शोध सार : हिंदी साहित्य के इतिहास में नाट्य कला को एक ऊंचे आयाम पर पहुंचाने वाले मोहन राकेश हिंदी साहित्य के सबसे सफल नाटककार हैं। साहित्य का मूल उद्देश्य होता है-आनंद और यह आनंद हमें तब प्राप्त होगा जब कोई कृति सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों पर भी खरी उतरे। प्रस्तुत शोध आलेख में हम सौंदर्य, उसके भारतीय दृष्टिकोण के विवेचन, उसके पाश्चात्य विवेचन तथा भौतिक जगत में आनंद की परिव्याप्ति पर चर्चा करेंगे। तत्पश्चात नाटक का सौंदर्यशास्त्रीय विवेचन उसके पांच तत्वों के आधार पर करने के साथ ही मोहन राकेश की अद्वितीय नाट्यकृति ‘आधे अधूरे’ को इन सौंदर्यशास्त्रीय तत्वों के आधार पर परखने का प्रयास करेंगे। कथावस्तु, संवाद, भाषा-शैली, अभिनय, पात्र, सहायक तकनीक, वेशभूषा आदि तथा प्रेक्षानुकूलता के मानदंडों पर यह आधे अधूरे कितना खरा उतरेगा-यही इस शोध आलेख का प्राप्य है।
बीज शब्द : मोहन राकेश, नाटक,
सौंदर्य,
सौंदर्यबोध,
नाट्य-आलेख,
सहायक तकनीक,
प्रेक्षकानूकूलता, भाषा-शैली,
प्रकाश-योजना,
ध्वनि-संगीत,
वेशभूषा,
प्रेक्षा-गृह आदि।
मूल आलेख : हिंदी साहित्य का सामान्य विद्यार्थी जब हिंदी जगत में प्रवेश करता है और साहित्य का अवगाहन करना आरंभ करता है तो उसका सामना सबसे पहले स्वाभाविक रूप से काव्य विधा से होता है। आदिकाल से ही गद्य की अपेक्षा पद्य का विकास हमें दीख पड़ता है। साहित्य का विद्यार्थी आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के बाद आधुनिक काल का अध्ययन करता है तब जा कर उसको गद्य का विकास समझने का अवसर मिलता है और इसी कड़ी में हिंदी गद्य के विकास के विविध पहलुओं को परखते हुए वह हिंदी गद्य की सर्वाधिक प्रभावी विधा नाटक से परिचित होता है। हिंदी साहित्य का अध्ययन एक नया आयाम लिए सामने आता है जब हम मोहन राकेश के नाटक को पढ़ने लगते हैं। अभी तक हिंदी नाटक का विकास समझ रहे होते हैं, भारतेंदु के भारतीयता, सामाजिक जागृति, छुआछूत निवारण, एकता आदि मानक मूल्यों से परिपूर्ण नाटक हम पढ़ रहे होते हैं, प्रसाद जी के उच्च संस्कृतनिष्ठ भाषा व राष्ट्रप्रेम का उत्कट भाव लिए ऐतिहासिक नाटक में डूब उतर कर इस प्रश्न का विविध विद्वानों द्वारा प्रदत्त उत्तरों पर अपना मंतव्य स्थापित कर रहे ही होते हैं कि क्या वाकई प्रसाद जी को उस कम विकसित काल में इतने उच्च स्तरीय नाटक लिखने चाहिए थे या कि अपनी भाषा को थोड़ा सरल किये जाना ठीक रहता? हम इन प्रश्न से रूबरू हो ही रहे होते हैं कि मोहन राकेश का नाटक आधे अधूरे से मिलना होता है। सच कहा जाए तो मिलना होता है लिखने की जगह सामना होता है लिखने का मन था। आधे अधूरे बहा ले जाता है पाठक को अपने साथ और प्रखरता से आगे बढ़ते हुए एकाएक तीव्र संवेदना उत्पन्न करते हुए अंततः हम स्वयं को आधुनिकता के अवांछित प्रदेय के अनचाहे कठघरे में खड़ा पाते हैं। पुस्तक को दो बार पढ़ना जितना लाज़मी था उतना ही लाज़मी था मोहन राकेश जी के अन्य नाटकों के बारे में जानकारी भी प्राप्त करना और उन्हें भी पढ़ना। ज्ञात हुआ कि दो और नाटक हैं, आषाढ़ का एक दिन और लहरों के राजहंस। आश्चर्य की बात यह है कि इन दोनों नाटकों के विषय इतिहास से लिए जाने पर भी इन पर मोहन राकेश की छाप साफ महसूस की जा सकती है। एकबारगी पढ़ने पर इतना अधिक प्रभावित कर सकने वाला यह नाटक नाट्य सौन्दर्य की कसौटी पर कितना खरा है यह तो हम तभी जान पाएंगे जब हमें पता हो कि नाट्य साहित्य की अवधारणा क्या है, उसके प्रमुख तत्व क्या हैं? आइये विचार करें।
सौन्दर्य आँखों को आकृष्ट करता है तथा यह और अधिक विस्तारित रूप
ग्रहण कर के हृदय को आनंदमय बना देता है। ‘आनंद’ शब्द यूं तो एक सामान्य प्रचलित शब्द
