शोध आलेख : हिंदी उपन्यासों में आदिवासी समाज की आर्थिक सरंचना का विश्लेषणपरक अध्ययन / मनप्रीत कौर एवं डॉ. राजेन्द्र कुमार सेन

हिंदी उपन्यासों में आदिवासी समाज की आर्थिक सरंचना का विश्लेषणपरक अध्ययन
- मनप्रीत कौर एवं  डॉ. राजेन्द्र कुमार सेन

शोध सार : मानव समाज के क्रिया कलापों में आर्थिकता की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण होती हैI किसी भी समाज की संस्कृति उस समाज के आर्थिक संसाधनों के अनुरूप ही विकसित होती हैI आर्थिकता के अंतर्गत विविध संस्थाओं का विकास होता है और यही संस्थाएं बाद में परंपरा के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी समाज का मार्गदर्शन करती रहती हैंIभारत के अन्य समाज और संस्कृतियों की भांति ही आदिवासी समाज और संस्कृति के विकास में भी आर्थिकता महत्वपूर्ण रही हैI आदिवासी समाज का आर्थिक ढांचा संसाधनों की उपलब्धता और परिस्थितयों के अनुरूप ही विकसित हुआ हैI आदिवासी साहित्य में आदिवासी समाज की इसी आर्थिक संरचना और संस्कृति का विश्लेष्ण देखने को मिलता हैI हिंदी में रचित आदिवासी उपन्यासकारों ने भी आदिवासी समाज की संस्कृति के विश्लेषण के साथ-साथ आदिवासी समाज के सामाजिक और आर्थिक तंत्र का वर्णन किया हैI इन्हीं उपन्यासों को आधार बनाकर प्रस्तुत शोधपत्र में आदिवासी सामाज की आर्थिक संरचना का विश्लेषणपरक अध्ययन करने का प्रयास किया गया हैI  

बीज शब्द: समाज, संस्कृति, आदिवासी, आर्थिकता, आजीविका, संसाधन, कृषि, मजदूरी, पशुपालन, शिकार आदिI

मूल आलेख : आदिवासी समाज देश का वह समाज है जो आज भी प्राचीन अवस्था में जीवन व्यतीत कर रहा हैI उनका जीवन आज भी प्राचीन मान्यताओं और परम्पराओं पर आधारित हैI आदिवासी समाज का निवास स्थान जंगल और उनसे जुड़ा परिवेश होता हैI प्रत्येक आदिवासी समाज की एक विशिष्ट सामाजिक सरंचना होता है जिससे उनका सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक जीवन जुड़ा होता हैI आदिवासी समाज का आर्थिक जीवन उनकी भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप होता हैI आदिवासी क्षेत्र प्राकृतिक सम्पदा के भंडार हैंI आदिवासी अपनी आजीविका के लिए जंगल पर आश्रित होते हैंI प्राकृतिक जीवन जीने के कारण उनकी आवश्कताएँ अधिक नहीं होती और जरुरत की वस्तुएं उन्हें जंगल से ही प्राप्त हो जाती हैंI जंगल से प्राप्त लकड़ी से वह अपने निवास स्थान बनाते थे और जंगली फल-फूल, जानवर इत्यादि को भोजन के रूप में प्रयुक्त करते थेI शिकार करना, मछली पकड़ना, जंगल से प्राप्त वस्तुओं की चीजें बनाकर हाट-बाजार में बेचकर अपना जीवन बसर करते थेI इसके अतिरिक्त जमीन साफ़ करके वहाँ कृषि कार्य और पशु-पालन करते थेI ब्रिटिश काल में जंगल पर ब्रिटिश सरकार ने अधिकार कर लिया और उनका जंगल में प्रवेश वर्जित हो गयाI सरकार ने जमीदारी प्रथा द्वारा उनकी स्थिति और भी बदतर कर दीI जिस जंगल के वे स्वामी हुआ करते थे उसी जंगल और जमीन पर सरकार और जमीदारों का अधिकार हो गया और आदिवासी किसान से मजदूर बन गएI आधुनिक काल में स्थिति और भी बदतर हो गईI जंगल पर सरकार का एकाधिकार, शिकार पर रोक, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन इत्यादि के कारण आदिवासी समाज की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आया हैI अब उनकी जंगल पर निर्भरता कम हो गई हैI यह औद्योगिक मजदूर बन गए हैं, जंगल से बाहर शहरों में मजदूरी करने जाने लगे हैंI विकास के इस युग में उनको विस्थापन का दंश झेलना पड़ा रहा हैI अपनी जमीन से अलग होने के कारण आदिवासी रोजगार की तलाश में दर-दर ठोकरें खाने के लिए विवश हैंI भारत में आदिवासी समाज की आजीविका के मुख्य साधन कृषि और जंगल हैंI जंगल और उसके आस-पास रहने वाले आदिवासी जंगल से प्राप्त वस्तुओं से अपनी मूलभूत जरूरतों की पूर्ति करते हैं और मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी कृषि कार्य के द्वारा जीवनयापन करते हैंI जंगल से प्राप्त फल-फूल, लकड़ी, पत्ते इत्यादि से टोकरी, बीड़ी आदि बनाकर साप्ताहिक हाट बाजारों में बेच कर अपनी आजीविका का निर्वहन करते हैंI भूमंडलीकरण के इस युग में आदिवासी क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के कारण आदिवासी औद्योगिक मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई हैI विकास के इस युग में आदिवासी अपने परम्परागत कार्यों पर आश्रित होकर अन्य व्यवसायों में भी प्रवेश कर रहे हैंI जैसे-जैसे आदिवासी समाज का सम्पर्क बाहरी दुनिया से बढ़ रहा है, उनके जीवन में परिवर्तन देखने को मिल रहा है, वह अपने क्षेत्र से बाहर आकर काम करने लगे हैं, जिससे उनके जीवन स्तर में परिवर्तन आया है परन्तु इसके कारण उनकी संस्कृति और भाषा पर दुष्प्रभाव भी पड़ा हैI आजीविका के साधनों के रूप में आदिवासी समाज द्वारा किए जाने वाले कार्यों का विवरण निम्नाकिंत है:

