शोध सार : आज़ादी के अमृतकाल में उपनिवेशवादी चरित्र के भौतिक चिह्नों में सबसे प्रमुख शब्द ‘फाँसी’ है। उपनिवेशवाद को कायम रखने में सबसे अधिक जिस यंत्रों का उपयोग किया गया वह कुछ और नहीं बल्कि मृत्युदंड ही था। इस फांसी का उपयोग प्रतिरोधी शक्तियों को दबाने के लिए सर्वाधिक किया गया था। विदित है कि फ़्रांस के राज्य क्रांति के प्रभाव में पहली बार जिस स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व शब्द का प्रभाव पूरी दुनिया पर हुआ उसके साथ ही फाँसी अर्थात् मृत्यु दंड का संस्थानिक उपयोग भी प्रारंभ हुआ। दुनिया के विभिन्न देशों में स्वाधीनता के लिए आन्दोलनों का प्रारंभ हुआ और उसी के बरक्स फांसी जैसे जघन्य यन्त्र का भी विकास हुआ। दुनिया के विभिन्न देशों के संविधानों में राज्य के विपक्ष में उठाने वाली लोकतांत्रिक एवं अलोकतांत्रिक आवाजों को कुचलने के लिए राजद्रोह एवं फांसी जैसे यंत्र को संविधान में जगह दी। दंड संहिता के निर्माण और मानवाधिकार जैसे विभिन्न विषयों पर बात करते हुए फाँसी अथवा मृत्यु दंड को आलोचना का विषय बनाया गया। दुनिया के विभिन्न देशों में फाँसी यंत्र के खिलाफ़ भौतिक एवं दार्शनिक स्तर पर विरोध हमें दिखाई पड़ता है। हिंदी पत्रकारिता में फांसी जैसे मृत्युदंड का विभिन्न दृष्टिकोणों से विरोध दिखाई पड़ता है। चाँद पत्रिका के संपादक रामरख सिंह सहगल ने वर्ष 1928 में आचार्य चतुरसेन शास्त्री के निर्देशन में फांसी नाम कवि शेषांक का संपादन किया। इस पत्रिका में फांसी अथवा मृत्युदंड के सिद्धांत और उस के उपनिवेशवादी चरित्र का पड़ताल की गई। देश में चल रहे स्वाधीनता आदोलनों के खिलाफ़ फांसी जैसे यंत्र के संस्थानिक उपयोग का पर्दाफाश हिंदी के विभिन्न साहित्यकारों ने रचनात्मक रूप से किया। इस पत्रिका के प्रभाव का आकलन करते हुए ब्रिटिश सरकार ने तत्कालीन रूप से इस को प्रतिबंधित करने का निर्देश दिया। इस आलेख में प्रतिबन्ध के साथ इस फांसी के औपनिवेशक चरित्र पर प्रश्न उठाया गया है।
बीज शब्द : औपनिवेशिकता, फाँसी, स्वाधीनता, प्रतिबन्ध, दंडसंहिता, मानवाधिकार, लोकतंत्र, मृत्युदंड, राजद्रोह, हिंदीसाहित्य, साम्राज्यवादी, राज्यक्रांति।
मूल आलेख : आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने बहुत मेहनत से इस अंक के संपादन को सुनिश्चित किया था। प्रतिबंधित होने के कारण इस पत्रिका पर एक विवाद खड़ा हो गया इस विवाद के कारण उनके ऊपर मुकद्दमा चलाया गया और उनको अनेक परेशानियों का सामना भी करना पड़ा। दिवाली जैसे शुभ अवसर पर यह अंक सम्पादित करते हुए शास्त्री जी असहज महसूस कर रहे थे उन्होंने लिखा था कि “यह हमारे मन की अभिलाषाओं के अनुकूल नहीं, परन्तु हिंदी साहित्य के वे दिन अभी कहाँ कि मनचाही चीज़ बन सके! कठिनाइयों के नाम पर रोना हम सदैव कायर का काम समझते है” उन्होंने लिखा कि प्यारी बहिनों, माताओं भाइयों और बुजुर्गों ! फाँसी अंक को दिवाली की अमावस्या समझिये ! देखिये इसमें कैसे बीसवीं शताब्दी के हुतात्माके दिए कैसे टिमटिमा रहे है और देखिये स्थान-स्थान पर कैसी ज्वलंत आग्नि धायं धायं कर जल रही है।[i]” इस अंक का प्रभाव देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी दिखाई पड़ता है इस अंक में संपादक महोदय ने समाजशास्त्र के अंतर्गत आने वाले अपराध, दंड, कानून, क्रान्ति आदि गंभीर विषयों को उठाया गया था जिसका विश्लेषण इस अंक में हुआ है। हिंदी पत्रकारिता में ये पहली बार होने जा रहा था, जब किसी हिंदी पत्रकारिता ने ब्रिटिश सरकार के अधीन होते हुए फाँसी जैसे गंभीर विषय को अपने देश का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उठाया हो आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने केवल सिद्धान्तों पर बात नहीं की बल्कि अनेक देशों की घटनाओं के द्वारा उन सिद्धान्तों का विश्लेषण भी किया। आचार्य चतुरसेन शास्त्री व्याहारिक रूप से अपराध के सिद्धांत को तीन भागों में बांट कर देखते है। पहला जो किसी झोंके में आकर अपराध कर देते हैं, दूसरा जो साहसी है और वह अपने परिवार और जाति का अपमान नहीं सह सकते, आचार्य चतुरसेन शास्त्री ऐसे अपराधी को प्राय: उच्च वंश का मानते है। तीसरे और अंतिम प्रकार के अपराधी को नैतिक मूढ़ अपराधी की संज्ञा देते है जिनका अपराध समाज विरोधी और अशुभ कामों में प्रकट होता है। इतना ही नहीं भौतिक समाजशास्त्रियों की भांति आचार्य चतुरसेन शास्त्री अपराध को समाज की उपज मानते हुए वे कहते हैं जिस तरह के समाज का हम निर्माण करेंगे उसी तरह के समाज में अपराधी पैदा होंगे उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा है “अपराधी का समाज-विज्ञान सामाजिक कारणों और आर्थिक क्रांतियों से उत्पन्न होता है, समाज अपराधों को तैयार करता है अपराधी उसके यंत्र है, जो उसे पूरा करते है सामाजिक वातावरण अपराध के उगने का क्षेत्र है अपराधी तो एक बीज जंतु है जो क्षेत्र पाने पर उग पड़ता है अर्थात् प्रत्येक समाज अपने योग्य अपराधी उत्पन्न कर लेता है।