डॉ. प्रवीण कुमार
शोध सार : शब्द का विकल्प शब्द हो सकता है परन्तु एक सही कविता में शब्दों के विकल्प नहीं होते। शब्द सटीक भावबोध की पुष्टि करते हैं। कुंवर नारायण ने अपनी कविता में ‘शब्दों की तरफ़ से’ दुनिया को देखते हुए कहा कि ‘किसी भी शब्द को, एक आतशी शीशे की तरह, जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीजों या सितारों की ओर,मुझे उसके पीछे, एक अर्थ दिखाई देता है ...’[1] अर्थ-ध्वनियों की ख़ोज की मशक्कत कविता में सबसे ज्यादा होती है और कुंवर नारायण जैसा कवि जिनके कवि कर्म का इलाका छह दशकों में फैला हुआ है, उसकी पहचान ही सटीक भावबोध की अभिव्यक्ति में संलग्न, सार्थक भाषा के खोजी कवि के रुप में है, इसलिए कवि की काव्य–भाषा इतनी ठोस है कि शब्दों के विकल्प का प्रश्न उठता ही नहीं वरन प्रयुक्त शब्द की भंगिमा पर हम हतप्रभ रह जाते हैं ‘एक उपस्थिति से कहीं ज्यादा उपस्थित, हो सकती है कभी कभी उसकी अनुपस्थिति’।[2] कुंवर नारायण अज्ञेय के बाद दूसरे ऐसे बड़े कवि हैं जो घोषित रूप से भाषा के संधान पर सबसे ज्यादा चर्चा करते हैं “मेरा मानना है कि कविता में सौन्दर्यबोध का सवाल एक भाषा की पूरी संस्कृति से जुड़ा होता है। ..एक कविता का सौंदर्य जितनी गहराई से एक भाषा में रचा बसा होगा उसका किसी अन्य भाषा–संस्कृति में प्रत्यारोपण उतना ही मुश्किल होगा।”[3] सौन्दर्यबोध, शब्द, अर्थ –ध्वनियाँ और लय के प्रत्यार्पण का सवाल ‘उतना’ मुश्किल यदि ‘भाषा –संस्कृति’ की वजह से है तो कहना न होगा कि कुंवर नारायण की कविता में भारतीय संस्कृति, आधुनिकता बोध, परंपरा, प्रकृति, मिथक और इतिहास बोध का रचाव इतना घनीभूत और ठोस है कि उससे निर्मित सौंदर्य का प्रत्यारोपण तो क्या हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में उनके विकल्प में ‘कोई दूसरा नहीं’ है।
बीज शब्द : अर्थ-ध्वनि, सौंदर्यबोध, नाद-सौंदर्य, प्रयोगधर्मिता, बहुस्तरीयत, भाषा-लोक, मृत्यु-बोध, सृजनशीलता, मनुष्य, राग, शिल्प-संधान, निजत्व, परंपरा, इतिहास-बोध
मूल आलेख : कवि अपने प्रारंभिक
काव्य संग्रह ‘चक्रव्यूह’ (1956) से लेकर
प्रबंधात्मक कृति ‘वाजश्रवा के बहाने’ (2008) तक में भाषा
की तान को लेकर जितना प्रयोगशील और सर्जनात्मक रहा है, दर्शन में भाषापन का जो विन्यास है, इतिहास बोध और परंपरा के
पुनर्सृजन में आमफ़हम की अभिव्यक्ति का जो शिल्प है, उसके बहुत सारे सूत्र समकालीन कवियों ने अपना भी लिए हैं। इसमें ‘नयी कविता’
के शिल्प और स्वभाव की छाया तो मौजूद है ही, कहीं-कहीं उससे भी पहले के काव्यान्दोलन ‘छायावाद’ के शब्द और
वाक्य–विन्यास की भी झलक मिल जाती है, पर उसमें भाव के स्तर पर
पुराने काव्यान्दोलन की पुनरावृति कहीं से नहीं है; जैसे ‘प्रिय, इन आँखों के नीले एकांत में, प्यार के अनकहे भावों को
उमगने दो’ या फिर ‘ओ मानव के विवेक – ओ विचार, बुद्धि –ज्ञान –धैर्य –प्यार, कुछ तो तुम्हारा होगा इतिहास
कहीं? जीवन, चंगेज़ों का केवल अट्टहास नहीं’।[4] ‘स्खलित मन’, ‘शशि –ज्योति’, ’जूही’, ‘जीवन-प्रदेश’, ‘व्योमगंगा’, ‘पावस’, ‘उच्छवास’, ‘जल-खंड’, ‘व्योम-व्याप्त’, ‘स्वप्न-बोझ’, ‘मृत्यु-चिह्न’ जैसे कई शब्द देखें जा सकते हैं जिनका सर्वाधिक प्रयोग
छायावादी दौर में हुआ है, पर मात्र शब्दों के प्रयोग
भर से भावबोध की पुनरावृत्ति नहीं हो जाती। उपरोक्त कविता में हम देख सकते हैं कि
छायावादी शब्दों के बीच में कवि ने ‘इतिहास’, चंगेज़’, और ‘अट्टहास’ जैसे शब्दों के प्रयोग से कविता में टटकी
अर्थ–छवि गढ़ दी है। भाषा देखें ‘गन्दी दीवार पर, गिद्धों की बस्ती, खाने को मिलती है, लाश यहाँ सस्ती’।[5] इसी संग्रह में
