शोध सार : कविता में कवि का भाव बोध महत्त्वपूर्ण है। अपने भाव बोध द्वारा कवि युगीन आशा-आकाँक्षा अभिव्यक्त करता है। संवेदना के सूक्ष्म अंकन द्वारा कवि मानव मन तक पहुँचता है और धीरे-धीरे परते उघड़ती जाती हैं। कवि का मुख्य अभिप्रेत कविता द्वारा समाज की नब्ज़ टटोल कर उसकी राह प्रशस्त करना होता है और यदि उस राह में शूल हैं तो उन्हें पुष्प में तब्दील कर एक सुखी समाज की आधारशिला रखने का प्रयास रहता है। विनोद पदरज ने कविताओं के माध्यम से आम आदमी की हसरतें, घुटता जीवन और दरकते मूल्यों को तरज़ीह दी है।
बीज शब्द : संवेदना, लोक, जीवन, मूल्य, पीड़ा, चिन्ता, उदासीनता, समाज।
मूल आलेख : साहित्य समाज की अमूल्य धरोहर है। मनुष्य के आचार-विचार और व्यवहार का प्रतिबिम्ब युगीन साहित्य होता है। मनुष्य जीवन आशा-निराशा, सुख-दुःख का केन्द्र है। बढ़ती हुई ज़िन्दगी में दौरों का अपना हक है। उसी हक में संवेदनाओं का सूक्ष्म अंकन विनोद पदरज की कविताओं में दिखता है। संवेदनाओं के अंकन में न हठधर्मिता, न किस्सागोई, न बनावटीपन और न ही ज़बरदस्ती का क्लिष्टीकरण। कविता को करने के लिए नहीं बल्कि कविता को जीने का अपना ढंग जिसे आम आदमी अपनी ज़िन्दगी महसूस कर सके। भाग-दौड़ और जीवन की आपा-धापी में जहाँ सुकून के की श्वास मिले वह पदरज की कविता है। पदरज की कविताएँ लोक के निकट हैं। लोक को परिभाषित करते हुए डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लिखते हैं - “ आधुनिक सभ्यता से दूर अपने प्राकृतिक परिवेश में निवास करने वाली तथाकथित अशिक्षित और असंस्कृत जनता को लोक कहते हैं, जिनका आधार, विचार एवं जीवन परंपरायुक्त नियमों से नियंत्रित होता है। ... जो लोग संस्कृति तथा परिष्कृत लोगों के प्रभाव से बाहर रहते हुए अपनी पुरातन स्थिति में वर्तमान हैं, उन्हें लोक की संज्ञा प्राप्त है। “ 1 आम आदमी की अपनी तकलीफें-भावनाएँ हैं। पदरज ने अपनी अनूभूति को आधार बनाकर प्रेषित करने का बीड़ा उठाते नज़र आते हैं।
पदरज के केनवास पर यथार्थ के चित्र उभरे हैं। कोई उसे आदर्शिक विपरीत एकांगी दृष्टिकोण या संकोची स्वभाव का कह सकता है किन्तु वे सच से मुँह नहीं फेर सकते हैं। जीवन के कुछ जाँचे परखे सत्य उन्हें रूचते हैं और इसीलिए वे घर की दीवारों के छेद भी बेनकाब करते हैं। यहाँ उन्हें कोई आदर्श की चिन्ता नहीं है और न ही भाषा की। सीधे-सपाट शब्दों में समाज की एक जीवन्त तस्वीर ‘बाप नहीं चौथा भाई‘ में प्रकट करते दिखाई पड़ते हैं –