है, किन्तु जब यही शब्द साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो अपना अर्थगत विस्तार पाता हुआ ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ तक जा पहुँचता है। आनंद की परिव्याप्ति वस्तुतः शारीरिक और मानसिक
स्तरों को पार करती हुई अंततः आत्मिक स्तर तक होती है। सौन्दर्य का संबंध इस
ब्रह्मानन्द तक न भी पहुंचता हो, तो भी उन इंद्रियों को तो परितुष्ट
करता ही है जो हमें उन साहित्यिक कृतियों को हृदयंगम कराने का हेतु है। यह ‘आनंद’ शब्द अंतरतम तक तभी गुंजायमान होता है, जब मनुष्य में लाभ-हानि की चिंता के
स्थान पर देने ही का भाव हो।
सौन्दर्य का भारतीय विवेचन -
जहाँ तक सौन्दर्य के भारतीय विवेचन का प्रश्न है, वैदिक काल से ही इस विषय पर चिंतन होता आया है। सौन्दर्य का संबंध
शरीर से है या चेतना से? सौन्दर्य आत्मनिष्ठ है या वस्तुनिष्ठ?आनंद की प्राप्ति की राह में इस सौन्दर्य का भी विशेष महत्त्व है।
हालांकि प्राचीनतम भारतीय साहित्य वेद में सीधे सीधे सौन्दर्य शब्द का उल्लेख न
मिल कर आनंद, मोह आदि शब्द मिलते हैं। डॉ॰ फतेह सिंह का कहना है कि “यद्यपि प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में सुंदर, सौन्दर्य आदि शब्दों का प्रयोग भी
नहीं हुआ है, परंतु वहाँ नंद, मोह, आमोद, प्रमोद, प्रिय आदि शब्द द्वारा जिस अनुभूति की
ओर संकेत किया गया है, वह वस्तुतः वही आनंदानुभूति है।”1 यही भाव वैदिक कालीन मनुष्य की सौन्दर्य चेतना को भी रेखांकित भी
करते हैं। उस समय सौन्दर्य आध्यात्मिकता लिए हुए था तथा प्रकृति के विविध
उपागमों जैसे पर्वत, सागर, वायु, सूर्य सभी में दृशमान था। इसके बाद आए रामायण काल में थोड़ा सा
परिवर्तन इस रूप में आता है कि अब मानव का मन सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक समस्याओं से जूझना शुरू करता
है। “वैदिक युग की अनुभूति को दिव्य सौन्दर्य कहें तो रामायण काल की
अनुभूति को मानव सौन्दर्य कह सकते हैं।”2 रामायण में राम एक ऐसे पात्र हैं जो परिवेशगत सभी समस्याओं से जूझ
रहे हैं और इसी मे वे एक दिव्य सौन्दर्य से महक उठते हैं। “आनंद की अनुभूति में राम का उदात्त
शोक उसका तत्व है और सौन्दर्य में करुणा को उचित स्थान देना रामायण का महत्त्व है।”3
एक और महाकाव्य महाभारत में सौंदर्य शांत रस की धारा बहाता हुआ है जो
कर्म और संघर्ष भी अपने में समाहित किए है। एक तरफ कौरवों का ऐश्वर्य-मद है, तो दूसरी ओर पांडवों का नीति-धर्म-बंधन। उस पर सोने पे सुहागा ये कि
कृष्ण का उपदेश अर्जुन को व्यक्तिगत सुख-दुख, माया-मोहादि से परे ले जाता है। “जीवन में विराट दृष्टि से मोह दूर हो जाता है, आँखें उज्ज्वल और तेजयुक्त, गति में वीरता और हृदय में एक अद्भुत
प्रसाद का आविर्भाव होता है। व्यास ने इस गंभीर अनुभव को शांति कहा है।”4 इसी गरिमायुक्त जीवन में उपलब्ध शांति में सौन्दर्य की एक आभा
अंतर्निहित है। वेदों में जो सौन्दर्य अगोचर दिव्यता लिए था भक्तिकाल में आकर वह
मूर्तिमत्त व प्रत्यक्ष हो गया। डॉ॰ नगेंद्र लिखते हैं-“यहाँ भगवान की दो रूपों की कल्पना की
गई है-ऐश्वर्य रूप और माधुर्य रूप। ऐश्वर्य रूप में भगवान की अनंत शक्ति और
अनुभूतियों का वर्णन और माधुर्य रूपों में अनेक अनुरंजकों सौंदर्य का। ------उसमें
दिव्य सौन्दर्य के प्रति भक्त की भावना का विवेचन तो विस्तार के साथ हुआ है किन्तु
भावना के विषयभूत उस दिव्य सौन्दर्य का विवेचन अत्यंत विरल है।”5
सौन्दर्य के संबंध में जब आधुनिक चिंतकों के मत देखे जाते हैं तो
सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्द दीख पड़ते हैं-“क्षुधा, तृप्ति की सनक में ही जिसमें एकेश्वर
न हो उठे, हमारा जिसमें उसके फंदे से अलग हो सके, सौन्दर्य की ऐसी चेष्टा दिखाई पड़ती
है।”6 यानी मात्र आवश्यकताओं की ही बात तक
