- डॉ. प्रशांत सरकार
शोध
सार : वर्तमान
युग
भूमंडलीकरण
का
युग
है।
भूमंडलीकरण
एक
गतिशील
प्रक्रिया
है
जो
रोज
बदल
रही
है।
बदलते
हुए
युग
यथार्थ
के
परिप्रेक्ष्य
में
नयी
विचारधारा
या
एक
नयी
सोच
पनप
रही
है, जिसे आज
उत्तर
आधुनिकतावाद
के
नाम
से
जाना
जाता
है।
आज
हम
समय
के
जिस
कठिन
दौर
से
गुजर
रहे
हैं, उसमें हम
भविष्य
की
बेहतरी
के
लिए
आशावादी
तो
हैं, परंतु हम
सब
आशंकित
भी
हैं, भयभीत भी
हैं
और
त्रस्त
भी
हैं।
लेकिन
इसकी
जाँच-पड़ताल
करना
जोखिम
भरा
काम
है।
उदय
प्रकाश
इस
जोखिम
को
उठाते
हैं।
इसीलिए
वे
अपनी
कहानियों
में
बदलते
हुए
नए
सामाजिक
तस्वीर
को
एवं
कर्कश
होते
समाज
की
विसंगतियों, विभीषिकाओं और
विडंबनाओं
को
खुलकर
प्रस्तुत
करते
हैं।
बीज
शब्द : भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण, आधुनिकतावाद, उत्तर आधुनिकतावाद, उपभोक्तावाद, संशयवाद, निषेधवाद, विश्वग्राम एवं बाज़ारवाद।
मूल
आलेख : वर्तमान
समय
में
उत्तर
आधुनिकतावाद
शब्द
की
गूंज
हर-तरफ
चारों
ओर
सुनाई
दे
रही
है।
परंतु उत्तर आधुनिकता
की
सोच
पश्चिम
की
देन
है
एवं
इसका
प्रभाव
धीरे-धीरे
हिंदी
साहित्य
में
भी
पड़ा
एवं
लगभग
चार
दशक
पहले
बीसवीं
शताब्दी
के
सातवें-आठवें
दशक
से
इसकी
शुरुआत
हुई।
उत्तर आधुनिकता का
शाब्दिक
अर्थ
है-आधुनिकता
का
उत्तर
पक्ष, यानी
आधुनिकता
की
समाप्ति
के
उपरांत
एक
नई
तरह
की
स्थिति
या
कुछ
अलग
एवं
एक
नयी
विचारधारा।
इसकी
परिभाषा
को
लेकर
विद्वानों
में
अनेक
मतभेद
हैं।
कुछ
विद्वान्
उत्तर
आधुनिकता
को
आधुनिकता
का
अगला
सोपान
मानते
हैं, तो
कुछ
उत्तर आधुनिकता को
आधुनिकता
से
मुक्ति
की
बात
करते
हैं।
सही
अर्थ
में
उत्तर
आधुनिकता
की
परिभाषा
एवं
स्वरूप
का
प्रश्न
इतना
पेचीदा
एवं विवादास्पद है
कि
उसे
किसी
एक
परिभाषा
के
पैबंद
में
समेटना
आसान
नहीं
है
और
न
ही
अब
तक
उसका
कोई
निश्चित
स्वरूप निर्धारित किया
गया
है। उत्तर आधुनिकता के
विषय
में सुधीश पचौरी
का
कहना
है
कि-
“20वीं
शताब्दी
का
उत्तरार्द्ध
उत्तर-औद्योगिक
क्रान्ति
का
अद्भुत
युग
है।
इस
युगमें
समाज, संस्कृति, राजनीति, कला, साहित्य, दर्शन, संगीत, इतिहास, अर्थव्यवस्था और
पूरे
मानव-चिन्तन
में
जो
परिवर्तन
चक्र
तीव्र
गति से घूमा
है
उस
स्थिति,परिस्थिति की
ओर
ध्यान
दिलाने
वाला
नाम
है-उत्तर-आधुनिकता।”1 उदय
प्रकाश
की
कहानियाँ
हमारे
वर्तमान
समय
की
ही
कथा
और
कहानियाँ
हैं
जो
उत्तर
आधुनिकता
के
विभिन्न
बिन्दुओं
से
रूबरू
एवं
साक्षात
कराते
है।
वर्तमान
युग
भूमंडलीकरण
के
वर्चस्व
का
युग
है
जिसमें
किसी
देश
का
अपना
मौलिक
यथार्थ
