शोध सार: साहित्य का उद्देश्य समाज का केवल यथार्थ चित्रण भर करना नहीं है बल्कि वह कैसा होना चाहिए और उसे कैसे सुंदर बनाया जा सकता है इस पर भी प्रकाश डालने का कार्य करता है। साहित्य किसी भी समाज के मानवीय मूल्यों को समृद्ध करने का माध्यम हो सकता है। साहित्य के माध्यम से मानवीय मूल्यों को बढाया भी जा सकता है और उनका समाज में अच्छी तरह से प्रचार प्रसार भी किया जा सकता है। साहित्य को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा जा सकता है जो समाज को समतावादी बनाने की प्रक्रिया में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। साहित्य में संवेदना का भी बहुत बडा योगदान होता है। ‘वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान‘ पंत की ये पंक्तियां संवेदना पर ही प्रकाश डालती हैं। कविता में दर्द की अनुभूति जितनी तीव्र और गहरी होगी कविता उतने ही अच्छी या उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त कर लेगी। दलित कविता ने विषय और विस्तार दोनों दृष्टियों से साहित्य को प्रभावित करने का कार्य किया है। इससे न केवल साहित्य समृद्ध हुआ है बल्कि उसमें नए आयाम भी खुलकर सामने आए हैं। दलित विमर्श समकालीन कविता में सार्थक और आवश्यक हस्तक्षेप है। दलित कविता के बिना समकालीन कविता पर कोई भी बात अधूरी ही होगी। दलित कविता दर्द से निकलती है और यह दर्द न केवल साहित्य मात्र में व्याप्त है बल्कि यह दलितों के जीवन में सदियों से व्याप्त दर्द है। दर्द के रूप में वस्तुतः दलित कवि की संवेदना ही व्याप्त है जो कवि को भी संवेदन शील बनाती है और उसके भोक्ता को भी। किसी भी समाज के स्वरूप का निर्धारण उस समाज विशेष में प्रचलित मानवीय मूल्यों के आधार पर होता है। यही मानवीय मूल्य किसी भी समाज की प्रगति को निर्धारित करते हैं। मानवीय मूल्यों के परिष्कार में मनुष्य की विवेक-चेतना का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह विवेक की चेतना किसी भी व्यक्ति के जीवनानुभवों से सीधे प्रेरित होती है और उसमें उस व्यक्ति के समाज का भी बहुत बड़ा योगदान रहता है। कोई भी साहित्य समाज से कटकर नहीं रह सकता है। साहित्य के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य यह भी है कि उदात्त मानवीय मूल्यों को स्थापित किया जाए। भारतीय समाज वर्णव्यवस्था पर आधारित समाज है। इसमें ब्राह्मणों को सर्वोपरि माना गया है और तथाकथित दलितों को सबसे नीचे। चातुर्वण्र्य व्यवस्था में स्पृश्य वर्णों के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा,सत्ता और सम्पदा के अधिकार सुरक्षित करके उनके जीवन विकास के रास्ते समृद्ध कर दिये गये जबकि अस्पृश्य और अन्त्यजों के लिए सेवा कार्यों के बदले केवल जूठन उतरन पर ही आधारित बाध्य जीवन-निर्वाह से उनके जीवन को नीचता, निकृष्टता, दीनता, हीनता अशिक्षा और अछूत रहने के लिये बाध्य कर दिया गया। चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसकी बौद्धिक चेतना भी समाज विशेष के पर्यावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती है। दलित कविता का समाज, दलितों की यथार्थ जिंदगी का समाज है। हिन्दी दलित कविता में दलित और दलितों की सामाजिकता के इस संदर्भ को बहुत ही अच्छी तरह से देखा जा सकता है। दलित साहित्य का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाना है। दलित साहित्य ईश्वर, आत्मा, परामात्मा, भाग्य, परलोक और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता है। दलित साहित्य मानवीय समाज की माँग करता है और यह तभी होगा जब वर्चस्व या एकाधिकार की प्रवृत्तियों का नाश हो जाएगा। दलित साहित्य नकार और प्रतिरोध का साहित्य है लेकिन दलित कविताओं की नकार सम्बंधी चेतना का सकारात्मक पक्ष है। दलित कविता मानवता विरोधी तत्वों को नकारकर समाज में समानता को स्थापित करने पर बल देती है। इस कविता के केन्द्र में पूरी तरह से मानव और मानवीय सरोकार ही हैं। आलोच्य कवि मलखान सिंह की कविता भी स्वयं को इन संदर्भों से सम्पृक्त कर पाने में सफल रही है।
