शोध सार : उत्तर-आधुनिककाल में हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चित बने रहे विषय, 'विमर्श' के मूल में अस्मिता की अवधारणा रही है। अस्मिता की अस्तित्वमूलक यह अवधारणा अपने नाम रूप में प्रसिद्धि पाने के पूर्व से ही निरन्तर परिवर्तित होती रही है। यह अवधारणा 'स्वत्व' के प्रश्न से प्रारम्भ होकर आज धीरे-धीरे विरोध की तरफ बढ़ती जा रही है जिसमें अपने ‘अहं’ का प्रश्न गौण हो गया है और प्रतिपक्षी के विरोध का स्वर मुखर होता जा रहा है। अब विमर्श के नाम पर मूल संवेदनाओं से कट चुके वर्ग के साहित्य की भरमार दिखाई देने लगी है जो स्वयं भोक्ता नहीं हैं बल्कि कभी उनके पूर्वज भोक्ता रहे होंगे। ऐसे में आज के इस विमर्श साहित्य को अनुभूतिमूलक साहित्य कहना बहुत अधिक तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। तो वहीं एक सवाल संवेदना से निरन्तर दूर होते जाते इस साहित्य से भी उठता है कि क्या साहित्य आज तक भी समाज के प्रति अपनी 'स' 'हित' की धारणा को पोषित करता हुआ ‘सर्वजन हिताय’ बना रह सका है तथा भविष्य में भी यह पूर्ववत बना रह सकेगा अथवा विमर्श साहित्य के नाम पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाला साहित्य बनकर एकांगिकता, एकरसता, संवेदनहीनता आदि से ग्रसित हो जायेगा। ऐसे में जरूरत है एक सहभागिता मूलक साहित्य की, जिसमें विरोध के स्वर हों, अपनी अस्मिता की गूँज हो, अपने अधिकारों की माँग हो, किन्तु साहित्यिक धारणा को तोड़कर नहीं बल्कि इसी धारणा के दामन तले, जिसमें प्रत्येक संवेदनशील समूह की सहभागिता हो उसका प्रतिनिधित्व हो।
बीज शब्द : अस्मिता,
विमर्श, अस्मितामूलक विमर्श, संवेदना, विखण्डनवादी
विमर्श अवधारणा, सामंजस्यवादी
विमर्श अवधारणा, लोकतांत्रिक
चेतना, हाशियाग्रस्त
समूह, निवृत्ति और
प्रवृत्ति मार्ग, नारी का
वस्तूकरण, बाजारवाद,
इंसानियत अथवा मानवता, भोगवादी मानसिकता।
मूल आलेख : अस्मिता का प्रश्न
साहित्य और समाज में अपनी मूल जड़ों का प्रशस्तिगान नहीं है न ही अपनी हीनतर भावना
की उद्घोषणा है। साहित्य समाज की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंब होता है ऐसे में
रचनाकार समाज की बातों को साहित्य के माध्यम से पाठक के मनोपृष्ठ पर सम्यक और
अनवरत रूप में लाते रहे हैं किंतु इस संपूर्ण यात्रा में ‘डार्विन’ का ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ का सिद्धांत कहीं न कहीं
पोषित होता रहा है और समाज की मुख्यधारा के द्वारा ही साहित्य रचा जाता रहा है।
ऐसे में निश्चित ही पिछले पायदान पर छूट गए शोषित, दलित, दमित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला यह समुदाय यदा-कदा ही शर उठा सका है और
अपनी अनुभूति को साहित्यिक पटल पर सम्प्रेषित कर सका है। वास्तव में तब तक यह शोषण दमन को स्वीकार कर चुकी व्यवस्था की चर्चा
बहस का मुद्दा ही नहीं बन सकी जब तक कम से कम सैद्धांतिक रूप में ही सही समानता का
अधिकार सामने नहीं आ गया। उत्तर-आधुनिक काल में आलोचना का एक नया दायरा विकसित हुआ जो
समानता, स्वतंत्रता,
अधिकार का संवाहक बना जिसे साहित्य में विमर्श का नाम दिया
गया। “आलोचना का यह नया विमर्शवाद, नए मनुष्य को परिभाषित करने की कोशिश कर रहा है। यहां हताशा निराशा की कोई जगह
नहीं है।”1
उत्तर आधुनिक काल की इस अवधारणा में अस्मिता शब्द का अर्थ "अहंकार2", "आत्मश्लाघा", "अहंकार", "मोह" आदि3 को माना गया। मूलतः ‘अस्मिता’ शब्द ‘अस्मि’
शब्द की भाववाचक संज्ञा है जो ‘अस+मिन’ से बना है और
अर्थ है ‘मैं हूं’; अर्थात इस शब्द से स्वत्व का बोध होता है। “यह एक ऐसा दायरा है जिसके तहत
