- पल्लवी सोनी, प्रो. पाण्डेय राजीवनयन
शोध
सार :
कुंभकारी
कला
का
इतिहास
उतना
ही
प्राचीन
है, जितना
मानव
सभ्यता
का।
इसका
महत्त्व
जीवन
के
प्रत्येक
विकासक्रम
के
साथ
भारतीय
जीवन
दर्शन
सेभी
परिलक्षित
होता
है, जिसमे
वर्णित
है
कि
सागर मंथन में
प्रयुक्त
अमृत-कलश
विश्वकर्मा
द्वारा
रचित
प्रथम
कुंभ, घट
या
कलश
है।
वैसे
प्रमाणित
तौर
पर
इस
कला
की
शुरुआत
सिंधु
घाटी
की
सभ्यता
से
मानी
जाती
है।
सिन्धुघाटी
की
सभ्यता
एवं
उसके
पश्चात्
बौद्ध
काल
और
मुग़ल
काल से काले रंग
के
मृदभांडों
के
अवशेष
बहुतायत
में
प्राप्त
हुए
हैं।
सम्पूर्ण भारत वर्ष
के
विभिन्न
क्षेत्रों
की
पारम्परिक
कलाओं
का
अध्ययन
किया
जाए
तो
भिन्न-भिन्न
क्षेत्रों
मे
कुम्भकारी
लोककला
अपने
मौलिक
स्वरुप
के
साथ
विकसित
और
समृद्ध
हो
रही
है, जैसे-
निज़ामाबाद
के
काले
मृदभांड
की
कुम्भकारी
कला
सदियों
से
अपने
कलात्मक
सौन्दर्य
से
सबका
मन
मोह
रही
है
तथा
वर्तमान
में
भी
अपने
अस्तित्व
को
निश्चल
बनाये
हुए
है।
निज़ामाबाद
के
मृदभांड की कलाकृतियाँ
कुम्भकारों
के
तकनीकी
कौशल
के
कारण
पकने
पर
लाल
रंग
से
काले
रंग में परिवर्तित
हो
जाती
हैं
तथा
उसके
ऊपर
चाँदी
की
चमक
युक्त
आकर्षक
नक्काशी
की
जाती
हैं।
वर्तमान मे इस
कला
में
उपयोगी
एवं
सजावटी
दोनों
प्रकार
के
मृदभांड
की
कलाकृतियाँ
जैसे
- देवी-देवताओं
की
प्रतिमाएँ, लैम्पशेड, फूलदान
आदि
बनाये
जाने
लगे
हैं।
इस समय लगभग
150 स्थानीय कलाकार परिवार
निज़ामाबाद
के
काले
मृदभांड
की
कलाकृतियों
के
निर्माण
कार्य
में
संलग्न
है
तथा
विभिन्न
आधुनिक
माध्यमों
जैसे
– इन्टरनेट, इलेक्ट्रिक
चाक
आदि
से
इसके
बाज़ारीकरण
कोबढ़ावा
दे
रहे
हैं
और
विश्व
पटल
इसे
स्थापित
करने
में
अपनी
महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभा रहे
हैं।
सरकार
भी
इस
पारम्परिक
लोककला
को
समृद्ध
और
प्रगतिशील
बनाये
रखने
के
लिए
विभिन्न
योजनाओं
के
तहत
कलाकारों
के
लिए
प्रशिक्षण, कार्यशालाएँ, प्रदर्शनियाँ
आदि
का
आयोजन
कर
रही
है।
बीज
शब्द :
कुंभकारी
कला, निज़ामाबाद, काले
मृदभांड, पारम्परिक
लोककला।
मूल
आलेख :
सृष्टि
का
अविर्भाव
जिन
पंच
महात्त्वों
के
सम्मिश्रण
से
हुआ
है, उसमें
से
एक
है-
पृथ्वी
अर्थात्
मिट्टी।
हमारी
प्राकृतिक
संपदाओं
में
मिट्टी
का
सर्वोपरि
स्थान
है।
मिट्टी
को
जीवनदायिनी
की
उपाधि
से
अलंकृत
किया
जाता
है, अतः
इसी
जीवनदायिनी
मृदा
ने
मानव
का
प्रत्येक
विकास
क्रम
में
भरण
पोषण
किया
है
तथा
इसी
विकासात्मक
क्रम
में
पृथ्वी
के
अन्य
अवयवों
के
साथ
आदिकाल
से
यह
मानव
के
सृजनात्मक
तथा
अन्वेषणात्मक
भावनाओं
को
मूर्त
रुप
देने
का
माध्यम
भी
बनी
हैव
वर्तमान
काल
में
कुम्भकारी
कला
के
रूप
में
अपना
जीवंत
स्वरुपसंजोएहुए
हैं।
कुम्भकारी कला का
उल्लेख
प्रागैतिहासिक
काल
से
ही
प्राप्त
होना
प्रारंभ
हो
जाता
है, वैसे तथ्यात्मक
रूप
से
सिन्धु
घाटी
की
सभ्यता
से
इसकी
समृद्धकला
के
उदहारण
प्राप्त
होते
है।
सिन्धुघाटी
की
सभ्यता
से
प्राप्त
कुम्भकारी
कला
की
कृतियों
में
लाल
टेराकोटा
मृदभांडों
के
साथ
ही
काले
और
स्लेटी
रंग
के
मृदभांड
भी
प्राप्त
हुए
हैं,जिनके
ऊपरी
आवरण
पर
काला
रंग
प्राप्त
करने
के
लिए
उन्हें
चारों
तरफ
से
बंद
भट्टियों
में
पकाया
जाता
था
तथा
धुआँ
बाहर
न
निकल
पाने
के
कारण
मृदभांडों
पर
काले
रंग
का
प्रभाव
आ
जाता
था।
सिन्धु घाटी की
सभ्यता
से
प्राप्त
काले
रंग
के
मृदभांडों
की
तकनीकी
एवं
रंग-विधान
निज़ामाबाद
के
मृदभांडों
के
रचनात्मक
क्रिया-कलापों
के
सादृश्य
है।
अतःयह
कहा
जा
सकता
है
की
सिंधुघाटी सभ्यता में
अभ्युदित
काली
मृदभांडोंकी
कुंभकारी
कला
का
परिष्कृत
एवं
विकसित
स्वरूप
निज़ामाबाद
के
काले
मृदभांड
हैं, जिसका
विस्तारपूर्वक
विवरण
प्रस्तुत
शोध
पत्र
में
किया
गया
है।1
सिंधु
घाटी
सभ्यता
के
पश्चात्
काली
मृदभांड
कला
के
प्रमाण
उत्तर
वैदिक
काल, बौद्ध काल, मौर्य
काल, कुषाण
काल
एवं
गुप्त
काल
में
मिलते
हैं।
2. उपर्युक्त विभिन्न
कालों
में
ईसा
पूर्व
छठी
शताब्दी
के
बौद्ध
काल
में
सृजित
काली
मृदभांड
कला
सबसे
अधिक
प्रभावशाली
एवं
वैभवशाली
हुई
थी।
इन
मृदभांडों
को उत्तरी कृष्ण मार्जित
मृदभांड
या
काली
पॉलिशके मृदभांड भी
कहा
जाता
है।
भौगोलिक
प्रसार
की
दृष्टि
से
यह
पात्र
परंपरा
भारत
के
एक
विस्तृत
भू-भाग
मुख्य
रूप
से
उत्तर
प्रदेश
और
बिहार
में
फैली
हुई
थी।
प्रारंभिक
अवस्था
में
इन
पात्रों
की
खोज
1904-05 में सारनाथ (वाराणसी)
और
1911-12 में भीटा
(प्रयागराज) में
की
गई
थी
तथा
खोज
से
प्राप्त
इन
पात्रों
को
उत्कृष्ट
काले
चमकदार
पात्रों
के
रूप
में
वर्णित
किया
गया
था।
इस
काल
के
तक्षशिला
से
प्राप्त
पात्रों
के
29 टुकड़ों का अध्ययन
