहे ध्यानि तुम्हारे च..रि..नों में।"
'म' पर बोलो।
"महाबीर बिक्रम बजरंगी।कुमती निवार सुमति के सं…गी।"
'ग' पर बोलो। " गुरु गोविंद दोऊ खड़े…।"
अंग्रेजी अंत्याक्षरी में 'वाई' बड़ी वाहियात थी तो हिंदी में 'है' बड़ा हरामी था। ये ही दोनों ज्यादातर हरवाते थे। हालांकि इनसे हार स्वाभाविक सी थी, इसलिए उतनी शर्मनाक नहीं समझी जाती थी। पर दूसरे अक्षरों पर हारना नाक कटानेवाला काम था। उस दिन हमारी टीम 'स' पर हार रही थी। बड़ी शर्मनाक स्थिति थी। कारण यह था कि हमारी कक्षा के जो एक-दो लड़के -लड़की हिंदी अंत्याक्षरी के उस्ताद थे , वे छुट्टी पर थे। सामने के कौरव दल ने जान लिया था कि आज अर्जुन युद्ध भूमि से दूर 'नानेरै' गया हुआ है , इसलिए आज इनको 'नानी का नारैरा' याद दिलाया जा सकता है। उनकी ओर के यौद्धा उत्साहित हो-होकर, बढ़-बढ़कर वार करते थे। हम व्यूह में घिर चुके थे। 'ह' की हाँक तो अभी दूर थी, हम तो 'स' के सपाट मैदान पर पिट रहे थे। मास्टर जी बोल रहे थे, -" 'स' पर बोलो भई"
'स' एक… 'स' एक…'स' एक… हमारी साँसें चढ़ने लगीं।
'स' एक…'स' एक…'स' दो!
धड़कने और तेज।
'स' दोओ…ओ…'स' दोओ…ओ…। सबने सिर झुका रखे हैं। गुरुजी फिर बोले, " 'स' दोओ…ओ… जल्दी करो भाई!" विपक्षी दल कहे गुरुजी बेइमानी करो हो।
हमारा पक्ष कहे, "म्हाबू बोल! अरै म्हाबू बोल!"
म्हाबू हमारा अभिमन्यु था। अंत्याक्षरी में बोलता नहीं था। शरमाता था मगर पास बैठे लड़के के कान में जवाब बता देता था। उसकी वजह से कई बार हमारी हार टली थी। म्हाबू का पूरा नाम था महावीर प्रसाद। पर हमारी जीभ प्रसाद को तो पूरा ही चट कर गई थी और महावीर घिसते-घिसते सिर्फ म्हाबू रह गया था। दल और क्लास की इज्ज़त का सवाल था। क्लास रूपी बसंती की धन्नो आज म्हाबू ही था। मगर धन्नो के भागने से नहीं, बोलने से ही इज्ज़त बच सकती थी। न बोलने वाला, शर्मिला म्हाबू धीरे से उठा। जैसे 'धरती वीरों से खाली है' का लांछन दूर करने के लिए सीता स्वयंवर में राम उठे हों -'उदित उदय गिरि मंच पर रघुबर बाल पतंग।'
म्हाबू के साथ उठी जीत की उम्मीद। प्रतिपक्षियों की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे! म्हाबू उवाच (बोला) -
"सदा भवानी दाहिनी सन्मुख रहत गणेश।
पाँच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।।"
विपक्षी दल चिल्लाया , " बोल्यैड़ो है, गुरजी! बोल्यैड़ो है।"
" बोल्यैड़ो है गुरजी! बोल्यैड़ो है।"
गुरुजी को मानना पड़ा कि पहले बोला जा चुका है। कहा, "दूसरा बोलो 'स' दो… 'स' सवा दो"
"म्हाबू!"
"म्हाबू!"
