शोध आलेख : मानसिक स्वास्थ्य के अध्ययनों में नवीन प्रवृत्तियाँ / अरुण कुमार चतुर्वेदी एवं प्रो. टी.सी. पाण्डेय

मानसिक स्वास्थ्य के अध्ययनों में नवीन प्रवृत्तियाँ
अरुण कुमार चतुर्वेदी एवं प्रो. टी.सी. पाण्डेय

 शोध सार :  यह सर्वमान्य है कि सभ्यता और भौतिक विकास के साथ मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं में तेजी से वृद्धि हुई है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि सभ्यता के पूर्व मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याएं या मानसिक अस्वस्थता के लक्षण बिल्कुल नहीं थे। उस समय इस प्रकार के लक्षण कहीं-कहीं देखे या सुने जाते थे। उस समय इनके विषय में अनेक भ्रांतिपूर्ण धारणाएं थीं। इन्हें अस्वस्थता या बीमारी न मानकर किसी बुरी आत्मा या शक्ति, भूत, प्रेत, चुड़ैल, शैतान का प्रभाव माना जाता था और इनके उपचार इन्हीं धारणाओं के अनुरूप किये जाते थे। रोगी को ओझाओं, सोखाओं या फकीरों के पास ले जाया जाता था जिनके द्वारा उन्हें तरह-तरह की शारीरिक यन्त्रणाएं दी जाती थीं और समझा जाता था कि ऐसा करने से बुरी शक्तियाँ घबराकर भाग जायेंगी। कभी-कभी तो खोपड़ी में घुस गयी कथित शक्ति या बुरी हवा को बाहर निकालने के लिये खोपड़ी मे छेद तक कर दिये जाते थे। आगे चलकर इन भ्रांतिपूर्ण धारणाओं और अमानवीय कृत्यों के विरोध में अनेक लोगों ने आवाज उठाना शुरू किया। मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक प्रयासों का प्रारम्भ यहीं से माना जा सकता है।

बीज शब्द : मानसिक, स्वास्थ्य , परिवार ,समुदाय,अध्ययन 

मूल आलेख : मानसिक स्वास्थ्य के अनुभव अन्य अध्ययनों की एक लम्बी परम्परा रही है। देश-विदेश में जो अध्ययन इस क्षेत्र में उपलब्ध हैं, उन सबकी एक साथ समीक्षा कर पाना सम्भव नहीं है। अतएव यह उपयुक्त प्रतीत होता है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन अध्ययनों में प्रमुख रूप से जो नवीन प्रवृत्तियाँ उभरी है या उभर रही हैं, उन्हीं का संक्षेप में मूल्यांकन किया जाए। इस प्रकार की नवीन प्रवृत्तियाँ निम्नवत् प्रस्तुत की जा सकती हैं-

            प्रस्तुत शोध अध्ययन का मुख्य उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य के अध्ययनों में नवीन प्रवृत्तियाँ और प्रतिरक्षण

शिक्षा के विषय में जानना है । प्रस्तुत शोध अध्ययन के लिए ऐतिहासिक शोध विधि और वर्णनात्मक शोध विधि का चयन किया गया है । इसके साथ ही दार्शनिक शोध विधि और विषयवस्तु विश्लेषण का भी प्रयोग किया गया है ।

(अ)  मानसिक स्वास्थ्य में परिवार और समुदाय:

                 मानसिक स्वास्थ्य की समस्या के सन्दर्भ में ऐसे कारकों के रोक-थाम पर इन दिनों विशेष बल दिया जा रहा है, जो इस प्रकार की समस्याओं को उत्पन्न करते हैं। इनमें से कई कारक परिवार और सामुदायिक परिस्थितियों से सम्बन्धित होते हैं। अनेक अध्ययनों से इस बात की पुष्टि हुई है। इसी क्रम में सामुदायिक स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

                 सत्यवती (1988) के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र के अध्ययनों में चार प्रमुख परिवर्तन आये हैं-

(1)       ‘‘मानव और वातावरण’’ के स्थान पर अब ‘‘वातावरण में मानव’’ पर बल दिया जा रहा है और     समुदाय के विशेष परिप्रेक्ष्य में बच्चों के व्यक्तित्व विकास का अध्ययन हो रहा है।

