शोध सार : मधु कांकरिया के उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ पर बात करते हुए रॉल्फ फॉक्स के ‘उपन्यास और लोक जीवन’ पुस्तक का एक कथन याद आता है कि-‘उपन्यास का विषय है व्यक्ति। यह समाज के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध व्यक्ति के संघर्ष का महाकाव्य है। और यह केवल उसी समाज में विकसित हो सकता है जिसमें व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन नष्ट हो चुका हो और जिसमें मानव का अपने सहजीवी साथियों अथवा प्रकृति से युद्ध ठाना हो। पूंजीवादी समाज ऐसा ही समाज है। ” अब रॉल्फ फॉक्स के कथन के आलोक में ‘सेज पर संस्कृत’ का जब हम मूल्यांकन करते हैं तो स्पष्ट तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह ऐसा ही उपन्यास है जहाँ व्यक्ति और प्रकृति के बीच एक युद्ध ठना हुआ है। जिसमें एक विशेष समुदाय का अपने सहजीवी मनुष्यों ही नहीं बल्कि मानवेतर प्राणियों के बीच संतुलन भी नष्ट हुआ है। इस संतुलन को नष्ट करने में पूंजीवाद और धर्म के गठजोड़ से पैदा हुआ भूमंडलीकरण की महती भूमिका है। उपन्यास की नायिका संघमित्रा, उसके पिता विकास बाबू और रामपाल काका जैसे लोग इस युद्ध में पराजित हो जाते हैं। धर्म और पूंजी जीत जाती है। यह मानवीय हताशा, निराशा और पराजय की कहानी है। धर्म संस्कृति के आसरे मानवीय जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है, लेकिन यही धर्म जब किसी समुदाय का शोषण करने लगता है तब उसका चेहरा विकृत हो जाता है। पूंजी मानव जीवन की भौतिक समृद्धि का परिचायक होती है, लेकिन यही पूंजी जब सीमित हाथों में केंद्रीकृत होने लगती है तब बृहद मानवीय समाज हाशिये पर चला जाता है। जिस दौर में धर्म और पूंजी सत्ता पाने का हथियार हो, उस दौर में इसपर लिखना जोखिम भरा काम होता है। लेखक फतवों के शिकार हैं। सत्ता निरंकुशता के दमनचक्र में पीसने को आतुर हो तब लेखकीय कर्म और भी दुष्कर हो जाता है। लेकिन सही मायने में यही लेखक की परीक्षा भी होती है। जब वह अभिव्यक्ति के खतरे को उठाता है और सामाजिक विसंगति के यथार्थ को कलमबद्ध करता है।
बीज शब्द : सत्ता, समाज, पूंजीवाद, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति, भूमंडलीकरण और स्त्री चेतना।
मूल आलेख : मधु कांकरिया का बहुचर्चित उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’(2010) वैसे तो मुख्य रूप से जैन धर्म के भीतर स्त्री सन्दर्भ या कहें कि स्त्री शोषण की समस्या को बहुआयामी रूप से चित्रित करता है। लेकिन उपन्यास का एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ भूमंडलीकरण की प्रवृत्तियां, उसका धर्म से गठजोड़ और स्त्री पर पड़ने वाले प्रभावों का रेखांकन भी करता है। मोटे तौर पर उपन्यास की घटनाएं भी उसी दौर से शुरू होती हैं जिस दौर से भारत में उदारीकरण या भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत होती है। “पूँजी की स्वतंत्र आवाजाही से न केवल व्यापार उन्नत होता है, बल्कि इस विनिमय से सांस्कृतिक रूपांतरण भी संभव होता है। हालाँकि दोनों के अलग-अलग सन्दर्भ हैं, किन्तु बाज़ार और पूंजी संस्कृति के भूमंडलीकरण को प्रेरित करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्थानीय संस्कृति भूमंडलीकरण का विरोध भी करती है। ”1 आर्थिक कारण जीवन मूल्यों को प्रभावित करते हैं लेकिन वह जब जीवन के