शोध आलेख : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रवासी भारतीयों का योगदान: अमेरिका के विशेष संदर्भ में / अनूप सिंह कुशवाहा एवं डॉ नरेंद्र कुमार सिंह

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रवासी भारतीयों का योगदान: अमेरिका के विशेष संदर्भ में
- अनूप सिंह कुशवाहा एवं डॉ नरेंद्र कुमार सिंह

शोध सार : भारत में ब्रिटिश राजके शोषण और अत्याचारों का विरोध केवल भारत तक ही सीमित नहीं था, बल्कि भारत के बाहर रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा अपने गंतव्य देश में भी विरोध किया जा रहा था। प्रवासी भारतीयों द्वारा संगठन बनाके विदेशी सहयोग से भारतीय जनता कोब्रिटिश सत्ता के शोषण के विरुद्ध आंदोलन करने के लिए प्रेरित करते थे। इसके लिए पत्र-पत्रिकाओं इत्यादि के माध्यम से अपने संदेश को विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों,भारतीय जनता तथा विश्व बिरादरी तक पहुँचाते थे। ऐसा हीआंदोलन भारत की ब्रिटिश सरकार के विरोध में संयुक्त राज्य अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा लगभग दो दशक तक चला। इस दौरान कई छोटे बड़े संगठन बनाये गए तथा कई पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हुआ। इस शोध पत्र में अमेरिका में प्रवासी भारतीयों द्वारा भारत की ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चलाए गए आंदोलनों का अवलोकन करेंगे।

बीज शब्द : प्रवासी भारतीय, इंडिया हाउस, पैन-आर्यन एसोसिएशन, हिन्द सभा, इंडिया इंडिपेंडेंट लीग, हिन्दुस्तानी एसोसिएशन, गदर आंदोलन, हिंदी सभा, इंडियन होमरूल लीग, यंग इंडिया, फ़्रेंड्स ऑफ फ्रिडम फॉर इंडिया।

मूल आलेख : भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान सभ्रांत भारतीय बेहतर रोजगार, उच्चशिक्षा उच्च जीवन स्तर के लिए विदेश जाते थे। इनका मुख्य ठिकाना यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के देश थे। रोजगार उच्चशिक्षा के लिए भारत से बाहर गए भारतीय जिन्हेंप्रवासी भारतीय कहा जाता है।प्रवासी भारतीय अपने गंतव्य देश के जन्मजात नागरिकों को मिले स्वतंत्रता, गरिमापूर्ण व्यवहार, नागरिक अधिकारों इत्यादि से प्रभावित थे। ऐसे में भारत में ब्रिटिश सरकार के शोषण और अपने नागरिक अधिकारों के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपने गंतव्य देश में आंदोलन प्रारंभ किये। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रवासी भारतीय आंदोलनकारियों का मुख्य केंद्र लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क, बर्लिन इत्यादि था।[1]

          अपने शुरुआती दौर में भारत की ब्रिटिश सरकार विरोधी आंदोलन का मुख्य केंद्र लंदन था। यही से विदेशों में संघर्ष कर रहे प्रवासी भारतीय अपनी योजनाओं का क्रियान्वयन करते थे। इसी तर्ज पर अमेरिका में भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए पहली बार सन 1903 में न्यूयॉर्क में अध्ययनरत प्रवासी भारतीयों का छोटा सा समूह एकत्रित हुआ और आयरिश आंदोलनकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया।[2] आयरिश अमेरिकन पहले से ही अपने आपसी मुद्दों को लेकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संगठित आंदोलनकारी गतिविधियाँ संचालित कर रहे थे। कुछ आयरिश क्रांतिकारी पहले से ही मैडम कामा तथा कृष्ण वर्मा के संपर्क में थे। भारतीय और आयरिश आंदोलनकारियों की ब्रिटिश विरोधी भावना ही दोनों के साथ काम करने का कारण भी बनी।[3]