‘कुछ ऐसे भी यह दुनिया जानी जाती है’[6] कविता इस बात
का श्रेष्ठ नमूना है कि यह न केवल पुराने भावबोध से काव्य-मुक्ति को दर्ज कराती है
बल्कि जटिल से जटिलतर होती दुनिया को व्यक्त करने के लिए जिन तरह के शब्द–खण्डों
को ईजाद करती है वह छायावादी शब्द-संस्कृति तो क्या नयी कविता द्वारा घोषित भाषापन
के अजेंडे से भी आगे निकल जाती है ‘ पागल-से, लुटे-लुटे, जीवन से छुटे-छुटे, ऊपर से सटे-सटे, अन्दर से हटे–हटे, कुछ ऐसे भी यह दुनिया जानी
जाती है।’ छोटे-छोटे वाक्य नहीं बल्कि छोटे छोटे शब्दों से निर्मित पंद्रह
पंक्तियों की यह कविता इसलिए भी बेजोड़ है कि यह न केवल बदलते सामाजिक ढ़ांचे के
अंतर्विरोधी और दुविधाग्रस्त हो जाने की कथा कहती है बल्कि आजादी के बाद के नए
मनुष्य के अंतर्विरोधी और दुविधाग्रस्त चेतना को दिखाने के लिए जहाँ उस दौर के कई
कवियों ने मिथक, इतिहास और पुराण का सहारा लेते हुए लम्बी कविताएँ लिखीं,
ठीक उसी दौर में कुंवर नारायण की यह छोटी-सी कविता अपने अर्थबोध के विस्तार में
उतनी ही बड़ी है; ‘दुनिया जानी जाती है’, ‘दुनिया पहचानी जाती है’, और ‘दुनिया अनुमानी जाती है’ इन तीन पंक्तियों के पीछे छोटे-छोटे शब्द-खंड अपनी
दार्शनिक गुरुता का जिस तरह से निर्वाह चलती-भाषा में करते हैं, वह अन्यथा दुर्लभ है। हालाँकि इसी तरह की भाषा-श्रृंखला बहुत बाद में (इन
दिनों -2002) ‘दुनिया की चिंता’ में भी देखी जा सकती है -‘छोटी-सी दुनिया, बड़े-बड़े इलाके, हर इलाके के बड़े-बड़े लड़ाके, हर लड़ाके की बड़ी-बड़ी बंदूकें, हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके, सबको दुनिया की चिंता, सबसे दुनिया की चिंता’।
कुंवर नारायण की ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ की भूमिका
में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ठीक ही लिखा है कि “शुरू से लेकर अबतक की कविताएँ
सिलसिलेवार पढ़ीं जाएँ तो कुंवर नारायण की भाषा में बदलते मिज़ाज को लक्ष्य किया जा
सकता है। आरंभिक कविताओं पर नई कविता के दौर की काव्यभाषा की स्वाभाविक छाप स्पष्ट
है। इस छाप के बावजूद छटपटाहट है, कविता के वाक्य-विन्यास को
आरोपित सजावट से मुक्त कर सहज वाक्य-विन्यास के निकट लाने की।” इस बात की पुष्टि
के लिए ‘चक्रव्यूह’ संग्रह की कई कविताएँ तलाशी जा सकती हैं, मसलन ‘बीज, मिट्टी और खुली जलवायु।’[7] कविता
की दो पंक्तियाँ देखें, ‘दास, जब तुम किसी को आराध्य करते
हो, तुम मुझे कुछ सोचने पर बाध्य करते हो .. ।’ ये बदलाव के
चिह्न हैं, एक छटपटाहट जो भाव और शिल्प के एकात्म में गहराई से मौजूद
है। कार्ल मार्क्स ने ऐसी ही कविताओं के लिए लिखा था कि ‘फॉर्म इज द फॉर्म ऑफ़ इट्स
कंटेंट’। इस कविता का ‘अंडर–टोन’ है ‘बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो’;
मुक्ति बुद्धि की ही नहीं होती भावों की भी होती है अतः वह मुक्ति भाषिक-विधान में
भी दिखती है। बीज, मिट्टी और खुली जलवायु के प्रतीकात्मक माहौल में ही मनुष्य
की गरिमा सहज आकार लेती है; ये तीन धुरियाँ हैं जिंदगी की जहाँ किसी भी तरह के
पूर्वग्रह और नियंत्रण संसृति को ‘दासता’ के भाव में तब्दील कर सकती है, इसलिए ‘दास-भाव से की गयी आराधना पर सोचने के लिए बाध्य होना’ काव्य–मूल्य को
भाषिक आयाम भी देतें हैं, साधना – आराधना की
स्वतंत्रता जितनी मनुष्य के लिए जरुरी है उतनी ही उसकी भाषा के लिए भी, भाषा की मुक्ति का सवाल किसी भी तरह से मनुष्य की मुक्ति की भावना से अलग नहीं
है। सजग कवि जानता है कि दासता केवल विचारों और जीवन–पद्धतियों में ही नहीं होती