[ii]” आचार्य चतुरसेन शास्त्री अपराधी को समाज से अलग करके नहीं देखते बल्कि उसको समाज का हिस्सा मानते है। “अपराध शास्त्र की गहन खोज करने से और उसके साथ साथ मानव प्रकृति और शरीर निर्माण पर अध्ययनकरने से हम नीति विज्ञान और मस्तिष्क शास्त्र के गंभीर रहस्यों को स्पष्ट कर सकते हैं और विवेचना शक्ति हठता हमें यह शिक्षा देती है कि हम दंड निर्माण कीप्राचीन भावना को नष्ट कर दें और साधारण विचार की परवाह न करें।”[iii] भारत जैसे देश में जहाँ मृत्यु दंड की सज़ा दुर्लभ से दुर्लभतम् मामलों में दी जाती है परन्तु उसका भी कोई विधिवत सिद्धांत नहीं है, सज़ा को न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर किया गया है इन मामलों में मृत्युदंड की सज़ा देगाऔरकिन मामलों नहीं देगा, दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों कौन से होंगे इसके लिए कोई दिशा निर्देश सरकार और न्याय व्यवस्था द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है जिसके कारण इसमें स्पष्टता नहीं आती है। कई बार देखने में आया है कि कुछ मामलों में फाँसी की सज़ा दी जाती और कुछ सालों बाद वैसे ही कुछ मामलों में उम्रकैद की सज़ा दे दी जाती है या उससे भी कम, अत:मृत्युदंड पर सवाल खड़ा होना आवश्यक है। मुग़ल काल में भी मृत्युदंड की सज़ा के लिए क्रूर और बर्बर तरीकों का प्रयोग किया जाता था। ब्रिटिश भारत में तो मृत्युदंड का प्रयोग नाबालिक बच्चों पर भी किया गया। दुनिया के कई देशों में मृत्युदंड को मानवाधिकार का उल्लंघन भी माना गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस विषय पर वाद-विवाद की शुरुआत करते हुए इस विषय पर गंभीरता से विचार किया है। भारत ने स्वयं उस वाद विवाद में हिस्सा लेते हुए फाँसी की सज़ा को खत्म करने के लिए सहमति दी है। हाल के कुछ सालों में चीन, ईराक, ईरान जैसे देशों में बड़ी संख्या में फाँसी की सज़ा दी गयी है। इस दौर में फाँसी का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। इस तरह के कई प्रश्नों को चाँद के फाँसी अंक ने उठाया था जिसका मूल्यांकन आज किया जाना आवश्यक है। इन विश्लेषणों से स्पष्ट है की आचार्य चतुरसेन शास्त्री इस अंक के प्रति गंभीर थे। नवम्बर 1924 ई में चाँद ने 150 पृष्ठों में शिशु अंक का प्रकाशन किया। मई 1927 ई० में श्री नन्द किशोर तिवारी ने अछूत अंक का प्रकाशन किया जिसमें विशेष रूप से दलितों की समस्या को रेखांकित करने का प्रयास किया गया, इसी क्रम में चाँद का पत्रांक अंक निकला जिसके संपादक भी नन्द किशोर तिवारी थे। 1926 ई में चाँद के प्रवासी अंक का सम्पादन हुआ जिसमें पहली बार प्रवासी भारतीय लोगों की समस्या को प्रमुखता से उठाया गया जिसके सम्पादक बनारसीदास चतुर्वेदी थे यह चाँद का 39 वाँ अंक था। इसी प्रकार चाँद ने वेश्या अंक, मारवाड़ी अंक निकाला जिसको लेकर सहगल जी को विरोध का सामना भी करना पड़ा। चाँद का महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक अंक का सम्पादन नवम्बर 1928 ई० को दिवाली के दिन फाँसी नाम से हुआ जिसको प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार द्वारा इसकी दस हज़ार से अधिक प्रतियों को ज़ब्त करके नष्ट कर दिया गया। इस अंक के मुख पृष्ठ पर प्रकाशित उद्देश्य ही इसके प्रतिबंध की वजह स्पष्ट कर देता है। “आध्यात्मिक स्वराज हमारा ध्येय , सत्य हमारा साधन और प्रेम हमारी प्रणाली है जब तक इस पावन अनुष्ठान में हम अविचलित नहीं होते तब तक हमें इसका भय नहीं की हमारे विरोधियों की संख्या और शक्ति कितनी है।[iv]” अपनी डायरी के कुछ पृष्ठ में रामरख सिंह सहगल चाँद के विषय में बताते है की इस अंक के प्रकाशन के समय मुझे चोटी के प्रमुख क्रांतिकारी देशभक्तों के सम्पर्क में आने का मौका मिला था। “फाँसी अंक के प्रकाशन के समय मुझे विशेष रूप से बलवंत(भगत सिंह), सुखदेव, राजगुरु आदि मित्रों के करीब आने का अवसर मिला। सच पूछिए तो इन्हीं लोगों के प्रयास के कारण फाँसी अंक इतना सफल हो पाया।”[v]