नहीं
रह
गया है। यही
कारण
है
कि
आज
एक
शब्द
के
अनेक
अर्थ, अनेक
विमर्श, ढेरों
चैनल, अनेक
सत्ता
और
अनेक
विचारधाराओं
का
उदय
हो
रहा
हैं।
किसी
व्यक्ति
का
कथन
कुछ
होता
है
और
उसका
अर्थ
कुछ
ओर
ही
होता
है।
उत्तर
आधुनिकता
का
मूल
तत्त्व
संशयवाद
या
निषेधवाद
है।
यही
कारण
है
कि
आज
कोई
वस्तुगत
सत्य
नहीं, कोई
मूल्य
नहीं, आदर्श
नहीं-जिसके
आधार
पर
जीवन
की
समस्याओं
को
सुलझाया
जाए।
आज
की
तारीख
में
पूरा
विश्व
एक
साथ
विश्वास
और
अविश्वास
में
जी
रहा
है।
एक
ही
समय
में
मनुष्य
के
जीवन
में
दो
पहलू
एक
विश्वास
और
दूसरा
अविश्वास
का
हैं
और
साथ
में
आशा
का
संचार
भी
है
और
निराशा
का
डर
भी
है।
भूमंडलीकृत
समाज
का
एक
अंतर्विरोध
यह
भी
है
कि
वह
एक
ही
समय
में
विश्व
नागरिक
है
और
स्थानीय
भी।
वर्तमान
समय
इस
बात
की
गवाह
है
कि
उपभोक्तावादी
समाज
बहुत
ही
अधिक
महत्त्वकांक्षी
एवं
लालायित
है।
भूमंडलीकरण
की
इस
दौर
में
सब
कुछ
बदल
रहा
है।
बदलते
हुए
युग
यथार्थ
के
परिप्रेक्ष्य
में
मानवीय
संवेदनाएँ बदल रही
हैं।
संसार
भर
में
भौतिकता
की
बाढ़-सी
आ
गई
है।
आज
जो
मनुष्य
अपनी
मूल्यों-आदर्श
से
चिपका
है, वह
‘आउट
ऑफ
डेट’ हो
जाता
है।
अवमूल्यन
ही
जीवन
में
समाज
का
सच
हो
गया
है।
परिणामस्वरूप
व्यक्ति
आत्महत्या
करने
या
पागल
होने
के
लिए
अभिशप्त
है।
वर्तमान
यथार्थ
के
परिप्रेक्ष्य
में
देखें
तो
ऐसे
पृष्ठ
भूमि
पर
उदय
प्रकाश
की
कहानियाँ-
जैसे
‘पॉल
गोमरा
का
स्कूटर’, ‘वॉरेन हेस्टिंग्स
का
साँड़’, ‘तिरिछ’, ‘राम सजीवन
की
प्रेमकथा’, ‘और अंत
में
प्रार्थना’, ‘पीली छतरी
वाली
लड़्की’, ‘मोहन दास’, ‘आवरण’, ‘पूंछ में
पटाखा’ आदि
कहानियाँ
बहुत
ही
महत्त्वपूर्ण
एवं
प्रासंगिक
हो
जाते हैं।
उत्तर
आधुनिकता
के
संदर्भ
में
उदय
प्रकाश
की
कहानियों
को
देखें
तो इस संदर्भ
में
कथाकार
उदय
प्रकाश
अपनी
‘आवरण’
कहानी
में
लिखते
हैं
कि-
“जिस दौर में
हम
जीवित
हैं, उसमें हमारा
जीवन
चारों
ओर
से
असंख्य, तरह-तरह
की
कहानियों
के
बीच
घिरा
हुआ
है।
जैसे
हम
किसी
बाढ़
में
डूबे
हों।
या
व्यस्त
हाईवे
पर
ट्रैफिक
के
बीचों-बीच
खड़े
हों।
चारों
ओर
क़िस्सों
का
शोर
और
जीवन
पर
उतने
ही
खतरे।
ऐसा
इतिहास
में
कभी
नहीं
हुआ
था।
हर
रोज, कई-कई
बार, हम अलग-अलग
कहानियों
के
पात्र
बन
जाते
हैं
या
बना
दिये
जाते
हैं, या फिर
किसी
अन्य
को
बनता
हुआ
देखते
हैं।
कभी
कोई
यूनानी
त्रासदी, कभी संस्कृत
की
कादम्बरी, कभी कोई
विस्मृत
जातक
कथा, कभी किसी
विदूषक
की
कौमुदी।
किसी
गरीब
और
मामूली
आदमी
के
दुख
से
उपजाता
ऊबे
और
सुखी
लोगों
का
चुटकुला।
और
कभी
किसी
अखबार
या
टी.वी.
