शोध सार : वर्तमान समय में महिला लेखन अब किसी परिचय अथवा अनुशंसा की मोहताज नहीं हैI पितृसत्ता के धागों को हमारी पुरखिनों ने एक -एक करके बड़ी तबियत से उधेड़ा हैI समाज में स्त्री -पुरुष के ताने -बाने संतुलित करने में व्यवस्था के पुराने करघों में नयी विचार दृष्टि की ‘ग्रीसिंग’ करने में स्त्री लेखन ने अद्भुद सफलता पायी हैI कवयित्री,आलोचक,विमर्शकार लेखिका का नाम इस सन्दर्भ में अधिकार पूर्वक लिया जा सकता हैIअनामिका की कविताएँ उद्वेलित करती है,उत्तेजित नहींI अनामिका का स्त्रीवाद स्त्री – पुरुष समानता को समझाने बुझाने वाला स्त्रीवाद हैI प्रतिशोध लेने वाला नेस्तानाबूत करने वाला स्त्रीवाद नहीं हैI बहुत मुलायम औरगहरी अर्थसम्पृक्ति के साथ अनामिका की कवितायें पाठकों के मन -विचार पर अपना असर डाल देती हैI अनामिका की कविताओं में समझाने वाला,ठहरकर बतियाने वाला भाव हैIएक ममत्वभरी संवेदनशीलता हैI’सुनो,रूको, अच्छा कहो तो ....बोलो तो’ जैसे वाक्य उनकी कविताओं में स्त्री -पुरुष दोनों के लिए कहने -सुनने का एक लोकतंत्र रचते हैI उनकी हर कविता में ‘लोक’ परंपरा की आवा –जाही बनी रहती हैI ओखली – मूसल के वृत्तांत से लेकर ‘दलाई लामा’ तक के जिक्र हैI अनामिका की कविताओं में संसार की प्रत्येक स्त्री का दुःख और उनके सन्दर्भ व्याख्यायित हैI अनामिका की कविताओं में स्त्री संसार अत्यंत समृद्ध और आज़ाद हैIउनकी कविताओं में स्त्री शोषण पीड़ा का वृत्तांत है तो उनसे उबार की नसीहतें भी हैI
बीज शब्द : पितृसत्ता – पुरुष शासन व्यवस्था का परंपरागत रूप, शोषण- दूसरे के अधिकारों का हनन, स्त्रीवाद- स्त्री के अस्तित्त्व और अस्मिता के पक्ष में खड़ी विचारधारा, प्रतिशोध – बदले की भावनाI
‘‘लोग मिले-पर कैसे-कैसे
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, केवल जिद्दी
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी
दोस्त नहीं, मालिक
सामाजिक नहीं, एकांत भीरू
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर।’’1
अनामिका की कविता की यह पंक्तियाँ इतने गहरे अर्थ खोलती हैं कि साधारण शब्द भी एक असाधारण अर्थ संसार के कई द्वार खोलने लगते हैं। ‘क्या होना चाहिए’ और ‘क्या हो गया है’ इसको इतनी सरलता से कह पाना केवल अनामिका के ही वश की बात है। अनामिका हमारे समय की अत्यंत समर्थ कवयित्री हैं। ‘अनामिका’ के व्यक्तित्व की ही तरह सरल किंतु स्पष्ट उनका रचना संसार भी है। ना वो आतंकित करती हैं ना ही उनका साहित्य। वह जब कविताओं का पाठ करती हैं तो मानों दुनिया एकाएक सब तरफ से सुंदर हो उठती है। तनाव वाली बातों को भी इतनी सहजता से कह पाना और स्वयं को भी इतना मुक्त रख पाना आसान नहीं होता। अनामिका निरंतर अपने लेखन से पितृसत्ता की परत दर परत उघाड़ती चलती हैं पर पुरुषों के प्रति वह कभी निमर्म नहीं होती। वह पितृसत्तात्मक विचार धारा का विरोध करती हैं, पर उसकी चपेट में फँसे हुए ‘पुरुषों’ को भी गहरी ममता के साथ दुलारती हैं। उनकी दुनिया में जीवन दर्शन से लेकर स्त्री, पुरुष, ममत्व, सखत्व, लोक गीत, कथाएँ, दादी, नानियाँ, ऊबटन, तेल मालिश, कनस्तर, कटोरी, चंदा