सीमित न रह कर आंतरिक आनंद से जो व्यक्ति स्वयं के चित्त को जोड़ता है, वही सच्चा सौन्दर्य देख पता है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक
प्रखर चिंतक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी इस पर विचार करते हुए सुस्पष्ट शब्दों
में कहते हैं-“कुछ रूप रंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो हमारे मन में आते ही थोड़ी
देर के लिए हमारी सत्ता पर ऐसा अधिकार कर लेती है कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता है
और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में परिणत हो जाते हैं। हमारी अन्तःकरण की यह
तदाकार परिणति सौन्दर्य की अनुभूति है।”7
तो, भारतीय चिंतक सौन्दर्य को चित्त की
मुक्तावस्था मानते हैं।
सौन्दर्य का पाश्चात्य विवेचन –
ईसा पूर्व 580 के आसपास से ही पश्चिमी दर्शनिकों ने
सौन्दर्य पर चिंतन आरंभ कर दिया था। पाइथागोरस ने दिव्य के अर्थ में इसका एकाध जगह
विवेचन किया तो सुकरात ने अपने उपयोगितावादी चिंतन से सौन्दर्य को लिया है-“जो वस्तु उपयोगी है वह उस कार्य के लिए सौंदर्यशाली है और जो वस्तु
उपयोगी नहीं है उसमें सौन्दर्य नहीं है।”8 हालांकि अन्यत्र किसी और संदर्भ में सुकरात ने सौन्दर्य के लिए
प्रीति शब्द का प्रयोग कर उसे आध्यात्मिक स्पर्श भी दिया है। प्रख्यात विचारक
प्लेटो शारीरिक, मानसिक और नैतिक सौन्दर्य को महत्त्व देते हुआ भी इन सब को क्षण
भंगुर मानते है। आत्म-चैतन्य का जगत सौंदर्यबोध सर्वोपरि तथा आनंद से युक्त होता
है ऐसा मानते हुए वे कहते हैं कि “सौन्दर्यवान वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं
तथा समाप्त हो जाती हैं, पर यह सौन्दर्य ना तो प्रारम्भ ही
होता है ना समाप्त होता है। यह शाश्वत, अपरिवर्तनीय और अविनाशी है।
सौंदर्यवान वस्तुएँ उसी शाश्वत सौन्दर्य की क्षणिक अभिव्यक्ति है।”9 उनका शिष्य अरस्तु सौन्दर्य को किसी चरम का अंश होने के कारण वस्तु
को सुंदर न मान कर वस्तु को ही श्रेय देना पसंद करता है- “The beautiful is that which is pleasant because it is good.”10
अरस्तू के बाद आए प्लेटोनिस और लौंजाइनस ने अरस्तू का विरोध करते हुए
प्लेटो के चिंतन को आगे बढ़ाया। लौंजाइनस ने सीधे सीधे सौन्दर्य का नाम तो नहीं
लिया किन्तु उनके द्वारा वर्णित उदात्त की अवधारणा में उदात्तता का आशय सौन्दर्य
से ही लिया जाना चाहिए और लिया जाता है। मध्ययुगीन संत अगस्टिन ब्रह्मांड को
ईश्वर-रचित मान कर इस के सौन्दर्य को ईश्वरीय सौन्दर्य स्वीकारते हैं। एक्विनास ने
अगस्टिन की अवधारणा में आनंद की बात और जोड़ कर पूर्णता प्रदान की- “सुंदर वस्तु वही है जिसकी अवधारणा आनंदपूर्वक की जाए।”11 आधुनिक विचारक
काण्ट ने भी सौन्दर्य को सुखवाद उपयोगितावाद के घेरे से बाहर निकाल कर आनंद से
सीधा संबन्धित किया। और हीगल का चिंतन तो कांट से भी आगे निकाल जाता है, जब वे मनुष्य की सर्वोच्च चेतना की भूमि से सौन्दर्य को जोड़ देते
हैं। वे इस चेतन सौन्दर्य को परम सत्ता के प्रतिरूप स्वीकार कर इसका श्रेष्ठत्व
प्रमाणित करते हैं।
सारतः कहा जा सकता है कि विचारक चाहे भारतीय हो या
पाश्चात्य, सभी ने शब्दों के मामूली हेर फेर से सौन्दर्य को बाह्य उपादानों से
आरंभ करते हुए अंततः परमात्मा से संबन्धित किया है।
भौतिक जगत में आनंद -
भौतिक जगत में आनंद की उत्पत्ति तभी होती है जब इंद्रियों का संयोग
उसके विषयों से होता है। सौन्दर्यशास्त्र की सीमा में श्रवणेंद्रिय व करणेंद्रिय
सुख की स्वीकारोक्ति है। आनंद की उद्भावना करने वाले इस सौन्दर्य की सृष्टि सदैव
कला के माध्यम से होती है। साथ ही कला की उद्भावना कला सम्बद्ध कलाकृति के द्वारा
होती है। इसी का परवर्ती क्रम यह है कि कोई भी कलाकृति संबन्धित माध्यम एवं वांछित