पदरज खोए हुए कवि हैं। वे खो जाते हैं अतीत की स्मृतियों में जहाँ लौटना अब संभव नहीं जान पड़ता है। अतीत की स्मृतियाँ भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी के बनावटीपन की प्रतिस्पर्धी हैं। यह प्रतिस्पर्धा संवेदना के स्तर पर बहुत व्यापती है। इसमें जीत बनावटीपन की होती है जो युगीन यांत्रिकता, कृत्रिमता की जीत प्रतीत होती है। वस्तुतः जीत कर भी हार है। मनुष्य मृगमरीचिका को वास्तविक समझ कर उसके पीछे भागना प्रारंभ करता है। अन्तहीन सपने और अनगिनत उम्मीदें उसे भगाती रहती हैं परंतु अन्त में छलावा और वह छलावा उसे तोड़ देता है। पदरज की कविताओं में यह टूटन महसूस होती है। स्मृतियों में खोता मन सुकून महसूस करता है। यह छाँव है तीक्ष्ण धूप से झुलसे आदमी की जो विकल, बैचेन और संतप्त मन को शान्ति का सहारा देना चाहता है। ‘जीवन‘ कविता में कवि ने वापस न लौट पाने का दर्द मुखर हुआ है -
इस दौर में मानवीय अस्मिता चुनौती बनकर उभरी है। मानव अस्मिता के प्रश्न पर कवि व्यक्ति स्वातंत्र्य मूल्यापेक्षी है। वे मूल्यों को सहेजने में विश्वास रखते हैं। उनकी कविताओं ने मूल्यों की खोज करने का बीड़ा उठाया है। वे घर-परिवार के साथ समय बिताना ‘स्वातन्त्र्य‘ की एक अलग परिभाषा गढते है। पारिवारिक अस्मिता के मध्य व्यक्ति स्वातन्त्र्य को ध्वज वाहक जान पड़ते हैं। मानवीय बेबसी, लाचारी और पीड़ा को आँकने में कवि सफल रहे हैं। कवि को आम आदमी की उस पीड़ा को व्यक्त करने के लिए न तो गम्भीर वातावरण की ज़रूरत है और न ही मुहावरों की। उनके शब्द भी लोकभाषा के करीब हैं किंतु नपे - तुले सहज शब्दों में जो भाव गाम्भीर्य है उसे बेजोड़ सृजन होता है और थर्मामीटर के पारे की तरह सूक्ष्म संवेदनाएँ हृदय के उपरी कोने तक चढ़ जाती है। मन की पीड़ा-कसक के साथ प्रस्तुत होती है। अपनी माटी का मोह कवि अंत तक छोड़ नहीं पता है। सब कुछ छूटने के बाद भी मन के एक कोने में गाँव की सुगंधी बार-बार पुकारती लगती है। मिट्टी का यह मोह कवि कुछ इस तरह अभिव्यक्त करते हैं –
जीवन की उदासीनता नापने का कोई यंत्र नहीं है। पदरज ने रटी-रटाई ज़िन्दगी को शब्दों में नापने की कोशिश की है। जीवन में उत्साह-उमंग आवश्यक है। यही जीवन जीने की प्रेरणा है। लेकिन अभावों में कटती ज़िन्दगी धीरे-धीरे उदासीन हो जाती है। रंग-बिरंगी दुनिया और मनोरंजन उसे असामान्य कर देते हैं। आवश्यकताएँ अभाव महसूस करवाती हैं। अभाव धीरे-धीरे उसे अपने आगोश में ले लेते हैं। फिर वो उसी ज़िन्दगी का अभ्यस्त हो जाता हैं। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करके भी वह आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पाता है। कवि ने इस सूनेपन को पहचानने की कोशिश की है -
कवि का अपनी माटी से लगाव है। जिजीविषा से प्रेरित व्यक्ति अंतिम समय तक अपनी जड़ो से जुड़ा रहना चाहता है। अपना गाँव, अपनी धरती, अपनी माटी और अपने लोग चाहे कैसे भी हो पर हैं वे अपने। और उस अपनेपन में झलकता है अपनत्व। अपनेपन के बीच में कुछ शूल भी होते हैं परंतु काँटों की चुभन के बीच भी वह अनपेपन को नहीं भूल पाता। कईं बार उसे उपेक्षित होना पड़ा था। कईं बार तानों ने छलनी किया था। कईं बार उसे अस्पृश्यता ने तार-तार किया था पर फिर भी वह कह उठता है –