मामा, करधनी, पैंजनी, तकियों पर कढ़े हुए फूल आदि सब शामिल हैं। सबका अपना रंग-ठाठ है। सबकी अपनी ज़रूरत और मिज़ाज है। इस भरे-पूरे संसार से किसी भी चीज़ को हटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता। अनामिका के लेखन की यही तासीर है कि वह जीवन को कहीं दूर से देखकर नहीं पहचानती बल्कि वह इन सब में खुद शामिल होकर इनको जीती हैं। उनकी रचनाओं में प्रतिशोध नहीं बल्कि तर्क के तेवर हैं। उनकी पुरखिनें दुलारनें, समझाने, बुझाने और सर उठाकर सवाल करने की सीख देती हैं। कविता और उसके कंटेट/मुद्दों पर अनामिका स्वयं कहती हैं कि- ‘‘कविता कोई मुद्दा लेकर नहीं चलती। वह अपनी मौज में उमड़ पड़ती है, ठीक वैसे ही जैसे नदी अपनी नैसर्गिक रवानी में बह निकलती है। वह इसलिए नहीं बहती कि उसके तट पर सभ्यताएँ बसें, पर यह भी एक बड़ा सच है कि उसके तट पर सभ्यताएँ बस ही जाती हैं। ठीक इसी तरह कविता लिखते-पढ़ते हुए अच्छाई आपकी हड्डियों में फूल की तरह चटक ही जाती है। पर याद रखने की बात यह है कि अच्छाई कविता का बाईप्रोडक्ट है। कविता लिखते समय कोई कमर नहीं कसता कि पढ़ने वाले का मनोवैज्ञानिक परिष्कार करके रहेंगे, उसकी ग्रंथियाँ मिटा कर रहेंगे। जैसे एक सुलझे हुए व्यक्ति के पास बैठकर पेड़ की छाया में बैठने का एहसास होता है और वृत्तियाँ अपने आप ही शांत हो जाती हैं, वैसे ही सुलझी हुई, समझदार रचना एक कौंध में आपका मर्म कुछ ऐसे छूती हैं कि कम से कम कुछ देर की ख़ातिर आपकी वृत्तियाँ शांत हो जाए और बाद तक भी जब-जब स्मृति में वह कौंधे, आपका संवेदन जग जाए और आप मनुष्येतर हो जाएँ।’’2
अनामिका अपनी कविताओं में ‘पॉलिटिकल एजेंडा’ नहीं रखती बल्कि उसके स्थान पर वह अपनी कविताओं में लोक, और सभ्यताओं के सत्य को रचती बनाती हैं। मनुष्य के दुख-दुख में सहभाग लेने को प्रेरित करती हैं। वह कविता को मकसद नहीं बल्कि एक सृजन, एक उपाय की तरह देखती हैं। अनामिका की कविताएँ ‘दंडित करना नहीं जानती’, बहिष्कार के लिए नहीं उकसाती बल्कि सामाजिक बुराइयों के कील-काँटे बुहार कर, कीचड़-काई धो माँजकर पुनः उपयोग कर लेने में, बिगड़े को सुधार लेने में ही अच्छे समाज की कल्पना करती है।
पितृसत्ता के बर्ताव और उसके कारण स्त्री संसार में होने वाली उथल-पथल को बिना किसी गरिष्ठ ज्ञान के, समाधान के साथ अनामिका अपने पक्ष को सरलतम ढंग से समझा देती हैं। वे कहती हैं- ‘‘मार-पीट, गाली-गलौज, भ्रूण हत्या, कटाक्ष, इनसेस्ट (कौटुम्बिक व्यभिचार), बलात्कार और तरह-तरह के यौन दोहन, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, डायन दहन, दहेज-दहन, पोर्नोग्राफी, टै्रफिकिंग, वेश्यावृत्ति, यांत्रिक संभोग, प्रेमविहिन, विवाह-बंधन, अनचाहा गर्भ, साफ-सुथरे और सुरक्षित प्रसव केंद्र का अभाव-दुनिया के जितने स्त्री-विषयक अपराध हैं- प्रायः सबकी मुख्य पीठिका (प्राइम साइट) स्त्री-शरीर ही तो है। शरीर जो कि इतना नरम और कोमल है, फिर भी इतना कर्मठ, लचीला और फुर्तीला शरीर, जिसने आपको धारण किया है, आपको पाला-पोसा है, कहानियाँ-लोरियाँ सुनाई हैं, दिन-रात आपकी खि़दमत में जुटा है, आखिर आपसे चाहता क्या है? वैसा व्यवहार जो बकौल पोरस, एक राजा दूसरे से चाहता है। प्रजातंत्र का गौरव इसमें ही है कि यहाँ सब शहंशाह है, कोई छोटा- बड़ा, ऊँचा-नीचा नहीं है, सबकी ही मानवीय गरिमा की रक्षा होनी है।’’3
