- स्मिता पटेल
शोध
सार : चुनार किले
का
अपनी
भौगोलिक
स्थिति
के
कारण
प्राचीनकाल
से
ही
इतिहास
में
महत्त्वपूर्ण
स्थान
रहा
है।
यहाँ
समय-समय
पर
विभिन्न
हिन्दू
तथा
मुस्लिम
शासकों
का
शासन
रहा
जिसमें
प्राचीनकाल
में
मौर्य,
गुप्त,
मौखिरी,
गहडवाल,
चंदेल,
तथा
भट्ट
गहोड़
शासक
थे
तो
वहीं
मध्य
काल
में
दिल्ली
सल्तनत
के
विभिन्न
सुल्तानों, शर्की वंश,
लोदी
वंश,
सूर
वंश,
तथा
मुग़ल
शासकों
का
शासन
रहा।
आधुनिक
काल
में
अवध
के
नवाब,
बनारस
राज
सहित
ब्रिटिश
ईस्ट
इंडिया
कम्पनी
का
इस
किले
पर
अधिकार
रहा।
मध्य
काल
में
चुनार
किले
की
महत्वता
तब
बढ़
गयी
जब
शेरशाह
सूरी
द्वारा
इस
किले
का
प्रयोग
नव
स्थापित
मुग़ल
साम्राज्य
के
विरुद्ध
अपनी
स्थिति
मजबूत
करने
तथा
सूर
वंश
की
स्थापना
में
किया
गया।
शेरशाह
सूरी
ने
चुनार
किले
का
प्रयोग
चुनार
से
बंगाल
तक
अपनी
स्थिति
सुदृढ़
करने
के
लिए
किया
और
किले
के
माध्यम
से
पश्चिमी
सुरक्षा
पंक्ति
को
और
अधिक
सुदृढ़
किया।
मुग़ल
शासक
हुमायूँ
द्वारा
शेरशाह
के
विरुद्ध
चुनार
किले
की
दूसरी
घेराबंदी
उसके
जीवन
की
सबसे
भारी
भूल
साबित
हुई
जिसका
भुगतान
उसे
अपना
साम्राज्य
खोकर
करना
पड़ा।
चुनार
किले
का
प्रयोग
सूर
व
मुग़ल
शासकों
द्वारा
समय-समय
पर
दिल्ली
से
बंगाल
के
बीच
बिहार,
बनारस
क्षेत्र;
जैसे-
जौनपुर,
गाजीपुर,
चुनार,
तथा
जमनिया
जैसे
विद्रोही
क्षेत्रों
पर
नियंत्रण
स्थापित
करने
के
उद्देश्य
से
किया
गया।
चुनार
किले
की
महत्वता
को
इसका
पूर्व
का
प्रवेश
द्वार
कहा
जाने
से
ही
समझा
जा
सकता
है।
बीज
शब्द : चुनार,
किला,
भौगोलिक
स्थिति,
सिकंदर
लोदी,
ताज़खां
सारंगखानी,
लाड
मल्का,
शेरशाह,
हुमायूँ,
जलमार्ग,
स्थलमार्ग,
बंगाल।
मूल
आलेख :
भौगोलिक
स्थिति -
किलों
का
प्राचीन
काल
से
हमारे
इतिहास
में
महत्वपूर्ण
स्थान
रहा
है।
किले
जहाँ
एक
तरफ
किसी
शासक
की
शक्ति
व
प्रतिष्ठा
को
बनाये
रखने
में
महत्त्वपूर्ण
भूमिका
निभाते
थे
तो
वहीं
दूसरी
तरफ
किसी
क्षेत्र
विशेष
की
सुरक्षा
के
लिए
जिम्मेदार
होते
थे।
“किला जिसे संस्कृत