केंद्र में आ जाता तो वह संस्कृति को भी प्रभावित करता है। मध्यवर्गीय जीवन का अधिकांश भाग इस आवारा पूंजी के पीछे बिना भविष्य के दुष्परिणामों की चिंता किये भागता है। कुछ दूरदर्शी लोग ही आवारा पूंजी के खतरों को महसूस कर पाते हैं और इसका विरोध करते हैं। भूमंडलीकरण पूंजी के दम पर सांस्कृतिक विविधता को नष्टकर समरूपता का दावा करता है लेकिन सही अर्थों में इसने आर्थिक विभेद को बढ़ावा दिया है और एक खास तरह की संस्कृति को प्रश्रय दिया है। सांस्कृतिक स्तर पर उपन्यास में जैन धर्म पर आवारापूंजी का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। पहले संघमित्रा के पिता यानी विकास बाबू और फिर संघमित्रा अपने स्तर पर इसके दुष्परिणामों को महसूस करते हैं और इसका विरोध करते हैं। एक बात उपन्यास में साफ़तौर पर दिखाई देती है कि पूंजी ने न सिर्फ आम जनमानस को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है बल्कि धर्म के साथ मिलकर स्त्री शोषण में भी पीछे नहीं है।
विकास
बाबू का साबुन बनाने का पुश्तैनी धंधा था। भूमंडलीकरण की आंधी में उनका परम्परागत
व्यापार नष्ट हो गया। कारोबार दिन-ब- दिन ठप्प
होता जा रहा था। लोगों ने बहुत समझाया कि-“धंधा बदल लो,
अब आजकल के समय में कोई नहीं
पूछेगा,
तुम्हारे ‘ब्राइट’ साबुन की
बट्टी को। अब मैदान में बड़े-बड़े राक्षस उतर आये हैं। पहले का ज़माना और था...तब
गाँव में ही साबुन बनता था और यहीं पर खप जाता था। न बाहर से माल आता था,
न बाहर जाता था,
पर अब ठौर-ठौर पर बड़ी-बड़ी
कंपनियों के साबुन बेचने वालों के एजेंट पैदा हो गए हैं। इन्होंने हमारे बाज़ार में
सेंध लगा ली है।”2 विकास बाबू अपनी स्थानीयता को बचाए रखने के लिए
भूमंडलीकरण की प्रवृत्ति से लड़ते रहे लेकिन अंततः पराजय हाथ आई और इसी आघात में
उनकी मौत हो गयी। उदारीकरण की प्रक्रिया के सन्दर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने कहा था
कि-“वस्तुओं का बृहद उत्पादन के ऊपर आज छवियों का वृहद् उत्पादन हो रहा है।”3
फ्रेडरिक जेम्सन का इशारा विज्ञापन की संस्कृति द्वारा स्थानीय संस्कृति का
उच्छेदन और भूमंडलीय संस्कृति के वर्चस्व की ओर है। उदारीकरण की प्रक्रिया में
बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों ने न सिर्फ स्थानीय संस्कृति को प्रभावित किया बल्कि
स्थानीय रोजगार,
लघु-कुटीर उद्योग को भी बुरी
तरह प्रभावित किया। छोटे व्यवसायी वर्ग और स्थानीय स्तर के उत्पादक इस आंधी में या तो पिछड़ गए या फिर उत्पादक से मजदूर बनने को विवश
हुए।
विकास
बाबू को लोग साबुन वाले के नाम से जानते थे। कहते थे इनका साबुन घरों से मैल काटता
है। वैसे विकास बाबू आत्मा का मैल निकालते हैं। स्थानीय स्तर पर साबुन बनाने के
लिए विकास बाबू की अपनी एक पहचान थी। वे हार नहीं मानना चाहते थे,
अपनी पहचान नहीं खोना चाहते थे,
निर्माता से नौकर नहीं बनना
चाहते थे। विकास बाबू अपनी जिद पर अड़े रहे और इधर देखते-देखते घरों में ‘ब्राइट’
की बट्टी की जगह ‘सन लाइट, सर्फ़, निरमा और रिन घुसते गए। सिर्फ घरों
में ही नहीं घुसे लोगों के जेहन में घुस गए। विकास बाबू को अपने साबुन के व्यवसाय पर
दृढ विश्वास था। वे अक्सर कहते-“मैं नहीं डरता किसी हिन्दुस्तान लीवर या सर्फ़
एक्सेल से। चोले के भीतर केवल धोखा है। बस बाहरी टीम-टाम है। विज्ञापन है। हमारा
