शोध सार : लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी एक ख्यातिलब्ध शख्सियत हैं। वह हिजड़ा कम्युनिटी से संबंध रखते हैं। ‘मैं हिजड़ा...मैं लक्ष्मी!’ उनकी आत्मकथात्मक कृति है, जिसमें वह अपने साथ-साथ हिजड़ा कम्युनिटी के जीवन व संघर्ष को रेखांकित करते हैं। इस कृति में वह लैंगिक भेदभाव से परे होकर मनुष्यता की स्थापना पर बल देते हैं। इस राह पर वह अकेले भले ही चलते हैं, लेकिन उनका परिवार और उन जैसे अनेक व्यक्ति इस सफ़र में उनके साथ होते हैं। वह अनेक ऐसी संस्थाओं के माध्यम से ट्रांसजेंडर्स के लिए आगे बढ़कर कार्य करते हैं, जो स्त्री-पुरुष के खांचों से बाहर के समाज को एक नई पहचान दिलाने में अग्रसर हैं। जिन ट्रांसजेंडर्स की छवि हमें केवल भीख मांगते हुए दिखाई देती है, लक्ष्मी की यह कृति उससे भिन्न छवि को प्रस्तुत करती है। कृति में उल्लिखित घटनाओं के अवलोकन से हम यह पाते हैं कि तृतीयलिंगी समाज से जुड़े व्यक्तियों को अपने हक के लिए अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है। अनेक जगह हमें विपरीत परिस्थितियों में अपनी अस्मिता और पहचान के लिए जूझते ट्रांसजेंडर्स आत्मविश्वास से भरे हुए दिखाई देते हैं, तो अनेक ऐसे भी होते हैं जो हताशा-निराशा के संसार में अपने ही अकेलेपन से जूझते हुए जीवन संग्राम में हार जाते हैं।
बीज शब्द : हिजड़ा, ट्रांसजेंडर्स, लैंगिकता, अस्मिता, आत्मसंघर्ष, सेक्स-वर्कर, मनुष्यता, कम्युनिटी।
मूल
आलेख : “भारत के
सभी
नागरिक समान हैं, ऐसा
अपने
देश
का
संविधान
कहता
है।”[1] वाक्य ‘मैं
हिजड़ा...
मैं
लक्ष्मी!’ आत्मकथा में
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी
उर्फ़
राजू
द्वारा
अभिव्यक्त
है।
यह बात वह
सिर्फ़
अपने
लिए
नहीं
कहते, उन
सभी
के
लिए
कहते
हैं
जिन्हें
कभी
बराबरी
के
भाव
से
नहीं
देखा
गया।
लक्ष्मीनारायण हिजड़ा[2] हैं।
हिजड़ों
के
प्रति
परिवार
और
समाज
के
नजरिये
के
संदर्भ
में
लक्ष्मी
का
कथन
द्रष्टव्य
है- “बहुत से
हिजड़ों
को
आज
समाज
में
ही
नहीं, उनके
परिवार
में
भी
नहीं
अपनाया
जाता।
किसी भी रास्ते
से
सही, वे
पैसे
कमाने
लगें
और
उसे
घर
में
देने
लगें, तो
ही
उन्हें
घर
में
आने
देते
हैं।
उन लड़कों को
ऐसे
घर
से
निकालने
की, उनका
इस
तरह
तिरस्कार
करने
की
वजह
क्या
है
...? उनकी अलग
लैंगिकता, उनकी
अलग
सेक्सुअलिटी।”[3]
लैंगिकता
का
भेद
परिवार
और
समाज
को
सबसे
बड़ा
भेद
लगता
है।
परिवार
में
जबकि
बाकी
भेद
किसी
के
महत्त्व
को
कम-ज्यादा
नहीं
करते।
रंग,
पसंद
और
किसी
कला
या
वस्तु
के
प्रति
झुकाव
की
तरह
लैंगिकता
भी
प्राकृतिक
होती
है।
समाज से लैंगिकता
के
आधार
पर
अपने
को
अलग
समझने
वाला
व्यक्ति
उस
परिवार
और
समाज
का
ही
विरोध
करने
लगता
है।
न
परिवार
और
समाज
उसे
अपना
मानता
है, न
वह
परिवार
और
समाज
को
अपना।
समाज
और
परिवार
का
तिरस्कार
करने
की
वजह
भी
लक्ष्मी
अपनी
इस
आत्मकथा
में
अभिव्यक्त
करते
हैं-“एक
व्यक्ति
के
रूप
में
समाज
में
बिलकुल
कीमत
न
होने
की
वजह
से
ही
हिजड़े
निराश
होते
हैं।
इस
निराशा
से
ही
वो
समाज
का
तिरस्कार
करने
लगते
हैं।
समाज
से
कटकर
रहने
लगते
हैं।
फिर
समाज
भी
उन्हें
दूर-दूर
धकेलता
है।
और
ये
दुष्चक्र
जारी
रहता
है...”[4]
लिंग
जहाँ
शारीरिक
पहचान
को
प्रकट
करता
है, वहीं
लिंगभाव
आंतरिक
पहचान
को
अभिव्यक्त
करता
है।
स्त्री और पुरुष
से
इतर
व्यक्तियों
को
अपनी
उपयुक्त
पहचान
के
लिए
न
केवल
संघर्ष
करना
पड़ता
है, बल्कि
अपमान, तिरस्कार, घुटन, उत्पीड़न, यौन-शोषण
की
अनेक
परतों
के
बीच
खुद
को
ज़िंदा
रखना
पड़ता
है।
ऐसे
सभी
व्यक्ति
हमारे
लिए
अवांछित
की
तरह
हैं।
हिजड़े
अपने
हाव-भाव
और
पहनावे
से
औरों
की
अपेक्षा
जल्दी
पहचाने
जाते
हैं।
एलजीबीटीआईक्यू[5] में
लेस्बियन,
गे, बाईसेक्सुअल
आदि
को
बाह्य
पहचान
से
चिह्नित
नहीं
किया
जा
सकता।
लेकिन
ट्रांसजेंडर्स
को हमारा समाज न
केवल
शीघ्र
पहचान
लेता
है, अपितु
उन्हें
दोयम
भाव
से
भी
देखता
है।
‘मैं
हिजड़ा...
