- डॉ. राज कुमार मीणा
रमणिका गुप्ता के अनुसार “आदिवासी साहित्य 90 भाषाओं में लिखा जा रहा है- लेकिन वह हिंदी में भी प्रचुर मात्रा में रचा जा रहा है | आदिवासी संस्कृति से न केवल हिंदी समृद्ध हुई है, बल्कि आदिवासी जीवन-शैली समानता, भाईचारा और आजादी के सूत्रों को भी हिंदी पट्टी और हिंदी भाषी मानस ने कुछ हद तक ग्रहण किया है |”1 आज न केवल हिंदी भाषी बल्कि गैर हिंदी भाषी भी हिंदी में कविता लिख रहे हैं | मराठी भाषी कौशल्या बैसंत्री और कुडुख भाषी ग्रेस कुजुर हिंदी में लिखती हैं | रामदयाल मुंडा और निर्मला पुतुल संथाली के साथ-साथ हिंदी में भी लिखते हैं | मराठी कवि वाहरू सोनवणे, भुजंग मेश्राम आदि का भी हिंदी आदिवासी साहित्य में महत्वपूर्ण
योगदान है | स्वयं रमणिका गुप्ता का अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद का कार्य एक मिशाल बनता जा रहा है |
आज आदिवासी अपनी कलम की ताकत को पहचानते जा रहे हैं, जिसे वे बंदूक की ताकत से भी बड़ी मानते हैं | ग्रेस कुजूर लिखती हैं कि “क्या कर लेंगी उनका / बंदूक और गोलियां / लांघते ही देहरी / हजारों कहानियां / नस-नस हो गई कमान सब लहू तीर / देखना बाकि है कलम को तीर होने दो|”2 भुजंग मेश्राम बिरसा-चेतना से लैस होकर उसमें अपनी मुक्ति का अहसास, अपनी ताकत का अहसास खोजने का आह्वान करते हैं – “तब तुमने ही तो किया था संघर्ष / गोरो को खदेड्ने की खातिर / सिंहभूम, मंडला, वसई / चंद्रपुर को करने को आजाद / बचाने के लिए हरे-भरे जंगल / आज ना गोरे हैं / न सपनों की आजादी / आज न घने बीहड़ हैं / ना तू है / है केवल बीहड़ो में फैलता असंतोष / होठों पर तेरा नन्हा-सा गीत/ उनगुलान! उनगुलान! उनगुलान! /जो बन गया है हमारी संस्कृति की लडाई / सच बताउँ अब हमें जल्दी है / नहीं चाहते अब हम ओढ़ी हुई सभ्यता / धिक्कारते जैसे अंधकार को / जंगल बाँटती दुलाली प्रथा को / हम नकारते हैं / गूंजती है घाटियों में पीछा करती आवाज / बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा /...लोग तेरी वाट जोहते!”3
संथाली-असमिया भाषा के प्रमुख लेखक पृथ्वी मांझी ने इतिहास में गढ़ी गयी विकृत और अमानुषिक छवि को नष्ट करते हुए कहा है कि “भारतीय साहित्य के जिस दर्पण में हजारों सालो से आदिवासी समाज का जो विकृत रूप दिखाया गया है, उस विकृत रूप को हटाकर उसके वास्तविक प्राकृतिक
रूप को हमारे देश और संसार को दिखाना ही आदिवासी साहित्यकारों का सबसे बड़ा दायित्व है |”4 इस दायित्व को स्वीकारते हुए महादेव टोप्पो कहते हैं – “इससे पहले कि वे पुनः तुम्हारा अपने ग्रंथों में / बंदर, भालू या / किसी अन्य जानवर / के रूप में करें वर्णन / तुम्हें अपने आदमी होने की / तलाशनी होगी परिभाषा / इनके बर्बर वैचारिक / हमलों के विरुद्ध / रचने होंगे / स्वयं ग्रन्थ |”5
आज के आदिवासी लेखन में जहाँ अपनी जड़ों और इतिहास को खोज निकलने की इच्छा है, वहीं शोषण, शोषक और शोषित की वर्णमाला को पहचानने का भाव भी है | व्यवस्था के षड़यंत्र और साजिशों का पर्दाफास करने की प्रवृत्ति
भी आदिवासी लेखन का हिस्सा बनकर उभरी है – “पार्टियां हो दक्षिण, वाम या मध्यमार्गी/ सदा करती है हमारे हित की बात / हम जादूगोड़ा में गल रहे हों / नर्मदा में डूब रहे हों / उड़ीसा में चाहे भूख से मर रहे हों / या देश में कहीं गालियाँ या गोलियाँ खाकर / या दामोदर का पी रहे हो पानी गन्दा / बताया जाता है | हमारे लिए कहीं-न-कहीं विकास का कार्य है प्रगति पर...|”6
