शोध सार : आदिवासी समाज सदियों से जंगलों में निवास करता आया है। उसकी अपनी भाषा और संस्कृति है। आदिवासी क्षेत्रों में कथित मुख्यधारा के हस्तक्षेप के बाद से वह विकृत हुयी है। विकास के नाम पर आदिवासी इलाकों मेंलूट की संस्कृति का जन्म हुआ है। साहू-महाजन औरठेकेदार सरकारी अफसरों की सांठ-गांठ से विकासके नाम पर आदिवासियों को लूट रहे हैं। जो परियोजनाएं विकास के नाम पर पारित की जाती हैं वे सिर्फ कागजों तक सीमित हैं। इस आलेख में आदिवासी इलाकों में फैले भ्रष्टाचार को रेखांकित किया गया है और साथ ही आदिवासी क्षेत्रों में धर्मांतरण और शिक्षा की समस्याओं को भी समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : आदिवासी, जमींदारी व्यवस्था, साहूकार, महाजनी सभ्यता, शिक्षा,धर्म,आदिवासी विद्रोह।
मूल आलेख : आर्य-अनार्य युद्धों की अनवरत शृंखला के कारण आदिवासी राजसत्ता के वर्चस्व से अपदस्थ हो मैदानी इलाकों से दूर पहाड़ों व जंगलों के क्षेत्रों में विस्थापित हो गए, जिसके कारण ये कथित मुख्यधारा के अभेद्य वर्णव्यवस्था से बाहर रहे। इनकी अपनी भाषा, संस्कृति और स्वतंत्र सत्ता रही है। आदिवासी समाज मुख्यतः जंगलों पर निर्भर रहा है। जंगल, आदिवासियों की संस्कृति और जीवन तीनों का आपस में अन्योन्याश्रित संबंध है। जिसमें समय-समय पर कथित मुख्यधारा के लोगों ने हस्तक्षेप किया है। “मुगलों की सेना ने पहली बार इन जंगलों में प्रवेश किया।... जहाँगीर ने अपने एक सेनापति इब्रहिम खान के नेतृत्व में एक विशाल सेना इन जंगलों में भेजी।”[1] इसके बाद व्यवस्थित तरीके से पहला हस्तक्षेप “ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1765 में शाहआलम से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करने के बाद किया।”[2]और उनके पारम्परिक अधिकारों को छीनना शुरू किया। जिसके खिलाफ तिलका मांझी ने सन् 1781 में सशस्त्र विद्रोह किया था। यह विद्रोह सन् 85 में कुचल दिया गया। “ब्रिटिश शासन ने 1793 की स्थायी-बन्दोबस्ती के माध्यम से एक नए प्रकार की ज़मींदारी व्यवस्था आदिवासियों पर थोप दी।”[3]जिससे जंगल की सामूहिकता की संस्कृति पर धक्का लगा। इसके खिलाफ सन् 1832 में प्रसिद्ध कोल विद्रोह सिंगराय और विनराय मानकी के नेतृत्व में हुआ। अपने पारम्परिक अधिकार, धर्म, संस्कृति,
जंगल, जमीन को बचाने के लिए आदिवासी समाज हमेशा से संघर्षरत रहा है। उसने ठेकेदारी व महाजनी सभ्यता की हमेशा मुखालफत की है। जिसके साक्ष्य संथाल हूल, मुंड़ा विद्रोह, बस्तर विद्रोह, तानाभगत विद्रोह आदि विद्रोहों में मिलते हैं।
आदिवासी जीवन का संघर्ष जल, जंगल, जमीन का संघर्ष है। जिसके साथ उनकी पहचान जुड़ी है। आज जिस तरह पूंजी व सत्ता के गठजोड़ द्वारा छद्मविकास के नाम पर जंगल को उजाड़ा जा रहा, उनकी जमीनों को षड्यंत्रों द्वारा छीना जा रहा, अनेक डैम परियोजनाओं के नाम पर उन्हें विस्थापित किया जा रहा, ऐसे समय में आदिवासियों का जीवन संघर्ष और बढ गया है। रमणिका गुप्ता ने उनके जीवन और संघर्षों के बारे में लिखा है कि “आदिवासी और जनजातीय लोग जिनकी आबादी सात करोड़ से ऊपर है क्रूर पूंजीवाद और अर्द्ध-सामंती शोषण के शिकार हैं। जमीनें उनके हाथ से निकल गयी हैं, जंगल उनके हाथ से छिन गए हैं और वे ठेकेदारों तथा भू-स्वामियों के लिए सस्ती और बधुआ मजदूरी के स्रोत बन कर रह गए हैं।”[4]