चैनल
की
न्यूज़
स्टोरी।
किसी
दुर्घटना
या
अपराध
की
दहशत
नाक
खबर।”2
इस प्रकार
वह हमें अपने
समय
के
उन
विकराल
परिस्थितियों
से
परिचित
कराते
हैं।
आज
के
बदलते
समय
के
साथ
साक्षात
कराते
हैं।
यह
सिर्फ
औद्योगिक
या
सांस्कृतिक
परिवर्तन
नहीं
है, यह मानवीय
मूल्य-बोध
और
उस
मानसिक
नीच
सोच
का
परिवर्तन
भी
हैं, जहाँ आज
मनुष्य
ऐसी
हरकतें
करते
है
कि
जिसे
देखकर
मनुष्य
कोई
सोच-विचार
नहीं
कर
पाता
सिर्फ
दंग
रह
जाता
है।
वर्तमान
समय
की
इस
तरह
की
घटनाएं
सिर्फ
विचलित
ही
नहीं
करता, पहले उस
पर
सोचना
या
विचारणा
तक
संभव
नहीं
था।
ऐसे
ही
एक
विवादास्पद
घटना
का
दर-हकीकत
चित्रण
उदय
प्रकाश
जी
इस
तरह
कहते
हैं-
“लेकिन ऐसी घटनाएं
भी
इन
दिनों
घटने
लगी
थीं, जिनके बारे
में
पहले
सोचना
तक
मुमकिन
नहीं
था।
जहाँ
मैं
रहता
था, उससे बस
दो-ढाई
किलोमीटर
दूर, एक बड़ी
कोठी
में
रहने
वाला
एक
अमीर-ऐयाश
अपने
नौकर
के
साथ
मिलकर
आस
पास
झुग्गियों
में
रहने
वाले
ग़रीबों
के
नन्हें-नन्हें
बच्चों
और
बच्चियों
से
बलात्कार
करने
के
बाद
उनके
गोश्त
का
कबाब
बनाकर
खाने
लगा
था।
शहर
के
दक्षिणी
हिस्से
में
एक
ऐसा
अस्पताल
था, जिसमें लोगों
को, जिन में
ज्यादातर
गरीब
होते
थे, बेहोश करके
उनके
गुर्दे
निकाल
कर
अमीरों
को
लगा दिया जाता
था।”3
इस प्रकार वर्तमान
समय
में
विकसित
होता
हुआ
भारत
की
जो
तस्वीर
हमारे
सामने
उपस्थित
है
वह
उत्तर
आधुनिकता
का
ही
परिणाम
है।
आज
विकास
के
नाम
पर
भारत
का
जो
तस्वीर
उभर
रहा
है
वह
वास्तविक
नहीं, बल्कि विकास
के
नाम
पर
भ्रामक
तस्वीर
है।
उसके
तह
तक
जा
कर
चीजों
को
समझना, उससे रूबरू
होना
और
उस
त्रासद
संसार
में
अपने
पाठक
को
ले-जाकर
झकझोरना, उससे साक्षात्कार
कराना
ही
उदय
प्रकाश
के
कहानियों
की
खास
विशेषताएँ
हैं।
आजकल
तेजी
से
ग्लोबलाइज़ेशन
के
कारण
समाज
में
अस्वाभाविक
बदलाव
दिखाई
पड़
रहा
है।
बदलते
जीवन
मूल्य, पश्चिमी रहन-सहन
की
ललक
बढ़
रही
है।
इस
संदर्भ
में
कथाकार अपनी कहानी
‘पॉल
गोमरा
का
स्कूटर’ में लिखते
है-
“बाजार अब सभी
चीजों
का
विकल्प
बन
चुका
था।
शहर, गाँव, क़स्बे
बड़ी
तेजी
से
बाजार
में
बदल
रहे
थे।
हर
घर
दुकान
में
तब्दील
हो
रहा
था।
बाप
अपने
बेटे
को
इसलिए
घर
से
निकाल
कर
भागा
रहा
था
कि
वह
बाजार
में
कहीं
फिट
नहीं
बैठ
रहा
था।
पत्नियाँ
अपने
पतियों
को
छोड़-छोड़कर
भाग
रही
थीं
क्योंकि
बाजार
में
उनके
पतियों
की
कोई
खास
माँग
नहीं
थी।
औरत
बिकाऊ
और
मर्द
कमाऊ
का
महान
चकाचक
युग
आ
गया
था।”4
इस प्रकार
बाज़ार
अब
पहले
के
सभी
मिथकों
को
ध्वस्त
करता
हुआ
नए
तरह
के