करने
के
पश्चात
पुरात्त्वविद
‘’मार्शल’’ ने इन्हें
यूनानी
काले
पात्र
के
समकालीन
पाया
और
यह बताया कि यह
पात्र
निर्माण
की
परंपरा
भारत
में
यूनानियों के आगमन से
प्रारंभ
हुई
होगी।
इस
काल
के
मृदभांड
प्राविधिक
दृष्टि
से
तत्कालीन
भारत
के
सर्वोत्तम
मृदभांड
थे, जिनका
सृजन
मिट्टी
को
अच्छी
तरह
से
गूंधकर
एवं
तैयार
करके
ऊँचे तापक्रम पर
चारों
तरफ
से
बंद
भट्टी
में
पकाकर
किया
जाता
था, तत्पश्चात
इन
मृदभांडों
के
ऊपर
गहरे
काले
रंग
से
लेकर
भूरे
रंग
तक
की
चमकदार
आभा
वाली
पॉलिश
की
जाती
थी।
इन मृदभांडों की
पॉलिश
को
लेकर
विभिन्न
विद्वानों
में
अलग-अलग
मत
है
-
· सनाउल्ला
के अनुसार
- इन पत्रों
पर
काली
पॉलिशका
प्रभाव
13%
लौह
युक्त
ऑक्साइड
(Ferrous
oxide) मिश्रित होने
के
कारण
आता
है।
· बी०
बी० लाल
का मत
है कि
- पात्र बनाते
समय
उसके
आवरण
पर
एक
विशेष
प्रकार
का
मिट्टी
का
घोल
लगा
दिया
गया
है।
· एच०
सी० भारद्वाज
के विचार
के अनुसार
- पात्रों के चमक
तथा
काले
रंग
का
कारण
मैगनेटिक
फेरस
सिलिकेट
तथा
कार्बन
है।
· हेगडे
के मतानुसार
- मैगनेटिक आक्साइड
की
पतली
परत
के
कारण
पात्र
काले-चमकीले
हो
गये
है।3
बौद्ध
काल
के
पश्चात्
काले
मृदभांड
की
कुम्भकारी
कला
गुप्तकाल
तक
अनवरत
सृजित
होती
रही, परन्तु
गुप्तकाल
के
बाद
मुग़ल
काल
में
ही
इसके
अंश
दृष्टिगत
होते
हैं।
भारत
में
मुग़ल
काल
का
प्रारंभ
16वीं
शताब्दी
1526 ई. में
बाबर
द्वारा
मुगल
सल्तनत
की
नींव
रखने
के
साथ
हुआ।
बाबर
के
पश्चात्
हुमायुँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब
नामक
शासकों
एवं
उनके
उत्तराधिकारियों
ने
पीढ़ी
दर
पीढ़ी
भारत
पर
सन1857
तक
राज
किया।
मुग़लकाल
में
विकसित
कला
किसी
धार्मिक
वर्ग
विशेष
के
प्रयत्नों
का
प्रतिफल
न
होकर
ऐसी
मिश्रित
कला
थी, जिसके
विशिष्ट
बाह्य
रूपों
की
रचना
प्रत्यक्षतः
अभारतीय
मूल
की
थी, किन्तु
भारत
मे
इनके
निर्माण
की
प्रक्रिया
में
ईरानी
कला
विषयक
ज्ञान
और
अनुभव
के
साथ
भारतीय
कलाकारों
का
भी
उल्लेखनीय
योगदान
था।
4. मुगलकाल में
अन्य
कलाओं
के
साथ
ही
काली
मृदभांड
कला
का
भी
उन्नयन
हुआ
था।
इस
समय
के
मृदभांडों
के
निर्माण
एवं
चित्रण
पद्धति
पर
ईरान
एवं
अरबी
कुम्भकारी
कला
की
तकनीकों, अलंकरणों
एवं
रंग
विधान
का
मूलतः
प्रभाव
पड़ा।
इस
समय
ईरान, ईराक, अरब
आदि
देशों
से
विभिन्न
उपयोगी
मृदभांडों
को
भारत
आयात
भी
किया
जाता
था।
मुगलकाल में
काली
मृदभांड
कला
का
अंकुरण
उत्तरप्रदेश
के
एक
छोटे
से
शहर
निज़ामाबाद
जो
वाराणसी
से
लगभग
100 किमी (62 मील)
उत्तर
में
स्थित
है, में हुआ। ऐसा
माना
जाता
है
कि निज़ामाबाद में काली
मृद्भाण्ड
कला
की
शुरुआत गुजरात राज्य से
हुई
है।
मुगल
बादशाह
औरंगजेब
के
काल
में
यहाँ
के
कुम्भकारों
के
वंशज“ अब्दुलफरह निज़ामाबादी”
के
साथ
गुजरात
से
निज़ामाबाद
आये
थे।
इसके साथ ही
कुछ
लोगों
का
यहमानना
है
कि
“काजी
जाफर”
नामक
एक
विख्यात
धनी
ज़मीदार, कच्छ
जिले
के
पाँच
कुम्भकारों
को
खज़नी
बाजार
जिला
गोरखपुर
में
लेकर
आये
थे
तथा
यहाँ
इन
कुम्भकारों
ने
हाथी
और
घोड़े
बनाने
भी
प्रारम्भ
कर
दिये
थे, परन्तु कुछ
दिनों
के
पश्चात्
इनमें
से
तीन
कुम्भकार
जोधी
का
पुरा
आजमगढ़
आ
गये, जिसमें
से
दो
कुम्भकार
काज़ी
घराने
के
साथ
निज़ामाबाद
मे
आकर
बस
गये
थे, जो
जौनपुर
के
मुग़ल
शहंशाह
के
अर्न्तगत
आता
था।
ये
कुम्भकार
मुख्य
रूप
से
पकी
लाल
मिट्टी
के
पात्र
जैसे-
ढेबरी, तुतुही, कुल्हढ़
आदि
बनाते
थे
तथा
इसके
साथ
ही
सजावटी
वस्तुओं
जैसे-
सुराही, फूलदान, तश्तरियाँ
आदि
का
भी
निर्माण
करते
थे, जो
कालीमृदभांड
कला
की
तकनिकी
के
मूर्त
स्वरुप
थे
।5
ये
मृदभांड
इन
कुम्भकारों
के
जीवकोपार्जन
का
माध्यम
था
जिन्हें
ये
कुम्भकार
नजदीक
के
कस्बों-गाँवों
में
विक्रय
करते
थे
तथा
बदले
में
उन्हें
अनाज
प्राप्त
होता
था।
ऐसा प्रतीत होता
है
कि
ये
कुम्भकार
मुगल
शासक
के
आदेशपर
मृदभांड
निर्मित करते थे, इन मृदभांडों
के
स्वरूप
व
अलंकरण
ईरानी
कला
परम्परा
से
प्रभावित
थी
अर्थात्
इन
पर
किये
गये
कलात्मक
कार्य
जिनमें
फूल-पत्तियों, बेल-बूटें
के
आलेखन
थे, वे
ईरान
से
आयातित
मृदभांडों
से
ग्रहण
किये
गये
थे।
निज़ामाबाद के कुम्भकारों
द्वारा
गढ़ित
ये
काले
मृदभांड
वर्तमान
समय
में
भी
अपने
पारंपरिक
कलात्मक
स्वरुपों
को
संजोते
हुए
पूरी
दुनिया
में
अपनी
अलग
विशिष्ट
पहचान
बनाने
में
सफल
हो
रहें
हैं।6
2. सम्बन्धित
साहित्य का
अध्ययन -
प्रस्तुत
शोध
पत्र
में
विषय
की
प्रासंगिकता
एवं
औचित्य
सिद्ध
करने
के
लिए
सर्वप्रथम
इस
विषय
से
सम्बन्धित
आलेखों, शोध-पत्रों
एवं शोध-पत्रिकाओं
आदि
का
अवलोकन
किया
गया
है, क्योंकि
इसी
अध्ययन
को
आधार