आदिवासियों के दैनीयदशा का प्रमुख कारण अशिक्षा है। आदिवासी क्षेत्रों में शैक्षिक संस्थानों की बहुत कमी है। जो संस्थान खोले भी गए हैं वह भी ज्यादातर भवनहीन हैं। इसके अलावा उन क्षेत्रों में जिन प्रशासकों और अध्यापकों को शिक्षा की जिम्मेदारी दी गई है उनमें भी अपने कार्यों के प्रति समर्पण व आदिवासियों से लगाव का अभाव है। रामशरण जोशी ने बस्तर के आदिवासियों में आधुनिक शिक्षा के अध्ययन के दौरान पाया कि “प्रशासक से लेकर सवर्ण अध्यापक तक प्रायः इस विश्वास के थे कि आदिवासी लोग जाहिल, काहिल,
जंगली होते हैं और कभी सभ्य नहीं बन सकते।”[5]आज आजादी के सत्तर वर्ष बाद और संविधान के अनुच्छेद (350ए) में किए गये अल्पसंख्यक भाषाई प्रावधानों के बावजूद आदिवासियों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकी है और जो भी शिक्षा दी जा रही, वह मुख्यधारा में विलय के नाम पर शैक्षिक संस्थानों में रामायण व हनुमान चालीसा का पाठ अबोध आदिवासी छात्रों पर लादा जा रहा है। आदिवासी जीवन की ये तमाम समस्याएं उपन्यास विधा में विस्तार से आयी हैं। उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपनी औपन्यासिक कृति ‘पठार पर कोहरा’ में आदिवासियों के जीवन संघर्षों को कलात्मक रूप देने की कोशिश की है।
उपन्यासकार ने उपन्यास में झारखण्ड के एक छोटे से गांव गजलीठोरी के आदिवासी-संघर्ष के आख्यान द्वारा पूरे भारत के आदिवासियों के साथ हो रहे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक,
शोषणों की ओर ध्यान खींचने का प्रयास किया है और बताने की कोशिश की है कि इस तरह के शोषण के शिकार सिर्फ गजलीठोरी या झारखंड के ही आदिवासी नहीं बल्कि पूरे भारत और विश्व भर के आदिवासी इस अमानवीय कृत्य के शिकार हैं। दुनिया को सभ्य और शिक्षित बनाने के लिए निकले गोरों ने “आस्ट्रेलियाई मूल के एफ्रोनिग्राइट्स नामक एक पूरी प्रजाति का सफाया कर डाला। रेड इंडियन्स का समूल नाश कर दिया।”[6] इस सभ्य गोरी जाति ने भारतीय आदिवासियों का मूलोच्छेद करने की कोशिश की पर अंग्रेजों को इन जीवट आदिवासियों के बगावती तेवर का समाना करना पड़ा और अंततः आदिवासियों ने हार नहीं मानी लेकिन आजादी के बाद आज भी आदिवासियों का शोषण जारी है।
आज छद्म विकास के नाम पर सरकार, पूँजीपति, सेठ,
साहूकार तक इनका खून चूसने पर लगे हैं। आदिवासी क्षेत्रों में इन्हीं का कब्जा है। “गजलठोरी में अघोषित रूप से गगन बिहारी साहू जैसे बनिए और बेचू तिवारी जैसे भू-सामन्त का कब्जा है। ....गांव के अनपढ़ और सीधे साधे आदिवासियों पर राज कर रहा है गैर आदिवासी शक्तियों का गठबंधन।”[7] इन गैर-आदिवासियों ने आदिवासियों को कभी मनुष्य समझा ही नही। वे इन्हें असभ्य और बर्बर समझते आए हैं। हजारों सालों से इन्हें जंगली, राक्षस, दस्यू आदि कहकर इनको मनुष्यता की परिधि से बाहर रखा है। कथित रूप से अपने को मानवीय और सभ्य समझने वाला यह समाज स्वंय ही आदिवासियों के प्रति हमेशा से क्रूर और बर्बर रहा है। वह इन्हें मात्र मनोरंजन का साधना समझता रहा है लेखक ने इस समस्या को उपन्यास के प्रमुख पात्र संजीव के माध्यम से उठाया है “संजीव ने महसूस किया है कि जंगल से बाहर सदैव यही ढूँढ़ने के प्रयास किए जाते हैं कि जनजातियों के जीवन में अद्भुत क्या है? क्या विलक्षण है जिसका आस्वादन चटखारे लेकर किया जा सकता है? कहां हैं इस जंगल में वैसी श्रृंगार युक्त आदिवासी स्त्रियाँ जिन्हें तैलचित्रों में देखते रहे हैं संजीव? गजलीठोरी की अधिकांश महिलाएं तो दुख दैन्य की तस्वीरें ही हैं। अभाव शोषण और उपेक्षा के पाटों में क्यों पिसती रही हैं झारखंड की जनजातियां? प्रारम्भ से ही क्या सभ्य समाज इन्हें मानवेतर जाति के रूप में नहीं गिनता रहा है?”