में
‘दुर्ग’ कहा गया
है
जिसका
शाब्दिक
अर्थ
है, ऐसा
स्थान
जहाँ
पहुँच
पाना
कठिन
हो
जो
इसके
मजबूत
और
विशाल
चरित्र
को
दर्शाता
है।”[1] जहाँ एक
तरफ
चुनार
को
पुराणों
में
चरणाद्रिगढ़
कहा
गया
है
तो
वहीं
दूसरी
तरफ
मध्यकाल
में
इसे
चुनारगढ़
के
नाम
से
जाना
गया।
यहाँ
स्थित
चुनार
किला
अपनी
विशेष
भौगोलिक
स्थिति
के
कारण
प्राचीनकाल
से
लेकर
ब्रिटिश
काल
तक
विभिन्न
राजनैतिक
व
सांस्कृतिक
परिवर्तनों
के
लिए
उत्तरदायी
रहा।[2] चुनार
किला
समुद्र
तल
से
280 फीट
(85 मीटर) की
ऊंचाई
पर
स्थित
है
तथा
किले
की
लम्बाई
उत्तर
से
दक्षिण
की
ओर
690 मीटर
है
तो
वहीं
इसकी
अधिकतम
चौड़ाई
270 मीटर
है।
किले
का
चट्टानी
स्वरुप
इसकी खड़ी ढलान
के
कारण
अभेद्य
है
तथा
यह
विन्ध्य
पर्वत
श्रृंखला
की
एक
असंलग्न
ऊँची
पहाड़ी
पर
अवस्थित
है।
किले
का
पश्चिमी
व
उत्तरी
भाग
गंगा
नदी
से
संलग्न
है
और
दक्षिण
में
विन्ध्य
पर्वत
श्रृंखला
का
विस्तार
है
जो
दक्षिण-पूर्व
को
जाती
है।
इस
प्रकार
किले
के
उत्तरी,
उत्तर-पूर्वी
तथा
कुछ
हद
तक
पश्चिमी
भाग
में
गंगा
के
मैदानी
क्षेत्रों
का
विस्तार
है
जो
इस
क्षेत्र
की
उत्पादकता
को
बढाती
है
व
आर्थिक
दृष्टि
से
इसे
समृद्ध
बनाती
है।
किले
के
दक्षिण,
दक्षिण-पश्चिम
व
दक्षिण-पूर्व
में
विन्ध्य
पर्वत
श्रृंखला
का
विस्तार
है
जो
घने
जंगलों
से
परिपूर्ण
था।
चुनार
किला
गंगा
के
तट
पर
स्थित
है
अतः
यहाँ
से
जलमार्ग
के
माध्यम
से
बंगाल
व
दिल्ली
के
लिए
आसानी
से
प्रयाण
किया
जा
सकता
था
तथा
दिल्ली
से
बनारस,
चुनार,
जौनपुर,
गाज़ीपुर,
जमनिया
आदि
विद्रोही
क्षेत्रों
पर
इस
किले
के
माध्यम
से
नियंत्रण
रखा
जा
सकता
था।
चुनार
किला
सड़क-ए-आज़म
(ग्रांड ट्रंक रोड),
जो
प्राचीनकाल
से
ही
पूर्वी
भारत
को
पश्चिमी
भारत
से
जोड़ने
का
प्रमुख
मार्ग
रहा
है,
से
मात्र
16-17 मील
की
दूरी
पर
स्थित
है
जिस
कारण
से
स्थलमार्ग
से
भी
यहाँ
से
दिल्ली
व
बंगाल
के
लिए
आसानी
से
प्रयाण
किया
जा
सकता
था।
“यह
किला
मध्यकालीन
एक
और
प्रमुख
मार्ग,
जो
वर्तमान
समय
में
एन.
एच.