पितृसत्तात्मक धारणाओं, विचारधाराओं और उसकी अपनी मान्यताओं के कारण स्त्री शोषण और उत्पीड़न के कितने ही रूपों को जन्म देती हैं। इन सभी अपराधों के मूल के स्त्री को दोयम दर्जे का मानना, वस्तु समझना और भोग्या के रूप में ही देखना है। कितनी सरलता से अनामिका ‘देह की प्राईम साइट’ पर होने वाले अपराधों के पीछे पुरुषवादी मानसिकता की उसकी कृतघ्ना’ को जिम्मेदार ठहराती है; जो भूल चुका है स्त्री को उस देह के अवदान को, उस दुलार को अपने पालन-पोषण वाले हाथों को जिसने उसे प्रेम करना सिखाया मनुष्य होना सिखाया। अनामिका ‘मनुष्यता’ को स्त्री-पुरुष में बाँटकर नहीं बल्कि ‘मानवीय गरिमा’ के रूप में देखती हैं। अनामिका के रचना संसार में स्त्री-पुरुष के मध्य स्वामी एवं दासपन नहीं बल्कि एक ‘साथीपन’ है। संग-संग चलने रचने वाले सृष्टि की दो सुंदर कृतियों (स्त्री-पुरुष) के समाज रचने और सकारात्मक बनाने वाली दो शक्तियों के रूप में देखती हैं। ‘‘दांपत्य संबंध पारंपरिक परिवार व्यवस्था में प्रेम या साहचर्य की भावना से रहित शासक और शासित’ के समानांतर विकसित हुए हैं जिसकी घुटन और छटपटाहट को अनामिका ने निमर्म औपनिवेशिक शासन के बरअक्स प्रस्तुत किया है। घर का शासक पति है-
‘‘स्वामी जहाँ नहीं भी होते थे
होते थे उनके वहाँ पंजे,
मुहर, तौलिए, डंडे,
स्टैंप-पेपर, चप्पल-जूते,
हिचकियाँ-डकारें खर्राटे
और त्यौंरियाँ, धमकियाँ-गालियाँ खचाखच।’’4
विवाह के साथ उपहार में मिलने वाली ‘स्त्री-दासता’ और ‘पति के स्वामित्व’ के मध्य हो गए हुए प्रेम, अपनत्व, सहजीवन की रोमानी कल्पनाओं को खोजती, सम्मान और प्रेम मिलने की राह देखती औरत धीरे-धीरे किस तरह ‘हुकुम बज़ाने’ वाजी औरत में कन्वर्ट कर दी गई है; उपरोक्त कविता बहुत साफ-साफ उस गुलामी का पता देती है। समकालीन हिंदी कविता में जो स्त्री स्वर है वह केवल बड़ी-बड़ी बातों को गढ़ने का उपक्रम मात्र नहीं है। वह महीन से महीन समस्याओं पर भी केंद्रित होकर अड़कर बात करना जानता है। जेंडर भूमिकाएँ किस प्रकार हमारे समाज में घुला-मिला दी गई है कि अब इनको पृथक करके देख पाना संभव नहीं रह गया है। भाषा का व्याकरण कुछ इस प्रकार से निश्चित हो गया है कि हम ‘ऑटोमेटिक’ ही हम स्त्री के ऊपर पुरुष को वरीयता देना सीख जाते हैं। उदाहरण के लिए देखे-यदि कोई स्त्री गर्भवती है तो अमूमन कहा जाता है कि ‘बच्चा’ होने वाला है। डॉक्टर, नर्स, दाई या फिर परिवार वाले भी यही कहते हैं कि ‘बच्चा’ होने वाला है। स्त्रियाँ कहती हैं कि किक ‘मारता’ है, पेट में घूम ‘रहा’ है यादि-आदि। कोई भी यह नहीं कहता की ‘बच्ची’ होने वाली है। कहे भी कैसे हमारी भाषा में ऐसा कोई विकल्प ही नहीं कि हम केवल ‘शिशु’ होने की बात को कह सकें। हमारी बोलचाल की भाषा में ही पुरुष उच्च स्थान पर ही प्रतिष्ठित है। यही बात अनामिका छः पंक्तियों में बहुत आसानी से समझा देती है। देखिए-
‘‘राम पाठशाला जा।
राधा खाना पका।
राम, आ बताशा खा!
राधा, झाडू लगा!