[8]इस सभ्य समाज को जंगलों, पहाड़ों पेड-पौधों, जंगली-जानवरों, हिरणों,बाघों की खूब चिन्ता है। काले हिरणों के शिकार पर भारत में सिनेमा के नायकों से लेकर नायिकाओं तक पर केश चलते रहे हैं। आये दिन पर्यावरण को लेकर पूरा देश बहस से उबल पड़ता है परन्तु इन्हीं वन प्रदेशों में रहने वाले आदिवासियों के लिए विकास और उत्थान की योजनाओं के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई देती है। गजलीठोरी के स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में लेखक ने लिखा है कि-“सन्तानोत्पत्ति पर जंगल में कोई प्रतिबन्ध नहीं। कम उम्र में विवाह और फिर प्रतिवर्ष एक सन्तान का औसत परन्तु मृत्यु दर बहुत अधिक...! स्वास्थ्य सुविधाएं नदारद...!”[9]
यह कहानी सिर्फ झारखंड के ‘गजलीठोरी’ की नहीं बल्कि पूरे भारत के आदिवासियों की है। आज भारत दुनिया की छठी शक्ति बनने जा रहा लेकिन उसी भारत के आदिवासी समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के मुख्य मुद्दे गायब है और वे बधुआ मजदूर का जीवन जीने पर बाध्य हैं संजीव को ऐसा लगता है कि- “रोजगार,
परिवहन, स्वास्थ्य सुविधाएं... कुछ भी तो नहीं है गजलीठोरी में। विकास की बयार मानों इधर से होकर कभी गुजरी ही नहीं। पटना-राँची का भारत कुछ और है, दिल्ली का इंडिया कुछ और! देश-राज्य की राजधानियों के बाहर, गजलीठोरी जैसी जगहों का हिन्दुस्तान वहीं का वहीं ठिठका खड़ा है जहाँ सौ-पचास वर्ष पूर्व था!”[10]ज्यादातर आदिवासी जगहों पर भी प्रशासनिक सेवाओं में कथित सभ्य समाज के लोग जिन्हें आदिवासी दिकू मानते हैं की नियुक्तियां हुई हैं। जो अपनी कथित सभ्यतागत मानसिकता से पीड़ित है,वे आदिवासियों को असभ्य मानते हैं और सरकार के द्वारा चलाई जा रही आदिवासी कल्याण योजनाओं को फिजूलखर्च मानते हैं। उनका मनना है कि इन आदिवासियों में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इन प्रशासकों की लापरवाही का आलम यह है कि गजलीठोरी जैसे गांवों की जनगणना अपने एसी रूम में बैठ कर ही कर देते हैं। प्रशासकों के इन गैर जिम्मेदाराना व्यवहारों के कारण आदिवासी कल्याण के लिए की जा रही आवंटित राशियाँ वापस लौट जाती हैं या फिर बिना पर्यवेक्षकों के चलते यह आदिवासी कल्याण योजनाएं भ्रष्ट ऑफिसर, साहूकार,
महाजन, जमींदार कल्याण योजनाओं के रूप में तब्दील हो जाती हैं। संजीव ने जब गजलीठोरी के बारे में छानबीन की तो पता चला कि “वनवासी सेवा केन्द्र और इण्डियन नेशनल ट्रस्ट फॉरद वेलफेयर ऑफ ट्राइबल्स (इंजाट) की जनगणनाओं में गजलीठोरी का अस्तित्व ही नहीं है।”[11] गजलीठोरी में शिक्षा का आलम यह है कि वहाँ संजीव को कोई ऐसा ग्रामीण नहीं मिला जो माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच सका हो।दरअसल गजलीठोरी में व भारत भर के आदिवासी क्षेत्रों में यह समस्या छबीला राम सिंह जैसे अध्यापकों व प्रशासकों के उदासिनता के कारण पैदा हुई है। गजलीठोरी में स्कूल तो है पर गगन बिहारी ‘साहू’ की दुकान में। स्कूल के रजिस्टर वहां के धन कुबेर व राज्य के छुट भैया बेचू तिवारी के पास है, जिसका पूरे गांव पर आतंक है। ऐसे स्कूल की दशा का वर्णन स्कूल का मास्टर छबीला राम सिंह चटखारे मार कर करता है कि “दादा खूब आराम है इफ स्कूल में! न एक्को एफटूडेंट हैं न ही फाफ फाई का झंझट...! रोज रोज इफ्लूल जाने की भी फमफ्या नहीं है। फब हवाहवाई ...फाला फिक्षा विभाग भी गजब का फूरदाफ....!”