बल्कि शब्द–संस्कृति की भी होती है जो भावबोध की निर्मिति के प्रारंभिक कारण होते
हैं। इसीलिए अज्ञेय ने प्रयोगवाद से लेकर नई कविता तक का एक लक्ष्य पुरानी शब्द-श्रृंखला
पर हल्ला बोलना था परन्तु कुंवर नरायण की सजगता अज्ञेय से इस रूप में भिन्न है कि
वे पुराने शब्दों को लेकर आक्रामक नहीं हैं। स्वयं कवि का मानना है कि “वैसे अपने
लिए मैंने कविता में किसी ख़ास तरह की भाषा या शब्दों की सीमा नहीं बनाई। हिंदी के
सम्पूर्ण नए-पुराने भाषायी क्षेत्र को प्रामाणिक मानकर कविता को खुली छुट दी है –
न उर्दू से परहेज रखा न संस्कृत से, न केवल बोलचाल की भाषा तक
सीमित रहा और न ही पारंपरिक काव्य – भाषा तक”[8]
दरअसल कुंवर की कविता में भाषा और विषयवस्तु
विश्लेषण की नहीं संश्लेषण की मांग करती है। उसमें कई रंग, आकृतियाँ और विचार हैं परन्तु उनकी अधिकता इस रूप में नहीं की आपसी भेद मिट
जाए। उनकी कविता कल्पना के सही अनुपात और यथार्थ के ठोस संतुलन की कविता है, जिसके निर्माण में भाषिक बहुलता एक अनिवार्य तत्व है। इस बात का मूल्यांकन हम
इस रूप में भी कर सकते हैं कि कवि जिस जमीन की उपज है वह नई कविता या ‘तीसरा
सप्तक’ की जमीन है, इस काव्यान्दोलन की एक अनिवार्य कड़ी है परंपरा से अलगाव। इनमें
से कुछ कवि तो परंपरा को ध्वस्त करने में ही कविता की सार्थकता देखते हैं ‘इस दिशा
से उस दिशा तक छुटने का सुख’। यहाँ परंपरा की ‘सीढियों’ के टूटने पर सुख बोध था। लेकिन
कुंवर नारायण इन मतों को लेकर कहीं भी ‘वोकल’ नहीं हैं। इतिहास, मिथक, पुराण और परंपरा जिस विराट काव्य–सौंदर्य के साथ प्रकट होते
हैं उसका सशक्त माध्यम वह भाषिक बहुलता ही रही जिसका कवि ने परिष्कार किया, अपनत्व दिखाया और नए बोध के साथ पुनः प्रचलित किया। स्मृतियों का बोध संबंधों
के जीवित रहने का प्रमाण होते हैं, स्मृतिहीनता कुछ और नहीं
सम्बन्धहीनता ही है, उतरोत्तर जटिल होती सभ्यता में चुनौतियों का सामना आज का
मनुष्य केवल आधुनिक होकर नहीं कर सकता जब तक की उसकी आधुनिकता में स्मृतियों का
वजूद न हो। इन स्मृतियों में दर्शन-पुराण से लेकर इतिहास-बोध तक शामिल हैं - परन्तु
यहाँ पुनरावृति के रूप में नहीं पुनर्सृजन के रूप में। यही देशज आधुनिकता है जिसकी
निर्मिति के लिए पुराने शब्दों को रगड़ा जाता है।
अतः कुंवर नारायण की कविता हर उस भाषा – बोध से गाढ़े
सम्बन्ध की कविता है जो मनुष्य की गरिमा को आंच देती है और हर तरह की कुरूपता के
विरुद्ध है, ‘चक्रव्यूह’ कविता की ये पंक्ति है ‘मैं बलिदान इस संघर्ष
में, कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर, जो जिंदगी के नाम पर हारा गया ... जिसको पूज कर मारा गया’[9] लोकतंत्र और
जनता जैसे प्रचलित शब्दों को बिना अपनाए, मिथकीय आख्यान के भीतर कवि
ने जो बिम्ब उभारा है वह न केवल आधुनिक है बल्कि समकालीन जीवन की त्रासदी को
ज्यादा सटीक ढंग से व्यक्त भी करता है। देवीशंकर अवस्थी ने उनकी भाषा पर लिखा कि “कुंवर
नारायण के काव्य का ‘डिक्शन’ पहले से ही कुछ असामान्य रहा है। विरामचिह्नों, पैरेंथिटिक शब्दों, कभी नितांत लम्बे एवं कभी
एकदम छोटे वाक्यों, अनकहे पर कुछ कहते हुए छूटे हुए स्थान (स्पेस), कभी अटपटी शब्द योजना आदि के द्वारा कवि ने जिस गठन शैली को उपस्थित किया है
वह हमारी भाषा की क्षमता को बढ़ाता है ...”[10]
अपने पाँच कविता संग्रहों ‘चक्रव्यूह’(1956), ‘परिवेश: हम तुम’(1961), ‘आमने सामने’(1979), ‘कोई दूसरा नहीं’(1993), ‘इन दिनों’(2000) जिनमें ‘तीसरा सप्तक’(1959) के साथ-साथ दो प्रबंधात्मक कृति ‘आत्मजयी’ (1965) और ‘वाजश्रवा के बहाने’(2008) शामिल हैं; के
