अद्वैत वेदांत और संत संप्रदाय : तुरसीदास निरंजनी की कविता
- डॉ. प्रेमसिंह
शोध सार : वेदांत दर्शन भारतीय दर्शन पद्धतियों में शिरोमणि है। वेदांत से तात्पर्य उपनिषदों का दर्शन है जो वेदों का ही बढ़ाव है। ब्रह्म संबंधी विचार, ईश्वर, जीव, जगत्, माया आदि वेदांत के प्रधान विषय है। शंकाराचार्य ने जो उपनिषदों आदि पर भाष्य लिखे वे बाद में प्रमाण समझे गए और उस समय उपस्थित अन्य दर्शनों पर वेदांत की विजय के स्वरूप माने गए। हालाँकि रामानुज, निम्बार्क, मध्व, वल्लभ आदि की दर्शन पद्धतियाँ वेदांत के अन्तर्गत ही आती हैं, परन्तु शाङ्कर वेदांत की स्पष्टता, तार्किकता तथा समन्वयता के कारण शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित दर्शन से ही आज वेदांत का अर्थ ग्रहण किया जाता है। शंकर ने ब्रह्म-जीव और जगत् का एकात्म खोजा। ब्रह्म तत्त्व को अद्वैत कहा। इसके अलावा जगत् एवं माया के मिथ्यात्व पर विचार, जीवन मुक्ति का सिद्धान्त शाङ्कर वेदांत का प्रमुख विचार है। यही सिद्धांत अद्वैतवाद के रूप में प्रचलित हुआ।भक्ति आचार्यों के बाद जब संत संप्रदाय उठ खड़े हुए तो उन्हें अद्वैत का दर्शन अपनी निर्गुण ब्रह्म की परिकल्पना के समतुल्य लगा। सत्रहवीं सदी में राजस्थान में दो संत-संप्रदाय अद्वैत वेदांत की तरफ़ मुड़े जिनमे दादू और निरंजनी संप्रदाय प्रमुख थे। इन दोनों सम्प्रदायों ने जो युगांतरकारी कार्य किया वह था संस्कृत में संचित वेदांत दर्शन को लोकभाषा में प्रस्तुत करना। राजस्थान का निरंजनी संप्रदाय सत्रहवीं सदी में आचार्यत्व रखने वाले संतों का प्रधान संप्रदाय बन जाता हैऔर इसी संप्रदाय के संत कवि तुरसीदास निरंजनी भक्ति और वेदांत दर्शन के मिले-जुले रूप पर कविता लिखने वाले प्रधान संत के रूप में सामने आते हैं। वे वेदांत के प्रधान ग्रंथों पर भक्ति की नई संवेदना के अनुसार टीकाएँ लिखते हैं तो वेदांत दर्शन पर मौलिक कविता भी करते हैं। इस तरह तुरसीदास निरंजनी संत भक्ति की उस धारा के महत्त्वपूर्ण कवि बन जाते हैं जो ब्रजभाषा में वेदांत दर्शन को भक्ति के साथ जोड़ रहे थे। देशभाषा में वेदांत और भक्ति का मिलन सोलहवीं सदी से शुरू होता है और धीरे-धीरे वेदांत का दार्शनिक पक्ष मज़बूत होता जाता है। इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंतर्गत उन्नीसवीं सदी में विवेकानंद जैसे समाज सुधारक बुद्धिजीवियों के यहाँअद्वैत वेदांत आधुनिक काल में हिंदू धर्म का प्रधान दर्शन बन जाता है।
मूल आलेख : इस निबंध का उद्देश्य भारत में भक्ति सम्प्रदायों द्वारा वेदांत दर्शन को अपनाने, विशेषकर राजस्थान की संत परंपरा के इस दर्शन के साथ हुए संवाद को दिखाना है। रामानुज, निम्बार्क, मध्व एवं वल्लभ आदि आचार्यों ने वेदांत को वैष्णव भक्ति से जोड़ा जिसका अध्ययन पूर्व के विद्वानों ने किया है। लेकिन निर्गुण भक्ति परंपरा के संत किस तरह वेदांत को अपनी कविता और साधना में ढालते हैं उस तरफ़ विद्वानों की दृष्टि कम ही गई है। अतः इस निबंध में सत्रहवीं सदी के राजस्थान में विकसित हुए निरंजनी संप्रदाय का अध्ययन होगा। इस संप्रदाय के प्रधान संत तुरसीदास वेदांत को, विशेषकर अद्वैत वेदांत को संत भक्ति से जोड़ते हैं जो उस ऐतिहासिक परिवेश को दिखाता है जब वेदांत और संत-भक्ति परंपरा का आपस में समागम हो रहा था।