कवि आमजन के बहुत करीब है। बहुत बारीकी से सामान्य जन को देखा-परखा-समझा है। वह आम जन के दुःख-दर्द, अभाव, संकट को समझते हैं। वे आम ज़िन्दगी जी रहे सामान्य जन को अपनी कविता का विषय बनाते हैं। किंतु सामान्य जन की आवाज़ को वे प्रगतिवादी कवि की तरह प्रतीक बनाकर मरने-मारने की बात नहीं करते हैं। वे उस दर्द को स्वयं महसूस करते हैं। अनुभूत सत्य यथार्थ के अधिक निकट होता है। सहज शब्दों में वे आमजन की पीड़ा को उभारने में विश्वासी हैं इसीलिए कहते हैं -
वैश्वीकरण की बयार चल रही है। वैश्वीकरण फलस्वरूप बाजा़र के दुष्चक्र व्यक्ति व्यक्ति को अपने झाँसे में ले चुका है। डॉ.प्रकाश कृष्णदेव धुमाल टिप्पणी करते हैं - “ ...बाज़ार भूमंडलीकरण की समूची प्रक्रिया की चालाक शक्ति बनकर उभरा है। यहाँ सपने दिखाए ही नहीं जाते, बेचे भी जाते हैं और इस समूची प्रक्रिया में उलझकर व्यक्ति एक उपकरण बनकर रह जाता है। आज की विचारहीनता, तनावग्रस्त मन:स्थिति तथा वृद्धावस्था का एकाकीपन भूमंडलीकरण के सह उत्पाद हैं।... भूमंडलीकरण ने हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक एवं आत्मीय सम्बन्ध पर सर्वाधिक चोट की है। ” 8 व्यक्ति आवश्यकताओं, भागादौड़ी और आपा-धापी के बीच मकड़ी के जाल की तरह उलझ गया है। पैसों की अंकगणित ने चैन और सुकून छीन लिया है। घर परिवार के सपनों के खातिर उसने घर ही छोड़ना स्वीकार किया। शहर की बेजान हवा में घुटता हुआ जीवन जीने को अभिशप्त वह मानव आशा-आकांक्षा के बीच झुलता हुआ नज़र आता है। फिर भी बाजा़र से छीना-झपटी करता, आँखे चुराता, होड़ करता या अपनी होशियारी दिखाकर कुछ धन जुटाता है और चल पड़ता है अपने घर परंतु उसकी सारी चालाकियाँ तब धरी की धरी रह जाती है जब बाजार उससे आकाश कुसुमवत नज़र आता है-
मनीषा झा लिखती है - “ पूंजी मनुष्य को मात्र उपभोक्ता बनाकर छोडती है। वह मनुष्य को भौतिकता से संपन्न करती है, पर संवेदना छीन लेती है। इच्छाओं और कामनाओं की लुभावनी दुनिया में मनुष्य खिंचता चला जाता है और पीछे मुड़कर नहीं देखता। अगल – बगल भी नहीं देखता। यह है पूंजी का सच। पर अभावहीन दुनिया में पूंजी एक आतंक बनकर गिरती है। “ 10
आधुनिक जीवन शैली ने परम्परागत सहजने युक्त मूल्यों का अतिक्रमण कर लिया है। मूल्य हृास कवि को कोंधता है। स्वार्थ और मतलब से भरी दुनिया में दोहरा व्यक्तित्व अन्तर्द्वन्द्व को बढ़ाता ही है -
मूल्यक्षरण और नैतिक पतन युगीन विडम्बना कही जा सकती है। दोहरा आचरण नैतिकता को तार-तार करता है। स्वार्थलोलुपता ने मनुष्यता की ऐसी-तैसी कर दी है। नैतिक मूल्य चीख-चीख कर अपनी ओर बुला रहे हैं वहीं आचरण की विकृतियाँ मानवता को लील लेने को आतुर है। नैतिक आपातकाल जैसी स्थिति बन रही है। कवि अच्छी तरह से जानते हैं कि समय के साथ जीवन में कृत्रिमता आ गयी है। बनावटीपन साफ झलकने लगा है। जीवन की भाग-दौड़, आपा-धापी और आधुनिकता के नाम पर सहजता समाप्त होती दिखाई देती है।