बीजशब्द- दलित, प्रतिरोध, मानवीय मूल्य, वर्णव्यवस्था, समाज, समतामूलक समाज, लोकतंत्र, धर्म, बंधुत्व, बुर्जुआ वर्ग, अनामी, जाति, अस्पृश्य, वैमनस्य, विरोध, प्रतिरोध, विद्रोह, ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, जमींदार।
शोध-विस्तार डॉ. भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि किसी भी
समाज में आमूलचूल परिवर्तन किए बिना उस समाज में रहने वाले मनुष्यों के जीवन में
किसी भी अन्य परिवर्तन की बात करना बेईमानी मात्र होगी। भारतीय समाज विषमतावादी है
और इसका मुख्य कारण है...’वर्णव्यवस्था’। ‘वर्णव्यवस्था’ को आधार बनाकर भारतीय
समाज को ऐसे स्वरूप में ढ़ाल दिया गया जिसमें दलितों और बुर्ज़ुआ वर्ग को हाशिए पर
ढ़केल कर उनका सदियों से शोषण किया जाता रहा। यह शोषण की परम्परा आज भी बद़स्तूर
जारी है। वर्णव्यवस्था का जाति विभाजन ही सभी सामाजिक विसंगतियों की जड़ है और इसी
के कारण भारतीय समाज में मनुष्य-मनुष्य के बीच अलगाव की भावना देखने को मिलती है- ’’समाज
में वर्ण की उत्पत्ति पहले वर्ग रूप में हुई थी। अमीरी-गरीबी के फ़र्क ने समाज को
पहले वर्ग में विभाजित किया और यही वर्ग आगे चलकर वर्ण में प्रतिष्ठित हो गया और
फिर वर्ण विभिन्न जातियों में टूटता चला गया।’’1
स्पष्ट
है कि जाति व्यवस्था सामाजिक दुराव के सिद्धांत पर आधारित है। यह हमारे सामाजिक
सम्बंधों को ही नहीं बल्कि धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक पक्षों
को भी प्रभावित करती है। यह गुलामी की सम्पूर्ण व्यवस्था है। हिन्दू समाज व्यवस्था
में बहुत पहले से ही धर्म की प्रधानता रही है। व्यावहारिक स्तर पर हिन्दुत्व की जो
अवधारणा आम आदमी तक पहुंचती है वह बहुत हद तक जातीय आचार-विचार और संस्कार से
चारों तरफ से प्रभावित रहती है। हिन्दी दलित कविता की वैचारिकी में कबीरदास, संत रैदास और बुद्ध इन सभी के विचार
समाहित हो जाते हैं। अम्बेडकर साहब ने बुद्ध, कबीर और महात्मा फुले तीनों को गुरू स्वीकार किया है। डॉ. अम्बेडकर के
सामाजिक वैचारिकी में तीन शब्दों को विशेष स्थान प्राप्त है... 1-समता, 2-स्वतंत्रता और 3-भ्रातृत्व। इन
तीनों की सफलता एक लोकवादी समाज में ही सम्भव है। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक जीवित
नहीं रह सकता है जब तक वह सामाजिक लोकतंत्र पर आधारित न हो और सामाजिक लोकतंत्र से
आशय ऐसे समाज से है जिसमें उस समाज के सभी मनुष्यों में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना व्याप्त
हो। लोकतंत्र न केवल सरकार का अंग है बल्कि यह सम्पूर्ण मनुष्यों में एक सम्मान की
भावना भी रखता है। इसी आदर-सम्मान के भावबोध के साथ न केवल समानता की अनुभूति पैदा
हो सकती है बल्कि समतामूलक समाज का निर्माण भी किया जा सकता है। ’समता’ किसी भी
समाज की मुख्य विशेषता है। बिना समता के कोई भी समाज नहीं हो सकता है केवल व्यक्ति
समूह ही होता है। जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं कि जब तक सभी मनुष्यों में समानता की
भावना नहीं आ जाती है तब तक हम सामाजिक ही नहीं हैं...’’बिना समता के कोई भी समाज
नहीं हो सकता है। मुझे यह स्वीकार करने में संकोच होता है कि हम एक भारतीय समाज