म्हाबू ने दिमाग पर जोर डाला। कुछ याद नहीं आया। मगर उठ खड़ा हुआ। चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुका था। हार और जीत का फैसला उसके मुँह से निकले चंद शब्दों से होना था। पूरी टीम…कक्षा पाँच…सात…नौ…की निगाहें…नहीं…नहीं विपक्षी दल की कक्षाओं छठी…आठवीं…दसवीं…की भी…गुरुजिओं की…दरख्तों…हवाओं की..समूची स्कूल की निगाहें उसी पर टिकी थी। तभी म्हाबू ने पूर्णतः स्वदेशी मिसाइल दागी -
"सदा भवानी दाळ मं गुड़ मं बसै गणेश।
पाँच रोट रक्षा करैं खाताई भर ज्याय पेट।।"
पक्ष हँसा , गुरुजी मुळके मगर विपक्ष चिल्लाया -
" जोड़ेड़ी है ,कोनी चल्ले।
जोड़ेड़ी है ,कोनी चल्ले। (जोड़तोड़ से बनाई गई है, नहीं चलेगी।)"
हमारा पक्ष चिल्लाए ,
"चलसी…चलसी..चलसी(चलेगा)"
मामला थर्ड एम्पायर के पास पहुँचा। हिंदी के मास्टर! म्हाबू की प्रत्युत्पन्नमति से प्रभावित हो गए। कहा, " चला लो।"
'ट' से बोलो!
पक्ष ने जोरदार तालियाँ बजाई ।विपक्ष निराश हुआ।
फिर वार किया -
"टम टम की टोटरी बजाने वाला कौन।
धरती माता सो गई जगाने वाला कौन।"
म्हाबू ने जवाब दिया ,
" नदियाँ ना पिएँ कभी अपना जल।
वृक्ष न खाएँ कभी अपना फल।"
"ल पर बोलो भाई।" गुरुजी बोले।
'ल' एक…'ल' दो…। ल पर तो जवाब आ जाना चाहिए था। 'ल' दोओओ…!
विपक्ष से जवाब आया -
"लाल लंगोटा, हाथ में घोटा सिया राम का दास।
राम नाम का जिसे भरोसा राम नाम की आस।"
"फिर से 'स'। बाप रे! स पर! बोलो भाई…..'स ' एक…'स' दो.. हमारा खेमा मायूस…सामने का दल चौकन्ना! कही कोई रूँगस तो नहीं खा रहा। नहीं।
म्हाबू चुप! हमारा पूरा दल चुप! जैसे किसी ने चुप्पी का मंतर पढ़ दिया हो -
" चुपच्याप
चिड़ी को बाप।
पहली बोले
बीनै पाप।
दूजो बोलै
गधो छोलै।
तीजो बोलै
माँखी मारै….।"
गुरुजी ने कहा , "जल्दी करो भई जल्दी करो। 'स' दो…'स' सवा दो….' स ढाई…."
सहसा म्हाबू उठा……
बोला….
"सूकी - पाकी रोटड़ी , सागै थोड़ो खाटो।
पाँच देव रक्षा करै चकळो, बेलण, मिरचाँ को भाटो।"
खाटो माने थोड़ी सी छाछ में बेसन की बजाय बाजरे का आटा डाल कर बनाई गई कढ़ी! जोरदार हँसी के ठहाकों के बीच प्रतिपक्षी चिल्लाए -
"दरमंई कोनी चालै गुरजी! (गुरुजी बिल्कुल नहीं चलेगा)।"
दरीई…कोनी चालै ओ तो…।"
म्हाबू भी जानता था शायद ही चले इस बार! उसे खुद भी खुद पर यकीन नहीं रहा था। खाटा, राबड़ी , रोटी, मिर्च एकदम देसी खाज (खाद्य)! गरीबों का भोजन! इसे कविता में कौन चलाएगा। कुछ अंग्रेजी में होता तो चलता…हिंदी वालों के लिए अंग्रेजी 'अंग्रेजी है' तो मारवाड़ी वालों के लिए हिंदी ' अंग्रेजी ' है। उसकी बोली, उसका खाज, उसका पहनावा हँसी की वस्तु तो है , रस की और इज्जत की नहीं। जब तक निर्णय न हो तब तक अंत्याक्षरी के खिलाड़ी को खड़े रहना चाहिए लेकिन म्हाबू पहले ही बैठ गया। तभी गुरुजी बोले, 'स' ती..ईई..ई..न!'