(2)       विकार ग्रस्त व्यवहारों की उत्पत्ति और वृद्धि में चिकित्सकीय न्यादर्शों के साथ-साथ सामाजिक कारकों को भी मान्यता दी जा रही है।

(3)       आन्तरिक व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक कारकों के बजाय परिवार या समुदाय में अन्तर्वैयक्तिक और मनोसामाजिक कारकों के अध्ययन को महत्वपूर्ण माना जा रहा है ।

(4)       औषधीय उपचार या चिकित्सालयों में दवा कराने पर बल देने के स्थान पर ऐसी पारिवारिक और सामुदायिक व्यवस्था बनाने पर ध्यान दिया जा रहा है, जिसमें अस्वस्थता के रोकथाम सम्भव हो और लोगों के स्वास्थ्य में वृद्धि हो।

                 उपरोक्त सभी परिवर्तन मानसिक स्वास्थ्य में परिवार या समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं। इस क्षेत्र में जो अध्ययन किये गये हैं उनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनमें मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से ग्रस्त रोगियों के नजदीकी सम्बन्धियों के अध्ययन हुये हैं। कुछ अध्ययनों में परिवार के सदस्यों की भूमिका को मूल्यांकित करने के प्रयास हुये हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य अध्ययनों में सम्पूर्ण समुदाय की भूमिका की जाँच हुई है।

                 पाण्डेय, श्री निवास और मुरलीधर (1980) ने मनोविकृति ग्रस्त रोगियों के सम्बन्धियों के अध्ययन से निष्कर्ष निकाला कि ऐसे सम्बन्धी जो रोगी की देखभाल हेतु चिकित्सालय बार-बार आते हैं वे मानसिक बीमारी को भौतिक कारणों का परिणाम मानते हैं। इसके विपरीत ऐसे सम्बन्धी जो रोगी की देखभाल हेतु अपेक्षाकृत कम बार चिकित्सालय आते हैं, वे मानसिक अस्वस्थता के लक्षणों को पूर्व जन्मों के पाप या बुरी शक्तियों के शाप मानते हैं, इसी प्रकार के अन्य अध्ययन में बोरल बागची तथा नन्दी (1980) ने मानसिक रोगियों के सम्बन्धियों और अन्य दैहिक रोगियों के सम्बन्धियों में मानसिक रोग के कारणों के विषय में तथा अन्य अनेक मुद्दों पर मतवैभिन्न पाया। यह भी पाया गया कि मानसिक रोगी के विवाह करने को उनके  सम्बन्धी उपयुक्त नहीं मानते हैं और ऐसे लोग रोगी के उपचार पद्धतियों पर भी भिन्न विचार रखते हैं।

                 परिवार समाज की ही उपव्यवस्था है। सभी समाजों में बच्चों के स्वास्थ्य और देखभाल में परिवार की प्राथमिक भूमिका रही है। परिवार में वैवाहिक जीवन-साथी, माता-पिता और बच्चों के पारस्परिक सम्बन्ध तथा भाई-बहन और संयुक्त परिवार प्रणाली के अन्य सम्बन्धी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इसकी पुष्टि अनेक अध्ययनों के परिणामों से हुई है। इसमें से उदाहरणार्थ कुछ अध्ययनों की समीक्षा प्रस्तुत है-

                 सत्यवती और सेठ (1975) ने स्नायुग्रस्त रोगियों तथा उनके वैवाहिक जीवन साथियों की तुलना सामान्य दम्पतियों से किया। इस अध्ययन में पाया गया कि सामान्य लोगों की तुलना में स्नायुरोगी अपने जीवन-साथी से अधिक मत विभेद रखते थे। ऐसे रोगी अपने जीवनसाथी को भी समझते हैं। इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में कुण्डू एवम् घोष (1977) ने विवाह विच्छेद प्राप्त पुरूषों और उनकी पूर्व पत्नियों की तुलना सामान्य दम्पतियों से करके विवाह विच्छेद के अनेक कारणों को रेखांकित किया। इन कारणों में कुछ प्रमुख हैं, इन पुरूषों और उनकी पूर्व पत्नियों की माता-पिता के बीच पारस्परिक सम्बन्धों का त्रुटिपूर्ण होना, इनका स्वयं का अपने माता-पिता के साथ सम्बन्ध ठीक नहीं होना, विवाह पूर्व की इनकी जिन्दगी में शान्ति का अभाव, वैवाहिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन में परिपक्वता का अभाव या बच्चों के अभाव में इनके सम्बन्धों में प्रगाढ़ता की कमी।

