शोध सार : राजस्थान की मरुधरा केवल वीरों की नहीं उच्च कोटि के संतों की भी भूमि रही है। पीपा जी, हरिदास जी, दादूदयाल, रज्जब व सुन्दरदास जैसे संतों ने अपनी वाणी से इस भूमि को पवित्र किया और मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का अलख भी इस भूमि में जगाया।विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जम्भो जी इसी सन्त परम्परा में एक उच्चकोटि के विचारक व सुधारक सन्त हैं, जिन्होंनेभक्ति आन्दोलन को राजस्थान में एक सुनिश्चित दिशा देने काउल्लेखनीय कार्य किया। जम्भो जी के सम्पूर्ण प्रयास मनुष्य को मनुष्य बनाने व लोक कल्याण के लिए समर्पित थे। विश्नोई सम्प्रदाय के लिए उन्होंने आचार संहिता के रूप में जो 29 नियम बनाए उनमें मानव के उद्धार के साथ प्राणीमात्र व प्रकृति रक्षा का भाव भी निहित है। यह नियम बहुत व्यावहारिक और वैज्ञानिक हैं। इन नियमों की प्रासंगिकता आज के भौतिकवादी और मूल्य विशृंखलित युग में और अधिक है।इस आलेख के अंतर्गत मानव मात्र की भलाई के लिए जम्भो जी की चिंताओ, उनके कार्यों के विवेचन के साथ तदयुगीन भक्ति आंदोलन में उनके अवदान की चर्चा प्रस्तुत है।
बीज शब्द : विश्नोई सम्प्रदाय- राजस्थान का एक संप्रदाय जो 29 नियमों की मान्यता पर आधारित है, मसीते- मस्जिद, विशृंखलित– टूटा हुआ,लोकानुभव- लोक से प्राप्त ज्ञान,धर्मान्ध– धर्म में अंधा,क्षुब्ध –दु:खी, नारकीय– नरकतुल्य, भक्षक– खाने वाला।
मूल आलेख : राजस्थान की मरूधरा वीरों के साथ सन्तों की भी जननी रही है। यहाँ सन्तों की एक पुष्ट परम्परा है, जिसमें सन्त जम्भो जी, जसनाथ जी, पीपा जी, हरिदास जी, दादूदयाल, रज्जब व सुन्दरदास जी का नाम उल्लेखनीय है। इन सभी सन्तों ने मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अन्यान्य सभी सन्तों की भाँति इनकी चिन्ता भी वर्ग और वर्ण मुक्त समाज व निम्न तबके के मनुष्य के कल्याण से जुड़ी है। अतः तद्युगीन समाज को आडम्बरमुक्त करने, लोक जागरण व मानव के नैतिक उत्थान के लिए इन सभी सन्तों ने संकल्पबद्ध होकर काव्य रचना की। ‘‘इन सभी सन्तों का लक्ष्य वैयक्तिक सीमा से ऊपर लोकहित तथा समाज कल्याण था। मानव-मानव के मध्य भेद, शोषण, कटुता, द्वेष, अहंकार तथा तद्युगीन समाज में व्याप्त बाह्याडम्बर को देखकर ये सन्त मौन न रह सके, फलस्वरूप उन्होंने अपनी वाणी का उपयोग उपर्युक्त बुराइयों के विरोध तथा मानव को जागृत करने हेतु किया।’’ 1
सन्त जम्भो जी राजस्थान की इसी सन्त परम्परा में एक उच्चकोटि के विचारक व सुधारक सन्त हैं। उनका जन्म भादों मास की अष्टमी तिथि, विक्रम संवत 1508 सोमवार,सन 1451 ईस्वी में राजस्थान के नागौर जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर पीपासर गांव के एक राजपूत परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम लोहट जी तथा माता का नाम हंसा देवी था। बाल्यकाल से ही वे असाधारण कोटि के बालक थे। कार्तिक मास की कृष्ण अष्टमी सन् 1485 ई. में समराथल, बीकानेर में उन्होंने विश्नोई सम्प्रदाय की नींव डाली और मनुष्य के शुद्ध व मानवीय आचरण हेतु 29 (उन्तीस) नियमों की एक आचार संहिता तैयार की।सन्त जम्भो जी को उनके अनुयायी विष्णु का अवतार मानते हैं, स्वयं जम्भो जी ने भी अपनी बानियों में इस तथ्य का उल्लेख किया है। विश्नोई सम्प्रदाय के साहित्य में यह कथा प्रचलित है कि ‘‘जब नारायण ने नृसिंह अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी, उस समय प्रहलाद ने भगवान से एक वर माँगा था कि वे हर युग में जीवों के उद्धार हेतु अवतार लें। भगवान ने भक्त को वचन दिया और मत्स्यादि अवतार धारण करने वाले वही भगवान त्रेता में श्री रामचन्द्र द्वापर में श्रीकृष्ण और इसी अनुक्रम में कलयुग में जम्भो जी अवतरित हुए।’’ 2