परिवेश से निर्मित होती है। संबन्धित माध्यम से अभिप्राय है कि जैसे पत्थर, धातु, मिट्टी आदि से मूर्ति का, रंग, फ़लक, तूलिका आदि से चित्र का तो स्वर, नाद,ऊर्जा आदि से संगीत का उद्भावन होता है।
कलाएं हृदय को आनंद से परिपूरित करती रहीं हैं और साथ ही कला समीक्षकों को भी आकर्षित करती रहीं हैं। इस तरह सभी कलाओं का विकास उस कला का सौंदर्यशास्त्र भी विकसित करता रहा । नाटक भी एक कला है, बल्कि कहना चाहिए कि एकाधिक कलाओं का संयुक्त रूप है । इसका एकाधिक कलाओं का संयुक्त रूप होना इसके पृथक सौंदर्यशास्त्र विकसित होने में शैथिल्य का कारण भी बना। साथ ही नाटक के स्वरूप और लक्ष्य का अन्य कलाओं की अपेक्षा व्यापक होने के कारण किसी इतर कला का कोई एक सिद्धान्त इस पर भी सांगोपांग स्थापित किया जा सके यह भी संदिग्ध ही रहा। अतः नाटक का सौंदर्यशास्त्र स्थिर करने के लिए एक से अधिक सिद्धांतों का सहारा लेना होता है,जो प्रतीति रूप परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं। जैसा कि शोध लेख के आरंभ मे ही हमने देखा कि सौंदर्यशास्त्र के बारे में उपलब्ध भारतीय व पाश्चात्य विचारकों की अवधारणाओं को तीन सिद्धांतों में वर्गीकृत कर सकते हैं- प्रथम, सौन्दर्य वस्तुनिष्ठ न होकर व्यक्तिनिष्ठ होता है। द्वितीय, सौन्दर्य की उद्भावना कलाकृति के निर्माणकारी अवयवों के संतुलन पर निर्भर है। साफ है कि यह सिद्धान्त प्रथम के विपरीत है। तृतीय, उपयोगितावाद पर आधारित स्थापनाएँ कृति का सामाजिक पक्ष भी विचारती हैं। बहरहाल जब बात नाटक के सौंदर्यशास्त्रीय विवेचन की होती है तो इन तीनों सिद्धांतों में समंजस्य स्थापित कर के उन पर अवलंबित ये पाँच तत्त्व विचारणीय होते हैं- “(1)नाट्य-आलेख, (2) अभिनय एवं पात्र, (3) सहायक तकनीक, (4) प्रेक्षागृह, (5) प्रेक्षकानुकूलता।’’12 आइये हम संक्षेप में इन्हें समझें।
(1) नाट्य-आलेख : यह किसी भी नाटक का प्राण-तत्त्व है।
यह कई मूल विशेषताओं को समेटे महत्त्वपूर्ण हो जाता है। जैसे- अच्छी कहानी, अभिनय की संभावना लिए संवाद योजना, पात्रानुकूल भाषा,रंग संकेतों का समुचित प्रयोग आदि।
(2) अभिनय एवं पात्र : यह तत्त्व लिखित साहित्य को
सहृदय तक संप्रेषित करने का माध्यम है। अभिनय के तीनों प्रकार आंगिक, वाचिक और सात्विक का समुचित सामंजस्य नाटक को सजीव करने में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(3) सहायक तकनीक : रूप-सज्जा, वेषभूषा, प्रकाश व्यवस्था, संगीत और मंच व्यवस्था – इन पाँच तत्त्वों का समुचित और दृश्य
के अनुरूप संयोजन सहायक तकनीक के अंतर्गत समाहित है।
(4) प्रेक्षागृह : नाट्य सौन्दर्य का यह भी एक
महत्त्वपूर्ण उद्भावक तत्त्व है। थिएटर के प्रकार व नाटक के विषयों के अनुकूल इनका
चयन नाट्य सौन्दर्य को कई गुना बढ़ा देता है। प्रोसेनियाम, थ्रस्ट और एरीना थिएटर में
से किसका चयन किया जाना है यह नाटक की प्रकृति पर निर्भर है। जैसे लोक नाटक और
नुक्कड़ नाटक कभी भी प्रोसेनियाम थिएटर में उपयुक्त नहीं प्रतीत होते ।
(5) प्रेक्षकानुकूलता : यह नाट्य सौन्दर्य का एक महत्वपूर्ण
घटक है। क्योंकि कोई भी साहित्य रचना हो, आखिरकार उसका लक्ष्य तो प्रेक्षक ही
है। दर्शकों की रूचि का ध्यान रख कर समस्त नाट्य संयोजन आवश्यक है। जैसे लोक
संस्कार लिए प्रेक्षक वर्ग को ज्यां पाल सार्त्र की किसी कृति का मंचन कर के बताना
साहित्य के दृष्टिकोण से उत्तम हो सकता है, किन्तु प्रेषणीयता के दृष्टिकोण से यह
एक असफल प्रयास ही कहा जाएगा। तो, हमने सौन्दर्य तथा नाटक के सौन्दर्यशास्त्र के विषय में भारतीय और पाश्चात्य विचारों और
उनके आधार पर नाटक के तत्वों पर विचार किया। आइये हम अब यह विचार करने का प्रयास