कृषि और जंगल से प्राप्त वस्तुएं: आदिवासी समाज में जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भरता एक प्रमुख पक्ष हैI भारत में आदिवासी समाज का लगभग 80% हिस्सा कृषि पर निर्भर हैI आदिवासिओं के पास जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े होते हैं, जिनमें फसल उगाकर वह अपना जीवन बसर करते हैंI आदिवासी समाज में स्थाई और स्थानान्तरित दो प्रकार की कृषि की जाती हैI स्थाई कृषि में एक फसल काने के बाद वहाँ दूसरी फसल उगा दी जाती है, परन्तु स्थानान्तरित कृषि में एक फसल काटने के बाद खेत को कुछ समय तक खाली छोड़ दिया जाता है, ताकि खेत अपनी उत्पादक शक्ति पुनः प्राप्त कर सकेI  स्थानान्तरित कृषि से संबंधित एक प्रकरण अरण्य में सूरजउपन्यास में देखने को मिलता है, ‘खूब घने जंगल, उनके बीच झोपड़ा बना लेते। झाड़ों को काटकर जमीन पर खेती कर लेतेI सभी जमीन उनकी थी, इस साल एक जमीन पर खेती होती तो दूसरे साल दूसरी जमीन परI’(1) पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि कार्य अत्यंत कठिन हैI असुर, कांध, बोंडो और जुआंग आदिवासी पहाड़ी कृषि करते हैंI पहाड़ी इलाकों में सीढ़ीदार कृषि का प्रचलन हैI ढलान वाली जमीन में बाँध बनाकर मिट्टी को कटने से रोका जाता हैI धान, मक्का और रुई के लिए यह कृषि महत्वपूर्ण हैI ‘झूम कृषि के लिए जंगल को साफ़ कर कुछ समय खुला छोड़ा जाता है, फिर एक-दो साल बाद फसल बोई जाती हैI जंगल कानून बनने से पहले आदिवासी जंगल को साफ़ कर वहां फसल उगा लेते थे इसलिए झूम या स्थानान्तरित कृषि उनके लिए लाभदायक भी थीI परन्तु जंगल पर सरकार का एकाधिकार होने के कारण आदिवासियों का जंगल में प्रवेश वर्जित हो गया है, उनको जंगल से जरुरत की वस्तुएं लेने के लिए भी जंगल अधिकारियों की मिन्नत करनी पड़ती हैI इसलिए स्थानान्तरित कृषि करने की प्रवृति लगभग समाप्त हो गई हैI ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआउपन्यास में विदेश से आई शोध छात्रा प्रज्ञा को आदिवासी समाज की आजीविका के बारे में बताते हुए अदित्याश्री कहता है, “दुर्गम पहाड़ी इलाका है। बरसात की बारिश के भरोसे थोड़ी बहुत खेती कर लेते हैं और शिकार तथा जंगल से लघु वनोपज जैसे मधु, दोना पत्तल, लकड़ी या कोई जंगली फल, दातुन आदि ले जाकर हाट में बेच बाचकर किसी तरह पेट पाल लेते हैंI(2)