माध्यम से कुंवर नारायण ने काव्य-भाषा की एक ऐसी पहचान बनाई है जिसे आज हम
‘काव्य-भाषा की कुंवर नारायणी पहचान’ कह सकते हैं, मतलब बोलचाल की भाषा होते हुए भी प्रगल्भ, अनुभूति के स्तर पर अत्यधिक सूक्ष्म और अनेकार्थता की संभावना से युक्त भाषा। उनकी
एक कविता है ‘तुमने देखा’[11], उसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं ‘मैंने चाहा, तुमसे अधिक सुन्दर कुछ कहूँ, उस विरल क्षण की अद्वितीय
व्याख्या में, सदियों तक रहूँ, लेकिन अव्यक्त, लिए मीठा-सा दर्द, बिखर गया इधर-उधर, मोहताज शब्द ...।’ कविता ख़त्म हुई। लेकिन वह घुमड़ती रहती है, केवल एक प्रेम कविता की वजह से नहीं बल्कि शब्द-शक्ति की वजह से। इस कविता में
एक जगह कवि ‘सफ़ेद-लाल गुलाबों’ के शरारती गुच्छे को अपने पास बुलाना चाहता है, फूल तो नहीं आते ‘मगर बुलाने पर भी, एक भीनी-सी नाजुक
खुशबू, पास खड़ी हो जाए आके’ में कवि की अब तक की अव्यक्त चाहना की
पूर्व सूचना मिलती है। पर यहाँ दृश्य की उपस्थिति और उस उपस्थित की और अधिक
उपस्थिति की चाहत में, उसकी व्याख्या में, भाषा का बिखराव प्रेम को और अधिक गहरा कर देता है। अपनी भाव–प्रवणता के बावजूद
शब्द यहाँ मोहताज हैं। अज्ञेय ऐसी जगहों पर ‘मौन’ का सहारा लेते हैं, मानो वही साध्य हो – लगता है कि भाषा की सारी बारीकी अंततः ‘मौन-अभिव्यंजना’
में समायी जा रही है; परन्तु कुंवर नारायण शब्दों को मोहताज मानते हुए भी उसके गढ़न
से च्युत नहीं हैं, भाषा उनके यहाँ इस लायक है कि ‘उस विरल क्षण की अद्वितीय
व्याख्या’ में रत है, इस क्रम में शब्द बिखर रहा है, मोहताज हो रहा है; लेकिन ‘मीठा-सा दर्द’ लिए ‘तुमसे अधिक सुन्दर कुछ कहूँ’ के
भाव का भाषायी आवेग अनवरत कुछ निर्मित करने में लिप्त है। फिर भी शब्दों को बार
बार बिखरते हुए–मोहताज होते हुए जब हम पाते हैं, तो उस प्रक्रिया पर भी उतना ही प्यार आता है जितना कि उस क्षण पर जिसमें कवि ‘सदियों
तक’ रहना चाहता है। समाधि की जगह व्याकुलता या फिर मौन के सफल अमूर्तन की जगह
अभिव्यक्ति की असफल और मधुर संलग्नता कुंवर नारायण को भाव और भाषा दोनों ही जमीन
पर अज्ञेय से बिलकुल अलग कर देती है। अतः कुंवर नारायण ने अपनी भाषिक पहचान अज्ञेय
के समय में ही बना ली थी। मुक्तिबोध ने कुंवर नारायण की भाषा पर संभवतः इसीलिए
टिप्पणी करते हुए कहा कि “कुंवर नारायण ने अपना एक शिल्प विकसित कर लिया है, जिसमें कहने की सादगी, संवेदना की तीव्रता, रंगों की गहराई और ख्यालों की लकीरें साफ़ साफ़ उभर कर आती हैं। ..यदि मैं अपनी
व्यक्तिगत शब्दावली में कहूँ तो उसका टेकनीक, वस्तुतः ,जनतांत्रिक है ”[12]
कवि ने कविता को ‘जीवन से बेहद प्यार की भाषा’
माना है और कहा कि ‘कविता उपलब्ध नहीं होती, अन्वेषित होती है’ अर्थात जीवन से बेहद प्यार की वजह से कविता की ओर स्वाभाविक
रूप से जाती भाषा अपनी प्रकृति में अन्वेषी होगी। यह कवि का अपना एक ऐसा निष्कर्ष
है जो जीवन और भाषा दोनों को एक साथ साधता है ‘भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में, आग यदि लगी तो पहले वहां लगेगी, जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी, अपनी जमीन से रस खीँच सकनेवाली शक्तियां’[13]; यह मामला
केवल भाषा का ही नहीं जीवन दर्शन का भी है क्योंकि ‘एक पेड़ जब सूखता, सबसे पहले सूखते, उसके सबसे कोमल हिस्से – उसके फूल, उसकी पत्तियां’ यानि की नयी अन्वेषित अनुभूति को समेटने और फिर व्यक्त करने की
दोहरी जिम्मेवारी है, इस क्रम में रस-क्षरण और सूक्ष्मता पर निगाह रखते हुए इस
जटिल दौर में उसे सहेजे रखने का एहसास भी है। जीवन और भाषा दोनों का सूखना तय है