“चाँद पत्रिका में प्रेमचन्द, महादेवी वर्मा, बाबू जयशंकर प्रसाद, श्री अवध उपाध्याय, श्री नवीन, श्रीधर पाठक, श्री रामचरित उपाध्याय, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ और चतुरसेन शास्त्री जैसे प्रमुख रचनाकारों की रचना छपा करती थी जिससे पत्रिका में साहित्यिक विचार विमर्शों को भी उचित स्थान मिलता था महादेवी वर्मा और चतुरसेन शास्त्री जी ने तो चाँद पत्रिका के सम्पादन का भार भी संभाला। मुंशीप्रेमचंद के उपन्यासों में ‘निर्मला’ और ‘प्रतिज्ञा’ का धारावाहिक के रूप में प्रकाशन चाँद पत्रिका में हुआ था।”[vi]चाँद का फाँसी अंक क्रांतिकारी होते हुए भी अपनी साहित्यिक पहचान रखता है, फाँसी अंक में अनेक विधाओं जैसे कहानी, कविता, संस्मरण, निबंध अनुवाद का सहारा लेकर अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया था अतः इसका मूल्यांकन भी इन विधाओं के विश्लेषण के द्वारा किया जायेगा। प्रस्तुत फाँसी अंक साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्व ही नहीं रखता बल्कि उच्च स्तर की पत्रकारिता का प्रमाण भी देता है। रामरख सिंह सहगल ने अजनाला में अंग्रेज अधिकारियों द्वारा किये गये कत्लेआम की रिपोर्टिग कराई,1857 ई० में घटी हुई अनेक घटनाओं को सन् 57 के कुछ संस्मरण नाम से इस संग्रह में संकलित किया। जिसके कारण 1857 ई० की अनेक घटनाओं का पुनः विश्लेषण संभव हो सका। फाँसी अंक के प्रकाशन से हिंदी पत्रकारिता में एक नये कलेवर की शुरुआत हुई, जिसमें क्रांतिकारी विचारों का समावेश अधिक होने लगा। देश की आज़ादी के नाम पर शहीद हुए वीरों को इन पत्रिकाओं में याद किया जाता था। जिससे भारत के युवा वर्ग में सामाजिक और राजनैतिक समझ का विकास होता था यह हिंदी पत्रकारिता की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी। निश्चित रूप से यह ब्रितानी सरकार के लिए बड़ी चुनौती थी। फाँसी अंक के बाद मदनमोहन मालवीय द्वारा संपादित अभ्युदय ने लगातार कई अंक शहीद भगत सिंह पर निकाले जिसको सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था दुर्भाग्य से आज वे अनुपलब्ध हो चुके हैं, ये अंक चाँद के फाँसी अंक से प्रभावित थे। चाँद के फाँसी अंक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि आज दुनिया के कई देशों में फाँसी जैसी सज़ा के ऊपर सवाल उठाये जा रहे हैं। चाँद की पत्रकारिता ने यह बताया की आज दुनिया जिन प्रश्नों से मुख़ातिब है उन प्रश्नों पर विवाद की शुरूआत 1928 ई० में हिंदी पत्रिका से किया गया था। चाँद का फाँसी अंक इसका गवाह है, जिसमें अपराध और अपराधी की प्रकृति के अनुसार दिए जाने वाले दण्डों अर्थात् सजाओं पर विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया गया है। सत्ता इन दंड विधानों का उपयोग किस प्रकार अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए कर रही थी इस पर भी सवाल किया गया है। जिसको प्रमाणित करने के लिए दुनिया के विभिन्न देशों के उदाहरण दिए गये है स्वयं भारत के उदाहरण द्वारा इसको प्रमाणित किया गया है। पत्रकारिता का एक मुख्य कार्य है कि जनता के सवालों को सत्ता तक पहुंचाना और उसके जबाब की तलाश करना। जो कार्य हिंदी पत्रकारिता ने बखूबी से किया है परन्तु ब्रिटिश हुकुमत ने इस अभिव्यक्ति को हमेशा रोकने की चेष्ठा की है। हिंदी पत्रकारिता में अनेक ऐसी पत्रिकाएँ हैं जिनको राजद्रोह के चलते प्रतिबंधित किया गया और उनके संपादकों को जेल की हवा खिलाई गयी।हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एवं हिंदी साहित्य के इतिहास में इन प्रतिबंधित पत्र पत्रिकाओं के स्थान का विवेचन करना बाकी है, इन पत्र पत्रिकाओं का ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्यांकन के द्वारा इतिहास और साहित्य के कई प्रमुख बिन्दुओं पर नई धारणाओं को विस्तार मिलेगा। साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि से संस्मरण, निबंध और अनुवाद के क्षेत्र को चाँद के फाँसी अंक ने विस्तार दिया है। चाँद के फाँसी अंक को प्रकाशित करते समय कविता की दृष्टि से हिन्दी में छायावादी युग चल रहा था, चाँद के फाँसी अंक ने कविता के क्षेत्र में नये बिम्ब और प्रतीक दिए तथा नए विचारों का उपयोग करके छायावादी सीमाओं को विस्तार देने का प्रयास किया। इन सभी कारणों से भी यह अंक हिंदी साहित्य और इतिहास के लिए आवश्यक है। प्रतिबंधित शब्द का सीधा और सरल अर्थ यही हो सकता है कि किसी वस्तु एवं विचार को किसी कारणवश रोक देना। अंग्रेजी में प्रतिबंध के लिए Rstricted, Banned,Conditionedआदि। इनशब्दों का सामान्य अर्थ ‘प्रतिबंध’ है। परन्तु ब्रिटिश शासन में प्रतिबंध एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग में लाया गया जिसके द्वारा तत्कालीन समय के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों, जिनका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध करना था उनको