मृत्यु अनिवार्य सत्य है। परंतु हर मनुष्य जन्म लेने उपरांत सुख चैन से जीना चाहता है। ताउम्र मृत्यु का भय बना रहता है। दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी की रार-तकरार स्वाभाविक है। शायद यह भी उतना ही सत्य है कि यौवन के दिनों में दोनों को इतनी आवश्यकता महसूस नहीं होती है। वे स्वच्छन्द जीवन के हिमायती होते है। कईं बार हास परिहास या तानो में पति-पत्नी का यह क्षोभ अभिव्यक्त भी हो जाता है। परंतु जैसे-जैसे गृहस्थी आगे बढ़ती है बुढापा दस्तक देता है। तब दोनो एक-दूसरे को अधिक चाहने लगते हैं और एक-दूसरे की आत्मिक चाह बढ़ जाती है परंतु तब कवि की यह पंक्तियाँ सुनाई पड़ती हैं -
पदरज ने स्त्री के हर रूप को प्रस्तुत किया है। परंतु स्त्री का रूदन उनकी कविताओं की पुकार कही जा सकती है। करूणा की प्रतिमूर्ति स्त्री का दुःख असह्य है और वह हर रूप में प्रस्तुत किया है। कवि को स्त्री का संघर्षमयी जीवन उभारने में सफलता मिली है। ग्रामीण सामान्य जीवन जीने वाली स्त्री करुणा की प्रतिमूर्ति है। पदरज उसे थामते-दिलासा देते नज़र आते है। ऐसा लगता है जैसे थकी-माँदी स्त्री कहीं पर विश्राम करना चाहती है। वह सब कुछ भूल कर कुछ क्षण शान्त मन से जीना चाहती है। शायद उसकी यह आस हकीकत से दूर है। परंतु पदरज की कविताओं में क्षणिक विश्राम उसे मिलता है। कुछ क्षण ठहरकर वह उनींदी अवस्था में बिल्कुल शान्त लगती है। यद्यपि कवि को स्त्री का दुःख मरूस्थल से बड़ा, कुएँ से गहरा, और समुद्र के समान अथाह लगता है। कवि ने उसे अपने अन्दाज़ में प्रस्तुत किया है। प्रसिद्व कवि ऋतुराज के शब्दों में-‘‘शायद ही हमारे समय में कोई दूसरा विनोद पदरज जैसा कवि हो जिसने ‘स्त्री‘ के सामाजिक अस्तित्व को इतने राग, प्रेम, संवेदना और सह-अनुभूति से समझा हो, व्यक्त किया हो।‘‘ 13
प्रायः सभी कवि स्त्री जीवन को तलाशने की कोशिश करते हैं। स्त्री के जीवन की विकट स्थितियाँ कविता के विषय रहे हैं। कविता के माध्यम से समाज में स्त्री के प्रति संवेदनशील वातावरण निर्मित करना अभिप्रेत रहा है। पदरज स्त्री को जानने की कुछ भिन्न दृष्टि रखते हैं। वे स्त्री के जानने के लिए स्त्री होना आवश्यक समझते हैं। यद्यपि स्त्री जीवन के बाह्य पहलुओं को जाना समझा जा सकता है। परंतु उसके भीतर के दर्द को पूर्णतः अनुभूत एक स्त्री ही कर सकती है। यूँ कहा जा सकता है कि सत्य के निकट पहुँचा जा सकता है। परंतु पूर्ण सत्य ‘स्त्री‘ हो कर ही जाना जा सकता है। ‘स्त्री को जानना’ कविता में दृष्टव्य है-