हैं, क्योंकि हम विभिन्न
वर्णों एवं जातियों में विभक्त हैं। हम अलग-अलग मानव-समूह हो सकते हैं,समाज नहीं।’’2
समाज की
उपर्युक्त विसंगतियों की अभिव्यक्ति हम साहित्य में भी देखते हैं। हिन्दी दलित
कविताएं सामाजिक समानता की पक्षधर हैं। दलित कविता प्राथमिक तौर पर आनन्द या
रसास्वादन की चीज नहीं है;
बल्कि यह कविता मानवीय
सरोकारों को उजागर करते हुए मनुष्यता के पक्ष में खड़ी है। दलित कविता की
विकास-यात्रा में वैचारिकता, जीवन-संघर्ष विद्रोह, आक्रोश, नकार, प्रेम, सांस्कृतिक छद्म, राजनीतिक प्रपंच, वर्ण-विद्वेष जाति के सवाल साहित्यिक छल आदि
विषयों से मुकाबला बार-बार होता रहता है। दलित कविता के मूल में जाति के आधार पर
शोषित-वंचित मनुष्य है। दलित कविता मानवीय मूल्यों के साथ खड़ी है। जिस विषमतामूलक
समाज में एक दलित संघर्षशील है वहाँ मनुष्य के मनुष्यता की बात करना भी बेईमानी
है। समानता, स्वतंत्रता, शोषण से मुक्ति, बंधुत्व और समाज में समान न्याय इत्यादि
जैसे समदर्शी जीवन-मूल्यों पर ही दलित कविता आधारित है। दलित कविता का लक्ष्य दलित
जीवन की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं, भारतीय समाज में वर्णव्यवस्था से उपजी अमानवीयताओं एवं शोषण के सभी रूपों
का चित्रण कर और उनकी जगह पर समानता और भाईचारे को स्थापित करने का प्रयास करना
रहा है। इस सम्बंध में शरण कुमार लिम्बाले जी लिखते हैं कि- ’’समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व इन तीनों जीवन-मूल्यों
को दलित साहित्य के सौंदर्य तत्व मान सकते हैं। दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र-1 कलाकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता, 2 कलाकृति में जीवन-मूल्य, 3 पाठको के मन में जाग्रत होने वाला समता, स्वतंत्रता, न्याय और भ्रातृ भाव की चेतना जैसे मूल
तत्वों पर टिका रहने वाला है।’’3
दलित
कविता मूलतः दलित समाज के परिवेश की कविता है। दलित समाज की समस्याओं और उनके
प्रतिरोध में हो रहे विद्रोह से इस कविता को अलगाया नहीं जा सकता है। दलित कविता
पूर्णतः यथार्थवादी है। दलितों के जीवन में व्याप्त विभिन्न प्रकार के शोषणों और
वंचनाओं को इस कविता में मुख्य रूप से मुखरित करने का प्रयास किया गया है। अनुभूति
की प्रामाणिकता दलित कविता की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। दलित साहित्यकार अपने
जीवन में भोगे गए शोषण के यथार्थ को अपनी कविता का विषय बनाता है। आक्रोश और
आक्रोश से उपजी प्रतिरोधी चेतना ही दलित कविताओं का मूल भाव है। सदियों से चली आ
रही कुप्रथाओं, सड़ी-गली परम्पराओं
और ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हुए दलित साहित्यकार उन पर
प्रहार करता है। दलित साहित्य में आक्रोश का आना स्वाभाविक है। जो सदियों से
प्रताड़ित किये जाते रहे और जिनकी बहन-बेटियों की आब़रू के साथ खिलवाड़ किया जाता
रहा उनकी कलम से निकले साहित्य से किसी भी शास्त्रीय प्रतिमान की उम्मीद रखना
बेईमानी है। दलित साहित्यकार के शब्दों में कहा जाए तो- ’’मेरा यह आक्रोश मेरा
दर्द है। जब मेरी माँ-बहन पर अत्याचार होता है, उसे क्या कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करूँ? जिसका घर जल रहा है, उसका संताप सुर में होना चाहिए? आक्रोश शास्त्रीय संगीत नहीं है। जो शास्त्रीय
संगीत है वह आक्रोश नहीं है।’’4
दलित
साहित्य के प्रतिमानों का निर्धारण किया जाएगा दलितों के नजरिये से जिसका सम्बंध दलितों की यथार्थ जिंदगी से होगा और यह
दलितों की स्व-अनुभूति से उपजा होगा। दलित साहित्य के अध्ययन से इस तथ्य से इनकार