प्रतिपक्षियों में खुशी की लहर! उन्होंने 'स' से सन्नाटे को चीरकर 'स' से 'साहित्यिक' सा कुछ सुनाया। मगर आज याद नहीं क्या सुनाया? याद है म्हाबू की अभिमन्युमयी पनियायी आँखें! मेरा बस चले तो म्हाबू को आज जाकर महावीर चक्र दे दूँ। पर वश न तब चला, न अब।
इस नन्हीं सी हार ने हमें जिंदगी में होनेवाली बड़ी हारों के लिए तैयार किया। उस छोटी सी जीत ने हमारे दूसरे साथियों के जेहन में बड़ी जीतों का जज्बा भरा।
खैर! मैं कह रहा था कि उस जमाने में हरी सब्जी थी कहाँ? सो हरी सब्जी माने उत्सव! गेहूँ की रोटी माने उत्सव या पावणों (मेहमानों) की पहुनाई! तो खेजड़ी पर हरी-हरी साँगरी लटूमती। जड़ाजंत! लदड़पदड़! जब साँगरी कुछ मोटी होने लगतीं तो उनकी बूजी बनती! बूजी याने उबली भाजी जिसमें कोयले पर जरा घी डालकर धूँए का तड़का लगाकर नमक-मिर्च मिला दिया जाता।
जब साँगरियों को उबाला जाता तो माँ एक खास तरह का व्यंजन बनाती थी -मुठड़ी। बाजरे के आटे की मुठड़ियों को सांगरियों के साथ उबलने चढ़ा दिया जाता। पकने पर घी और चीनी मिलाकर ये मुठड़ियाँ खाई जातीं । माँ कितनी ही तरह के अनूठे व्यंजन बेहद साधारण चीजों से बना देती थी जो उन्हीं के साथ खत्म हो जाने हैं। मसलन वे बिना घी, तेल के सूखे आटे को तवे पर सेक कर , चीनी मिलाकर 'खसार ' बना देती। बिना घी, तेल के आटे , गुड़ और पानी से लापसी बना देती, गुड़ न हो तो नमक डालकर 'लूपरी ' बना देती, गेहूँ के दलिए में गुड़ डालकर 'गुळिचड़ा' बना देती, सूखे बैरों को ऊखल में कूटकर ,जरा सी चीनी मिलाकर खट्टी- मिठी 'खोडी' बना देती। सूखे कैरियों व ग्वार की सूखी फलियों को तलकर नमक -मिर्ची बुरकाकर चरपरी नमकीन बना देती। मतीरे के बीज भूनकर ,गुड़ डालकर मीठे लड्डू तो नमक-मिर्च डालकर नमकीन बना देती। मोठ,जौ, गेहूँ को भूनकर धाणी बना देती!
साँगरी पककर खोखे बन जाते। पहले हरे खोखे, कुछ दिन बाद सूखे खोखे। हरे खोखों पर पहला हक हरियर सुवै (तोते) और 'काँटकिलारी' का। 'काँटकिलारी' का दूसरा नाम 'गिलगावरी'! अब भी नहीं समझे तो गिलहरी। सुवै खोखों के सिर्फ़ बीज खाते। काँटकिलारी आधापड़दा खोखा ही कुतर-कुतरकर खा जाती। नीचे गिरे अधखाए खोखों पर बकरियाँ टूट पड़तीं। 'उँउँउँ..म्याँ..'उँउँउँ..म्याँ..' बोलकर दूसरी बकरियों को भी न्योंत देतीं। बुजुर्ग खेजड़े के उत्पादों में सब का सीर (हिस्सा) था। सूखे खोखे इकट्ठे कर हाँडियों में भर लिए जाते और सावन -भादवै तक खाए जाते।
बरखा आती तो धमासों, आकड़ों के अलावा दूसरी घास भरपूर उगतीं। पशु चराने वाले जोहड़ की गौचर में खाजरू (भेड़ -बकरी) लेकर पहुँच जाते। जमीन का नाम 'गौचर' था पर गाएँ चरने से न भैंस को मना करतीं न ऊँट को, न गधों को। बरखा के मौसम में जोहड़ खूबसूरत बाग में बदल जाता। बीच बिचौली में लबालब भरा तळाव, धमासों के बीच चरती बिचरती धोळीधप गायों के कान खुजलाते बगूले , पीठ पर बैठकर सवारी का आनंद लेती लम्पूँछा चिड़ी, किसी खेजड़े के काँधे बैठी लीलटांस (नीलकंठ)! आसमान में उड़-उड़कर 'टिटरुँ..टिटिरुँ ..टिट्..टिट्..टिट्' कर अपने अंडों -बच्चों की रखवाली करती टिटोड़ी (टिटहरी) और धमासे की फलियों से पूँपटी बनाकर बजाते बच्चे!