व्यक्ति और समुदाय यह बताते हैं कि वे खुद को क्या समझते हैं।”4
अस्मिता के शब्द की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में नामवर सिंह ने कहा है कि “हिंदी में अस्मिता शब्द
पहले नहीं था। 1947 से पहले की
किताबों में मुझे तो नहीं मिला। पहली बार अज्ञेय ने 'आइडेंटिटी' के लिए अनुवाद 'अस्मिता'
शब्द का प्रयोग किया।”5
‘विमर्श’ शब्द का अर्थ
मानक
हिन्दी कोश - "विचारण, आलोचना,
व्याकुलता, क्षोभ, उद्वेग।"6
अंग्रेजी
हिन्दी शब्द कोश - "भाषण, प्रवचन, प्रबंध।"7
अभय कुमार
दुबे - "इसका निपट अर्थ है दो वक्ताओं के बीच संवाद या बहस या सार्वजनिक चर्चा।"8
अर्थात् भाषण, परीक्षा,
आलोचना, विचारण, गुणदोष की
मीमांसा आदि शब्द विमर्श के समानार्थी प्रतीत होते हैं। विमर्श शब्द से जहाँ
बातचीत और वार्तालाप इत्यादि अर्थ स्पष्ट होते हैं वहीं साहित्यिक रूप में इसका
अर्थ किसी भी गंभीर एवं महत्वपूर्ण विषय का गहन विवेचन - विश्लेषण,
मीमांसा, परीक्षण करते हुए अंतत: तर्क संगत निर्णय पर पहुँचने का प्रयत्न है।
उपरोक्त चर्चा के आधार पर दृष्टव्य है
कि यदि किसी व्यक्ति, जाति,
वर्ग, क्षेत्र इत्यादि की पहचान प्राप्त करने के लिए चर्चा, वार्ता, बातचीत की जायेगी तो वह अस्मिता मूलक विमर्श का द्योतक होगा।
स्पष्ट है कि अपने प्रारम्भिक दौर में वे समूह सामने आए जिनको अभी तक विकास की
मुख्य धारा से पृथक रखकर हाशिए पर रखा गया था । इन समूहों ने अपने अधिकार,
स्वत्व की पहचान करना प्रारंभ कर दिया। वास्तव में अस्मिता
प्राप्ति के संघर्ष की शुरुआत अपने वंचित, पीड़ित और प्रताड़ित होने के अहसास से शुरू हो जाती है;
जिससे अपनी पहचान को प्राप्त करना सबसे बड़ा उद्देश्य हो
जाता है। अस्मिता-विमर्श का उद्देश्य उपेक्षित वर्गों की पीड़ा,
दुःख, उत्पीड़न, शोषण इत्यादि
से समाज की मुख्यधारा का परिचय करवाना और उन्हें उनका वाजिब हक तथा समाज की मुख्य
धारा में पहचान दिलाना है। प्रसिद्ध समीक्षक नामवर सिंह मानते हैं कि- “अस्मिता
दया नहीं चाहती है। अस्मिता हक चाहती है।”9 अस्मिता संबंधी इसी पहचान
या हक के लिए विमर्श की आवश्यकता पड़ती है बिना विमर्श के किसी भी पहचान को निर्मित
करना या स्थापित करना असंभव है।
वस्तुत: अस्मिता का सीधा संबंध पहचान है, ‘मैं’ की भावना है। स्पष्ट है प्रत्येक संज्ञा की अस्मिता पृथक होती है यह व्यक्तिगत
भी हो सकती है, और सामूहिक
भी। यह अपनी निजी पहचान के साथ ही उस क्षेत्र, समाज की पहचान भी है जो हमारे संदर्भों को व्याख्यायित करते
हैं ये संदर्भ जाति, रंग,
वर्ण, नस्ल, क्षेत्र,
भाषा, जेंडर, पेशे इत्यादि
कुछ भी हो सकते हैं। वास्तव में अस्मिता का प्रश्न तभी उत्पन्न होता है जब बाह्य
शक्तियों की प्रबलता अथवा दबाव के कारण मनुष्य के लिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना
कठिन हो जाए। आधुनिकता की अवधारणा के युग में लोकतांत्रिक मूल्यों,
समानता, अधिकार, आत्मसम्मान,
स्वतंत्रता, बंधुत्व, गणतंत्र आदि
की धारणा को मजबूती मिली तथा लोकतांत्रिक चेतना विकसित हुई;
इस आधुनिक और लोकतांत्रिक चेतना ने मनुष्य को न केवल एक
निजी रूप में उसकी पहचान और अस्तित्व के लिए चेतनशील बनाया बल्कि अपनी एक सामूहिक
पहचान और अस्तित्व के प्रति भी सजग बनाया।
अस्मितामूलक विमर्श यह बतलाता है कि किसी एक पक्ष से जुड़े विचारों,
भावों, बाह्य व आंतरिक परिस्थितियों, मान्यताओं, रीति रिवाजों
को दूसरे पक्ष पर जबरदस्ती आरोपित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उसे अपने जीवन की
प्रगति और विकासयात्रा की प्रवाहमयता का चुनाव स्वयं करने देना चाहिए।
