अध्यापकी के अनुभव : साथी हाथ बढ़ाना / डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

अध्यापकी के अनुभव - साथी हाथ बढ़ाना
- डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

पिछले संस्मरण में आलमास की जो तस्वीर पेश की थी,उसने कई लोगों को जहाँ झकझोरकर रख दिया, वहीं कुछ साथियों को जिसकी मैंने पहले ही घोषणा कर दी थी, उसके अनुरूप नाराज भी कर दिया। लोगों नेओळबा' भी दिया। इतना नेगेटिव लिखने की क्या जरूरत थी”, “हमेशा अच्छा-अच्छा ही लिखा करो।” “सकारात्मक बातें साझा किया करो जिससे समाज अच्छी-अच्छी बातें सीख सके।” तो लिजिए यह संस्मरण बागों में हमेशा बहार देखने वालों' के लिए है। इसमें सब कुछअच्छा ही अच्छाहै।

आलमास में जॉइनिंग के अगले दिन स्कूल में कुछ जनप्रतिनिधि और अधिकारी पधारे। एक अधिकारी महोदय जो मेरी सोशल मीडिया प्रोफाइल और मेरे बैकग्राउंड से अच्छी तरह से परिचित थे, उन्होंने आलमास में भी मनोहरगढ़ जैसे प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस कारण बिना आराम किये तुरंत प्रयोग शुरू करने का दबाव गया।

कहते हैं कि जो व्यक्ति जिस कार्य को खड़ी पाईकिसी अन्य स्थान पर लगाकर आया है, दूसरे स्थान पर जाने के पश्चात उसी कार्य की शुरुआत नई जगह के अनुसार करना पसंद करता है। इसके अलावा जो प्रयोग सर्वाधिक सफल और चर्चा में रहता हैवह उसका बार-बार ध्यान खींचता है। यह और बात है कि हर जगह की अपनी चुनौतियाँ और अपने संसाधन होते हैं। पहले दिन जब स्कूल का बारीकी से निरीक्षण किया तो पाया कि गाँव के बीच होने के बावजूद स्कूल कुछ खास सुंदर नहीं है। खाली जगह पर कटीली झाड़ियों का घेरा कुछ अच्छा नहीं लगा। इस कारण सबसे पहले यहाँ एक सुंदर गार्डन बनाने का विचार मन में आया। एसडीएमसी की बैठक में प्रिंसिपल साहब ने सभी सदस्यों के सामने मुझे गार्डन बनाने की जिम्मेदारी सौंपीउस समय मैंने कोई खास ध्यान नहीं दिया।

अगले दिन स्कूल में पानी की भराव वाली जगह पर प्रिंसिपल साहब ने मिट्टी डलवाना शुरू कर दिया तो मुझे इसकी गंभीरता का एहसास हुआ। अब बचकर भागने का कोई रास्ता भी नहीं दिखा। यह एक ऐसा कार्य है जो मजदूरों से करवाना बहुत खर्चीली होने के साथ-साथ लगातार श्रम मांगता है। विद्यालय परिवार के पास अक्सर इतने संसाधन भी नहीं होते हैं। कॉविड काल' अलग से चल रहा था। ऐसे में जो विद्यार्थी विद्यालय रहे थे, उन्हीं से सहयोग लेना शुरू किया। यहाँ के विद्यार्थियों की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि जैसे ही किसी शिक्षक को कार्य करते हुए देखते हैंवे उस कार्य में पूरी तल्लीनता से सहयोग देने के लिए जाते हैं। यहाँ एक भी विद्यार्थी कामचोर नहीं दिखा। विद्यालय के प्रति समर्पण और कार्यों के प्रति रुचि इतनी गंभीर है कि शिक्षक को पसीना नहीं बहाने देते। पूर्व के संस्मरण में भी इस और संकेत किया है कि यहाँ के विद्यार्थी मेहनतकश वर्ग से आते हैं जो कर्म और सहयोग में विश्वास रखते हैं।