बनाते
हुए
प्रस्तुत
शोध
पत्र
के
लिए
उचित
विषय
अध्ययन क्षेत्र,उद्देश्य, शोध-प्रविधि
एवं
अध्ययन-योजना
का
निर्धारण
किया
गया
है।
अतः
अध्ययन
से
सम्बन्धित
आलेखों,
शोधपत्रिकाओं आदि के
निष्कर्षों
का
विवेचन
निम्नलिखित
है
-
2.1 बोस, हीरेन्द्रनाथ, (1958 ई0), की पुस्तक
“मृत्तिका उद्योग”, में
निज़ामाबाद
की
पात्रकला
विषय
पर
केवल
एक
परिच्छेद
लिखा
गया
है, जिसमे
यह
उल्लेखित
है
कि यहाँ के
मिट्टी
के
पात्रों
के
ऊपरी
सतह
पर
बिना
किसी
लेपके
ही
चमक
उत्पन्न
की
जाती
है।
यहाँ
के
पात्रों
को
पकाने
से
पहले
ही
उसके
आवरण
की
इतनी
घिसाई
की
जाती
है
कि उसमें शीशे सी
चमक
पैदा
हो
जाती
है
तथा
पकने
पश्चात्
भी
यह
चमक
बनी
रहती
है।
इसके
उपरान्त
उत्कीर्ण
अलंकरणों
के
स्थान
को
पारे
तथा
शीशे
के
मिश्रण
से
भरा
जाताहै, जो
इन
पत्रों
के
अलंकरण
को
चाँदी
जैसे
प्रभाव
देते
है
तथा
अत्यंत
मनमोहक
एवं
आकर्षक
प्रतीत
होते
हैं।7
2.2 धमीजाजैसलीन, (1970 ई0),की
पुस्तक
“इण्डियन फोक आर्ट्सएण्ड
क्राफ्ट”, में
निज़ामाबाद
की
पात्रकला का संक्षिप्त
मे
विवरण दिया है
और
लिखा
है
कि, गुजरात के
कच्छ
जिले
में
एक
विशेष
प्रकार
की
काली
मृदभांड
कला
विकसित
हुई
थी, जो
वर्तमान
में
उत्तर-प्रदेश
के
निज़ामाबाद
क्षेत्र
में
दृष्टिगत
होती
है।
यहाँ
के
मृदभांडों
के
ऊपरी
आवरण
पर
काबीज़
का
लेप
लगाकर
कम
तापक्रम
पर
पकाने
के
पश्चात्
विभिन्न
प्रकार
के
अलंकरण
में
चमकीली
भराई
की
जाती
है, जो
इस
कला
की
वैशिष्ट्य
है।8
2.3 गुप्ता, के.सी., (1988), की पुस्तक, “प्रोग्रेस
एँड
प्रोस्पेक्टस
ऑफ़
पॉटरी
इंडस्ट्री
इन
इंडिया”, मुख्य
रूप
से
उत्तर
प्रदेश, भारत
में
स्थित
मिट्टी
के
बर्तन
बनाने
के
उद्योगों
पर
केंद्रित
है
तथा
इसमें
उन
सभी
प्राथमिक
कारकों
की
व्याख्या
की
गयी
है, जो
इन
उद्योगों
को
प्रगतिशील
बनाने
में
सहायता
प्रदान
करते
है, जैसे-
उद्योगों
की
आधारभूत
संरचना, रोजगार, पॉटरी
निर्माण
की
प्रक्रिया
और
प्रचलन, कार्य-स्थिति
और
अन्य
सभी
जिम्मेदार
कारक।
लेखक
द्वारा
लिखित
यह
पुस्तक
इन
सभी
कारकों
को
वर्णित
करने
के
साथ
ही
उत्तर
प्रदेश
के
पॉटरी
उद्योग
को
समृद्धि
के
मार्ग
पर
लाने
के
लिए
एक
नया
दृष्टिकोण
भी
देती
है।9
2.4 मीडो. रिचर्ड
एच., (1991), ने अपनी
पुस्तक
‘हड़प्पा उत्खनन
1986-1990’, में हड़प्पाकालीन
शिल्पकला
के
विविध
आयामों
पर
प्रकाश
डालते
हुए, उस
काल
में
उच्चतम
तकनीक
से
निर्मित
और
सौंदर्यपरक
सिरेमिक
पत्रों
का
मुख्यरूप
से
वर्णन
किया
है।
इसके
साथ
ही
यह
पुस्तक
हड़प्पा
सभ्यता
की
सांस्कृतिक, आर्थिक
और
सामाजिक
इतिहास
का
भी
वर्णात्मक
विवरण
प्रस्तुत
करती
है।10
2.5 दानी और
मैसून, (1992), की पुस्तक, “हिस्ट्री
ऑफ़
सिविलाइज़ेशन
ऑफ़
सेंट्रल
एशिया”, में
लेखक
ने
सिंधु
घाटी
सभ्यता
में
उत्खनन
से
प्राप्त
मिट्टी
के
बर्तनों
का
संक्षेप
में
विवरण
प्रस्तुत
करते
हुए
बताया
है
कि सिन्धु सभ्यता
में
शोध
से
प्राप्त
आंकड़ों
के
आधार
पर
कहा
जा
सकता
हैकि
उस
काल
में
निर्मित
मिट्टी
के
बर्तन
आमतौर
पर
उपयोगी
उद्देश्यों
के
लिए
बनाए
जाते
थे
तथा
कुछ
बर्तनों
पर
ही
सज्जात्मक
कार्य
किया
जाता
था।
लेखक
ने
प्रस्तुत
पुस्तक
में
विभिन्न
प्रकार
की
पॉटरी
का
विस्तारित
रूप
से
वर्णन
करने
के
साथ
ही
सम्बंधित
पॉटरी
का
छायाचित्र
भी
प्रस्तुत
किया
है।11
2.6 पेरीमैन. जेन, (2000), की पुस्तक, “ट्रेडिशनल
पॉटरी
ऑफ
इंडिया”
में
उन्होंने
भारत
के
विभिन्न
हिस्सों
में
सृजित
किये
जाने
वाले
विभिन्न
प्रकार
के
मिट्टी
के
बर्तनों
का
विवरण
सम्मिलित
किया
है
जिसमे
निज़ामाबाद
के
बर्तनों
का
भी
विवरण
शामिल
है।
जेन
ने
अपनी
पुस्तक
में
न
केवल
मिट्टी
के
बर्तनों
के
रचनात्मक
पहलुओ
के
बारे
में
बताती
हैं, बल्कि
उन
समुदायों
के
संगठन
और
इतिहास
के
बारे
में
भी
बात
करती
हैं, जो
इन
उत्कृष्ट
कृतियों
को
बनाने
में
अमूल्य
योगदान
दे
रहे
हैं।
यह
पुस्तक
विभिन्न
मिट्टी
के
बर्तन
बनाने
वाले
समुदायों
की
कई
आकर्षक
तस्वीरें
प्रस्तुत
करती
है, जो
न
केवल
भावी
कुम्भकारों
को
मिट्टी
के
नवीन
स्वरूपों
को
रचित
करने
के
लिए
प्रेरित
कर
सकती
है, बल्कि
मिट्टी
के
बर्तन
बनाने
की
प्रक्रिया
के
विभिन्न
पारंपरिक
अवधारणाओं
से
उन्हें
परिचित
भी
करा
सकती
है।12
3. शोध
का औचित्य
- भारतीय पारम्परिक
लोक
कला
में
कुम्भकारी
कला
का
स्थान
सर्वोपरि
है।
इसकी
उपयोगिता
एवं
महत्त्वता
प्रागैतिहासिक
काल
से
अद्यतन
विद्यमान
है।
भारतीय
सामाजिक
जीवन
मूल्यों
तथा
धार्मिक
आस्था
का
यह
प्रतीक
है
और
इस
प्रतीक
के
रूप
में
आज
तक
इसका
महत्त्व
यथावत्
है।
सम्पूर्ण
भारत
के
विभिन्न
स्थानों
की
यह
कुम्भकारी
कला, भिन्न-भिन्न
शैलियाँ
एवं
विशेषताएँ
लिये