हिन्दी साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से
प्रारम्भ होकर शीघ्र ही अपने स्वरूप, आयाम में व्यापक बन गया और साहित्य में विमर्श के विभिन्न आयाम दृष्टिगत होने
लगे। वस्तुत: अस्मितामूलक विमर्श मानवीय और मानवेतर दो स्वरूपों में साहित्य में
दिखाई देता है। मानवीय विमर्श में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्नर विमर्श,
अल्पसंख्यक विमर्श, प्रवासी
विमर्श, बाल विमर्श,
वृद्ध विमर्श, किसान विमर्श, मजदूर विमर्श,
युवा विमर्श, पुरुष विमर्श आदि दिखाई दिए तो वहीं मानवेतर विमर्श में पर्यावरण विमर्श,
भाषा विमर्श, संस्कृति विमर्श, जीव-जंतु
विमर्श आदि दिखाई देने लगे।
विमर्श के इन्हीं दोनों स्वरूपों के आलोक में ही अस्मितामूलकविमर्श के तीन
दृष्टिकोण परिलक्षित हुए। प्रथम दृष्टिकोण ‘स्वानुभूतिपरक’ है जिसमें रचनाकार स्वयं हशियाग्रस्त उसी समूह का होता है जिसको रचना में वर्णित कर रहा होता है वह अपनी स्वयंवेदना
से अपने तथा स्वधर्मा पक्ष के शोषण, दुःख–दर्द,
अहसास, अनुभूति को बयाँ करता है यह सर्वाधिक प्रभावी विमर्श होता है। जैसे श्यौराज
सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर’, सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ आदि।
दूसरा दृष्टिकोण ‘सहानुभूति परक’
है। जिसमें रचनाकार भोक्ता समूह का सदस्य तो नहीं होता
किन्तु वह वर्णित सामग्री को महसूस करके, अनुभव करके तार्किकता, वस्तुनिष्ठता बढ़ाता है इस प्रकार के लेखन को
परकाया प्रवेश का लेखन भी कहते हैं। इसमें रचनाकार हाशियाग्रस्त वर्गों के
जीवन संघर्ष को देखता है, विचारता है जो उसके अन्तर्मन को हिला देती हैं और वह अपने को इस हशियाग्रस्त वर्ग
के साथ देखने लगता है। प्रेमचंद की कहानियां जैसे ठाकुर का कुंआ,
मंत्र, सद्गति आदि इसी प्रकार के उदाहरण है तो वहीं राजेन्द्र यादव द्वारा महिलाओं
पर लिखी रचना ‘आदमी की निगाह
में औरत’ को भी इसी
वर्ग में शामिल किया जा सकता है।
तृतीय दृष्टिकोण ‘समानुभूति’
का है हालांकि इसे रचनागत धरातल पर बहुत अधिक प्रासंगिक
नहीं माना जाता है और समीक्षकों का मानना है कि कोई भी दर्शक भोक्ता के अनुभव के
समान अनुभूति नहीं कर सकता। फिर भी सहानुभूति के आधार पर किए गए लेखन की अपेक्षा
इस दृष्टिकोण को अधिक प्रभावी पाया जाता है क्योंकि इसमें दर्शक,
भोक्ता के संवेदनागत स्तर तक जाकर, भावों को ग्रहण करने को प्रेरित होकर रचना
करता है। मार्क्सवादी समीक्षक इसे ‘प्रगतिवादी दृष्टि’ के रूप में देखते है और हशियाग्रस्त वर्ग को सर्वहारा वर्ग के रूप में
व्याख्यायित करते हैं।
विमर्श की इस वार्ता प्रक्रिया में साहित्य में प्रमुख रूप से स्त्री विमर्श,
दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक
विमर्श, किन्नर विमर्श
स्थापित विमर्श के रूप में दृष्टिगत हो रहे हैं तो वहीं वृद्ध विमर्श,
किसान विमर्श, बाल विमर्श, पशु-पक्षी
विमर्श, युवा विमर्श,
पर्यावरण विमर्श आदि भी अपने पैर जमाने की अजमाइश में
दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
प्रमुख स्थापित विमर्शों में स्त्री
विमर्श लिंगगत भेदभाव की अवधारणा, शोषण, पितृसत्ता आदि को आधार बनाता है। वास्तव में प्राचीन काल के मातृप्रधान समाज (वैदिककाल,
सिंधु घाटी सभ्यता) में स्त्री की अस्मिता को पुरुष के
बराबर माना गया किन्तु धीरे-धीरे समाज के मातृसत्ता से पितृसत्ता की ओर स्थानांतरण
ने नारी की महत्ता और भूमिका को गौण बनाया
जिसके फलस्वरूप अधिकारों की सीमितता किन्तु कर्तव्यों की बहुलता ने एक अंतर्विरोध
को जन्म दिया जिसमें आबादी के इस अर्धांग को अभिव्यक्ति, निर्णय के अधिकार एवं अवसर से बेदखल होना पड़ा। सबला से अबला