          भारतीय आयरिश आंदोलनकारी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीयों को जागरूक करने तथा आंदोलन के लिए प्रेरित करने हेतु क्रांतिकारी साहित्य, पत्र-पत्रिका इत्यादि भारत भेजते थे।[4]साथ ही अमेरिका में प्रकाशित होने वाली आयरिश पत्रिकादी गैलिक अमेरिकन के संपादक जॉर्ज फिट्जराल्ड(फ्रीमैन)पत्रिका में अपने लेखों के माध्यम से भारत की ब्रिटिश आर्मी में कार्यरत भारतीय सिपाहियों को विद्रोह के लिए प्रेरित करते थे।[5] वर्ष1906 में अपने कार्ययोजना को और भी सुचारु रूप से चलाने के लिए भारतीय और आयरिश क्रांतिकारियों ने न्यूयॉर्क मेंइंडिया हाउस[6] जैसा संगठन बनाया।लेकिन प्रवासी भारतीयों की सबसे बड़ी समस्या लंदन जैसी सक्षम नेतृत्व का अभाव था। इसलिए प्रवासी भारतीयों को संगठित करने में विफल रहे और अपनी योजना को ठीक से क्रियान्वित कर सकें। अन्ततः धन के अभाव में इंडिया हाउस को जल्द ही बंद करना पड़ा।

          प्रवासी भारतीयों द्वारा 1906 में दूसरा संगठन सैमुअल लुकाक जोशी तथा मौलवी बरकतुल्ला के नेतृत्व मेंपैन-आर्यन एसोसिएशन बनाई गई।[7] संगठन ने स्थानीय निवासियों के मध्य ब्रिटिश विरोधी प्रचार प्रसार कर भारतीयों के पक्ष में समर्थन प्राप्त किया। लेकिन सन 1909 में बरकतुल्ला के जापान जोशी के ब्रिटेन चले जाने के कारण संगठन निष्क्रिय हो गया।

          भारतीय आयरिश क्रांतिकारियों द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्धएक और संगठित प्रयास 07 सितम्बर,1907 को मायरों फिलिप्स के नेतृत्व में किया गया। इन्होंनेइंडो-अमेरिकन नेशनल एसोसिएशन,न्यूयॉर्क की स्थापना की।[8] संगठन ने पैन-आर्यन एसोसिएशन के साथ मिलकर जनवरी,1908 में इंडिया हाउस,न्यूयॉर्क की स्थापना की।[9] जल्द ही इंडिया हाउस भारतीय क्रांतिकारियों छात्रों का मुख्य अड्डा बन गया। लेकिनआपसी मतभेद फिलिप्स के दुर्व्यवहार के कारण इसे फरवरी,1909 को बंद करना पड़ा। गठबंधन के निष्क्रिय होने की स्थिति में दी गैलिक अमेरिका के संपादक जॉर्ज फ़िडजोराल्ड(फ्रीमैन) ने जनवरी,1909 मेंइंडो-अमेरिकन क्लब बनाया[10]जिसने मार्च,1910 तक काम किया।

          अमेरिका के पूर्वी तट के क्षेत्रों में मुख्यतः न्यूयॉर्क में भारतीय आयरिश क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कई संगठित प्रयास किए। अंजाम तक ले जाने में पूरी तरह से कामयाब तो नहीं हुए, लेकिन इन क्रांतिकारी गतिविधियों का लाभ यह हुआ किं भारतीय भी बम बनाना, भारत में क्रांतिकारी साहित्य भेजना, हथियार भेजना इत्यादि सीख गए।इसका लाभ आगे के आंदोलनों में देखने को मिला।

पैसिफिक कोस्ट पर प्रवासी भारतीय क्रांतिकारी -

          अमेरिका के पश्चिमी तट प्रवासी भारतीयों का मुख्य संकेन्द्रण था। प्रवासी भारतीय मजदूर कनाडा के रास्ते अमेरिका के पश्चिमी तट के कैलिफॉर्निया के आसपास के क्षेत्र में आते थे। ये मुख्यतः कृषि फर्म, रेलवे में मजदूरी, प्लम्बर, मिल में मजदूरी इत्यादि काम करते थे। प्रवासी भारतीय मजदूर अपने आपसी सहयोग के लिए छोटे-छोटे संगठन भी बनाए थे जिन्हेंहिन्द सभा कहा जाता था।[11]