हैं
जैसे-
निज़ामाबाद
की
कुम्भकारी
कला
की
शैली
काले
मृदभांड
के
रूप
विश्वविख्यात
है
तथा
भारतीय
संस्कृति
और
परंपरा
का
महत्त्वपूर्ण
हिस्साहै।
उपयोगिता की दृष्टि से दैनिक
आवशकताओं
की
पूर्ति
के
लिए
विभिन्न
आकार-प्रकार
के
पात्र, कुल्हड़, चिलम
आदि
बनाना
होया
अनुष्ठानिकता
की दृष्टि से देवी-देवताओ
की
मूर्तियाँ, दीये
आदि
गढ़ना
हो, सभी में
निज़ामाबाद
की
काली
मृदभांड
कलाका
विशेष
महत्त्व
है
तथा
हमारी
इस
लोक
परंपरा
को
पीढ़ी
दर
पीढ़ी
निज़ामाबाद
में
संजो
के
रखनेमें
तथा
विश्व
स्तर
पर
इस
कला
को
स्थापित
करने
में
निज़ामाबाद
के
पारंपरिक
कुम्भकारों
का
भी
अमूल्य
योगदान
है।
अतः इस शोध
से
प्राप्त
निष्कर्षों
से
जहाँ
एक
ओर
निज़ामाबाद
की
काली
मृदभांड
कला
के
विविध
आयामों
के
महत्त्व
के
प्रति
साधारण
जनमानस, शोध
छात्र-छात्राओं
का
ज्ञानवर्धन
होगा, वहीँ
दूसरी
तरफ
यहाँ
के
पारंपरिक
कुम्भकारों
के
भविष्य के
लिए, उनके
समग्र
विकास
के
लिए
तथा
इस
कला
के
उन्नयन
के
लिए
अनेक
योजनाओं
का
सृजन
करनें
में
भारत
सरकार
को
भी
मदद
मिलेगी।
4. शोध
समस्या मे
प्रयुक्त शब्दावलियों
की परिभाषाएँ
-
4.1
पारंपरिक कुम्भकारी
कला :
प्रस्तुत
शोध
पत्र में पारंपरिक
कुम्भकारी
कला
से
तात्पर्य
पारंपरिक
रूप
से
पीढ़ी
दर
पीढ़ी
कुम्भकारों
द्वारा
सृजित
मिट्टी
की
कलाकृतियों
जैसे-
पात्र, खिलौने, मृण्मूर्तियों
आदि से है। मृदभांड
कला, माटीशिल्प, माटीकला, मृतिकाशिल्प, कुम्हारी
कला आदि यह सब
कुंभकारी
कला
के
ही
समानार्थी
नाम
है।
4.2 पारंपरिक कुम्भकार
: प्रस्तुत शोध
पत्र
में
पारंपरिक
कुम्भकारों
से
तात्पर्य
मिट्टी
के
पात्र
या
कलाकृतियों
को
निर्मित
करने
वालों
से
है।
4.3 काली
मृदभांड कलाकृतियों
: प्रस्तुत शोध
पत्र
में
काली
मृदभांड कलाकृतियों से
तात्पर्य
ऐसी
कलाकृतियों
से
हैं, जो
तालाब
की
चिकनी
मिट्टी से निर्मित
होती
हैं
तथा
बंद
भट्टी
में
पकने
के
पश्चात्
उनका
रंग
काला
हो जाता है।
4.4 विविध
आयाम :
प्रस्तुत
शोध
पत्र
में
विविध
आयाम
सेतात्पर्य
निज़ामाबाद
की
पारंपरिक
कुम्भकारी
कला
की
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के
सृजन
में
समावेशित
तकनीकी
और
प्रचलित
पद्यतियों
के
साथ
निज़ामाबाद
के
कुछ
प्रमुख
पारंपरिक
कुम्भकारों
के
योगदानों
एवं
सरकारी
संस्थाओं
के
सहयोग
के
अध्ययन
से
है।
5. उद्देश्य : प्रस्तुत
शोधपत्र
का
मुख्य
उद्देश्य
उत्तर
प्रदेश
के
निज़ामाबाद
क्षेत्र
की
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के
विविध
आयामों
का
विशेश्नात्मक अध्ययनकरना
है
-
5.1
निज़ामाबाद
के
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के
सृजन
में
समावेशित
तकनीकी
तथा
प्रचलित
पद्धतियों
का
अध्ययन
करना
-
5.1.1
मिट्टी
की
तैयारी
एवं
चाक
द्वारा
निर्मित
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
की
निर्माण
प्रक्रिया
का
अध्ययन
करना।
5.1.2
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
पर
काबिज
लगाने
की
विधि
का
अध्ययन
करना।
5.1.3
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
पर
विभिन्न
आकृतियों
को
उत्कीर्ण
करने
की
विधि
का
अध्ययन
करना।
5.1.4
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
को
आग
मे
पकाने
की
प्रक्रिया
का
अध्ययन
करना।
5.1.5
पात्रों
पर
उत्कीर्ण
अलंकरणों
की
भराई
की
विधिका
अध्ययन
करना।
5.2
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के
विविध
स्वरुपों
का
अध्ययन
करना।
5.3
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
मे
आने
वाले
नवाचार
का
अध्ययन
करना।
5.4
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के
बाजारीकरण
का
अध्ययन
करना।
5.5
समकालीन
निज़ामाबाद
के
पारम्परिक
कुम्भकारों
का
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
को
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
महत्त्व
दिलाने
में
कुम्भकारों के योगदान
एवं
सरकारी
संस्थाओं
के
सहयोग
का
अध्ययन
करना।
6. शोध
प्रविधि -
प्रस्तुत
शोध
पत्र
का
प्रकार
गुणात्मक
तथा
विधि
वर्णनात्मक
है।
यह
शोध
पत्र
प्राथमिक
तथा
द्वितीयक
प्रकार
के
समंकों
पर
आधारित
है।
जिसमें
निज़ामाबाद
के
50 कुम्भकारों को
संभावित
उद्देश्यपूर्ण
न्यादर्श
विघि
द्वारा
चयनित
करके
उनसे
साक्षात्कार
उपकरण
से
तथा
उनके
द्वारा
सृजित
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
का
अवलोकन
उपकरण
से
किये
गये
व्यक्तिगत
सर्वेक्षण
से
तथा
शोध
विषय
से
संबंधित
आलेखों, पत्रिकाओं
एवं
पुस्तकों
से
जानकारियाँ
एकत्रित
की
गई
है।
इसके
अतिरिक्त
विभिन्न
वेबसाइट
से
भी
जानकारियाँ
ली
गई
है।
7.