                 महेन्द्रू तथा शर्मा (1981) ने ऐसे दम्पतियों जिनमें दोनों मानसिक रोगों से ग्रस्त थे, की तुलना उन दम्पतियों से की जिनमें केवल एक व्यक्ति मानसिक रोगी था। उन्होंने पाया कि पहले वर्ग की दम्पतियों में रोगों की अवधि और आवेग दूसरे वर्ग की दम्पतियों की तुलना में अधिक थे। इस आधार पर इन अध्ययन कर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि मानसिक रोगों के सम्बन्ध में अन्तक्रियात्मक सिद्धान्त सत्य प्रतीत होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार परिवार या समुदाय में लोगों के बीच पारस्परिक अन्तक्र्रिया का स्वरूप लोगों में मानसिक स्वास्थ्य या अस्वास्थ्य के घटनाक्रम और तत्सम्बन्धी अवधारणाओं को प्रभावित करता है। निमहान्स, बंगलौर द्वारा सम्पन्न पुलिस वालों के अध्ययन का एक परिणाम यह भी था कि मानसिक रोगों के शिकार लोगों की सहायता करने वाली सम्भव सभी  संस्थाओं में परिवार की प्रभावोत्पादकता सर्वाधिक थी (टाइम्स आफ इण्डिया, लखनऊ, 21.03.96)। इससे मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में परिवार का महत्व और भी रेखांकित होता है।

                 ऐसे अनेक अध्ययन किये गये हैं जिनमें माता-पिता के बच्चों के साथ सम्बन्धों और उनके पारस्परिक सम्बन्धों में अन्तक्र्रिया का मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की जाँच हुई है। उदाहरण के लिये सिंह, निगम और श्रीवास्तव (1979) ने कुछ ऐसे बच्चों और उनकी माताओं का अध्ययन किया जो या तो प्रकार्यवादी दौरे या छद्म मनोविकारी दर्द से ग्रस्त थे। इसी प्रकार कुछ अन्य अध्ययनों में भी मानसिक रोगियों के माता या पिता में असामान्यता के लक्षण पाये गये हैं (शर्मा, भट, सेनगुप्ता, 1980, सत्यवती, 1979)।

                 भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली रही है। मानसिक स्वास्थ्य पर  इसके सम्भावित धनात्मक या निषेधात्मक प्रभावों के मूल्यांकन के कई अध्ययनों के प्रयास हुये हैं। सेठी और शर्मा (1982) ने संयुक्त परिवारों में उन्माद के लक्षणों की अधिकता पाई है, जबकि कुछ अन्य अध्ययनों में मनोविकृति की दृष्टि से एैकिक और संयुक्त दोनों प्रकार की परिवार प्रणाली में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया है (कास्र्टेयर्स तथा कपूर, 1976, सेठी तथा मनचन्दा, 1978)। कुछ अध्ययनों में मानसिक रोगों से मुक्ति हेतु उपचार के प्रयासों में पारिवारिक सदस्यों की भूमिका को उपयोगी पाया गया है (पई और कपूर, 1982, तेजा, 1978)।

                 स्वास्थ्य के क्षेत्र मे सामुदायिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत नवीन सोच है। मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से समुदाय के संसाधनों को विकसित करना और रचनात्मक दिशा देना इस प्रकार की सोच की मुख्य अवधारणा है। इससे न केवल समुदाय में मानसिक बीमारियों के प्रति मिथ्या धारणायें नष्ट होंगी, अपितु लोगों में रोगियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ेगी। इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न समुदायों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के सापेक्षिक घटन इनके परम्परागत उपचार विधियों, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षण प्रयासों के अध्ययन किये हैं, (गुप्ता, जैन तथा कुमार, 1985; सत्यवती, 1988)। अग्रवाल (1996) ने आह्वान किया है कि मानसिक चिकित्सा से सम्बन्धित सुधार व्यक्तिगत स्तर से लेकर सामुदायिक स्तर तक किये जाने की आवश्यकता है।