नहीं किया जा सकता है कि दलित साहित्यकारों में यह चेतना बहुत ही प्रबल है। इसी
चेतना से प्रेरित साहित्यकार हैं-मलखान सिंह। दलित साहित्य में इनका योगदान मुख्य
रूप से दो काव्य-संग्रहों के रूप में उपस्थित है-’सुनो ब्राह्मण’ और ’ज्वालामुखी
के मुहाने’। इनकी काव्य-रचना ’सुनो ब्राह्मण’ इनको दलित साहित्य के क्षेत्र में
बहुत ही मजबूती के साथ स्थापित करती है। इस काव्य-संग्रह के माध्यम से कवि मलखान
सिंह तथाकथित उच्च वर्ग को चुनौती देते हैं...अपने साथ चलने और उनके जैसा जीवन
जीने की। मलखान सिंह की कविता को नकारना एक तरह से दलित साहित्य की वैचारिकी को
नकारने के जैसा होगा। मलखान सिंह की कविताओं की मानवीय मूल्यों के प्रति
प्रतिबद्धता को इसी से पहचाना जा सकता है कि वे न केवल उच्च वर्ण के लोगों को
धिक्कारते हैं बल्कि उन तथाकथित अम्बेडकरवादियों को भी डांट लगाते हैं जो सिर्फ
नाम के अम्बेडकरवादी हैं... लेकिन उनकी चेतना का पतन हो गया है। मलखान सिंह उस
संस्कृति का हिस्सा नहीं बनना चाहते जिसमें पाखण्ड़ और कुतर्कों के अलावा कुछ भी
शेष नहीं रह गया है। कवि मलखान सिंह वर्णवादी व्यवस्था के अलगाव और असमानता के
मुख्य कारक धर्म-ईश्वर का न केवल विरोध करते हैं बल्कि ऐसे धर्म को नेस्तनाब़ूद भी
करते हैं। इस विषमतावादी धर्म की जगह कवि एक ऐसे धर्म की स्थापना पर जोर देता है
जो समानता,स्वतंत्रता और
बंधुत्व जैसी सामाजिक जुड़ाव के वास्तविक धरातल पर आधारित हों। कवि के ही शब्दों
में कहा जाए तो --’’मकां ऐसा बनाऊंगा/जहां हर होठ पर/बन्धुत्व का संगीत
होगा/मेहनतकश हाथ में/सब तंत्र होगा/मंच होगा/बाजुओं में/दिग्विजय का जोश
होगा/विश्व का आँगन/वृहद आँगन/हमारा घर बनेगा/पर अपरिचित पाँव भी अपना लगेगा।’’5
कवि
मलखान सिंह की कविताओं का मूल भाव दलित समाज के प्रति सदियों के अमानवीय जाति उत्पीड़न
से परेशान जीवन की अभिव्यक्ति और उससे मुक्ति के लिए संघर्ष का क्रांतिकारी आह्वान
है। उनकी कविताओं में अम्बेड़करवादी विचारधारा के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा
सकता है। ब्राह्मणवादी मानसिकता से पोषित भारतीय समाज में दलितों के विशेषाधिकार
केवल कागजों और मंचों तक ही सीमित हो गए हैं। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने
के बावजूद भी दलितों को केवल वोट के लिए
याद किया जाता है। इन कागजी कार्यवाइयों का दलित समाज के विकास से कुछ भी
लेना-देना नहीं है। योजना पर योजना लागू होने के बावजूद भी दलितों की आर्थिक और सामाजिक
हालत जस-की-तस बनी हुई है।इन कागजी कार्यवाइयों के संदर्भ में अर्थशास्त्री
अमत्र्यसेन लिखते हैं कि -’’जाति से जुड़े अपमानों और असमानताओं को खत्म करने के
लिए वंचित समूह के लिए ज्यादा तथा अन्य के अधिकारों के लिए माँगें अभिन्न रूप से
जुड़ी हैं फिर भी वंचित समूहों के लिए ज्यादा सामाजिक न्याय तथा बेहद सार्वजनिक
सेवाओं -शिक्षा,स्वास्थ्य,सामाजिक सुरक्षा पर बेहिसाब जोर देना भारत
में सार्वजनिक विमर्श की खासियत बन गयी है जिसे मीड़िया भी बढ़ा-चढा़कर पेश करता
है।’’6
दलित
चेतना का निर्माण आत्मसम्मान और गरिमा के साथ होता है। भारतीय समाज में व्याप्त
विषमता,अन्याय,घृणा,अत्याचार और शोषण के विभिन्न रूपों को समाप्त कर समता ,स्वतंत्रता और भाईचारे की स्थापना करना
दलित साहित्य का केन्द्रीय स्वर है। बौद्ध दर्शन से प्रेरित करूणा का भी इसमें
महत्वपूर्ण स्थान है। दलित साहित्य मानव केन्द्रित है। वह मानव जीवन के मूल्यों की
बात करता है। वह आत्मा-परामात्मा से सम्बंधित किसी भी काल्पनिक आनन्द में विश्वास