राजस्थान में मध्यकाल में बड़ी संख्या में पंथ-सम्प्रदायों की स्थापना हुई। उनमें एक निरंजनी-संप्रदाय है। इस संप्रदाय का केन्द्रीय स्थान अथवा मुख्य धाम राजस्थान के नागौर जिले के डीडवाना नगर में है जो गाढ़ाधाम के नाम से प्रसिद्ध है।
वै च्यारि महंत ज्यूँ चतुर ब्यूह,त्यूं चतुर महंत नृगुनी प्रगट।।
सगुन रूप गुन नाम, ध्यांन उन बिबिधि बतायौ।
इन इक अगुन अरूप, अकल जग सकल जितायौ।
नूर तेज भरपूरि, ज्योति तहाँ बुद्धि समाई।
निराकार पद अमिल, अमित आत्मां लगाई।
निरलेप निरंजन भजन कौं, संप्रदाइ थापी सुघट।
वै च्यारि महंत ज्यूँ चतुर ब्यूह, त्यूं चतुर महंत नृगुनी प्रगट।।1
नानक सूरज रूप, भूप सारै परकासे।
मघवा दास कबीर, ऊसर सूसर बरखा-से।
दादू चंद सरूप, अमी करि सब कौं पोषे।
बरन निरंजनी मनौं, त्रिषा हरि जीव संतोषे।
ये च्यारि महंत चहुं चक्क मैं, च्यारि पंथ निरगुन थपे।
नानक कबीर दादू जगन, राघो परमात्म जपे।।2
अब राखहि भाव कबीर कौ, इम येते महंत निरंजनी।
लपट्यौ जू जगनाथ, स्यांम कान्हड़ अनरागी।
ध्यांनदास अरू खेम, नाथ, जगजीवन त्यागी।
तुरसी पायौ तत्त, आंन सो भयो उदासा।
पूरण, मोहनदास जांनि हरिदास निरासा।
राघो संम्रथ रांम भजि, माया अंजन भंजनी।
अब राखहि भाव कबीर कौ, इम येते महंत निरंजनी।।
शीतल नैंन चवै बिग बैंन, महा मन जीत अतीत करारौ।
माया कौ त्याग नहीं अन राग, भिक्षा भिक्ष भोजन सांझ सवारौं।
ब्रह्म जग्यासी अभ्यासी है नावं कौ, जोग जुगत्ति सबै बुधि सारौ।
राघों कहै करणी जित सोभित,देखौ हौ दास तुरसी कौ अखारौ।।4
अर्थात् तुरसीदास ब्रह्म जिज्ञासी, नाम उपासक, योग और युक्ति को अपनी बुद्धि से जानने वाले थे।
तुरसीदास वेदांत के प्रधान ग्रंथों पर भक्ति की नई संवेदना के अनुसार टीकाएँ लिखते हैं और उसके साथ संतों की अपनी भक्ति को ब्रजभाषा में प्रस्तुत करते हैं। डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल तुरसीदास के महत्त्व को इन शब्दों में निरूपित करते हैं- ‘‘दादू पंथ के लिये जो कार्य सुंदरदास जी ने किया, तुरसीदास जी ने वही कार्य निरंजन पंथ के लिये किया। भावना, साधना, रचना विस्तार, मौलिकता की दृष्टि से तुरसीदास निरंजनी संप्रदाय में सर्वोपरि हैं।’’5
ब्रजभाषा में वेदांत दर्शन को भक्ति के साथ जोड़ना सुंदरदास और तुरसीदास जैसे संतों का युगांतरकारी कदम था। लोकभाषा में इन संतों द्वारा वेदांत को प्रस्तुत करना और उसे आम जन तक पहुँचाना ही वह ऐतिहासिक प्रक्रिया थी जिसके आधार पर उन्नीसवीं सदी में जाकर वेदांत आधुनिक हिंदू धर्म का प्रधान दर्शन बन जाता है। उत्तर भारत में निरंजनी संप्रदाय का उद्भव सत्रहवीं सदी में होता है। सत्रहवीं सदी हिंदी साहित्य की दृष्टि से शास्त्र के प्रति अपने झुकाव का विशेष महत्त्व रखती है। हिंदी साहित्य की प्रधान प्रवृत्ति के रूप में देखे तो उस