डॉ. राजीव जायसवाल, डॉ. दिलीप कुमार संत, डॉ. रमाकर पंत, डॉ. उमाकांत शुक्ला, डॉ. ओमप्रकाश, श्री प्रवीण सी. के.
चित्र संख्या- 1: चित्रात्मक शैली के शैलचित्र, औररवा टांड, नौगढ़, चंदौली |
शोध सार : चन्दौली जनपद ( 240 42’, 250 32’ उत्तरी अक्षांश तथा 810 14’, 840 14’ पूर्वी देशान्तर) 20 मई 1997 ई0 को वाराणसी जनपद की तीन तहसीलों- चन्दौली, सकलडीहा और चकिया को पृथककर चन्दौली जनपद को गठित किया गया है। ऐतिहासिक रूप से महाजनपद काल (छठी शताब्दी ई0 पू0) में यह क्षेत्र काशी महाजनपद के भौगोलिक परिधि के अंतर्गत आता था। वस्तुतः चन्दौली जनपद के अंतर्गत शैलचित्र कला सम्बन्धी पुरास्थल चकिया एवं नौगढ़ तहसील के विंध्य-कैमूर की पर्वत श्रृंखलाओं से प्राप्त होते हैं । चन्दौली जनपद में सर्वप्रथम शैलचित्रों की खोज वर्ष 1961-62 (तत्कालीन वाराणसी) में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारी श्री आर0 जी0 पाण्डेय द्वारा किया गया था । यह शैलचित्र कर्मनाशा एवं उसकी सहायक गुरुवट नाले के मध्य वाले क्षेत्र के शैलाश्रयों से प्राप्त हुए थे । इसके पश्चात वर्ष डॉ0 राकेश तिवारी द्वारा वर्ष 1997 एवं 1999-2000 में कशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व विभाग द्वारा शैलचित्र पुरास्थलों की खोज हुई किया गया । इसके पश्चात डॉ0 ओम प्रकाश ने चन्दौली पर शोधकार्य के दौरान घुरहूपुर, रतनपुरवा, खरौली, ताला, तेनुई, अर्जीकला, नसोपुर, कौड़िहार के शैलकला पुरास्थलों की खोज की। डॉ0 कमला राम बिन्द द्वारा जनपद के नौगढ़ तहसील में सर्वेक्षण के दौरान पंडी, टिकुरिया व मगरहीं से शैलचित्रों की खोज की गई थी ।
बीज शब्द : चंदौली, शैलकला, विन्ध्य, कैमूर, पुरातत्त्व, शैलाश्रय, चित्रात्मक, मध्यपाषाण, ऐतिहासिक, बौद्ध स्तूप ।
मूल आलेख : कला, मानव मस्तिष्क में उपजे भावों को दृश्य(देखने) रूप में प्रस्तुत करने का सबसे सरल माध्यम है, जिसके माध्यम से वह स्वयं के सुखद अनुभवों, करुणा, जीवनयापन के विभिन्न आयामों आदि को व्यक्त कर सकता है। कला का प्रभाव विश्वजनित होता है, वह भाषा के माध्यम से व्यक्त होने वाले सभी प्रकार के साधनों से अधिक प्रभावशाली होती है। विश्व के किसी भी राष्ट्र की संस्कृति के उद्भव एवं उसके सभ्यता में परिणत होने के विभिन्न चरणों का वस्तुनिष्ठता के साथ प्रस्तुतीकरण एवं संवहन का कार्य कला के माध्यम से ही संभव है। मानव संस्कृति के प्राचीनतम कला के प्रमाण प्रागैतिहासिक काल से प्राप्त होते है जो लगभग 25 लाख वर्ष पुराने पाषाण उपकरण के रूप में हैं। मानव द्वारा निर्मित कला के प्रेरणा के दो मुख्य आधार रहे, प्रथम- परिस्थितिजन्य एवं द्वित्तीय- अन्तश्चेतना का प्रवाह। प्रथम, प्रकार की कला के विकास का कारण, जिसमें मुख्यतः पाषाण उपकरण हैं, मानव के उद्विकास के प्रारम्भिक चरणों में स्वयं की पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ जीवित रहने की आवश्यकता, जंगली जानवरों से आत्मरक्षा एवं शिकार कर भूख मिटाने के लिए थी। द्वित्तीय आधार, कालांतर में जब वह एकलवाद से इतर समूह, समुदाय के रूप में एकत्रित हुआ एवं अपने यायावर (घुमन्तू) जीवन से स्थायित्व (एक स्थान पर निवास) की ओर अग्रसर हुआ तो उसने शैलाश्रयों, शैल गुफाओं आदि को अपना निवास स्थान बनाया। इस समाजीकरण की प्रक्रिया ने उसमें मनः चेतना का विकास किया। मानव के सांस्कृतिक इतिहास में उसका यही मानसिक पक्ष विशिष्ट रूप से महत्वपूर्ण है जिसने उसके स्वभाव, जीवन संघर्ष, सृजनशीलता, मौलिक उद्भावना, संपन्न किये जाने वाले विभिन्न क्रियाकलापों, व्यवस्था आदि को प्रस्तुत करने की उत्कंठा व भविष्य की संततियों के लिए संजोने की प्रवृत्ति ने प्रागैतिहासिक शैलचित्र कला को जन्म दिया। मानव ने इन शैलचित्रों के अंकन का आधार भी उन्हीं शैलाश्रयों, गुफाओं की दीवारों व छतों को बनाया जिसमें वह निवास करता था अथवा उसके समीप के शैलखण्डों तथा शैलचाषिकाओं को। चित्रांकन के विषय भी वही बने जो उसके दैनिक क्रियाकलापों एवं पारिस्थितिकीय तंत्र से जुड़े रहे।