करें कि क्या मोहन राकेश जी का ‘आधे-अधूरे’ इन सौन्दर्यशास्त्रीय कसौटियों पर
कितना खरा है।
(1) नाट्य-आलेख : जैसा कि हमने जाना
कि यह किसी भी नाटक का प्राण-तत्त्व होता है। नाटक ही क्या, किसी भी विधा का प्राण-तत्त्व उसका आलेख होता है, शेष सभी सौन्दर्य-तत्त्व इसी पर अवलंबित होते हैं। इसके अंतर्गत
विशेष रूप से तीन तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है-(क)कथावस्तु, (ख) संवाद और (ग) भाषा-शैली।
(क) कथावस्तु – कथावस्तु के दृष्टिकोण से ‘आधे अधूरे’ एक अनूठा नाटक है। आधुनिक भौतिकवादी युग में व्यक्ति किस प्रकार अपनी
लालसाएँ भी पूरी करना चाहता है और इस बीच परिवार का भी भौतिक उन्नयन करने का मन
होता है। इस बीच क्या कुछ नहीं टूट जाता उसके भीतर, यही कथानक मे दर्शाया गया है।
महेन्द्रनाथ और सावित्री पति-पत्नी हैं, जिनके अशोक, बिन्नी और किन्नी तीन बच्चे हैं। कसे
हुए कथानक में संवादों के माध्यम से ही कहानी का ज्ञान होता है कि महेंद्र की
आर्थिक स्थिति खराब है और बिन्नी मनोज के साथ घर छोड़ गई है। अशोक आवारागर्दी के
अलावा कोई काम नहीं करता और किन्नी घर मे उचित सार-संभाल न होने के कारण बिगड़ रही
है। सावित्री ऑफिस में काम भी करती है और घर भी संभालती है जिस से वह बहुत परेशान
रहती है । जुनैजा, जगमोहन और अन्य में पूर्णता तलाशती सावित्री की अधूरी-सी महसूस हो
रही ज़िंदगी को बहुत त्वरा से उभारा गया है। काम से लौटते ही सावित्री का चिढ़ना- “यह अच्छा है कि दफ्तर से आओ, तो कोई घर पर दिखे नहीं। कहाँ चले गए
थे तुम?पता नहीं ये क्या तरीका है इस घर का?”13
उन लोगों के आपसी तनाव का असर बच्चों पर भी पड़ता है। खुद सावित्री जब
तब सब कुछ छोड़ कर जाने का मन बनाती है। अंत तक पता चलता है कि हर इंसान अपने ही घर
मे पराया हो जाना अनुभव करता है।महेन्द्रनाथ और सावित्री की तरह ही मध्यमवर्गीय
परिवार एक टूटन में अपना जीवन व्यतीत करते हैं और सिंघानिया जैसे लोगों से हैसियत
में कमजोर होने के बाद भी इसलिए बनाए रखते हैं कि कभी कोई काम आ जाए। “यहाँ पर सब लोग समझते क्या हैं मुझे? एक मशीन, जो कि सब के लिए आटा पीस कर रात को
दिन और दिन को रात करती रहती है। मगर किसी के भी मन में ज़रा सा भी खयाल नहीं है इस
चीज़ के लिए।”14
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि यह नाटक मध्यमवर्गीय परिवार का आर्थिक
दौड़ में लगे रहने, अतृप्त आकांक्षाओं के बने रहने तथा उन के परिणामस्वरूप एक अतृप्त
नारकीय जीवन जीते रहने की मजबूरी को बहुत नाटकीय तरीके से पेश करता है। यह
परिस्थितिजन्य तनाव इतना प्रभावी उभरा है कि कथानक का मुख्य अंश ही बन गया है।
(ख) संवाद: यह नाटक का सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि नाटक का कथ्य, कथानक, भाव, विचार, उद्देश्य, समस्यांकन, पात्रों के अन्तः-बाह्य चरित्र, संवेद्य, संवेदना और अनुभूतियाँ, यहाँ तक कि वातावरण की परिस्थितियों
की वास्तविक अभिव्यक्ति संवादों के माध्यम से होती है। नाट्य-सौन्दर्य का यही वह
तत्त्व है जिससे कथानक की योजना, उसका मध्य, अंत आदि का पता चलता है। ‘आधे अधूरे’ एक ऐसा नाटक है जो अपने तीव्र संवेदना युक्त संवादों के कारण बहुत
प्रसिद्ध हुआ है। आलोच्य नाटक के संवाद अपनी आंतरिक लयात्मकता में मौलिक, सांकेतिक एवं व्यंग्य प्रधान है। नाटक की भाषा में वही आक्रामकता है, जो उसके चरित्र और घटनाओं में हैं। संवाद बहुत रोचकता लिए है तथा
पात्र का अन्य व्यक्ति के प्रति क्या दृष्टिकोण है, उसे उभारने में पूरी तरह सक्षम है।
दृश्य की मांग के अनुरूप संवाद कहीं संक्षिप्त हैं, तो विचारभिव्यक्ति की मांग के अनुरूप
कहीं लंबे भी। जैसे- बिन्नी और अशोक का वार्तालाप द्रष्टव्य है-
“लड़का : हा-हा !
बड़ी लड़की : यह किस बात पर?
लड़का : एक्टिंग देखा?