इस मौसम में गुवाळ अपनी कपड़ा सिली पानी की केतली-बोतल उसी खेजड़े के चरणों में रखते। उसीके छोडे (सूखी छाल) उतार कर चिलम के लिए खीरी (अंगारा) तैयार करते। उसी की काँटी सुलगाकर सीटे (ताजा भुना बाजरा) चाबते। सियाळे के शुरू में खेजड़ा की छंगाई होती। डाली, लोंग (पत्तियाँ) सब स्कूल के हिस्से आता। खुद बरते या बेचे, उसकी मर्जी। छंगा हुआ खेजड़ा थोड़ा ज्यादा जवान लगता। जैसे कोई नौजवान लम्बे बाल छँटवा आया हो।
महीने दो महीने बाद खेजड़े की डाळों पर गोंद लगता। गोंद क्या गोंद के ढेपे (डले)! गोंद तोड़ने की नौजवानों में हौड़! गाँव की अनपढ़ युवतियाँ भी लम्बा कुर्ता और लहंगे की झोळी मार, सिर के तोलिए का मंडासा मार कर गोंद तोड़ने टिकटोळी चढ़ जातीं। वही गोंद सर्दियों में बननेवाले गोंद के लड्डुओं में पड़ता। उसी से न जाने कितने जापे (प्रसव) सुधरते। उसी गोंद से बना 'सलीणा (सोंठ, मेथी, ग्वारपाठे के हर साल खाए जानेवाले औषधीय लड्डू)' खाकर बूढ़े बडेरों के कट-कट बोलते गोडों (घुटनों) में जान आती। इसी खेजड़े की हरी टहनी लेकर स्कूल में उतरने वाली बरातों का बधाईदार लड़की वालों के यहाँ बधाई लेकर पहुँचता। और तो और बड़कुल्यों की मालाओं , छल्डियों (जलावन की सूखी लकड़ी) से मंडे होली के मंडाण में जब प्रहलाद भगत की स्थापना की बारी आती तो यही जाँट अपने ऊँचे तुरंगे का बलिदान करता। होली के बाद जब नवयुवतियाँ गौर पूजने निकलतीं तो रोहिड़े के फूलों व दूब के अलावा बच्चे के साँसे बालों (जन्म के समय के बाल) से मुलायम गोबळ्ये यही खेजड़ा देता।
सबको अपनी आत्मीयता लुटाता यह जाँट कई सुख-दुख भरी कहानियों का साखी है। एकबर की बात है धन्ना बाबा कहीं से जीमकर आ रहे थे। जीमने के मामले में बड़े नामवर आदमी थे धन्ना बाबा। गाँव भर में मसहूर था कि धन्ना बाबा सौ लड्डू खा सकते हैं। सच्चाई लड्डू जानें या धन्ना बाबा। तो जीमकर आ रहे थे पैदल। जी घबराया तो खेजड़े की छाँह में लेटकर लोटपळेटे करने लगे। किसी ने देखा तो पूछा ,"क्या हुआ बाबा!"
बाबा बोले , " अरै भाग र नज्जी नै बुला।"
नज्जी माने नत्थुसिंह जी कम्पांडर साहब। 'नत्थुसिंह जी' नाम में सम्मान तो है पर बोलने -सुनने वाले में ढाई कोस की दूरी का अहसास रहता है। नज्जी में अपणायत है। तो नज्जी आए। आकर पूछा तो बाबा बोले , "अरै बारे पेट में सोराई (आराम) कोनी।"
नज्जी अपनी दवा के बैग में कुछ टटोलने लगे तो बाबा फिर बोले , " कम्पोटर जी! ओय नज्जी! कोई पेट कै ऊपर लगाबाळी दुवाई दीज्यो ! थाकी सोगन पेट कै माँय तो दऽरी
जग्गाँ कोनी ( पेट के ऊपर लगाने की दवाई हो तो दे दो , आपकी कसम पेट के अंदर तो बिलकुल जगह नहीं है)।
नज्जी ने दवा की दो गोलियाँ निकाली। एक तो समझा -बुझाकर उन्हें वहीं खिलाई , दूसरी हाथ में देकर कहा , 'यह बाद में ले लेना।'
दो -एक घंटे बाद में बाबा नज्जी के पास जाकर बोले दुवाई तो साँतरी(शानदार) दी । जी सोरो हुग्यो। फण (लेकिन) आ दूसरी दुवाई बदल द्यो! देखो बापजी 'बाद' न तो म्हारेउ चब्बे और न म्हार स्यूं मुण्डै मं लियो जाय।"
नज्जी देर तक हँसते रहे। दरअसल 'बाद' बोलते हैं हमारे यहाँ चमड़े को। दवाई बाद में ले लेना मतलब….। कैसे भोलेभाले भले मानुख थे बाबा। यह खेजड़ा सब जानता है।