आयाम
और
नयी
सोच
पैदा
कर
रहा
है।
इस
तरह
के
जो
नयी
सोच
और
नए
आयाम
समाज
में
पनप
रही
हैं, वास्तव में
वही
उत्तर
आधुनिकता
की
सही
पहचान
है।
कहानीकार उदय
प्रकाश
की
महत्वपूर्ण
कहानी
‘मैंगोसिल’ में भी
भूमंडलीकृत
स्थिति
का
चित्रण
दिखाई
देता
है-
“पूंजी और सत्ता
के
हर
रोज
फैलते
साम्राज्य
की
अभियांत्रिकी
के
बुलडोजर्स
किसी
दिन
किसी
मेट्रो, रेल, फ्लाईओवर, किसी शॉपिंग
मॉल, बांध, उद्योग
या
किसी
पाँच
सितारा
होटल
के
रूप
में, उस मलिन
बस्ती
में
पहुँच
जाते हैं, जहां
चंद्रकांत
थोराट
जैसे
एक
साधारण
नागरिक
का
जीवन
समाप्त
हो
जाता
है।
.... यह संपन्नता
और
समृद्धि
का
अनैतिक
सौंदर्य
वर्तमान
समय
को
अपनी
अमानवीय
उपस्थिति
से
ही
असुंदर
और
संदिग्ध
बनता
रहता
है।
इसलिए
समृद्ध
और
विकासशील
देश
और
सभ्यताएँ
जब-जब
अपना
सौंदर्य
करण
करती
हैं, तब-तब
ऐसे
अभावग्रस्त
मानव-जीवन
को
मिटा
डालना
चाहती
हैं, ठीक उसी
तरह
जैसे
झाडू
से
कचरा, ड्रॉइंगरूम से
बाहर
फेंक
दिया
जाता
है।”5
कथाकार
की
महत्वपूर्ण
दूसरी
कहानी
‘पीली
छतरी
वाली
लड़की’ में भी
भूमंडलीकृत
स्थिति
का
चित्रण
को
हम
देख
सकते
हैं, पर यहाँ
पर
कहानीकार
किन्नुदा
नामक
पात्र
के
माध्यम
से
भूमंडलीकृत
बाज़ार
के
नंगे
नाच
पर
अपनी
आवाज
व्यक्त
करते
हुए
लिखते
है
कि-
“मैं बाजार का
विरोधी
नहीं
हूँ।
लेकिन
मार्केट
कोई ’कलक्टिव
ड्रीम’ नहीं
है।
यह
कोई
यूटोपिया
नहीं
है।
इसमें
कोई
स्वप्न
नहीं
देखा
जा
सकता।
इसमें
ऐसा
कुछ
नहीं
है
जो
उदात्त, विराट
और
नैतिक
हो।
मुनाफा, नगदी, लाभ, घाटा... इसके
सारे ’इनग्रेडिएंट्स’ क्षुद्र
और
छोटे
हैं।
यह
लालच, ठगी, होड़, स्वार्थ
और
लूटखसोट
के
मनोविज्ञान
से
परिचालित
होता
है।”6
कहने का
तात्पर्य
यही
है
कि
कहानीकार
अपने
कथा-पात्रों
के
माध्यम
से
वर्तमान
समय
में
समाज
में
जो
नयी
सोच
और
नए
आयाम
विकसित
हो
रहे
हैं
उसके
विरुद्ध
प्रतिरोध
के
रूप
में
दिखाई
पड़ता
है।
वस्तुत:
उदय
प्रकाश
जी
ने
अपनी
कहानियों
में
ऐसे
अनेक
प्रसंगों
को
माध्यम
बनाकर
बाज़ारवाद
के
उपभोक्तावादी
संस्कृति
के
शिकंजे
में
फँसे
मनुष्य
की
नियति
को
दर्शाते
हैं।
बाज़ारवादी
संस्कृति
में
आज
मनुष्य
चीजों
का
सिर्फ
दाम
(कीमत) बनकर रह
गया
है।
साधारण
जनता
सिर्फ
भौतिक
संसाधनों
को
जुटाने
में
ही
निरंतर
संघर्ष
करता
रहता
है।
आज
उपभोक्तावादी
संस्कृति
के
दुष्परिणाम
यह
है
कि
मनुष्य
की
इच्छाएँ
वीभत्स
रूप
धारण
करती
जा
रही
हैं।
जिसकी
कल्पना
करना
या
सोचना
तक
संभव
नहीं
था।
आज
ऐसी
घटनाएँ
घट
रही
है।
“जिस
दिन
पार्टी
होती, दारोगा के
साथ