निज़ामाबाद
के
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के
सृजन
में
समावेशित
तकनीकी
तथा
प्रचलित
पद्धतियों
का
विश्लेषण
-
7.1
मिट्टी
की
तैयारी
एवं
चाक
द्वारा मृदभांड
कलाकृतियों
की
निर्माण
प्रक्रिया
-
निज़ामाबाद
के
कुम्भकार काली मृदभांड
कलाकृतियों
के
स्वरुप
को
मूर्त
रूप
देने
के
लिए
सर्वप्रथम
फत्थलपुर
और
मिथनपुर
क्षेत्र
(निज़ामाबाद से
2 कि०मी०दूर) के
तालाब
से
चिकनी
एवं
बलुई
मिट्टीला
कर
सुरक्षित
स्थान
पर
संगृहीत
करते
हैं।
ये कुम्भकार मुख्यतः अप्रैल
व
मई
माह मेंही मिट्टी
के
संग्रहण
का
कार्य
कर
लेते
हैं तथा साल
भर
इसी
मिट्टी
का
प्रयोग
काले
मृदभांडों
को
निर्मित
करने
के
लिए
करते
हैं।
तत्पश्चात मिट्टी की
सफाई
का
कार्य
किया
जाता
है, जिसमे पत्थर
या
कंकड़
जैसे
अनावश्यक
पदार्थों
को
छाँट कर अलग
कर
दिया
जाता
है
तथा
मिट्टी
के
लचीलेपन
में
वृद्धि
करने
के
लिए
उसे
सीमेंट
से
निर्मित
एक
पक्के
गड्ढे
में
पानी
डाल
कर
दो
से
तीन
दिनों
तक
भिगोते
हैं।
सारी रात भिगोंकर रखने
से
मिट्टी
फूल
जाती
है
तथा मिट्टी के
फूलने
के
पश्चात्
लोहे
एवं
लकड़ी
से
निर्मित
जाली
की सहायता से
एक
दूसरे
गड्ढे
में
उसकी
छनाई
करते
हैं।
छानने
के
पश्चात्
मिटटी को सूखे
स्थान
पर
रख
दिया
जाता
है, जिसके
बाद
कुम्भकार हाथ एवं
पैर
से
गूंधकर
मिट्टी को लौंदा
जैसा
तैयार
करते
हैं।
इस
प्रकार
बने
मिट्टी के लौंदे
को
पुराने कपड़े, पोलीथिन
या
जूट
के
बोरे
से
ढँक
कर
रख
देते
हैं, जिससे
मिट्टी
में
नमी
की
मात्रा
कम
नही
होती
है।
मिट्टी
को
पूर्ण
रूप
से
उपयोगी
बनाने
में
लगभग
22 से 25 दिन का
समय
लगता
है।
मिट्टी
के
मृदभांडों
का
स्वरुप
चाक
पर
गढ़ा
जाता
है।
यहाँ
के
कुम्भकार
दो
प्रकार
के
चाक
का
प्रयोग
करते
हैं
1. चुनार पत्थर
से
हस्तनिर्मित
पारम्परिक
चाक
जिसका
प्रयोग
ये
कुम्भकार कई पीढ़ियों
से
कर
रहे
हैं
तथा
2. आधुनिक विद्युत
चालित
चाकजिसका
प्रयोग
वर्तमान
समय
में
प्रत्येक
कुम्भकार
द्वारा
वृहद्
रूप
में
किया
जा
रहा
है,जिसका
कारण
एक
विद्युत
मोटर
में
तीन
से
चार
चाक
एक
साथ
चला
सकना
हैं, जिससे मृदभांडों
की
उत्पादकता
बढ़ जाती है। इसके
पश्चात्
मिट्टी
के
लौंदे
को
चाक
पर
रखकर
मृदभांडों
का
निर्माण
किया
जाता
है।
इस
सम्पूर्ण
प्रक्रिया
में
कुम्भकार
उँगलियों
व
कुशल
हाथों
के
कौशल
से
भिन्न-भिन्न
आकार
के
मृदभांड
तैयार
करते
हैं।
मृदभांडों
को
चाक
पर
आवश्यकतानुसार
रूप
देने
के
लिए
कुम्भकार
अपने
हाथों
को
पानी
से
भिगों-भिगों
कर
उनके
ऊपरी
सतह
पर
उँगलियों
से
दबाव
देते
हुए
भिन्न
आकार
देते
हैं
तथा
इसके
पश्चात्
कुम्भकार
चलते
हुए
चाक
से
छेवन
उपकरण
के
प्रयोग
द्वारा
मृदभांड को चाक
से
अलग
करते
है।
इन
पात्रों
को
घर
के
अंदर
सूखने के लिए
रख
दिया
जाता
हैं।
जब
ये
मृदभांड
लगभग
आधे
सूख
जाते
हैं, तब
इन
पात्रों
को
फिर
सेचाक
के
बीच
में
रख
कर
सुतुहा
उपकरण
के
माध्यम
से
सावधानी
बरतते
हुए
मृदभांडों
की
छिलाई
की जाती है और
घोंट
नाम
के
पत्थर
से
मृदभांड
की
सतह
को
रगड़कर
चिकना किया जाता
है।
कुम्भकार
इस
प्रकार
तैयार
मृदभांडों
को
सूखने
के
लिए
धूप
में
रख
देते
हैं।13
7.2 काबिज
लगाने की
विधि -
निज़ामाबाद
की
काली
मृदभांड
कलाकृतियोंके
सृजन
का
अगला
महत्त्वपूर्ण
चरण
है, उनपर
काबिज
मिट्टी
से
निर्मित
घोल
का
आवरण
लगाना।
निज़ामाबाद के कुम्भकार
इस
घोल
को
बनाने
के
लिए
बड़े
तालाब
या
चावल
के
खेत
में
पाई
जाने
वाली
लाल व पीली
मिट्टी, जिसे
“अड़छी” कहते हैं, आम
के
पेड़
की
छाल, अढुस
की
पत्ती,बाँस
की
पत्ती
व
रेह
मिट्टी
को
पानी
के
साथ
मिश्रित
करके
तैयार
करते
हैं
तथा सभी सामग्रियों
को
बड़े
स्थान
पर
24 घण्टे भिगों के
रखते
हैं
और
दूसरे
दिन
जब
मिट्टी
का
घोल
फूल
जाता
है, तब
उसे
ओखली
में
कूटकर
धूप
मे
सूखने
के
लिए
रख
देते
हैं।
सूखने के पश्चात्
इस
तैयार