जो जमीन गार्डन के लिए चिन्हित की गई वहाँ थोड़ी सी ही गहराई पर कंकर से युक्त हैं जिन्हें हटाना बहुत मुश्किल था। इसीलिए मिट्टी की मोटी परत वहाँ पर बिछा दी गई। समतल करने के लिए लाई मिट्टी को फैलाने के दौरान विद्यार्थियों ने ध्यान दिलवाया की जगह बहुत ज्यादा ऊँची हो गई है। बरसात और सिचाई का पानी बहकर आएगा तो साथ में मिट्टी भी बहाले जाएगा। इसलिए इसे रोकने के लिए कोई प्रबंध करना पड़ेगा। अब इसके लिए प्रिंसिपल साहब से अलग से बजट माँगने की हिम्मत नहीं हुई। पर काम तो करना था।

मनोहरगढ़ स्कूल में गार्डन बनाते वक्त स्थानीय संसाधनों का भरपूर उपयोग किया था। वहाँ के बांस और स्थानीय लोगों के द्वारा उपलब्ध करवाए गए अन्य संसाधनों से काम हो पाया। यही टोटका यहाँ पर आजमाने का मन बनाया। विद्यार्थियों से जब यहाँ से जुड़े संसाधनों के बारे में चर्चा की तो ज्ञात हुआ कि यह पूरा क्षेत्र ईंट भट्ठों से घिरा हुआ है। पर ईट का ट्रैक्टर पांच हज़ार रुपये से कम में नहीं आता है। इतने पैसे कहाँ थे। योजना बनी ईंट भट्ठों पर फालतू में पड़े टुकड़ें एवं खराब ईटों से हम काम चलाएँगे। तो अगले दिन गाँव के व्यापारी मदन जी कुमावत का ट्रैक्टर लेकर कक्षा 12 का विद्यार्थी ईश्वर लाल स्कूल पहुँचा। फौज ट्रैक्टर में सवार होकर भट्ठे पहुँची और राजस्थानी गानों की धुन के बीच ट्रैक्टर भरकर ईंटें स्कूल ला पटकी।

अब स्कूल में तो हमारी फौज तैयार ही रहती है। कक्षा 11 और 12 के विद्यार्थी जो स्कूल आते थेवे अपनी सुविधा के अनुसार समय निकाल कर उन ईटों को व्यवस्थित जमाने लगे। यहाँ के कई विद्यार्थी दिहाड़ी मजदूर होने के साथ-साथ राजमिस्त्री का काम भी करते हैं। उनका यह अनुभव इस गार्डन में खूब काम आया। कक्षा 11 का प्रकाश कुमावत सूत डोरी संभालने में एक्सपर्ट हैं। उसने अपनी कारीगरी का हुनर यहाँ दिखाए।

अब जमीन और गार्डन की क्यारियाँ तैयार थी, पर मात्र डेढ़-दो फीट की बाउंड्री से इसकी रखवाली नहीं हो सकती। कुछ साथियों ने मुझे चेताया भी, “यहाँ के लोग इस गार्डन को उजाड़ देंगे, इसलिए फालतू में परेशान मत होइए। सरकारी संपत्ति की कद्र करना इन्हें नहीं आता है। मेरे स्टाफ साथी अपनी जगह सही थे, क्योंकि पूर्व इतिहास और ज्यादातर सरकारी संसाधनों की स्थिति क्या होती है, इस बारे में हम सभी जानते हैं। पर फिर भी मैंने अपनी टीम के साथ योजना बना कर ये रिस्क लिया। मैं अपने साथियों को मुस्कुरा कर सिर्फ एक ही जवाब देता, 'आप देखिएगाये गाँव वाले ही एक दिन इस गार्डन की रखवाली करने के लिए आगे आएँगे।'

अब योजना बनने लगी बाड़ बंदी की। बाड़ के लिए प्रतापगढ़ में तो बांस थेपर यहाँ पर बांस तो क्या अंग्रेजी बबूल को छोड़कर अन्य कोई वृक्ष पर आमतौर पर काम ही दिखाई देते हैं। इतनी मेहनत कर लेने के बाद पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं उठाता। सूचना मिली कि :किलोमीटर दूर मोड के निंबाहेड़ा में तार की जाली मिलती है। पर यह खर्चीली काम था। प्रतापगढ़ में तो जब-जब भी बजट की जरूरत पड़ी,शुरू-शुरू में उदयपुर और भीलवाड़ा के दोस्तों के आगे हाथ फैलाया और बाद में स्टाफ साथियों के सामने। पर यहाँ पर बाहरी दोस्तों को तकलीफ देना उचित नहीं समझा। तो योजना बनाई कि इस बार भीख का कटोरा स्टाफ साथियों के सामने फैलाया जाए। स्टाफ के ज्यादातर साथियों ने मेरेकटोरे में बसंत’ उतार दिया। आगे दूसरे कामों के लिए जब धन की जरूरत पड़ी तो व्याख्याता साथी प्रकाश जी खटीक एवं डायर बैंक ज़िंदाबाद। बाइक पर तार की जाली का गट्ठर लादकर ले आया। जाली लाकर स्कूल में पड़ी लकड़ियों के खूंटें बनाए और उनसे गार्डन की चारदीवारी तैयार की।