उसके
दोस्त
भी
आ
जाते, वह रात
शोभा
के
लिए
अमानवीय
यंत्रणा
और
पीड़ा
की
रात
होती।
नशे
के
बाद
उन
लोगों
के
भीतर
बैठा
जानवर
जाग
जाता
और
उस
कमरे
में
उस
जानवर
के
उत्पात
और
उसकी
बनैली-वहसी
हिंसा
की
शिकार
बनती
शोभा।
वे
लोग
नशे
में
गाना
गाते, शराब पीते, मछली के
पकौड़ों
की
तारीफ
करते, हँसते और
शोभा
को
नोचते-खसोटते।
रमाकांत
इस
सब
में
उनका
उत्साह
बढ़ाता।
... बिल्डर और दारोगा
ने
शोभा
के
साथ
अप्राकृतिक
काम
किया
और
बिल्डर
ने
उसके
रेक्टम
में
बियर
की
बोतल
घुसेड़
दी।
दारोगा
ने
हँसते
हुए
पूछा–अरे
यार, पीछे ड्रिल
करके
जरा
बोर
बड़ा
कर
लेने
दे, तभी तो
मोटर
नीचे
फिट
होगा।
साला
मेरा
बीस
हॉर्स
पावर
का
जेनुइन
क्राम्पटन
का
मोटर
है।
कमरे
के
फर्स
पर
खून
फैल
गया
था।
दरी
भीग
गई
थी
और
मोनिटर
पर
ब्लू–फिल्म
चल
रही
थी।
बेहोशी
ने
शोभा
को
उन
पीड़ाओं
के
अनुभव
से
बचाया, जिसने होश
में
रहने
पर
गुजरना
पड़ता।”7
यह
घटना
सिर्फ
‘मैंगोसिल’ कहानी का
एक
घटना
नहीं, बल्कि वर्तमान
समय
और
कर्कश
होते
अमानवीय
समाज
का
ही
तस्वीर
है।
बिल्डर
सेठ
और
दारोगा
द्वारा
हैवानियत
भरा
यौनाचार
एवं
कुकर्तव्य
की
भयावह
तस्वीर
उत्तर
आधुनिकतावाद
के
उपभोक्तावादी
संस्कृति
का
ही
नरभक्षी
पिशाच
चित्रण
है।
वर्तमान
समय
में
अगर
स्त्री
की
बात
की
जाए
तो
पुरुष
के
विरुद्ध
नारी
का
खुला
विद्रोह
है।
आज
स्त्री
का
मुक्त
यौनाचार, स्त्री और
स्त्री
के
बीच
यौन
संबंध
की
वैधता, यानी कि
उत्तर
आधुनिकता
में
यौन
लीला
ही
लीला
है।
व्यक्ति
अपने
यौन
सुख
की
तृप्ति
के
लिए
अनेक
संसाधनों
का
प्रयोग
कर
रहा
है।
इस
लीला
के
क्रम
में
नैतिकता
और
अनैतिकता
जैसे
सवाल
समाप्त
हो
चुके
हैं।
उदय
प्रकाश
की
कहानी
‘सायरन’ में सुहासिनी
ऐसा
ही
एक
पात्र
है, जो कृष्णकालीन
पोशाक
में
शिक्षा
सचिव
के
समक्ष
ओडिसी
नृत्य
कर
रही
है।
दूसरी
कहानी
‘थर्ड
डिग्री’ में दर्शाया
गया
है
कि
दिल्ली
के
एक
झुग्गी
में
रहने
वाला
गोपाल
अपनी
अट्ठाईस
साल
की
रखैल
को
किसी
गाँव
से
भागा
कर
लाया
था।
पर
रखैल
बहुत
चालू
थी।
गोपाल
जब
बाहर
होता
था
तो
वह
धंधा
कर
लेती
थी।
इसी
तरह
‘हत्या’ कहानी में
रमन्ना
मेहतर
की
औरत
पाँच
रुपये
की
नोट
के
लिए
फूफा-जी
से
लिपटा-लिपटी
करते
हुए
खिल
खिला
रही
है।
‘मैंगोसिल’ कहानी में
भी
रचनाकार
उदय
प्रकाश
जी
ने
उत्तर
आधुनिकता
के
यौन
लीला
का
वर्णन
किया
है।
“गली के आखिरी
छोर
पर
एक
बल्ब
अभी
कुछ
महीने
पहले
तक
बचा
हुआ
था, लेकिन उसे
गली
नंबर-तीन
में
रहने
वाले
सोमूँ
और
गुरुप्रीत
ने
फोड़
दिया
था
क्योंकि
इस
गली
के
मकान
नं.