साबुन गलतफहमी का झाग नहीं पैदा करता, पर मैल काटता है। बहुत कम पानी में
इससे कपड़े धुल जाते हैं। क्योंकि हमारे पूर्वज राजस्थान के थे। वहां पानी का टोटा
रहता था। हमारे साबुन से सालों साल कपड़ों के रंग भी नहीं उड़ते । जिस दिन लोग
तात्कालिकता की चका चौंध से बाहर क्षितिज
के पार देखेंगे... हम बाजी जीत जायेंगे।”4 यह विकास बाबू की गलतफहमी थी
कि मध्यवर्गीय लोग अपनी तात्कालिकता के बाहर क्षितिज पार देखेंगे। विकास बाबू का
साबुन सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी परिवेश के हिसाब से फिट होते हुए भी विज्ञापनों
पर सवार होकर आये हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड के झागदार उत्पादों से पिछड़ गया। इस
कदर पिछड़ा की औंधें मुंह गिरे विकास बाबू को ही निगल गया। यह त्रासदी सिर्फ विकास
बाबू की अकेले नहीं है।
रामपाल
काका की भी एक कहानी है। कुम्हार रामपाल मिट्टी के बर्तन, दिए और मूर्तियाँ बनाकर सालभर गुजारा
कर लेते थे। आयातित बाज़ार ने रामपाल काका का भी घरेलू व्यापार छीन लिया। घर-परिवार
का खर्च चलाना मुश्किल हो गया। रामपाल काका ने एकलौती गाय भी बेच दी। वे अपने
व्यवसाय को बचा नहीं पाए और एक कलाकार के रूप में उनके जीवन का भी अंत उस दिन हो
गया जब रामपाल काका मजदूरी की तलाश में कलकत्ता शहर की ओर पलायन कर गए। भूमंडलीकरण
ने विकास बाबू और रामपाल काका जैसे कितने लोगों को तबाह किया। अब तक राष्ट्रीय
स्तर का वृहद् उद्योग, लघु-उद्योग,
छोटे काम करने वाले जैसे बढ़ई,
राजमिस्त्री,
कलाकार आधारित उद्योग व्यवस्था
प्रचलित थी। स्थानीय श्रम और संसाधनों की सहायता से क्षेत्रीय उपयोग के लिए
उत्पादन करती थी। बहुत हुआ तो बंगाल का उत्पाद पंजाब की मंडियों में बिकता था
लेकिन वृहद् स्तर पर सांस्कृतिक निर्यात भूमंडलीकरण की देन से संभव हुआ। भूमंडलीय
संस्कृति स्थानीय विशिष्टताओं को अजूबा मानती है। “अमेरिका की आर्चर मिडलैंड जैसी
कंपनी ने करोड़ों डॉलर यह साबित करने में खर्च कर दिया कि छोटे किसान न तो अच्छे
उत्पादक हैं और न ही भूखी दुनिया के लिए भोजन जुटाने में समर्थ हैं।”5 भारत में सेज इसी अवधारणा का परिणाम है। आज
छोटे-छोटे खेतिहर किसानों के हाथ से जमीनें निकल रही हैं। बड़े पैमाने पर जंगल कट
रहे हैं। नदियों के जल को बहुउद्देशीय परियोजनाओं के लिए रोका जा रहा है। आदिवासियों
का विस्थापन हो रहा है। पहाड़ ख़त्म होते जा रहे हैं और यह सब आम आदमी के अधिकार
क्षेत्र से निकलकर बड़े औद्योगिक घरानों के पेट में समाता जा रहा है।
धरती
के भीतर और बाहर के संसाधन सीमित हैं, लेकिन इसका दोहन असीमित हो रहा है। जंगल
काटकर सड़कें बनाई जा रही हैं। धरती का सीना फाड़कर बेहिसाब खनिज निकाले जा रहे हैं।
ओजोन की परत छिन्न-भिन्न हो रही है। समुद्र खंगाले जा रहे हैं और तरह-तरह का
प्रदूषण और जहर फैलाया जा रहा है। आखिर इस व्यवस्था का लाभ कौन उठा रहा है? क्या
गरीब किसान,
मजदूर और स्त्री इस व्यवस्था
में कहीं लाभार्थी हैं? देश रात-दिन भूमंडलीकरण की आंधी में उड़ रहा है। पर व्यक्ति
आय कम होती जा रही है। यानी लाभ सिर्फ कुछ आर्थिक नियंताओं और निगमों को हो रहा है।
किसानों,
मजदूरों,
आदिवासियों का विस्थापन,
पलायन दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा
है। इस कड़ी में स्त्री भी शामिल है। अगर आर्थिक आधार सुदृढ़ रहा होता तो इस उपन्यास