          पश्चिमी तट पर प्रवासी भारतीयों द्वारा पहला क्रांतिकारी संगठन सन 1907 मेंइंडियन इंडिपेंडेंट लीग,सैन फ्रांसिस्कोथा।[12] इसके मुख्य नेता तारकनाथ दास, पांडुरंगा खानकोजे, रामनाथ पुरी तथा खगेन्द्र चंद्र दास थे। लीग अमेरिकी जनता के सामने भारत की ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी नीतियों को उजागर करती थी। लेकिन धन की कमी के कारण इसे भी कुछ समय बाद बंद करना पड़ा। 

          पैसिफिक कोस्ट पर प्रवासी भारतीयों द्वारा दूसरा क्रांतिकारी संगठन 1911 मेंहिन्दुस्तानी एसोसिएशन,शिकागों बनाया गया।[13] इसके मुख्य नेता खगेन्द्र चंद्र दास, वसंत कुमार रॉय, वाई.एम..नांदेकर तथा शिवड़े थे। जल्द ही भारतीय क्रांतिकारियों का मुख्य केंद्र बन गया। सशस्त्र संघर्ष करने के लिए एसोसिएशन भारत में क्रांतिकारी साहित्य, हथियार, बम इत्यादि भेजते थे। संगठन भारत की ब्रिटिश सरकार के लिए चिंता का कारण बन गई। ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण अमेरिकी सरकार इस संगठन के ऊपर कारवाई करने लगी, ऐसे में इनकी सक्रियता कम हो गयी और धीरे धीरे संगठन समाप्त हो गया।

          संगठित आंदोलन के साथ साथ भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी जागरूकता विद्रोह के लिए प्रेरित किया जा रहा था। सन 1907 में कैलिफॉर्निया से रामनाथ पुरी द्वारा उर्दू साप्ताहिकसर्कुलर--आजादी नामक पत्रिका के प्रकाशन की शुरुआत की गई।[14]सन 1909 में तारकनाथ दासफ्री हिंदुस्तान पत्रिका(इसकी शुरुआत सन 1908 में वैनकुवर, कनाडा से हुई थी) का प्रकाशन अमेरिका से करने लगे।[15] इस पत्रिका ने भारतीयों के मन में क्रांति के लिए नया जोश भर दिया। जुलाई-अगस्त,1909 के अंक में भारतीयों को चीनियों से सीख लेकर क्रांति करने को कहा। अपने एक अन्य अंक में मेजिनी के भाषणों को उद्धरण देते हुए कहा किशिक्षा और संघर्ष एक मात्र रास्ता है आम जनमानस को जगाने का।इसके लिए जनवरी,1910 में तारकनाथ दास ने अपने कुछ अमेरिकी उदारवादी मित्रों के साथ मिलकरदी एसोसिएशन फॉर दी प्रोमोशन ऑफ एजुकेशन फॉर दी पीपल ऑफ इंडिया नामक संगठन बनाया। इसके पहले अध्यक्ष वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के प्रोफेसर एडवर्ड मैकमोहन तथा तारकनाथ सचिव नियुक्त हुए, लेकिन तारकनाथ दास के न्यूयॉर्क चले जाने के कारण संगठन ज्यादा दिनों तक चल सका। 

गदर आंदोलन -

जून,1911 में लाला हरदयाल के अमेरिका आने से भारतीय क्रांतिकारियों में नया जोश भर गया। जिस सक्षम नेतृत्व की तलाश थी,लाला हरदयाल के आने से पूरी हुई। लाला हरदयाल फरवरी,1912 में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में भारतीय दर्शन पढ़ाने के लिए लेक्चरर नियुक्त हुए। अपने लेक्चर के दौरान ब्रिटिश विरोधी एजेंडे को छात्रों के सामने खुलकर रखते थे।[16]जिसके कारण सितम्बर,1912 में उन्हें यूनिवर्सिटी छोड़ना पड़ा। यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद लाला हरदयाल भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आंदोलन में पूर्णरूप से लग गए। इन्होंने एस्टोनिया(ऑरिगन) में हिन्दुस्तानी एसोसिएशन से जुड़करसाइडलाइट ऑफ इंडिया नामक पेम्पलेट निकालना प्रारंभ किया।[17]लाला हरदयाल के आने से अमेरिका में भारतीयों की क्रांतिकारीगतिविधियाँ तेज हो गई। आंदोलन कोसुचारु रूप से चलाने तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा आंदोलनों को विफल करने के लिए किए जा रहे प्रयासों को रोकने के लिए प्रवासी भारतीय क्रांतिकारी सोहन सिंह भाखना ने 13 मार्च,1913 को एक बैठक बुलाई, जिसमें अमेरिका में काम कर रहे 120 क्रान्तिकारी शामिल हुए। बैठक मेंहिंदी सभा की स्थापना की गई जिसके पहले अध्यक्ष सोहन सिंह भाखना, उपाध्यक्ष ज्वाला सिंह केशर सिंह, महासचिव लाला हरदयाल, संगठन सचिव करीम बख्श मुंशीराम तथा कोषाध्यक्ष कांशीराम को बनाया गया, साथ ही 436,हिल स्ट्रीट, सैन फ्रांसिस्को मेंयुगांतर आश्रम खोलने का भी प्रस्ताव पारित किया गया।[18]