7 के
नाम
से
जाना
जाता
है,
के
भी
अत्यधिक
समीप
स्थित
था।
यह
मार्ग
वाराणसी,
भुईली,
तथा
अहरौरा
से
होते
हुए
चुनार
किले
के
पास
से
गुजरता
है
तथा
आगे
चलकर
मिर्ज़ापुर,
लालगंज,
तथा
हालिया
(धिबार क्षेत्र)
से
होते
हुए
बरदी
तक
जाता
है।
इस
मार्ग
में
अनेक
छोटे-छोटे
दर्रे
थे
जो
सोन
नदी
घाटी
में
खुलते
थे।
यहीं
से
मध्य
प्रदेश
के
सीधी
जिले
तक
मार्ग
जाता
था
जो
चुनार
को
रीवा
से
होते
हुए
मध्य
प्रदेश
के
अमरपथ,
भरहुत,
व
जबलपुर
तक
जोड़ता
था।
इसके
माध्यम
से
चुनार
के
व्यापारिक
तथा
राजनीतिक
महत्व
में
वृद्धि
होती
थी।”[3]
इस
प्रकार
चुनार
किले
की
भौगोलिक
स्थिति
ने
इस
क्षेत्र
में
होने
वाले
राजनैतिक
परिवर्तनों
में
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई।
किसी
भी
क्षेत्र
की
राजनैतिक
व
आर्थिक
स्थिति
की
निर्भरता
उस
क्षेत्र
की
भौगोलिक
स्थिति
पर
होती
है
जिसके
माध्यम
से
उस
क्षेत्र
विशेष
की
सम्पन्नता
व
सुरक्षा
के
लिए
विशेष
रणनीति
बनायी
जाती
है।
चुनार
की
भौगोलिक
स्थिति
ने
इसे
विशेष
रणनीतिक
क्षेत्र
बनाया
तथा
यहाँ
होने
वाली
विभिन्न
राजनीतिक
हलचलों
को
प्रोत्साहन
भी
दिया
जिनमें
से
कुछ
हमारे
इतिहास
में
अविस्मरणीय
और
महत्वपूर्ण
हैं।
इसी
श्रृंखला
में
द्वितीय
अफ़ग़ान
वंश
का
उदय
अत्यंत
महत्वपूर्ण
घटना
है
जिसके
उदय
में
चुनार
क़िले
ने
अविस्मरणीय
भूमिका
निभायी।
शेरशाह
का चुनार
किले पर
अधिकार -
1395 ई.
में
तुग़लक
वंश
के
अंतिम
शासक
नासिरुद्दीन
महमूद
(1394-1412 ई.) ने
ख़्वाजा-ए-जहाँ
को
मलिक-उस-शर्क
की
उपाधि
देकर
कन्नौज
से
बिहार
तक
का
सम्पूर्ण
क्षेत्र
का
स्वामी
बना
दिया।
इसके
पश्चात
शीघ्र
ही
मलिक-उस-शर्क
ने
अपनी
स्वतंत्रता
घोषित
करके
जौनपुर
में
शर्की
वंश
(1394-1479 ई.)
की
स्थापना
कर
दी।
इसी
वंश
के
एक
सुल्तान
महमूद
शाह
(1440-1457 ई.)
ने
चुनार
पर
अधिकार
कर
लिया।[4] शर्की
वंश
के
अंतिम
शासक
हुसैन
शाह
शर्की
को
लोदी
शासक
सिकंदर
लोदी
(1489-1517 ई.)
ने
1494 ई.
में
पराजित
कर
शर्की
वंश
का
पूर्णतः
अंत
कर
दिया
व
चुनार
किले
सहित
आस-पास
के
समस्त
क्षेत्र
पर
अपना
अधिकार
स्थापित
कर
लिया।[5] इसी
समय
सिकंदर
लोदी
ने
इन
क्षेत्रों
में
अफ़ग़ान
पकड़
मज़बूत
बनाने
के
उद्देश्य
से विभिन्न अफ़ग़ान
कबीलों
को
यहाँ
बसाया; जैसे- सारवानी
शाखा
दोआब
के
ऊपर
कानपुर
से
शाहजहांपुर
तक, लोहानी शाखा
दक्षिणी
बिहार
में
तथा
फारमूली
शाखा
अवध
से
घाघरा
के
निचले
हिस्सों
में
बसाई
गई।
“इसी
क्रम
में
शाहाबाद
व
सासाराम
आदि
क्षेत्रों
में
शूर
कबीले
को
बसाया
गया
तथा
चुनार
किला
जौनपुर
के
सूबेदार
‘जमाल
खाँ
सारंगखानी
के
एक
रिश्तेदार
‘ताज़
खाँ
सारंगखानी’ को सौंप
दिया
गया।”[6]
पानीपत
के
युद्ध(1526 ई.)