की विद्रूपता और विसंगतियों से भरी इस ह्रासोन्मुखी यात्रा ने नारी के अस्तित्व पर
प्रश्नचिन्ह लगाया।
सभ्यता एवं संस्कृति की कई चरणों की विकासयात्रा में नारी धीरे-धीरे परिधि की
ओर अग्रसर होती हुई अन्तत: आज परिधि पर आकर बैठ गई। जिससे हमारी व्यवस्था में नारी
के निर्णय की भूमिका नगण्य होती गई और वह परतंत्रता की दहलीज पर गिरती गई। इसी
अवस्था से मुक्ति के प्रयास के रूप में वैचारिक जगत में स्त्री मुक्ति आंदोलन,
स्त्री अधिकार आंदोलन जो साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’ के नाम से जाना जाता है, का जन्म हुआ। लैंगिक समानता और स्त्री अधिकार के विभिन्न प्रश्नों से 1890 के आसपास प्रारम्भ हुआ “स्त्री विमर्श स्त्रियों के दमन के
विविध रूपों का अध्ययन करता है और दमन से मुक्त कराने की दिशा में सकारात्मक
दृष्टिकोण के साथ वैचारिक स्तर पर पहल भी करता है।”10
दलित विमर्श प्रमुख रूप से शोषण, वंचन की अवधारणा को आधार बनाता है किन्तु इस विमर्श दृष्टि के अंतर्गत ही दलित
शब्द के अर्थ को लेकर एक वैचारिक मतभेद सा बना रहा है और समीक्षकों ने इसकी जातिगत,
धर्मगत, आर्थिक व्याख्या प्रस्तुत की है। वस्तुत : “दलित शब्द का अर्थ है जिसका दलन और
दमन हुआ है। दलित लेखक कंवल भारती लिखते हैं, दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है।
जिसे कठोर और गंदे काम करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और
स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया है और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं
की संहिता लागू की है।”11 इसी प्रकार “दलित साहित्य से अभिप्राय उस
साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को वाणी दी है। अपने जीवन-संघर्ष
में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है।”12 इसीलिए “दलित
विमर्श के केन्द्र में वे सारे सवाल हैं जिनका संबंध भेदभाव से है, चाहे ये भेदभाव जाति के
आधार पर हों, रंग के आधार
पर हों, नस्ल के आधार
पर हों, लिंग के आधार
पर हों या फिर धर्म के आधार पर ही क्यों न हो?”13
“दलित साहित्य एक आन्दोलन के रूप में 1960 के आसपास मराठी भाषा से आरम्भ हुआ xxxxx
हिन्दी आदि में दलित साहित्य की गूंज 1980 के बाद ही सुनाई देनी शुरू हुई।”14 दलित
साहित्य के अवधारणात्मक प्रेरणा स्रोत डॉ. अम्बेडकर, स्वामी अछूतानंद, ज्योतिबा फुले, कबीर,
रैदास आदि की विचारधारा ही रही है। “सही मायनों में कबीर और
रविदास ही हिन्दी दलित साहित्य के या कहना चाहिए कि उत्तरी भारत के दलित साहित्य
के अग्रदूत हैं।”15
इसी प्रकार आदिवासी विमर्श भारतीय समाज की मुख्यधारा से पृथक एक ऐसे समाज का
साहित्य है जिसमें हजारों वर्षों से मनुष्य जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित
सुदूर जंगलों मे रहने वाले समुदाय के जीवन संघर्ष की भाषिक अभिव्यक्ति है।
आदिवासियों की अपनी अलग परंपरा, संस्कृति, रहन-सहन,
खान-पान, रीति-रिवाज, त्योहार आदि
रहे हैं। इनकी लड़ाई हमेशा जल, जंगल, जमीन को लेकर
ही रही है; और यही इस
विमर्श का अवधारणात्मक आधार भी रहा है। हालांकि, आधुनिक समाज में आर्थिक विकास की प्रगति से आदिवासियों के
जीवन, संस्कृति में
जो परिवर्तन आए हैं और वे विस्थापन के शिकार होकर अपनी सामूहिकता की धारणा को
तोड़कर बिखर गए हैं; “वर्तमान में
आदिवासियों का जीवन दलितों से भी गया गुजरा है दलित तो आज के संदर्भ में संगठित
होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ भी लेते हैं । वे सामाजिक एवं राजनीतिक रुप से