प्रतिबंधित कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि प्रतिबंध शब्द का इतिहास बहुत पुराना है परन्तु प्रतिबंध का औपनिवेशिक प्रयोग अंग्रेजों ने अपने द्वारा उपनिवेश बनाये देशों में किया। सम्पूर्ण दुनिया प्रतिबंध जैसे किसी गतिरोध को हमेशा से महसूस करती रही थी परन्तु किसी संस्था अथवा कानून के रूप में इसका उपयोग आधुनिक घटना है। अंग्रेजों ने सबसे पहले जिन देशों को उपनिवेश बनाया उन देशों में लम्बे समय से चली आर ही सामाजिक और आर्थिक नीतियों को न केवल प्रभावित किया बल्कि उनको पूर्ण रूप से समाप्त करके नयी संस्थाओं का निर्माण किया। इन संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने अपने आर्थिक, राजनीतिक हितों को साधने का भरपूर प्रयास किया। यहशाश्वत सत्य है कि इन्हीं हितों को साधने के क्रम में प्रतिबन्ध के साथ-साथ फाँसी का विकास हुआ। प्रतिबंध के कारणों का विश्लेषण करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गयेअधिनियमोंका सहारा लिया जा सकता है। हिंदी की प्रतिबंधित पत्रिकाओं के अंकों को देखने से प्रतिबंधन के कारणों का स्पष्ट रूप से पता चलता है। किसीभी देश की सरकार अपने मीडिया तंत्रों पर बहुत बारीकी से नज़र रखती है। वर्तमान में एक ओर अभिव्यक्ति के माध्यमों में विस्तार हुआ वहीं दो सौ वर्ष पहले अभिव्यक्ति के माध्यम बहुत ही सीमित थे।जिस पर नियंत्रण करना आज के अपेक्षा ज्यादा आसान था। ब्रिटिश सरकार अपने समकालीन समय के पत्रकारिता समूह पर बहुत तीव्र नज़र रखता था।राजनीतिक चेतना के प्रभाव में भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे समाचार पत्रों में ब्रिटिश सरकार के प्रति एक गुस्सा दिखाई देता है। ये पत्रिकाएँ किसी कल्पनालोक का निर्माण नहीं करती बल्कि उस समय में ये अपने पाठकों को स्वाधीनता आन्दोलन से जोड़ती दिखाई देती हैं। हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता के विकास में प्रतिबंधित पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। समय के साथ पत्रोंकीबढ़ती संख्या को देखते हुए लार्ड वेलेजलीने सन् 1799 ई० में प्रेस अधिनियम को पारित किया जिसके माध्यम से समाचार पत्रों पर उनके संपादक, प्रेस, तथा प्रेस के मालिक का नाम अनिवार्य कर दिया गया, इसके द्वारा उन पर निगरानी रखी जा सके साथ ही साप्ताहिक अवकाश के दिन समाचार पत्रों के प्रकाशन पर रोक लगा दी गयी।समाचार पत्रों के आने से कस्बों, गांवों तकमें देश के राजनीतिक गतिविधियों के बारे में जानकारी पहुँचने लग गयी थी। जिससे भारतीय समाज में एक राजनीतिक चेतना का प्रसार भी दिखाई देता था। इस बढ़ते प्रसार को रोकने के लिए इन पत्रों को ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित किया जाना आवश्यक समझा। इन समाचार पत्रों पर बढ़ते नियंत्रण को देखते हुए अभिव्यक्ति के लिए नए साधनों की ओर बढ़ना उस समय की अहम जरूरत बन गयी जिसको देखते हुए सभाओं में भाषण, प्रकाशित पैम्पलेटों औरपुस्तकों के माध्यम से प्रतिबंध की बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास शुरू हुआ। “9 अप्रैल1807 ई० कोगवर्नर जनरल के आदेश से प्रेस के द्वारा आयेजित होने वाली सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया।”[vii]प्रेस को प्रतिबंधित करने के उपरांत पैम्पलेटों और पुस्तकों पर नियंत्रण रखने का प्रयास शुरू किया गया। जिसके बाद से सभी प्रकार के पैम्पलेटों पर प्रकाशक का नाम अनिवार्य कर दिया गया जिससे किसी आपत्तिजनक विषयवस्तु के प्रकाशित होने पर प्रकाशक और प्रेस पर तुरंत कारवाई की जा सके। गवर्नर जनरल के आदेश के बाद से प्रेस को रजिस्टर्ड करके प्रत्येक प्रेस मालिक का नाम, पता और प्रेस को खोलने का उद्देश्य आदि सभी बहुमूल्य जानकारी प्रेस अधिकारी अपने पास संरक्षित कर लेते थे जिसके बाद किसी प्रेस को जमानत की निर्धारित राशि जमा करने पर प्रेस को चलाने की अनुमति प्रदान कर दी जाती थी।बगैर लाइसेंस की किसी भी रूप में कुछ प्रकाशित करने पर प्रेस को ज़ब्त करके उसके मालिक पर एक हज़ार रूपये का जुर्माना लगाया जाता था जुर्माने की राशि न दे पाने की स्थिति में छह माह कीसश्रम कारावास की सज़ा प्रदान की जाती थी।प्रेस पर सबसे कड़े प्रतिबंध वायसराय लार्ड लिटन के समय में लगने शुरू हुए।