काबिज
मिट्टी
को
आवश्यकतानुरूप
जब
बर्तनों
पर
उपयोग
करना
होता
है, तो
घर
की
महिलाएँ
पुनः इसे ओखली
की
सहायता
से
लगभग
एक
घण्टे
तक
कूटती
है
और
इसके
बाद
घोल
के
रूप
में
बनाने
के
लिए
इसमें
आवश्यकतानुसार
पानी
मिश्रित
किया
जाता
है
तथा
चिकना
करने
के
लिए
सूती
कपड़े
से
छाना
जाता
है, अतः
इस
प्रकार
तैयार
इस
काबिज
मिट्टी
के
घोल
को
बर्तन
के
ऊपर
डाल
कर
या
बर्तन
को
उस
घोल में डुबोकर
लगाया
जाता
है।
सूखने
के
बाद
इन
बर्तनों
के
ऊपर
घर
की
महिलाएँ
हाथों
से, कपड़े
या
मलमल
से
सरसों
के
तेल
की
पॉलिश
करती
हैं, जिससे इन
मृदभांडों
पर
अदभुत
चमक
उत्पन्न
हो
जाती
है
।14
7.3 काली
मृदभांड कलाकृतियों
पर विभिन्न
आकृतियों को
उत्कीर्ण करने
की विधि
- काबिज सम्बंधित
कार्य
के
पश्चात्
बिना
किसी
पूर्व
रेखांकन
के
सीधे
ही
इनपात्रों
पर
छाते
की
तीली
या
लोहे
के
नुकीले
उपकरण
से
भिन्न-भिन्न
प्रकार
के
अलंकरणों
को
आवृत्ति
के
आधारपर
उत्कीर्ण
किया
जाता
है।
मुख्य
रूप
से
प्राकृतिक
वातावरण
से
प्रेरित
फूल-पत्तियों, पशु-पक्षियों
और
पारम्परिक
आभूषणों
से
प्रेरित
विभिन्न
आकारों
को
अलंकरण
के
रूप
में
बनाया
जाता
हैं।
इसके
साथ
ही
ज्यामितिक
आलेखन
जगह-जगह
पर
जरुरत
के
अनुसार
उकेरे
जाते
हैं।
निज़ामाबाद
के
पत्रों
पर
उकेरे
जानेवाले
इन
अलंकरणों
पर
मुग़ल
काल
के
समय
काल से निर्मित
होने
वाले
ईरानी
पद्धति
के
पात्रों
का
प्रभाव
पूर्णतः
दृष्टिगत
होता
है।
यहाँ के कुम्भकार
फूलदान, पात्र
आदि
पर
मुख्य
रूप
से
ईरानी
पद्धति
से
प्रेरित
नक्काशियों
का
ही
प्रयाग
करते
हैं।15
इन पात्रों पर उत्कीर्ण अलंकरणों के कुछ मुख्य प्रकार इस प्रकार है –
प्राकृतिक वातावरण से प्रेरित अलंकरण |
पारंपरिक आभूषणों से प्रेरित अलंकरण |
तीन गोडवा |
चेन |
अलंकृतहंस |
पायल |
मच्छी का चोइटा, |
फुरहरी |
जाल |
जावा |
फूल- कमल , सूर्यमुखी आदि |
लौंग |
बेल |
कौड़ी |
7.4 काली
मृद भांड
कला कृतियों
को आग
मे पकाने
की प्रक्रिया
- निज़ामाबाद के
काले
मृद्भाण्ड
के
निर्माण
का
अंतिम
महत्त्वपूर्ण
चरण
इसको
पकाने
की
प्रक्रिया
है।
इसी
प्रक्रिया
के
द्वारा
इन
पत्रों
का
रंग
काला
एवं
चमकीला
निखर
के
आता
है।
मृदभांडों को पकाने
के
लिए
सर्वप्रथम
आवाँ
तैयार
किया
जाता
है, जिसके
लिए
तीन
से
चार
फुटचौड़ा
गड्ढा
बनाया
जाता
है, जो
हर
तरफ
से
ईंटों
से
बँधा
होता
है।
इस
गड़ढे
में
प्रथम
स्तर
पर
कण्डा
या
उपला
रखा
जाता
है, फिर
उसे
हर
तरफ
से
लोहे
के
महीन
तार
से
बँधा
दिया
जाता
है।
तार
से
बँधे
होने
के
कारण
इसका
प्रयोग
कई
बार
किया
जा
सकता
है, तत्पश्चात्
इसके ऊपर मिट्टी
की
एक
मोटी
परत
चढ़ाई
जाती
है।
फिर
इस
भट्टी
के अन्दर उपले
के
छोटे-छोटे
टुकड़े
को
डाला
जाता
है
तथा
काबिज
लगे
व
उत्कीर्ण
मृदभांडों
को
उपले
के
टुकड़ों
के
साथ
रख
दिया
जाता
है।
अंत में इन
मृदभांडों
के
ऊपर
बकरी
की
लेंड़ी
डाल
देते
हैं, जिसकी
गैस
से
मृदभांड
के
ऊपरी
सतह
पर
काला
एवं
चमकीला
प्रभाव
आ
जाता
है।
गड्ढा
भरने
के
पश्चात्
लोहे
की
कढ़ाई
से
उसका
मुँह
बंद
कर
दिया
जाता
है।
गड्ढे
के
चारों
तरफ
खुले
हिस्सों
को
गोहरी
से
बंद
कर
देते
हैं
तथा
फिर
से
खपड़े
केटुकड़ों
को
भी
रख
देते
हैं, जिससे
तैयार
भट्टी
से
हवा
बाहर
न
जा
सके
तथा
तापमान
स्थिर
बना
रहे
है।
पात्र
को
पकने
में
लगभग
15 से 20 घण्टे लगते
हैं, अतः
कुम्भकार
रात
भर
पात्रों
को पकने के
लिए
भट्टी
में
छोड़
देते
हैं।
भट्टी
ठंडी
होने
पर
कुम्भकार
पात्रों
को
आवों
से
बाहर
निकल
लेता
है।16
7.5 पात्रों
पर उत्कीर्ण
अलंकरणों की
भराई की
विधि -
पूर्णतः
पके
मृदभांडों
को
भट्टी
से
निकालने
के
पश्चात्
उत्कीर्ण
स्थान
में
राँगा, पाराएवं
सीसा
के
सम्मिश्रण
से
भराई
का
कार्य
किया
जाता
है।
सर्वप्रथम
रांगे
व
सीसे
को
एक
पात्र
में
गर्म
करके
तरल
बनाते
है।
इसके
बाद
दबकना
उपकरण
से