संगठित भी हैं लेकिन आदिवासियों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है।”16
आदिवासी विमर्श का प्रारम्भ दलित विमर्श की प्रेरणा से माना जाता है और यह
सामान्यतः स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से बाद में चर्चा में आने तथा आदिवासियों
की क्षेत्रीय एवं मातृभाषा में लेखन के कारण आदिवासी विमर्श का हिंदी साहित्य अभी
मात्रा में कम एवं गुणवत्ता में गौण है; तथा अधिकांश हिंदी का आदिवासी साहित्य गैर-आदिवासी साहित्यकारों
द्वारा रचा गया है (जैसे रणेन्द्र,रमणिका गुप्ता आदि)। किन्तु धीरे-धीरे यह धारणा टूटने लगी है और वन्दना टेटे, जमुना बिनी, हरे राम मीणा सदृश अनेक प्रसिद्ध
आदिवासी रचनाकार एवं उनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य में भी समादृत होने लगी
हैं।
विमर्श की यह अनवरत यात्रा स्थाई एवं जड़ न होकर विकसनशील रही है जिसमें विमर्श
की तरीकों के साथ ही विमर्श के मुद्दों में भी नित संशोधन हुआ है एवं अस्मिता की
नई परिभाषाएँ भी गढ़ी गई हैं। आज के समय में साहित्य का विमर्श पक्ष सहानुभूति और
समानुभूति के आधार पर किए गए रचनाकर्म को अस्वीकार करता है तथा स्वयंवेदना या अपनी
अनुभूति को ही वास्तविक विमर्श मानता है। विमर्श की आधुनिक अवधारणा का स्पष्ट
मानना है कि जब तक हाशियाग्रस्त, शोषित, दमित वर्ग
अपनी अस्मिता के संरक्षण एवं उसके लिए आवाज उठाने में समर्थ नहीं था तब तक तो सहानुभूतिपूर्ण
लेखन को सही कहा जा सकता था किंतु आज जब यह वर्ग जागरुक और समर्थ है ऐसे में
सहानुभूति के आाधार पर संवेदना की कल्पना को यथार्थ नहीं कहा जा सकता और न ही
उसमें वह दर्द बयाँ हो सकता है, न वह संवेदना व्यक्त हो सकती है जो स्वानुभूति के आधार पर
लिखे गए साहित्य में अभिव्यक्त होती है।
विमर्श की इस बढ़ती चर्चा के मध्य में अस्मिता के मायनों में बदलाव आया है जो
प्रश्न स्त्री विमर्श में पहले लिंगगत भेदभाव के रूप में हुए वंचन,
शोषण और प्रताड़ना को आधार बनाते थे। अस्मिता के विरुद्ध यह
लड़ाई समाज और विकास के सापेक्ष निरंतर परिवर्तित होती रही है। जैसे –
आदिकाल – नारी की अस्मिता का प्रश्न भोगवादी प्रवृत्ति या वस्तूकरण
के विरुद्ध था।
भक्तिकाल – माया रूप, निवृत्ति मार्ग की बाधक, पराधीन रूप, विवशता के
विरुद्ध संघर्ष था।
रीतिकाल – श्रृंगारिकता, भोगवादी मानसिकता, वासनाजन्य
प्रयोग, मनोरंजन के
वस्तुरूप के विरुद्ध संघर्ष था।
आधुनिक काल – अस्मिता की धारणा निरंतर परिवर्तित होती रही है। अस्मिता की
अवधारणा आज प्राचीन सभी अस्मिताओं से इतर अपने शोषण की चर्चा से ऊपर उठकर
अधिकारमूलक हो गई है।
अस्मिता के निरंतर परिवर्तन के इसी दौर में विमर्श के नाम पर या अस्मिता के
सवाल पर अंगप्रदर्शन, नग्नता,
अश्लीलता, विवाह इतर यौन संबंध जैसे वासनाजन्य इवेंट साहित्य में परोसे जाने लगे हैं; जिन्हें
बच्चों से युवा और वृद्धों तक के लिए एक नज़र में उपयुक्त तो नहीं कहा जा सकता है
क्योंकि साहित्य का फिल्म की भाँति गैर वयस्क, व्यस्क, वरिष्ठ का बँटवारा नहीं है, साथ ही स्त्री विमर्श का जो एक आधार पितृसत्तामक व्यवस्था
के विरोध के रूप में साहित्य, समाज और मंच पर आ रहा था अब उसका कोई अनिश्चित आधार नहीं रह गया है बल्कि अनेक
अनिश्चित आधारों की तरफ खिसकता नज़र आ रहा है जिसमें वार्ता और विमर्श का केन्द्र
प्रयोजनमूलक ही हुआ है।
दलित विमर्श में भी अस्मिता की अवधारणा संशोधित होती रही है;
जो विमर्श दलित, दमित, शोषित के
आर्थिक, धार्मिक,
जातीय आदि किसी भी वैचारिक आधार से पोषित होता था आज वह
अवधारणा आर्थिक, जातीय और
धार्मिक के वाद-विवाद में फँसी हुई है। कुछ समीक्षक दलित विमर्श को खानपान,