भैया अब सोएगा
जाकर बिस्तर बिछा।’’5
‘‘अनामिका की वास्तविक चिंता जेंडर स्टीरियोटाइप्स को लेकर है जो लज्जा, प्रेम, सहिष्णुता, धैर्य, सहकारिता जैसे गुणों को सिर्फ स्त्री खाते में डालकर पुरुष को रोबिला, बलवान और आक्रामक होने पर मजबूर कर देते हैं। ऐसी इकाइयों से निर्मित सामाजिक ढाँचे में सहभागिता की भावना के बजाय अधिकार-भावना प्रमुख हो जाती है। बराबर का यह साथ तभी हो सकेगा जब पुरुष अतिपुरुष न रहे और ना ही स्त्रियाँ अतिस्त्री। एक ध्रुवीयविश्व न माइक्रों स्तर पर अच्छा है न मैक्रो स्तर पर। संतुलन ही सुख का मूल मंत्र है। सरप्लस न क्रोध का चाहिए न कामना का।’’6
माइक्रो-मैक्रो के मध्य जिस संतुलन की बात अनामिका कर रही हैं वही उनकी स्त्री-दृष्टि के मूल में है। नारीवाद भी स्त्री-पुरुष के मध्य असमानता के तमाम बिंदुओं को ध्वस्त करके इसी सामाजिक-व्यवहारिक संतुलन की माँग करता है। ‘‘स्त्रीवादी समीक्षा का एक बड़ा अवदान यह है कि वैयक्तिक अनुभूतियों का सामाजिक संदर्भ इसने संभव बनाया और बताया है कि जिसे स्त्रियाँ वैयक्तिक विफलता मानकर घुटती रहती थी असमंजस का मूल उस पूर्वग्रस्त पितृसत्तात्मक समाज में है, जिसके शिकार पुरुष भी हुए। क्योंकि दरअसल यह स्त्री और पुरुष दोनों के सम्य विकास को अवरूद्ध करता है। दोनों का जीवन विषाक्त करता है।’’7
पितृसत्ता ने केवल अपनी औरतों को ही मन मारना नहीं सिखाया। बल्कि इसने अपने ‘पुरुषों’ की भी मानवीय अभिव्यक्तियों और कोमल संवेदनाओं के प्रदर्शन पर रोक लगा दी। उसे ‘मर्द’, ‘माचो’, ‘रखवाला’, ‘मालिक’ बनाने के चक्कर में उसे प्रेम जताने, क्षमा माँगने, रोने इत्यादि से वंचित कर दिया। मनुष्य होना ही संवेदनाओं से भरा होना है। पितृसत्ता ने अपने लोभ और लाभ के लिए अपने पुरुषों को इन संवेदनाओं से च्युत कर उन्हें हिंसक बना बना डाला। वहीं स्त्रियों को कुछ ऐसे निर्देश दिए कि वह स्वयं को स्वयं ही दूसरे के उपयोग की वस्तु मानने लगे।’’ भोजन, वस्त्र, आवास और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ भी हर वर्ग, वर्ण, हर नस्ल, हर धर्म की ज्यादातर स्त्रियों के लिए गूलर का फूल है। कम खाओं, कम पीओ, गुड़िया जैसी दिखो, ससुराल-मायका कोई तुम्हें एक कोना अपना दे दे, रह-रहकर कहे ‘शटअप, ‘गेट-आउट’, फिर भी सबकी सेवा में जुटी रहो। दूधों तब नहाओं जब पूतों-फलों, यदि बेटी जनी तो जहालतों में नहाओं या चूल्लू भर पानी में डूब मरो।’’8
अनामिका की ‘टोकरी’ में हर वर्ग की स्त्री के दुःख को सहलाने का उपचार है। उन्हें किसी तरह की हड़बड़ी नहीं है। अपनी कविताओं के माध्यम से वह हर स्त्री के सुख-दुःख सम- विषम को अभिव्यक्ति देती है। ‘घर’ उनकी रचनाओं में मुख्यता से जगह पाता है। उनकी स्त्री अपने संसार के रचाव-बसाव में मगन होना जानती है पर वह स्वयं को ईधन बनाकर चूल्हे में झोंक दे ऐसी भी ‘पगली’ नहीं होना चाहती। कहने-सुनने की एक पद्धति तय करना चाहती है। ताकि उसको भी बेअंजादी से नज़र अंदाज न किया जा सके। अनामिका कहती हैं-
‘‘सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुँसी हुई बस में।
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है।
नयी-नयी सीखी हुई भाषा।’’9
स्त्री को ‘सुनने’ और ‘समझने’ की यह अपील कितनी वाज़िब बना देती हैं अनामिका इन पंक्तियों के माध्यम से।
‘‘स्त्रीत्व की सार्थकता का एक महत्वपूर्ण संबंध मातृत्व में पूर्ण होता है। बहुत सी स्त्रीवादी रचनाकारों का मानना है कि मातृत्व और ममता का महिमा मंडन करती स्त्री से यह अपेक्षा करते हैं कि वह अपना अस्तित्व खोकर अपने परिवार के लिए सर्वस्व समर्पित कर दे। स्त्री के स्त्रीकरण की प्रक्रिया में यह एक विशेष पड़ाव है और इस अर्थ में वह महीन शोषण या दबाव की पृष्ठभूमि निर्मित करता है। अनामिका इस सोच की हामी नहीं है। उनके लिए मातृत्व स्त्री-जीवन का सहज अंग है-
‘‘माँ भूख लगी है
इस सनातन वाक्य में
एक स्प्रिंग है लगा?