मैं
लक्ष्मी!’
में
लक्ष्मीनारायण
पेड़
की
भांति
अपने
को
देखते
हैं।
पेड़
जैसे
सबके
साथ
होते
हुए
भी
सबके
साथ
नहीं
होता।
एक
अकेला
अपने
ही
सुख-दुख
के
भीतर
अंत
तक
ज़िंदा
रहता
है।
पूरी आत्मकथा में
लक्ष्मी
के
इस
अकेलेपन
को
महसूस
किया
जा
सकता
है।
आरंभ
की
पंक्तियाँ
इसकी
द्योतक
हैं-“ठाणे
में
मेरा
घर
है, येऊर
की
तलहटी
के
पास।
घर
की
खिड़की
से
येऊर
पर्वत
को
बिलकुल
बाँहों
में
भर
सकते
हैं, इतना
नजदीक
दिखाई
देता
है।
मेरे
घर
की
खिड़की
और
पर्वत, इनके
बीच
में
एक
छोटा-सा
टीला
है।
हरी
घास
ओढ़े
हुए।
गाय-बखेरू
हमेशा
चरते
हैं
उस
पर, हमेशा
चहल-पहल
रहती
है।
इस
टीले
पर...
और
इसीलिए
वो
ज़िंदा
लगता
है...
इस
ज़िंदा
टीले
पर
एक
पेड़
है।
कौन-सा
है, क्या
पता।
मैंने
कभी
जान-बूझकर
जाकर
देखा
नहीं।
अच्छा
है।
बारहों
महीने
हरा-भरा
रहता
है।
सदाबहार।
हवा
के
साथ
लहलहाता
है...।
आसपास
हरी
घास
है।
छोटे-छोटे
पेड़
भी
हैं।
जानवर
चरते
हैं।
पर
दूसरा
कोई
पेड़
नहीं
है
उसके
साथ।
इस
ऊंचे
पेड़
का
अकेलापन
इसीलिए
आँखों
में
खलता
है, बहुत
बार
कलेजे
में
टीस
उठती
है।
इस
पेड़
की
तरफ
देखते
रहने
पर
मुझे
लगता
है, मेरी
ज़िंदगी
भी
तो
ऐसी
ही
है...सभी
के
साथ
हूँ, पर
फिर
भी
अकेली...”[6]
अकेलापन
लक्ष्मी
को
बहुत
सालता
है।
उन्हें हमेशा यह
लगता
है
कि
जिस
समाज
में
वह
रहते
हैं, उनके
लिए
उसमें
कोई
जगह
नहीं
है
और
न
ही
उनका
साथ
देने
वाला
कोई
और
है
जो
उन्हें
जान-समझ
सके।
‘गे’ लोगों के
लिए
काम
करने
वाले
अशोक
राव
कवि
से
लक्ष्मी
द्वारा
पूछना-“...मैं
एबनॉर्मल
तो
नहीं
हूँ
ना?” के
जवाब
में
अशोक
राव
कवि
का
कहना- “तुम एबनॉर्मल
नहीं
हो
बच्चे, नॉर्मल
ही
हो।
एबनॉर्मल
है
ये
हमारे
आस-पास
की
दुनिया...ये
हमें
समझ
नहीं
सकती...”[7] समाज
के
कटु
सत्य
को
बयाँ
करता
है।
देह
का
द्वंद्व
लक्ष्मी
को
सोचने
पर
बहुत
विवश
करता
है-“...इस
शरीर
में
ऐसा
क्या
है
जो
पुरुषों
को
मेरी
ओर
खींचता
है? बाकी
पुरुषों
की
तरफ
तो
औरतें
आकर्षित
होती
हैं, पर
मेरी
ओर
पुरुष
होते
हैं...ऐसा
क्यों?”[8] या
“...मैं एबनॉर्मल
नहीं
हूँ, यह
अगर
सच
है
तो
फिर
ये
है
क्या? लड़का
बनकर
मैंने
जन्म
लिया
था
और
लड़कों
से
ही
प्यार
कर
रहा
था।
पर
अब
धीरे-धीरे
मुझे
लगने
लगा
था
कि
मैं
लड़का
नहीं, लड़की
हूँ।
आख़िरकार मैं कौन
हूँ? आख़िर
ये
ज़िंदगी
मुझे
कहाँ
ले
जाएगी? मैं
कुछ
कर
पाऊँगा
या
नहीं...?”[9]
जीने
के
लिए
लक्ष्मी
एक
ऐसा
रास्ता
चुनते
हैं
जिस
पर
और
लोगों
को
भी
उस
पर
चला
सकें।
नृत्य
की
राह
लक्ष्मी
ही
स्वेच्छा
से
चुनते
हैं।
नृत्य
को
वह
अपने
लिए
ऑक्सीजन
की
तरह
मानते
हैं।
उनके द्वारा ‘मेरी
देहभाषा
में
भी
डांस
ही
झलकता
था’
स्वीकार
करना
बताता
है
कि
नृत्य
के
प्रति
उनका
जुनून
कितना
है।
नृत्य
के
लिए
‘बार’ में कार्य
करते
समय
अपने
शरीर
का
वह
सौदा
नहीं
करते।
चाहते
तो
एक नर्तक के
रूप
में
वह
अपना
जीवन
गुजार
सकते
थे।
‘गे’ होना छुपा
सकते
थे, लेकिन
उन्होंने
ऐसा
नहीं
किया।
हिजड़ा
होने
में
उनका
परिवार
भले
ही
इसे
अपने
लिए
शर्म
का
विषय
मानता
रहा, लक्ष्मी
लेकिन
इसे
गर्व
से
ही
देखते
हैं-“मैं
जब
हिजड़ा
हुई, तब
शबीना
और
लता
गुरु
दोनों
ने
मुझे
इस
समाज
के
बारे
में
बहुत-सी