त्योहार, रीति-रिवाज, कार्य आदि के
माध्यम से व्यक्त करने लगे हैं। उन्हें अब हिन्दूवादी कोई भी विधि,
संस्कार आदि मंजूर नहीं हैं।
आदिवासी विमर्श में अस्मिता का परिवर्तित रूख जल, जंगल, जमीन से आगे बढ़ कर उस नक्सलवाद, अलगाववाद के रूप में सामने आ रहा है जिसे एक विकृत मानसिकता की उपज के इतर
नहीं देखा जा सकता। “इन्होंने
समानता, न्याय,
हिस्सेदारी और आत्मसम्मान के लिए प्रतिरोध,
आंदोलन और संघर्ष को अपना मुक्तिपथ घोषित किया है।”17 साथ ही दृष्टिकोण के स्तर पर यह विमर्श भी अब स्वानुभूति को
ही वरीयता प्रदान करने लगा है जबकि अभी तक उत्कृष्ट साहित्य की आदिवासी विमर्श की
पोषक सामग्री की प्रचुरता नहीं हो पाई है।
निरंतर नए रुख अख्तियार करती अस्मिता
की अवधारणा में एक परिवर्तन विमर्श के तरीकों को लेकर भी सामने आया है जो विमर्श
पहले कविता, कहानी,
उपन्यास, संस्मरण आदि के माध्यम साहित्य जगत में आता था और अपनी अस्मिता की प्रस्थापना
करता था वह आज आत्मकथा, साक्षात्कार, मंचीय वार्ता,
समीक्षा आदि के रूप में भी साहित्य में आया है। इस
वैविध्यपूर्ण साहित्य से इंकार नहीं किया जा सकता बल्कि यह अस्मिता के विभिन्न
पक्षों के सम्पूर्ण एवं प्रभावी रूप में संप्रेषण के प्रमुख माध्यम के रूप में आया
है। “साहित्य में
अस्मिता विमर्श का दौर है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक,
सांस्कृतिक सभी स्तरों पर हिस्सेदारी और अपने अधिकारों की
माँग को लेकर हासिए की अस्मिताओं के संघर्ष के स्वर उभरे हैं। वर्ग,
जाति, वर्ण, लिंग,
स्थानिकता, सांस्कृतिक पहचान, विस्थापन आदि को आधार बनाकर नई अस्मिताएं सामने आई हैं।”18
गौरतलब है कि सवाल अस्मिता के बदलते स्वरूप का नहीं है, न ही अस्मिता के निरन्तर
परिवर्तित होते विमर्श और वार्ता तथा वैचारिकी का है। प्रमुख प्रश्न तो भाव,
संवेदना से निरन्तर दूर होते और साहित्य की ‘स’ ‘हित’ की भावना के
नजरंदाज होने का है। वस्तुत: साहित्य की
अवधारणा समाज के हित की अवधारणा है और स्वाभाविक है कि इस समाज में दलित,
आदिवासी, स्त्री, किन्नर,
अल्पसंख्यक आदि सभी शामिल हैं; और उन्हें, उनकी समस्याओं को, उनकी
अस्मिताओं को साहित्य में जो स्थान मिलना चाहिए, वह नहीं मिल सका है; इसीलिए
अस्मितामूलक विमर्श की अवधारणा आई और अपनी-अपनी अस्मिता के संरक्षण का सभी वर्गों ने अवसर तलाशा|
मुख्य मुद्दा इस विमर्श की बढ़ती संख्या एवं उग्रता का है
जिसमें यदि प्रत्येक समुदाय अपना पक्ष पेषण ही करेगा तो निश्चित रूप से साहित्य
में संक्रमण का वह क्षेत्र नहीं आ सकेगा जो आपसी सामंजस्य से आता है अथवा जो स्वयं
लिखने में असमर्थ हैं। प्रमुख सवाल यह भी है कि एक स्त्री क्या सिर्फ स्त्री ही है
माँ नहीं या दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, वृद्ध,
युवा, किन्नर क्रमशः सिर्फ दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक,
वृद्ध, युवा, किन्नर ही हैं
इंसान नहीं। साहित्य मानवता की अवधारणा से पोषित होता है; यह सही है कि सभी को अवसर मिलने चाहिए किन्तु उनमें भी
मानवता को, इंसानियत को
नजरंदाज नहीं करना चाहिए।
हालांकि इस दिशा में वर्तमान साहित्य में सामंजस्यमूलक प्रगति की रेखाएँ
नासिरा शर्मा के ‘अल्फा-बीटा-गामा’
(गली के कुत्तों की संवेदना को आधार बनाकर
लिखे गए) उपन्यास के संदर्भ में देखी जा सकती है, जो स्त्री,
पुरुष, बच्चे, वृद्ध आदि सभी
मानवीय संवेदनाओं से ऊपर उठकर मानवेतर संवेदना की
अभिव्यक्ति है।
अस्मिता के प्राप्त होते विविध रूपों में एक सवाल अस्मिता की सैद्धांतिकी को
लेकर भी मुखर हो रहा है कि विमर्श के नाम पर अस्मिता की सैद्धांतिकी विरोध की