          प्रवासी भारतीयों को ब्रिटिश विरोधी आंदोलन के प्रति जागरूक करने तथा संगठन के विस्तार धन इक्कठा करने के उद्देश्य से लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, काशीराम, रामचन्द्र भारद्वाज पूरे वेस्ट कोस्ट का दौरा किए।[19]लाला हरदयाल अपने वाक्पटुता, गतिशीलता तथा समर्पण से भारतीय समुदाय में नया जोश भर दिए तथा एक सैनिक संगठन बानाने को प्रेरित किए।[20]

          अपनी आगामी योजना के लिए अक्टूबर,1913 को हिंदी सभा की दूसरी बैठक बुलाई गई जिसमें भारत की ब्रिटिश शासन के अत्याचारी रूप को दुनिया के सामने रखने के लिएगदर नामक पत्रिका प्रकाशित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। पत्रिका का पहला प्रकाशन 01 नवम्बर,1913 को उर्दू भाषा में किया गया।[21]पत्रिका का सकारात्मक प्रभाव था कि जर्मनी की सरकार ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतीय क्रांतिकारियों की मदद को तैयार हो गई।[22] गदर पत्रिका की लोकप्रियता इतनी ज्यादा हो गई कि पत्रिका के नामगदरसे ही आंदोलन को जाना जाने लगा, और पूरे आंदोलन कोगदर आंदोलन कहा जाने लगा। पत्रिका की मांग इतनी ज्यादा थी कि अप्रैल,1914 से इसे उर्दू के साथ साथ अंग्रेजी, गुजराती, पस्तो तथा गुरुमुखी में भी प्रकाशित किया जाने लगा।[23]

          पत्रिका की लोकप्रियता प्रभाव से घबराकर भारत की ब्रिटिश सरकार ने इसे भारत में प्रतिबंधित कर दिया तथा अमेरिकी सरकार के ऊपर आंदोलनकारियों पर कार्यवाही करने का दबाव बनाने लगी। ऐसे में लाला हरदयाल गदर पत्रिका के संपादक का कार्य रामचन्द्र को सौप कर आंदोलन को और भी जोर शोर से प्रचारित करने लगे।[24]लाला हरदयाल को 25 मार्च,1914 को सैन फ्रांसिस्को से गिरफ्तार कर लिया गया। काम करने में रही कठिनाई को देखते हुए लाला हरदयाल बेल पर रिहा होते ही यूरोप चले गए।[25] लाला हरदयाल की अनुपस्थिति में गदर आंदोलन को रामचन्द्र, भगवान सिंह तथा बरकतुल्ला ने संभाला। इनके नेतृत्व में गदर आंदोलन सशस्त्र विद्रोह के लिए भारत की सरजमीं पर पहुँच गया।