बड़ी लड़की : किसका ?
लड़का : मेरा !
बड़ी लड़की : तो क्या तू----?
लड़का : उल्लू बना रहा था उसे !
बड़ी लड़की : पता नहीं असल में उल्लू कौन बन रहा था।“15
अचानक बोलते- बोलते रुक जाना और दर्शक को सोचने पर मजबूर कर सकना ‘आधे अधूरे’ शीर्षक की संवादगत सार्थकता भी प्रदर्शित करता है। संवादों की
लाक्षणिकता एवं व्यंजना लिए इसके संवाद बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं- “वजह सिर्फ वह हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है।”16 इस नाटक के संवाद पूर्णतया सहज और स्वाभाविक होने के साथ ही
संप्रेषणीयता का गुण तो इतनी सहजता से समेटे है कि नाटककार जो कुछ भी कहना चाहता
है, वह सभी प्रकार के पाठक और दर्शक सहज ही ग्रहण कर लेते हैं। इस नाटक
के संवादों की सफलता का एक प्रमाण और है- प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. गिरीश रस्तोगी ने
लिखा है-“आधे अधूरे के संवादों में भावों की पूर्णता, अर्थ की सहज ग्राह्यता और
पात्रानुकूलता का जवाब नहीं है। राकेश के संवादों में निरर्थक प्रसंग, अर्थहीन शब्द, वाक्य के गठन की शिथिलता, लड़खड़ाहट तथा अस्पष्टता कभी नहीं मिलेगी, क्योंकि वे कथा-विकास से अधिक चरित्र
से जुड़े हुए हैं या समूचे रंगमंच से या रंगचेतना से। हिन्दी नाटकों के संवादों में
इस हद तक पात्र और रंगमंच से उनकी आंतरिकता से सूक्ष्म संबंध दिखाई नहीं देता।”17
(ग) भाषा-शैली : भाषा माध्यम है जिसके द्वारा लेखक के विचार पाठक या दर्शक तक संप्रेषित होते हैं। मोहन राकेश ने इस नाटक में ना तो संस्कृतनिष्ठ शब्दावली प्रयुक्त की, न ही वैज्ञानिक शब्दावली। यथार्थवादी नाटककार की भाषा भी यथार्थपरक है। मोहन राकेश की भाषा में व्यंग्यात्मकता, पात्रानुकूलता, प्रसंगानुकूलता तथा परिवेश को उभारने का गुण विद्यमान है। इनमें सरलता-सहजता है-
“स्त्री: मैं नहीं लूँगी चाय।
बड़ी लड़की: सबके लिए बना रही हूँ एक-एक प्याली।
लड़का: मेरे लिए नहीं।
बड़ी लड़की: क्यों? पानी रख रही हूँ, सिर्फ पत्ती लानी है....
लड़का: अपने लिए बनानी हो, बना ले।
बड़ी लड़की: मैं अकेली पीऊंगी? इतने चाव से चीज-सेंडविच बना रही।”18
सायास तो नहीं पर अनायास व स्वाभाविक रूप से प्रचलित विदेशी शब्दों
का भी प्रयोग हो गया है तो ये आरोपित न लग कर रोचक बन पड़ा है-
“प्रथम पुरुष: वह मुझसे तो तय कर के आता नहीं कि मैं उसके लिए मौजूद
रहा करूँ घर पर।
स्त्री: कह दूँगी, आगे से तय कर के आया करे तुम से। तुम
इतने बिज़ी आदमी जो हो ! पता नहीं कब किस बोर्ड मीटिंग में जाना पड़ जाय।”19
पति-पत्नी के बीच तनाव के समय का वार्तालाप जब व्यंग्य भरा हो जाता
है, तब की मनःस्थिति का साक्षात चित्र भी संवाद द्वारा उभारा जाना नाटक
की एक अनन्य विशेषता है-
“पुरुष एक : मैं नहीं शुक्र मानता? जब-जब किसी नए आदमी का आना-जाना शुरू
होता है यहाँ, मैं हमेशा शुक्र
मानता हूँ। पहले जगमोहन आया करता था, फिर मनोज आने लगा था।
स्त्री : और क्या- क्या बात रह गई है कहने को बाकी? वह भी कह डालो जल्दी से।”20
(2) अभिनय एवं पात्र : आधे-अधूरे की पात्र योजना विशेष
उल्लेखनीय एवं अभिनेयता की व्यापक संभावनाओं को समेटे है। एक तो उन्होंने एक ही
अभिनता द्वारा चार पुरुषों का अभिनय कराने का मौलिक विचार प्रस्तुत इस लिए भी करना
ठीक समझा कि एक बस वेषभूषा का अंतर है, वरना सब एक जैसे हैं। नाटक का हर एक