(ब) मानसिक स्वास्थ्य के अध्ययनों मे देशजकरण (इण्डिनाइजेसन):

                 इसी अध्याय में मानसिक स्वास्थ्य और संस्कृति के पारस्परिक  सम्बन्ध की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। भारत में इस प्रकार के सम्बन्ध   के महत्व का कास्र्टेयर्स और कपूर (1976) ने डा॰ विद्यासागर और डा॰ एनॅ॰सी॰ सूर्या के कार्यों के विवरण के माध्यम से किया है। ये दोनों मनोचिकित्सक पाश्चात्य देशों से मनोचिकित्सा का उत्तम प्रशिक्षण लेकर  भारत आये। उन्हे यहाँ मनोचिकित्सा की सफलता के लिये उन विधियों में संशोधन करना पड़ा जिनका प्रशिक्षण उन्हें विदेशों में मिला था। इसी क्रम में डा॰ सूर्या ने माक्र्सवादी होते हुए भी गीता, वेद और पुराणों का अध्ययन किया और इनमें उपलब्ध प्रासंगिक संकेतों को भारत में मनोचिकित्सा के लिये बहुत उपयोगी माना ।

                 भारतीय संस्कृति की विशिष्टता के परिप्रेक्ष्य मे भारत में मानसिक स्वास्थ्य और उपचार विधियों के देशजकरण की आवश्यकता अनुभव की गई है और अनेक भारतीय मनोचिकित्सकों ने इस पर बल दिया है (थापा-1994)। कुरूविल्ला (1995) ने इस पर असन्तोष व्यक्त किया है कि यद्यपि अनेक नवजवान लोग मनोचिकित्सा के क्षेत्र में आ रहे हैं किन्तु वे भारतीय सन्दर्भ में उपयोगी मनोचिकित्सा पद्धतियों के विकास के लिये कुछ नहीं कर रहे हैं। घोष (1994) ने भी भारतीय सन्दर्भ में प्रासंगिक मनोचिकित्सा शास्त्र के विकास पर बल दिया है। इसी प्रकार वर्मा (1982) ने कहा है कि भारत में मनोचिकित्सा को परम्परागत रूप से प्रचलित उपचार विधियों का मूल्यांकन करके इन्हें वैज्ञानिक स्वरूप देने का प्रयास करना चाहिए।

                 भारत में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में देशज अध्ययन हुए हैं, उनमें से अधिकांश अध्ययनों में योग और आसन के महत्व का परीक्षण करने के प्रयास हुए हैं। ऐसे कुछ अध्ययनों की संक्षिप्त समीक्षा इसी अध्याय में अलग से प्रस्तुत हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य देशज अध्ययन हुये हैं, उनमें देश के अलग-अलग भाग में मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं के घटनाक्रम के अध्ययन, संयुक्त परिवार प्रणाली की भूमिका, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले स्थानीय सामाजिक सांस्कृतिक कारकों की जांच इत्यादि सम्मिलित है। कास्र्टेयर्स तथा कपूर (1976) ने दक्षिण भारत के एक ग्राम पंचायत कोटा में अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। इस गाँव में लगभग 6 प्रतिशत लोग मानसिक अस्वस्थ्ता के कई लक्षणों से ग्रस्त थे, 8 प्रतिशत लोग कुछ लक्षणों से ग्रस्त थे। अब लोग रोग को पश्चिमी शिक्षा से प्रशिक्षित मनोचिकित्सकों को दिखाने लगे हैं किन्तु अभी भी गाँव में ऐसे लोगों का प्रभाव है जो अपनी परम्परागत विधियों से सफल चिकित्सा का दावा करते हैं।