गदर के सिपाहियों का भारत की ओर कूच -

          1914 में यूरोप में युद्ध की स्थिति बन रही थी, ब्रिटेन भी इसमें उलझा हुआ था। इस अवसर का गदर नेताओं ने लाभ उठाना चाहा। गदर क्रान्तिकारियों ने भारत में सशस्त्र विद्रोह के लिए अमेरिका से क्रांतिकारी सिपाही भेजने का निर्णय लिया।[26]गदर सिपाहियों का पहला जत्था ज्वाला सिंह तथा नवाब खान के नेतृत्व में कैलिफॉर्निया से कोरिया के रास्ते कैंटन(चीन) के लिए 29 अगस्त,1914 को रवाना  हुआ। गदर सिपाहियों को गदर नेता रामचन्द्र का स्पष्ट निर्देश था किभारत जाते ही कोने कोने में फैल जाओ, धनवानों को लूटो, गरीबों को साथ लो, आम जनता की सहानुभूति प्राप्त करो। हथियार आपको मिल जाएंगे, अगर नहीं मिले तो पुलिस थानों से हथियार लूट लो।[27]

          पहले जत्थे के साथ कैन्टन में कुछ और भी क्रांतिकारी सिपाही साथ मिल गए और एक जापानी जहाज से कलकत्ता पहुँचे। लेकिन इसकी भनक पहले ही ब्रिटिश सरकार को लग चुकी थी। बंदरगाह पर इनके नेता को गिरफ्तार कर लिया गया। शेष सैनिकों को पंजाब भेज दिया गया। गदर सिपाही पंजाब के मोंगा में एकत्रित हुए,लेकिन प्रभावी नेतृत्व मिलने के कारण कोई सफल कार्ययोजना बना सकें।[28] इस असफलता के पश्चात गदर सिपाही चीन होते हुए कोलंबो(श्रीलंका) के रास्ते भारत में प्रवेश की कोशिश किए, लेकिन ब्रिटिश सरकार इन्हें भी गिरफ्तार कर ली। ऐसे में गदर सिपाही कोरिया के रास्ते सिंगापुर का मार्ग लिये और किसी एक जहाज के बजाय सामान्य यात्री जहाज में सिपाहियों को छोटे छोटे टुकड़ों में भेजना प्रारंभ किया। इस तरह हजारों सिपाही गुप्त रूप से भारत में प्रवेश लेने में सफल हुए।[29]

          घुसपैठ को रोकने तथा किसी बड़े विद्रोह की आशंका को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 19 मार्च,1915 कोडिफेंस ऑफ इंडिया एक्टपास किया जिसके तहत ब्रिटिश सरकार किसी भी व्यक्ति को भारत में प्रवेश से रोक सकती थी तथा गिरफ्तार कर सकती थी।[30] ब्रिटिश सरकार की कड़ी निगरानी के बाद भी गदर सिपाही स्थानीय सैनिकों तथा जनता के सहयोग से 21 फरवरी,1915 को पूरे उत्तर भारत में एक साथ विद्रोह की तारीख तय की, लेकिन ब्रिटिश सरकार को इसकी भनक लग गई और योजना क्रियान्वित हो सकी।[31]