[12]इस हवाहवाई आराम और आदिवासियों का जीवन बरबाद करने के लिए छबीला राम सिंह और उसके जैसे अध्यापक नीचे से लेकर ऊपर तक लेवी पहुंचाते हैं। इस तरह के भ्रष्टतंत्र को बनाए रखने के लिए बेचू तिवारी, साहू व जंगल सेना जैसे गठबंधन जंगल में सक्रिय हैं। बेचू तिवारी और गगन बिहारी ‘साहू’ यह जानते हैं कि अगर आदिवासी समाज शिक्षित हो गया तो वह इनके दुष्चक्र में नहीं फसने वाला इसलिए गजली ठोरी में जब संजीव कड़े परिश्रम के बाद स्कूल स्थापित करने में सफल होते हैं तो बेचू तिवारी उन्हें धमकी और हिदायत देते हुए कहता है कि “अक्षर ज्ञान थोड़ा कम ही रहे तो उत्तम। अधिक ज्ञान देंगे तो अतिसार हो जाएगा। एक तो ये ससुर स्वंय ही भालू ठहरे।”[13]आदिवासी इलाकों के कल्याण के लिए सैकड़ों योजनाएं है लेकिन एक भी योजना का जमीनी क्रियान्वयन दिखाई नहीं देता लेकिन योजनाओ के पीछे के विपुल कारनामें जरूर दिखाई देते हैं। आजादी के बाद की योजनाओं का जिक्र करते हुए उपन्यासकार लिखता है कि आबंटित राशि का दस प्रतिशत भी आदिवासियों तक नहीं पहुंच रहा। कई योजनाएं कागज पर चलती रहती हैं। कई योजनाएं तो फाइलों की कब्र में दफन हो गयी...जैसे कि यह प्राथमिक विद्यालय गजलीठोरी।”[14]
उपन्यासकार ने संजीव के माध्यम से आदिवासी समाज के बीच हो रहे धर्मांतरण की समस्या को उठाया है। आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियां कम्पनी राज से ही अपने धर्म का प्रचार प्रसार करती रही हैं जिसके चलते धर्मान्तरित आदिवासी अपने जीवन शैली और परम्परा से दूर होता चला जा रहा है। आदिवासियों के जीवन में आने वाले इन्हीं दुष्प्रभावों के कारण कभी बिरसा मुंडा ने विद्रोह किया था। आज अगर कुछ आदिवासियों ने धर्म परिवर्तन किया है तो उसमें सिर्फ वे दोषी नहीं हैं। उन्हें शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार का प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया गया है। डॉ. गोविन्द गारे ने धर्म परिवर्तन का कारण बताते हुए लिखा है कि “अकाल,बाढ तथा अन्य आर्थिक समस्याओं से पीड़ित तथा सवर्ण हिन्दुओं के अत्याचारों से सताए हुए आदिवासी इसाई बने हैं। ....ये आश्रम वाले तथा कथित हिन्दू सुधारक अपने मनुवादी तथा परम्परावादी विचार आदिवासी लोगों पर लादकर उन्हें सच्चे अर्थों में धर्मान्तरित करते हैं। मिशनरियों के समान वे भी उतने ही दोषी हैं,इसे नकारा नहीं जा सकता।”[15]फादर ब्रूनो धर्म परिवर्तन को एक विकास की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं।फादर ब्रूनो जैसे तमाम धर्मों के लोग आदिवासियों के बीच अपने धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। इन मिशनरियों व प्रचारकों ने आदिवासी समाज का विकास कम, नुकसान ज्यादा किया है। इन प्रचारकों ने उन धर्मांतरित तमाम जातियों के कर्मकांड, संस्कार, खान-पान, वेषभूषा को समाप्त कर अपनी संस्कृति और धर्म को उनके ऊपर थोप दिया है। यह उन जातियों के इतिहास को समाप्त करने की साजिश है। धर्म परिवर्तन और प्रचार तंत्र की आड़ में आदिवासियों के अस्तित्व को समाप्त कर देने की इस साजिश को संजीव अच्छी तरह समझता है। इसलिए वह फादर ब्रूनों के धार्मिक विकास की बात को खारिज करते हुए कहता है कि“आम जन के लिए भारत में सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के रास्ते धर्म की गलियों से गुजरकर अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकते।”[16]