यह सब करते-करते डेल्टा वेरिएँट' का दौरा गया। स्कूल वापस बंद हो गई। डायर साहब वायरस की चपेट में आकर प्रोनिंग पोजीशन में पड़े-पड़े आक्सीजन लेवल चेक करने में व्यस्त हो गए। पर गार्डन में जो मेहंदी और गेंदे के बीज बिखेर दिए उनकी सिंचाई तथा रखरखाव स्टाफ साथियों ने बदस्तूर जारी रखा। नियमित सिंचाई और रखरखाव से उस बंजर जमीन के चारों ओर गार्डन आकार लेने लगा।

कोरोना से उभरने के बाद जून महीने में जब स्कूल पहुँचा तो अच्छी हालत में पहुँच चुके गार्डन ने स्वागत किया। दीवार के सहारे सहारे हरियाली दिल को खुश कर रही थी, पर बीच का खाली भाग पूरे परिवेश को चिढ़ा रहा था। बीच की जमीन सूखी पड़ी थी। अब इस अवस्था में वह कार्य करने की समझ पैदा की जो प्रतापगढ़ में पूरी नहीं कर पाया। सोचा क्यों नहीं यहाँ पर गार्डन में लगने वाली घास लगाई जाए। पानी की भी समस्या यहाँ पर नहीं है, क्योंकि स्कूल का बोरवेल सिंचाई के लिए उपलब्ध था। तो घास और अन्य पौधों के लिए योजना बननी शुरू हुई। मुझे बागानी की कोई विशेष जानकारी नहीं थी। पर लोगों से सलाह मशविरा करते, अलग-अलग बागवानों के संपर्क में आकर थोड़ी बहुत समझ बन ही गई। नर्सरी वालों से घास खरीदने से पहले मिट्टी कैसे तैयार करनी है, पानी कैसे देना है, और इसकी रोपाई कैसे करनी है, इन सब से संबंधित सारी जानकारी इकट्ठी कर ली। जमीन की बेहतर तैयारी कक्षा 11 12 के विद्यार्थी लॉकडाउन खुलने के बाद पूरी करने लगे।

ऐसे कार्यों में श्रमदान तो स्कूल के विद्यार्थियों द्वारा हो जाता है, पर जहाँ आर्थिक संसाधनों की बात आती हैवहाँ पर अक्सर प्रयोगकर्ता चिंता में ग्रस्त रहता हैं। इस चिंता ने मुझे फिर भी घेरा। इसका स्थायी तोड़ जो प्रतापगढ़ में नहीं निकल पाया, वह यहाँ पर निकाल लिया। तोड़ यह था किजिसका भी जन्मदिन होगा वह फिजूलखर्ची करने की बजाय विद्यालय गार्डन के लिए दान करेगा।यह विचार चल निकला। पूरे गार्डन में लगभग बीस- पचीस हज़ार का खर्चा आया होगा। इसका सारा भार जन्मदिन की पार्टियों के माथे चढ़ गया। विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों ने भागीदारी निभाई। भीलवाड़ा से जुगाड़ करके गार्डन में लगने वाली घास से लेकर गुलाबमोगराअनारबेलपत्रचंपा, नारियल जैसे कई पौधे नियमित रूप से लाता रहा। बस में सवार होते समय अक्सर मेरे बैग में पौधे होते। बस के साथी मजाक-मजाक में मुझे बागवान कहने लगे। 25 किलोमीटर की बस यात्रा के बाद 13 किलोमीटर की यात्रा बाइक पर करता हूँ। ये पौधे भी कभी बाइक की टंकी पर आगे, तो कभी किसी राहगीर को साथ में बिठाकर उनके हवाले कर देता। इस तरह धीरे-धीरे यह गार्डन अलग-अलग पौधों का सरोवर हो गया।