सैद्धांतिकी में परिवर्तित होकर उग्र रूप धारण करके नृशंशता की सीमा की तरफ तो
बढ़ती नहीं जा रही है अथवा अस्मिता की सैद्धांतिकी के नाम पर प्रसिद्धि पाने की
लालसा में इस बन गए एक सुगम रास्ते का अनुसरण करते हुए रचनाकार अपने द्वारा कहीं
का ईंट और कहीं का पत्थर लाकर समंजित तो नहीं करते जा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं
कि महत्व प्राप्ति की लालसा, अनुभूति से हटकर केवल समुदाय अथवा वर्ग से संबंधित होने के आधार पर रचना करवा
रही है।
‘विमर्श:विखण्डनवादी या सामंजस्यवादी’
के प्रश्न पर साधारणत: विमर्श के पोषक समीक्षक पूर्व के
समाज को विखंडनवादी मानते हुए आज की विमर्श की अवधारणा को सामंजस्यवादी मानते हैं।
किंतु वह एक वर्ग जो शोषण के प्रभावों से न्यूनतम एक पीढ़ी दूर है वर्तमान शोषित समाज
का पूर्ण प्रतिनिधित्व न कर अंतःवर्गीय रूप से विखण्डन का कारण बन रहा है।
आवश्यकता हशियाग्रस्त समूह के मुख्यधारा में आने की होती है न कि किसी वर्ग के
क्रीमी लेयर के बने रहने की। सवाल यह भी है कि यदि यह क्रीमी वर्ग ही वातानुकूलित
कमरों में बैठकर बन गए सुगम रास्तों का अनुसरण करता रहेगा तो दुर्गम रास्तों की
खाक कौन छानेगा; जिससे समाज और
साहित्य में समतामूलक और सामंजस्यमूलक अवधारणा को प्रतिनिधित्व मिल सकेगा।
वास्तव में कोई भी विमर्श सम्बधी आंदोलन प्रतिशोध प्रेरित न होकर अपने
अस्तित्व व अस्मिता के बोध का स्वानुभूतिपरक मन की अंतस्चेतना के प्रकटीकरण का
आंदोलन होना चाहिए। किसी भी प्रगतिशीलता
की द्योतक वह मद्धिम रोशनी ही होती है जो स्याह पृष्ठों पर भी प्रकाश डाल सके; प्रत्येक
पिछड़े, बिछुड़े वर्ग
का प्रतिनिधित्व कर सके क्योंकि अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं होता है अतः अपने
कर्तव्य और अधिकारों के मध्य सामंजस्य स्थापित करते हुए एक ऐसे रचनात्मक लेखन को
वरीयता दें तथा शक्ति, सामर्थ्य व सीमा में रहते हुए रचनात्मक लेखन द्वारा ऐसा संगठन गठित करें जिसका
उद्देश्य बेहतर समाज की संरचना का निर्माण करना हो; जिससे कि सृजन हो ध्वंस नहीं, निर्माण हो नाश नहीं। बात नारी विमर्श की हो तो “नारी का संघर्ष पुरुष जाति से नहीं पुरुष सत्ता और उस घृणित
मानसिकता से है जो सिर्फ नारी को भोग्या के रूप में देखता है। xxxxxx अत: मुक्ति की
चेतना में मूल भावना भी सहयोग की होनी चाहिए प्रतिद्वंदिता की नहीं।”19
“साहित्य के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती स्त्री मुक्ति के बहाने
देहवादी साजिशों से सावधान रहने की है। साहित्य में स्त्री विमर्श का अर्थ मात्र
स्त्री शरीर और प्रेम के त्रिकोण के चमत्कारी बयानों से न होकर आज के बाहरी और
आंतरिक दबाओं को झेलती स्त्री का मन उसकी सोच से होना चाहिए।”20 तो वहीं दलित विमर्श के साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती किसी एक
मान्य धारणा को स्वीकार करने में समाहित है जिसका प्रत्येक दलित विमर्श का
प्रतिनिधिकर्ता अनुसरण करे और उसी पर केन्द्रित रहकर ‘अपनी ढपली अपना राग’ से बचकर एकरस,
एकमत ध्वनि की टंकार करे। आदिवासी विमर्श की प्रमुख चुनौती
अभी उसे साहित्य में ही नहीं बल्कि समाज में स्थान दिलाने की है जिससे अपने को
वंचित एवं शोषित महसूस करता हुआ यह हशियाग्रस्त वर्ग अपने हाथों में बन्दूक,
बम, तलवार लेकर नक्सलवाद का पोषक न हो बल्कि हाथ में शिक्षा,
चिकित्सा, रोजगार का पात्र लेकर विकास का रूख अख्तियार करते हुए समाज की मुख्य धारा में
अपनी पृथक संस्कृति, समाज एवं
अस्मिता को संरक्षित-सुरक्षित महसूस करते हुए जीवन यापन करें।