इन कठिन और विडंबनात्मक
परिस्थितियों में आदिवासी अपने जल, जंगल,जमीन की चिंता से मुक्त नहीं हो पाता | उसकी आकांक्षा होती है कि- “जब जंगल की / सारी विद्रोही आवाजों को / जंगल के पेड़ों के हरेपन को /महुए की बोतल में / डुबोने की हो साजिश / इस जंगल का कवि रहेगा भला कैसे चुप ?/ वह धनुष उठाएगा / प्रत्यंचा पर कलम चढ़ाएगा जंगल के हरेपन को/ बचने की खातिर / जंगल का कवि / मादर बजाएगा / बांसुरी बजाएगा | चढ़ाकर प्रत्यंचा पर कलम|”7
संथाली / हिंदी की प्रमुख कवयित्री निर्मला पुतुल न केवल उस उपभोक्ता संस्कृति को पहचानने के लिए कहती हैं जो आदिवासी महिलाओं को केवल वस्तु बनाने पर तुली हुई है, बल्कि वे अपने ही समाज में व्याप्त बुराइयों और विकृतियों
पर भी प्रहार करती है- “तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी / यह तो मैं / नहीं जानती / पर शराब उसे पी गयी / यह जानता है सारा गाँव / इससे बचो चुड़का सोरेन /...देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ / तुम्हारे हाथों बनी हंड़िया / तुम्हें पिला-पिलाकर / कोई कर रहा है / तुम्हारी बहनों से ठिठोली/...वह कौन-सा / जंगली जानवर / था चुड़का सोरेन / जो जंगल लकड़ी बिनने गई / तुम्हारी बहन मुंगली को / उठाकर ले भगा ?”8
समाज में व्याप्त कु-प्रथाओं और जड परम्पराओं
पर चोट करते हुए निर्मला पुतुल कहती हैं – “बस !बस! रहने दो / कुछ मत कहो सजोनी किस्कू! मैं जानती हूँ सब / जानती हूँ कि अपने गाँव / बागजोरी की धरती पर / जब तुमने चलाया था हल / तब डोल उठा था / बस्ती के मांझी थान में बैठे देवता का सिंहासन / गिर गयी थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठे / मगजहीन मांझी ‘हाडाम’ की पगड़ी / पता है बस्ती की नाक बचाने खातिर / तब बैल बनाकर हल में जोता था जालिमों ने तुम्हें / खूंटे में बंधकर खिलाया था भूसा |”9
आदिवासी समाज प्रकृति के सह-अस्तित्व के साथ जीवन जीता है और वह कभी भी विकास की एकतरफा अवधारणा को स्वीकार नहीं कर सकता है | वह जानता है कि प्रकृति के खिलाफ साजिश के कितने खतरनाक परिणाम हो सकते हैं | आज जबकि पर्यावरणीय
समस्या से पूरा विश्व जूझ रहा है तब तो उनकी अवधारणा को जानना-समझना और भी अधिक आवश्यक हो गया है | ग्रेस कुजूर कहती हैं – “न छेडो प्रकृति को / अन्यथा यही प्रकृति / एक दिन / मांगेगी / हमसे / अपनी तरुणाई का / एक-एक क्षण / और करेगी / भयंकर ...बगावत / और तब / न तुम होंगे / न हम होंगे |”10
आदिवासियों
के प्रकृति-प्रेम और दिकुओं द्वारा किए जाने वाले शोषण को एक साथ ही हरिराम मीणा इस तरह व्यक्त करते हैं – “हमने युगों-युगों से / खतरनाक सुअरों से लोहा लिया / उन्हें खूब छकाया / मगर खरोचों के अलावा/ कोई हादसा नहीं हुआ / हमने-नारियल के ऊँचे दरख्तों को / खिलवाड़ माना / उनके फलों के स्वाद को जाना / मगर, उन्हें बर्बाद नहीं किया / न ही उन्होंने हमें सताया / जहरीले साँपों से हम खेलते रहे / समुद्री जीवों से हमारी दोस्ती रही / तुफानों ने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा / यहाँ तक कि / भूकंप और ज्वालामुखियों ने भी / हमें नहीं उजाड़ा / मगर / जिन्होंने हमें गोलियों से भुना / वे इन्सान थे / जिन्होंने हमें टापुओं के इधर-उधर खदेड़ा / वे इन्सान हैं / और जो हमारी नस्ल को उजाड़ेंगे / वे इन्सान होंगे |”11