एक और किस्सा है। कहते हैं बड़ी रातों का बड़ा तड़का(सुबह)होता है। होता होगा मगर कुछ रातें इतनी बड़ी होती हैं, इतनी लम्बी कि बिताए नहीं बीततीं। जिनके बाद सूरज भी तिड़क जाता है। रोशनी सँवला जाती है। उजाले मायूस होकर रह जाते हैं। भोर की माँग का सिंदूर जलकर राख बन जाता है।
गाँव की एक गरीब बेटी थी। बाप ने बड़ी मुश्किलों से कर्ज लेकर परणाया था। पति गरीब तो था ही बीमार भी रहता था। किसी तरह रिगते-रिगते (घिसटते-घिसटते) जिंदगी कट रही थी। एक दिन वह भी मझधार में छोड़कर चल बसा। हमारे यहाँ रीत है लड़की ससुराल में कोई अनहोनी होने के बारह दिन बाद मायके आती है, जिसे 'लूगड़ा (ओढ़णी) बदलना' कहते हैं। वह गाँव की गरीब बेटी, ससुराल की मजलूम बहू जिस दिन लूगड़ा बदलने आने वाली थी, उसका मजबूर बाप एक-दो लोगों के साथ पहले ही खेजड़े के पास जाकर बैठ गया। दसेक मिनट बाद मोटर (बस) आकर रुकी ऐन खेजड़े के पास। दो कदम की दूरी पर खेजड़ा खड़ा था, चार कदम पर बाप! वह चार कदम भी चल ना पाई। वहीं खेजड़े से लिपट कर रोने लगी - " ईई ये..माँयेये.ए..ए…। अरै राम रै…….।" उधर बाप सिर धामे पत्थर बना खड़ा है। साथ के लोग बेटी को धीर बँधा रहे हैं पर वह है कि खेजड़े को छोड़ ही नहीं रही। बाँथ घाले (लिपटकर) कुरला रही है। उसके आँसुओं से खेजड़े के खुरदरे छोडे नम हो रहे हैं। डालियाँ काँप रही हैं। लोग उसे जबरन अलग करने लगे तो उसका ओढ़ना छोडे में अटक गया मानो खेजड़ा उसे अपने से अलग नहीं होने देना चाहता। खेजड़ा बाप बन गया और बाप खेजड़ा। बाप के पधराए पाँव उठ ही नहीं रहें।
यह वही खेजड़ा है जिसके गोभळ्यो से गणगौर पूजकर उसने अमर सुहाग की कामना की थी। यह वही खेजड़ा है जिसकी डाल पर डले हींडे में झूलकर ब्याह के बाद उसकी पहली तीज मनी थी।
यह गाछ, यह बिरछ ऐसे कितने ही आँसुओं का राज़ अपने भीतर समोये है। कितने ही उल्लास, कितने ही उत्सव , कितने ही हास-परिहास , कितने ही मिलने-बिछड़ने के प्रसंग अपने संग लिए खामोश खड़ा है।
इस गाछ गाथा को मैं यहीं विराम देता हूँ। बस्ती में कोई नहीं जानता यह खेजड़े का गाछ किसने लगाया। शायद किसी ने नहीं लगाया। धरती इसकी माँ है और आकाश पिता। बाकी ज्यादातर दरखत इससे उम्र और अनुभव में छोटे हैं। यह बुजुर्ग है। आज इसके ईर्दगिर्द तन्हाई लिपटी है। कल यह भी न रहेगा और तब तन्हाई भी जैसे तन्हा हो जाएगी। इसी के साथ सो जाएँगी गाँव की अनकही सुख-दुख की अनगिनत कहानियाँ। खुरदरे छोडों संग खाद बन जाएँगे गाँव की उदास ओढ़नियों के बेजुबान आँसू किसी लरजते जिस्म की उमड़ती आखों में फिर से उग आने के लिए।
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
म्हाबू जैसे किरदार प्रकृति माँ ने रचने छोड़ दिए सर... अब तो इंग्लिश मीडियम स्कूल अंग्रेजी सांचे रखती हैं जिनमे रेस के लिए घोड़े तैयार होते हैं...
जवाब देंहटाएंसंस्मरण का आखिरी पैरा आँखों को बहने से रोक नहीं पाता...
हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनायें आपको 💐💐💐👍👍
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