दबाकर
पतले
शीट
जैसा
बनाने
के
पश्चात्
हथौड़ी व निहाई
से
पीट-पीट
कर
बारीक
पाउडर
के
रूप
में
तैयार
कर
लेते
हैं।
इस
तैयार
पाउडर
के
साथ
तरल
पारा
को
मिश्रित
किया
जाता
हैं
तथा
हाथ
के
अँगूठे
के
द्वारा
उत्कीर्ण
अलंकरण
में
दबा-दबा
कर
भर
दिया
जाता
है
जिसे
वहाँ
के
कुम्भकार
अपनी
भाषा
में
भराई
कहते
हैं।ऐसा
माना
जाता
है किनिज़ामाबाद के
मृदभांडों
के
अलंकरणों
की
भराई
की
प्रक्रिया
हैदराबाद
के
बीदरी
धातु
कला
के
अलंकरणों
की
भराई
प्रक्रिया
के
साम्य
है
तथा
भारत
में
मुसलमानों
के
द्वारा
लायी
गयी
है।पहले
के
कुम्भकार
इन
नक्काशियों
में
चाँदी
की
भराई
करते
थे, परन्तु धीरे–धीरे
चाँदी
महँगी
होने
के
कारण
यहाँ
के
कुम्भकार
पारे
के
मिश्रण
का
प्रयोग
करने
लगे।17
7.6 काली मृदभांड कलाकृतियों के विविध स्वरुपों का विवरण - यहाँ के कुम्भकार विविध स्वरुपों में उपयोगी एवं सजावटी दोनों प्रकार की काली मृदभांड कलाकृतियों का सृजन अपने कलात्मक कौशल द्वारा करते हैं। यहाँ पर सजावटी काले रंग की कलाकृतियों का निर्माण उपयोगी काले पात्रों से ज्यादा मात्र में होता है, क्योकि काली मृदभांड कलाकृतियों में उच्च तापमान को सहने की क्षमता कम होती है। काली मृदभांड कलाकृतियों के उपयोगी एवं सजावटी स्वरुपों विवरण निम्नवत है -
उपयोगिता आधारित |
सजावटी |
स्टैंड कप |
शंख दीप |
नदिया ढक्कनदार |
पौध गमला |
पात्र- गिलास और प्लेट, स्टैंड कप्स, टी-सेट |
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ |
हुक्का और चिल्लम |
टी लाइट |
आइसक्रीम पॉट्स |
फ्लावर पॉट |
कारवा |
पेडेस्टल बर्ड बाथ |
तेल रखने के पात्र |
टेबल लैंप बेस |
उर्ली |
नारियल रूपी दीपक |
8. नवाचार -
परिवर्तन
ही
प्रकृति
का
नियम
है, अतः
निज़ामाबादके
कुम्भकारों
ने
भी
धीरे-धीरे
समय
के
परिवर्तन
के
साथ
तथा
बाज़ार
की
मांग
के
अनुरूप
इस
कला
के
विभिन्न
आयामों
के
नवाचार
को
स्वीकारा
है
तथा
अपने
कला
कौशल
और
शैली
से
नए-नए
प्रयोग
भी
किये
हैं।
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
के विभिन्न आयामों
के
नवाचार
निम्नवत है -
8.1 काली
मृदभांड कलाकृतियों
के स्वरूपों
में नवाचार
- निज़ामाबाद
के
कुम्भकर
सदियों
से
एक
सामान
आकारों
और
अलंकरणों
का
प्रयोग
करते
आ
रहे
थे, परन्तु
वर्तमान
समय
के
कुम्भकारों
में
अँकुरित
अन्वेषणात्मक
प्रवित्तियों
ने
उन्हें
नवीन
स्वरूपों
के
सृजन
के
लिए
प्रेरित
किया
तथा
उन्होंने
विभिन्न
प्रकार
की
नवीन
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
का
निर्माण
करना
प्रारंभ
कर
दिया, जैसे- पहले ये
कुम्भकार
हत्थे
तथा
स्टैंड
सहित
मृदभांडों
का
निर्माण
करते
थे, परन्तु वर्तमान
समय
में
जिन
मृदभांडों
में
हत्थे
तथा
स्टैंड
की
आवश्यकता
नहीं है,
उसमें
ये
कुम्भकार
इन्हें
नहीं लगा रहे
हैं।
8.2 अलंकरण में
नवाचार - बाज़ार के
बढ़ते
मांग
के
कारण
यहाँ
के
कुम्भकार
मृदभांडों
के
ऊपरी
आवरण
पर
अलंकरण
को
सरल
बनाने
के
साथ
ही
अन्य
कलाओं
के
आकारों
का
भी
प्रयोग
कर
रहे
हैं, जैसे-
वर्ली
कला
के
आकारों
का, पशु-पक्षियों आदि
के
नवीन
आकारों
का
आदि।
8.3 रंग विधान में
नवाचार - रंगों का
प्रयोग
निज़ामाबाद
के काले मृदभांडों पर मुख्यतः न
के
बराबर
किया
जाता
है
तथा
ये
मृदभांड
या
तो
काले
रंग
के
होते
हैं
या
लाल
परन्तु
मृदभांडों
को और अधिक
आकर्षक
बनाने
के
लिए
कुछ
कुम्भकार
आधुनिक
रंगों
जैसे- इनेमलपेंट, वार्निश
आदि
का
प्रयोग
वर्तमान
में
कर
रहे
हैं।
9. काली मृदभांड
कलाकृतियों का
बाजारीकरण - निज़ामाबाद की
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
का
बाजारीकरण
दो
प्रकार
से
किया
जाता
है
-
9.1 प्रत्यक्ष विपणन
के आधार
पर - प्रत्यक्ष विपणन
के
अंतर्गत
प्रदर्शनी
एवं
मेले
आते
हैं।
निज़ामाबाद
के
कुम्भकार
सरकारी
योजनाओं
एवं
एन.जी.ओ.
