शोध सार : संत रविदास की वैचारिकी तत्कालीन समाज में प्रचलित अनेक समस्याओं का समाधान देने में आज भी प्रासंगिक है। एक लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में जिन जिन साधनों की जरूरत है उन सभी का संत रविदास ने समर्थन किया है। दूसरी ओर मानवीय मूल्यों के लिए घातक विचारों को त्यागने का भी वे बार-बार जनता से आग्रह करते हैं। जैसे वे जीवनभर वर्ण एवं जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए नजर आते हैं। समाज में फैले अंधविश्वास एवं कर्मकांडो के पक्षपाती नहीं रहे। वे पराधीनता को सबसे बड़ा पाप मानते हैं जिसके प्रति जनमानस को निरंतर सचेत करते हैं। मन की पवित्रता के प्रति विशेष आग्रह उनका रहा है। सत्य वचन का सदैव समर्थन किया है। यही वजह है कि सभी धर्मों में निहित बुराइयों को अस्वीकार करना उनकी प्राथमिकता रही है। उन्होंने सदैव समाज में लोगों से अपील की कि मानव को जीवन भर अपने श्रम पर विश्वास करना चाहिए। रविदास के जीवन का मुख्य उद्देश्य शोषित पीड़ित जनता को मानसिक एवं शारीरिक गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराना रहा है। इसीलिए उनका समस्त जीवन दर्शन मानवतावादी विचारधारा पर आधारित है। वे संपूर्ण समाज को सुखी एवं संपन्न बनाने में प्रतिपल संलग्न दिखाई देते हैं यही उनके समस्त काव्य का जीता जागता उदाहरण है।
बीज शब्द : मानवीय मूल्य, जातिगत भेद, अंधविश्वास, धार्मिक कर्मकांड, श्रम, पवित्र मन, सत्य वचन, सम दृष्टि, अहिंसा, पराधीनता, मानव सेवा, कर्म का महत्व, स्वतंत्रता, बेगमपुरा।
मूल आलेख : हिंदी साहित्य में भक्ति काल की अपनी अलग पहचान है। भक्ति काल को दो भागों में बांटा गया है-एक भाग में सगुण संत कवि दूसरे में निर्गुण संत कवि। लेकिन अगर ध्यान से देखा जाय तो मानवीय एवं आत्म सम्मान की दृष्टि से निर्गुण काव्य सगुण काव्य पर भारी पड़ता है। निर्गुण संत कवियो ने अपनी वाणी के माध्यम से अलग तरह की सामाजिक क्रांति पैदा की। यह क्रांति पूरे भारत के कोने कोने में फैल गई। भक्ति काल का समय ऐसा था जब आम जनमानस का मानसिक एवं शारीरिक शोषण चरम पर था। लगभग सभी निर्गुण कवियों ने इस प्रकार के शोषण से मुक्ति हेतु मानवीय मूल्यों की स्थापना पर विशेष जोर दिया। चाहे कबीर हो चाहे ,गुरु नानक ,चाहे संत रविदास, चाहे संत गाडगे हो चाहे तेलुगु कभी वेमना ही क्यों ना रहे हो।
अब हम देखते हैं कि
मानवीय मूल्य क्या है? जिनकी स्थापना के प्रति सभी का आग्रह बराबर बना रहता
है। इसे साधारण तरीके से इस प्रकार समझ सकते हैं कि मानवीय
मूल्य ही वह कड़ी है जो व्यक्तिगत अनुभव, निर्णय, उद्देश्य तथा कार्यों को जोड़ता
है। सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को समझने में मदद करते हैं। मानवीय मूल्य संपूर्ण
मानव समाज को असत्य से सत्य की ओर लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।यदि
हम एक नजर विश्व के उन महापुरुषों पर डालें जिन्होंने मानवीय मूल्यों की खातिर
अपना संपूर्ण जीवन दाव पर लगा दिया जैसे-डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ,संत गाडगे ,ज्योतिबा फुले ,सावित्रीबाई फुले ,ई वी रामास्वामी ,ललई सिंह यादव, मार्टिन लूथर किंग ,नेलसन मंडेला ,अब्राहम लिंकन ,आनसाग सूकी की ,गौतम बुद्ध, कबीर ,रैदास आदि लोगों की
एक लंबी श्रृंखला है। इन सभी लोगों ने जिन मानवीय मूल्यों पर विशेष जोर दिया वे इस