यदि वे किसी कृत्रिम ढर्रे को अपना लेंगी अर्थात ‘प्लास्टिक के पेड़ ,नायिलान के
फूल, रबर की चिड़ियाँ’। भाषा की यह आवाज, वह भी बिना शोर के आज तक हिंदी कविता में सुनी जाती है। कवि के शब्दों में “कविता
करते समय मेरी ख़ास चिंता यह रहती है कि शब्दों का, भाषा के उस विशेष दृष्टिकोण से इस्तेमाल हो जो मूलतः साहित्यिक है यानि की
जिसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य और उसके वृहत्तर हितों से है जिसे बराबर खोजते और साफ़
करते रहना जरूरी है क्यूंकि उसे ही धोखा देना सबसे आसान और आकर्षक है”[14]
इस तरह शोर करने की जगह सभ्यता की हर हड़बड़ी, गड़बड़ी और लड़खड़ाहट को अपनी पैनी भाषा-दृष्टी से भेदते हुए कविता में दर्ज करने
का शालीन तरीका ही कुंवर नारायण को समकालीन कवियों में अलग पहचान देता है। दुष्यंत
कुमार के शब्दों में “वास्तव में कुंवर नारायण ऐसे कवि हैं, जो अपनी अभिव्यक्ति में सादे, कथ्य में अत्यंत पैने और
प्रभाव उत्पन्न करने योग्य भाषा के निर्माण में बेजोड़ हैं ”[15] भाषा को लेकर कई कविताएँ कुंवर नारायण ने लिखीं है। कई
बार वे जीवन और कविता दोनों के गंभीर सवालों को भाषा का भी सवाल मानते हैं ‘वह आदमी
की भाषा में, कहीं किसी तरह जिन्दा रहे, बस’। आदमी के बचने की पहली शर्त भाषा का बचा रहना है, तभी वह आदमी की अपनी भाषा होगी और भाषा भी वो नहीं ‘जिसमें जड़ों से रस खीँचने
की शक्ति न हो’; कवि सदैव आदमी की एक ऐसी भाषा को पा लेने के मशक्कत में है जिसे
वह पहले ख़ुद की कसौटी पर परखता है अर्थात प्रमाणित करता है ‘भाव की परिवर्तिनी
भाषा, मुझे अपने असल से आँक लेने दो यहीं:’[16] अतः कवि के यहाँ भाषा, कविता और जीवन का एक पूरा दर्शन मौजूद है जिसमें आदमी के बने रहने की चिंता का
शोर नहीं बल्कि भरोसा है अपनी परखी-प्रामाणिक भाषा पर जिससे जन्मी ‘कविता वक्तव्य
नहीं गवाह है .... कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता, भाषा में उसका बयान, जिसका पूरा मतलब है सच्चाई, जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इंसान’[17] धूमिल के लिए
कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है, उसकी बौखलाहट का बयान है पर कुंवर नारायण काव्य-सिद्धांत
के इस सर्वमान्य रास्ते से गुजरते हुए भी धूमिल के भाव बोध से अलग हो जाते हैं। धूमिल
कविता में ‘आदमी’ की ख़ोज करके रुक जाते हैं, सच की बयानबाजी और ‘भूख से तनी हुई मुट्ठी’ के नक्सलबाड़ी अभिव्यक्ति के बाद
कविता की प्रक्रिया थम जाती है परन्तु कुंवर नारायण ‘कविता’ को थोडा आगे ले जाते
हैं, यह जानते हुए भी कि ‘लोगों और चीजों के वर्णन, भाषा के बीच की खाली जगहों में गिर जाते’ हैं फिर भी कविता ‘जिसकी पूरी कोशिश
है बेहतर इंसान’; यानि ‘शेपिंग’ या निर्मिति का मामला केवल यह नहीं है कि कविता ‘गवाह’
है या सिर्फ़ सच का ‘बयान’ है बल्कि इंसान के भीतर की भी निर्मिति (बेहतर इंसान) को
लेकर उतनी ही सजग और आस्वस्थ है। यहाँ कविता के पास ‘निर्मिति’ की दोहरी
जिम्मेवारी है जिससे गुजरकर परिस्थितियाँ और इंसान दोनों की समझ बेहतर और साफ़ बन
जाती है । इसीलिए कवि बार-बार कहता है ‘आज मैं शब्द नहीं, किसी ऐसे विश्वास की ख़ोज
में हूँ, जिसे आदमी में पा सकूँ’।
लेकिन यह ध्यान रखने वाली बात है कि कविता में
विषय-वस्तु की गंभीरता सदैव भाषा के गूढ़ शिल्प का निर्वाह नहीं करती, बल्कि कुंवर नारायण कुछ कविताएँ रघुवीर सहाय की चलती भाषा की याद दिला देतीं
हैं ‘और मैं आँकड़े का काटा, चीखता चला जा रहा था, कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं’[18] या फिर ‘काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैया लाल की? इस गाँव से उस गाँव तक, नंगे बदन, फेंटा कसे, बारात किसकी ढो रहें? किसकी कहारी में फंसे? यह