समय दरबारी प्रश्रयों में ऐसा साहित्य लिखा जा रहा था जो संस्कृत काव्यशास्त्र को देशभाषा में प्रस्तुत कर रहा था। शास्त्रीय ग्रंथों को दरबार के कवि यहाँ तक कि वैष्णव संप्रदाय के कवि लोकभाषा में प्रस्तुत कर रहे थे। इसी समय निरंजनी संप्रदाय के संत दरबारी काव्य से हटकर संत समुदाय के लिए नए तरह का साहित्य रचना शुरू करते हैं। निरंजनी संप्रदाय शास्त्र के कुछ ऐसे ग्रंथों को उठाता है जो संतो को अपनी संवेदना के अनुकूल जान पड़ते हैं या संतों की भक्ति से मेल खाते हैं। ऐसे में वे भागवतपुराण जिसमें उसका एकादश स्कंध, भगवत गीता, उपनिषद और वेदांत दर्शन के ग्रंथ जिसमें वेदांत महावाक्यभाषा, भाषा योगवशिष्ठ आदि के विषयों को भक्ति के समानांतर देखते हैं। वे संत-भक्ति के नज़रिए से इन ग्रंथों को देखते हैं और इनका लोकभाषा में प्रस्तुतीकरण करते हैं। जिस सत्रहवीं सदी में निरंजनी संप्रदाय का उद्भव हुआ उस सदी में शास्त्रों को भक्ति के साथ एकात्मक करने की प्रवृत्ति संप्रदायों में प्रचलित हो चली थी। संत भक्ति का कबीर आदि संतों के कारण जो लोक परिवेश बन रहा था बाद के संत संत भक्ति को वेदांत दर्शन के साथ जोड़ते हैं। यह काम खासतौर पर दादूपंथी और निरंजनी संतों ने किया। ये संत कबीर, दादू, नामदेव आदि संतों से इस आधार पर अलग थे कि उनमें से कइयों ने विधिवत रूप से संस्कृत की शिक्षा पाई थी और वे उस काल की प्रधान शिक्षण पद्धत्तियों से शिक्षित हुए थे। जब ऐसे संत ग्रंथ लिखते हैं तब वे देश भाषाओं को अपनाते तो हैं लेकिन उनमें शास्त्रीय पक्ष प्रबल रहता है। निर्गुण संतो के साथ खासकर निरंजनी संप्रदाय के संतों के यहाँ यह प्रक्रिया शुरू होती है जिसमें संतो के निर्गुण ब्रह्म को वेदांत दर्शन के ब्रह्म से मिला हुआ दिखाया जाता है। और इनके यहाँ निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति का समाहार चलता है जहाँ वे दार्शनिक धरातल पर ब्रह्म को निर्गुण देखते हैं वहीं सामाजिक धरातल पर उनकी भक्ति सगुण ही रहती है। किस तरह के ग्रंथ लिखे जाने चाहिए, पंथों का निर्माण कैसे होना चाहिए, प्रवचन की कला क्या होनी चाहिए, इन सबमें बहुत कुछ सगुण भक्ति के तत्त्व ग्रहण करते हैं। इसलिए निरंजनी संप्रदाय का चरित्र निर्गुण-सगुण दोनों शैलियों पर निर्भर करता है।
निरंजनी संप्रदाय इस बात का प्रमुखता से प्रस्ताव रखता है कि जब भक्ति के ग्रंथ व्याकरण के नियमों पर शुद्ध होते हैं या छंदशास्त्र के नियमों में बद्ध होते हैं तब उनकी धार्मिक संवेदना या उनका प्रभाव बढ़ जाता है। इसलिये इस संप्रदाय के संत व्याकरण और छंदशास्त्र पर अत्यधिक बल देते हैं। इसलिए दरबारी वातावरण में जो विधिवत काव्यशास्त्रीय ग्रंथ लिखे जा रहे थे निरंजनी संप्रदाय के संत उनसे जुड़ते हुए इन्हें भक्ति में ढालते हैं। तुरसीदास निरंजनी ने भी की दार्शनिक विचारधारा को व्याख्यायित किया है। कबीरादि निर्गुण संतों की भाँति तुरसी ने दर्शन का अनुसरण तो किया पर कहीं भी उनका वेद विरोध स्वर देखने को नहीं मिलता। उन्होंने वेद, पुराणों, स्मृतियों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है, तथा उन्हें साक्षी रूप में विभिन्न स्थानों पर प्रस्तुत कर अपने कथन की प्रतिपुष्टि भी की है -