नहीं करता है। साहित्य के माध्यम से जीवन-मूल्यों का परिष्कार होता है।दलित चिंतन
का स्वरूप मानव सभ्यता संस्कृति के विकास की प्रक्रिया के अनुरूप निर्मित होता रहा
है। दलित चिंतन साहित्य के माध्यम से समाज को समस्याओं के प्रति जागरूक करता है।
आधुनिक दलित चिंतन का स्वरूप पूर्व से ज्यादा सशक्त और प्रबल तथा वैज्ञानिक रहा है
जिसके मुख्य लक्ष्यों में सामाजिक परिवर्तन प्रमुख है।
दलित साहित्य
का वैचारिक दर्शन दलित चेतना और आन्दोलन के साथ ही स्पष्ट होता है। समतामूलक समाज
के निर्माण के लिए दलित चेतना द्वारा किए गए आन्दोलन के साथ दलित वैचारिकी का
स्वरूप व उसका दर्शन निर्मित होता है। यह वैचारिकी विचारधारा की देन है। दलित
साहित्य मूलतः नकार और प्रतिरोध का साहित्य है। अज्ञानता मानवीय मूल्यों से वंचित
होने का सबसे बड़ा करण है। इसी कारण से स्त्रियों और दलितों की स्वतंत्रता छिन गयी।
मलखान सिंह की कविता में आक्रोश की भावना चेतना को साथ लिए हुए है। कवि ने कारण
कार्य के नित्य को धर्मवाद और कर्मवाद के प्रतिरूप रूप में प्रस्तावित करने का
प्रयास किया है। ब्राह्मण को मैला कमाने,चमड़ा पकाने, दिहाड़ी करने और
खेती में बेग़ार करने वालों का पसीना दुर्गंध देता है। एक स्तर तक हम देखते हैं कि
मलखान सिंह की कविता में सधा हुआ आक्रोश ही ज्यादा देखने को मिलता है। इसी मूल कारण
से अपशब्दों का प्रत्युत्तर अपशब्दों से न देकर उसकी जगह बहुत ही सरल रूप में अपनी
भावनाओं को उससे भी सार्थक रूप में व्यक्त करते है। कवि समानता की बात करने वालों
को बिलकुल वही काम करने के लिए आमंत्रित करता है जिनके लिए वह बदनाम है। दलितों के
शरीर से आने वाली बदबू, उनके जाति की बदबू
नहीं है बल्कि यह बदबू मिहनत करने के बाद निकले पसीने की है। यह पसीना मिहनत करने
के बाद ही शरीर से निकलता है। कवि तथाकथित उच्च वर्ण के लोगों को चुनौती देता है
कि यदि तुमको भी इस पसीने की गंध की उत्पत्ति को जानना है तो जो मैं काम करता हूं, तुम भी वही काम करो; मेरी जनानी के साथ अपनी जनानी को मैला
ढोने भेजो; मेरे बेटे के साथ
अपने बेटे को मज़दूरी की तलाश़ में भेजो; अपनी बिटिया को मेरी बिटिया के साथ मुखिया(जो काम को कम कमसिन शरीर को
ज्यादा घूरता है) के खेत में फसल कटाई के लिए भेजो। इन सब कामों से भी यदि जीवन की
गंध को न समझ पाओ तो अभी एक रास्ता और बाकी है,जिससे तुम सीधे जीवन की गंध को न केवल महसूस कर सकते हो बल्कि उसी गंध से
सराबोर हो जाओगे- ’’तुम!मेरे साथ आओ/चमडा पकाएंगे/दोनों मिल बैठकर।’’7 जिन कार्यों को करते हुए एक दलित की
जिंदगी ही चली जाती है यदि आप भी उस कार्य को करने में अपना योगदान दें तो पता
लगेगा कि यह जो काम दलितों के हिस्से में जबरदस्ती सौंप दिया गया है... वह कितनी
जिम्मेदारीपूर्ण है। मलखान सिंह की कविता दलित समाज के सबसे निचले से निचले तबके
का प्रतिनिधित्व करती है।समाज में आखिरी छोर पर खड़ा वह मनुष्य जो काम करता तो सब
जगह नज़र आता है लेकिन सामाजिक स्तर पर समानता की बात आती है तो समाज के अधिकारों
में उसका हिस्सा ग़ायब सा है। कवि मलखान सिंह की कविता में इस बात को स्पष्ट ही
पहचाना जा सकता है कि सदियों से शोषित और वंचित इस मनुष्य में अब न केवल सम्मान की
चाहत है बल्कि वह समाज में समान मानवीयता का भी हक चाहता है...अब उसे जानवर की
जिन्दगी जीना गँवारा नहीं है...’’मैं आदमी नहीं हूँ साब/जानवर हूँ/दोपाया
जानवर/जिसकी पीठ नंगी है/कंधों पर मैला है/गट्ठर है/मवेशी का ठठर है/हाथों में
रांपी सुतारी है/कन्नी बसुली है/सांचा है/या मछली पकड़ने का फाँसा है।’’8
मलखान
सिंह के इस कवितांश के माध्यम से यह जाना जा सकता है कि भारतीय समाज का पूरा का