कितनी भी हो आलसी माँ
वह उठ बैठती है
और फिर कनस्तर खड़कते हैं।’’10
वह अपनी कविता ‘दलाई लामा’ में भी ‘दाईलामा’ को एक शख्शियत, धर्म गुरु, संन्यासी, ज्ञानी के रूप में नहीं एक गुलघुल बच्चे के रूप में देखती है और सहसा मातृत्व के पद को अपनी कविता के माध्यम से और ऊपर उठा देती है-
‘‘इस गुलघुल बच्चे की तरह
गुटुर- गुटुर दूध पिया होगा उन्होंने
खुद दूध मलाई उठाकर,
खुद पोंछ ली होगी नाक कभी स्वेटर से
माँ को कहीं काम में मग्न पाकर।’’11
कितनी मीठी-सी, प्यारी-सी बात है इस कविता में। अनामिका के यहाँ ‘क़ायदे’ से ‘सामान्य’ होना ही ‘विशेष’ हो जाना है। उनकी कविता में ज्ञान, तर्क, बुद्धि, विवेक को करूणा, ममता, मनुष्यता से भिन्न कर के नहीं देखा जा सकता। ‘‘परिवार और इतिहास की लंबी उड़ान के बीच समाज के वंचित तबकों की स्त्रियाँ और बच्चियाँ भी हैं। जिनके शोषण के और भी कई रूप हैं। ‘चौदह बरस की कुछ सेक्स वर्कर्स’ कविता में छोटी बच्ची के मासूम वाक्य, हृदय में करूण चीत्कार बनके गूंजते हैं-
‘‘अंकल तुम भारी बहुत हो।
अच्छा एक चॉकलेट खिला दो।
अंकल तुम्हारी भी बेटी है?
अच्छा बोलो उसका क्या नाम?
वह भी मेरे जैसी मजे़दार है क्या-बोलो तो।’’
ये सेक्स वर्कर्स, यौन दासियाँ चेहरे पर हँसी का घूँघट ओढ़े अपनी देह से बाज़ार, मीडिया के आभासी पर्दे पर पुरुष को लुभाती हुई भी अपने मन से विदेह हैं। अपने मन को अपनी देह से अलग कर लेने का गुण ही स्त्रियों को जीवित रखता है।’’12
आर्नर किलिंग जैसे गंभीर अपराध पर भी अनामिका क्या खूब लिखते हैं। ‘घर’ स्त्री के लिए सर्वाधिक सुरक्षित स्थान माना जाता है। लेकिन स्त्री असमानता, भेद एवं अपराध का क्रमिक ‘विकास (?) घर से ही आरंभ होता है। बाप की पगड़ी और पिता की नाम बचाते-बचाते स्त्री का मन टुकड़े-टुकड़े कट जाता है। अनगिनत समझौतों, पितृसत्तात्मक शिक्षाओं के अधीन आचरण करने वाली स्त्री यदि भूल से भी ‘कुराह’ हो जाए तो वहीं घर वाले निर्मोही होकर उसकी जान ले लेते हैं। ऐसी परिस्थिति पर अनामिका क्या खूब रचती हैं और भाई-दूज/गोधना,
राखी सेलिब्रेट करने वाले इस देश पर और उसकी खोखली परंपराओं पर भी क्या खूब कटाक्ष करती है-
‘‘मीरा रानीतुम तो फिर भी खुशकिस्मत थी,
तुम्हें जहर का प्याला जिसने भी भेजा,
वह तुम्हारा भाई नहीं था
भाई ने जो भेजा होता
प्याला ज़हर का,
तुम भी मीराबाई डंके की चोट पर
हँसकर कैसे जाहिर करतीं कि
साथ तुम्हारे हुआ क्या!