निरंजनी संप्रदाय इस बात का प्रमुखता से प्रस्ताव रखता है कि जब भक्ति के ग्रंथ व्याकरण के नियमों पर शुद्ध होते हैं या छंदशास्त्र के नियमों में बद्ध होते हैं तब उनकी धार्मिक संवेदना या उनका प्रभाव बढ़ जाता है। इसलिये इस संप्रदाय के संत व्याकरण और छंदशास्त्र पर अत्यधिक बल देते हैं। इसलिए दरबारी वातावरण में जो विधिवत काव्यशास्त्रीय ग्रंथ लिखे जा रहे थे निरंजनी संप्रदाय के संत उनसे जुड़ते हुए इन्हें भक्ति में ढालते हैं। तुरसीदास निरंजनी ने भी की दार्शनिक विचारधारा को व्याख्यायित किया है। कबीरादि निर्गुण संतों की भाँति तुरसी ने दर्शन का अनुसरण तो किया पर कहीं भी उनका वेद विरोध स्वर देखने को नहीं मिलता। उन्होंने वेद, पुराणों, स्मृतियों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है, तथा उन्हें साक्षी रूप में विभिन्न स्थानों पर प्रस्तुत कर अपने कथन की प्रतिपुष्टि भी की है -
अनन्त सासत्र अनन्त बानी, अनन्त कथा रिष मुनिन गियानी।
तुरसी यामै सबकौ सार, हम नीकै कीयो निरधार।।6
वेदांत सिद्धान्त को, सब संतन कौ सार।
तुरसी यामै है सही, सबकौ अर्थ बिचार।।7
तुरसी यामै सबकौ सार, हम नीकै कीयो निरधार।।6
वेदांत सिद्धान्त को, सब संतन कौ सार।
तुरसी यामै है सही, सबकौ अर्थ बिचार।।7
तुरसी ने ब्रह्म,
जीव, जगत्, माया आदि का विवेचन सम्मत किया है।
ब्रह्म और उसका स्वरूप -
ब्रह्म शब्द जितना अधिक सरल प्रतीत होता है, उसको समझना उतना ही जटिल है। भारतीय-दर्शन के चिन्तन का महत्त्वपूर्ण विषय ब्रह्म रहा है।‘‘सामान्यतः ‘ब्रह्म’ शब्द को ‘वृह’ धातु से निष्पन्न माना गया है, जिसका अर्थ विशाल है।’’8
निर्गुणमार्गी संत कबीरदास जी ने भी ‘ब्रह्म’ को सर्वत्र व्याप्त बताए हुए कहा है कि -
खालिक खलक, खलक में खालिक सब जग रह्यौ समाई।।9
उपर्युक्त मान्यताओं व विचारों का अनुशीलन एवं आत्मसात करते हुये कवि तुरसीदास निरंजनी ने अपनी वाणी में ‘ब्रह्म’
विषय पर विशद् एवं विस्तृत वर्णन किया है। जिसको उपनिषद् में और शंकराचार्य
आदि दार्शनिकों
ने ‘ब्रह्म’
कहा है, उसको संतकवि तुरसीदास निरंजनी ने ब्रह्म,
राम, निरंजन,
अनभै, गोविन्द,
हरि आदि संज्ञाओं से अभिहित किया है। यानी ब्रह्म को निर्गुण संत-भक्ति से जोड़ा है।
‘ब्रह्म’ के स्वरूप का विवेचन संत कवि तुरसीदास निरंजनी ने विशद् रूप में किया है। तुरसी ने ब्रह्म के दो रूपों या स्वरूपों का उल्लेख किया है। ब्रह्म के दो रूप है- सापेक्ष तथा निरपेक्ष। अधिकांशतः निर्गुण भक्त कवियों ने ‘ब्रह्म’ के निरपेक्ष स्वरूप को ही ज्यादा महत्त्व दिया है। अतः तुरसी ने भी निर्गुणमार्गी होने के कारण निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प, अनादि, अजन्मा ब्रह्म का ही विवेचन किया है। वे राम नाम का जाप ब्रह्म के रूप में ही करते थे, परन्तु उनके राम ‘दशरथ पुत्र राम’ की तरह अवतारी न होकर घट-घट में वास करने वाले अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व हैं। तुरसी के अनुसार ‘ब्रह्म’ परमतत्व, तेजस्वी, शान्त स्वरूप, सिद्धि प्राप्त, अजर, अमर एवं अनूप है -