                 मिश्रा (1994) के अनुसार भारत जैसे देश में जहाँ स्वास्थ्य की देखभाल कर सकने वाली अन्य संस्थाओं को अभी स्थापित होना है, सम्प्रति परिवार का मानसिक स्वास्थ्य में योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह व्यक्ति के लिये ‘‘शाक आबजार्बर’’ की भूमिका तो निभाता है, लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की विवृद्धि में भी सहयोगी होता है। नवगढ़ क्षेत्र के आदिवासियों के अध्ययन से इन बातों की पुष्टि हुई है। जायसवाल (1985) ने विहार में भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की महिलाओं में स्वास्थ्य आधुनिकता (हेल्थ माडर्निटी) का मापन किया और पाया कि इन लोगों में स्वास्थ्य आधुनिकता के स्तर में भी भिन्नता थी।

                 बदामी और बदामी (1984) ने गुजरात के लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के मापन हेतु गुजराती भाषा में एक मानसिक स्वास्थ्य मापनी का विकास किया। इस मापनी का बाद में मराठी भाषा में अनुवाद किया गया। इन मापनियों का उपयोग करके पारिख और राने (1991) ने उर्वरक कारखानों के कर्मचारियों का अध्ययन किया। उसमें ज्ञात हुआ कि गुजराती कर्मचारियों का मानसिक स्वास्थ्य मराठी कर्मचारियों की तुलना में अपेक्षाकृत उत्तम था ।

                 भारतीय संस्कृति में पुनर्जन्म की अवधारणा स्वीकार की गई है । सिन्हा (1991) ने एक अध्ययन में इस अवधारणा का मृत्यु से भय पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किया। इस अध्ययन मे परिकल्पना के विपरीत यह पाया गया कि जो लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं वे मृत्यु से अधिक भयभीत होते हैं। अध्ययन में भाग लेने वाले युवक थे। इस आधार पर प्राप्त परिणाम की व्याख्या में कहा गया कि सम्भवतः ऐसा युवाओं में मृत्यु भय जनित अधिक चिन्ता के कारण होता हैै। इसकी पुष्टि ब्रूटा (1994) के अध्ययन से हुई। जिसमें मृत्यु से भय और पुनर्जन्म में विश्वास के बीच सहसम्बन्ध युवकों में धनात्मक परन्तु वृद्ध लोगों में ऋणात्मक पाया गया। जैसा कि पहले ही संकेतिक किया जा चुका है। अनासक्ति के प्रतिबल और मानसिक खिंचाव से सम्बन्धों के मूल्यांकन के प्रभाव भी देशज दृष्टिकोण पर ही आधारित है (पाण्डेय, 1990; पाण्डेय और नायडू, 1992) ।

                 मनोचिकित्सा विधियों के देशजकरण में निहित समस्याओं और सम्भावनाओं के विषय में भी अनेक धारणाएं व्यक्त की गई हैं। कपूर, मूर्ति, सत्यवती और कपूर (1979) ने मनोचिकित्सकीय प्रक्रियाओं पर आयोजित एक कार्यशाला में प्रस्तुत विचारों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है जो निम्नवत हैं-

(1)  निषेधात्मक विचारों के स्थान पर धनात्मक विचार विकसित होने चाहिए ।

(2) रोगी की अपनी संस्कृति में उपलब्ध मुहाबरों और अन्य उद्धरणों का उपयोग करते हुये चिकित्सा को व्यापक तथा बहुमुखी बनाया जाना चाहिये ।

(3)  पारम्परिक प्रणालियों जैसे कर्मकाण्डों, मन्त्रों, गुरूवाणी, तीर्थ-यात्राओं द्वारा रोगी को स्पन्दित करने के प्रयास होने चाहिये ।

(4) भारतीयों में परनिर्भरता के भाव को देखते हुये गुरू-चेला सम्बन्धों का आवश्यकतानुसार उपयोग हो। नेेकी (1977) ने स्वयं भी गुरू-चेला सम्बन्ध पर आधारित तकनीकों का उपयोग किया है ।

                 इस प्रकार के अन्य अनेक प्रयास हुये हैं। सेठी और त्रिवेदी (1982) ने आर्थिक दृष्टि से अपेक्षाकृत पिछड़े भारतीयों के लिये कम खर्चीली देशज मनोचिकित्सीय विधियों के विकास की सलाह दी है ।