लोक के अनुभव का संग्रह इनकी कविताओं की विशेषता है। कैसे कोई माँ अपनी नवयुवती बेटी के लिए संवेदनशील है, वहीं बेटी बेपरवाह अपनी मस्ती के साथ ज़िन्दगी जी रही है। परंतु समय के साथ भूमिका बदलती है अब वही बेटी माँ की भूमिका में है। अब वह अपनी बेटी की अल्हड़ता से भयभीत है। उसका भय माँ के शब्दों में पुनः प्रकट होता है -
सूक्ष्म संवेदना को भावना में पिरोकर पदरज अपने साथ बहा ले जाते हैं। जहाँ भावुक हृदय सिसकियाँ लेता महसूस होता है। बहुत ही सहज शब्दों में गंभीर भावों का वैशिष्ट्य तो है ही साथ ही आम मन की थाह लेता भी जान पड़ता है। पदरज को भाव पिरोने के लिए महाकाव्य रचने की आवश्यकता नहीं है वे उसे सहज शब्दों में ही प्रकट कर देते हैं। नायक – नायिका के संयोग का चित्रण प्रेम में की सुखद मनोरम स्थिति देखते बनती है -
सिर्फ नायक के मोर की तरह नाचने के कारण उसे पूरी मोर प्रजाति में नायक दिखने लगता है और मोर में वह नायक को ढूँढती है किंतु जब मिलन की आस अधूरी रहती है तो वह विरह में खो जाती है । पदरज विरह की अभिव्यक्ति भी हृदय को छूने वाली करते हैं। नायिका का विरह पूर्ण परिपाक हुआ है। -
अमूमन वैश्या के प्रति समाज का नज़रिया घृणित होता है। भोग की वस्तु मानकर उससे सम्मान का हक छीन लिया जाता है। वैश्या के वैश्या बनने के पार्श्व में अनगिनत लाचारी, बेबसी और मजबूरियाँ छीपी होती है। किंतु वैश्या होते हुए भी वह कईं जिम्मेदारियाँ निभाती है। कवि ने वैश्या के ‘माँ‘ के रूप को सामने रखकर संवेदना को झकझोरने का प्रयास किया है। समाज की धारणा वैश्या के लिए ‘वैश्या नहीं‘ कविता में कुछ इस तरह थी -
परंतु कवि वैश्या के अन्दर माँ की छूअन महसूस करता है। अपने तन को बेचने को मजबूर माँ कवि के हृदय को स्पर्श करती है और मन की परते भी उसी रूप में स्वीकारती है अतः वह चाहकर भी कमनीय भोग-देह के निकट नहीं पहुँच पाता है -
कवि ने पिता की भूमिका भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। पिता जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा होता है। उसका क्रमिक चिन्तन धीरे-धीरे चिन्ता में बदल जाता है। उस बोझ तले दबा पिता माँ की तरह खुलकर रो भी नहीं सकता क्योंकि उसे डर है कि कहीं उसे रोता देख उसकी औलाद कमज़ोर न हो जाय। माँ रो कर भी कुछ ठण्डक महसूस कर लेती है किन्तु पिता के पास तो वह अधिकार भी नहीं है। किन्तु दृश्य बदलता है रात के अँधेरे में जब बच्चे सो जाते हैं। अब भूमिकाएँ बदल गयी है। फूट पड़ता है पिता की दुःख ज्वालामुखी की तरह तप रहा होता है उसका परिवेश। चिन्ता में घुटता पिता और उसे संबलन देती है वही माँ जो बात-बात पर रो देती है। ‘माँ और पिता‘ कविता में -
पदरज ने सूक्ष्म संवेदनाओं को नपे-तुले शब्दों में प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। पति-पत्नी का रिश्ता जहाँ आधार प्रेम का ग्रहण करता है, वहीं आपसी समन्वय, समर्पण और सहयोग उसकी हर पल परीक्षा लेते हैं। यह एक ऐसा रिश्ता है जिसमें शूल को भी फूल समझना होता है नहीं तो जीवन में अंधड़ आने में भी देर नहीं लगती। पदरज ने इस रिश्ते की थाह लेने की कोशिश की है -