लार्ड लिटन बहुत साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी सोच का व्यक्ति था उसके प्रमुख उद्देश्यों में भारत में उभर रही भारतीय राष्ट्रवादी धाराओं का दमन करना था। लार्ड लिटन 1876 से1880 ई०तक भारत का वायसराय रहा,उस दौरान उसने 1877 ई० में दिल्ली में विशाल राजदरबार का आयोजन किया जिसमें रानी विक्टोरिया को ‘भारत की साम्राज्ञी’ घोषित किया गया। इस विशाल आयोजन में भारत कीगरीब जनता के द्वारा दिए गये कर (टैक्स) का बेजा उपयोग किया गया। लार्ड लिटन के इस कदम की भारतीय जनमानस में तीखी प्रतिक्रिया हुईऔर इसके विरोध में भारतीय भाषाओं में खूब लिखा गया इस प्रतिक्रिया को देखते हुए लार्ड लिटन ने ‘वर्नाक्युलर प्रेसएक्ट’ कोपारित कियाजिससे देशी भाषाओं में प्रकाशित होने वाले पत्रों पर नियंत्रण रखा जाने लगा। प्रस्तुत एक्ट के लागू होते ही अनेक पत्रों ने अपनी भाषा को बदलकर अंग्रेजी कर लिया जिससे अपने प्रेस को बचाया जा सके। कलकत्ता में बांग्ला भाषा में प्रकाशित होने वाला प्रसिद्ध पत्र ‘अमृत बाज़ार’ ने अपनी भाषा को अंग्रेजी में परिवर्तित कर लिया।ये एक्ट बहुत विवादित रहा जिसके चलते इसको 1882ई० में रद्द कर दिया गया। ‘वर्नाक्युलर प्रेसएक्ट’ प्रेस एक्ट ने अंग्रेजी के समाचार पत्रों को छोड़ देश केलगभग सभी पत्रों को प्रभावित किया था इसके विरोध भी समाचार पत्रों में खूब दिखाई पड़ता है। 1822ई० में‘वर्नाक्युलर प्रेसएक्ट’ के चले जाने पर पत्रकारिता के क्षेत्र फिर से नए पत्रों का छापना शुरू हुआ। एक के बाद एक अधिनियमों के बाद भी राष्ट्रवादी चेतना के प्रसार को रोका नहीं जा सका। ब्रिटिश सरकार को लगातार प्रदर्शनों और हड़तालों का सामना करना पड़ता था। इनविरोधों और हड़तालों की खबरें जिस रूप में गांवों में पहुँचती थीउस को आधार बनाकर उनपर लोकगीत लिख दिए जाते थे। जिसको प्रतिबंधित करना ब्रिटिश सरकार के लिए लगभग नमुमकिन था। 19 वीं शताब्दी के शुरूआत में राष्ट्रवादियों के प्रमुख प्रश्नों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्र आज़ादी का मुद्दा प्रमुख था।1824 ई०में राजाराममोहन राय ने उन सभी अधिनियमों की तीखी आलोचना की, जिसके द्वारा प्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया था।
भारतीय दंड संहिता के निर्माण में उपनिवेशवादी प्रवृत्ति का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। थॉमस बबिंगटन मैकाले ने तात्कालिक कारणों में सबसे अहम्राजद्रोह को शामिल करते हुए फांसी की सजा को शामिल करते हैं। इस पत्रिका में विशम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ की कहानी फांसी को आधार बनाकर इस तथ्य को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है कि फांसी की सजा के बाद अपराधी के आचरण को बदलना मुश्किल ही नहीं नमुमकिन है। दुनिया की विभिन्न दंड संहिताओं के उद्देश्य में यह स्पष्ट रूप से चिह्नित किया गया है कि अपराधी व्यक्तियों की अपराधी प्रवृत्ति से मुक्तकर नाही दंडका उद्देश्य है। परन्तु दुनिया के विभिन्न देशों वस्तुतः फांसी का उपयोग बदला लेने की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए किया गया है। अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मृत्यु दंड के विधान पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है। इन्हीं शोधों को आधार बनाकर विभिन्न देशों में मृत्यु दंड को प्रतिबंधित करने की मांग तेज हो उठी है। हिंदी शैक्षणिक जगत में मृत्यु दंड के इस फैसले पर विस्तार से न केवल चर्चा हुए बल्कि उस पर हिंदी पत्रकारिता में विशेषांक भी प्रकाशित हुए परन्तु औपनिवेशिक मानसिकता के चलते इस तथ्य को ज़ब्ती का शिकार होना पड़ा। इस पत्रिका के कुछ प्रश्नों को उदाहरण के माध्यम से समझने के कुछ पाठ का विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है।
हिंदी साहित्य में कहानी और कविता का महत्त्व हमेशा से रहा है परन्तु रचनात्मक गद्य लेखन के क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता ने अभूतपूर्व योगदान दिया है। आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य में निबंध, नाटक, कहानी, उपन्यास, एकांकी और आलोचना के उद्भव के साथ ही पाश्चात्य सभ्यता के प्रतीक अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन से नयी प्रवृत्तियों और नवीन विधाओं का जन्म हुआ, जिसमें गद्यकाव्य, रेखाचित्र, संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी, यात्रावृत्त, रिपोतार्ज, इंटरव्यू, डायरी, फ़ीचर, पत्र साहित्य, हास्य व्यंग्य आदि प्रमुख है। हिंदी पत्रकारिता ने उपरोक्त समस्त विधाओं का प्रयोग करके अपना विकास सुनिश्चित किया। चाँद पत्रिका ने संस्मरण, रिपोतार्ज, जीवनी और कहानी एवं कविता जैसी विधाओं को अपने पत्रिका में प्रमुखता से जगह देकर प्रकाशित किया। फाँसी अंक में हिंदी गद्य की अन्य विधाओं कोसंकलित किया गया है। प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में कथेतर सभी विधाओं का