वर्तमान में यह शैलचित्र कला मानव इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्रोत हैं जो शब्दरहित होते हुए भी तत्कालीन परिदृश्य को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत करते है। वस्तुतः यह मानव के सांस्कृतिक अभियान के प्रथम आलेख/चित्रात्मक लिपि है। लेखन कला के पूर्व आलेखन ही संस्कृति का मुख्य संवाहक रहा है। यद्यपि यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मानव द्वारा निर्मित कला के प्राथमिक प्रमाण पाषाण उपकरण मानव संस्कृति के महत्त्वपूर्ण प्रमाण होते हुए भी मूक होते हैं उनकी व्याख्या पुरातत्त्ववेत्ता, इतिहासकार के विवेचना पर निर्भर होती है जबकि शैलचित्र कला मानव इतिहास के विभिन्न सोपानों की संस्कृति के विषयों की अभिव्यक्ति स्वयं मुखर होकर प्रस्तुत करते हैं इसी कारण ‘‘शैलचित्र कला समस्त कलाओं की जननी’’ हैं। शैलकला के सम्प्रेषण के महत्त्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल से लेकर आद्यैतिहासिक एवं ऐतिहासिक काल के भी चित्र इन शैलाश्रयों, गुफाओं में मिलते हैं तथा आज भी विश्व के सभी ग्रामीण व जनजातीय परिवेश में यह भित्तिचित्रों आदि के रूप में जीवंत अवस्था में प्रचलित हैं, जिनका नृजातीय-पुरातात्त्विक अध्ययन शैलकला को व्याख्यायित करने में सहायक है। शैलकला विश्व के लगभग समस्त महाद्वीपों (अंटार्टिका को छोड़कर) यथा अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका से प्राप्त प्राप्त होती है। एशिया विश्व का सबसे बड़ा महाद्वीप है जहाँ कला-विरासत की विविधता है। शैलकला धरोहर के क्षेत्र में भारत, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका जैसे अन्य देशों की तरह ही समृद्ध है तथा आज भी यहाँ के देशज समूहों, जनजातीय व खानाबदोश समूहों में इस कला के प्रति आत्मीयता एवं घनिष्ट जुड़ाव इसे और भी अधिक महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान बनाते हैं, जिनका अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह शैलकला दो प्रकार के होते हैं-
1. चित्रात्मक
2. उत्त्कीर्णन
चित्रात्मक :
जब शैलकला के अंकन में रंगों का प्रयोग किया गया होता है वह चित्रात्मक शैली होती है (चित्र सं0- 1)। इसमें स्थानीय रूप से प्राप्त खनिज को घिसकर जानवरों की चर्बी अथवा खून आदि में मिलाकर रंग को तैयार किया जाता है, जिससे चित्रों को बनाया जाता था। यह गेरुए, लाल, सफेद, काले, हरे एवं पीले रंग के मिलते हैं।
उत्त्कीर्णन :
इस प्रकार की शैलकला के अंकन में शैलाश्रयों की दीवारों, खुले आसमान में बिखरे पड़े शैलखण्डों एवं चाषिकाओं पर कुरेदकर, उकेरकर, रगड़कर विषयों को अंकित किया गया है (चित्र सं0- 2)। उपरोक्त दोनों शैलियों के साथ कभी-कभी दोनों प्रकार के संयोजन से भी शैलकला का अंकन किया गया है जिसमें उत्त्कीर्णन करने के पश्चात उनमें रंगों को भरा गया है इस प्रकार के शैलकला भारत में उड़ीसा के कटक जनपद में पाण्डव बाखरा पुरास्थल से मिले हैं (चित्र सं0- 3)।
शैलकला अध्ययन का इतिहास :
शैलकला के सन्दर्भ में जानकारी का इतिहास लगभग 19वीं शताब्दी के चैथे दशक से दिखाई देता है जब 1842 ई0 में अंग्रेज इंजीनियर टी0 जे0 न्युबोल्ड कर्नाटक के बेल्लारी जिले में कोप्पगल-संगनकल्लू के राख के टीलों पर कार्य कर रहे थे, उस समय इस क्षेत्र से कुछ पत्थरों पर उत्त्कीर्णित चित्र प्राप्त हुए थे (फूटे, 1916: 87-89)। यद्यपि यह अध्ययन शैलकला पर केंद्रित नहीं था। विश्व में सर्वप्रथम शैलचित्र कला की खोज वर्ष 1867 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के प्रथम सहायक पुरातत्त्ववेत्ता ए0 सी0 एल0 कार्लाइल द्वारा की गई थी जिनको विंध्यपर्वत श्रंखला के मिर्जापुर जिले के सोहागीघाट से कुछ शैलचित्रों की प्राप्ती हुई थी, किन्तु दुर्भाग्यवश उन्होंने इसका किसी भी प्रकार का प्रकाशन नहीं किया, मात्र इसके सन्दर्भ में अपने मित्र विसेन्ट स्मिथ को एक नोट के रूप में सूचित किया जिसके बारे में स्मिथ ने वर्ष 1906 में द इण्डियन एन्टिक्वेरी वाल्यूम-6 में अपने लेख ‘पिग्मी फ्ल्न्टि’ के अंतर्गत प्रकाशित किया-
“In the cold season of 1867-78 I found some small flakes, etc. of agate, jasper and chert, near Sohagi Ghat on the northern scarp of the Vindhyas, to the south of the Allahabad district (About thirty miles S.S.W. from Allahabd). I remember being then very much pleased with a particularly fine crescent-shaped object made of white creamy chalcedonic agate, and of the same form the small crescent- shaped implements which some years afterwards I found in such number in cave and rock shelters on the Vindhyas. I had even then also and in the some locality near Sohagi Ghat, already noticed some faded paintings in red colour in a recess of a low cliff under some overhanging rocks”.