इंडियन होमरूल लीग और यंग इंडिया -

          06 अप्रैल,1917 को अमेरिका द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध में सीधे भाग लेने के कारण अमेरिका में रह रहे जर्मन क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसका नकारात्मक प्रभाव भारतीय क्रांतिकारियों पर भी पड़ा। बर्लिन से सारे संबंध टूट गए तथाअमेरिकी सरकार द्वारा भारतीय क्रांतिकारियों पर भी कार्यवाही की जाने लगी। ऐसे में भारतीयों का आंदोलन लगभग समाप्त सा हो गया, लेकिन अक्टूबर,1917 में लाला लाजपत राय अपने कुछ साथियों(जे.टी. सदरलैन्ड, केशवदेव शास्त्री और एन.सी. हारदीरकर) के साथ मिलकर एक अंब्रेला संगठनइंडियन होम रूल लीग की स्थापना किए। लाला लाजपत राय इसके पहले अध्यक्ष, जे.टी.सदरलैन्ड उपाध्यक्ष, केशवदेव शास्त्री महासचिव एन.सी. हारदीरकर सचिव नियुक्त हुए। संगठन ने जनवरी,1918 से मासिक पत्रिकायंग इंडिया का प्रकाशन प्रारंभ किया। एन.सी. हारदीरकर इसके संपादक तथा डी.एस.वी.राव जनरल मैनेजर बने।[32]कुछ समय बाद लीग द्वारा हीदी हिंदुस्तान स्टूडेंट्स एसोसिएसन औरहिन्दू वर्कर्स यूनियन ऑफ अमेरिका का गठन किया गया।[33] लीग के प्रचार प्रसार के लिएइंडियन इनफार्मेशन ब्यूरो(न्यूयॉर्क) का गठन किया गया।[34] लीग का मुख्य उद्देश्य अमेरिकी काँग्रेस के सदस्यों से कूटनीतिक संबंध स्थापित कर कूटनीति के माध्यम से ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाना था। इसमें सफलता भी मिली। 20 अगस्त,1919 को अमेरिकी काँग्रेस में सीनेटर मेडिल मैकोरमिकनेभारत कीब्रिटिश सरकार की जमकर आलोचना की।[35]29 अगस्त,1919 को लीग की तरफ से लाला लाजपत राय, .एन. हरदीरकर तथा डी.एफ. मालेवन ने अमेरिकी काँग्रेस की फ़ॉरेन रिलेशन कमेटी के सामने अपनी बात रखी। लीग प्रार्थना याचना के बजाय भारत की ब्रिटिश सरकार के सचिव तथा महाराजा बीकानेर को लीग के साथ शांति समझौता करने की चुनौती दी।[36] लीग का प्रचार प्रसार तथा कूटनीतिक प्रभाव था कि 08 09 अक्टूबर को अमेरिकी सीनेट में मैरीलैन्ड के सीनेटर ने ट्रीटी ऑफ वेरसैलेस के अनुसमर्थन का विरोध करते हुए कहा किभारत की ब्रिटिश सरकार भारतीयों का शोषण कर रही है तथा उन्हें अपने अधिकार से वंचित कर रही है।[37]

          लीग कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के साथ साथ संगठन का विस्तार भी कर रहा था। मार्च-अप्रैल,1919 में एन.एस. हरदीरकर पश्चिमी-मध्य अमेरिकी राज्यों में घूम-घूम कर प्रचार प्रसार करने लगे और अपने साथ 25 छोटे बड़े संगठनों को जोड़ा।[38] मई,1919 तक अमेरिका के कई शहरों में लीग की शाखाएं खुल गई।

          विश्वयुद्ध के समय स्थानीय लोगों द्वारा लीग को खूब समर्थन मिला। लेकिन अमेरिका द्वारा विश्व राजनीति से अपने को दूर करने के पश्चात लीग के लिए काम करना मुश्किल हो गया। उसी समय भारत में गांधी जी के आने से राष्ट्रीय आंदोलन में नया जोश भर गया। ऐसे भी लाला लाजपत राय भारत जाना ठीक समझे। 29 दिसंबर,1919 को लीग का काम जे.टी. सदरलैन्ड को सौपकर लाला जी भारत लौट आए।[39]

फ़्रेंड्स ऑफ फ्रीडम फॉर इंडिया -

          इंडिया होमरूल लीग के निष्क्रिय होने के पश्चात हिन्दू षड्यन्त्र केस से छूटे गदर क्रांतिकारी जैसे- शैलेन्द्रनाथ, सुरेन्द्रनाथ, हेरंबलाल तथा तारकनाथ ने भारत के मुद्दों को उठाने के किएफ़्रेंड्स ऑफ फ्रीडम फॉर इंडिया का गठन किया।[40] संगठन आयरिश आंदोलनकारियों के साथ मिलकरदी इंडिपेंडेंट हिंदुस्तान मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया।[41]

          संगठन का विस्तार कई यूरोपीय देशों में हुआ। लेकिन विश्वयुद्ध के बाद उपजी नई परिस्थिति भारतीय क्रांतिकारियों को रूस की तरफ आकर्षित करने लगी। ऐसे में संगठन निष्क्रिय हो गया।