की नायिका संघमित्रा की माँ कभी भी संघ की ओर नहीं जाती। छुटकी को वेश्यावृत्ति का
जीवन यापन नहीं करना पड़ता। साध्वी शशि प्रभा की संघ से घर वापसी में कोई कठिनाई
नहीं होती और उसे आत्महत्या की हद तक नहीं जाना पड़ता। रामपाल काका जैसे कलाकार को
मजदूर होने के लिए विवश नहीं होना पड़ता।
नवउदारवादियों ने स्वतंत्र बाजार के
साथ जनतंत्र के विस्तार और समृद्धि का स्वप्न देखा। अर्थात पूंजीवाद और जनतंत्र एक
साथ कदमताल करते हुए बेहतर तरीके से चल सकते हैं। लेकिन आज स्थितियां बिल्कुल
भिन्न हैं। लिहाज़ा अमीर और अमीर होता जा रहा है
और गरीब और गरीब। देश अमीर और गरीब में साफ़-साफ़ विभाजित देखा जा सकता है। एक
भौगोलिक इकाई के भीतर रहते हुए समाज का ऐसा विभाजन पहले कभी नहीं रहा।
नारीवादी
चिन्तक मानते हैं कि आर्थिक परिवर्तन का खामियाजा स्त्रीवर्ग को ज़्यादा भुगतना पड़ा
है। श्रमिक वर्ग के रूप में स्त्रियाँ बेकार हुई हैं। “नारीवादी चिंतकों के अनुसार
भारत का जनतंत्र घरेलूपन के कल्ट में विलिन होता दिखाई देता है,
जहाँ परिवार और गृहस्ती के
निजी जगत को धर्म और संस्कृति के नाम पर तरजीह दी जा रही है।”6 अर्थ का
धर्म है विस्तार। इसीलिए यहाँ धर्म और अर्थ का गहरा गठजोड़ दिखाई देता है। एंगेल्स
और मार्क्स का कहना है कि “स्त्री दमन का मुख्य कारण स्त्री का बुर्जुआ के निजी
क्षेत्र के भीतर ही उत्पादन और पुनरुत्पादन में सीमित होकर रह जाना है। स्त्री को
तभी मुक्ति मिल सकती है जब वह उत्पादन के विकसित औद्योगिक क्षेत्रों में अपनी
पहचान बनाए।”7 मार्क्स और एंगेल्स की स्त्री विषयक सदिच्छा सही है। स्त्री
को अपनी आर्थिक प्रगति के लिए भूमंडलीय मूल्यों से तालमेल बैठाना जरुरी है। उन्नत
तकनीकी के साथ कदमताल मिलाने की जरुरत है। लेकिन यह भी सच है कि स्त्री गैर परम्परागत
उत्पादन में पुरुष वर्चस्व के मुकाबले पिछड़ जाती है। इस उपन्यास की नायिका
संघमित्रा अपने पुश्तैनी ‘साबुन’ के व्यापार को भरसक आगे बढाने की कोशिश करती है
लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे टीक नहीं पाती। संघमित्रा जब अपने साबुन की
बट्टियां लेकर मंडी पहुंचती है तो वह देखती है कि-“अब बाज़ार का चरित्र बदल गया था।
टी.वी. विज्ञापनों ने सर्फ़, सनलाइट और रिन साबुन को मोर मुकुट
पहना दिया था। गाँव-गाँव इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साबुन के एजेंट बन गए थे जो
चार-चार मुंह से उनके गुणगान कर उन्हें बेच रहे थे।”8 उसके कानों में
पिता के अंतिम दिनों के उदासी भरे शब्द गूंजने लगते हैं –“वस्तुओं का ज़माना आ रहा
है। साबुन आदमी को खा रहा है और सच ...इन करोड़ों के विज्ञापनों वाले साबुन ने हमें
खा डाला,
कहीं
का नहीं छोड़ा। उसके सामने हमारा लोकल साबुन ब्राइट घुटना टेक रहा था।”9
प्रसिद्ध नारीवादी चिन्तक प्रभा खेतान ने लिखा है कि-“स्त्री श्रम के क्षेत्र में काफी
नियुक्ति की गई है। कम से कम आधी से अधिक जनसंख्या स्त्री की है,
किन्तु बाज़ार की शक्ति को
स्थापित करने से स्त्री शक्ति का जिंसीकरण हुआ है क्योंकि बाज़ार स्त्री श्रमिकों
के जीवन में व्यवस्थात्मक रूप से हस्तक्षेप करता है। कार्यक्षेत्र में यदि स्त्री
अधिक से अधिक भाग ले रही है तो वहां यौन उत्पीड़न भी बढ़ा है,
घटा नहीं है। दूसरे सबसे दुःख
की बात है,
स्त्री का यों बिकाऊ होना। पुरुष
की तुलना में उसके श्रम का कमतर मूल्यांकन होना और स्थानीय राजनीतिक व्यक्तियों का