पूरा बुज़ुआ वर्ग दलितों की जैसी जिंदगी जीने को विवश है। मजदूर-दलितों की मिहनत और श्रम पर ऐश़ करने वाले उनकी जाति के
आधार पर उनके मिहनत को भी नकार रहे हैं जबकि जमीनी हकीकत यह है कि दलितों और
मजदूरों-वंचितों के श्रम को नकार देने के बाद भारतीय समाज और संस्कृति अपंग सी हो
जाती है। मलखान सिंह की कविता अम्बेडकरवादी चेतना को अपने में समाये हुए है।
अम्बेडकरवादी मूल्यों के आधार पर यह कविता समाज में व्याप्त असमानता का तो विरोध
करती ही है साथ ही साथ उन्हीं प्रतिमानों के आधार पर नए भविष्य की तलाश भी करता
है। जाति सम्बंधी जो परिकल्पना अम्बेड़कर की है...वही मलखान सिंह की कविताओं में भी
कूट-कूटकर भरी हुई है... ’’मैं अनामी हूँ/अपने इस देश में/जहाँ-जहाँ भी जाता
हूँ/आदमी मुझे नाम से नहीं/जाति से पहचानता है/और जाति से ही सलूक करता है/कम्बख़्त
जाति/सधे बाज सी निरंतर/मेरा पीछा करती है।’’9
मलखान सिंह की कविता में एक तथ्य जो बहुत दूर तक
अपना प्रभाव बनाए रहता है वह है-’मनुष्य की विवेकशीलता’। दलित समाज का विवेकशील
लोक-मानस उनकी कविताओं में प्रमुखतः से अभिव्यक्त हुआ है। दलित समाज की विषमताओं
और असमानताओं को उनकी कविता के केन्द्रीय तथ्य के रूप में देखा जा सकता है।
विवेक-चेतना के कारण ही मलखान सिंह की कविताएँ दलित समाज के लोगों को तर्क-वितर्क
पर आधारित एक नया जीवन जीने का विकल्प देती हैं। कवि की जनवादी चेतना में दलित,स्त्री,आदिवादी,पिछड़े और समस्त शोषित समुदाय शामिल हो जाते हैं। कवि के जनवाद में कवि की
कल्पना की जगह पर वास्तविक जीवन की प्रतिष्ठा है। दलित सौंदर्यबोध की चेतना, दलितों और वंचितों को हाशिए पर रखकर लिखने
वाले साहित्यकारों को लताड़ती है और यह प्रवृत्ति कवि मलखान सिंह की कविता में भी
अभिव्यक्त होती है। दलित के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वह अपना कह सके और गर्व
की अनुभूति कर सके। गांव और शहर में बराबर से जयकारों के रूप में शामिल हो चुके
‘राम‘ और ‘कृष्ण‘ भी उनके अपने नहीं हैं। वे जयकारे जिस संस्कृति को ढो रहे हैं
...वह संस्कृति दलितों की नहीं है। दलित कवि इनकी जगह पर ‘शंबूक‘ और ’एकलव्य’ को
याद करता है। हिन्दू सवर्णों का अतीत दलितों को बहुत ही भयावह और भद्दा सा लगने
लगता है। ‘राम‘ शब्द दलितों के लिए कलंक हैं और दलितों को इस नाम से घृणा का होना
लाज़िमी है। डॉ. अम्बेडकर के प्रभाव से दलितों में जो चेतना का प्रसार देखने को
मिलता है वह किसी भी प्रकार के प्रलोभन से पीछे हटने वाले नहीं है। ’गीता’ के
निष्काम कर्मयोग को दलित अपने विरूद्ध एक षड़यंत्र के रूप में देखता है। वह इस
प्रकार के दर्शन को विकसित करने वाली व्यवस्था की कब्र खोदने को तैयार है-‘‘मेरे हाथ की कुदाल/धरती पर गड्ढे खेदने से
पहले/कब्र खोदेगी उस व्यवस्था की/जिसके संविधान में लिखा है...तेरा अधिकार सिर्फ
कर्म में है-/श्रम में है-/फल पर तेरा अधिकार नहीं।‘‘10
पहली बात
तो दलितों का सदियों तक शोषण किया जाता रहा और अब जबकि संविधान के द्वारा दलितों
को कुछ अधिकार दे भी दिये गए हैं तो उनको जबरदस्ती छीनने के प्रयास किए जा रहे
हैं। दलित किसी भी कीमत पर अपने अधिकारों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं ...कारण स्पष्ट
है कि वे फिर उस दलदल के भुक्तभोगी नहीं होना चाहते हैं जिसमें वे सदियों से एक
गलीज़ जिन्दगी जीते चले आ रहे हैं। अब दलित अपने अधिकारों को पूर्णतः पाने के लिए
कमर कस चुके हैं; वे किसी भी कीमत पर
इसे हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं। और इन अधिकारों का स्वरूप भी खण्ड़ित नहीं