भैया ने भेजा- ‘ये कहते हुए जीभ कटती।’’13
अनामिका की कविताएँ बहुस्तरीय यथार्थ को समाहित करती हुई कविताएँ हैं। वह अपने ‘लोक’ से बहुत समृद्ध हुई हैं। लोक, मिथक, लोक गीत, लोक कथाएँ, लोक परंपराएँ सब उनके काव्य वृक्ष पर बैठे पक्षी हैं। उनकी आवाजाही और आवाजों को बिल्कुल नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। उनकी कविता में सामा-चकवा और बजरी-गोधन के गीत मिल जाएँगे-
‘‘राजा भैया चल ले अहेरिया
रानी बहिनी देली असीस हो न
भैया के सिर सोहे पगड़ी,
भौजी के सिर सेंदुर हो न.....।’’14
‘‘दूसरे लोक गीत में उपेक्षिता अपने पति को जो चिट्ठी लिखती है वह पूरी-की-पूरी रख देने लायक है-
‘‘पिरिए पराननाथ,
सादर परनाम
इहाँ त सब कुछ कुसले-कुसल छई।
अहें के हाल ला आत्मा बिकल छई
यादो न हेत पिया हमरी सुरतियाँ
बिसरल न हेत मुदा ससुरक नाम।’’15
लोक अनामिका की रचनाओं में अनिवार्य तत्व की तरह उपस्थित रहता है। ‘‘अनामिका पोस्ट फेमेनिज़्म के बहाने नारी को विस्तार देती है। जर्मन ग्रीयर और एंड्रीज रिच अपनी भगौलिक सीमाओंसे बाहर निकलकर अब तीसरी दुनिया की जमीनी संघर्ष करती स्त्री की ओर मुड़ती हैं। ‘अफ्रीकी वुमनिज़्म’ से लेकर, अपने अधिकार और संघर्ष के प्रति सजग भारतीय आदिवासी स्त्री तक इसमें शामिल है। पूरी दुनिया की स्त्रियाँ, मार्क्स के मजदूरों वाले आह्वाहन की तरह अब बहनापे और आपसी समझदारी के सूत्र से जुड़ने लगी हैं।’’16
स्त्री जीवन के हर पहलू को अपने अंकवार में समेटती अनामिका ‘मासिक धर्म’ पर भी लिखना नहीं भूलती। पुरुष की स्वतंत्रता, स्वछंद कार्य-शैली में उसकी शारीरिक बनावट की भी बहुत भूमिका है। उसके पास न गर्भ है और ना ही प्रतिमाह किश्त दर किश्त बहने वाला मासिक धर्म, जो सहसा ही ठिठका देता है स्त्री की गति।
वह लिखती हैं-
‘‘ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
बारह बरस की उमर से
उनको मंदिर के बाहर रखता बेथलहेम और येरूशलम के बीच के
कठिन सफर में उनके हो जाते कई तो बलात्कार।’’17
मासिक धर्म से ही संबंधित ‘‘अपनी कविताओं में कवयित्री ने स्त्री यौनिकता के कुछ बेहद निजी प्रसंगों का वर्णन किया है। गर्भ और प्रसव के अनुभव में होने वाले दैहिक परिवर्तनों, प्रजनन की क्षमता में स्त्रीत्व की विशिष्ट अनुभूति का सकरात्मक उत्सव धर्मी बिंब इन कविताओं में मिलता है। ऐसा ही एक बिंब कन्या के ऋतुमती होने में छिपा है। रजोधर्म प्रकृति प्रदत्त होते हुए भी पारंपरिक दृष्टि से स्त्री की अपवित्रता में शामिल रहा है, अनामिका उस अनुभव में स्त्री की अवमानना को बद्धमूलता से उन्मुक्त कर, जिस रूप में प्रस्तुत करती हैं, वह साहित्येतिहास में अद्वितीय है-
‘‘अनहद-सी बज रही लड़की
काँपती हुई
लगातार संकृत हैं उसकी जाँघों में इकतारे
चक्रो-सी नाच रही है
वह एक महीयसी मुद्रा में
गोद में छुपाए हुए
सृष्टि के प्रथम सूर्य-सा
लाल-लाल तकिया।’’18