-A. C. Carlleyle (Smith, 1906: 185-195)
परिणामतः औपचारिक रूप से विश्व की प्रथम शैलचित्र के खोज का श्रेय वर्ष 1879 में स्पेन के अल्तमीरा शैलगुफा को माना जाता है जिसके सम्बन्ध में प्रथम बार शैलकला विषय को केंद्र बिंदु मानकर अध्ययन किया गया। अल्तमीरा के खोज का किस्सा भी अत्यंत रोचक रहा है। मारसेलिनो द सौतुओला नामक एक स्पेनी नागरिक अपनी 5 वर्षीय पुत्री के साथ अल्तमीरा के पहाड़ी क्षेत्र में घूम रहा था अचानक उसकी बेटी उससे अलग होकर एक गुफा के संकरे मुँह वाले द्वार से अंदर की ओर घुस गई, अल्तमीरा गुफा का द्वार अत्यंत संकरा था जिसमें व्यक्ति को रेंगकर जाना पड़ता, और जैसे-जैसे अंदर जायेंगे यह गुफाएं फैलती चली जाती हैं। अंदर जाने पर बच्ची काफी जोर से ‘टोरोस- टोरोस’ चिल्लाई और बाहर आकर अपने पिता को इस विषय में बताया। मारसेलिनो अंदर के नजारे को देखकर अचम्भित हो गए। गुफा की दीवारों पर बड़े बड़े डीलदार साँड़, घोड़ा आदि का अंकन प्राप्त हुआ जो काले एवं लाल रंग के थे और यहीं से शुरू हुआ शैलचित्र कला का विषयात्मक रूप से अध्ययन करने का सिलसिला। इसके पश्चात् भारत सहित विश्व के अनेक देशों में शैलकला विषय पर सर्वेक्षण एवं अध्ययन प्रारम्भ हुआ जिसमें से कुछ महत्त्वपूर्ण शैलकला पुरास्थलों एवं उनके खोजकर्ता का नाम इस प्रकार है –
सन्दर्भ :
1. अल्तमीरा (स्पेन) - 1979 - मारसेलिनों द सौतुओला
2. दार्दोन (फ्रांस) - 1895 - रिवेयर
3. पेरोनी गुफा (फ्रांस) - 1896 - देलो
4. फाँ-द-गाँ (फ्रांस) - 1901 - कैपिटन एवं पाइरोनी
5. लास्को (फ्रांस) - 1940 - (बच्चों द्वारा आकस्मिक रूप से)
6. अल्जीरिया (अफ्रीका) - 1913 - लियो फ्रोबेनियस
7. टाँगाँयीका (अफ्रीका) - 1934-36 - लुटविग व मारगिट
भारत में:
1. सोहागीघाट (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) - 1867 - आर्किबाल्ड कार्लाइल
2. कैमूर पहाड़ी (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) - 1880 - आर्किबाल्ड कार्लाइल एवं जॉन काकबर्न
3. घोड़ मांगर (सोनभद्र, उत्तर प्रदेश) - 1883 - जॉन काकबर्न
4. करियाकुण्ड, करपतिया (बाँदा, उत्तर प्रदेश) - 1907 - सी0 ए0 सिल्बेराड
5. सिंघनपुर (रायगढ़, छत्तीसगढ़) - 1910 - सी0 डब्लू0 एंडरसन
6. पचमढ़ी (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) - 1932 - जी0 आर0 हंटर
7. भीमबेटका (रायसेन, मध्य प्रदेश) - 1957 - पद्मश्री डॉ0 विष्णु श्रीधर वाकणकर (वर्ष 2003 में भीमबेटका को यूनेस्को द्वारा विश्वदाय पुरास्थल घोषित किया गया, जो भारत का एकमात्र प्रागैतिहासिक विश्वदाय पुरास्थल है)।
डॉ0 वाकणकर जी के भीमबेटका शैलकला पुरास्थल के खोज के बाद भारत में शैलकला विषय पर अध्ययन की एक लम्बी श्रृंखला प्रारम्भ हुई जिसमें डॉ0 जगदीश गुप्ता, डॉ0 वी0 एच0 सोनवणे, डॉ0 एस0 के0 पाण्डे, डॉ0 के0 डी0 बाजपेई, इरविन न्यूमायर, डॉ0 राधाकांत वर्मा, डॉ0 सदाशिबा प्रधान, डॉ0 बी0 एल0 मल्ला, डॉ0 सोमनाथ चक्रवर्ती, डॉ0 गिरिराज कुमार, डॉ0 राकेश तिवारी आदि ने शैलचित्र कला पर विस्तृत रूप से अध्ययन किया।
चन्दौली जनपद का भौगोलिक पुरा-इतिहास
किसी भी क्षेत्र की भौगोलिक दशा वहाँ के मानवीय इतिहास के उद्भव एवं विकास की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। यह भौगोलिक परिवेश ही है जिसने मनुष्य को प्रागैतिहासिक चरण के प्रारंभिक क्रम में रक्षा एवं शिकार के लिए शैलाश्रय व उपकरण के लिए पत्थर उपलब्ध कराये।
स्थिति एवं विस्तार
चन्दौली जनपद ( 240 42’, 250 32’ उत्तरी अक्षांश तथा 810 14’, 840 14’ पूर्वी देशान्तर) 20 मई 1997 ई0 को वाराणसी जनपद की तीन तहसीलों- चन्दौली, सकलडीहा और चकिया को पृथककर चन्दौली जनपद को गठित किया गया है। इसे उत्तर प्रदेश का पूर्वी द्वार भी कहा जाता है (राय, 2003: 65-68)। जनपद के पूरब में बिहार प्रान्त का भभुआ (कैमूर) जनपद, दक्षिण-पश्चिम में वाराणसी एवं मिर्जापुर, उत्तर में गाजीपुर, दक्षिण में सोनभद्र स्थित है। जनपद का सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्रफल 2,541 वर्ग किलोमीटर में फैला है।
ऐतिहासिक रूप से महाजनपद काल (छठी शताब्दी ई0 पू0) में यह क्षेत्र काशी महाजनपद के भौगोलिक परिधि के अंतर्गत आता था। यहाँ यह स्पष्ट होना चाहिए कि काशी एवं वाराणसी की भौगोलिक सीमा अलग है। वाराणसी, काशी जनपद की परिधि के अंदर का क्षेत्र है। काशी महाजनपद पूर्व में मगध, पश्चिम में वत्स, उत्तर में कोसल और दक्षिण में सोन नदी तक विस्तारित था (उपाध्याय, 2009: 328)। धज विहेठ जातक में काशी राज्य का विस्तार 300 योजन बताया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने काशी की पूर्वी सीमा कर्मनाशा नदी तक बताया है (कनिंघम, 1989: 364-365)। यह कर्मनाशा नदी आज भी चन्दौली जनपद के विंध्य-कैमूर की पर्वत श्रृंखलाओं से निकलकर इसकी पूर्वी सीमा पर काफी हद तक उत्तर प्रदेश और बिहार के मध्य सीमा का कार्य करती है।