(स)  योग, आसन और मानसिक स्वास्थ्य:

                 भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही व्यक्ति और समाज में शान्ति तथा सन्तोष भाव को महत्वपूर्ण माना गया है। परमपिता परमेश्वर और आदि शक्ति से सर्वत्र शान्ति के लिये प्रार्थना करने के विधान हैं जैसे- ‘‘ओऽम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः’’ या ‘‘या देवी सर्वभूतेषु शान्ति रूपेण संस्थिता’’। नीति काव्यों में भी इनकी महत्ता के वर्णन हैं जैसे- ‘‘जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान’’। इसी क्रम में चित्तवृत्ति में शान्ति सन्तोष को उत्पन्न करने के उद्देश्य से अनेक कर्मकाण्ड और योग तथा आसन प्रस्तावित किये गये हैं। आज योगासनों की अनेक विशिष्ट विधियों के वर्णन मिलते हैं किन्तु प्रायः इनमें से अधिकांश की उत्पत्ति ऋषि पतंजलि के योगदानों पर आधारित है। इसी आधार पर मानसिक स्वास्थ्य से सम्बद्ध लोगों द्वारा पतंजलि के योग सम्बन्धी विचारों को समझने और उनका आधुनिक मनोचिकित्सा में समन्वय करने के सुझाव दिये जा रहे हैं (वाहिआ, 1982)।

                 पिछले कुछ वर्षों में मानसिक स्वास्थ्य पर योगासनों के सम्भावित प्रभावों के मूल्यांकन के अनेक प्रयास हुये हैं। नेस्पर (1982) ने अनेक लेखों की समीक्षा करके निष्कर्ष निकाला कि चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों में योग के प्रति रूझान निरन्तर बढ़ रहा है। योगासनों से केवल मानसिक स्वास्थ्य ही प्रभावित नहीं होता अपितु इससे मनोदैहिक रोगों से प्रतिरक्षण भी होता है। कलमकर (1982) के अनुसार योगासन से शरीर के सभी अंग स्वस्थ रूप से कार्य करने लगते हैं, जिससे रोगों का उपचार होता है और नये रोगों के उभरने की सम्भावना घटती है। इस प्रकार योग मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करता है और इसमें वृद्धि लाता है। वेंकोवा राव (1996) के अनुसार हर व्यक्ति के मस्तिष्क का बांया हिस्सा आध्यात्मिकता और कला के क्षेत्र में ज्यादा सक्रिय रहता है। ध्यान, योग और समाधि जैसी क्रियाओं को करने से इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य का लाभ मिल सकता है।

                 अनेक ऐसे अध्ययन हुये हैं जिनसे मानसिक अस्वास्थ्य के विविध लक्षणों को नियन्त्रित करने में योग तकनीकों की उपादेयता पुष्ट हुई है। चिन्ता सम्बन्धी लक्षणों के उपचार में योग अत्यन्त उपयोगी पाया गया है। उदाहरण के लिये शर्मा और अग्निहोत्री (1982) ने अपने अध्ययन में नियन्त्रित श्वास- प्रणाली के उपयोग से चिन्ता में हास होता हुआ प्राप्त किया। भारद्वाज, उपाध्याय तथा गौर (1979) ने स्नायुविकार ग्रस्त रोगियों पर ध्यान एवं औषधियों के प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन किया। यह पाया गया कि चिन्ता स्तर में सर्वाधिक कमी ध्यान के माध्यम से हुई ।

                 विजय लक्ष्मी (1995) ने योग प्रशिक्षण केन्द्र में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे लोगों का पूर्व-पश्चात्त दशा में अध्ययन किया और पाया कि योग प्रशिक्षण से प्रशिक्षार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य स्तर में सुधार हुआ। इस प्रकार के कई अन्य अध्ययन भी हुये हैं जिनसे मानसिक स्वास्थ्य में योग के निश्चित धनात्मक प्रभावों की पुष्टि हुई है। इस कारण भारत में योग तकनीकों के विकास के पक्ष में अनेक तर्क दिये जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि भारत में जहाँ अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति (एलोपैथिक) सामान्य जन के संसाधनों की दृष्टि से अत्यन्त महंगी है, योग पद्धति से उपचारों की विशेष प्रासंगिकता है-(कलमकर, 1982) ।