में
लोदी
वंश
का
अंतिम
शासक
इब्राहीम
लोदी
बाबर
से
पराजित
हुआ
जिसके
कारण
प्रथम
अफ़ग़ान
वंश
का
अंत
हुआ
व
भारत
में
मुग़ल
साम्राज्य
की
स्थापना
हुई।
अब्बास
खाँ
सारवानी
के
अनुसार, “इब्राहीम
लोदी
ने
पानीपत
के
युद्ध
से
पहले
शाही
कोष
को
सुरक्षा
की
दृष्टि
से
ताज
खाँ
के
संरक्षण
में
चुनार
किले
में
भेज
दिया
था
और
जब
शेरशाह
ने
1530 ई.
में
चुनार
क़िले
पर
अधिकार
किया
तो
यही
कोष
उसके
हाथ
लगा।”[7]
केंद्र
में
मुग़ल
सत्ता
की
स्थापना
के
बाद
भी
चुनार
किला
1529 ई.
तक
ताज़
खाँ
सारंगखानी
के
आधिपत्य
में
ही
रहा।
इसके
पश्चात
मुग़ल
शासक
बाबर
व
अफ़ग़ान
सरदार
महमूद
लोदी
के
मध्य
1529 ई.
में
घाघरा
का
युद्ध
हुआ
जिसमें
अफ़ग़ानों
की
पराजय
हुई
तथा
मुग़ल
सत्ता
का
विस्तार
बिहार
तक
हो
गया।
इसी
समय
ताज
खाँ
ने
मुग़ल
अधीनता
स्वीकार
कर
ली
और
बाबर
ने
चुनार
किले
सहित
आस-पास
के
क्षेत्र
जुनैद
बरलास
को
सौंप
दिये
लेकिन
जुनैद
बरलास
की
तरफ़
से
किलेदार
अभी
भी
ताज़
खाँ
सारंगखानी
ही
था।[8]
26 दिसंबर
1530 ई.
को
आगरा
में
बाबर
की
मृत्यु
हो
गई
जिसके
कारण
नवनिर्मित
मुग़ल
साम्राज्य
में
उत्तराधिकार
को
लेकर
विवाद
प्रारंभ
हो
गया।
बाबर
का
पुत्र
हुमायूँ
जब
तक
शासक
बना
तब
तक
पूर्व
में
अफ़ग़ान
अपनी
स्थिति
सुदृढ़
कर
चुके
थे
जिसमें
से
सबसे
महत्वपूर्ण
स्थिति
शेरखाँ
सूर
की
थी।
“शेरखाँ के पिता
हसन
को
लोदी
काल
में
जौनपुर
के
सूबेदार
जमाल
खाँ
सारंगखानी
से, सासाराम व
खवासपुर-टांडा
नामक
दो
परगने
जो
रोहतास
सरकार
में
आते
थे, जागीर के
रूप
में
मिले, जहाँ उसे
500 घुड़सवार
रखने
थे।”[9]
शेरखाँ
इन
क्षेत्रों
में
लंबा
समय
व्यतीत
कर
चुका
था
तथा
अपने
पिता
की
जागीर
की
देखभाल
करते
हुए
इन
क्षेत्रों
के
स्थानीय
ज़मींदारों
व
राजाओं
की
विद्रोही
गतिविधियों
उसने
अनेकों
बार
शांत
किया
था।
उसे
चुनार
से
बंगाल
तक
गंगा
के
दक्षिणी
व
दक्षिण-पूर्वी
मार्गों
का
बहुत
अच्छे
से
ज्ञान
था।
इन
मार्गों
का
प्रयोग
समय-समय
पर
शेरखाँ
ने
अपने
शत्रुओं
के
विरुद्ध
रणनीति
बनाने
व
अपनी
स्थिति
मज़बूत