होना चाहिए बल्कि वे इसे समग्रता में ही प्राप्त करना चाहते हैं-
‘‘छत का खुला आसमान नहीं/आसमान की खुली छत चाहिए/मुझे अनंत आसमान चाहिए।‘‘11
सुशीला
टाकभौरे की कविता का यह मंतव्य पूरे दलित साहित्य में देखा जा सकता है और यह मलखान
सिंह की कविता में भी दिखाई देता है। मलखान सिंह की कविता में जहां एक ओर प्रतिरोध
और नकार की भावना है वहीं दूसरी ओर एक उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद भी है। कवि जानता
है कि यदि इस देश में कोई बुद्धिजीवी है तो वह ब्राह्मण है न कि सामंत। भारतीय
समाज में ब्राह्मण और सामंत का गठजोड़ है। मलखान सिंह ने इस मर्म को गहराई से समझा
है और उन तथाकथित समाजवादियों को आईना दिखाया है जो ब्राह्मणवाद से ज्यादा
सामंतवाद को महत्व देते हैं। वे अपनी कविताओं में गाँव की अलोकतांत्रिक व्यवस्था
में दलितों के जीवन-संघर्ष को स्पष्ट तौर पर चित्रित करते है। उनकी कविता में ’आम
आदमी’ और ’दलित आदमी’(वर्ग और वर्ण) के अन्तर को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।
एक ही गांव में रहने के बावजूद आम आदमी को उतनी परेशानी नहीं है जितनी कि दलित
आदमी को(दलित जाति से सम्बंधित होने के कारण)है। दलितों को गांव और गांव की
व्यवस्था से डर लगता है क्योंकि गाँव ही वह जगह है जहाँ पर उनके पुरख़े सदियों से
संताप झेलते-झेलते गुज़र गए और अब वे स्वयं भी इसी जीवन के भुक्तभोगी हैं... ’’यकीन
मानिए/इस आदमखोर गाँव में/मुझे डर लगता है/बहुत डर लगता है/लगता है कि अभी बस
अभी/ठकुराइसी मेड़ चीखेगी/मैं अधशौच ही /खेत से उठ जाऊँगा/कि अभी बस अभी/हवेली
घुड़केगी/मैं बेग़ार में पकड़ा जाऊँगा।’’12
गाँव के
इस संदर्भ का उल्लेख दलित साहित्य के प्रसिद्ध चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि भी कुछ इसी
ओर इशारा करते हैं। उन्होंने भी, गाँव के उच्चवर्गीय लोगों(जमींदार) द्वारा कैसे सभी संशाधनों पर कब्ज़ा कर
लिया गया है... का उल्लेख किया है। कवि मलखान सिंह की कविताओं में सदियों से
उपेक्षित जनसामान्य की उपस्थिति दर्ज है। उनकी कविताओं की पहुँच सहज रूप से ही
बहुत विस्तृत है जो सडी-गली सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ़ एक ठोस और
बुलन्द आवाज़ है। कवि की कविताएं समाज को विसंगतिपूर्ण बनाने वाले को किसी भी कीमत
पर बख़्शने के ’मूड’ में नहीं हैं... चाहे वे अपने हो या पराये।
दलित
साहित्य की भाषा सामान्य हिन्दी साहित्य की भाषा से अलग है। दलित साहित्य की भाषा
दलितों की भाषा है। दलित साहित्य की भाषा को लोक भाषा,ग्रामीण भाषा और जनपदीय भाषा जैसे नामों
से भी पुकारा जा सकता है। सामान्य तौर पर यह वह भाषा है जो जनसाधारण में प्रचलित
रही है। जब दलितों का जीवन ही मुख्य मार्ग से अलग रहा है तो उनकी भाषा में किसी भी
प्रकार के शास्त्रीयता की उम्मीद रखना एक तरह की बेईमानी ही होगी। मुख्य(अभिजात्य)
मार्ग ...जो शास्त्रीयता का भी मार्ग है दलितों की न भाषा मेल खाती है और न ही
विषयवस्तु! हिन्दू संस्कृति में वेदों को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है या यूं
कह सकते हैं कि वेद ही उनका प्राण वायु हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। वेदों में
दलितों के लिए कहीं भी शुभ का उल्लेख नहीं है। वेद और स्मृतियां हमेशा से दलितों
के दमन को वाज़िब बताते हुए उनका शोषण करती आई हैं। सवर्ण लोग दलितों पर किए जा रहे
शोषण को वेदों का सहारा लेकर अपने को सही सिद्ध करते आए है और दलित इस तथ्य को
नकारते हैं क्योंकि वेदों में दलितों के शोषण का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। दलित