राकेश कुमार सिंह ने संजीव व रंगेनी को दो ऐसे चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है जो अन्याय के खिलाफ मुखर आवाज उठाते हैं। जहाँ एक तरफ रंगेनी पूरे उपन्यास में पुरुषवर्चस्व को चुनौती देती हुई नजर आती है। वहीं दूसरी तरफ संजीव जंगल में फैली साहू और महाजनी व्यवस्था को। आदिवासी समाज के बारे में एक रोमैंटिंक कल्पना रही है कि आदिवासी स्त्रियाँ शोषणमुक्त हैं, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। आदिवासी समाज हो या गैर आदिवासी समाज हर जगह स्त्रियों का शोषण होता है। अदिवासी स्त्रियों का दैहिक शोषण अधिकतर गैर आदिवासियों द्वारा होता है। औघड़वा और रेलवे के सिपाहियों के हवस का शिकार होने के बाद जब पंचायत रंगेनी से उसके पेट में पल रहे बच्चे के बाप के बारे में जानना चाहती है और उसे किसी पुरूष के साथ विवाह करने को कहती है तो वह पुरूषवर्चस्व को चुनौती देते हुए कहती है“मरद के नाम से घिन आती है हमेंरंगेनी ने तमतमाकर कहा था अब हमें किसी मरद पर भरोसा नई।”[17]पंचायत के द्वारा उसका गांव के साथ हुक्का पानी बंद करने पर वह रूढ़िवादी समाज को अपने साहस का परिचय देती है और “पंचायत को ठेंगा दिखाकर पहान का उठा(उल्लंघन) कर गांव से निकल गयी थी रंगेनी। गांव से कुछ अलग हटकर उसने अकेले दम अपनी छोटी सी नयी छोपड़ी खड़ी कर ली थी”[18]
संजीव गैर आदिवासी होते हुए भी आदिवासियों के दुख दर्द को अपना दुख दर्द समझते हैं। वह आदिवासियों में आत्मसम्मान की भावना जागृति करते हैं और उन्हें संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। आज आदिवासी समाज को संजीव जैसे दृढ इच्छा शक्ति व अपने कार्य के प्रति समर्पण भाव रखने वाले युवाओं की जरूरत है। संजीव के माध्यम से लेखक ने आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच की खाई पाटने का प्रयास किया है। उपन्यास की भूमिका में लेखक ने लिखा है कि“भारतीय बुद्धिजीवी समाज के जिन लेखकों ने आदिवासी जनजीवन पर लिखा है उनमें से अधिकांश ने हर एक गैर आदिवासी को खलनायक के रूप में ही चित्रित करने की रूढ़ि का अनुगमन किया है। ...जबकि नए परिप्रेक्ष्य में इस संबंध को पुनः परिभाषित करने तथा आदिवासी-गैर आदिवासी के बीच की आदिम खाई को पाटने की फौरी जरूरत है।”[19]
इस प्रकार हम देखते हैं कि पठार पर कोहरा उपन्यास में आदिवासी इलाकों में होने वाले बहुविधि भ्रष्टाचार को परत-दर-परत विश्लेषित करने की कोशिश की गयी है। साथ ही झारखंड के जंगलों में पैदा हुई साहू महाजनी व्यवस्था के शोषण को भी दिखाया गया है। संजीव जैसे लगनशील व आत्मसमर्पित व्यक्ति के माध्यम से लेखक ने आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच बढ़ती खाई को पाटने की कोशिश की है जिसमें वह एक स्तर तक सफल भी हुआ है।
[1]विनोद कुमार, समरशेष है, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण 2005, पृ. 15
[2]विपिनचंद्र, आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियन्टल ब्लैकस्वान, नई दिल्ली, संस्करण 2009, पृ. 55
[3]रमणिका गुप्ता, आदिवासी विकास से विस्थापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृ. 11
[4]वही, पृ. 16
[5]हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, संस्करण 2013, पृ. 124
[6]राकेश कुमार सिंह, पठार पर कोहरा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 2005, पृ. 7
[7]वही, पृ. 126-127
[8]वही, पृ. 154
[9]वही, पृ. 108
[10]वही, पृ. 135
[11]वही, पृ. 178
[12]वही, पृ. 86
[13]वही, पृ. 143
[14]वही, पृ. 137-138
[15]सं. रमणिका गुप्ता, आदिवासी विकास समाज से विस्थापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली संस्करण 2018, पृ. 29
[16]राकेश कुमार सिंह, पठार पर कोहरा, भारती ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 2005, पृ. 175
[17]वही, पृ. 70
[18]वही, पृ. 71
[19]वही, पृ. 9
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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