बातें
बतायी
थीं...महाभारत
में
बृहन्नला
का
रूप
लेने
वाले
अर्जुन
से
लेकर
अभी
कुछ
समय
पहले
मध्यप्रदेश
की
विधायक
शबनम
मौसी
के
बारे
में
और
पहले
राजे-रजवाड़ों
के
दरबार
में
रहने
वाले
वीर
हिजड़ों
से
लेकर
जनानखाने
में
रक्षा
करने
वाले
‘खोजाँ’ तक... बहुत
कुछ
समझ
में
आने
लगा
मुझे; और
उसमें
मैं
इस
समाज
का
हिस्सा
हूँ, इसका
गर्व
भी
था
मुझे।”[10]
लक्ष्मी
की
सबसे
बड़ी
विशेषता
यह
है
कि
वह
केवल
अपने
लिए
नहीं
सोचते।
वह
अपने
परिवार
और
अपने
जैसे
लोगों
के
उत्थान
के
लिए
एक
साथ
कार्य
करते
हैं।
इसके
लिए
वह
‘दाई वेलफेयर
सोसायटी’
जैसी
संस्था
के
अध्यक्ष
के
रूप
में
अपने
सफ़र
की
शुरूआत
करते
हैं
और
अपनी
सामाजिक
जिम्मेदारियों
का
प्रतिबद्धता
से
निर्वहन
करते
हैं।
जिन
लोगों
के
लिए
कोई
सोचता
तक
नहीं
है, लक्ष्मी
उनके
अधिकारों
की
आवाज़
उठाने
का
कार्य
करते
हैं।
जीवन
के
विविध
अनुभव
लक्ष्मी
को
बहुत
कुछ
सिखाते
हैं।
ऐसे
लोगों
से
मिलकर
लक्ष्मी
और
अधिक
संवेदनशील
होते
दिखाई
देते
हैं।
कामाठीपुरा की सेक्स
वर्कर
महिलाओं
की
स्थिति
देखकर
उनकी
मनोदशा
समझी
जा
सकती
है।
ज़रूरत
से
भी
अधिक
छोटे
और
बंद
व
अँधेरे
कमरों
में
सेक्स-वर्कर
लड़कियाँ
कैसे
अपना
गुजारा
करती
होंगी, जबकि-“सेक्स
जैसी
खुशी
के
लिए
की
जाने
वाली चीज...एन्जॉय
करने
वाली
चीज...धीरे-धीरे
करने
वाली
चीज...
और
ये
ऐसे
माहौल
में? ठीक
से
हिल
भी
नहीं
सकते
इतनी-सी
जगह
में? ठीक
है, ये
उनके
लिए
रोज
की
बात
थी, वो
ये
सब
पेट
के
लिए
करती
हैं...
एहसासों
की
उनके
सेक्स
में
कोई
जगह
नहीं
रही...
फिर
भी...
सरकारी
नौकरी
भी
बाबू
लोग
पेट
के
लिए
ही
करते
हैं
ना? तो
उनके
ऑफिस
ऐसे
सड़ियल, दम
घोंटने
वाले
होंगे
तो
चलेगा
क्या? पेट
के
लिए
इन
सेक्स
वर्कर्स
को
अपना
शरीर
बेचना
पड़ता
है, ये
गलती
उनकी
है
या
समाज
की...
या
उनके
पास
आने
वाले
ग्राहकों
की?”[11]
सेक्स-वर्करों
की
स्थितियां
देख लक्ष्मी विचलित
होते
हैं।
पूरी
दुनिया
पर
उसे
क्रोध
आता
है।
वह उस व्यवस्था
को
बदलना
चाहते
हैं, जो
इस
प्रकार
की
परिस्थितियों
के
लिए
जिम्मेदार
है।
इसीलिए
वह
खुद
को
एक
कार्यकर्ता
की
तरह
प्रस्तुत
करते
हैं।
मुंबई कामाठीपुरा के
सेक्सवर्कर्स
की
स्थिति
देखकर
ही
वह
संगोष्ठियों, कॉन्फ्रेंस
और
कार्यशालाओं
के
जरिए
उनके
अधिकारों
की
बात
करते
हैं।
उनका
मानना
था
कि
सेक्स-वर्कर्स
को
अपनी
खराब
स्थिति
स्वयं
ही
सुधारनी
होगी।
इस
हेतु
लक्ष्मी
एक
माहौल
का
निर्माण
करते
हैं-“मुझे
जैसे-जैसे
मौका
मिलता
गया, वैसे-वैसे
मैं
सेक्स-वर्कर्स
को
तो
इसका
एहसास
कराने
ही
लगी, पर
अलग-अलग
कॉन्फ्रेंसेस, वर्कशॉप्स, सेमिनार्स
में
भी
उनकी
परिस्थिति
को
लोगों
के
सामने
रखने
लगी।
उनके
मानवीय
अधिकारों
के
बारे
में
बात
करती
रही।
टोरांटो
में
मैं
एड्स
कॉन्फ्रेंस
में
गयी
थी, वहाँ
भी
सेक्स
वर्कर्स
के
एक
जुलूस
में
मैं
सम्मिलित
हुई
थी।
मैंने कामाठीपुरा के
सेक्स-वर्कर्स
को
देखा
था, बार
में
भी
अपनी
मर्जी
से
सेक्स
वर्क
करने
वाली
लड़कियां
देखी
थी, और
जिनके
पास
और
कोई
चारा
नहीं
था, ऐसी
सेक्स-वर्कर्स
लड़कियों
और
औरतों
को
भी
देखा
था।
वो
जो
कर
रही
हैं, वो
सही
है
या
गलत, अच्छा
है
या
बुरा...
ये
सवाल
ही
नहीं
था...