वेदों से अलग अपने ज्ञान और अनुभव को सही बताते है जो मानवीय मूल्यों का हिमायती
भी है-‘‘मैं लिखना नहीं
जानता, अलंकार के भेद। मैं
वही लिखूंगा जिसे लिख नहीं पाए वेद।‘‘13 कुलीन भाषा से अलग हटकर दलित साहित्य जनभाषा में रचा जाता रहा है। दलित
जीवन की कडुवाहट को व्यक्त कर पाने में शिष्ट भाषा असफल रहेगी। कुलीन भाषा में
दलित जीवन से सम्बंधित शब्द नहीं के बराबर मिलते हैं। दलितों के जीवन की
विसंगतियों और सामाजिक असमानताओं को व्यक्त करने के लिए दलितों की तथाकथित भदेस
भाषा ही आवश्यक है... ’’नकार,विरोध,प्रतिरोध,विद्रोह को व्यक्त करने के लिए दलित कवि
जिस भाषा का प्रयोग करता है वह तेज बहाव की तरह है। नदी के उफनते जल का वेग जो
किनारों को तोड़ बन्धनमुक्त होना चाहता है। आलोचकों को इस भाषा के उद्गम को समझना
होगा, क्योंकि दलित
साहित्य की भाषा का सीधा सम्बंध दलित जीवन से है। अपने दग्ध अनुभवों को दलित
रचनाकार सीधे-सीधे साहित्य में प्रस्तुत करता है, बिना किसी लाग-लपेट के।’’14
आमतौर पर
मलखान सिंह की काव्य-भाषा एक संयमित भाषा है। उनकी कविताओं में दलित समाज की
समस्याओं को नपे-तुले शब्दों में ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
कृत्रिमता के विरूद्ध दलित साहित्य में सहज भाषा को अपनाया गया है। उसकी यह सहजता
सिर्फ साहित्य के लिए नहीं है बल्कि जनसामान्य की भाषा के कारण भी है। असहज भाषा
ही दलितों के शोषण का प्रमुख हथियार है। भाषा मनुष्य के मनोभावों के अभिव्यक्ति का
सशक्त माध्यम है। जिस समाज के मनोभावों को साहित्य में पिरोने का प्रयास किया जाता
है उस समाज की भाषा से भी नहीं बचा जा सकता है। कवि मलखान सिंह की कविता भी इससे
अछूती नहीं है-’’वह मेरे बाप को गाली देगा/मुझे गुस्सा आयेगा/मैं उसके बाप को गाली
दूंगा/उसे गुस्सा आयेगा/और फिर हम दोनों/एक दूसरे की पतलून फाड़/मादरज़ात नंगे हो
जाएंगे।’’15
निष्कर्ष
रूप में देखा जा सकता है कि कवि मलखान सिंह अपनी कविता के माध्यम से समाज में
व्याप्त वैमनस्यता,अस्पृश्यता और
धर्मांधता के ख़िलाफ़ खुले जंग की राह अपनाते हैं। उनकी कविताओं में गुस्सा और नकार
की प्रवृत्ति तो है लेकिन उसकी परिणति नाउम्मीदगी में नहीं है बल्कि उसे गहन
अंधकार में भी सुंदर भविष्य का उजाला नज़र आता है। मलखान सिंह की कविता में न केवल
आक्रोश और प्रतिरोध की चेतना है बल्कि उन्होंने समाज में व्याप्त समस्याओं के जो
समाधान तलाशें हैं वे भावनात्मक होते हुए भी बौद्धिक परिपक्वता के उदाहरण हैं।
’सुनो ब्राह्मण’ में एक ओर दलित समाज मैं मनुष्यों के जीवन में व्याप्त समस्याओं
पर ध्यान दिया गया है तो वहीं उसके समाधान का निर्धारण भी तर्क-संगत और प्रभावशाली
रूप में बताए गए हैं। उनकी कविता की भाषा सीधे उसे दलित मनुष्य की संवेदनाओं को
व्यक्त करने में सफल रही है जिसके लिए वह लिखी गयी है। जनसामान्य में सीधे पहुँच
बनाने के कारण उनकी भाषा की सम्प्रेषणशीलता काबिल-ए-तारीफ़ है। उनकी कविताओं की
भाषा से इस बोध का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि जैसे उनकी कविता में
अभिव्यक्त पात्र स्वयं ही पाठक से बात कर रहे हों।
1- उमाशंकर चैधरी(सं.),हाशिए की वैचारिकी,अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स(प्रा.)लि. नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2008,भूमिका से
2-ड़ा.एन.सिंह, अरूण कुमार(सं.),गाँव के लोग,(दलित विशेषांक),जनवरी-फरवरी,2021,मानवीय समाज का आकांक्षी है दलित साहित्य, जयप्रकाश कर्दम से वीरेन्द्र ’आजम’ की बातचीत पृ.सं. 49
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