वस्तुतः चन्दौली जनपद के अंतर्गत शैलचित्र कला सम्बन्धी पुरास्थल चकिया एवं नौगढ़ तहसील के विंध्य-कैमूर की पर्वत श्रृंखलाओं से प्राप्त होते हैं अतः यहाँ इन्ही दो तहसीलों के भौगोलिक इतिहास पर चर्चा करना अधिक उपयुक्त है (मानचित्र- 1)।
उपरोक्त दोनों तहसीलें जनपद के दक्षिण-पूर्व क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं जो विंध्य-कैमूर पर्वत से भरे हैं। विंध्याचल पठार के अन्तर्गत स्थित चकिया पहाड़ी अंचल की औसत ऊँचाई 1000-1200 फुट है। चकिया के पास में विंध्याचल पठार का उत्तरी अंचल स्थित है। यही पर पठारी भाग गंगा के मैदानी क्षेत्र से पृथक होता है। इसी पठार के कच्छप दर्रों से कर्मनाशा एवं चन्द्रप्रभा नदियाँ निकलती हैं। इस अंचल में चकिया से नौगढ़ क्षेत्र तक दुर्गम मार्ग बने हुए हैं। इस 300 वर्ग मील में फैले नौगढ़ पहाड़ी एवं जंगली क्षेत्र में बहुत कम गाँव बसे हुए हैं (ओमप्रकाश, 2012: 19) ।
विंध्य शब्द की उत्पत्ति
विंध्य‘ शब्द की व्युत्पत्ति ‘विध‘ धातु से कही जाती है जिसका अर्थ ‘बेधना’ होता है, अर्थात भूमि को बेध कर जिस पर्वत का निर्माण हुआ हो। प्राकृतिक संरेखण की दृष्टि से भी विंध्य पर्वत समतल भूमि में आकाश की और उठती संरचनों का समूह ही दिखाई पड़ता है।
विंध्य शब्द ओल्डहैम द्वारा नर्मदा नदी के उत्तरी किनारे पर मौजूद चट्टानों को संदर्भित करने के लिए किया गया जिसे विंध्य पर्वत या विंध्याचल नाम से जाना जाता है (ओल्डहैम, 1856)। टॉलमी नें अपनी पुस्तक ‘ज्योग्राफी‘ में विंध्याचल के लिए औडोन शब्द का प्रयोग किया है जो नेमेडोस (नर्मदा) और ननगौना (ताप्ती) नदियों का उद्गम स्थल है (लाहा, 1972: 32)।
कूर्म पुराण (45/22), अग्निपुराण (118/1-4), मार्कण्डेय पुराण (पृ-148), ब्रह्मपुराण (पृ0-49), महाभारत (भीष्मपर्व/9/11) आदि में जम्बूद्वीप के सात कुलपर्वतों में विंध्य पर्वत के माहात्म्य का वर्णन किया गया है जो मानव अधिवास के लिए उपयुक्त वातावरण वाले बताये गए हैं।
महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः।
विन्ध्याश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वतः।।
कूर्म पुराण (45/22)
अर्थात महेंद्र, मलय, सुह्य, शुक्तिमान ऋक्ष, विंध्य तथा पारियात्र यह सात कुलपर्वत (जम्बूद्वीप के) हैं।
विंध्य पर्वत श्रृंखला की भूतात्त्विक संरचना
विंध्य घाटी एक इंट्राक्राटोनिक प्रोटोजोइक (Intracratonic protozoic- समुद्र की लहरों द्वारा तट पर लाया गया जमाव) है। विंध्य पर्वत की वर्तमान संरेखण प्राचीन समुद्र के आकार को प्रदर्शित करता है जिसमें विंध्य चट्टान का जमाव हुआ। वस्तुतः विंध्य पर्वत का यह अध्ययन क्षेत्र भूतात्त्विक संरचना के निर्माण काल में समुद्र का पूर्वी तटबंध था जो वर्तमान में सोन नदी घाटी (उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश) तक था एवं पश्चिम में वर्तमान चम्बल घाटी (मध्य प्रदेश एवं राजस्थान) का क्षेत्र था, जहाँ से प्राचीन समय में समुद्र का प्रवेश होता था। विंध्य घाटी लगभग 1,20,000 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैली है जो दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम में दक्क्न के पठार से घिरी हुई है एवं उत्तर में गंगा के जलोढ़ (मिट्टी का एक प्रकार जो बाढ़ आदि के द्वारा बहा कर लाई गई मिट्टी से बनता है यह धान की खेती के लिए सबसे अधिक उपयुक्त मिट्टी होती है, इसीलिए चन्दौली जनपद को उत्तर प्रदेश का ‘धान का कटोरा’ भी कहा जाता है।) से घिरा हुआ है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक हँसिये के नोक से मुठिया की ओर चौड़ी होती आकृति जैसा दिखता है (चित्र सं0- 4)।
परम्परागत रूप से विंध्य पर्वत को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- निचला विंध्य या सेमरी समूह तथा ऊपरी समूह (आडेन, 1933)। ऊपरी विंध्य में कैमूर, रीवा हुए भांडेर चट्टानों के समूह शामिल हैं। सेमरी समूह में बड़े पैमाने पर चूना पत्थर का प्रभुत्त्व है जबकि कैमूर एवं रीवा समूह में बलुआ पत्थर का अधिक प्रतिनिधित्व है। सामान्य पैमाने पर विंध्य पर्वत एक सतत पर्वत श्रृंखला/पहाड़ी के रूप में प्रतीत होती है परन्तु वास्तविकता में यह मेजा (Mesa) और क्यूस्टा (Questa) वाली असतत पहाड़ी है (ऐसी पहाड़ियाँ जो अपने आस-पास की समतल भूमि में सीधी एवं उभरी संरचनाओं की तरह दिखती है जिनमें एक निरंतरता की जगह अलग-2 पर्वत समूहों का प्रतिनिधित्व रहता है)। इन पर्वतों के आस-पास के असाधारण समतल क्षेत्र में पहाड़ियों से निकले हुए महीन