निष्कर्ष : अमेरिका की धरती पर भारत की स्वतंत्रता के लिए दो दशक लंबे प्रतिरोध में हजारों प्रवासी भारतीय विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर संघर्ष किया। हालांकि संघर्ष किन्ही कारणों से आंशिक रूप से सफल रहा, फिर भी प्रवासी भारतीय क्रांतिकारी कभी हार नहीं माने और हर बार नए जोश और नए संगठन के साथ संघर्ष के लिए खड़े हो जाते। संघर्ष की सबसे बड़ी सफलता थी कि अमेरिकी नागरिक और सरकार इससे सहमत थे कि भारत की ब्रिटिश सरकार भारतीयों के ऊपर अत्याचार शोषण कर रही है। संघर्ष का दूरगामी परिणाम ये था कि आगे के वर्षों में कई भारतीय क्रांतिकारी दूसरे देशों में जाकर भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिए। जैसे- कम्युनिस्ट क्रांतिकारी रूसी सरकार से मिलकर भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आंदोलन करने लगे, गदर सिपाहियों का सशस्त्र संघर्ष के लिए भारत की ओर कूच करना, आजाद हिन्द फौज के लिए प्रेरणाश्रोत और मार्ग दर्शन का काम किया।

 

संदर्भ :
[1]अरुणके.बोस,इंडियन रिवालुशनरीज अब्रॉड,1905-22 इन दी बैग्राउन्ड ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट, भारतीय भवन, पटना, 1971, पृ. 10 
[2]वही, पृ. 38
[3]दी गैलिक अमेरिका, स्पीक फॉर इंडो आयरिश कोआपरेशन पॉलिटिक्स एण्ड सीक्रेट(इंडिया कोरेसपोनडेंट) 1251, 29-09-1906, वॉल्यूम 190
[4]एस.आर.वस्ती, लॉर्ड मिंटो एण्ड दी इंडियन नेशनलिस्ट, ऑक्सफोर्ड, 1964, पृ. 90
[5]बी. एफ.(आर्मी डिपार्ट्मन्ट) जून 05, 1907, होम पॉलिटिकल रिकार्ड, अगस्त 1907, 243750
[6]इंडिया हाउस, https://www.open.ac.uk/researchproject/makingbritain/content/india-house
[7]क्रिमिनलइंवेस्टिगेशनडिपार्ट्मन्ट, गवर्नमेंटऑफइंडिया, होमपॉलिटिकलरिकार्ड, अगस्त17, 1907
[8]अरुण के. बोस, इंडियन रिवालुशनरीज अब्रॉड,1905-22 इन दी बैग्राउन्ड ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट, भारतीय भवन, पटना, 1971, पृ. 40
[9]फ़िसचेर टाइन हेराल्ड, ‘इंडियन नेशनलिजम एण्ड दी वर्ल्ड फोर्स: ट्रांसनेशनल एण्ड डायसपोरिक डायमेनसन ऑफ दी इंडियन फ्रीडम मूवमेंट ऑन दी इव ऑफ दी फर्स्ट वर्ल्ड वॉर’ जर्नल ऑफ ग्लोबल हिस्ट्री, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस,2(3), 2007, पृ. 334 
[10] अरुण के. बोस, इंडियन रिवालुशनरीज अब्रॉड,1905-22 इन दी बैग्राउन्ड ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट, भारतीय भवन, पटना, 1971, पृ. 41
[11]वही,फ़ुटनोट नं 28, पृ. 44
[12]भूपेन्द्र नाथ दत्ता,‘आपरोकोसितों राजनीतिक इतिहास(बंगाली)’, कलकत्ता, 1953, पृ. 228
[13] अरुणके. बोस, इंडियन रिवालुशनरीज अब्रॉड,1905-22 इन दी बैग्राउन्ड ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट, भारतीय भवन, पटना, 1971,, फ़ुटनोट नं 28, पृ. 44
[14]माया रामनाथ, ‘हज टू यूटोपिया: हाऊ दी गदर मूवमेंट चाटेड ग्लोबल रेसनिलिज़्म एण्ड अटेंमटेड टू ओवर थ्रो दी ब्रिटिश अंपायर’, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया, 2011, पृ. 21