शरीर
बेच
रही
हैं, फिर
भी
वे
इन्सान
हैं
और
उन्हें
मूलभूत
मानवीय
अधिकार
मिलने
चाहिए, वो
स्वतंत्र
देश
की
नागरिक
हैं, उन्हें
स्वतंत्रता
मिलनी
चाहिए।
वो
समाज
का
एक
हिस्सा
हैं, उन्हें
आम
जनता
की
तरह
सामाजिक
और
नागरी
ज़िंदगी
जीनी
आनी
चाहिए।
ऐसी
मेरी
सीधी
और
स्पष्ट
भूमिका
थी।
और
इसे
मैं
सभी
जगह
आवेश
के
साथ
रख
रही
थी।”[12]
शरीर
बेचना
किसी
भी
सेक्स-वर्कर
की
इच्छा
पर
निर्भर
करता
है।
लक्ष्मी
इसे
नैतिक-अनैतिक
की
श्रेणी
से
परे
रखते
हैं।
उनका
मुख्य
जोर
इस
बात
पर
है
कि
इंसानियत
के
नाते
मूलभूत
अधिकार
इन
सेक्स-वर्कर्स
को
भी
मिलने
चाहिए।
निर्णयों का हमारे
जीवन
में
बहुत
महत्त्व
होता
है।
निर्णय
ही
हमारे
जीवन
की
दिशा
तय
करते
हैं।
लक्ष्मी
को
भी
बड़ा
उसके
निर्णय
ही
बनाते
हैं।
किसी
के
दबाव
में
आकर
वह
अपना
निर्णय
नहीं
लेते।
उसके निर्णय और
उसका
आत्मविश्वास
ही
उसे
एक
खास
मुकाम
तक
पहुँचाते
हैं-“जब
से
मुझे
समझ
आई
थी, तब
से
मुझे
पता
था
कि
मैं
ऐसे
ही
मरने
वाली
नहीं
हूँ, कुछ
बनके
ही
जाऊँगी...
शायद? मैं
भीड़
में
से
एक
होकर
नहीं
रहूँगी, भीड़
का
चेहरा
बनूँगी।
दूध
में
घुलने
वाली
शक्कर
नहीं
बनूँगी, दूध
को
रंग
देने
वाला
केसर
बनूँगी।”[13]
बात
चाहे
लता
गुरु
से
बिना
अनुमति
लेकर
टोरांटो
जाने
की
हो
या
आगे
बढ़ने
और
बदलती
हुई
दुनिया
से
तारतम्यता
स्थापित
करने
के
लिए
‘दाई’ जैसी संस्था
के
अध्यक्ष
पद
से
त्यागपत्र
देने
की
हो
या
‘मी मराठी’ के
टॉक
शो
में
अपनी
पसंद
के
कपड़े
पहनकर
जाने
की
हो।
टॉक
शो
में
पहुँचने
पर
अपने
ही
दोस्त
की
टिप्पणी
“ये क्या पहनकर
आई
हो
लक्ष्मी?” के
जवाब
में
लक्ष्मी
का
कहना
“क्या हुआ ऐसे
कपड़े
पहने
तो? मेरा
पूरा
शरीर
ढका
हुआ
है
ना?...मैं
अपने
लिए
कपड़े
पहनती
हूँ, औरों
के
लिए
नहीं।
मुझे
जो
पहनना
अच्छा
लगता
है, वही
कपड़े
मैं
पहनती
हूँ
और
इसके
बाद
भी
पहनूँगी।
अमुक
जगहों
पर
‘सोशल वर्कर’ लगना
चाहिए, इसलिए
मैं
साड़ी
पहनूँ, मैं
इस
टाइप
की
औरत
नहीं
हूँ।
मुझे
ऐसा
पाखंड
करना
बिलकुल
पसंद
नहीं...
और
मेरा
मानना
है
कि
ये
स्टीरिओ
टाइप्स बदलने चाहिए...”[14] उसके व्यक्तित्व
के
मजबूत
पक्ष
को
उद्घाटित
करता
है।
लक्ष्मी
अपने
इसी
अंदाज़
से
देश-विदेश
में
जगह-जगह
हिजड़ों
के
बारे
में
सार्थक
बातचीत
करते
हैं।
‘दाई’
के
बाद
‘अस्तित्व’ नाम
की
संस्था
से
जुड़कर
वह
हिजड़ों
के
लिए
जी-जान
से
काम
करते
हैं।
उनकी पहल के
कारण
ही
यह
संभव
हो
पाता
है
कि
अस्पताल
में
जिन
हिजड़ों
को
कोई
हाथ
तक
नहीं
लगाता
था, उनके
बारे
में
डॉक्टर
संवेदना
के
साथ
बात
करते
दिखाई
देते
हैं।
अपनी भिन्न
लैंगिकता
के
कारण
अनेक
ऐसी
घटनाएं
घटित
हुई
हैं
जब
लक्ष्मी
ने
पूरी
शक्ति
से
अपने
साथियों
के
हितों
के
लिए
प्रदर्शन
किया
है।
विरार की घटना
का
उल्लेख
करना
यहाँ
प्रासंगिक
होगा।
विरार
में
एक
हिजड़े
का
बलात्कार
होने
पर
पुलिस
उसकी
कोई
फरियाद
सुनने
को
तैयार
नहीं
होती।
नाजुक
स्थिति
होने
के
बावजूद
डॉक्टर
तक
उसके
हाथ
लगाने
को
तैयार
नहीं
होते।
बिना
डॉक्टरी
जाँच
के
किसी
भी
प्रकार
की
फरियाद
नहीं
की
जा
सकती
थी।
लक्ष्मी
को
इसका
बहुत
बुरा
लगता
है।
ऐसी
परिस्थिति
में
वह
खुद
मोर्चा
संभालती
है-“परिस्थिति
काफी
गंभीर
थी।
और
सवाल
सिर्फ
‘उस’ हिजड़े का
नहीं
था।
पूरी
कम्युनिटी
का
था।
हिजड़ों
की
तरफ
देखने
वाले, उनसे
बर्ताव
करने
वाले
समाज
के
नजरिये
का
था।
हिजड़ों
को
चिढ़ाया
जाता
था, तिरस्कृत
किया
जाता
था।
विरार
में
वही
चल
रहा
था...पूरी
परिस्थिति
मैंने
जान ली और
विरार
जाने
का
निश्चय
किया।
वहाँ पुलिस स्टेशन
पहुँची
तो
सभी
पुलिस
वाले
हँस
रहे
थे।
“हिजड़ों पर... और
बलात्कार...?” मेरा दिमाग
फिर
गया।
मैंने
सीधे
आवाज़
ऊँची
की।
रिपोर्ट
न
लेने
वाली
पुलिस, हाथ
न
लगाने
वाले
डॉक्टर्स
इन्हें खूब गालियाँ
दीं।
सीधे-सीधे
उनकी
माँ-बहनों
पर...