क़र्ज़ पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारों साल की। काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैया लाल
की? कविता की लय में गद्यात्मक ध्वनियों को गुम्फित करने का काम भी कुंवर नारायण
ने भी बख़ूबी किया है। रघुवीर सहाय का ‘हरचना’ आरोपित राष्ट्रवाद को क्षत-विक्षत
करता है तो ‘पालकी’[19] कविता में
‘कन्हैया लाल की’ जय में शोषण के सामाजिक-आर्थिक और नकली सांस्कृतिक भूमि दरकती है
जहाँ ‘काँधे धरी यह पालकी ला ला अशर्फी लाल की’ है। रघुवीर सहाय जहाँ
छद्म-राष्ट्रवाद के विरुद्ध अखिल भारतीय राजनितिक जागरूकता को काव्य-भूमि बनाते हैं
वहीं कुंवर नारायण गाँव में घुस जाते हैं, शोषण के बेहद सूक्ष्म परत को पकड़ते हुए, और ऐसा करते हुए वे भाषा-शास्त्र (फ़िलोलोजी) के नए-पुराने
सांस्कृतिक बिम्बों का इस्तमाल करते हैं। रमेशचंद्र शाह ने टिपण्णी की कि “मैं
नहीं जानता भरोसे की भाषा किसे कहते हैं। न तो यहाँ परंपरा और संस्कृति की दुहाई
है, न पिछली भावभूमियों के सहारे वेदना-तंत्र का अनुकूलन करने वाली वग्मिता की ही
यहाँ कोई गुंजाइश है। और कवि भी क्या यहाँ तक यूँ ही पहुँच गया है?”[20] इस लिहाज से देखें तो रघुवीर सहाय राजनितिक कवि हैं
और कुंवर नारायण सांस्कृतिक कवि, इसकी एक वजह यह भी है कि
कुंवर नारायण के यहाँ बिम्ब और शब्द का चुनाव नयी कविता आन्दोलन के कवियों और बाद
के भी कवियों के प्रचलित शब्द-कोषों से सर्वथा भिन्न है, सांस्कृतिक है।
कुंवर की भाषा की सूक्ष्मता शहर से लेकर गाँव, वर्तमान से लेकर इतिहास, बाजार से लेकर दर्शन एवं
समकालीन राजनीति से लेकर पुराण और मिथक तक, देश से लेकर देशातीत पसरी हुई है। उनकी कविता में अनुभूत-सत्य न तो भाव के
स्तर पर विच्छिन्न है और न ही भाषा के स्तर पर, वह एक साथ कई चीजों को समेटे हुए है, उसमें एक साथ कई चीजें
उपस्थित हैं –वर्तमान, इतिहास, मिथक, पुराण, किवदंतियां, राजनीति, दर्शन। इसका श्रेष्ठ नमूना ‘लखनऊ’[21] कविता है, चलती भाषा में वर्णित एक ‘क्लासिक’ का दर्द, परिवर्तन और परंपरा का पूरा बोध। जिसमें भाषा सहायक क्रिया के रूप में नहीं
बल्कि स्वयं एक अंतर्दृष्टि के रूप में उभरती है, जिसके सहारे के बिना आज के ‘लखनऊ’ का दर्शन संभव नहीं। यह प्रतीकात्मक रूप से जितना
लखनऊ है उतना भारत भी है। यहाँ ‘आत्मजयी’ वाला कवि अपनी भाष-शृंखला को गला कर भाषा
की नयी लड़ियाँ बनाता है, विषय की गंभीरता के बावजूद
भाषा बोझ नहीं बनती बल्कि रुई के फ़ाहे की तरह हल्की और बेदाग़ है ‘ख्वाहिशों की जगह
बहसों से काम चलाया, और शामे-अवध को शामते–अवध की तरह बिताया।’ कविता में ‘कॉफ़ी-हाउस’, ‘हज़रतगंज’, ‘अमीनाबाद’ और ‘चौक’ में बंटा लखनऊ क्रमशः साहित्य, नई जीवन-पद्धति, पुरानी विरासत और संक्रमण के इलाके में बंटा आस्था और ढ़र्रे
का चार केंद्र है जिनमें घुमड़ती हुई जिंदगी नयी तब्दीलियों से कहीं भी राहत नहीं
पाती और हालात ऐसे हैं कि ‘नई शामे-अवध, दस सेकेण्ड में समझाने-समझनेवाली किसी बात
को, करीब दो घंटे की बहस के बाद समझा-समझाया’। यह शहर ‘जिंदगी
को तरसते मरे हुए नौजवानों’ का जितना है, उतना ही ‘कमान-कमर नवाब के
झुके हुए, शरीफ़ आदाब-सा’ का भी है, ‘सरशार और मजाज़’ का तो है ही ‘किसी शौक़ीन और हाय किसी बेनियाज़’ का भी है। कविता
अंतिम पंक्ति में जाकर मार्मिक हो जाती है, केवल एक शब्द से –‘क़िब्ला’। क़िब्ला का एक अर्थ मक्के में वह स्थान है जहाँ