करने
के
लिए
किया।
चुनार
से
बिहार
तक
गंगा
का
दक्षिणी
भाग
कैमूर
व
विंध्य
पर्वत
श्रृंखला
के
घने
जंगलों
से
ढका
था
तथा
इन
पहाड़ियों
में
अनेक
सकरे
दर्रे
थे
जो
चुनार
से
सासाराम
व
रोहतास
तक
जाने
का
मार्ग
प्रदान
करते
थे।
नवस्थापित
मुग़ल
साम्राज्य
जहाँ
एक
तरफ़
अपने
अस्तित्व
को
बचाने
के
लिए
संघर्षरत
था
तो
वहीं
दूसरी
तरफ़
शेरखाँ
ने
इन
मार्गों
का
प्रयोग
समय-समय
पर
मुग़ल
आक्रमणों
से
बचने
के
लिए
किया।[10]
1530 ई.
में
चुनार
किले
के
किलेदार
ताज़खाँ
सारंगखानी
की
मृत्यु
हो
गई
तथा
उसका
कोई
पुत्र
नहीं
था
अतः
शेरशाह
ने
चतुराई
दिखाते
हुए
ताज़खाँ
की
विधवा
लाड
मल्का
से
विवाह
कर
लिया।
अब
किले
के
साथ-साथ
लोदियों
का
विशाल
कोष
भी
शेरखाँ
के
हाथ
लग
गया
जिसका
प्रयोग
उसने
अपने
सैन्य
विस्तार, अस्त्र-शस्त्र
व
साम्राज्य
विस्तार
में
किया।
इस
प्रकार
शेरखाँ
का
अधिकार
चुनार
जैसे
अभेद्य, सुदृढ़, तथा रणनीतिक
महत्व
वाले
किले
पर
होना
एक
महत्वपूर्ण
घटना
थी।
शेरशाह
द्वारा किले
का कूटनीतिक
प्रयोग -
बाबर
की
मृत्यु
के
उपरांत
इन
क्षेत्रों
में
अफ़ग़ान
पुनः
सुदृढ़
स्थिति
में
आ
गए
थे
अतः
एक
बार
फिर
वे
महमूद
लोदी
के
नेतृत्व
में
मुग़ल
विरोध
के
लिए
तैयार
थे।
मुग़ल
शासक
हुमायूँ
द्वारा
इस
गतिविधियों
पर
नियंत्रण
स्थापित
करने
के
उद्देश्य
से 1531 ई.
में
पूर्व
की
तरफ़
प्रयाण
किया
गया।
“मुहम्मद ज़मान मिर्ज़ा
के
नेतृत्व
में
एक
सैनिक
दस्ता
चुनार
की
तरफ़
भेजा
गया
ताकि
अगर
अफ़ग़ान
जौनपुर
से
भागने
का
प्रयास
करें
तो
उन्हें
चुनार
तथा
दक्षिणी
बिहार
में
रोका
जा
सके।
अंततः
दोराह
के
युद्ध
में
अफ़ग़ान
पराजित
हुए
तथा
जौनपुर
से
बिहार
तक
का
समस्त
क्षेत्र
मुग़ल
अधीनता
में
आ
गया।”[11]
युद्धोपरांत
हुमायूँ
की
दृष्टि
शेरखाँ
व
चुनार
किले
पर
गई
तो
उसने
हिन्दूबेग
को
शेरखाँ
के
पास
शांतिपूर्ण
समझौते
के
लिए
भेजा।
शेरखाँ
ने
बहुत
ही
चतुराई
पूर्वक
मुग़लों
से
समझौते
में
जानबूझ
कर
विलंब
किया
जिससे
उसे
आगे
की
कार्यवाही
के
लिये
पर्याप्त
समय
मिल
जाए।
1 नवम्बर
1531 ई.