ई-7/2
में
रहने
वाली
दीप्ति
और
शालिनी
के
साथ
सोमूँ
का
चक्कर
है
और
वह
उन्हें
अपनी
हीरो-होंडा
मोटर
साइकिल
पर
लेकर
अक्सर
देर
रात
लौटता
है।
दीप्ति
और
शालिनी
सी-ग्रेड
मॉडल
हैं
और
सस्ते
साबुन, हेयर रिमूवर
और
अंडर
गारमेंट्स
के
सस्ते
विज्ञापनों
के
अलावा
वे
रात
में
होटलों
या
प्रायवेट
पार्टियों
में
भी
चलती
हैं।”8
इसके अलावा ‘आचार्य
की
रज़ाई’ कहानी में
दिखाया
गया
है
कि
अधेड़
उम्र
के
व्यक्ति
आचार्य
करकट
एक
गँवार
और
नाबालिग
लगती
शिष्या
को
पटाने
में
मस्त
हैं-
“अधेड़ आचार्य करकट
एक
गँवार
और
नाबालिग
लगती
शिष्या
को
‘रूप
तथा
अंतर्वस्तु’ एवं ‘विडंबना
तथा
विरोधाभास’समझाते
हुए
पटाने
में
निमग्न
थे।”9
‘दिल्ली
की
दीवार’ कहानी के
महिला
पात्र
राजवती, सोमाली, सलीमान
तीनों
धंधा
करती
हैं
और
ग्राहकों
को
लुभाती
हैं-
“वे तीनों धंधा
करती
थीं।
सोमाली
तो
खंडहर
में
ही
रहकर, वहाँ अक्सर
आ
जाने
वाले
....ग्राहकों को
निपटती
थी
लेकिन
सलीमन
और
फूलो
शाम
को
रिक्शा
लेकर
सड़क
पर
ग्राहकों
की
खोज
में
भी
घूमती
थीं।”10
‘पीली
छतरी
वाली
लड़की’ कहानी में
गर्ल्स
होस्टल
की
बीस
लड़कियाँ
आशियाना
और
शहर
में
बने
थ्री
स्टार
होटल
नवरंग
में
कलगर्ल्स
के
रूप
में
प्राय:
जाती
हैं।
‘वारेन
हेस्टिंग्स
का
साँड़’ कहानी का
स्त्री
चरित्र
मोहिनी
ठाकुर
धन, पद और
सम्मान
प्राप्त
करने
के
लिए
अपना
सर्वस्व
लुटा
देती
है-
“उस दिन सुबह
के
पाँच
बजे
तक
लेंटन
के
भीतर
अब
तक
ठहरे
हुए
तूफान
ने
मोहिनी
ठाकुर
को
फर्श, बिस्तर, कारपेट, पोर्टिको ... पता
नहीं
कहाँ-कहाँ
उछला
और
पटका।”11
किसी
ने
सही
कहा
है
कि
“उत्तर आधुनिकता
परंपरागत
मान्यताओं
और
संस्थागत मान्यताओं का
अतिक्रमण
करती
है।
पूर्व
प्रचलित
परंपरा, नियम एवं
रूढ़ि
ग्रस्त
मान्यताओं
से
तोड़
कर
उत्तर
आधुनिकता
नवीनता
को
प्रतिस्थापित
करती
है।
इसका
मूल
कारण
है
कि
उत्तर
आधुनिकता
अपने
ऊपर
कोई
भी
अंकुश
या
नियंत्रण
बर्दाश्त
नहीं
करती, बल्कि हर
परंपरित
नियंत्रण
को
तोड़कर
उससे
बाहर
निकालने
की
कोशिश
करती
है।”12
वास्तव
में
देखा
जाए
तो
उत्तर
आधुनिकता
के
इस
युग
में
वर्तमान
समय
का
समाज
दाम्पत्य
जीवन
के
उसूलों, आदर्श-मूल्यों, पारिवारिक मूल्यों, धार्मिक मूल्यों, राजनैतिक मूल्यों, प्रशासनिक मूल्यों, शैक्षणिक मूल्यों
का
अतिक्रमण
करती
है।
अगर
विज्ञापन
पर
बात
की
जाए
तो
उत्तर
आधुनिक
युग
में
विज्ञापन
एक
सशक्त
माध्यम
है
जिसके
जरिए
छोटी, नगण्य एवं
गुणहीन
वस्तुओं
का
वर्चस्व
स्थापित
किया
जाता
है।
वस्तुत:
विज्ञापन
लोगों
को
भ्रमित
करता
है।
विज्ञापनों
में
विशेष
व्यक्ति
या
सुंदर
मॉडल
के
द्वारा
लोगों
को
गुमराह
किया
जाता
है।
उसके
जरिए
मल्टीनेशनल
कंपनियाँ
अपना
प्रोडक्ट
बेचती
हैं।
उदय
प्रकाश