सामूहिक साहित्यिक मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। उपरोक्त समस्त विधाओं के अपने साहित्यिक मूल्य है। इनसमस्त विधाओं का मूल्यांकन उनके साहित्यिक मूल्यों के आधार पर किया जाता है। हिंदी के कथात्तेर गद्यमें निहित उद्देश्यों का मूल्यांकन करके उन विधाओं के विकास में हिंदी पत्रकारिता के योगदान को समझा जा सकता है। फाँसी अंक में कहानी और नाटक कविता के अतिरिक्त अन्य गद्य विधाओं के अंतर्गत भी विषयों को सम्मलित किया गया है। इस अंक में ‘ताँतिया भील और उसकी फाँसी’ के रूप में ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाये जा रहे दमन के खिलाफ विद्रोह करने वाले एक क्रांतिकारी योद्धाकी जीवनी को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। जिससे लोगों के अंदर स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी विद्रोह करने वाले सेनानी के प्रति सम्मान का भाव पैदा किया जा सके। ‘फाँसी की सज़ा’ के नाम से लेखक रायसाहब हरविलास जी शारदा ने फाँसी के औचित्य और उसकी प्रासंगिकता पर स्वतन्त्र रूप से विचार किया है। फाँसी अंक में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ‘प्राणवध’ के नाम से एक सुन्दर अनुवाद किया है। मृत्युदंड प्राप्त दोषी को, मृत्युदंड के आदेश के बाद मृत्युदंड प्राप्त होने के बीच जो समय रह जाता है उसमें एक मृत्युदंड प्राप्त व्यक्तिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। मृत्युदंड प्राप्त होने के बाद वह अपने सम्पूर्ण जीवन को याद करता हुआ दार्शनिक भूमिका में आ जाता है। मृत्यु दंड दिए जाने पर उसके आश्रित उसकी पत्नी और बच्चों को कई बार उसकी गम्भीर कीमत सामाजिक और आर्थिक दोनों रूप में चुकानी पड़ती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने पाठ का नाम प्राणवध रखा, जिससे मृत्युदंड की सज़ा को वध के रूप में निरूपित किया जा सके। चाँद का फाँसी अंक साहित्यिक दृष्टि से समृद्धि होने के साथ साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी अपना महत्व रखता है। इस अंक की भूमिका में नरेशचन्द्र चतुर्वेदी संकेत करते हुए लिखा कि “चाँद के फाँसी अंक में बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है और अनेक रचनात्मक कृतियों को भी शामिल किया गया है। इस अंक के मूल स्वर में जहाँ एक ओर राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए प्राणों के बलिदान को सहज और आवश्यक मानकर उसका समर्थन किया गया है वहीं भारत में ही नहीं सम्पूर्ण दुनिया में प्राणदंड को क्रूर कर्म अमानवीय और पाशविक व्यवहार बताने की चेष्ठा की गयी है मानव समाज में अपराध वृत्ति के कारणों का विश्लेषण करते हुए दंड प्रक्रिया और दंड विधान के बारे में नये दृष्टिकोण की समीक्षा भी की गयी है।”[viii]नरेशचन्द्र चतुर्वेदी ने जिस ऐतिहासिक प्रवृत्ति की ओर इशारा किया, वह केवल भारत तक सीमित न होकर विश्वभर में मृत्युदंड सेसम्बंधित घटनाओं का विश्लेषण करती दिखाई पड़ती है। ‘फ़्रांस की राज्यक्रांति के कुछ रक्तरंजित पृष्ठ’ नाम से राजकुमार श्री रघुवीर सिंह नेफ्रांस की क्रांति के कुछ रोचक और मार्मिक दृश्यों का वर्णन बहुत सावधानी से किया है, जिसमेंसत्ता अपने चरम पर जाने के बाद निरंकुशता की ओर अग्रसर हो जाती है इस सिद्धांत को खड़ा करने का प्रयास किया गया है।फ़्रांस के प्रगतिशील संगठनों में मतभेदों के कारण फ़्रांस की राज्य क्रांति बहुत वीभत्स और रक्त रंजित हो जाती है। जेकोबिन क्लबके नेता मैक्समिलियन रोबेस्पियर कोअंततः उसके क्रांतिकारी परिवर्तन के कारण मृत्युदंड दे दिया जाता है। फ़्रांस के क्रांति के दौरान घटित आतंकित करने वाली घटनाओं का बहुत मार्मिक चित्रण किया गया है।महिलाओं तथा बच्चों को भी क्रांतिकारी न्यायालय द्वारादेशद्रोह के आरोपी में दोषी ठहरा करगिलोटिन पर चढ़ा दियागया। संपादक ने चाँद के फाँसी अंक को सचित्र संपादित करते हुए उसके विषयों को अधिक रोचक बना दिया था। हिंदीपत्रकारिता में सचित्र पत्रकारिता से पत्रिका की पहुँच सामान्य जनजीवन तक हो जाती थी।