निष्कर्ष : निष्कर्षतः कहा जाना चाहिए कि
विमर्श – विमर्श के खेल
की इस पारी में भी साहित्य की ‘स’ ‘हित’
की धारणा बनी रहनी चाहिए, जिसमें अमिता का प्रश्न बैकफुट पर डालकर पर्दे की आँड़ से
खेलने की क्रिया नहीं बल्कि अस्मिता के प्रश्न पर अपनी मुखर आवाज की अभिव्यक्ति हो
तथा अस्मितामूलक विमर्श की स्वीकृति-अस्वीकृति से ऊपर उठकर अपने पक्ष, अस्मिता, अधिकार,
कर्तव्यों को रखते हुए भी मानवता एवं इंसानियत को शर्मसार
करने वाली व्यवस्था को भंग करना होगा।
हालांकि इस संदर्भ की पूर्ण पुष्टि हेतु वर्तमान साहित्य की उस सम्पूर्ण धारा
का भी शोध अध्ययन किया जाना अपेक्षित होगा जिसमें बाल विमर्श,
पशु-पक्षी विमर्श, पर्यावरण विमर्श आदि के मातहत ‘एल्फा – बीटा –
गामा’ (नासिरा शर्मा) जैसी रचनाएँ गली के अवांछनीय एवं अनादृत समझे जाने वाले कुत्तों की संवेदनाओं को
प्रतिनिधित्व प्रदान करती हैं, साथ ही प्रकृति के उन उपादानों की विकासधारा की गुणवत्ता
एवं मात्रा का शोध अध्ययन अपेक्षित होगा जो अपना पक्ष रखने में समर्थ नहीं हैं
किंतु वे एक महत्वपूर्ण संघटक के रूप में समाज, प्रकृति एवं मानव से जुड़े हैं और साहित्य के संवाहक हैं।
1. कृष्णदत्त पालीवाल : समकालीन साहित्यिक विमर्श, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 103
2. वामन शिवराम आप्टे : संस्कृत हिन्दी कोश, राजस्थानी गृंथगार, जोधपुर (राजस्थान), 2022, पृष्ठ संख्या 132
3. सं. पं. रामचंद्र पाठक : आदर्श हिंदी शब्दकोश, भार्गव बुक डिपो, वाराणसी, पृष्ठ संख्या 64 (https://epustakalay.com/book/4772-bhargav-adarsh-hindi-shabdkosh-by-pandit-ramchand-pathak/) से
4. अभय कुमार दुबे : भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृष्ठ संख्या 455
5. सं. समीक्षा ठाकुर : बात - बात में बात, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ संख्या 281
6. सं. रामचंद्र वर्मा : मानक हिन्दी कोश, डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया, 1964, पृष्ठ संख्या 903
7. अंग्रेजी हिन्दी शब्दकोश, https://dictionary.cambridge.org
9. सं. समीक्षा ठाकुर : बात - बात में बात, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ संख्या 292
10. डॉ. रमेश पुरी : अस्मितामूलक:वैचारिकी और संदर्भ, अपनी माटी पत्रिका अंक 39 (जनवरी - मार्च 2022), https://www.apnimaati.com/2022/03/blog-post_55.html?m=1
12. डॉ. अमरनाथ : हिंदी आलोचना की परिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृष्ठ संख्या 171
13. वही, पृष्ठ संख्या 172
14. प्रो. चमन लाल : दलित साहित्य एक मूल्यांकन, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 2009, पृष्ठ संख्या 11
15. वही, पृष्ठ संख्या 13
16. सं. डॉ. रमेश सम्भाजी कुरे एवं अन्य : आदिवासी साहित्य विविध आयाम, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2013, पृष्ठ संख्या 101
17. डॉ. जयंतकर शर्मा : अस्मिता विमर्श:स्त्री,दलित एवं आदिवासी, ओडिशा स्टेट ओपेन यूनिवर्सिटी, संभलपुर(ओडिशा), (BHD-03: BLOCK-05 हिंदी साहितà¥à¤¯ का इतिहास का à¤à¤¾à¤—-२ - अस्मिता विमर्श स्त्री दलित एवं अधिवासी) से
18. वही
19. डॉ. सुमन सिंह : हिन्दी साहित्य में नारी अस्मिता के विविध रूप, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2018, पृष्ठ संख्या 11
20. वही, पृष्ठ संख्या 22
शोध छात्र, डी. ए-वी. कॉलेज, कानपुर-208001, (संबद्ध - छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर)
shivamverma10081996@gmail.com 8009094093
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