स्त्री समस्या की ओर से आँखें फेरना।”10 स्त्री श्रम का सस्ता होना और
उनसे किसी तरह के हिंसक आन्दोलन की संभावना का शून्य होना बाज़ार में स्त्री श्रम
की भागीदारी बढ़ाई है। लेकिन सबसे दुखद पक्ष है कार्यक्षेत्र में स्त्री का यौन
शोषण। पिता की मौत के बाद संघमित्रा के की माँ को भी ऐसे यौन शोषण का शिकार होना
पड़ा था। संघमित्रा की माँ उससे कहती है
कि- “यह आदमियों की दुनिया है जो रोटी तो देगी पर बोटी नोंच लेगी। फटी चदरी-सा यह
घर अब न तुम्हारे संभले-संभलेगा और न मेरे।”11
सवाल
यह है कि इस दुनिया को सिर्फ आदमियों की दुनिया किसने बनाई। निश्चित तौर पर इसे वर्चस्वशाली
पुरुषों ने ही अपने लिए बनाई। माँ का यह कहना कि-“घर की बिगड़ती हालत और बिना मर्द
का अपना घर।”12 उस मर्दानगी पर ठप्पा लगा देता है जहाँ यह माना जाता है
कि पुरुषों के बिना घर नहीं चल सकता। इन्हीं संकटों से निकलने के लिए माँ ने
संन्यास की घोषणा करती है। दरअसल
कार्यक्षेत्र पर स्त्रियों का यौन शोषण सिर्फ यौन शोषण भर नहीं होता। बहुतेरी
स्त्रियाँ इस शोषण के लिए तैयार नहीं होती और कार्यक्षेत्र से अपने को बाहर कर
लेती हैं। स्त्रियों के कार्यक्षेत्र से बाहर होने का मतलब है उनकी आर्थिक स्थिति
का बिगड़ना और पुरुष पर निर्भर होना। यानी नागरिक अधिकारों के साथ सम्मान पूर्वक
जीवन जीने का कोई आधार स्त्रियों के पास नहीं रह जाता है। वैसे संघमित्रा का
विश्वास दृढ है,
वह जीवन से पलायन का रास्ता
चुनने का समर्थन नहीं करती लेकिन कम्प्यूटर कोर्स करने के बाद जब वह जॉब करने के
लिए जाती है तो उसे भी ऑफिस में यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है।
इस
उपन्यास में धर्म एक सेफ्टी वाल्व की तरह आता है। संघमित्रा कहती है अजीमगंज मुहल्ला “एक साथ प्रागैतिहासिक,
मिथकीय और आधुनिक था। औरतें
यहाँ घूंघट में भी थीं और जिंस-टॉप में भी। दुकानों में जड़ी-बूटियों,
इसबगोल की भूसी,
पुदीन हरा,
जायफल, जलजीरा, लवन भास्कर के साथ-साथ विदेशी परफ्यूम,
साबुन, बरमुडा और सीडी भी बिकती थी। जहाँ
सिलबट्टे भी थे और मिक्सी भी। आधुनिकता की तेज बहती हवाओं में महिलाओं के दुपट्टे
उड़ने लगे थे। पर जहाँ धर्म था वहां उड़ते दुपट्टे के साथ धर्म का घूँघट भी।”13
यह हमारे समय और समाज की विडम्बना नहीं तो और क्या है कि-“जड़ से उखड़ते पेड़ की
टहनियों की तरह बस्तियां उजड़ रही थीं। सारे कुटीर उद्योग-धंधे धूल चाट रहे थे। नौजवान
शहर की ओर पलायन कर रहे थे। दो दलित दूल्हों को घोड़ों से उतार दिया गया था,
सवर्णों द्वारा पर कहीं उसकी
चर्चा नहीं थी। चर्चा थी तो सिर्फ हमारे परिवार की। माँ की धर्म परायणता की,
छुटकी के वैराग्य की।”14
इस कथन में संघमित्रा का नैराश्य भी है और आक्रोश भी। इस धर्मभीरु देश में तर्क
नहीं किया जाता है। धर्म के पीछे के चेहरों को कभी बेनकाब करने की कोशिश भी नहीं की
जाती है। जिस देश के उद्योगपति, राजनीतिज्ञ और अपराधियों का धर्म के ठेकेदारों से गहरा
गठजोड़ हो वहां भूमंडलीय ताकतों के खिलाफ लड़ने या धर्म के खिलाफ बोलने की कोई
हिम्मत कर सकता है? देश जब भूख,
गरीबी, बेगारी से पीड़ित होकर कराह रहा हो,
जब देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा हो,
तब देश की शासन-सत्ता पर काबिज लोग धर्म और
पूंजी के आसरे विकास पुरुष का एक नैरेटिव गढ़ना जरुरी मुद्दों से ध्यान भटकाना
नहीं है क्या?