में
जब
तक हुमायूँ ने
चुनार
किले
का
घेरा
डाला
तब
तक
शेरखाँ
चुनार
किले
को
अपने
पुत्र
ज़लाल
खाँ
के
नेतृत्व
में
छोड़कर
परिवार
तथा
राजकोष
सहित
भारकुण्डा
के
किले
में
शरण
ले
चुका
था।
यह
किला
घने
जंगलों
में
था
जहाँ
मुग़ल
सेना
का
पहुँच
पाना
कठिन
था
तथा
यहीं
से
शेरखाँ
ने
मुग़ल
सेना
पर
पैनी
नज़र
बनाये
रखी।
इधर
चुनार
किले
को
जीतने
के
लिए
आक्रमणकारी
के
पास
एक
सुदृढ़
जल
बेड़ा
व
अच्छा
तोपख़ाना
होना
आवश्यक
था
ताकि
गंगा
के
जलमार्ग
से
आने
वाली
आपूर्ति
को
रोका
जा
सके।
दो
से
तीन
माह
के
घेराव
के
बाद
हुमायूँ
को
अनिच्छापूर्वक
शेरखाँ
से
संधि
करनी
पड़ी।
“इस संधि के
अनुसार
शेरखाँ
के
छोटे
पुत्र
क़ुतुब
खाँ
को
500 सैनिकों
के
साथ
हुमायूँ
की
सेवा
में
जाना
था
तथा
किला
शेरखाँ
के
नियंत्रण
में
ही
रहना
था।
अतः
हुमायूँ
का
प्रथम
घेराव
एक
तरह
से
असफल
ही
रहा।”[12]
इस
संधि
के
माध्यम
से
शेरखाँ
तथा
अफ़ग़ानों
को
नैतिक
विजय
मिली
तथा
साथ
ही
शेरखाँ
को
अपनी
स्थिति
सुदृढ़
करने
का
अवसर
भी
मिल
गया।
शेरखाँ
की
सफलता
ने
उसके
दोराह
के
युद्ध
में
किए
गये
विश्वासघात
को
भी
ढक
दिया।
शेरखाँ
ने
1532 ई.
में
दक्षिणी
बिहार
में
लोहानी
सरदारों
की
सहायता
से
उप
राज्यपाल
के
रूप
में
कार्य
प्रारंभ
किया।
इसी
बीच
मई-जून
1533 ई.
तक
उसने
बंगाल
की
सेनाओं
को
पराजित
कर
बंगाल
पर
अधिकार
कर
लिया
तथा
लूटपाट
मचाई।
तत्पश्चात्
1534 ई.
में
पुनः
सूरजगढ़
के
युद्ध
में
बंगाली
सेनाओं
को
पराजित
करके
चुनार
से
बंगाल
तक
अपनी
स्थिति
मज़बूत
कर
ली।
भौगोलिक
स्थिति
का
राजनीतिक
परिदृश्य
में
कैसे
प्रयोग
करना
है
यह
शेरखाँ
से
अच्छा
इन
क्षेत्रों
में
कोई
भी
नहीं
जान
सकता
था।
1536-38 ई.