आदि
के
सहयोग
से
विभिन्न
स्थानों
पर
आयोजित
प्रदर्शनी
एवं
मेले
में
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
को
विक्रय
करने
के
लिए
जाते
हैं।
इसके
अलावा
कुछ
कुम्भकार
घर से ही
खरीददारों
से
संपर्क
करते
हैं
तथा
खरीददार
स्वयं
इनके
घर
आकर
अपनी
जरूरत
के
अनुसार
मृदभांडों
को
खरीदकर
ले
जाते
हैं।
9.2 अप्रत्यक्ष विपणन
के आधार
पर - अप्रत्यक्ष विपणन
के
अंतगर्त
निर्धारित
ग्राहक
एवं
खरीददार
द्वारा
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
का
विक्रय
किया
जाता
है, जिसमे
कुम्भकार
अपने
निर्धारित
ग्राहक
एवं
खरीददारों
से
उनकी
आवश्यकतानुसार
मृदभांडों
के
अलंकरण
एवं
आकारों
को
तैयार
करके, वृहद्
मात्रा
में
जैसे- 5,000 से
50,000 तक निर्मित
करके
एक
साथ
निर्यात
करते
हैं, जैसे-
यहाँ
के
कुम्भ्कारों
के
कुछ
ग्राहक
वाडीलाल, कैंसर
ऐड
एसोसिएशन, मुंबई
आदि
हैं।
10. निज़ामाबाद
की
काली
मृदभांड
कलाकृतियों
का राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
महत्त्व
एवं
सरकारी
संस्थाओं
के
सहयोग
का
विवरण
-
10.1
भारत
वर्ष
की
प्रत्येक
पारंपरिक
लोक
कला
यहाँ
की
संस्कृति, सामाजिकता
एवं
आर्थिक
उन्नतिका
प्रतिबिम्ब
होती
है।
अतः
निज़ामाबाद
की
काली
मृदभांड
कला
भी
प्रत्येक
समाज
के
पर्व-त्योहार,रीति-रिवाज, संस्कार, अनुष्ठान
एवं
गृह
सजावट
का
अभिन्न
अंग
है
तथा
वर्तमान
बदलते
परिदृश्य
में
भी
यह
अपनी
परंपरागत
कला
शैली
के
साथ
परिष्कृत
रूपों
में
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
अपने
महत्त्व
को
परिलक्षित
कर
रही
है।
निज़ामाबाद के कुम्भकारों को
उनके
द्वारा
रचित
विशेष
एवं
सौन्दर्य
पूर्ण मृद्भाण्ड कला के
लिए
19वीं
शताब्दी
के
उत्तरार्ध
से
ही
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
महत्त्व
मिलना
प्रारंभ
हो
गया
था
तथा
सन
1867
में
वायसराय
ने
इन्हें
काली
मृदभांड
कला
से
प्रभावित
होकर
सम्मानित किया था। एक विशेष
प्रदर्शनी
में
निज़ामाबाद
के
मुन्ना, झिंगुर
राम और नोहर
राम
कुम्भकारों
ने
अपने
मृद्भाण्ड
को
प्रदर्शित
किया, जिसके
पश्चात्
इन्हें
पुरस्कार
स्वरूप
चाँदी के सिक्के, प्रमाण
पत्र
और
ढाई
भर
सोने
का
बिल्लादिया
गया।
तत्कालीन
समय
के
निर्मित
मृद्भाण्ड
आगरा
के
संग्राहलय
में
आज
भी
भारतीय
विरासत
के
रूप
में
संगृहीत
हैं।
लन्दन में सन1871
में
आयोजित
एक
विशेष
कला
प्रदर्शनी
में
निज़ामाबाद
के
कुम्भकार
झींगुर
राम
ने
अपनी
उपस्थिति
दर्ज
कराई
थी।
इसी
क्रम
में
सन 1971
में
लन्दन
में
पुनः एक
कला
प्रदर्शनी
का
आयोजन
हुआ, जिसमे
निज़ामाबाद
के
दो
कुम्भकारों
को बुलाया गया
तथा
उनके
द्वारा
सृजित
कार्य
आज
भी
लन्दन
में
संगृहीत
हैं।
इसके
साथ
ही
यहाँ
के
कुम्भकारों
ने
स्वीडन, नार्वे
तथा
कोपेनहेगेन
में
अपनी
कला
का
प्रदर्शन
किया
है।
वर्तमान समय में
हुसैनाबाद
निज़ामाबाद के श्री स्व. राजेन्द्र
प्रसाद प्रजापति एवं उनकी पत्नी श्रीमती कल्पदेवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से
सम्मानित
किया
गया
था।
राज्य स्तर के
पुरस्कार
में कुम्भकार जियाऊ
राम
को
लखनऊ
में
आयोजित
प्रदर्शन
में
हाथ
से
बने
मृद्भाण्डों
के
लिए
पुरस्कृत
किया
गया
था।18
10.2 सरकारी सहयोग
- भारत
सरकार
ने
निज़ामाबाद
की मृद्भाण्ड
कला
को
भौगोलिक
उपदर्शन
(Geographical
Indication) के अंतर्गतसन
2015 में सम्मिलित
किया, जिसका
मुख्य
उद्देश्य
इस
कला
का
संरक्षण
एवं
चहुँमुखी
विकास
था।
इस भौगोलिक उपदर्शन
में
रजिस्ट्रेशन
के
पश्चात्
अक्टूबर
2015 में स्विट्ज़रलैंड
के
जेनेवा
में
आयोजित
55वीं विश्व बौद्धिक
सम्पदा
सम्मलेन
में
निज़ामाबाद के कुछ
कुम्भकारों
ने
अपने
मृद्भाण्डों
को
प्रदर्शित
किया
था, जिसके
फलस्वरूप
ये
कुम्भकार
भारत ही नही, अपितु
विदेश
के
भी
कला
बाज़ार
से
जुड़
सके
थे।
इसके
अलावा
कार्यालय
निकाय
आयुक्त
(हस्तशिल्प) ने
इस
क्षेत्र
के
शिल्प
के
सर्वांगीण
विकास
हेतु
अम्बेडकर
हस्त
शिल्प
विकास
योजना
लागू
की
है, जिसमे अब
तक
5 प्रशिक्षण (कौशल
उन्नयन)
कार्यक्रम
सम्पादित
किया
जा
चुका
है।
अन्य सरकारी योजनाओ
में
मुद्रा
लोन, प्रधानमंत्री
रोजगार
सृजन
योजना, मुख्यमंत्री
रोजगार
योजना
खादी, मुख्यमंत्री
युवा
स्वरोजगार
योजना, एक
जिला
एक
उत्पाद, उत्तर
प्रदेश
माटी
कला
बोर्ड
की
कई
सहयोगी
योजनायें
आदि
शामिल
हैं।
11. निष्कर्ष :
पारम्परिक
कलाओं
को
पीढ़ी
दर
पीढ़ी
संजो
के
रखना
सदा-सर्वदा
संघर्षपूर्ण
रहा
है, जिसे
निज़ामाबाद
के
कुम्भकारों
ने
स्वीकारा
और
विभिन्न
चुनौतिपूर्ण परिस्थितियों सामना
करते
हुए, अपनी
इस
विरासत
रुपी
काली
मृदभांड
कला
को
उसके
मूल
स्वरूप
और
तकनीकी
के
साथ
वर्तमान
में
देश
और
विदेश
स्तर
पर
आधुनिक
माध्यमों
जैसे-
इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक
चाक
आदि
के
प्रयोग
से
प्रगितिशील
और
समृद्ध
बनाया
है, जो
एक
सराहनीय
प्रयत्न
है।
इसके
साथ
ही
सरकार
की
सहयोगी
नीतियों
से
निज़ामाबाद
की
कुम्भकारी
लोककला
आगामी
समय
में
निश्चित
रूप
से
चमत्कारी
परिणाम
प्रदर्शित करेगी तथा
बौद्धिक
सम्पदा
के
रूप
में
बड़े
स्तर
पर
उपभोक्ताओं
तक
पहुँच
कर
विश्व स्तर पर
भारत
की
एक
अलग विशिष्ट पहचान
बनाने
में
सक्षम
होगी।
1. गोविन्दचंद्र राय: प्राचीन भारतीय मिट्टी के बर्तन, चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी,1997, पृo संo 14,16,36.
4. मीनाक्षी कासलीवाल ‘भारती’: भारतीय मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2016, संस्करण-5, पृo- 388,412,413.
15. https://www.hintoftradition.com/post/black-pottery-nizamabad
16. फोल्डर, ब्लैक क्ले पॉटरी, कार्यालय विकास आयुक्त (हस्तशिल्प), वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली.
17. https://www.caleidoscope.in/art-culture/black-pottery-of-nizamabad-1
18. सुधीर कुमार: डिजाइन कार्यशाला फोल्डर, उद्योग निदेशालय, कानपुर और जिला उद्योग केन्द्र, आजमगढ़, 2015.
शोधार्थी, ललित कला विभाग, डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्टीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ
pallavi.soni12@gmail.com, 6306640433
प्रो. पाण्डेय राजीवनयन
विभागाध्यक्ष, ललित कला विभाग, डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्टीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ
prajivanayan@gmail.com, 9415103475
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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