बहुत
तमाशा
किया।
पुलिस
को
बलात्कार
का
केस
दर्ज
करना
पड़ा।
उस
हिजड़े
को
बोरीवली
के
भगवती
अस्पताल
लेकर
गयी।
वो
बेचारा
गरीब
था।
मैंने
भगवती
के
डॉक्टरों
से
बात
की।
उन्होंने
अच्छे
से
मेरी
बात
सुनी
और
कहा, “चिंता
मत
कीजिए, सब
ठीक
हो
जाएगा।”
और
जैसा
उन्होंने
कहा
था, वैसा
ही
डॉक्टरों
ने
उस
हिजड़े
का
बेहतर
इलाज
किया।”[15]
ऐसा
कई
बार
होता
था
जब
पीड़ित
हिजड़ों
के
लिए
इसलिए
कोई
आगे
नहीं
आता
था
कि
लैंगिकता
की
भिन्नता
उन्हें
मनुष्यता
से
दूर
रखे
हुए
थी।
अपने
अनुभवों
से
ही
लक्ष्मी
कहती
हैं- “बहुत बार
एच.आई.वी.
पॉजिटिव
हिजड़े
को
इलाज
के
लिए
जाने
पर
डॉक्टर्स
हाथ
नहीं
लगाते
थे।
धंधा
करने
वाले
हिजड़ों
को
पुलिस
पकड़कर
ले
जाती
थी
और
उन
पर
कुछ
भी
इल्जाम
लगाती
थी।
इस
सबके
खिलाफ
मेरा
मन
विद्रोह
करता
था।
हर
बार
गालियाँ
देकर, ऊँची
आवाज़
में
बात
करके काम नहीं
बनता
था।
कब, कहाँ, कैसा
बर्ताव
करना
चाहिए, किसके
साथ
कैसी
बात
करनी
चाहिए, इसका
ख्याल
तो
रखना
ही
पड़ता
था।
तभी
काम
होते
थे, वरना
औंधे
घड़े
पर
पानी।”[16]
हिजड़ों
के
सम्मान
के
लिए
लक्ष्मी
जी-तोड़
मेहनत
करते हैं। हिजड़ों
की
अभिव्यक्ति
के
लिए
वह
विदेश
तक
जाते
हैं।
वह हिजड़ों में
ऐसा
आत्मविश्वास
भर
देना
चाहते
हैं
कि
उनकी
गर्दन
सम्मान
के
भाव
से
हमेशा
ऊँची
उठी
रहे।
सिमरन, याना, मानसी, पद्मिनी
के
साथ
यूरोप
की
सरजमीं
पर
पैर
रखना
बहुत
महत्त्वपूर्ण
इसलिए
हो
जाता
है
कि
हमेशा
दुत्कारे
जाने
वाले
हिजड़े
अपनी
कला
के
प्रदर्शन
के
लिए
पहली
बार
विदेश
जाते
हैं।
लक्ष्मी
पूरी
जिम्मेदारी
के
साथ
अपने
दायित्वों
का
निर्वहन
करते
हैं।
यूनाइटेड
नेशंस
बिल्डिंग
में
जाने
पर
वह
अपने
देश
का
झंडा
देख
बहुत
गर्वित
होते
हैं- “संयुक्त राष्ट्र
संघ
के
जो-जो
सदस्य
थे, उन
सब
देशों
के
झंडे
वहाँ
लगाए
गए
थे।
भारत
का
तिरंगा
भी
वहाँ
लहरा
रहा
था...
मैं
आगे
बढ़ी
और
उसे
हाथ
लगाया...
मेरी
आँखें
भर
आयीं।
जनरल
असेम्बली
में
भारत
के
बैठने
का
स्थान
खोज
निकाला...
मुझे
बहुत
अच्छा
लग
रहा
था।
कहाँ
से
कहाँ
आ
गयी
थी
मैं।
हिजड़ा
होकर
रह
रही
थी
वहाँ
खारीगाँव
की
गोशाला
में...
और
आज
यह
न्यूयार्क
की
यूनाइटेड
नेशंस
जनरल
असेम्बली!!
मुझे
उस
वक़्त
खुद
पर
गर्व
महसूस
हो
रहा
था, पर
उसके
साथ
ही
बड़ी
जिम्मेदारी
का
एहसास
भी
हुआ।
मैं यहाँ अपने
देश
का
प्रतिनिधित्व
कर
रही
थी...
अपने
देश
की
संस्कृति, वहाँ
के
एटिकेट्स, वहाँ
के
सौ
करोड़
लोगों
का
प्रतिनिधित्व
कर
रही
थी...