प्रकार हैं-स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, मानवता, न्याय, अहिंसा, परोपकार, नैतिकता, शांति, सत्यता, मानवीय प्रेम एवं दया आदि।
किसी सभ्य समाज की पहचान इन्हीं मानवीय मूल्यों के आधार पर की जा सकती है। जिस समाज में यह मानवीय मूल्य नहीं होते या इनका अनुसरण नहीं किया जाता तो वह समाज पशुओं से भी बदतर समाज कहा जाएगा। संत रविदास के समय में भी ऊंच-नीच, छुआछूत की भावना अपनी चरम सीमा पर थी। इसके मूल में सिर्फ एक ही कारण था हिंदू धर्म के पाखंड और अमानवीय कुरीतियां। वर्ण व्यवस्था ने जनमानस में इतनी दरारें पैदा कर दी जो 21वीं सदी में भी आज पूरी तरह से नहीं भरी गई हैं। आज पूरे विश्व में व्यक्ति की पहचान उसके गुणों से होती है लेकिन भारत ऐसा देश है जहां आज भी यहां लोगों की पहचान जाति और धर्म से सबसे पहले की जाती है। संत रविदास ने इन सभी रूढ़ियों का विरोध किया। इसके साथ ही लोगों को समझाया कि कोई भी व्यक्ति जन्म से नीच नहीं होता है, वह अपने कर्म के आधार पर नीच होता है-
कबीर ने भी जाति व्यवस्था का घोर विरोध किया। यह जाति
व्यवस्था उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं है बल्कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व
से लेकर पश्चिम तक फैली है। तभी तो तेलुगु कवि वेमना भी भारतीय समाज में फैली
ऊंच-नीच की भावना से आहत होते हैं,और इसे मिटाने का
संकल्प लेते हैं। साथ ही समाज में समस्त जनमानस से आग्रह करते हैं कि इसे जल्दी से
जल्दी मिटाया जाए। तभी तो वे कहते हैं-
कई बार हम अनुभव
करते हैं कि कुछ विचारधाराएं परंपरा और रूढ़ियों का रूप ले लेती है। इनमें से
परंपराएं तो समय के साथ साथ परिवर्तित हो जाती हैं लेकिन रूढ़ियों में परिवर्तन की
कोई गुंजाइश नहीं रहती। यही धार्मिक रूढ़ियां और अंधविश्वास पूरे समाज को दीमक की
तरह खोकला कर देते हैं। इन्हीं सामाजिक विषमताओं के बीच से जन्म होता है ऐसे संत
महापुरुषों का जो इन्हें मिटाने के लिए रात दिन बेचैन रहते हैं। उन्हीं में से एक
नाम है संत रविदास। संत रविदास के समय भी समाज में जातिगत भेदभाव अपने चरम पर था।
इसे समाप्त करने के लिए उन्होंने लोगों को अनेक तरह से समझाया। इतना ही नहीं
उन्होंने साड़ी हुई परंपराओं और अंधविश्वास का जीवन भर विरोध किया–
आजादी के पहले भी और आज भी जातिवाद ने भारतीय समाज के टुकड़े-टुकड़े करने का ही कार्य किया है। नफरत की आग इसी
जातिवाद की देन है। यह एक ऐसी मानसिक बीमारी है जो दलित -सवर्ण को ही अलग नही करती बल्कि दलित-दलित व समस्त स्त्री-पुरुष को भी खंड- खंड करती
है। तभी तो रविदास कहते हैं कि इस भारतीय समाज में तब तक प्रत्येक स्तर पर समरसता
नहीं पैदा होगी जब तक इस देश से जातिवाद की मानसिक बीमारी खत्म नहीं होती-
भारतीय समाज की संरचना को यदि ध्यान से देखा जाए तो
मंडल आयोग के अनुसार यहां लगभग 7000 जातियां पाई जाती
हैं। इतना ही नहीं इनके अंदर हजारों उपजातियां कुकुरमुत्ते की तरह से उपजी हुई
हैं। उनके अंदर भी ऊंच-नीच की भावना की जड़ें बहुत गहरी है। तभी तो रैदास
मानते हैं कि भारत में जाति व्यवस्था केले के पत्ते की परतो की तरह है । एक को
हटाने पर दूसरी और दूसरी को हटाने पर तीसरी और तीसरी को हटाने पर चौथी इसी प्रकार
केले के अंत के साथ ही परते समाप्त होती है। इसी वजह से केले में रीढ नहीं होती
जिससे वह कमजोर होता है। क्योंकि वे परतें आपस में कभी मिल
नहीं सकती। यही उसकी ताकत की सबसे बड़ी कमजोरी है।ऐसे देश में समतामूलक समाज की