दाने वाले अवसादों का जमाव हुआ था जो आस-पास की झीलों, तालाबों और बड़े दलदली क्षेत्रों में जमा हुए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि यह जमाव मनुष्य के कृषि कार्य के लिए मिट्टी एवं सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता को पूरा कराती रही होगी। वर्तमान में यह क्षेत्र पहाड़ियों के बीच में छोटे-छोटे मैदानों के रूप में दिखते है जिनमें खेती होती है, परन्तु वर्षा के समय जलभराव से आज भी कुछ समय के लिए यहाँ झीलें या तालाब बन जाते हैं। घुरहूपुर पहाड़ी के नीचे उत्तर में तथा इसी पहाड़ी के दक्षिण-पूर्व में घुरहूपुर-ताला की पहाड़ियों के बीच इस प्रकार की संरचनाओं को देखा जा सकता है (चित्र सं0- 5)। संभवतः यही कारण है कि यहाँ से प्राप्त शैलाश्रयों घुरहूपुर, रतनपुरवा, घुरहूपुर पहाड़ी-2, अर्जीकला, नसोपुर, तेनुई, खरौली, कौड़िहार आदि में मानव निवास के बहुचरणीय प्रमाण शैलचित्रों के रूप में प्राप्त होते हैं।
भूतात्त्विक संरचना में शैलाश्रयों का निर्माण
अध्ययन क्षेत्र, विंध्य-कैमूर में शैलाश्रय बालुकाश्म/बलुवा पत्थर के जमावों से निर्मित हैं। यह बालुकाश्म जमाव बहुमंजिला परिसर के रूप में होता है जिसमें अपरदनात्मक (क्षरण होना) आधार होता है। यह अपरदनात्मक आधार कमजोर क्षेत्र बनाते हैं जिनमें दानेदार क्षरण होता है जिससे शैलाश्रय अधिकांशतः इन अपरदनात्मक आधार या तलों के साथ विकसत होते हैं और बहुमंजिला स्वभाव के मिलते हैं (चित्र सं0 -6)। इस निर्माण प्रक्रिया में कुछ शैलाश्रय छोटे होते हैं जिनमें छतें तो ऊँची होती हैं परन्तु रहने योग्य क्षेत्र छोटा होता है तो कुछ आश्रय 10 मीटर के क्षेत्र वाले होते है एवं ऊंचाई 1-3 मीटर तक होती है।
चन्दौली जनपद के शैलचित्र
चन्दौली जनपद में सर्वप्रथम शैलचित्रों की खोज वर्ष 1961-62 (तत्कालीन वाराणसी) में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारी श्री आर0 जी0 पाण्डेय द्वारा किया गया था। यह शैलचित्र कर्मनाशा एवं उसकी सहायक गुरुवट नाले के मध्य वाले क्षेत्र के शैलाश्रयों से प्राप्त हुए थे। इसके पश्चात वर्ष डॉ0 राकेश तिवारी द्वारा वर्ष 1997 एवं 1999-2000 में कशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व विभाग द्वारा शैलचित्र पुरास्थलों की खोज हुई किया गया (सिंह एवं अन्य, 2013-14: 3-15)। इसके पश्चात डॉ0 ओम प्रकाश ने चन्दौली पर शोधकार्य के दौरान घुरहूपुर, रतनपुरवा, खरौली, ताला, तेनुई, अर्जीकला, नसोपुर, कौड़िहार के शैलकला पुरास्थलों की खोज की। डॉ0 कमला राम बिन्द द्वारा जनपद के नौगढ़ तहसील में सर्वेक्षण के दौरान पंडी, टिकुरिया व मगरहीं से शैलचित्रों की खोज की गई थी (बिन्द, 2019: 330-353)।
पुरास्थलों का संक्षिप्त विवरण चकिया तहसील के अनुसार इस प्रकार है-
चकिया तहसील
अर्जीकला (250 00’ 25’’ उत्तरी अक्षांश अक्षांश; 830 18’ 22’’ पूर्वी देशान्तर)
चकिया से घुरहूपुर संपर्क मार्ग पर घुरहूपुर से लगभग 2 किमी0 पहले अर्जीकला ग्राम के पूर्व में कपिशा पहाड़ी के ऊपर यह शैलाश्रय स्थित है। यहाँ से 4 शैलचित्र प्राप्त हुए हैं जिनमें मानव एवं पशु अंकन के साथ ज्यामितीय आकृति चित्रित है जो गेरुए रंग से बने हैं (प्रकाश, 2013: 287-288)।
नसोपुर (250 01’ 13’’ उत्तरी अक्षांश; 830 17’ 46’’ पूर्वी देशान्तर)
यह शैलचित्र चकिया से 8 किमी0 दक्षिण पूर्व में कैमूर श्रृंखला के कपिशा पहाड़़ी पर स्थित है जिसे स्थानीय रूप से ‘राजा भोज की पहाड़ी’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ लगभग 230 फुट की ऊँचाई पर एक शैलाश्रय प्राप्त होता है। यहाँ के शैलचित्र गेरूए रंग से बने हैं। शैलचित्र में कूबड़दार बैल समूह, हिरण एवं ग् आकार के मानव का अंकन है। इसी पहाड़़ी पर शैलाश्रय से दूर लाल मृदभाण्ड खण्ड प्राप्त होते हैं। ये इतने छोटे-छोटे टूट गये हैं कि इनका आकार पहचानना कठिन है। यहाँ से हेमेटाइट का एक टुकड़ा प्राप्त हुआ है जो बहुत ही मुलायम है जिससे स्पष्ट रेखांकन या चित्रण किया जा सकता है।
घुरहूपुर- 1 (250 00’ 25’’ उत्तरी अक्षांश ; 830 19’ 21’’ पूर्वी देशान्तर)
चकिया तहसील से लगभा 11 किमी0 दक्षिण-पूर्व में कपिशा पहाड़ी पर यह शैलाश्रय स्थित है। इसे बाबा की लयण भी कहा जाता है। यहाँ से 7 शैलाश्रय समूह की प्राप्ति होती है जिसमें मध्यपाषाण काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक के शैलचित्र प्राप्त होते हैं। इनमें सबसे प्रमुख ऐतिहासिक कंलीवच तथागत बुद्ध का चित्रण है जिनके दोनों ओर कलशाकार स्तूप बने हैं (चित्र सं0-7)। बुद्ध के चित्र में दो रंगों का प्रयोग किया गया है काला एवं लाल। दाहिने स्तूप की यष्टिका (स्तूप के ऊपर की छतरी) के ऊपर से 4 पंक्ति का कुषाणकालीन ब्राह्मी में लेख अंकित है किन्तु सबसे ऊपर की लाइन ही स्पष्ट है बाकि वातावरण के प्रभाव से लगभग समाप्त से हो गए हैं (चित्र सं0- 8)। बुद्ध के ऊपर एक स्त्री का चित्रण है जो कालांतर का है। स्तूप के नीचे दोनों ओर विहार की संरचना बानी है। इसके अतिरिक्त पूर्ववर्ती काल के हस्तछाप, पशु व मानव आकृति का भी चित्रण है। यह शैलाश्रय तीन मंजिला बना हुआ है जिसमें तीनों में ही चित्रण है। यहाँ के शैलचित्र मध्य पाषाण काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक का प्रतिनिधित्व करते हैं।