परम तत्वं परम तेजं, सांत सरूपकं।
परम पद समान सरब सिधि, अजरो अमर अनूपकं।।10
वह निर्गुण, निराकार,
निरक्षर,
निराश्रय,
निर्विकार,
निराधार एवं निर्विग्रह
है-
परम निरगुन निराकारं, निरछिरो निराश्रयं।
निरबिकारं निराधारं, निरविग्रहे निरामयं।।11
तुरसी निर्गुन ब्रह्म सूं, सो मन मानत सोय।
सरगुन सूँ रूचि ना परै, कोटि करौ किन कोय।।12
जिस प्रकार वैष्णव मतावलम्बियों ने अपने सगुण अवतारी पुरुष को विभिन्न नामों से निरूपित किया है, तथा जिसका अनुसरण कबीर आदि कवियों ने भी अपने काव्य में किया है। तुरसी ने भी इन्हीं नामों का प्रयोग अपनी वाणी में जगह-जगह किया है, परन्तु उन नामों का अभिप्राय केवल ‘परब्रह्म’ से है ना किसी अवतारी पुरुष से। तुरसी की रचना में ‘ब्रह्म’ के लिये विभिन्न नामों का प्रयोग हुआ है जो वैष्णव परंपरा में प्रचलित थे -
गोपाल - गावत गुन गोपाल के प्रेम प्रीति सूं सोइ।
गोविन्द - रसना रूचि गोबिंद गावै।
ओंकार - तुरसी तीनहु लोक में प्रतिमा वो उंकार।
राम, प्रभु - तुरसी राम नाम आदि, और हु प्रभु के नाव अपार।
ब्रह्म विष्णु महेश - ब्रह्म विष्णु महेस लौं, सुरसिंध दस औतार।
मुरारी - निसदिन जपै मुरारी।
रघुवीर - तुरसी सांई सुमिर लै, सुख सागर रघुवीर।
नारायण - दुख भंजन नारायनां, तुरसी देह जु मांहि।
अल्ह - अपने अलह राम सूं इकतार।
माधौ - माधौ जी होह दयाल मेट साल।।13
तुरसी जिस ‘परमतत्त्व’ का निरूपण अपनी वाणी में करते हैं, उसकी स्थिति सर्वत्र तथा सर्वव्यापी मानते हैं। वे इस परमतत्त्व परमात्मा (ब्रह्म) को उसी प्रकार सर्वव्यापी मानते हैं जिस प्रकार फूलों में खुशबू, तिलों में तेल, लकड़ी में अग्नि आदि व्याप्त है। इसका वे सुन्दर रूप में वर्णन करते हैं -
संतौ ऐसा राम हमारा, कोऊ जानै जानन हारा।। टेक
ज्यूं जल मैं प्रतिबिंब देखीए, दरपन नाहीं छाया।
दूधै घृत काष्ट जिम पावक, ज्यूँ तिल तेल समानै।
पिंडे जीव सीव ऐसे सब मैं, जानैं जान सुजानै।।14
तिल-तेल, काष्ठ-अग्नि तथा दूध-घृत सम्बन्धी दृष्टान्त
श्वेताश्वरोपनिषद्
में भी वर्णित मिलते हैं -
ज्यूं जल मैं प्रतिबिंब देखीए, दरपन नाहीं छाया।
दूधै घृत काष्ट जिम पावक, ज्यूँ तिल तेल समानै।
पिंडे जीव सीव ऐसे सब मैं, जानैं जान सुजानै।।14
तिलेषु तैलं दधनीव सर्पिरापः
स्त्रोतः स्वरणीषु चाग्निः।
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।।15
इस प्रकार स्पष्ट है कि तुरसी अवतारवाद की धारणा में विश्वास नहीं करते थे। उनके ब्रह्म तो त्रिगुणातीत
है। जिसे उन्होंने अलग-अलग नामों से संबोधित कर वर्णित किया है। लेकिन वे अपने नामों के समान सगुण कदापि नहीं है। विविध नामों-सम्बोधनों
में ‘राम’ नाम उन्हें सर्वाधिक प्रिय है, तभी तो वे इस नाम का अधिकाधिक प्रयोग करते हुये सर्वत्र दिखाई देते हैं। इस प्रकार उनके राम (ब्रह्म),
निर्गुण-निराकार,
निर्विकल्प,
निर्द्वन्द,
अगम, अगोचर, निर्लिप्त