कल्पना करना बेईमानी होगी। किस आधार पर आप बंधुत्व एवं एकता की बात कर सकते हैं? लेकिन दूसरा सच यह भी है परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। प्रकृति के नियम
को ध्यान में रखकर ही संत कवियों ने समाज में आशा की किरण दिखाई। अपने समय में
सामाजिक परिवर्तन की बात को लोगों से साझा करते हैं। यह सामाजिक परिवर्तन की जो
चिंगारी है वह गौतम बुद्ध, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, संत गाडगे, फुले आदि के द्वारा निरंतर आगे बढ़ रही थी। महाराष्ट्र के संत शिरोमणि संत
गाडगे ने भी सहर्ष स्वीकार किया कि-"भारतीय समाज अनेक
जातियों उपजातियो का समाज है। हिंदू धर्म में प्रत्येक जाति दूसरी जाति से नफरत
करती है। इसीलिए इस खाई को पाटना बहुत मुश्किल है। इसीलिए वे स्वास्थ, शिक्षा और मानव सेवा पर विशेष ध्यान देते थे।" 7
धार्मिक पाखंडों
एवं कर्मकांडो ने भारतीय समाज की बहुतसंखयक आबादी को मानसिक गुलाम बना दिया है। वह
लोग शिक्षा की जगह रात दिन कर्मकांड में फंसे रहते हैं। काल्पनिक दुनिया को ही
वास्तविक मान लेते हैं। हंसी की बात यह है कि भगवान के भक्त अपने माता-पिता को
छोड़कर पत्थर का सम्मान करते हैं। मंदिर में पूजा करना , व्रत रखना,रोजा रखना, तिलक लगाना, मस्जिद में अजान, गंगा स्नान,माला फेरना ,यज्ञ करना , सत्यनारायण की कथा, शुभमुहूर्त आदि रूढ़ियों ने जनमानस को मकड़ी के जाल की तरह आज भी जकड़ रखा है। इससे
स्पष्ट है कि यह बीमारी लगभग सभी धर्मों में है। एक मजदूर की हत्या होने पर कोई
फर्क नहीं पड़ता लेकिन किसी भगवान या धर्म के बारे में एक शब्द भी बोल देते हैं तो
शहर के शहर दंगे की भेंट चढ़ जाते हैं। यह मानसिक रोग नहीं तो क्या है?इसीलिए संत रविदास भी कबीर की तरह हिन्दू मुस्लिम सभी को बराबर लताड़ते नजर
आते हैं-" कहा भयो नाचे अरु गाये,
निर्गुण संत किसी ऐसे धर्म का प्रचार नहीं करते जो मानव -मानव में भेद करे। यही वजह है कि वे हिंदू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के पाखंड और रूढ़ियों का जमकर विरोध किया। संत सदा मानव मात्र का कल्याण चाहते रहे हैं। सम्पूर्ण मानव जाति की मुक्ति चाहते हैं। जिससे एक समतामूलक समाज का निर्माण हो सके। सभी लोग सुख से रह सकें। मुस्लिम समुदाय को भी नहीं छोड़ते है। इन्हीं सब कारणों से पूरे भारतीय समाज को संत रविदास आगाह करते हैं के व्यक्ति का सम्मान गुण के आधार पर करना चाहिए न कि जन्म के आधार पर-"
इसके साथ-साथ उन्होंने मुस्लिम धर्म के पाखंड एवं
रूढ़ियों का भी जमकर विरोध किया।क्योंकि वह किसी धर्म के पक्षपात ही नहीं थे। वे
केवल मानव मात्र का कल्याण चाहते थे। जिससे एक समतामूलक समाज का निर्माण हो सके।
सभी लोग सुख चैन से जीवन व्यतीत कर सकें।मुसलमानों की रूढ़ियों एवं अंधविश्वास का
भी विरोध करते हुए कहते हैं-
अर्थात इसका सीधा सा अर्थ है कि यदि इंसान के व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता है तो ऐसे पूजा-पाठ एवं अजान लगाने से क्या लाभ? ऐसे ढोंग पाखंड ओं से समाज को कोई लाभ नहीं होगा।और ना ही भविष्य में समतामूलक समाज का निर्माण हो पाएगा। स्वाधीनता की बात की जाए तो निर्गुण संत कवियों ने इसे कभी अपने चिंतन से अलग नहीं होने दिया।लेकिन निर्गुण संतों की स्वाधीनता अन्य लोगों की स्वाधीनता से बिल्कुल अलग है। संतो ने सर्वप्रथम प्रत्येक भारतीय को स्वाधीन होने पर बल दिया।कोई किसी व्यक्ति का मानसिक एवं शारीरिक शोषण ना कर सके।इसका सीधा सा अर्थ है कि निर्गुण संत सबसे पहले आंतरिक स्वाधीनता के पक्षधर रहे। इसके बाद राष्ट्रीय स्वाधीनता के तभी तो वे समस्त शोषित पीड़ित लोगों को संबोधित करते हुए कहते हैं-"\