अनामिका को मैं एक ऐसी कवयित्री के रूप में ही अधिक सरलता से समझ पाती हूँ जो अपनी हर बात पर किसी गाढ़े सिद्धांत का ‘कोट’ नहीं चढ़ने देना चाहती। कविता हो या कथन वह उसे लोकानुभव, निजी अनुभव और सरल ग्राह्यता वाली भाषा में ही कहना पसंद करती है। न वह क्लिष्ट है न रचना को क्लिष्ट होने देना चाहती है। ‘आँचल में दूध, आँखों में पानी और बतरस का शहद’ यह तीन ‘इंग्रिडिएंट’ मिलाकर वह स्त्री के मन की थाह पाना चाहती है। ‘गपशप’, ‘बात-चीत’, कहना और सुनना सभी प्रक्रियाएँ सहज करके ही वह मनुष्य के, स्त्री के सुख-दुःख की साझेदार हो सकती है। अनामिका को इस सहज साझेदारी पर ही बहुत विश्वास है। उनकी भाषा में असंख्य भूले-बिसरे शब्दों के टुकड़े हैं। कहावते-मुहावरें हैं। भाषा की यह सजीवता यह जीवंतता ही उनके काव्य को अनूठा बनाती है। भाषा के संबंध में अनामिका कहती हैं- ‘‘भाषा और दृष्टि का संबंध नाभि-नाल वाला है। बिंब और शब्द चयन, प्रवाह, टोन और डिक्शन सबकी अलग ही ठमक और ठाठ। कहाँ-कहाँ से शब्द और संदर्भ ले आती हैं स्त्री भाषा; देवदार की पेटी से जैसे कि पुराने बरतन, पुराने मुक़द्दमें के कागज, अजब-गजब लोकोक्तियाँ, लोरियाँ और लोकगीत। भाषा के साथ ‘मातृ’ का प्रयोग उसे एक अलग तरह की ताक़त देता है- ‘‘माँ के दूध की ताक़त, बतरस की लहक! आँचल का दूध, आँखों का पानी और बतरस का शहद तीनों मिलजुलकर भाषा को- दशमूलारिष्ठ और ग्राइपवाटर पिला देते हैं। नवजातक की तरह अपनी जंघा पर उलट-पलट कर भाषा की तेल मालिश स्त्रियाँ करती हैं। अनौपचारिक-सी उमंग और संवाद धर्मिता डेमोक्रेट के गुण हैं।’’19
संवाद धर्मिता क़ायम करना और हमेशा क़ायम रखने की चाह अनामिका के शब्दों में प्राण फूँक देती हैं। उनके यहाँ ‘फुस-फुसाहट के कम ही अवसर हैं। अनामिका अपनी कविता ‘करधनियाँ’ में कहती हैं कि ‘इतना भी क्या धीरे बोलना कि बोलो तुम सुने करधनियाँ। आभूषणों की आवाज़ों को भी वह स्त्री ‘बहनापे’ और ‘सिस्टरहुड’ की सामूहिकता से जोड़कर देखती हैं। जीवन का रिदम सुर, लय, ताल सब तभी संभव है जब सभी साजिंदे एक-दूसरे के मनोभाव और कलात्मक अभिव्यक्तियों को समझे। अनामिका की कविताएँ इन्हीं ‘मन की अभिव्यक्तियों’ को चिन्हने, पहचानने की माँग करती हैं। अनामिका इस सामूहिकता की बात को बहुत अच्छे से समझाती हैं। वह कहती हैं कि स्त्री कविता का सबसे बड़ा योगदान यही है कि “उसने एक चटाई बिछाई है और पर्सनल पॉलिटिकल, कास्मिक-कोमनप्लेस में माइक्रो-मैक्रो, इहलोक, परलोक, पश्चिम प्रभावों के अतिरेक का अभियोग लगाने वाले को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि ‘कोलोनियल’ और ‘कैनोनिकल’ दोनों पर पहला प्रहार इसने ही किया। इसी ने पहली बार घरेलू चिट्ठी-पत्री और अंतरंग देशी दस्तावेज़ों को ज्ञान-प्रत्याख्यान के प्रामाणिक स्रोत के रूप में मान्यता दिलाई और अपने सर्जनात्मक लेखन में इसका भरपूर उपयोग किया है।’’20
अनामिका ने अपने रचना संसार को इतने मनोयोग से सजाया है कि उस संसार की एक-एक चीज़ निश्छल, यथार्थ, कलात्मकता की गवाही देती है। उनकी कविताओं में किसी के लिए ‘घृणा’ नहीं है पितृसत्ता के लिए भी नहीं। अनामिका खरी-खरी तो सुनाती है लेकिन ‘खरी-खोटी’ कभी नहीं सुनाती। अनामिका की यह बात जो जोड़े रखने का समर्थन करती है और बला की सकरात्मकता लिए हुए है; यह उनको अन्य रचनाकारों से भिन्न पँक्ति में खड़ा रखती है। यह