मैं
अब
सिर्फ
लक्ष्मी
नहीं
थी, ‘भारत’
के
रूप
में
लोग
मुझे
देख
रहे
थे।”[17]
लैंगिकता
के
आधार
पर
मनुष्य
की
पहचान
का
विमर्श
केवल
एक
ही
देश
विशेष
में
न
होकर
पूरी
दुनिया
में
देखने
को
मिलता
है।
बाइसेक्सुअल्स
और
ट्रांसजेंडर्स
यानी
‘एलजीबीटीक्यू’ समूह
के
अधिकारों
के
आंदोलन की शुरूआत
ही
न्यूयार्क
शहर
के
पास
स्थित
‘ग्रीनवीच विलेज’
से
होती
है।
कहीं
इन्हें
सहजता
से
अपना
लिया
जाता
है, कहीं
नहीं।
थाईलैंड के ‘कथॅाय’
लोगों
का
उदाहरण
यहाँ
दिया
जा
सकता
है।
सामाजिक
स्तर
पर
मान्यता
मिलने
के
बावजूद
पारिवारिक
स्तर
पर
उन्हें
इतनी
जल्दी
मान्यता
इसलिए
नहीं
मिलती
क्योंकि
सरकारी
दस्तावेजों
में
उनकी
गणना
‘पुरुष’ के रूप
में
ही
की
जाती
है।
इस
कारण
से
नौकरी
की
जगह
पर
इन
लोगों
को
भेदभाव
का
सामना
करना
पड़ता
है।
टोरांटो
के
ट्रांसजेंडर्स
के
बारे
में
लक्ष्मी
का
अनुभव
देखा
जा
सकता
है- “...हम टोरांटो
की
चर्च
वेस्ट
स्ट्रीट
पर
गए।वहाँ
बहुत
से
ट्रांसजेंडर्स
थे...वो
वहाँ, भारत
से
काफी
अलग
तरीके
से
रह
रहे
थे।
उसमें
औरत
बने
पुरुष
थे, पुरुष
बनी
औरतें
भी
थीं।
अपने
यहाँ
हिजड़ा
बनना
एक
आध्यात्मिक
प्रक्रिया
है, लेकिन
वहाँ
वो
वैद्यकीय
प्रोसेस
थी।वहाँ
पुरुष
को
औरत
और
औरत
को
पुरुष
बनाने
के
लिए
हार्मोनल
ट्रीटमेंट
दी
जाती
है, उसकी
सर्जरी
की
जाती
है।
और
बस।
इसके
बाद
वो
पुरुष
बनकर
घूम
सकता
है।
किंतु ‘बस’ कहने
से
ही
सब
खत्म
नहीं
होता।
समाज
नाम
का
जानवर
तो
तब
भी
खड़ा
ही
रहता
है...कनाडा
में
भी
उन्हें
बहुत
सी
समस्याओं
का
सामना
करना
पड़ता
है।
समाज
उन्हें
झट
से
अपनाता
नहीं
है।
परिवार
ही
जब
नहीं
अपनाता
तो
समाज
का
क्या
है...!”[18]
हिजड़ों
की
समस्याओं
के
निवारण
के
लिए
लक्ष्मी
मानते
हैं
कि
हिजड़ों
को
समाज
के
सामने
न
केवल
आना
चाहिए, बल्कि
उससे
हिल-मिलकर
भी
रहना
चाहिए।
वह इसका पूरा
ध्यान
रखते
हैं
और हिजड़ों की
संवेदनाओं
को
समाज
तक
पहुँचाते
हैं।
कला
और
एक्टिविज्म
दोनों
को
महत्त्व
देने
वाले
लक्ष्मी
‘बुगी-बुगी’, ‘कॉल
इट
स्लट!’, ‘बंबैया’, ‘बिटवीन
द
लाइंस’,‘दस
का
दम’, ‘सच
का
सामना’, ‘बिग
बॉस’कार्यक्रमों
और
फिल्मों
के
जरिए
हिजड़ों
की
अभिव्यक्ति
को
नए
आयाम
देने
का
प्रयास
करते
हैं।
हिजड़ों
को
कोई
भी
परिवार
अपनाना
नहीं
चाहता।
घर
में
हिजड़े
का
होना
कइयों
के
लिए
शर्म
का
विषय
हो
जाता
है।
लक्ष्मी
का
परिवार
लेकिन
भिन्न
है।
उसके परिवार का
स्नेह
लक्ष्मी
को
बहुत
मजबूत
करता
है।
लक्ष्मी
है
भी
ईमानदार।
उसका
परिवार
भी
उसकी
इस
ईमानदारी
का
सम्मान
करता
है।
‘सच का सामना’
शो
में
जब
एक
सवाल
“तुम्हें हिजड़ा बनकर
नहीं, पुरुष
बनकर
जीना
है, ऐसी
तुम्हारे
माँ-बाप
की
आख़िरी
इच्छा
हो, तो
तुम
पुरुष
बनकर
रहोगे
क्या?”[19]
पूछा
जाता
है
तो
लक्ष्मी
ईमानदारी
से
कहते
हैं- “पुरुष बनकर
मैं
कभी
नहीं
जीऊँगी।”[20]
लक्ष्मी
का
परिवार
उसकी अनदेखी कभी
नहीं
करता।
एक
सवाल
के
जवाब
में
उसके
पिता
का
यह
कहना
बयां
करता
है
कि
परिवार
की
संकुचित
मानसिकता
जहाँ
लैंगिक
भिन्नता
के
कारण
व्यक्ति
को
भीतर
से
तोड़
देती
है, वहीं
संवेदना
की
थपकी
उसी
व्यक्ति
को
बेहतर
नागरिक
बनाने
का
कार्य
करती
है-“अपने
ही
बेटे
को
मैं
घर
से
बाहर
क्यों
निकालूँ? मैं
बाप
हूँ
उसका, मुझ
पर
जिम्मेदारी
है
उसकी।
और
ऐसा
किसी
के
भी
घर
में
हो
सकता
है।
ऐसे
लड़कों
को
घर
से
बाहर
निकालकर
क्या
मिलेगा? उनके
सामने
तो
हम
फिर
भीख
मांगने
के
अलावा
और
कोई
रास्ता
ही
नहीं
छोड़ते
हैं।
लक्ष्मी
को
घर
से
बाहर
निकालने
का
सवाल
ही
नहीं
पैदा
होता।
अपने
सभी
बच्चों
को
मैंने
कुछ
बातें
हमेशा
बतायी
हैं...