चाँद के फाँसी अंक में जीवनी और रपट जैसी विधाओं का प्रयोग प्रमुखता से किया गया था। चाँद पत्रिका के प्रधान संपादक रामरख सिंह सहगल ने पंजाब प्रान्त में सन् 1857 ई०के सैनिक विद्रोह के दौरान घटी प्रमुख घटनाओं को अपने चाँद के फाँसी अंक में प्रमुखता से संपादित किया। इस संपादन के लिए रामरख सिंह सहगल ने अपने उप संपादक के नेतृत्व में एक टीम को गठित किया जिसने घटना स्थल पर जाकर सभी घटनाओं का निरिक्षण करके उसकी रिपोर्ट फाँसी अंक में प्रकाशितकरवाई। सभी रिपोर्टों का मूल्यांकन रिपोतार्ज के अंतर्गत किया जा सकता है इन रिपोर्टों में साहित्यिक प्रवृत्तियों का अपेक्षाकृत अभाव है, फाँसी अंक का संपादन किसी विशेष उद्देश्य के लिए कियागया था अत: सम्पूर्ण पत्रिका में साहित्यिकता को खोजना पत्रकारिता के लिए उसके प्राण को नष्ट कर देना होगा। ‘सन् 1857ई० के कुछ संस्मरण नाम’ से संकलित पाठ में सन् 1857 ई के विद्रोह के कुछ चुनिंदा घटनाओं का वर्णन किया गया। इन घटनाओं कोअंग्रेजों द्वारा अपने बड़े अधिकारियों को भेजी गयी रिपोर्टों के आधार पर प्रमाणित किया गया है। सन् 1857 ई के विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने दमन की जिस प्रक्रिया का प्रयोग किया उसका वर्णन इन रिपोर्टों में हुआ है। एक अन्य ‘संस्मरणसन्1857 ई० के लाल दिन!!!’में लेखक ख्वाजा हसन निजामी ने सन् 1857 ई० के दौरान घटित घटनाओं का बहुत मार्मिक विश्लेषण किया है। सन् 1857ई०के विद्रोह के बाद बादशाह के शाहजादों कोब्रितानी सरकार के जनरलों के द्वारा मृत्युदंड की सज़ा दे दी गयी। मृत्युदंड देने के लिए विभिन्न प्रकार के यांत्रिक पद्धतियों का प्रयोग किया जाता था। आचार्यचतुरसेन शास्त्री ने एक लेख ‘फाँसी के विभिन्न तरीके’ के नाम से संग्रहित कियागया है, जिसमें पुरातन काल से मृत्युदंड के लिए प्रयोग में लाये जा रहे यंत्रों का सचित्र परिचय प्रस्तुत किया गया है। फाँसी अंक एक पत्रिका है, पत्रकारिता विधा के कुछ अपने नियम भी है। सन् 1928ई० तक घटना को अपनी भावना के रंग में रंगकर बिम्बधर्मी भाषा के माध्यम से सजीव करने का प्रचलन नहीं था, यह अंक घटना का चित्रण साधारण रूप से कर देता है। रिपोतार्ज जैसी विधा का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ था। “ठेठपत्रकारिता से आगे बढ़कर जब पत्रकार संवेदनशील साहित्यकार बन जाता है तो वह सशक्त और प्रभावशाली रिपोतार्ज लिखने लगता है युद्ध की विभीषिका अकाल की छाया या पुरे मानव समाज को प्रभावित करने वाली किसी घटना के घटित होने पर पत्रकार और साहित्यकार उस घटना के बहुविध सन्दर्भों को रिपोतार्ज शैली में प्रस्तुत करके पाठकों के मन को झकझोर देते हैं।”[ix]चाँद के फाँसी अंक में संकलित रिपोर्टों में कलात्मकता का अभाव अवश्य है परन्तु उन रिपोर्टों में समकालीन समय का सच दिखाई पड़ता है। फ़्रांस की राज्यक्रांति में हिंसाके जिस दौर की शुरूआत हुयी उसमें समानता की वकालत करने वाले संगठनों ने अपने भीतर उठने वाले विरोध के अनेक स्वरों को भी दबा दिया। ‘फ़्रांस के राज्यक्रांति के कुछ रक्त रंजित पृष्ठ’ के लेखक राजकुमार श्री रघुवीर सिंह ने फ़्रांसकी क्रांति में मृत्युदंड प्राप्त लोगों का मार्मिक चित्रण किया है।फ़्रांस के राज्यक्रांति में मृत्युदंड प्राप्त महिलाओं के मनोदशा का वर्णन किया है। फ़्रांस में नवीन शासन पद्धति निश्चित हो जाने के बाद मृत्युदंड के नए दौर की शुरूआत हुयी। मृत्युदंड की विभीषिका का वर्णन करते हुए लेखकने यह बताने का प्रयास किया, चाहे राजा हो या प्रजा परन्तु वह निश्चित रूप से पहले एक मनुष्य का जीवन प्राप्त करता है। मृत्युदंड किसी राजा अथवा रानी के खिलाफ न होकर मनुष्यता के खिलाफ है अत: इसको दुनिया से खत्म किया जाना चाहिए। दुनियाभर की सरकारों ने आन्तरिक असुरक्षा के नाम पर अनेक प्रकार के निरोधक कानून को बनाया है।इन कानूनों का उपयोग सरकारों ने कई बार सामाजिक आंदोलनों के पक्ष में उठ रही आवाजों के दबाने के लिए किया है। इन कानूनों के तहत पकड़े गए अभियुक्तों को अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक दण्ड दिए जाते है जिसके कारण अनेक अभियुक्तों की पुलिस हिरासत में मृत्यु भी हो जाती है। विश्व में मृत्युदंड को लेकर विभिन्न मत है, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में मृत्युदंडदिए जाने के कानूनों में अंतर है। भारत में संविधान के निर्माण के बाद ताज़िराते हिंद या भारतीय दंड संहिता को कुछ बदलावों के साथ स्वीकार कर लिया गया,मूलअधिकारों का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को उसमें से हटा दिया गया।फाँसी अंक में सन् 1857 ई के कुछ संस्मरण नाम से संकलित रिपोर्ट में इतिहास लेखक सर जॉन के हवाले से बताया गया है कि“फ़ौजी और सिविल दोनों तरहके अंग्रेज अफसर अपनी अपनी ख़ूनी अदालतें लगा रहे थे, अथवा बिना किसी किसी तरह के मुकदमें का ढोंग रचे और बिना मर्द और औरत या छोटे बड़े का विचार किए भारतवासियों का संहार कर रहे थे।”[x]भारत को स्वतंत्र करने के लिए अनेक वीरों ने अपने प्राण दिए, परन्तु उनके साथ ही अंग्रेज सैनिकों नेस्वतंत्रता सेनानियों के साथ अनेक निर्दोषों को फाँसी की सज़ा देकरउनके बहुमूल्य जीवन को नष्ट कर दिया। रामरख सिंह सहगल ने अजनाले पंजाब की घटना की रिपोर्टिंग करवाई थी। 