गेंदे के फूल ज्यादा लंबे समय तक नहीं टिकेंगे, इस बात को ध्यान में रखते हुए गार्डन की बाउंड्री के चारों ओर हेज के पौधे लगा दिए। इन पौधों के कारण विद्यालय गार्डन की चार दिवारी स्थायी रूप से काफी मजबूत हो गई। स्कूल के कबाड़ से कई तरह के जुगाड़ हम करना सीख गए और उन्हें गार्डन के लिए काम में ले लेते। गार्डन का दरवाजाफैंस के खूंटों के लिए लकड़ी की जगह पाइप जैसे विकल्प आजमाते रहे। प्रतापगढ़ के गार्डन में हम फव्वारे नहीं लगा पाये। यह कसर यहाँ निकाल दी। स्टाफ साथियों एवं प्रिंसिपल साहब के सहयोग से आलमास स्कूल के गार्डन में फव्वारे लग चुके हैं। यह और बात है कि जरूरत के अनुसार ही उन्हें चलाया जाता है।

एक सुंदर गार्डन बन गया तो मेरा लालच और बढ़ गया। स्कूल में दूसरे गार्डन की रणनीति बनी और आकर लेने में सफल रही। पहले साल इन दोनों गार्डन को पोषण वाटिका के रूप में भी काम में लिया। प्याज, लहसुनगाजरमूलीमटरमिर्चटमाटरबैंगनभिंडी, ग्वार फली जैसी फसले उगाई गई और उनको विद्यार्थियों में नियमित रूप से बांटा गया। ये प्रयोग दिखावे के लिए नहीं, बल्कि जमीनी बदलाव के लिए किया गया जो काफी हद तक सफल रहा। पोषण वाटिका में सब्जियों की खेती ज्यादा लंबी नहीं चल पायी। इसका कारण यह रहा कि जब हम खाने की चीजें सार्वजनिक स्थलों पर बोते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनके रखरखाव में बड़ी समस्या बन जाती है। क्योंकि खाने की चीज है तो लोग खाएँगे ही। झगड़ों से बचने के लिए पोषण वाटिका का विचार सीमित कर दिया गया। इन दोनों गार्डन को प्रयोगशालाओं के रूप में स्थापित कर दिया गया। एक गार्डन जहाँ पुस्तकालय एवं विद्यार्थियों के लिए अन्य अलग-अलग गतिविधियों के लिए आरक्षित कर लिया गया, वहीं दूसरा गार्डन शनिवारीय प्रयोगशाला के लिए आरक्षित हो गया है। अक्सरबस्तामुक्त दिवससे जुड़ी हुई विशेष थी मोंका प्रदर्शन इन दोनों गार्डन में होते रहते हैं।

अब अंत में इस गार्डन के विकास में जिन्होंने आर्थिक योगदान की भूमिका निभाई उनको स्मरण करना उचित रहेगा। प्रिंसिपल साहब भीम सिंह राठौड़शारीरिक शिक्षक मोहम्मद शमीम अंसारीराजनीति विज्ञान के व्याख्याता प्रकाश चंद्र खटीक, अंग्रेजी के वरिष्ठ शिक्षक चंपालालसंस्कृत वरिष्ठ अध्यापिका रीना शर्माअध्यापिका भावना जैनअध्यापक सुरेश कुमार, कनिष्ठ लिपिक वेंकटेश कुमार। आप सभी के सहयोग से यह कार्य एक सही आकार ले पाया। सत्र 2021-22, 22-23  23-24 के दरमियान कक्षा 11-12 के विद्यार्थियों के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने अपने परिश्रम और जेब खर्च को गार्डन में लगा स्कूल के प्रति अपने सरोकारों को समझा शुक्रिया मेरे विद्यार्थियों।


डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
व्याख्याता (हिंदी), रा..मा.वि. आलमासब्लाक मांडल, जिला भीलवाड़ा (राज.)
dayerkgn@gmail.com 9887843273 
 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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