                 अनेक चिन्तकों ने योग प्रविधियों को अपनाने में कतिपय मिथ्या धारणाओं और अपेक्षित सावधानियों के भी उल्लेख किये हैं, इस प्रकार की  कुछ अवधारणाऐं निम्नवत् हैं-

(1) सामान्य लोगों में एक मिथ्या धारणा यह है कि योगासन साधुओं सन्यासियों के लिए है - गृहस्थों के लिये नहीं। इस धारणा के  कारण ऐसे लोग योग पद्धतियों के प्रति अस्वीकृति का भाव रखते हैं (घरोटे, 1981)।

(2) योग पद्धतियों का उपयोग अप्रशिक्षित अधकचरी जानकारी वाले चिकित्सकों के निर्देशन में किये जाने से लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है (कलमकर, 1982)।

(3)  अग्निहोत्री तथा शर्मा (1982) ने व्यापक अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि योग पद्धतियाँ सभी प्रकार के मानसिक रोगों का उपचार नहीं कर सकते जैसा कि कुछ लोगों द्वारा दावे किये जाते हैं।

(4)  कुछ लोगों में तो कतिपय योग पद्धतियाँ हानिप्रद हो सकती हैं। अतः किसी विशेष पद्धति को अपनाने से पूर्व आवश्यक जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिये (वर्मा, 1979) ।

(द)  मानसिक स्वास्थ्य हेतु मनोवैज्ञानिक प्रतिरक्षण:

                 विगत वर्षों में एक नवीन उपागम मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में विकसित हुआ है, जिसके अनुसार जिस प्रकार शारीरिक रोगों के रोकथाम के लिये प्रतिरक्षण के उद्देश्य से टीकों इत्यादि का आविष्कार कर शारीरिक रोगों से प्रतिरक्षण पर बल दिया जाता रहा है, उसी प्रकार मानसिक समस्याओं के रोकथाम के लिये मानसिक प्रतिरक्षण व्यवस्थाओं की संभावना पर भी विचार किया जाना चाहिए, मानसिक प्रतिरक्षण (Mental Immunity) की संभावनाओं पर अब सतत कार्य हो रहा है (मेण्डल बाय, 2018) ।

                 प्रतिरक्षण रोगों के रोकथाम की प्रक्रिया है। शारीरिक रोगों के  निर्मूलन के उद्देश्य से अनेक टीकों का विकास हुआ है जिनसे पोलियो, चेचक, टिटनेस जैसी शारीरिक व्याधियों से उन्मुक्ति प्राप्त करने में सफलता मिली है। इसी के समानान्तर रेड्डी और कृष्णमूर्ति (1995) ने मनोवैज्ञानिक व्याधियों से उन्मुक्ति हेतु भी प्रतिरक्षण की संकल्पना की है। मनोवैज्ञानिक प्रतिरक्षण  को परिभाषित करते हुये इन लोगों ने कहा है - मनोवैज्ञानिक प्रतिरक्षण  व्यक्ति में संचित वह सांवेगिक संज्ञानात्मक भण्डार है जो आघातिक अनुभवों से व्यक्ति का बचाव करता है। इस प्रकार के भण्डारण हेतु बच्चों को ऐसी कहानियाँ सुनायी जाय जो विभिन्न अनुभवों को व्याख्यापित करती हों। इन कहानियों को मानसिक लक्षणों की रोक थाम हेतु ‘‘टीका’’ समझा जा सकता है। हमारी संस्कृति में परम्परा रही है कि परिवार के बड़े बुजुर्गों द्वारा बच्चों को कहानियाँ सुनाने की। यदि इसमें उपयुक्त कहानियों का चयन किया जाय तो बच्चों में इनके माध्यम से अनुभवों के प्रति विशिष्ट संज्ञानात्मक कौशलों का विकास हो सकता है। रेड्डी और कृष्णामूर्ति (1995) ने इस प्रकार की कई कहानियों का चयन भारतीय संस्कृति के  भण्डार से किया है। मनोवैज्ञानिक प्रतिरक्षण की संकल्पना और इसकी सम्भावना की अनुभव-जन्य अध्ययनों से पुष्टि होना अभी शेष है।