के
मध्य
शेरखाँ
ने
गौड
(बंगाल) पर तीन
बार
आक्रमण
किया
तथा
इन
आक्रमणों
की
जानकारी
जब
हुमायूँ
को
हुई
तो
उसने
जौनपुर
में
जुनैद
बरलास
की
जगह
अपने
क़रीबी
हिंदूबेग
को
शेरशाह
की
गतिविधियों
पर
नज़र
रखने
के
लिए
भेजा
परंतु
शेरखाँ
ने
हिंदूबेग
को
धन
व
बहुमूल्य
उपहार
देकर
अपनी
तरफ़
मिलाये रखा जिससे
उसे
शेरखाँ
के
वास्तविक
उद्देश्यों
की
लेश
मात्र
भी
जानकारी
नहीं
हो
पाई।
इस
समय
तक
लोदी
काल
के
सभी
अफ़ग़ान
शेरखाँ
को
अपना
मुखिया
स्वीकार
कर
चुके
थे।
हुमायूँ
गुजरात
में
बहादुरशाह
व
पश्चिमी
गतिविधियों
में
उलझा
रहा
तथा
उसने
बिहार
व
बंगाल
में
शेरखाँ
की
पूर्वी
गतिविधियों
पर
ध्यान
नहीं
दिया।
पश्चिमी
विद्रोहों
का
दमन
करने
के
उपरांत
अंततः
हुमायूँ
ने
1537 ई.
में
चुनार
किले
की
दूसरी
घेराबंदी
की।
शेरखाँ
तब
तक
पहले
ही
कोष
व
समस्त
महत्वपूर्ण
सैनिकों
के
साथ
बंगाल
की
तरफ़
प्रयाण
कर
चुका
था।
इस
बीच
उसने
कोष
व
परिवार
के
सदस्यों
को
भारकुण्डा
के
किले
में
कुछ
समय
के
लिए
रखा
परंतु
हुमायूँ
के
आक्रमण
के
भय
से
बाद
में
रोहतास
किले
पर
अधिकार
करके
कोष
को
वहाँ
स्थानांतरित
करवा
दिया।
अफ़ग़ानों
ने
छह
माह
तक
हुमायूँ
का
ध्यान
चुनार
किले
को
जीतने
के
प्रयास
में
भटकाये
रखा
जिससे
शेरखाँ
को
आगे
की
कार्यवाहियों
के
लिए
पर्याप्त
समय
मिल
सके।
चुनार
किला
इतनी
ऊँचाई
पर स्थित था
कि
अत्यंत
अनुभवी
तोपची
रूमी
खाँ
की
तोपें
भी
कारगर
सिद्ध
नहीं
हो
रहीं
थीं।
अंततः
मार्च
1538 ई.
में
रिश्वत
का
सहारा
लेकर
कूटनीतिक
तरीक़े
से
किले
पर
अधिकार
कर लिया गया
लेकिन
तब
तक
बहुत
देर
हो
चुकी
थी
क्योंकि
शेरखाँ
अपनी
स्थिति
सुदृढ़
कर
बंगाल
पर
तीसरी
बार
आक्रमण
कर
वहाँ
से
प्राप्त
बहुमूल्य
राजकोष
को
रोहतास
किले
में
भेज
चुका
था।
कानूनगो
के
अनुसार
चुनार
घेरे
की
कोई
आवश्यकता
नहीं
थी
तथा
यह
हुमायूँ
की
भारी
भूल
थी
जिसकी
भरपाई
उसे
अपना
साम्राज्य
खोकर
करनी
पड़ी।[13]
चुनार
अधिग्रहण
के
बाद
हुमायूँ
शेरखाँ
का
पीछा
करते
हुए
बंगाल
तक
गया
जहाँ
उसके
हाथ
कुछ
भी
नहीं
आया।
हुमायूँ
वहाँ
आठ
माह
तक
रहा
जिसका
फ़ायदा
उठाकर
शेरखाँ
ने
अपने
समर्थकों
की
सहायता
से
चुनार, बनारस, जौनपुर, कन्नौज, और पटना
पर
अधिकार
कर
लिया।
अब
शेरखाँ
हुमायूँ
के
वापसी
के
मार्ग
को
अवरुद्ध
करने
के
लिए
संपूर्ण
रूप
से
तैयार
था।
इसी
बीच
बंगाल
में
मलेरिया
के
कारण
हुमायूँ
के
अनेक
सैनिक
मार
गये
तथा
साथ
ही
विषम
जलवायु
के
कारण
उसकी
सेना
के
अधिकतर
घोड़े
भी
नहीं
बच
पाये।
“अंततः
जब
मुग़लों
की
थकी
हारी
सेना
वापस
आगरा
के
लिए
प्रस्थान
कर
रही
थी
तब
चौसा
के
निकट
रात्रि
में
शेरखाँ
की
सेना
ने
हमला
कर
दिया।
इस
अकस्मात्
हमले
से
मुग़ल
सेना
तितर-बितर
हो
गई
और
पराजित
हो
गई।”[14]
इस
युद्ध
में
विजय
के
पश्चात्
शेरखाँ
ने
फ़रीद
अल
दीन
शेरशाह
की
उपाधि
धारण
की।
इसके
पश्चात
1540 ई.