जम्भो जी के समय मध्यकालीन समाज एक ओर तो धार्मिक व सामाजिक विसंगतियों और जड़ परम्पराओं से जूझ रहा था, दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता, विदेशी आक्रमण और संघर्ष जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर रहे थे। राजस्थान में जिस समय जम्भो जी का जन्म हुआ, उस समय दिल्ली में सिकन्दर लोदी का शासन था। वह अत्यन्त क्रूर और धर्मान्ध शासक था, जिसने हिन्दुओं पर मनमाने अत्यचार किए। सन्त कबीर को दी गई यातनाएँ उसकी क्रूरता की बानगी हैं। राजस्थान भी इस समय छोटी-छोटी रियासतों में बँटा था, चारों ओर निराशा और जड़ता का साम्राज्य था। ‘‘सारे प्रदेश में फूट पड़ी हुई थी। चारों ओर असत्य, छल और कपट का बोलबाला था। लोगों के दिमाग में मानसिक दुर्बलताओं ने घर कर लिया था तथा वे संशयी होकर अंध-विश्वासी और रूढ़िवादी हो गए थे। पाखण्डी लोग विभिन्न देवी-दवेताओं, भूत-प्रेतों एवं अदृश्य कल्पित शक्तियों का आश्रय लेकर लोगों को लूटने लग गए थे।’’3 इन प्रतिकूल स्थितियों में जम्भो जी मानवीय हितों के लिए चिन्तित दिखाई देते हैं। उनकी चिन्ता उन्हें कर्म क्षेत्र में लाकर लोक से जोड़ देती है। सन् 1485 में स्थापित विश्नोई सम्प्रदाय उनके इन्हीं सामाजिक सरोकारों का परिणाम कहा जा सकता है। इस सम्प्रदाय के लिए उन्होंने आचार संहिता के रूप में जो 29 नियम बनाए उनमें मानव के उद्धार के साथ प्राणीमात्र व प्रकृति रक्षा का भाव भी निहित है। उनके द्वारा बताए गए यह उनतीस नियम केवल विश्नोई संप्रद्राय के लिए ही उपयोगी नहीं हैं वरन मानव मात्र के लिए उपयोगी हैं। यह नियम बहुत व्यावहारिक और वैज्ञानिक हैं। इन नियमों की प्रासंगिकता आज के भौतिकवादी और मूल्य विशृंखलित युग में और अधिक बढ़ गई है।
ऐसा माना जाता है कि जिस समय उन्होंने विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की उस समय राजस्थान में भीषण अकाल पड़ा। जम्भो जी ने अकाल पीड़ितों की हर प्रकार से मदद की तथा पशु-पक्षियों, प्रकृति व पर्यावरण रक्षा के प्रति मनुष्य को सचेत किया। ‘‘जम्भो जी ने विपत्ति की इस घड़ी में अकाल पीड़ितों, विशेष रूप से बेजुबान पशुओं की रक्षा की और समस्त जीव रक्षा तथा समस्त जड़-चेतन पर्यावरण की रक्षा के लिए विलक्षण कार्य किया। राजस्थान में बार-बार पड़ रहे इन्हीं अकालों ने राजस्थानवासियों को पर्यावरण की रक्षा करना सिखाया।’’ 4
मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन एक व्यापक आंदोलन था, जिस ने सामान्य जन को सर्वाधिक प्रभावित किया। यद्यपि इस आन्दोलन का प्रादुर्भाव सुदूर दक्षिण में हुआ और रामानन्द जी इसे उत्तर भारत में लेकर आये तथा सन्त कबीर, दादूदयाल, नानक व रैदास आदि सन्तों के प्रयासों से यह उत्तर भारत में फला-फूलाकिन्तु सन्त जम्भेश्वर जी ने इस आन्दोलन को राजस्थान में एक सुनिश्चित दिशा देने का उल्लेखनीय कार्य किया। उस समय दिग्भ्रमित मनुष्य और विशृंखलित समाज का उचित मार्गदर्शन व उसे भले-बुरे के भेद से परिचित कराना सबसे ज्यादा जरूरी व महत् कार्य था। जम्भो जी के सम्पूर्ण प्रयास मनुष्य को मनुष्य बनाने व लोक कल्याण के लिए समर्पित थे।