जैसे, ईमानदारी
सबसे
ऊँचा
मूल्य
है।
जो
ज़िंदगी
जीनी
है, वो
ईमानदारी
से
जियो।
और
दूसरा, कोई
भी
काम
करने
में
कभी
आनाकानी
मत
करो।
मेरे
बच्चे
वैसे
जी रहे हैं
या
नहीं, ये
मैं
देख
रहा
था, बस।”[21]
लक्ष्मी
के
व्यक्तित्व
की
सबसे
बड़ी
विशेषता
यह
है
कि
वह
स्वयं
की
बजाय
अपने
समुदाय
को
प्राथमिकता
देते
हैं।
यही वजह है
कि
‘बिग बॉस’ कार्यक्रम
में
भी
वह
हिजड़ा
समुदाय
के
एक
सदस्य
के
रूप
में
जाते
हैं, न
कि
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी
के
रूप
में।
संजय दत्त और
सलमान
खान
द्वारा
दिए
गए
सम्मान
के
प्रति
लक्ष्मी
की
विनम्रता
देखी
जा
सकती
है-
“उसकी (सलमान खान)
और
संजय, दोनों
की
बातों
की
शुरूआत
‘लक्ष्मी
जी’
से
होती
थी।
इस
वजह
से
मुझे
लगा
कि
हम
मजाक
करने
के
लिए
नहीं
बने
हैं, हमारे
साथ
भी
गंभीरता
से
बात
की
जा
सकती
है, हम
भी
नॉर्मल
हैं।
बाकी
लोगों
के
साथ
जैसा
बर्ताव
करते
हैं, वैसा
ही
हमारे
साथ
करना
चाहिए।
ये
मैसेज
समाज
तक
पहुँचा”[22] इसी दौर
में
लेकिन
लैंगिकता
को
लेकर
लक्ष्मी
के
साथ
कटु
अनुभव
भी
होते
हैं।
एक
पार्टी
में
बॉम्बे
जिमखाना
के
सीईओ
द्वारा
पार्टी
के
होस्ट
अजय
हट्टंगड़ी
को
यह
कहना
कि‘लक्ष्मी
को
पार्टी
में
मत
आने
दो, उसे
बाहर
निकालो’[23]लैंगिकता
के
प्रति
भेदभावपूर्ण
दृष्टि
का
परिचायक
है।
ऐसे
में
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी
द्वारा
प्रश्न
करना
हमें
सोचने
पर
मजबूर
करता
है- “क्या
सच
में
हम
इक्कीसवीं
सदी
में
हैं? सिर्फ़
मेरी
सेक्सुअलिटी
अलग
है, इसीलिए
बॉम्बे
जिमखाना
में
मुझे
नहीं
होना
चाहिए?”[24]
दूसरी
ओर
ऐसे
भी
अवसर
लक्ष्मी
और
उसके
साथियों
के
जीवन
में
आते
हैं, जिनसे
लगता
है
कि
नए
समाज
में
धीरे-धीरे
सबके
लिए
जगह
हो
रही
है।
हिजड़ों
के
ब्यूटी
कांटेस्ट
‘इंडियन सुपरक्वीन’
जैसे
कार्यक्रम
उसी
नए
समाज
के
आगमन
के
संकेत
हैं।
हिजड़ों
की
अभिव्यक्ति
के
इस
प्रकार
के
मंचों
के
बारे
में
लक्ष्मी
आश्वस्त
होती
हैं-
“समाज में हमें
कोई
पूछ
रहा
है, ये
भावना
ही
हिजड़ों
के
लिए
काफी
महत्वपूर्ण
थी।
यहाँ
वे
सिर्फ
देख
ही
नहीं
रहे
थे, बल्कि
हिजड़े
स्वयं
ही
‘टॉक ऑफ द
टाउन’
थे...जो
हिजड़े
पहले
स्टेज
पर
आने
से
डरते
थे, हड़बड़ाते
थे, अब
उन्हीं
में
आत्मविश्वास
की
झलक
दिखाई
दे
रही
थी...मेरे
लिए
ये
बहुत
बड़ी
चीज
थी।
अपनी
कम्युनिटी
की
‘कपैसिटी बिल्डिंग’
का
जो
सपना
मैंने
देखा
था, कुछ
हद
तक
वो
अब
सच
हो
रहा
था।”[25]
अपनी
कम्युनिटी
के
लिए
कुछ
करने
की
पहल
के
बावजूद
लक्ष्मी
को
लैंगिकता
के
कारण
इसकी
कीमत
चुकानी
पड़ती
है।
हिजड़े के तौर
पर
जीते
समय
कुछ
नियमों
का
पालन
करना
होता
है, जैसे
कि
अपनी
ज़िंदगी
हिजड़े
सबके
सामने
नहीं
ला
सकते, न
किसी
को
कोई
साक्षात्कार
दे
सकते, न
कहीं
अपनी
कोई
फोटो
प्रकाशित
करवा
सकते।
लक्ष्मी
त्रिपाठी
हिजड़ों
की
कम्युनिटी
द्वारा
बनाए
गए
इस
प्रकार
के
नियम
निरंतर
तोड़ते
हैं, जिसके
कारण
उनकी
कम्युनिटी
उन
पर
कई
बार
जुर्माना
लगाती
है।
इससे वह विचलित
नहीं
होते, बल्कि
और
अधिक
ऊर्जा
से
अपनी
कम्युनिटी
को
लैंगिकता
के
भेदभाव
से
ऊपर
ले
जाने
का
कार्य
करते
हैं। वह मानते
हैं- “लीक से
हटकर
चलना
है
तो
ये
तकलीफ
तो
उठानी
ही
पड़ती
है...और
मैं
तो
दो
जगहों
पर
लीक
से
हटकर
चल
रही
थी।
एक
हमारा
पूरा
समाज
और
दूसरा
हिजड़ा
समाज।
दोनों
समाजों
में
बदलाव
लाना
चाहिए
और
हिजड़ों
को
समाज
के
सामने
और
अधिक
आना
चाहिए।
समाज
से
कटकर
रहने
के
परिणाम
हिजड़ों
को
भोगने
पड़े
हैं।
समाज
में
जिस
प्रकार
दस
प्रतिशत
लोग
समाज-विघातक
कृत्य
करने
वाले
होते
हैं, वैसे
ही
हिजड़ों
में
भी
दस
प्रतिशत
लोग
ऐसे
होते
हैं।
पर
दस
प्रतिशत
की
ही
बड़ी
खबर
बना
दी
जाती
है
और
पूरी
हिजड़ा
कम्युनिटी
बदनाम
होती
है।...इस
बदनामी
के
खिलाफ
काम
करना
चाहिए।
जगह-जगह
पर
हिजड़ों
को
संगठन
खड़े
करने
चाहिए।”[26]
लक्ष्मी
की
ही
पहल
के
कारण
हिजड़ा
कम्युनिटी
के
लिए
कई
सार्थक
परिवर्तन
देखने
को
मिलते
हैं, बेशक
ये
पर्याप्त
नहीं
हैं-“अलग-अलग
जगहों
पर
हिजड़ों
के
लिए
अलग-अलग
तरह
के
काम
शुरू
हैं।
एच.आई.वी./एड्स