[15]रोनाल्डस्पेकटोर, ‘दी वर्मांट एजुकेशन ऑफ तारकनाथ दास: एन एपिसोड इन ब्रिटिश-अमेरिकन-इंडियन रिलेसन’, वर्मांट हिस्ट्री, दी प्रोसीडिंग ऑफ दी वर्मांट हिस्टॉरिकल सोसायटी, वॉल्यूम 48, न. 02, स्प्रिंग 1980, पृ. 89-95 
[16] अरुण के. बोस, इंडियन रिवालुशनरीज अब्रॉड,1905-22 इन दी बैग्राउन्ड ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट, भारतीय भवन, पटना, 1971, पृ. 56
[17]https://indianculture.gov.in/digital-district-repository/district-repository/sidelights-india
[18]रणधीर सिंह, गदर हीरोज, बॉम्बे, 1945, पृ. 08-09
[19]डी.पी. सिंह,“अमेरिकन ऑफिसियल एटिटूड टुवॉर्ड्स दी इंडियन नेशनलिस्ट मूवमेन्ट, 1905-1929” (अनपब्लिश पी.एच.डी. थीसिस, हवाई यूनिवर्सिटी,1964) पृ.193-94  
[20]खुशवंत सिंह, “दी सिखस”, लंदन, 1953, पृ.124
[21]वही, पृ.123-124
[22]वही, पृ.124
[23]जे.डब्ल्यू.स्पेलमैन, “दी इंटेरनेशनल एक्सटेनसन ऑफ पॉलिटिकल कॉनसपिरेसी इज इल्लुस्ट्रेटेड बाई दी गदर पार्टी”, जर्नल ऑफ इंडियन हिस्ट्री, वॉल्यूम 37, पार्ट 1, अप्रैल 1959, पृ. 32
[24]आर.सी.मजूमदार, “हिस्ट्री ऑफ दी फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया”, वॉल्यूम 2, कलकत्ता, 1962, पृ. 396-97
[25]हेनरी लांदा,“एनिमी वीथिन दी इन्साइड स्टोरी ऑन जर्मन सबोटेज इन अमेरिका”, न्यूयॉर्क, 1917, पृ. 28-29
[26]दी गदर लीडर कॉन्फिडेंटली एक्सपेक्टेड ए रिवोल्ट इन दी इंडियन आर्मी, गवर्नर जनरल, कनाडा टू सेक्रेटरी ऑफ स्टसते फॉर कॉलोनिज, ब्रिटिश एण्ड रिसीवड बाई होम सेक्रेटरी इंडिया ऑन 9-9-1914, होम पॉलिटिकल रिकॉर्ड जून 10-11, 1914
[27]टेस्टीमोनी ऑफ नवाब खान, इन पैसिफिक हिस्टॉरिकल रिव्यू, 1917, पृ. 300-01
[28]वही, पृ.300-01
[29]माइकल ओ डायर, “इंडिया एज आइ नो इट,1885-1925”, लंदन, 1925, पृ.196
[30]वही, पृ. 197-200
[31]वही, पृ. 248-50
[32]यंग इंडिया, वॉल्यूम 1,नं. 4, अप्रैल,1918, बैक कवर
[33]वही, वॉल्यूम 2, नं.7, जुलाई,1919, पृ. 152; वही, वॉल्यूम 2, नं.11, नवम्बर,1919, पृ. 242   
[34]राम कुमार खेमका, “ए न्यू डेवलोपमेंट ऑफ ऑवर एक्टिविटीस”, वही, वॉल्यूम 1, नं. 03, मार्च,1918, पृ.59-60
[35]कन्ग्रेशनल रिकार्ड, वॉल्यूम 58, पार्ट 04,(वाशिंगटन,1919), पृ. 4042-43
[36]यंग इंडिया, वॉल्यूम 02, नं. 10(अक्टूबर,1919), पृ. 219-20
[37]सम ओपिनियन ऑन यंग इंडिया, वॉल्यूम 02, नं. 09(सितंबर,1919), पृ. 214
[38]यंग इंडिया, वॉल्यूम 02, नं. 6(जून,1919), पृ. 138-39
[39]वही, वॉल्यूम 03, नं.01(जनवरी,1920), पृ. 03
[40]भूपेन्द्र,1953, पृ.166
[41]मार्क नैडिस, “प्रोपोगेडा ऑफ दी गदर पार्टी”, पैसिफिक हिस्टॉरिकल रिव्यू, वॉल्यूम 20, नं. 03(अगस्त,1951), पृ. 251-60
 
डॉ नरेंद्र कुमार सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग, ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
 
अनूप सिंह कुशवाहा
शोध छात्र, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग, ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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