लोकभाषा के चलते शब्द पदरज की लेखनी को धार देते हैं। कबीर जिस प्रकार अनेक बोलियों के शब्द अपनी वाणी में उतारते हैं तो वह एक नई बोली बन जाती है जिसे जनभाषा या लोकबोली कहा जा सकता है। पदरज भी समाज की खामियाँ उसी के शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं। कविता के लिए कविता करना उनका अभिप्रेत नहीं लगता बल्कि कविता में आमजन को उतारना उन्हें शायद ठीक लगता है। आमजन की बोली और दृष्टिकोण इन पंक्तियों में दिखाई देता है। नरेश गोस्वामी में टिप्पणी करते हैं –
‘‘विनोद पदरज की कविताओ में कुछ भी दिखावे का नहीं है और शायद इसीलिए उनके यहाँ शिल्प और संवेदना क चालू मुहावरा भी नहीं है। मुझे लगता है कि इन कविताओं में जीवन के जो चित्र, स्थितियाँ और प्रसंग आए हैं, उन्हें बैठे-ठाले, अभ्यास या तकनीक के दम पर हासिल नहीं किया जा सकता है।‘‘ 22
निष्कर्ष : पदरज की कविताएँ आमजन की आवाज़ बनी हैं। आमजन के सुख-दुःख, आशा, आकाँक्षा, कष्ट, पीड़ा, राग-विराग को अभिव्यक्ति मिली है। ये रोजमर्रा की ज़िन्दगी जूझते हुए जीने वाले व्यक्ति की मौन वेदना है। लोक जीवन के निकट की कविताएँ भाव-गाम्भीर्य के साथ प्रस्तुत हुई हैं। यथार्थ के धरातल पर लिखी कविता मूल्य संकट को उभारने में सफल रही हैं। ग्रामीण जीवन के धराशायी होते सपने और यांत्रिकता की बली चढ़ते रिश्ते-नाते कवि के क्षोभ के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं।
1. http://www.nbgu.edu.in
2. विनोद पदरज, समकाल की आवाज़ के लिए, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
3. विनोद पदरज, अगनजल, अप्रकाशित
4. विनोद पदरज, आवाज़ अलग-अलग है, संभावना प्रकाशन, हापुड़, प्र.सं. 2021, पृ.107
6. विनोद पदरज, देस, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्र.सं. 2019, पृ. 32
10. मनीषा झा, कविता का सन्दर्भ, आनंद प्रकाशन कोलकाता, प्र.सं. 2009, पृ.107
12. विनोद पदरज, समकाल की आवाज़ के लिए, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
13. विनोद पदरज, देस, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्र.सं. 2019, अन्तिम फ्लेप
14. वही, पृ. 54
16. विनोद पदरज, आवाज़ अलग-अलग है, संभावना प्रकाशन, हापुड़, प्र.सं. 2021, पृ.118-119
18. विनोद पदरज, कोई तो रंग है, अप्रकाशित
19. वही
20. विनोद पदरज, आवाज़ अलग-अलग है, संभावना प्रकाशन, हापुड़, प्र.सं. 2021, पृ. 120
22. विनोद पदरज, आवाज़ अलग-अलग है, संभावना प्रकाशन, हापुड़, प्र.सं. 2021, अन्तिम फ्लेप
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
बहुत शानदार , कविता में आमजन का सुख-दुःख दिखाना किसी कवि का टेबल-वर्क नहीं होता।
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