होने के साथ-साथ परम सूक्ष्म एवं सुगन्ध के समान मोहक एवं सर्वत्र व्यापक तत्त्व है। इस व्यापक,
सूक्ष्म स्वरूप की केवल अंतरात्मा
से ही अनुभूति की जा सकती है, क्योंकि राम तो भीतर ही वास करते हैं
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।।15
-
तुरसी अपनैं उर बसिराइ हरि, बाहरि ढूंढन जाहि।
किस्तुरी के मृग ज्यूं, फिरि फिरि भटका खांहि।।16
जीव या आत्मा तथा जगत् -
तुरसी अपनैं उर बसिराइ हरि, बाहरि ढूंढन जाहि।
किस्तुरी के मृग ज्यूं, फिरि फिरि भटका खांहि।।16
भारतीय दर्शन में जीव या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारा गया है।‘कठोपनिषद्’ में आत्मा(जीव) को शरीर और अशरीरी दो प्रकार से प्रस्तुत किया है।17तुरसी के अनुसार ब्रह्म की माया अनादि है और वह पुरुष के सम्पर्क से ही संसार की रचना करती है -
अनादि माया ब्रह्म की, अपनै सहज सुभाइ।
उपजावै संसार कूं, पुरुष संपरक आइ।।18
ज्यूं पै मैं पानी मिलै, पांनी मैं पै सोइ।
तुरसी प्रकृति जीव यूं, रहे परस्पर होइ।।19
तू अंस निरगुण ब्रह्म कौ, देही गुन कौ भाग।
तुरसी इह गति समझिकैं, छाड़ि देह कौ राग।।20
चौबी सूं प्रकृत नस्वर, माया कौ अंस जोइ।
तूं अंस नृगुन ब्रह्म कौ, क्यूं न संभारै सोइ।।21
तुरसी ज्यूं पहौप मैं वासनां, तिल मैं तेल प्रवांनि।
एैसै नख सख तन मही, व्यापक आत्म जांनि।।22
अन्त में तुरसी कहते हैं कि जब आत्मा प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाती है, तब उसका भेद स्वरूप समाप्त हो जाता है -
जुदाई या जीव की, जौ प्रकृति सूं होइ।
तुरसी तब इह सीव है, जीव कहै नही कोइ।।23
तुरसी के अनुसार यह संसार तथा उसमें उपस्थित सभी वस्तुएँ भी सारहीन है, उनका आकर्षण केवल भ्रम तथा झूठ है -
तुरसी या संसार कूं, निश्चै जानि निसार।
खिन उपजै खिन बिनस ही, खिन खिन मैं होइ छार।।24
छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है-
‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’
अर्थात् यह सारा जगत् निश्चय ही ब्रह्म है।25
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं से ही जगत् की उत्पत्ति बताई है -
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्यु पधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभव प्रलयस्तथा।।26
रजगुन करि संसार उपावै, सतगुन करि पौषै परलावै।
तुरसी तम गुन करि संहार, आपन रहै तिहूं सूँ न्यार।।27
अर्थात् रजगुण से संसार की उत्पत्ति, सतगुण से उसका पालन तथा तमगुण से जगत् का संहार करता है।
शंकराचार्य ने जगत् को स्वप्न के समान असत् तथा मिथ्या माना है -
यदि सत्यं अवेद्विश्वं सुषुप्ता वुपलभ्यताम्।
यन्नोपलभ्यतेकिञिचद चोसत्स्वप्नवन्मृषा।।28
वेदांत में जगत् के मिथ्यात्व को मरूस्थल के जल तथा गन्धर्वनगर के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। वेदांत विद् योगवासिष्ठकार जगत् के मिथ्यात्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
यददिं दृश्यते किञिचत् तन्नास्ति
किमपि ध्रुवम्।
यथा गन्धर्वनगरं यथा वारि मरूस्थले।।29