प्रसिद्ध
समाज विज्ञानी श्यामा चरण दूबे ने लिखा है कि- “भूमंडलीकरण की अर्थनीति शुद्ध
अर्थवाद को प्रश्रय दे रही है। संस्कृतिवाद के आग्रह संस्कृति और विकास के संबंधों
पर पुनर्विचार की प्रेरणा बने हैं। विकास के लक्ष्यों और साधनों को सांस्कृतिक रूप
से संवेदनशील बनाकर ही कार्यक्रमों को अधिक ग्रहणशील बनाया जा सकता है।”15
संघमित्रा में संस्कृतिवाद का गहरा आग्रह है। वह अपने जीवन मूल्यों को बचाए रखना
चाहती है और समन्वित विकास का लक्ष्य निर्धारित करना चाहती है। अपनी धार्मिक
यात्रा के दौरान संघमित्रा ने एक ऐसी दुनिया का सच देखा जो आधुनिकता और भूमंडलीकरण
से अभी बहुत दूर है। गिरिडीह, झारखण्ड से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर
शिखरजी की पहाड़ियों की तराई में बसा छोटा से मधुवन गाँव जैनियों का मक्का-मदीना
सरीखा है। एक किलोमीटर की रेंज में जैनियों का एक से एक आलीशान इक्कीस मंदिर। मंदिरों
की भव्यता,
उत्कृष्टता और अनूठा स्थापत्य
को देखकर मंदिरों का देश कहा जा सकता है। दूर से आने वाले यात्री परिक्रमा करते
हुए धार्मिक आह्लाद से अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाते। दूसरी ओर स्थानीय जीवन आज भी
आधुनिकता के प्रभाव से अछूता। शिखरजी की परिक्रमा में संघमित्रा ने जिस जीवन को
देखा वह इस प्रकार है- “छोटे-छोटे जीवन चित्र मेरी दुनिया को विस्तार दे रहे थे। और
थोड़ा आगे बढ़ी तो रोगी, कोढ़ी,
भूखे, नंगों, लूलों और लंगड़ों की पूरी एक लड़खड़ाती
दुनिया मेरे सामने थी, जिसने
भोर की सारी सात्विकता और प्रशांति के परखच्चे उड़ा कर रख दिए थे। मेरा मन बुरी तरह
भन्ना गया था। कहीं टूटे हाँथ, तो कहीं रेंगते घसीटते शरीर,
तो कहीं गली हुई नाक तो कहीं
सड़ी हुई उंगलियाँ। ऐसे जीवन जो जिंदा थे मगर जीवित नहीं नज़र आ रहे थे।”16
इस देश में मंदिर पर मंदिर बनते हैं। मंदिरों की राजनीति होती है। राजनैतिक
पार्टियाँ यहाँ तक की सेकुलर पार्टियां भी चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण से पीछे
नहीं रहतीं। किसी स्थान के स्थानीय मूल बाशिंदों को स्कूल और अस्पताल मूलभूत
सुविधाएं होती हैं। रोजगार के लिए स्थानीय स्तर पर कल-कारखानों की जरुरत होती है। लेकिन
उनकी जगह करोड़ों रुपयों के मंदिर और मूर्तियाँ बनती हैं। सवाल यह है कि
सर्वसमावेसी विकास किस रास्ते से होकर गुजरेगा ?
आदिवासी
क्षेत्रों में पहले विकास के नामपर विस्थापन शुरू हुआ, जंगल काटे गए, खनन के लिए डायनामाइट लगाकर जमीन और
पहाड़ों को धूलकणों में तब्दील कर दिया गया। तमाम आदिवासी क्षेत्र आज विकिरण की
समस्या से जूझ रहे हैं। जंगली जीवों के अस्तित्व पर भी गहरा संकट छाया हुआ है। इकोसिस्टम
बिगड़ रहा है। प्रकृति चहुओर प्रदूषण का शिकार है लेकिन इसकी चिंता पूंजीवादी समाज
को कहीं नहीं है।
भूमंडलीकरण
और आवारा पूंजी को बढ़ावा देने वाले निगमों के अदृश्य मालिकों में कोई अपराधबोध नहीं है। दरअसल पूंजीवादी निगम अब
किसी राष्ट्रीय या स्थानीय सीमा में बंधे हुए नहीं हैं इसलिए स्थानीय जीवन की
चिंताएं भी इनके केंद्र में नहीं हैं। आवारा पूंजी अपना झोला लिए पूरी दुनिया में
इसे भरने के लिए भटकती है। पवन कुमार वर्मा ने ‘भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान’
में उदारीकरण के शुरूआती दौर की एक दास्तान उड़ीसा के रायगढ़ जिले की इस प्रकार लिखी
है- “एक प्रमुख भारतीय पत्रिका ने उड़ीसा के रायगढ़ जिले के बेहद दरिद्र ग्रामों में
भूखमरी की कगार पर खड़े लोगों के बारे में आवरण कथा छापी थी। इसमें भूख से संघर्ष
कर रहे लोगों के सजीव चित्र थे और यह भी गिनाया गया था कि इन अति दरिद्रों को साल-भर
के लिए क्या नसीब होता है; बारहों महीनों न दोपहर का भोजन, न रात का भोजन और कुछ महीनों में तो
केवल जंगली कंद,
मूल, फल और बीज इत्यादि।”17
सवाल हमारी संस्कृति के आचरण और आवरण का है। जो संस्कृति किसी भी मानव को भूखा न
छोड़ने का दावा करती है, जहाँ परोपकार को आम जनमानस की सामूहिक
चेतना का हिस्सा माना जाता है, वह इस दौर
में इतना लकवाग्रस्त कैसे हो सकती है? हम इतने संवेदनशून्य कैसे हो गए? यह चिंता
का विषय है? क्या यह वैचारिक विकलांगता का दौर नहीं है?