की
खुफिया
आँखें
इस
खेल
को
बखूबी
पहचानती
हैं।
उदाहरण
के
रूप
में
‘पॉल
गोमरा
का
स्कूटर’ कहानी को
हम
देख
सकते
है-
“आठ महीना पहले
किशनगंज
के
जनता
फ्लैट
में
रहने
वाली
सर
गंगाराम
हॉस्पिटल
के
सफाई
कर्मचारी
राम
औतार
आर्य
की
सत्रह
साल
की
बेटी
सुनीता
रातोरात
मालामाल
हो, क्योंकि किसी
टीवी
के
विज्ञापन
में
वह
आठ
फुट
बाई
चार
फुट
साइज
के
विशाल
ब्लेड
पर
नंगी
सो
गई
थी।”13
इसी तरह बिहार
के
छपरा
ज़िले
के
प्रायमरी
स्कूल
की
टीचर
आशा
मिश्रा
शैक्षिक
काम
छोड़कर
अपने
उचक्के
प्रेमी
के
साथ
दिल्ली
भाग
जाती
है
और
एक
विज्ञापन
के
जरिए
मालामाल
हो
जाती
है-
“उसने किसी विज्ञापन
में
एक
बलिष्ठ
काले
रंग
के
अरबी
घोड़े
की
खुरदरी
पीठ
पर
बैठकर, अपने पारभसक
जाँघिए
के
भीतर
से
‘द
ब्लैक
हॉर्स’ नामक बियर
की
बोतल
निकालकर
छातियों
में
उड़ेल
लेती
है
और
घोड़े
की
पीठ
पर
बैठी-बैठी
वह
खुद
बियर
की
झाग
में
बदल
गई
थी।”14
चरम उपभोक्तावाद
के
इस
दौर
में
बाज़ार
का
जादू
सब
पर
पूरी
तरह
छाया
हुआ
है।
यहाँ
तक
कि
आँख
जो
देखती
है
और
दिमाग
जो
सोचता
है
उनके
बीच
की
संगति
बिलकुल
गड़बड़ा
गया
है।
इस
उपभोक्तावादी
संस्कृति
से
कहानीकार
उदय
प्रकाश
का
खास
विरोध
करने
का
मूल
कारण
यही
है
कि
अपनी
तमाम
चमक-दमक
के
बावजूद
वह
अंतहीन
लालसा
को
जन्म
देता
है।
अंत
में
यह
प्रश्न
उठना
स्वाभाविक
है
कि
उत्तर
आधुनिकतावाद
के
युग
में
जी
रहे
साधारण
मनुष्य
की
क्या
स्थिति
है? इस संदर्भ
में
कहानीकार
उदय
प्रकाश
की
महत्वपूर्ण
कहानी
‘पूँछ
में
पटाखा’ नामक लघुकथा
के
माध्यम
से
साधारण
मध्यवर्ग
(मिडिल क्लास) के
लोगों
की
दयनीय
स्थिति
का
चित्रण
किया
है-
“दीपावली की रात
बच्चों
ने
एक
कुत्ते
की
पूंछ
में
पटाखों
की
एक
लड़ी
बाँध
दी
और
उसकी
बत्ती
को आग छुआ
दी।
धाँय...
धाँय, धूम-धड़ाक...पटाखे
फूटने
लगे।
कुत्ता
भागा
बेतहाशा, लेकिन पटाखे
तो
पूँछ
के
साथ
नत्थी
थे।
पटाखे
फूटते
रहे
और
कुत्ता
होश-हवास
खोकर, चीखता-भौंकता, बिना दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे
देखे-
चीज़ों
और
लोगों
से
टकराता, गिरता-पड़ता
बदहवास
भागता
रहा।”15 यहाँ
पर
कुत्ते
का
दयनीय
विवरण
कितना
भयंकर
एवं दुविधाजनक दयनीय
स्थिति
का
चित्रण
है।
वह
सिर्फ
उस
कुत्ते
की
दयनीय
स्थिति
का
चित्रण
नहीं
है, बल्कि उपभोक्तावादी
संस्कृति’ में जी
रहे
मध्यवर्गीय
मनुष्य
के
जीवन
की
दयनीय
स्थिति
जैसा
ही
है।
वैश्वीकरण
के
इस
दौर
में
आज
आम
मनुष्य
का
जीवन-यथार्थ
उसी
कुत्ते
के
समान
है, जहां एक
तरफ
लालच
में
कुत्ता
हड्डी
चबा
रहा
था, दूसरी तरफ
पूँछ
में
बँधे
पटाखों
के
लगातार
फूटने
की
वजह
से
चीख-पुकार
भी
मचा
रहा
था।
एक
तरफ
कुत्ते
के
मुँह
से
लार
बह
रही
थी, दूसरी तरफ
उसके
गले
से
चीख
निकल