घुरहूपुर पहाड़ी- 2 (250 01’ 03’’ उत्तरी अक्षांश; 830 19’ 16’’ पूर्वी देशान्तर)
घुरहूपुर ग्राम के दक्षिण-पूर्व में एवं मुख्य घुरहूपुर शैलाश्रय के सामने उत्तर में लगभग 500 मीटर की दूरी पर छोटी पहाड़ी पर यह शैलाश्रय है। यह शैलाश्रय उत्तराभिमुखी है। यहाँ पर शैलाश्रय का आधार टूट कर लगभग समाप्त सा हो गया है। यहाँ मात्र 3 शैलचित्र प्राप्त हुए है जिसमें 2 मानव एवं 1 कूबड़युक्त बैल का अंकन है जिन्हें चाकलेटी रंग से बनाया गया है (चित्र सं0- 9)। मानवों के दोनों हाथों को फैलाये हुए दर्शाया गया है, जबकि पशु का मात्र आगे का भाग मुख एवं सींघ बचा है, शेष धूमिल हो गया है। इनका चित्रण नवपाषाण काल से सम्बंधित है।
रतनपुरवा (250 00’ 50’’ उत्तरी अक्षांश; 830 19’ 00’’ पूर्वी देशान्तर)
घुरहूपुर शैलाश्रय से लगभग 1 किमी0 पूर्व में उत्तर प्रदेश-बिहार सीमा पर कपिशा पहाड़ी पर यह शैलाश्रय स्थित है जो चन्दौली जनपद में है, किन्तु स्थान की जानकारी के लिए निकटम ग्राम रतनपुरवा (बिहार) के आधार पर इसे रतनपुरवा शैलाश्रय नाम दिया गया जो बिहार राज्य का सीमावर्ती ग्राम है। अभिलेखन किये गए सभी शैलाश्रयों में यह सबसे अधिक समृद्ध है। यहाँ कुल 5 शैलाश्रय समूह हैं जिनमें चित्रण हैं। चित्रण के विषय मानव-पशु समूह, पक्षी, नृत्यरत मानव समूह, ज्यामितीय आरेखन आदि हंै। यहाँ की सबसे प्रमुख एवं प्रसिद्ध शैलाश्रय संख्या- 2 है। स्थानीय ग्रामीण इसे चन्द्रकान्ता की गुफा के नाम से भी पुकारते हैं। इसमें एक वृत्ताकार ज्यामितीय आकृति है जिसमें कई अन्य वृत्त भी चित्रित हैं जिसे ग्रामीण गुफा का नक्शा (Map) कहते हैं (चित्र संख्या-10)। इसमें शैलाश्रय में एक चित्र के ऊपर कई पर बार चित्रण (अध्यारोपण) हुआ है पूर्व के चाकलेटी रंग के चित्रों पर कई बार काले रंग से पुनः बाह्य रेखांकन किया गया है (चित्र सं0-11)। इस प्रकार का अधिक अध्यारोपण शैलाश्रय का मानव के द्वारा लम्बे समय तक प्रयोग करने का प्रमाण है। शैलाश्रय संख्या-5 में 6 स्तम्भ गर्त (Post hole) प्राप्त हुए हैं जो एक गोलाकार संरचना का निर्माण करते हैं। इस संरचना का व्यास लगभग 6 फीट है। इन स्तम्भ गर्तों का प्रयोग लकड़ी के खम्भों को गाड़ने के लिए किया गया होगा। संभवतः जंगली जानवरों से रक्षा के लिए शैलाश्रय में खम्भों की सहायता से झोपड़ी जैसी संरचना का निर्माण किया गया होगा। शैलाश्रय संख्या- 4 में मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में ‘म‘ अक्षर को 4 बार बनाया गया है। चित्रण के लिए गेरुए, काला, चाकलेटी, लाल रंग का प्रयोग हुआ है। विषयांकन के आधार पर यह शैलाश्रय मध्यपाषाण काल से ऐतिहासिक काल (मौर्यकाल) तक मानव द्वारा प्रयोग किया गया प्रतीत होता है।
खरौली (250 00’ 52’’ उत्तरी अक्षांश; 830 19’ 57’’ पूर्वी देशान्तर)
यह शैलाश्रय रतनपुरवा शैलाश्रय से लगभग 500 मीटर पूर्व में उत्तर प्रदेश- बिहार सीमा पर स्थित है। निकटम ग्राम खरौली (बिहार) होने के कारण इसका नाम खरौली दिया गया है। यहीं से कैमूर श्रृंखला में एक छोटा सी पगडण्डी बनी है जहां से दोनों राज्यों की सीमा भी अलग दिखती है। इस पगडण्डी के बाएं किनारे पहाड़ी के ऊपर यह शैलाश्रय स्थित है। शैलाश्रय में दो चित्र समूह मिलते हैं जिनमें मानव एव पशु समूह बने हैं। एक समूह में हाथी और कुबड़युक्त बैलों को दिखाया गया है। साथ ही दो मानवाकृतियाँ (स्त्री) बनी हैं जिनके सिर पर शिरोभूषण है इनके जननांगों को नीचे की और दिखाया गया है (चित्र सं0- 12)। यह शैलचित्र नवपाषणिक काल के प्रतीत होते हैं। शैलाश्रय के ऊपर पहाड़ पर वनदेवी का देवस्थान बना है।
तेनुई (240 59’ 42’’ उत्तरी अक्षांश; 830 19’ 39’’ पूर्वी देशान्तर)
तेनुई ग्राम चकिया बाजार से लगभग 12 किमी0 दक्षिण-पूर्व में तेनुई ग्राम के प्राथमिक विद्यालय के दक्षिण में जाजा पहाड़ी पर स्थित है। यह एक छोटा पूर्वाभिमुखी (पूरब दिशा की और खुला हुआ) शैलाश्रय है जिसमें पूरक रंग वाले एवं रेखीय विधि से चित्रांकन किया गया है। इनमें 4-5 प्रकार के दृश्य हैं जिसमें आखेट दृश्य, नृत्यरत मानव समूह, मयूर, एक्स-रे विधि से बने नीलगाय, कुबड़युक्त बैल, दाएं ओर को भागते हुए पंक्ति में हिरन समूह, घायल हिरन को दर्शाया गया है (चित्र सं0- 13)। नृत्य करते मानवों का पेट काफी उभरा हुआ चित्रित है। पंक्ति में खड़े मानवों के सिर पर शिरोभूषण है एवं उनके जननांगों को दिखाया गया है।