आदिवासी समाज को आज उसी तथाकथित सभ्य समाज से खतरा है जो उन्हें ‘सभ्य’ बनाने पर जबरदस्ती तुले हुए हैं | हरिराम मीणा का संवाद अंडमान-निकोबार तक के आदिम समुदायों से भी होता है, क्योंकि वे समुदाय आज लुप्त होने के कगार पर हैं | रोटी-बिस्किट के चंद टुकड़ों पर नग्न-नृत्य करवाकर तथाकथित देशभक्त लोग अपने ‘मेहमानों’ (विदेशी सैलानियों)
का आदिवासियों से मनोरंजन करवाते हैं | उनकी निजता भंग होने से जहाँ एक तरफ उनकी नस्ल ख़त्म होती जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ उनमें नयी-नयी बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है | हरिराम जी उनकी ख़त्म होती नस्लों पर व जमीनों से उनकी बेदखली पर कहते हैं – “कैसे करोगे साबित / सभ्यता की इस अदालत में / कि यह ‘भौम’ (जमीन) तुम्हारी थी |”12 बेदखली और आदिवासी समाज की बेबसी पर कवि को गुस्सा आता है और वह उनसे सवाल करता है कि- “देखो! तुम देख रहे हो कि वो आ रहे हैं / तुम्हारी नसें तन रही हैं / तुम्हारे तीर-कमान तने हैं / तुम एक जुट हो / मगर तुम कुछ नहीं कर रहे? / ...देखो! आखिर तुम्हें खदेड़ ही दिया न / तुम्हारी ज़मीन से / तुम्हें नेस्तानाबूत करने के लिए / पर फिर भी तुम चुप हो ?/ क्यों? आखिर क्यों?”13
हिंदी आदिवासी कविताओं में आदिवासी इतिहास की जड़ों को खोजने के साथ-साथ आदिवासी महापुरुषों
को जो गुलाम भारत के इतिहास में स्वतंत्रता की लड़ाई में (खाज्या नाईक, तंट्या भील, रामदास महाराज, भागोजी नाईक, बिरसा मुंडा, रानी दुर्गावती इत्यादि) ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध जूझे, याद किया जा रहा है| वे इसके माध्यम से एक लिखित इतिहास की निर्माण-प्रक्रिया भी तैयार कर रहे हैं| आदिवासी जीवन की पीड़ा, आदिवासी मूल्यों की महत्ता, विकास का असली चेहरा और विस्थापन का विकराल रूप, शोषण के विभिन्न प्रकार और चरण आदि को आदिवासी कविताओं में विषय बनाया जा रहा है | जो जैसा है उसे वैसे ही पाठक के सामने रख देना | आम भाषा में बिना लाग-लपेट के। प्रकृति से सम्बंधित हर वस्तु से प्रेम करते हैं आदिवासी लोग, भले वह सजीव हो या निर्जीव। पेड़ों की अत्यधिक कटाई पर शिलांग के कवि का यथार्थ चित्रण झकझोर देने वाला है – “पहाड़ी चोटी पर मैं हूँ खड़ा / नंगी पहाड़ी नग्न स्त्री की तरह / जिसकी छातियाँ उघाड दी हो किसी पागल बलात्कारी ने |”14
डॉ. रामदयाल मुंडा विकास की त्रासदी को कुछ इस तरह बयां करते हैं – “बन गया हूँ गीदड़ / रहा दौड़ / शहर की ओर / मरने के पहले / या कि एक पेड़ / विशाल शाल का / गिरा / जा रहा चिरा / बीच मशीन आरा / देश के लिए / कहते हैं / विकास के लिए ...मुझको विकास का / दर्द यह असह्य / देर तक सहना न होगा | समय से पहले ही मेरा / काम तमाम होगा ?”15
वर्तमान दौर में आरक्षण के लालच में गैर आदिवासियों