प्रोग्राम
तो
जारी
है
ही, हिजड़ों
को
घर
और
रोजगार
मिले, इसके
लिए
भी
हमारे
संगठन
प्रयास
कर
रहे
हैं।
कानून
बनाने
वाले
और
नीतियां
तय
करने
वाले
इनके
स्तर
तक
पहुँचें, तभी
कुछ
हो
सकता
है, इसका
हमें
एहसास
है।
और
सिर्फ
वही
हम
करना
चाहते
हैं।
बाकी
राज्यों
में
अब
परिस्थिति
बदल
रही
है, लोगों
का
नजरिया
भी
बदल
रहा
है।
तमिलनाडु
जैसे
राज्य
में
हिजड़ों
को
मकान
दिए
गए
हैं, मध्यप्रदेश
में
तो
हिजड़े
लोक-प्रतिनिधि
तक
पहुँच
गए
हैं।
सरकारी
स्तर
पर
हो
रहे
इन
कामों
के
साथ
समाज
में
भी
बड़े
पैमाने
पर
काम
होना
चाहिए।
असल
में
परिवार
से
ही
हिजड़ों
को
सहारा
मिलना
चाहिए...जैसे
मुझे
मिला, वैसे
ही।
वो
जब
तक
नहीं
मिलता, तब
तक
क्षमता
होने
के
बावजूद
बहुत
ऊँचाई
तक
जाना
उनके
लिए
संभव
नहीं
है।...उन्हें
ऊँचाई
तक
जाना
चाहिए, इसलिए
अलग-अलग
स्तर
पर
की
जाने
वाली
हमारी
बहुत-सी
कोशिशों
को
अब
सफलता
मिलने
लगी
है।
महाराष्ट्र
सरकार
ने
महिला
विषयक
नीतियों
में
ट्रांसजेंडर्स
का
समावेश
किया
है।
उनके
लिए
अनेक
बातें
सुझायी
हैं...”[27]
ट्रांसजेंडर्स
का
आत्मसंघर्ष
जीवन
भर
चलता
रहता
है।
पहले
एक
पुरुष
के
भीतर
मौजूद
स्त्री
के
संघर्ष
से
वह
जूझता
है
तो
बाद
में
परिवार
और
समाज
में
अपनी
पहचान
और
हकों
के
लिए
उसका
संघर्ष
जारी
रहता
है।
कितने
सारे
ट्रांसजेंडर्स
बिना
अपने
हकों
को
प्राप्त
किए
रूपा, किरण, पायल, सुभद्रा, मुस्कान, शाहीन
की
तरह
एक
ऐसी
राह
पर
चले
जाते
हैं, जहाँ
से
लौटना
संभव
नहीं
होता।
आजीविका
के
लिए
सेक्स
वर्क, नैराश्य
की
स्थिति
में
शराब
के
नशे
में
डूबे
रहना, कहीं
किसी
उम्मीद
के
न
दिख
पाने
के
कारण
तनाव
का
रहना
ट्रांसजेंडर्स
के
जीवन
को
अत्यधिक
प्रभावित
करता
है।
ऐसे
में
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी
द्वारा
किए
गए
प्रयास
उनके
जीवन
को
एक
दिशा
देने
का
कार्य
करते
हैं।
निष्कर्ष
: आत्मकथा में
उल्लिखित
और अभिव्यक्त
घटनाएँ
लक्ष्मी
त्रिपाठी
के
कृत्यों
की
दस्तावेज
बन
कर
आती
हैं।
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी
न
केवल
अपने
जीवन
को
नए
अर्थ
देते
हैं, बल्कि
उन
सभी
के
जीवन
को
भी
एक
आधार
देने
की
कोशिश
करते
हैं, जिन्हें
अपने
जीवन
की
कीमत
का
कोई
अंदाजा
नहीं
होता।
लक्ष्मी
विभिन्न
संस्थाओं
के
जरिए
लैंगिकता
से
परे
मनुष्यता
की
स्थापना
पर
जोर
देते
हैं।
वह एक ऐसे
समाज
की
कल्पना
करते
हैं
जिसमें
हिजड़ों
के
लिए
अलग
से
कोई
जगह
न
होकर
उसी
समाज
के
भीतर
उनका
समायोजन
हो।
लिंग
के
आधार
पर
समाज
ऐसे
लोगों
से
कोई
दूरी
न
बनाए, बल्कि
ऐसे
लोगों
के
साथ
भी
उसका
उठाना-बैठना
बिना
किसी
भेदभाव
के
जारी
रहे।
[1] त्रिपाठी, लक्ष्मीनारायण; मैं हिजड़ा...मैं लक्ष्मी!; शब्दांकन : वैशाली रोडे; अनु. डॉ. शशिकला राय एवं सुरेखा बनकर; वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002; संस्करण : 2015; पृ. 113.
2] ‘हिजड़ा’शब्द मूल उर्दू भाषा का शब्द है। यह अरेबिक शब्द ‘हिजर’ से आया हुआ है, जिसका अर्थ होता है-‘अपना समुदाय छोड़ा हुआ’ अर्थात स्त्री-पुरुषों के समुदाय से अलग समुदाय का वह व्यक्ति जो न स्त्री है और न पुरुष। भिन्न-भिन्न भाषाओं में इनके लिए भिन्न-भिन्न शब्द प्रयोग में लाए जाते हैं। मराठी में हिजड़ों को ‘हिजड़ा’ और ‘छक्का’ तो गुजराती में उन्हें ‘पावैया’ से संबोधित किया जाता है। पंजाबी में ‘खुस्रा’ व ‘जनखा’, तेलगू में ‘नपुंसकुडु’, ‘कोज्जा’, ‘मादा’ और तमिल में ‘शिरूरनान’, ‘अली’, ‘अरवन्नी’, ‘अरावनी’, ‘अरुवनी’ आदि शब्द प्रयोग किए जाते हैं। अंग्रेजी में इसके लिए ‘ट्रांसजेंडर्स’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ ‘लिंगभाव से परे’ होता है।
[3] त्रिपाठी, लक्ष्मीनारायण; मैं हिजड़ा...मैं लक्ष्मी!; !; पूर्वोक्त; पृ. 153.
डॉ. अमित कुमार
सहायक प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़-123031 (हरि.)
amitmanoj2018@gmail.com, 9992885959, 9416907290
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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