यथा गन्धर्वनगरं यथा वारि मरूस्थले।।29
इसी मत का समर्थन करते हुये तुरसी भी जगत् को मिथ्या बताते हुए कहते हैं कि -
तुरसी यह सांच आकासवत,
चिदधन आत्मराम।
और घटवत मिथ्या जगत्, उपति खपति कौ धाम।।30
और घटवत मिथ्या जगत्, उपति खपति कौ धाम।।30
तुरसीदास निरंजनी की वाणी में उपलब्ध, वेदांत दर्शन सम्बन्धी विचारों के विवेचन एवं विश्लेषण से वे एक शास्त्रीयसम्मत विद्वान के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। तुरसीदास निरंजनी के कथनों में वेद,वेदान्तों के प्रति श्रद्धा ही व्यक्त होती हैं।
निष्कर्ष : संत कवि तुरसीदास निरंजनी के रचना संसार को देखते हुए निष्कर्षत कहा जा सकता है कि उन के यहाँ अद्वैत वेदांत और भक्ति का कोई विरोध नहीं दिखता वरन् परस्पर मिले हुए हैं, बल्कि उनके ग्रंथों में अद्वैत वेदांत की प्रधानता है। इसके अलावा संत परंपरा की यह धारा शास्त्र की तरफ़ मुड़ गई थी और निर्गुण भक्ति को शास्त्र से समर्थित करके लोक में प्रतिष्ठित कर रही थी। अद्वैत वेदांत के शास्त्रीय पक्ष को लेकर, उन पर कविता करके तुरसीदास निरंजनी जैसे संतों ने भक्ति व निरंजनी संप्रदाय को समाज में एक परिष्कृत संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठा दिलवाई। इससे भक्ति का शास्त्रीय पक्ष मज़बूत हुआ और लोक में उसे प्रतिष्ठा मिली। ठीक इसकी पूरक प्रक्रिया के रूप में कहे तो अद्वैत वेदांत की जो शास्त्रीय परंपरा थी वह भक्ति के साथ जुड़ कर लोक में प्रतिष्ठित हुई। क्योंकि देश भाषा में जितने लोकप्रिय अंदाज़ में इन निर्गुण पंथों ने इस पूरे दर्शन को भक्ति के आलोक में , भक्ति की दृष्टि से प्रस्तुत किया वह उसके लोक में प्रसिद्धि का प्रमुख कारण बना। संत भक्ति और अद्वैत वेदांत में समानता खोज रहे थे। लेकिन भक्ति का भाव वाला पक्ष उनके यहाँ मौजूद था। यही संत भक्ति के रूप में इनका मौलिक पक्ष था। धीरे-धीरे कविता का यह भावावेश और मौलिकता टीका और अनुवाद ले लेते हैं और भक्ति की कविता वाले पक्ष का क्षरण होना शुरू होता है। भक्ति आंदोलन की राजस्थान में विकसित हुई इस संत परंपरा का पतन नहीं होता लेकिन उसका स्वरूप ज़रूर बदल जाता है। बदलाव की इसी प्रक्रिया में केवल अद्वैत वेदांत और उसका शास्त्रीय पक्ष प्रमुखता पाता है।
सन्दर्भ :
1. राघवदास कृत भक्तमाल – (चतुरदास कृत टीका सहित), सम्पादक – अगरचंद नाहटा, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान्, जोधपुर, सन 1965, पृ.स. 175
3. वही, पृ.स. 202
9. कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दर दास, प्रकाशक – नागरी प्रचारिणी सभा काशी, पन्द्रहवाँ संस्करण, संवत 2026, पद सं. 51
14. वही, राग आसावरी
15. श्वेताश्वतरौ उपनिषद् (सानुवाद शांकरभाष्य सहित) – गीता प्रेस गोरखपुर, प्रथमसंस्करण, 1995 ई।, 1/15-16
डॉ. प्रेमसिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
dpsrajpurohit@gmail.com, 9414883546
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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