काला पत्थर स्थापित है और जिसकी ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है, एक दूसरे अर्थ में काबा के बराबर सम्मानित और प्रतिष्ठित मानते हुए संबोधन भी है
– क़िब्ला अर्थात सम्मानीय। ‘यह है क़िब्ला, हमारा और आपका लखनऊ’ पर आकर जैसे ही
कविता ख़त्म होती है एक पीड़ित की आवाज भर्रा जाती है, भर्राए गले में भी वह अदब से ही पेश आता है, सम्मानीय संबोधन के पीछे का दर्द और उसकी अभिव्यक्ति के सलीके दोनों की भाषा
अपने गठन की नज़ाकत में भी मार्मिकता पैदा कर देती है, यही है कुंवर नारायण की विशेषता, परिचित शब्द होते हुए भी
अर्थानांतरण। उर्दू-फ़ारसी के शब्द-विधान के मार्फ़त परंपरा-बोध और उसकी त्रासदी को
दिखने से पहले ‘किसी नौजवान के जवान तरीक़ों पर त्यौरियां चढ़ाए,एक टूटी आरामकुर्सी
पर, अधलेटे,अधमरे बूढ़े-सा खांसता हुआ लखनऊ’ का बोलचाल की भाषा
में आधुनिक और टटका बिम्ब, बिम्ब यहाँ जिस परिवर्तन के
बोध को जगाते हैं उसके लिए ‘क्लासिक’ भाषा अपेक्षित नहीं, जहाँ केवल आज को दिखाना है वहां भाषा का ‘टोन’ जुदा है और जहाँ आज को दिखने
में परंपरा-बोध भी शामिल है वहां भाषा का गठन कुछ और ही है। ध्यान रहे कि यह वही
लखनऊ है जो ‘मुश्किल से शुरू हुई दुनिया’[22] में एक दूसरे
बोध में आता है ‘ग़दर के लखनऊ से भी ज्यादा पुराना, शायद वह तब का था, जब अवध के नवाबों की राजधानी, फ़ैज़ाबाद थी, या और पहले का, जब अयोध्या बसी पुराकाल
में’। बोध के कई स्तर हैं, एक लखनऊ में न जाने कितने लखनऊ और क्या-क्या नहीं खोजे
जा सकते हैं ! ऐसी ही कविताओं पर स्वयं कवि का कहना है कि “कविता मेरे लिए एक
अनुभव या भाव की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, वह ज्यादा फैले, ज्यादा गहरे भाषायी स्थान ( लिंग्विस्टिक स्पेस ) की रचना
या ख़ोज भी है”[23]
अपनी रचनात्मक यात्रा में कुंवर नारायण के काव्यमूल्यों ने विश्वसनीय
भाषा की अनवरत तलाश के लिए जितना संघर्ष किया है वह अन्यथा दुर्लभ है, ऐसा इसलिए भी है कि आधुनिक समय ने जिन तरह की चुनौतियाँ खड़ी कर दीं हैं उनसे
जूझने के लिए मिथक, इतिहास, पुराण और फैंटेसी (भी) को
काव्य-भाषा के ‘टूल्स’के रूप में इस्तेमाल और सफल निर्वाह असाध्य चुनौती से कम
नहीं मगर कवि ने ऐसा कर दिखाया। ‘एक जलते हुए मकान के सामने’, ‘आधी रात’, ‘एक दूसरे से कटकर’, ‘तितलियों के देश में’, ‘सन्नाटा या शोर’ और यहाँ तक
की ‘आजकल कबीरदास’ जैसी कविता में फैंटेसी के शिल्प की जो विविधता है, मुक्तिबोध
के बाद ऐसा प्रयोगधर्मी कवि दूसरा नहीं दिखता। कहना न होगा कि इन कविताओं में
सभ्यता-समीक्षा ज्यादा तीख़े ढ़ंग से हुई है। ’कटे हुए हाथ’ के लापता होने की
त्रासदी, तितलियों के देश का तिलस्म या फिर कबीर की व्याख्या में
देश-काल का अतिक्रमण कराते हुए जिस तरह से बोध पैदा किया गया है उसे सपाट होती
जीवन-दृष्टि के विरुद्ध जाकर ही समझा जा सकता है और ऐसे में भाषा में कोई ऐंठन
नहीं, न वह कोई भ्रम रचती है ‘कौन कह सकता है कि जिसे, हम जी रहे आज, वह कल की मृत्यु नहीं, और जिसे हम जी चुके कल, वह कल का भविष्य नहीं?’[24]
जीवन तिथियों की गणना या वर्गीकरण नहीं, वह कलेंडर के अनुशासन से तय
नहीं होता, उसे काल में नहीं बल्कि मूल्यों से सतत जुड़ाव और कटाव के
रूप में ही देखा जा सकता है। यहाँ ‘आज’ और ‘कल’ की व्याखया में ‘कल और आज’ भी है
–अर्थात कुंवर नारायण की कविता दर्शन को पहले सहज भाषा में गलाती है फिर उसका मर्म
निकालकर सामने रख देती है। यही बात उनके मिथकीय प्रयोग और पुराण सम्बन्धी कविताओं
के लिए भी लागू होती है जिनपर सबसे ज्यादा आलोचकों ने लिखा है। कुंवर नारायण की