में आदिवासी बनने-बनाने की होड़ मची है। वे वास्तविक आदिवासी समाज को ही गैर आदिवासी घोषित करने पर तुले हुए हैं | सिर्फ कागजों पर | सरकार की विभिन्न योजनाओं के लाभ के लिए मात्र | इस विडंबनात्मक स्थिति पर युवा कवि अनुज लुगुन कहते हैं – “वो जो सुविधाभोगी है / या मौका परस्त हैं / या जिन्हें आरक्षण चाहिए / कहते हैं हम आदिवासी हैं / वे जो धर्म प्रचारक हैं / कहते हैं / तुम आदिवासी जंगली हो / वे जिनकी मानसिकता यही है / कि हम ही आदि निवासी हैं / कहते हैं तुम वनवासी हो / और वे जो नंगे पैर चुपचाप चले जाते हैं / जंगली पगडंडियों में / कभी नहीं कहते कि / हम आदिवासी हैं / वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से / अपना इलाज करना / वे जानते हैं जंतुओं की हरकत से / मौसम का मिजाज समझना / सारे पेड़-पौधे पर्वत-पहाड़ / नदी झरने जानते हैं / कि वे कौन हैं |”16
वर्तमान दौर में सरकार ने पूंजीपति घरानों के साथ मिलकर आदिवासियों
के खिलाफ उन्हें उजाड़कर संसाधन प्राप्ति के लालच में जो अघोषित उलगुलान घोषित कर रखा है, उससे पीड़ित आदिवासियों के सामने जीवन का संकट आ खड़ा हुआ है | अनुज लुगुन लिखते हैं कि- “वे शिकार खेला करते थे निश्चित / जहर बुझे तीर से / या खेलते थे / रक्त – रंजित होली अपने स्वत्व की आंच से / खेलते हैं शहर के / कांकरिय जंगल में / जीवन बचाने के लिए / ...कट रहे वृक्ष / मफियाओं की कुल्हाड़ी से और / बढ़ रहे है कंक्रीट के जंगल / दांडू जाय तो कहाँ जाय / कटते जंगल में / या बढ़ते जंगल में |”17
आज जो ‘विकास के बदले विस्थापन’ वाला विकास मॉडल भारत सरकार ने बना रखा है उससे पूरा समाज त्राहिमाम
है। वे इस विकास मॉडल को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। आज जब विकास शब्द उनके कानों में पड़ते हैं तो लगता है कि पिघला हुआ शीशा कानों में डाला जा रहा है। निर्मला पुतुल कहती हैं- “अगर हमारे विकास का मतलब / हमारी बस्तियों को उजाड़कर / कल-कारखाने बनाना है / तालाबों को भोथरा राजमार्ग / जंगलों का सफाया कर ऑफिस / कालोनियां बसानी है / और पुनर्वास के नाम पर हमें / हमारे ही शहर की सीमा से बाहर हाशिए पर / धकेलना है / तो तुम्हारे तथाकथित विकास की मुख्य-धारा में / शामिल होने के लिए / सौ बार सोचना पड़ेगा हमें / ...क्षमा करना / नकरती हूँ तुम्हारे विकास प्रस्ताव को / जो पटना, रांची और दिल्ली / से बनाकर लाए हो / तुम हमारे लिए”।18
निष्कर्ष : अतः इस प्रकार देखते हैं कि आज आदिवासी कविता के रचना संसार में कलम के महत्व को समझते हुए इतिहास, मूल्य, दर्शन, विकास, विस्थापन, जल, जंगल, जमीन, षड्यंत्रों, विद्रोहों, अत्याचारों, शोषणों, सम्मान, अपमान, स्वाभिमान आदि सभी स्तर की लड़ाई कलम के माध्यम से लड़ने पर जोर दिया गया है। वे अब समझ गए हैं कि कहीं बिना लिखित इतिहास के हमारी छवि को फिर से विकृत नहीं कर दें। सो अब कलम को हथियार बनाना आवश्यक है। अब वे इसी दिशा में कविता के माध्यम से आगे बढ़ रहे हैं। स्वयं आदिवासी समाज से डॉ. गोविंद गारे, चैतन्य प्रसाद माँझी, राजेंद्र सिंह मुंडा, रामदयाल मुंडा, दयामनी, वारला, बिटिया मुर्मू, निर्मला पुतुल, रोज केरकेट्टा, वाहरू सोनवणे, भुजंग मेश्राम, हरिराम मीणा, अनुज लुगुन, जसिन्ता केरकेट्टा, सुसमा असुर आदि अनेक आदिवासी कवि आदिवासी रचना संसार को व्यापक क्षेत्र तक फैला रहे हैं ।
1.रमणिका गुप्ता, आदिवासी चेतना की हिन्दी कलम(लेख), अरावली उद्घोष(पत्रिका), वर्ष क्रमांक 91, मार्च 2011, पृ.59
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
rajmeena@bhu.ac.in
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