पात्र अपने वर्ग का कसा हुआ प्रतिनिधित्व कर रहा है। जैसे नायक महेन्द्रनाथ को
लें- दोस्तों में लोकप्रिय लेकिन घर में पहले तो क्रूर, फिर क्रमशः असफल पति, असफल पिता, असफल व्यापारी, निकम्मा, अकेला, रबर स्टैम्प और अंततः मान-अपमान की आवश्यक पीड़ा से मुक्त एक
अस्तित्वहीन परजीवी। नायिका सावित्री को नाटक की केंद्रीय भूमिका मिली है।
सावित्री अपने पति को आधा-अधूरा मान कर जब-तब कोई और आसरा तलाशती एवं असफल हो कर
पुनः उसी परिवेश मे रहने को अभ्यस्त एक अति महत्वाकांक्षी आधुनिक महिला का जीवंत
दस्तावेज है। बहुत बारीकी से रचा गया सिंघानिया का चरित्र-चित्रण राकेशजी की पैनी
पकड़ का नतीजा है। भुल्लकड़ बॉस, जो अव्यवस्थित मानसिकता में जी रहा है, का साक्षात दर्शन कराया है।
महेन्द्रनाथ के शोषक दोस्त जुनेजा, मनोज, बिन्नी, किन्नी आदि सभी पात्र परंपरा से हटकर मोहन राकेश के अपने अनुभव का
बेजोड़ अंकन है। ये सभी पात्र अभिनेयता की व्यापक संभावना लिए हुए है।
(3) सहायक तकनीक : जैसा कि हमने जाना कि मंच-सज्जा एवं
दृश्य-बंध, प्रकाश-योजना, ध्वनि एवं संगीत तथा वेषभूषा एवं रूप
सज्जा इन चार तत्त्वों का समुचित और दृश्य के अनुरूप संयोजन सहायक तकनीक के
अंतर्गत समाहित है।
(क).मंच सज्जा एवं दृश्य-बंध: जयशंकर प्रसाद जी के उलट मोहन राकेश
ने नाटक रचना मंचन को विशेष ध्यान में रख कर की। चूंकि नाटक दृश्य-काव्य के अंतर्गत आता
है, अतः नाटक में दृश्यों का प्रभावी होना आवश्यक है। मंच की दृष्टि से
भी यह नाटक आधुनिक जीवन को जीवंत करता हुआ सशक्त उपस्थिति दर्ज कराता है। मंच को
बहुत अधिक बदलने की आवश्यकता नहीं होती। मकान का कमरा, सोफ़े, कुर्सियाँ, अलमारी, किताबें फाइलें आदि की मंच सज्जा जो न
केवल सामान्य है बल्कि बार-बार न बदलने के कारण नाट्य-मंचन को सुविधाजनक बना देती
है। पात्रों के बिखरे जीवन का संकेत करती मंचसज्जा, जिसमें टूटे फर्नीचर, दीमक लगी फाइलें, गंदे चाय के प्याले आदि सम्मिलित है, बहुत प्रभावी बन पड़ी है। नाटककार ने मंचन की सहजता हेतु अपनी ओर से
भी प्रयास किए हैं। उन्होंने अभिनय संकेतों द्वारा भी नाटक की अभिनेयता बढ़ा दी है- “पुरुष तीन: (जैसे बात को आत्मसात करता) हूँ! ( पल भर की खामोशी
जिसमें वह कुछ सोचता हुआ इधर-उधर देखता है, फिर जैसे किसी किताब पर आँख अटक जाने
से उठ कर शेल्फ की तरफ चला जाता है।”21
(ख). प्रकाश योजना : आधे-अधूरे में बहुत सादे तरीके से
किन्तु प्रभावशाली ढंग से प्रकाश योजना की गई है-“हल्के अभिवादन के रूप में सिर हिलाता
है, जिसके साथ ही उसकी आकृति धीरे-धीरे धुंधलाकर अंधेरे में गुम हो जाती
है। उसके बाद कमरे में अलग-अलग कोने एक एक कर के आलोकित होते हैं और एक आलोक
व्यवस्था में मिल जाते हैं।”22नाटक में जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई सहजता से प्रकाश संयोजन किया गया
है। और तो और नाटक का अंत तो नाटक के नामकरण को सार्थक करता प्रकाश
संयोजन का अनुपम उदाहरण है - “प्रकाश खंडित होकर स्त्री और बड़ी लड़की
तक सीमित रह जाता है। स्त्री स्थिर आँखों से बाहर की तरफ देखती आहिस्ता से कुर्सी
पर बैठ जाती है। बड़ी लड़की उसकी तरफ देखती है, फिर बाहर की तरफ। हल्का मातमी संगीत
उभरता है जिसके साथ उन दोनों पर भी प्रकाश मद्धिम पड़ने लगता है। तभी लगभग अंधेरे
में लड़के की बाँह थामे पुरुष एक की धुंधली आकृति अंदर आती दिखाई देती है।
लड़का: (जैसे बैठे गले से) देख कर डैडी! देख कर....