सवाल
धर्म के धर्म का भी है। जब पंथगार धरमशाला में संघमित्रा महाराज से पूछती है कि- “आपके इर्द-गिर्द मानवीय पीड़ा और त्रासदी
का समुद्र उफन रहा है। क्या नहीं लगता आपको कि इसके प्रभाव से अछूते आप भी नहीं
रहेंगे कि आपको इसके लिए कुछ भी करना चाहिए...आखिर धर्म हमें मानव सेवा का पाठ ही
तो पढ़ाते हैं।”18 तो वस्तुतः वह धर्म के मानवीय रूप की परिकल्पना करती
है। यह उसे बाद में पता चलता है कि धर्म ने पूंजीवाद से गठजोड़ कर लिया है। जैसे
पूंजीवाद को आम आदमी की चिंता नहीं है वैसे ही धर्म भी आम आदमी की चिंताओं से दूर
जा चुका है। धर्म अगर इतना मानवीय होता तो क्या वह अपनी सभाओं में,
प्रवचनों में धनिकों के लिए
अग्रिम पंक्ति सुरक्षित रखता। साध्वी शशिप्रभा जो की मंगला से साध्वी शशि प्रभा
में दीक्षित हुई थी। संघ से उकता जाती है। घर वापस आना चाहती है। लेकिन घर वापसी
धर्म और अर्थ के गठजोड़ की वजह से नहीं हो पाती। यहाँ धर्म क्या शशि प्रभा को आत्महत्या
के लिए मजबूर नहीं करता। छुटकी यानी साध्वी दिव्य प्रभा संघ से वापस जाना चाहती है
लेकिन अभय मुनि के हवस का शिकार हो जाती है और अंततः वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर
होती है। मोक्ष के लिए गंगा बाई को मर्मान्तक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। धर्म भी आज
पूंजी की तरह मार्किट वैल्यू की चिंता में डूबा हुआ है उसे व्यक्ति और समाज की
चिंता नहीं है। धर्म की ब्रांडिंग हो रही है। इस दौर में ईश्वर के दूध पीने की
खबरें जितनी तेजी से फैलती हैं गरीबी, भूखमरी की खबरें उतनी ही तेजी से दबा
दी जाती हैं। धर्म सिर्फ आस्था की मांग करता है किसी तरह के तर्क की नहीं इसीलिए
तो महाराजसा संघमित्रा के सवालों का जबाब देते हुए कहते हैं- “यह आधुनिक पीढ़ी भी
ईसाईयत की मानव सेवा से अजीब तरह से प्रभावित है। जबकि जैन धर्म ईसाईपन से आगे की
चीज है। क्योंकि हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर यात्रा करते हैं। हम धर्म को पेट और
रोटी से ऊपर,
बहुत ऊपर की चीज मानते हैं।”19
इस कथन का आशय साफ़ है कि धर्म की चिंता के केंद्र में आम आदमी के जीवन की आम
तकलीफ़ें नहीं हैं। एक बुद्धिजीवी की चिंता के केंद्र में राष्ट्र की प्रगति होती
है और धार्मिक व्यक्ति धर्म को राष्ट्रीय चिंता घोषित करता है। क्या धर्म को
राष्ट्रीय चिंता का विषय बनाने से हमारी दुनियावी और भौतिक जरूरतें पूरी हो सकती
हैं? अगर यह भी मान लिया जाए कि धर्म भौतिकता नहीं आध्यात्मिक प्रगति को प्रश्रय
देता है तो क्या राष्ट्र का हर नागरिक सिर्फ आध्यात्मिकता को अपने जीवन का केंद्र
बना ले और भौतिक दुनिया से पलायन कर ले। यह स्पष्ट है कि धर्म हमारी राष्ट्रीयता
का आधार नहीं हो सकता। कमल नयन काबरा ने लिखा है कि-“हमारी राष्ट्रीयता का
प्रकटीकरण मंदिर बनाने या किसी मस्जिद को उजाड़ने में नहीं हो सकता है। हमारी
राष्ट्र-राज्य बनने की प्रक्रिया भी कुछ स्थानों पर पूरी नहीं हो पाई है। सत्ता