ताला (ढोढ़नपुर) (250 59’ 19’’ उत्तरी अक्षांश; 830 19’ 03’’ पूर्वी देशान्तर)
तेनुई शैलाश्रय से लगभग 1 किमी0 पश्चिम में जाजा पहाड़ी पर ही ताला (ढोढ़नपुर) का शैलाश्रय है। यह पश्चिमाभिमुखी छोटा शैलाश्रय है जिसमें चाकलेटी रंग से नृत्यरत समूह की पंक्ति दिखाई गयी है जो संभवतः मध्याश्म चरण से सम्बद्ध हैं। शैलाश्रय में अध्यारोपण नहीं है सभी एक साथ और एक ही काल की बनी हुई हैं। नृत्यरत पंक्ति में अधिकांशतः स्त्री है जिनके हाथ बाहर की ओर खुले हुए हैं, सिर का केशविन्यास (बालों का स्टाइल) एक्स (X) आकार में बना है। पंक्ति के ऊपर तीन मानव अंकन है जिसमें एक मृदंग/ढोलक बजा रहा है (चित्र सं0- 14)। इन सभी के बीच एक युगल को रतिक्रिया करते हुए दर्शाया गया है।
कौड़िहार खास (250 00’ 25’’ उत्तरी अक्षांश; 830 15’ 17’’ पूर्वी देशान्तर)
कौड़िहार खास ग्राम चकिया बाजार से 7 किमी0 दक्षिण-पूर्व में कपिशा पहाड़ पर लगभग 110 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। ग्रामीण इस पहाड़ी को कचहरिया पहाड़ी के नाम से बताते हैं। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार रात में इस पहाड़ी पर देवताओं और परियों की कचहरी लगती है, इसी कारण इसका नाम ‘कचहरिया पहाड़ी’ पड़ा।
पहाड़ी से 2 किमी0 पश्चिम में कर्मनाशा नदी पर लतीफशाह बांध बना है। यहाँ पर कुल 4 शैलाश्रय समूह हैं जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। चित्रांकित विषयों में आखेट दृश्य, पशु समूह, रेखीय तकनीक से हस्तछाप, एक्सरे तकनीक से बने पशु समूह, चैकोर बॉक्स में ज्यामितीय अलंकरण आदि हैं। शैलाश्रय का प्रमुख आकर्षण काल्पनिक सूकर का अंकन है, जिसके आकर को अतिरंजित कर दिखाया गया है। उसके समक्ष दो शिकारियों को धनुष-बाण से प्रहार करते हुए दिखाया गया है जबकि सूकर के पीछे अन्य जानवरों जैसे भागता हिरण, बन्दर(?) के झुण्ड एवं उनके बच्चों को डरा हुआ दिखाया गया है। शिकारियों के नीचे तीन हिरणों को भी भयभीत और चैकन्ना दिखाया गया है। इसके साथ ही अन्य छोटे-2 मानव बने हैं जिसमें से एक मानव सूकर की पूँछ को पैर से दबा रखा है जिसके सिर को बड़े शिरोभूषण से युक्त दिखाया गया है। इस सम्पूर्ण दृश्य के ऊपर जंगली भैसे का शिकार करते हुए चित्रिण किया गया है (चित्र सं0- 15)। यहाँ के अधिकांश चित्र मध्यपाषाण कालीन हैं।
धन्नीपुर (250 00’ 30’’ उत्तरी अक्षांश; 830 15’ 44’’ पूर्वी देशान्तर)
कौड़िहार खास शैलाश्रय से लगभग 1 किमी0 पूर्व में धन्नीपुर ग्राम के ऊपर कचहरिया पहाड़ी पर यह शैलाश्रय स्थित है। यहाँ दो शैलाश्रय समूह हैं जिसमें एक में चित्रांकन है। यह उत्तराभिमुखी छोटा शैलाश्रय है। जिसमें 4 नृत्यरत मानवाकृतियों को दर्शाया गया है (चित्र सं0-16)। इनका पेट बाहर की ओर निकला है एवं कमर पर लंगोट जैसा दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त दो समानांतर रेखा युक्त 4 आयताकार आकृति भी चित्रित हैं जिन्हे प्रागैतिहासिक (मध्यपाषाणिक) कालीन माना जा सकता है।
भटवारा कलां (240 04’ 13’’ उत्तरी अक्षांश; 830 09’ 11’’ पूर्वी देशान्तर)
यह शैलकला पुरास्थल मुगलसराय-चकिया संपर्क पर चकिया चैराहे से लगभग 1.5 किमी0 पहले सीआरपीएफ कैम्प से 7 किमी0 दक्षिण में फतेहपुर ग्राम के समीप पूर्व माध्यमिक कन्या पाठशाला, भटवारा खुर्द से ऊपर पहाड़ी पर यह शैलाश्रय स्थित है। यह पश्चिमाभिमुखी शैलाश्रय है। यहाँ ऐतिहासिक कालीन चित्रण हैं जिनमें घोड़ा, हाथी, मानव आकृति, सकेंद्रित वृत्त एवं लाल रंग के अनेक चैकोर आकृति चित्रित हंै। एक अन्य चित्र जिसकी पहचान साफ नहीं है लेकिन रेखाओं के अध्यारोपण एवं संयोजन से वह बड़े से तारयुक्त वाद्ययंत्र सा प्रतीत हो रहा है (चित्र सं0- 17)।
हाजीपुर (दुलहई देई) (240 04’ 14’’ उत्तरी अक्षांश; 830 09’ 43’’ पूर्वी देशान्तर)
यह शैलकला पुरास्थल भटवारा खुर्द से लगभग 1 किमी0 उत्तर-पूर्व में स्थित हाजीपुर ग्राम के समीप दुलहई माई की पहाड़ी पर है। यह पश्चिमाभिमुखी शैलाश्रय है। यहाँ दो शैलाश्रय समूह हैं जिनमें ऐतिहासिक कालीन चित्रांकन हैं। इनमें युद्ध एवं शाही सवारी का चित्रण है। युद्ध दृश्य में बाएं ओर जाते हुए हाथी पर दो सवार बैठें हैं जो हाथ उठाकर कर किसी को युद्ध के लिए ललकारते हुए चित्रित हैं जिसके सामने एक अन्य हाथी का अग्रभाग दिख रहा है, शेष मिट गया है। दूसरा शाही सवारी का दृश्य है जो दाहिने ओर को जाते हुए चित्रित है जिसमें सबसे आगे मोर का अंकन है, उसके पीछे हाथी पर राजा को दर्शाया गया है जिसके सामने एक अन्य मोर उड़ रहा है, सबसे पीछे एक सैनिक हाथ में भाला लिए हुए चल रहा है जिसका मुख पक्षी के मुकुट जैसा दिखाया गया है ।