भिन्न पँक्ति अलगाव की नहीं है बल्कि विशेषताओं के कारण, विरल अर्थ गर्भत्व के कारण भिन्न है। कितना कुछ लिखा-पढ़ा, कहा जा सकता है अनामिका के रचना संसार के विषय में। किंतु खूब पढ़ा जाना ही किसी रचनाकार को वांछित नहीं होता। मुख्य तो है उसे पढ़ने के साथ समझा जाना। अनामिका की कविताएँ गहरी मंगल कामना लिए हुए हैं। स्त्री-पुरुष समानता, सामंजस्य सहजीवन साहचर्य की, अखंड प्रेम और दांपत्य की, सखत्व की ममत्व की, मंगलकामना।
अनामिका की कविताओं में अतीत वर्तमान की आवाजाही लगी रहती है। यह अनामिका की ही कविताओं का लोक है कि ‘सीता’ और ‘रावण’ भी एक-दूसरे से संवाद करने को प्रस्तुत है। उनके यहाँ तमाम विचारक, समाज-सुधारक स्वयं ‘स्त्री’ से मिलने आते हैं। उदाहरण के लिए-
‘‘तुम्हारा सुधार नहीं
व्यर्थ मैंने उर्जा ज़ाया की
खासे संताप से उसने कहा
और चला गया
राम मोहन राय, ईश्वरचंद, कार्वे,
राणा डे, ज्योतिबा फुले
पंडित रमाबाई, सावित्री बाई
मुझसे सब मिलने आये।
उन्होंने मेरा माथा सहलाया
और बोले धीरे से-
इतिहास के सुधार आंदोलन
स्त्री दशा को निवेदित थे,
और सुधरना किसे था, यह कौन कहे।’’21
यह अंतिम ‘पंच लाईन’ कि ‘और सुधारना किसे था, यह कौन कहे’ अनामिका के ही बस की बात है। उनकी बेशुमार कविताओं में आपको उनकी हाज़िर ज़वाबी का कौशल देखने को मिल सकता है। अनामिका के पास चुभती भाषा के नश्तर नहीं हैं। उनके पास एक समझ है जो समझा सकती है सही-गलत, उचित-अनुचित का नीर-क्षीर विवेक दे सकती है। वहमानती हैं कि हर व्यक्ति में चाहे वह कितना भी बुरा हो कुछ तो ऐसा होता ही है जिससे प्रेम किया जा सके। जरूरत है तो बस ‘मन माँजने की’। उन्हें विश्वास है कि स्त्री की दृढ़ इच्छा शक्ति, सहानुभूति, करूणा से बंजर ऊसर भूमि पर भी अंकुरण संभव है। परिवर्तन संभव है। स्त्री अपने तर्क और संयम से परिवर्तन अवश्यंभावी रूप से ला सकती है।
अनामिका हमारे समय की ऐसी ही वेगवान, प्रबुद्ध, स्नेहिल कवयित्री हैं जिन्होंने ‘स्त्री-कविता’ को एक अलग उर्वरता प्रदान की है। लोक से जुड़कर अपनी कविताओं को सबसे जोड़ पाने में वह अत्यंत सफल रही हैं। अभी बहुत कुछ उनकी ‘टोकरी’ से बाहर आना बाकी है। हमें पूरा विश्वास है कि उनके लेखन से आने वाली हिंदी ‘स्त्री-कविता’ दिगंत की माप और गहराईको जान सकेंगी और स्त्री-चेतना का अलख वह यूँ ही जगाती रहेंगी।
1. अनब्याही औरतें, अनामिका, कविता कोश से साभार
2. स्त्री कविता-पहचान और द्वंद्व (भाग-दो) लेखिका- रेखा सेठी, राजकमल प्रकाशन-67
10. स्त्री कविता : पक्ष और परिप्रेक्ष्य (भाग-एक), लेखिका रेखा सेठी, राजकमल प्रकाशन, पृ.113
12. स्त्री- कविता : पक्ष और परिप्रेक्ष्य (भाग-एक), लेखिका रेखा सेठी, राज कमल प्रकाशन, पृ. 104
14. प्रेम के लिए फाँसी’ ऑन आनर किलिंग’ (कविता)- अनामिका, कविता कोश, साभार
15. स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष : अनामिका, वाणी प्रकाशन, पृ.221
एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद, तेलंगाना
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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