में
कन्नौज
के
युद्ध
में
शेरशाह
ने
सरलतापूर्वक
हुमायूँ
को
दूसरी
बार
पराजित
किया
और
द्वितीय
अफ़ग़ान
वंश
(1540-1555 ई.)
की
नींव
रखी।
चुनार
क़िले
पर
1562-63 ई.
तक
अफ़ग़ानों
का
नियंत्रण
रहा
जिसका
प्रयोग
अफ़ग़ानों
ने
पूर्वी
विद्रोही
गतिविधियों
पर
नियंत्रण
बनाये
रखने
के
लिए
किया।[15]
निष्कर्ष
: इस
प्रकार
द्वितीय
अफ़ग़ान
वंश
की
स्थापना
में
चुनार
किले
की
महत्वपूर्ण
भूमिका
रही।
किले
से
प्राप्त
कोष
से
जहाँ
शेरशाह
की
शक्ति
विस्तार
को
मदद
मिली
तो
वहीं
इस
सुदृढ़
क़िले
पर
अधिकार
द्वारा
उसने
हमेशा
पश्चिम
में
मुग़ल
गतिविधियों
पर
नज़र
रखी
व
उन्हें
चुनार
तक
रोके
रखा
ताकि
बंगाल
व
बिहार
में
अपनी
स्थिति
मज़बूत
कर
सके।
हुमायूँ
शेरशाह
की
इन
कूटनीतिपूर्ण
रणनीतियों
को
नहीं
पहचान
सका
तथा
दूरदर्शिता
के
आभाव
में
उसे
अपना
साम्राज्य
खोना
पड़ा।
चुनार
किले
का
घेराव
हुमायूँ
के
लिए
नासूर
साबित
हुआ
जैसे
नेपोलियन
के
लिए
मॉस्को
अभियान
व
औरंगज़ेब
के
लिए
दक्षिण
अभियान
जिसका
ख़ामियाज़ा
उसे
अपना
साम्राज्य
खोकर
चुकाना
पड़ा।
शेरखाँ
ने
पहली
बार
चुनार
किले
की
महत्त्वता
को
उजागर
किया
जो
आगामी
वर्षों
में
मुग़लों
व
ब्रिटिश
सत्ता
के
लिए
बिहार
व
बंगाल
पर
नियंत्रण
स्थापित
करने
के
लिए
महत्वपूर्ण
कड़ी
के
रूप
में
सामने
आया।
अकबर
ने
चुनार
किले
को
‘पूर्व
का
प्रवेश
द्वार’ कहा तथा
मुग़ल
काल
में
इस
किले
कि
महत्त्वता
और
बढ़
गई।
[1] Nossov, K. S. (2006). Indian Castles (1206-1526). Osprey Publishing, London. pp. 8-10.
[2] Verma, Amrit. (1985). The Fort of India. Publication Division, Ministry of Information and Broadcastings, Government of India. pp. 71-75.
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[14] Aftabchi, Jauhar. Tazkirat-ul-Vakyat. Eng. Translation by H.M. Elliott and J. Dowson, Volume VI, pp. 139-142.
[15] Qanungo, Kalikaranjan. (1965). Shershah and His Time. Orient Longsman Ltd, Calcutta. pp. 195-206.
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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