26 नवम्बर को पलटन के कुछ सिपाही रावी नदी के किनारे आराम कर रहे थे जिसकी सूचनाब्रिटिश आर्मी को मिलते ही उसने उन सभी सिपाहियों को कैद कर लिया। जिसके बाद उनमें से अनेक सिपाहियों का कत्ल करके मार दिया गया जिसके प्रमाण ‘काल्यां-दा-खूह’ अजनाला में मिलता है। सन् 1857 ई० के विद्रोह का बदला ब्रिटिश सैनिकों ने अनेक निर्दोष नागरिकों को मृत्युदंड देकर निकालने की कोशिश की थी। फाँसी अंक उन सभी मृत्युदंडकी सजाओं को खत्म करने की वकालत करता है जिनका प्रयोग निर्दोषों की हत्या के लिए किया गया था। फाँसी अंक में अनेक ऐसे संस्मरण लिखे हुए है जिनका साहित्यिक मूल्य कुछ कम हो सकता है परन्तु उनका ऐतिहासिक मूल्य बहुत अधिक है अनेक गुमनाम वीरों के संस्मरण से भारतीय इतिहास को समझाने में मदद मिलेगी। लेखक उग्र ने जल्लाद नाम से एक संस्मरण लिखा जिसमें जल्लादकी मनोदशा के माध्यम से मृत्युदंड की यातना को दिखाने का प्रयास हुआ है।
निष्कर्ष : भारतीय संस्कृति में प्रतिरोध के रूप में साहित्य सदैव उपस्थित रहा है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान यह प्रतिरोध वैचारिक और सशस्त्र दोनों रूप में दिखाई पड़ता है। यह प्रतिरोध कोई असंगठित प्रतिरोध न होकर भारतीय चिंतनधारा के विभिन्न वैचारिक हस्तक्षेपों के दौरान उभरकर सामने आया था। एक तरफ ब्रितानी हुकूमत भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले सेनानियों को ठग, बदमाश, डकैत, हत्यारे, लुटेरे आदि साबित करने के लिए लाखों रूपया खर्च कर रही थी जिसके विपरीत, प्रतिरोध के साहित्य के रूप में चाँद जैसे पत्रों ने उनसे मोर्चा लेते हुए उनके इस कृत्य को उजागिर करने का काम किया जिसके कारण इन पत्रों को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी। प्रतिबंध के नाम पर जितनी सामग्रियों को ब्रिटिश आधिकारियों के द्वारा ज़ब्त किया गया उनमें से सबसे अधिक सामग्री भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले वीरों का जीवन चरित्र से संबंध रखती है। इन वीरों ने फांसी जैसे यंत्र का बखूबी तरीके से विरोध किया था। किसी देश के स्वाधीनता संग्राम को पददलित करने के क्रम में राजद्रोह प्रमुख हथियार के रूप में हमेशा से उपस्थित रहा है। उदाहरणके रूप में देखे तो सभ्य से सभ्य देशों में ये यंत्र एक ही रूप में सदियों से कार्य करते आ रहा है। भारतीय दंड संहिता में न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर किया गया है कि जघन्य से जघन्यतम किस घटना को मानता है? वास्तव में न्यायाधीश का पद घटना पर आधारित विभिन्न तथ्यों एवं व्याख्याओं पर आधारित होता है अतः मृत्युदंड के इन तथ्यों को आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली वर्ग प्रभावित कर सकता है। उपनिवेशवादी घटनाओं से प्रेरणा लेकर ऐसे मृत्युदंड को समाप्त करने के सैद्धांतिक पक्षों की व्याख्या इस पत्रिका अनेक रूपों में की गई है। अपराधी के रूप में क्रांतिवीरों को पेश करते हुए उनको जबरन मृत्यु दंड दे दिया गया। सम्पादकीय लिखते हुए आचार्य चतुर सेन शास्त्री ने अपराध तथा अपराधी के लिए सामाजिक तत्त्वों को भी निर्धारित करते हुए लिखा कि केवल अपराधी को सज़ा देने मात्र से सामाजिक स्थिति का उचित उपचार नहीं किया जा सकता। अतः इसके लिए उचित परिवर्तन करना अनिवार्य हो गया है, चाँद पत्रिका का फांसी अंक उसी परिवर्तन के संदर्भ में अपना योगदान देता है। ब्रिटिश सरकार ने भारत का आर्थिक शोषण तो किया ही साथ में भारतीय उपमहाद्वीप में निवास कर रहे लोगों का मानसिक शोषण और शारीरिक शोषण भी किया जिसके कारण भारतीय उपमहाद्वीप के अन्दर उत्पन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को काफ़ी नुकसान पहुंचा। हिंदी पत्रकारिता ने इन बातों का सबसे पहले नोटिस किया और उनके खिलाफ़ अपनी पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया। साहित्य के द्वारा किये गए इस प्रकार के प्रयासों का दूरगामी परिणाम हो सकता था जिसको देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने इस प्रकार के साहित्य को नष्ट करने या ज़ब्त करने की लगातार कोशिश करते हुए साहित्यकारों तथा पत्रकारों को भी अनेक प्रकार से नुकसान पहुँचाने का प्रयास किया। साहित्यिकता की सीमा में रहते हुए लेखकों ने विभिन्न विधाओं का उपयोग करते हुए रचनात्मक रूप से साम्राज्यवादी विचारधारा के पोषक हत्या विधान का रचनात्मक विरोध किया।
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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