रही
थी।
वित्तीय
पूंजी
के
इस
दौर
में
सामान्य
मनुष्य
की
इससे
बड़ी
विडंबना
और
क्या
होगी? उत्तर-आधुनिकता
के
उपभोक्तावादी
संस्कृति
का
दुर्दांत
दृष्टांत
यही
है।
वास्तव
में
साधारण
मनुष्य
की
हालत
उस
कुत्ते
के
समान
ही
है।
निष्कर्ष : निष्कर्ष के रूप
में
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
कहानीकार
उदय
प्रकाश
अपनी
कहानियों
के
माध्यम
से
उत्तर
आधुनिकतावाद
की
विभिन्न
विशेषताओं
को, विभिन्न पहलुओं
को
आधार
बनाकर
वर्तमान
समय
के
जटिल
बोध
को
स्पष्ट
किया
है।
आज
विभिन्न
स्थितियों
में
इतने
बिखराव
हैं, इतने मत-मतांतर
हैं
कि
उसे
समेटना
अपने
आप
में
एक
कठिन
कार्य
है।
परंतु
उदय
प्रकाश
की
कहानियाँ
उन
तमाम स्थितियों से
हमें
रूबरू
कराते
है।
उनकी
कहानियाँ
वर्तमान
समय
के
संदर्भ
में
निरंतर
बदलते
रहते
हर
यथार्थ
को
एवं
युगीन
स्थितियों
को
सूक्ष्म
दृष्टि
से
प्रकट
करते
हैं।
उत्तर
आधुनिक
युग
की
जटिलताओं
के
साथ
हमारी
वस्तुस्थिति
को
उजागर
करके
हमें
समस्त
विरोधाभासों
के
बीच
संघर्षरत
मनुष्य
जीवन
के
नए
उत्स
रूपी
बोध
से
साक्षात्कार
कराती
हैं।
इसीलिए
उदय
प्रकाश
की
कहानियाँ
उत्तर
आधुनिकतावाद
के
संदर्भ
में
एवं
वर्तमान
समय
के
परिप्रेक्ष्य
में
बहुत
ही
प्रासंगिक
एवं
महत्वपूर्ण
हो
जाती
हैं।
संदर्भ
:
- कृष्णदत्त
पालीवाल, उत्तर
आधुनिकता और
दलित साहित्य, वाणी प्रकाशन, नयी
दिल्ली, सं.-
2008,
पृ.-13
- प्रभाकर
श्रोत्रिय, प्रभाकर, पूर्वग्रह-
अंक-125,
भारत भवन
न्यास, भोपाल,
अप्रैल-जून,
सं.-2009, पृ.–14
- वही,पृ.-23
- उदय
प्रकाश, पॉल
गोमरा का
स्कूटर, वाणी
प्रकाशन, नयी
दिल्ली, सं.-2004, पृ.-37
- उदय
प्रकाश, मैंगोसिल,
वाणी प्रकाशन,
नयी दिल्ली,
सं.-2020, पृ.-68-69
- उदय
प्रकाश, पीली
छतरी वाली
लड़की, वाणी
प्रकाशन, नयी
दिल्ली, सं.-2009,
पृ.-90
- उदय
प्रकाश, मैंगोसिल,
पेंगुइन बुक्स,
नई दिल्ली,
सं.-2006, पृ.-92
- उदय
प्रकाश, मैंगोसिल,
वाणी प्रकाशन,
नयी दिल्ली,
सं.-2020, पृ.-75
- उदय
प्रकाश, दत्तात्रेय
के दु:ख,
वाणी प्रकाशन,
नयी दिल्ली,
सं.-2006, पृ.-52
- वही, पृ.-58
- उदय
प्रकाश, पॉल
गोमरा का
स्कूटर, वाणी
प्रकाशन, नयी
दिल्ली, सं.-2004, पृ.- 124
- डॉ.
संजय चौहान, आधुनिकता और
उत्तर आधुनिकता,
तरुण आर्ट
प्रेस, जालंधर,
पृ. 33
- उदय
प्रकाश, पॉल
गोमरा का
स्कूटर, वाणी
प्रकाशन, नयी
दिल्ली, सं.-2004,
पृ.-37
- वही,
पृ.-38
- उदय प्रकाश, दत्तात्रेय के दु:ख, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सं.-2006, पृ.-41
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, कार्सियांग कॉलेज, कार्सियांग, दार्जिलिंग (प. बंग)
pvidyalankar@gmail.com, 8637309622
एक टिप्पणी भेजें