मध्यकालीन सभी सन्त समाज में व्याप्त बाह्याडम्बरों और पाखण्डों के उन्मूलन के लिए प्रयासरत दिखाई देते हैं। जम्भो जी भी बाह्याडम्बरों से क्षुब्ध दिखाई देते हैं और उनका जमकर विरोध करते हैं। जातिगत भेदभाव व वर्गभेद ने तद्युगीन समाज के एक वर्ग को जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित, नारकीय जीवन जीने को विवश किया था। भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों ने जातिगत बन्धनों पर तीव्र प्रहार कर ईश भक्ति का द्वार सभी वर्गों के लिए खोलकर ‘जाति पांति पूछै नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’ की घोषणा की। जम्भो जी भी जात-पांत के विरोधी हैं। उनका विश्नोई सम्प्रदाय जातिभेद से ऊपर प्रत्येक जाति व धर्म के मनुष्यों का स्वागत करता है। इस सम्प्रदाय में हिन्दू, मुसलमान कोई भी दीक्षित हो सकता है, किन्तु जम्भो जी पाखण्डों के घोर विरोधी हैं। अपनी बानियों में वे हिन्दू और दोनों संप्रदायों की विसंगतियों पर प्रहार करते हैं।
कबीर की भांति ‘बहरा हुआ खुदाय’ कहकर जम्भो जी भी मुसलमानों को फटकारते हए कहते हैं कि अपने कर्म को पहचाने बिना मस्जिद पर चढ़कर जोर -जोर से ईश्वर को पुकारना केवल दिखावा है। तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे कर्मों को जानता है। जब तक तुम अपने बुरे कर्मों का त्याग नहीं करोगे तक यह नमाज पढ़ना व्यर्थ है -
रोजा रखना, नमाज पढ़ना आदि सभी उनकी दृष्टि में पाखण्ड हैं तथा हृदय व आचरण की शुद्धता ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है- ‘‘दिल साबित हज काबौ नेड़ौ, क्या अलबंग पुकारो।6’’
मुसलमानों की ही भाँति उस समय हिन्दू समाज भी अनेक विसंगतियों, जड़ रूढ़ियों और बाह्याडम्बरों में उलझा हुआ था। नाथपंथी योगियों के प्रभाव से मूड़ मूड़ना, कान में मुद्रा पहनना, जटाएँ बढ़ाना तथा जीव हिंसा आदि पाखण्ड निरन्तर बढ़ते जा रहे थे। हिन्दू धर्म में व्याप्त इन आडम्बरों की कबीर खबर लेते हुए कहते हैं-
जम्भो जी भी हिन्दू धर्म के इन बाह्याडम्बरों को देखकर चुप न रह सके। ब्राह्मणों में व्याप्त आडंबरों को देखकर वे कहते हैं कि तुमसे अच्छा तो कुत्ता है जो चोर के आने अपने स्वामी को जगा तो देता है। योगियों को खरी-खरी सुनाते हुए वे उनके पाखंडों व आडंबरों का विरोध करते हए कहते हैं-
मूड मुड़ाने वालों से जम्भेश्वर जी कहते हैं कि मात्र दिखाने के लिए मूड़ मुड़ाने से कोई लाभ नहीं। जब तक अन्तः करण शुद्ध व सात्विक न हो, ये सारे सांसारिक प्रपंच मात्र पाखण्ड व ढोंग है-
वे बाहरी आडंबरों और चमत्कार से सिद्धि चाहने वालों को कलाबाज कहते हैं। उनके अनुसार नग्न रहने, शरीर को कष्ट देने जैसे उपायों से भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती है – नाथ नागे जोग न पायो।
भक्तिकाल के अधिकांश संत तीर्थाटन के विरोधी हैं। जम्भो जी भी तीर्थाटन के विरोधी हैं। उनका कहना है कि सभी तीर्थ मनुष्य के हृदय में स्थित हैं, इसके लिए अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहींकिन्तु अज्ञान के कारण मनुष्य इसे पहचान नहीं पता और भटकता रहता है -
‘‘अठसठि तीरथ हिरदै भीतर बाहरि लोकाचारूँ।‘’10