इससे एक बात तो साफ होती है कि गुलाम मानव का कोई मित्र नहीं होता, ना कोई देश होता है, ना कोई धर्म होता है, ना कोई जाति, ना कोई घर, वह ऐसे कैद खाने में रहता है जिसमें बाहर आने को तड़पता रहता है लेकिन ज्ञान के बिना बाहर नहीं आ सकता। अर्थात वह अदृश्य कैदखाना है। इसीलिए बार-बार वे बेगमपुरा शहर की कल्पना करने को बेचैन दिखते हैं। जिसमें कोई गम ना हो-बेगमपुरा शहर। हां एक सवाल फिर उठता है की निर्गुण संतो को अपने देश की बहुसंख्यक आबादी की दोहरी आजादी की चिंता क्यों हुई? इसका सीधा सा उत्तर होगा कि अधिकांश निर्गुण संत श्रमजीवी एवं शोषित पीड़ित समुदाय से थे।उन्होंने जीवन भर गुलामी और अपमान का विष पिया था।इसीलिए वे पीड़ित जनता का दुख दर्द आसानी से महसूस कर सके।वे समझ गए थे कि यदि समाज इसी तरह से विभाजित होता रहा तो गोरे लोगों से मिली आजादी का रंग फीका ही रहेगा। डॉक्टर अंबेडकर, संत गाडगे, ज्योतिबा फुले महापुरुषों की शैक्षिक क्रांति ने पूरे देश में भूचाल ला दिया। इन्ही लोगों के प्रयास से आज देश की बहुसंख्यक आबादी मानसिक गुलामी से धीरे-धीरे बाहर आ रही है।इसका परिणाम यह हुआ कि जहां तिलक भारतीयों से कह रहे थे कि-स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार। इसका करारा जवाब देते हुए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे तर्क शास्त्री ने कहा-आज तुम्हें इतने समय में अपनी आजादी गवाकर यह एहसास हुआ लेकिन क्या कभी यह भी सोचा है कि हजारों सालों की गुलामी से मुक्त होना दलितों का भी जन्म सिद्ध अधिकार है।'इसी प्रकार पेरियार जैसे अनेक तर्क शास्त्री अपने अपने ढंग से भारतीय जनमानस को जागृत कर रहे थे। इसका प्रभाव कहीं ना कहीं हिंदी साहित्य के आंदोलनों पर भी पड़ा।दक्षिण अफ्रीका के ब्लैक पैंथर के प्रभाव के परिणाम स्वरूप भारत में भी दलित पैंथर जैसे क्रांतिकारी संगठनों की स्थापना हुई जो मानव मुक्ति का पक्षधर है।
संत रविदास ने जनता को सदैव अपने श्रम पर जीवित रहने का संदेश दिया। उसे कभी परजीवी बनने की सलाह नहीं दी।वे अपने जीवन में श्रम के महत्व को अच्छी तरह से जानते थे।तभी तो लोगों से बार-बार अपील करते थे कि जब तक मानव का वश चले तब तक अपनी मेहनत की कमाई से पेट भरना चाहिए। इससे आत्मा को सच्चा सुख मिलता है।कहने का भाव यह है कि सुख को कभी पैसे से खरीदना संभव नहीं है। यही विचार थे निर्गुण संतों के। वे समस्त जन जन को सम्मान के साथ जीना सिखाते थे। कबीर दास ,रविदास जैसे संतों ने सदैव मन की पवित्रता पर सबसे अधिक ध्यान दिया। क्योंकि व्यक्ति का मन पवित्र नहीं है तो उसके सारे धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलाप व्यर्थ हैं धोखा है। यही वजह रही कि संत रविदास बार-बार कहते हैं-
सत्त ईमान न छाडिए, जग जाए जौ जाए। अर्थात सत्य की खातिर संसार भी छोड़ना पड़े तो तनिक भी संकोच
नहीं करना चाहिए। निर्गुण संतों की एक और विशेषता थी। वह है अहिंसा के प्रति
आग्रह। वे प्रत्येक धर्म में ईश्वर के नाम पर होने वाली हिंसा का विरोध करते
हैं।वे कहते हैं कि ऐसा कौन सा भगवान या अल्लाह है जो जीव हत्या को पसंद करता है।
अर्थात कोई नहीं हो सकता।मानव ने केवल अपने स्वार्थ के लिए लोगों को अंधविश्वास
में फंसाने के लिए, अपने धर्म के धंधे चलाने के लिए यह नियम, रीति और