                 मनोवैज्ञानिक प्रतिरक्षण के सन्दर्भ में इलिच (1974) का दृष्टिकोण भी प्रासंगिक प्रतीत होता है। इलिच (1974) ने हर छोटी बड़ी मानसिक समस्या के लिये चिकित्सक पर ही निर्भर होने की आलोचना की है। उनके अनुसार इस प्रकार की भ्रान्ति स्वयं चिकित्सकों द्वारा फैलायी गयी है कि मनोवैज्ञानिक समस्याओं से मुक्त रहने हेतु लोगों को उनसे निरन्तर सम्पर्क करना चाहिये। चिकित्सकों पर निर्भरता की प्रवृत्ति ने परिवार और समुदाय की उन भूमिकाओं को सीमित किया है जो परम्परागत ढ़ंग से ये संस्थायें निभाती रही हैं।

 

निष्कर्ष-

                 मानवीय सोच मानव के व्यवहार को प्रभावित करती है। उसका मानवीय व्यवहार उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।सोच एक प्राथमिक स्वरूप होता है जो किसी के मानसिक स्वास्थ्य व मानसिक बीमारी के बारे में बताती है, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य मानवीय जीवन में व मानवीय विकास में असाधारण भूमिका रखता है। इसलिए बच्चों व वयस्कों के मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन व परीक्षण करना आवश्यक है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य व ज्ञान क्षेत्र परस्पर सम्बन्धित होते है। मानसिक स्वास्थ्य प्रभावी ज्ञान के लिए बहुत ही आवश्यक है। आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति परिवार और समुदाय को पुनः उनकी भूमिकाऐं वापस दी जाय। ये संस्थाएं अपनी उन भूमिकाओं के माध्यम से सभी को मानसिक आघातों तथा प्रतिकूल अनुभवों से प्रतिरक्षण दें। इससे चिकित्सकों पर निर्भरता स्वयं कम हो जायेगी। ऐसा करते समय अध्ययनों से प्राप्त नवीन जानकारियों का उपयोग किया जाना चाहिए ।

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9.       गुप्ता, वी.पी. (1977). सफल शिक्षकों का व्यक्तित्व विशेषता, अनुकूलन स्तर, शैक्षणिक नहीं है कि सभ्यता के पूर्व मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याएं या मानसिक अस्वस्थता के लक्षण बिल्कुल नहीं थे। उस समय इस प्रकार के लक्षण कहीं-कहीं देखे या सुने जाते थे। उस समय इनके विषय में अनेक भ्रांतिपूर्ण धारणाएं थीं। इन्हें अस्वस्थता उपलब्धि और व्यावसायिक दृष्टिकोण, अप्रकाशित पीएच.डी. थीसिस, मनोविज्ञान विभाग, अप्रकाशित पीएच.डी. थीसिस. मनोविज्ञान विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय। पृष्ठ 309
10.  चतुर्वेदी, अरुण कुमार. (2020).कोविड 19: शिक्षा और समाज के बदलते प्रतिमान पृष्ठ संख्या 111
11.  हंस, टी. (2000). नियंत्रण के स्थान पर साहसिक प्रोग्रामिंग के प्रभावों का एक मेटा-विश्लेषण। समकालीन मनोचिकित्सा जर्नल. 30(1) 33-60

अरुण कुमार चतुर्वेदी,
शोधार्थी (शिक्षाशास्त्र), एम0 बी0 राजकीय स्नातकोत्तर, महाविद्यालय हल्द्वानी, कुमाऊँ वि.वि. नैनीताल,
असिस्टेंट प्रोफेसर बी0 एड0 विभाग, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड

प्रो. (डा.) टी.सी. पाण्डेय
 प्रोफेसर, बी.एड. विभाग, एम.बी. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तराखण्ड


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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