इसके साथ ही इस शैलाश्रय से इस क्षेत्र का संभवतः प्रथम उत्त्कीर्णित अंकन प्राप्त हुआ है जिसमें एक बड़े मोर को बनाया गया है और उसके पंखों को भूलभुलैया (Labyrinth) जैसा बनाया गया है। मोर के नीचे एक सैनिक को तलवार और ढाल लिए हुए दर्शाया गया है जो मोर की अपेक्षा काफी छोटा है ( चित्र सं0- 18)। शैलाश्रय-2 में भी घुड़सवार और सैनिकों को दिखाया गया है ।
निष्कर्ष:
चंदौली जनपद के चकिया तहसील के शैलाश्रयों से प्राप्त शैल चित्रों के शोध से यह स्पष्ट होता हैं कि इस क्षेत्र में शैलकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन हैं और इसकी प्राचीनता मध्यपाषाण काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक दिखलाई देती हैं I शैलचित्र कैमूर की पहाड़ियों में मानवीय गतिविधियों के साक्ष्यों को परिरक्षित किये हुए हैं I इन क्षेत्रों में निवास करने वाली स्थानीय जनजातियों में शैल चित्रों की परंपरा का दिग्दर्शन भी होता हैं I घुरहूपुर से प्राप्त कुषाण कालीन बुद्ध एवं स्तूपों के चित्रण एवं यहाँ से प्राप्त कुषाणकालीन अभिलेख से से इस क्षेत्र के तत्त्कालीन समय में प्रमुख व्यापारिक मार्ग के होने की पुष्टि होती हैं I
आभार:
सितम्बर, 2023 में आदि दृश्य विभाग, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली एवं प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, वसंत महिला महाविद्यालय एवं डी0 ए0 वी0 पीजी कॉलेज वाराणसी द्वारा घुरहूपुर, रतनपुरवा, खरौली, अर्जीकला, ताला, तेनुई, कौड़िहार खास के शैलचित्रों का अभिलेखन किया गया इस दौरान कुछ नए शैलाश्रय प्रकाश में आए हैं- घुरहूपुर पहाड़ी 2, हाजीपुर (दुल्हई माई), भटवारा कलां, धन्नीपुर। डॉ0 रमाकर पंत (विभागाध्यक्ष आदि दृश्य विभाग), डॉ0 दिलीप कुमार संत (असिस्टेंट प्रोफेसर, आदि दृश्य विभाग), श्री प्रवीन सी0 के0 (आदि दृश्य विभाग), प्रो0 उमाकांत शुक्ल (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) एवं डॉ0 ओमप्रकाश कुमार (डी ए वी पी जी कॉलेज) को विशेष रूप से धन्यवाद जिनके सहयोग से चंदौली जिले के शैलचित्रों के अभिलेखन का कार्य पूर्ण हो पाया।
चित्र संख्या- 2: मोर एवं मानव का उत्कीर्णन, हाजीपुर, चकिया, चन्दौली
चित्र संख्या-3: शैलांकन में उत्कीर्णन जिसमें बाद में रंग का संयोजन किया गया, पाण्डवा बाखरा, कटक, उड़ीसा
मानचित्र संख्या- 1: शैलकला अध्ययन क्षेत्र चकिया तहसील, चंदौली
चित्र संख्या-4: पूर्व से पश्चिम तक हँसिये के नोक से मुठिया की ओर चौड़ी होती आकृति जैसा विंध्यपर्वत श्रंखला घाटी
चित्र संख्या- 5: घरहूपुर शैलकला पुरस्थल के उत्तर में पहाड़ियों से घिरे मैदान का हवाई छायांकन
चित्र संख्या-6: घुरहूपुर शैलकला पुरास्थल के बहुमंजिला शैलाश्रय
चित्र संख्या-7: तथागत बुद्ध एवं कलशाकार दो स्तूप
चित्र संख्या- 8: घुरहूपुर से प्राप्त कुषाणकालीन ब्राह्मी में चित्रित लेख
चित्र संख्या- 9: घुरहूपुर-2 से प्राप्त मानव एवं कूबड़युक्त बैल (बायें) का शैलचित्र
चित्र संख्या- 10: रतनपुरवा से प्राप्त वृत्ताकार चित्र
(स्थानीय जनश्रुति के अनुसार गुफा का नक्शा)
चित्र संख्या-11: रतनपुरवा शैलाश्रय क्रमांक-2 से प्राप्त अध्यारोपण एवं बहुरंगी चित्र
चित्र संख्या-12: खरौली (बिहार) से प्राप्त शिरोभूषण युक्त मानवाकृतियां एवं पशु चित्रण
चित्र संख्या-13: क्रमशः दाएं से बाएं मयूर, नृत्यरत मानव समूह, एक्स-रे युक्त नीलगाय एवं आखेटक, तेनुई, चकिया, चन्दौली
चित्र संख्या-14: ढोलक/मृदंग बजाते एवं नृत्य दृश्य, ताला, चकिया, चन्दौली
चित्र संख्या- 15: आखेट दृश्य, कौड़िहार खास, चकिया, चन्दौली
चित्र संख्या- 16: लंगोटी पहने नृत्यरत मानव समूह, धन्नीपुर, चकिया, चन्दौली
चित्र संख्या- 17: मानव व वाद्ययंत्र(?), भटवारा कलां से प्राप्त अध्यारोपित चित्र
चित्र संख्या- 18: भूलभुलैया जैसे पंखों वाले मोर का उत्कीर्णन एवं हाथी सवार चित्र, हाजीपुर, चकिया, चन्दौली
lUnHkZ:
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असिस्टेंट प्रोफेसर
असिस्टेंट प्रोफेसर, आदि दृश्य विभाग, इ. गाँ. रा. क. के., नई दिल्ली
विभागाध्यक्ष, आदि दृश्य विभाग, इ. गाँ. रा. क. के., नई दिल्ली
प्रोफेसर, भूगर्भशास्त्र विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रा. भा. इ. स. एवं पुरातत्त्व, डीएवी पीजी, वाराणसी
परियोजना सहयोगी, आदि दृश्य विभाग, इ. गाँ. रा. क. के., नई दिल्ली
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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