उन दोनों के आगे बढ़ने के साथ संगीत अधिक स्पष्ट और अंधेरा गहरा होता
जाता है।”23
(ग). ध्वनि एवं संगीत : नाटक में ध्वनि योजना का सार्थक एवं स्वाभाविक अवतरण हुआ है। रामगोपाल बजाज के अनुसार-“आधे-अधूरे नाटक के लिए मोहन राकेश द्वारा प्रयुक्त ध्वनि योजना ही सबसे बेहतर है। भले ही उन्होंने निर्देशक संगीतकार को प्रयोग के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया हो। पहले अंग के अंत के लिए पात्रों के परस्पर अलगाव और उनके सम्बन्धों के काट काट कर बिखरने को अभिव्यक्त करने के लिए संगीत के कई प्रयोग दिखाए गए हैं, किन्तु अंत में पाया कि उस स्थिति के कैंची के चक-चक से बेहतर और कोई ध्वनि संभव नहीं है और अंततः उसे ही रखा गया है।”24
(घ). वेषभूषा एवं
रूप सज्जा : वेषभूषा नाटक में जीवन और परिवेश को ही चित्रित नहीं करती, बल्कि नाट्य-प्रदर्शन को सम्मोहक भी बनाती है। वेषभूषा और रूप सज्जा
का कार्य यूं भी अपने में एक कलात्मक कार्य है क्योंकि अभिनेता का पूरा व्यक्तित्व
का उभार उसी से होता है। आधुनिक युगीन नाटक होने के कारण आधे अधूरे में वेषभूषा का
चित्रांकन बहुत बारीकी से करना संभव भी हुआ व सार्थक भी। सरलता नाटक की वेषभूषा की
मुख्य विशेषता है, क्योंकि एक ही पुरुष को पाँच भूमिकाएँ करनी हैं तो केवल
ऊपरी वस्त्र बदल कर काम चला लिया गया और बिन्नी, किन्नी और अशोक की पोशाक में कोई परिवर्तन नहीं और सावित्री भी केवल
दूसरे अंक के लिए साड़ी बदलती है। मोहन राकेश ने नाटक के पात्र-परिचय के समय ही
चरित्रों को ध्यान से इंगित किया है- “उम्र चालीस को छूती हुई। चेहरे पर
यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष।”25 कहना न होगा यह सावित्री का परिचय था, इसी प्रकार सभी का परिचय वेषभूषा सहित कर के नाटककार ने अपनी सूक्ष्म
दृष्टि का परिचय दिया है।
(4) प्रेक्षागृह : नाट्य-सौन्दर्य का यह महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक तत्त्व है। सुखद
स्मृति एवं सफलता का एक अनुपम संयोग यह रहा कि मोहन राकेश स्वयं इस के मंचन के समय
इस की योजना के अंग बनते थे और आवश्यक संशोधन करते थे। हमें नाट्यकर्मी ओम शिवपुरी
का वक्तव्य जोकि भूमिका में देखने को मिलता है तो प्रेक्षागृह चयन व सफल मंचन में
हुई मेहनत का भी इशारा मिल जाता है- “नाटक के शुरू में कुछ प्रदर्शन बंद
प्रेक्षागृहों में हुए। जब मुक्ताकाशी त्रिवेणी में प्रदर्शन की बात आई, तो कुछ मित्रों ने शंका प्रकट कीं कि नाटक संभवतः खुले मंच के लिए उपयुक्त महीन है, उसमे नाटक के तनाव और सघनता के बिखर
जाने का खतरा है।.....बंद और खुले प्रेक्षागृह के अंतर से नाटक की प्रभान्विति पर
कोई अंतर नहीं पड़ा।”26
(5) प्रेक्षकानुकूलता : यह नाट्य सौन्दर्य का एक महत्वपूर्ण घटक है। क्योंकि कोई भी साहित्य
रचना हो, आखिरकार उसका लक्ष्य तो प्रेक्षक ही है। दर्शकों की रुचि का ध्यान रख
कर समस्त नाट्य संयोजन आवश्यक है। जब हम प्रस्तुत नाट्य-कृति को
प्रेक्षकानुकूलता की कसौटी पर देखते हैं तो पाते हैं कि हिन्दी में आधुनिक काल में
अधिकतम मंचित व पसंद किए जाने वाले नाटकों में इसका प्रमुख स्थान है। दूसरी बात
नाटक के अन्य तत्त्व जैसे भाषा, वेषभूषा, चरित्रांकन आदि जिस सहज और जनसामान्य
से जुड़े हैं उससे इसकी संप्रेषणीयता भी बहुत उच्च कोटी की रही है। एक बहुत बड़ा प्रेक्षक वर्ग होना इस नाटक की सफलता की एक आधारभूत विशेषता
रही है।
निष्कर्ष : हमने जाना कि सौन्दर्य क्या है, सौन्दर्यशास्त्र क्या है, इनके तत्त्व क्या हैं और इनकी कसौटी पर ‘आधे-अधूरे’ कहाँ ठहरता है? सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों का विवेचन हमें साहित्य के मूल प्राप्य ‘आनंद’ से परिचित कराता है तो उन प्रतिमानों के आधार पर अभिव्यंजित तत्वों के आधार पर मोहन राकेश के नाटक को परीक्षित करना इस नाटक के निगूढ़ आनंददायी अवयवों से परिचित कराता है। हमने पाया कि आधुनिक काल का कोई नाटक सौंदर्य शास्त्र के इन तत्त्वों पर इतना खरा शायद ही उतरे जितना कि हमने इस नाटक को पाया है.
डॉ. महेश चन्द्र तिवारी
सहायक आचार्य हिन्दी, ‘ओंकार श्री’, महर्षि दयानन्द स्कूल के पास,फ़तहनगर,जिला उदयपुर(राजस्थान)-313205
maheshtiwarifnr@gmail.com 9460029789
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
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