परंपराएं बना रखी हैं। वे किसी भी जीव की हत्या को सबसे नीच और बुरा काम मानते
हैं। यही वजह है कि उनकी वाणी मैं कदम कदम पर प्राणी वध का विरोध किया गया है :
अधिकांशतः तर्कशील विद्वानों का मत है कि जो विवेकशील
मानव होगा वह कभी भी अंधविश्वास का समर्थन नहीं करेगा और ना ही किसी दूसरे को ऐसा
करने की सलाह देगा। इस प्रकार के विद्वानों की श्रृंखला की अगर बात की जाए तो यह बहुत लंबी है लेकिन इसी श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में संत रविदास का नाम लिया जाता है जिन्होंने जीवन
पर्यन्त धार्मिक कर्मकांड और रूढ़ियों का प्रबल विरोध किया-
इसी मानवी लगाव के कारण
रविदास लोगों से बार-बार आग्रह करते हैं कि मानव सेवा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म
नहीं। दीन दुखी की सहायता से बड़ा कोई कर्म नहीं-
निष्कर्ष : अतः हम निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं निर्गुण संतों का जीवन स्वयं अनेक मानसिक एवं शारीरिक कष्टों के साए में पाला है इसीलिए उन्होंने सदैव मानव धर्म की स्थापना का प्रयास किया है। क्योंकि इसी में छिपे हैं मानवीय मूल्य। एक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए सर्वप्रथम अपने समाज की आंतरिक मानसिकता में परिवर्तन करना लाजमी है। तभी हम स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते हैं।और यह परिवर्तन सबसे पहले अपनी सोच में करना होगा तभी आप समाज में परिवर्तन लाने की बात कर सकते हैं। इन्हीं मानवीय मूल्यों की रक्षा करने के लिए आज भी हम सैकड़ों और हजारों साल पहले पैदा हुए कम शिक्षित या अशिक्षित संतों की वाणी यों को आज भी पढ़ते और पढ़ाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत जैसे देश का कि हम मानवतावादी महापुरुषों पर बोलते बहुत अच्छा है, लिखते बहुत अच्छा है, सोचते बहुत अच्छा है लेकिन महापुरुषों के द्वारा बताई गई मानवी बातों को अपने जीवन का हिस्सा नहीं बनाते। आजादी के लगभग 76 वर्ष बाद भी देश की मानसिकता में उतना परिवर्तन नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। आज चारों तरफ लूट ,हत्या ,बेईमानी ,नफरत ,स्वार्थ की आग अपनी चरम सीमा पर है। इतना होने के बावजूद भी सच्चे और ईमानदार लोगों का प्रयास निरंतर जारी है जो लोकतांत्रिक एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए प्रतिदिन संघर्षरत हैं।क्योंकि इसी से बनेगा संत रविदास के सपनों का समाज बेगमपुरा शहर जहां खिले होंगे रंग-रंग के फूल प्रेम की कलियां खिल रही होंगी और हम गर्व से कह सकेंगे कि हम भारतवासी हैं जिसका दूसरा नाम बेगमपुरा भी है।
संदर्भ :-
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आचार्य पृथ्वी सिंह
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आचार्य पृथ्वी सिंह
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11. आचार्य पृथ्वी सिंह, आजाद , रविदास दर्शन, साखी- 192, पेज नंबर- 190
12. योगेंद्र सिंह, संत, रविदास पद संख्या 78 पृष्ठ संख्या 154
13. आचार्य पृथ्वी सिंह, आजाद रविदास दर्शन साखी
181पृष्ठ संख्या 174
14. आचार्य पृथ्वी सिंह, आजाद रविदास दर्शन साखी
175 पृष्ठ संख्या 183
प्रो. राजमुनि
हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषा विभाग
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सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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