शीर्ष पदों से आये विभाजक बयान स्थिति को और जटिल बनायेंगे। सत्ता-लोलुपता और
सत्ता की राजनीति में अंतर कठिन होता जा रहा है।”20 आज स्थिति यह है कि
विभाजक बयान सत्ता शीर्ष पर बैठे हुए लोग ही नहीं धर्म पीठों के शीर्ष पर बैठे लोग
भी दे रहे हैं। भारतीय समाज को इन खतरों से निपटने की जरुरत है।
आज मध्य वर्गीय समाज की दृष्टि अपने स्वार्थों और हितों तक केन्द्रित दिखाई देती है। तात्कालिक स्वार्थ के वशीभूत न वह समस्या की असली जड़ तलाशता है और न ही अपनी भविष्य की पीढ़ियों के लिए स्थाई जीवनाधार सुरक्षित करना चाहता है। ऐसे समय में संघमित्रा का चरित्र अपने नैतिक गिरावट को पूरी तरह रोक पाने में सफल दिखाई देता है। वह राष्ट्रीय चरित्र की सिकुड़ती नैतिकता के दायरे का विस्तार चाहती है। वह कामनाओं का पौधा नहीं उगती बल्कि संयम और पुनर्मूल्यांकन की फसल उपजाने की कोशिश करती है।\
निष्कर्ष : भूमंडलीकरण की आंधी में संघमित्रा एक मशाल की तरह है। वह निरंतर संघर्ष करती है, पराजय स्वीकार नहीं करती। वह भूमंडलीकरण की दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ती, हिंसा और यौन प्रताड़ना के खिलाफ लड़ती है, स्थानीयता को बचाए रखने के लिए लड़ती है, धर्माचार्यों के खिलाफ लड़ती है, अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के लिए लड़ती है, आदिवासियों के हक़-अधिकारों के लिए लड़ती है। वह सम्पूर्ण मानवता के लिए लड़ती है। अन्याय के खिलाफ हथियार उठाने और जेल जाने तक लड़ती है। संघमित्रा के भीतर व्यवस्था परिवर्तन की चेतना है। जिस दिन यह संघर्ष चेतना सामूहिक चेतना में बदलेगी उस दिन हर तरह के अन्याय, अत्याचारों का अंत हो जाएगा। यही मधु कांकरिया की मूल चिंता है और उपन्यास का दीर्घजीवी स्वप्न।
1.प्रभा खेतान, बाज़ार के बीच बाज़ार के खिलाफ, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ 10
2.मधु कांकरिया, सेज पर संस्कृत, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपर बैक संस्करण 2010, पृष्ठ 10
3.बाज़ार के बीच बाज़ार के खिलाफ, पृष्ठ 13
4.सेज पर संस्कृत, पृष्ठ 11
5.बाज़ार के बीच बाज़ार के खिलाफ, पृष्ठ 36
6.वही, पृष्ठ 60
7.वही, पृष्ठ 63
8.सेज पर संस्कृत, पृष्ठ 48
9.वही, पृष्ठ 48
10.बाज़ार के बीच बाज़ार के खिलाफ, पृष्ठ 244-245
11.सेज पर संस्कृत, पृष्ठ 51
12.वही, पृष्ठ 50
13.वही, पृष्ठ 67
14.वही, पृष्ठ 73
15.श्यामाचरण दुबे, विकास का समाजशास्त्र, वाणी प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2001, पृष्ठ 164
16.सेज पर संस्कृत, पृष्ठ 18
17.पवन कुमार वर्मा, भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, पहला संस्करण 2009, पृष्ठ 170
18.सेज पर संस्कृत, पृष्ठ 33
19.वही, पृष्ठ 39
20.कमल नयन काबरा, भूमंडलीकरण के भँवर में भारत, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005, पृष्ठ 130
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
एक टिप्पणी भेजें