जम्भो जी प्रकृति के पुजारी हैं। उन्होंने इस बात को अनुभव किया कि मनुष्य के विकास और अस्तित्व के लिए पर्यावरण व प्रकृति के विविध अवयवों में सामंजस्य अत्यंत आवश्यक है। उनका मंत्र है -जीव दया पालणी अर रुख लीलो नहीं घावै अर्थात हरे पेड़ को काटना व जीव हत्या दोनों ही घोर पाप हैं। उनके द्वारा प्रवर्तित विश्नोई संप्रदाय में हरे वृक्ष को काटना घोर पाप है। स्वयं जम्भो जी एक स्थल पर कहते हैं – ‘ सर काटे रुख रहें तो भो ससतो जान।’ इसका एक कारण यह भी है कि उनकी कर्म स्थली मरुप्रदेश राजस्थान रहा और उन्होंने बार-बार अकालों की विभीषिका को भी देखा। अतः उन्होंने अपनी आचार संहिता में वृक्षों व जीवधारियों की रक्षा को विशेष महत्त्व दिया। जीवहत्या के भीवे घोर विरोधी हैं। इस सम्बन्ध में वे मुसलमानों से कहते हैं - तुम्हारे किसी महापुरुष ने जीव हत्या नहीं सिखाई। अपना दोष छिपाने के लिए तुम किसी को बदनाम मत करो। तुम पशु को मारते समय उसकी पीड़ा से अनभिज्ञ रहते हो, अतः तुम्हारा नमाज पढ़ना, रोजा रखना ढोंग ही है। वास्तव में तुम इनके वास्तविक अर्थ को समझ ही न पाए -
प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव मनुष्य की मानवीयता को प्रकट करता है। जम्भो जी इस भाव को सर्वोपरि मानते हैं और निर्दयी मनुष्य को मानव विरोधी कहते हैं, जिसे कभी बैकुंठ नहीं मिल सकता-
सन्त जम्भोजी का मुख्य लक्ष्य मानव समाज का हित था, इसीलिए उनकी साधना पद्धति भी जन सामान्य के अनुकूल व्यावहारिक मानदण्डों पर आधारित थी। ‘‘किसी भी व्यक्ति, वस्तु, आस्था और विश्वास की सबसे बड़ी कसौटी वे व्यवहार को मानते हैं। उनके अनुसार करनी-कथनी में एकरूपता होना ही सबसे बड़ी व्यावहारिकता है।“13 वह व्यक्ति घोर पाखण्डी तथा परिवार व समाज के लिए हानि कारक है, जिसकी करनी-कथनी में भेद है-
वे मानव समाज को एक आदर्श समाज के रूप में देखना चाहते हैं, जहाँ दया, ममता, परोपकार, त्याग, सच्चाई, अहिंसा, प्रेम व ईमानदारी जैसे गुण विद्यमान हों। सम्पूर्ण भक्तिकाव्य में मनुष्य मात्र के लिए इन गुणों का होना आवश्यक माना गया है तथा अहंकार और अभिमान की सर्वत्र निन्दा की गई है। जम्भो जी भी मनुष्य के जनविरोधी कृत्यों का विरोध करते हुए उसे सत्कार्यों की प्रेरणा देते हैं-
जम्भो जी पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त के प्रबल समर्थक दिखाई देते हैं। जम्भवाणी में अनेकत्र चौरासी लाख यौनियों का उल्लेख मिलता है। उनका यह भी मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है- ‘भोमि भली किरसांण भी भलो।16
जम्भो जी की चिन्ताएँ अन्य सभी सन्तों की भाँति लोक के कल्याण से जुड़ी हैं, अतः उनकी साधना में शास्त्रीयता के स्थान पर लोक धर्म की प्रधानता है, जिसमें जटिलता के स्थान पर सरलता व सादगी है। उन्होंने भक्ति को आचार प्रधान बनकर जन-जीवन में प्रसरित किया। उनका लोकानुभव बहुत व्यापक व गहरा है। राजस्थान उनकी कर्मस्थली अवश्य है, परन्तु उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया और जन सामान्य के कष्ट निवारण के प्रयत्न किए। डॉ. रामखेलावन पाण्डेय का यह कथन यहाँ सत्य प्रतीत होता है कि ‘‘सन्त सुधारक नहीं थे। ऐसी कोई प्रतिज्ञा उन्हेांने स्वीकार नहीं की थी, किन्तु मनुष्य को, व्यक्ति को उन्होंने अवश्य सुधारने का सन्देश दिया और उनकी व्यक्ति साधना सामाजिक रूप ले सकी......। सामान्य जनता के जड़ीभूत जीवन में आशा प्रेरणा आस्था की चेतना का जागरण इन सन्तों द्वारा ही सम्भव हो सका।“17 सन्त जम्भेश्वर भी एक ऐसे ही साधक हैं, मानव ही नहीं प्राणीमात्र का हित उनकी साधना का प्रमुख अंग है। उन्होंने निर्भीकता से बाह्यआडम्बरों और पाखण्डों का विरोध कर मानव को शुद्ध आचारयुक्त जीवन जीने की प्ररेणा दी।