कविताओं की ताकत उनके बिम्ब हैं, वैसे प्रतीक, अप्रस्तुत-योजना और छंद-योजना को भी उनकी ताकत के रूप में देखा जाता है लेकिन
बिबों का प्रयोग आदि से अंत तक की तमाम तरह की कविताओं में जितने स्पष्ट ढ़ंग से
किया गया है वह कुंवर नारायण के बड़े कवि कहे जाने की सबसे बड़ी वजह है ‘उस लकड़ी के
टूटे पुल पर, इस तरह पड़ रही धूप छांह, जैसे कोई प्यासा चीता, झरने
में अगले पंजे रख पानी पीता’[25] बिम्ब को कवि
बार-बार गलाता है, वह मिथक में, पुराण-कथा में, इतिहास की पुनार्वाख्या में या परंपरा की पुनर्निर्मिति में जहाँ-जहाँ बिम्ब
आता है वहां वहां आधुनिक–बोध को तैयार कर देता है, पुराने में नए के रचनात्मक विन्यास की भाषायी तमीज़ से कवि ने नयी परिपाटी को
जन्म दिया है; जैसे, ‘चक्रव्यूह’ की कविता ‘युद्ध की प्रतिध्वनि जगाकर, जो हज़ारों बार दुहराई गई, रक्त की विरुदावली कुछ और रंगकर, लोरियों के संग जो गई गयी’[26] या फिर
‘आत्मजयी’ में जो ‘अतीत-बोध’ है ‘ये जो खंडहरों से ढके साम्राज्य| ये इंटों की
दरारों से झांकते सम्राट| ये लुढ़के पड़े ढीले खम्भे, कि समय की सत्ता के अखंड
कोदंड?’[27]
को देखने पर जहाँ कविता में हिंसा को वैधानिक और अनिवार्य बनाने की कुटिल
प्रक्रियाओं को दो-दो विश्व-युद्धों की पृष्ठभूमि में और दो देशों के बीच के
युद्धों की पृष्ठभूमि में देख सकते हैं; तो दूसरे में हम देखें तो ‘कोदंड’ शब्द का
प्रयोग संभवतः ’राम की शक्तिपूजा’ के बाद पहली बार हुआ है, निराला ने लिखा था ‘विध्दांग-बद्ध-कोदण्ड-मुष्टि
खर रुधिर स्राव’ बिंधे हुए अंग वाले लहूलुहान राम धनुष की मूठ पकडे हुए हैं। ‘कोदंड’
जहाँ निराला के यहाँ पराजय-बोध से ग्रसित राम के गौरव की रक्षा के सन्दर्भ में आया
है वही कुंवर नारायण के यहाँ यह त्रासदी है, सत्ता के युद्दक-सातत्य (अखंड-शब्द इसी अर्थ में आया है) और उसकी अर्थहीनता को
दिखाने के सन्दर्भ में - बिम्ब को बदलने के नए अंदाज में है –कोदंड; तो वही तीसरी
कविता में पहले शब्द ‘लौटाना’ और दूसरे शब्द ‘पुस्तक’ से जो बिम्ब उभरा है वह एक
अर्थ में जीवन के अवसान के दृश्य के सहारे मृत्यु का जीवनपरक मूल्यांकन है क्योंकि
उसके खाली ‘पदस्थल’ पर वह किताब रख दी जाती है, तो दूसरे अर्थ में मृत्यु के उपरांत प्रकृति में विलय के चिरपरिचित एहसास का पुनः
स्मरण करा कर कवि अंतिम सत्य को विशेष सन्दर्भ में उद्घाटित करता है| बिम्ब का
सूक्ष्म प्रयोग पौराणिक-कथा से लेकर नए फैंटेसी तक की सृजन-प्रक्रिया में और वह भी
विशेष रूप से आधुनिकता-बोध के सन्दर्भ में हाल के कवियों में सर्वाधिक कुंवर
नारायण ने किया है। हालाँकि कवि का मानना है कि “मैंने भाषा और शब्दों के प्रति
अपनी अनुभूतियों, चिंतन और प्रतीतियों को बिलकुल खुला रखा है – उन्हें शब्दों
के सम्पूर्ण उपलब्ध सम्पदा के बीच, कविता करते समय बिलकुल उन्मुक्त विचरण करने
दिया, बिना यह माने कि कविता की कोई ख़ास भाषा होती है या होनो
चाहिए|कविता की वही भाषा विशेष है जो एक कविता विशेष के सम्पूर्ण रचनात्मक तर्क और
विवेक से निकलती है”[28]
(डॉ. प्रवीण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में हिन्दी के सहायक अध्यापक हैं. प्रवीण कुमार मौज़ूदा वक़्त के चर्चित कहानीकार हैं. अपनी कहानियों के माध्यम से उन्होंने अलग पहचान बनाई है. अब तक उनके दो कहानी संग्रह – छबीला रंगबाज़ का शहर, वास्को डी गामा की साइकिल- प्रकाशित हो चुके हैं | कोरोना काल की विभीषिका पर आधारित उनका उपन्यास ‘अमर देसवा’ को ‘व्यवस्था के तिलिस्म में नागरिकता का आख्यान’ माना जा रहा है.)
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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