निष्कर्ष : इस प्रकार जम्भो जी मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के अग्रदूत हैं, जिन्होंने इस आंदोलन को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों व ऊँच -नीच का ही विरोध नहीं किया वरन मनुष्य की आंतरिक शुद्धता व चारित्रिक शुद्धता पर भी जोर दिया। आज भी हम सर्वत्र मूल्यों का क्षरण देख रहे हैं, नैतिकता, भाईचारा, प्रेम, दया, अपनापन, परोपकार, त्याग और सेवा भाव जैसे मूल्यों के स्थान पर स्वार्थ और अर्थ आसक्ति आधुनिक मनुष्य के लिए सर्वोपरि हैं।भौतिकता वाद का पोषक आज का मनुष्य स्वार्थ की आंधी दौड़ में निरंतर दौड़ रहा है और अहंकार के मद में अपने वास्तविक स्वरूप को भूलता जा रहा है। उसे यह गुमान है कि वह सर्वेसर्वा है, इसलिए पर्यावरण व प्रकृति का रक्षक नहीं भक्षक बन बैठा है। ऐसे प्रतिकूल समय में संत जम्भो जी की शिक्षाएं हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हमें जीवन और आचार के तरीके सिखाती हैं। उनका दर्शन केवल मनुष्य मात्र की भलाई तक सीमित नहीं है वरन पर्यावरण रक्षा, प्रकृति प्रेम,जीवों के प्रति दया व प्रेम का भाव उन्हें अन्य सन्तों से विशिष्ट बनाता है।
- सन्दर्भ :
- डॉ. सुदर्शन मजीठिया,सन्त साहित्य,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, सं. 1962, पृ. 360
- डॉ. सोहन राज तातेड़, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, जम्भेश्वर भगवान के सृष्टि को अवदान,साहित्यागार, चौड़ा रास्ता, जयपुर, सं. 2015, पृ. 16
- वही,
पृ. 18
- वही,
पृ. 38
- डॉ. किशना राम बिश्नोई, जम्भवाणी मूल संजीवनी व्याख्या,गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय प्रकाशन हिसार, सं. 1996, सबद 8/3,
पृ. 32
- वही,
सबद, 8/1, पृ. 29
- सं. श्याम सुन्दर दास, कबीर ग्रंथावली, साहित्यागार, चौड़ा रास्ता, जयपुर, सं. 2009, भेष का अंग, साखी, पृ. 110
- डॉ. किशना राम बिश्नोई, जम्भवाणी मूल संजीवनी व्याख्या,गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय प्रकाशन हिसार, सं. 1996, सबद 46/2,
पृ. 172
- वही,
सबद, 82/1, पृ. 301
- वही,
सबद, 62/2, पृ. 232
- वही,
सबद, 9/2, पृ. 35-36
- वही,
सबद, 18/1, पृ. 77
- डॉ. सोहन राज तातेड़, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, जम्भेश्वर भगवान के सृष्टि को अवदान, साहित्यागार, चौड़ा रास्ता, जयपुर, सं. 2015पृ. 107
- डॉ. किशना राम बिश्नोई, जम्भवाणी मूल संजीवनी व्याख्या,गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय प्रकाशन हिसार, सं. 1996,सबद 28/8,
पृ. 122
- वही,
सबद, 28/2, पृ. 119
- वही,
सबद, 28/5, पृ. 121
- डॉ. रामखेलावन पाण्डेय,मध्यकालीन सन्त साहित्य,हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, सं. 1965, पृ. 203
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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