 जहाँ बाँस फूलते हैउपन्यास में भी साप्ताहिक हाट बाजार में आजीविका कमाते आदिवासियों को दर्शया गया है, “जोवा ने अपनी माँ द्वारा लाई गई जंगली फ़ाख्तों की टोकरी उठाई और गाँव  के बाजार में बेचने चला गयाI जहाँ पपीते वाले, हिरन के माँस वाले, अंटम वाले और तम्बाकू वाले पहले से ही अपनी दुकान लगा के बैठे थेI(3) इसी प्रकार का वर्णन मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआउपन्यास में मिलता है, “जाम्बीरा भी हाट में कुरती  की दाल बेच रहा था और बगल में एक बुढ़िया बांस की दोमुही कंघी बेच रही थीI(4) आदिवासी समाज में कृषि करने का ढंग अति प्राचीन हैI गरीबी, अज्ञानता और कृषि के आधुनिक उपकरणों के अभाव के कारण जमीन से पैदावार कम होती हैI परिवार विघटन के कारण जमीन अनेक टुकड़ों में बंट जाती है और पैदावार और भी कम हो जाती हैI आदिवासी समाज की एकमात्र सम्पति उनकी जमीन और पशु होते हैंI जिनको जरुरत पड़ने पर वह या तो बेच देते हैं या फिर गिरवी रख देते हैंI साहूकार और महाजन उनकी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर उनको ऊँची दरपर ब्याज लगाते हैं और आदिवासी उम्रभर ब्याज नहीं चुका पाता और उसकी कई पीढियां ब्याज की रकम चुकाने में निकल जाती हैंI कृषि के साथ-साथ जंगल से प्राप्त वस्तुओं से अपनी आजीविका कमाते हैंI जमीन के टुकड़े छोटे होने के कारण उनको पेट भरने के लिए जंगल पर आश्रित रहना पड़ता हैI ग्लोबल गाँव के देवतामें उपन्यासकार रणेन्द्र ने असुर आदिवासी समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में बताते हुए कहा है, “इस इलाके के लगभग सभी गाँवों में ऐसे साल भर अनाज ऊगा पाने वाले दो-चार परिवार होते। अधिकांश परिवारों के पास इतनी जमीन होती ही नहीं कि साल भर खाने के लिए मक्का भी मिल सके। जिस घर में मजूरी खटनेवाले हाथ रहते वे तो खान-खदान में खटकर पेट पाल लेते, किन्तु जिन घरों में खटने लायक समाँग नहीं होता उस घर का पेट तो जंगल ही पालता। महुआ, कटहल, कई तरह के कन्द और साग, सब पेट भरने के काम आतेI(5) ऐसा ही एक प्रकरण जंगल के फूलउपन्यास में देखने को मिलता है, जब तहसीलदार करतमी से गाँव में लोगों के होने का कारण पूछता है तो करतमी बताता है कि, “हज़ूर यहाँ खाने का टिकाना कहाँ हैI थोड़ा सा मक्का पैदा होता हैI कुछ कूदई और कुटकी, इसमें चार-छः माह से ज़्यादा पेट नहीं चल सकताI  इसलिए हम सब जंगल जाते हैंI(6) अरण्य में सूरजमें सोहना के बापू सयाना के पास पहाड़ी पर चौथाई बीघा जमीन थीI सयाना सुबह चार बजे उठ कर खेतों में काम करता हैं और फिर सात बजे की बस से मजदूरी करने लिए शहर चला जाता हैंI आजीविका के साधन सीमित होने के कारण आदिवासी समाज में भुखमरी और अकाल की समस्या भी देखने को मिलती हैI बारिश की कमी, जंगली जानवरों के आतंक के कारण फसल नष्ट हो जाती हैI ऐसी स्थिति में आदिवासी जंगल पर आश्रित हो जाते हैं और जंगल से प्राप्त कंद-मूल, फल इत्यादि से अपना पेट भरते है और जंगल से प्राप्त वस्तुयों को हाट बाजार में बेचकर गुजारा करते हैंI धूणी तपे तीरउपन्यास में ओले पड़ने से आदिवासियों की फसल नष्ट हो जाती है तो वह गोविन्द गुरु की धूणी पर आते हैंI गोविंद गुरु उनको समझाते हुए कहते हैं, ...इस फसल के दाने तुम्हारे हाथ नहीं आयेI कोई बात नहींI धीरज रखना होगाI जंगल में घास खूब है और दरख्तों में पत्तों की कमी नहींI बैल-गाय-बकरियों को चारा खिलाने में कोई दिक्कत नहीं होगीI रहा सवाल तुम्हारे पेट का, तो इस बार जंगल में दूर तक सही, तुम गोंद इकट्ठा करना, शहद इकट्ठा करना, सुखी लकड़ी इकट्ठी करना और इस बार इस सबको बनिये को बेचकर हाट में जाकर बेचोगे तो दो पैसे ज्यादा मिलेंगे और महुआ के दरख्त काम चलाऊ कुछ कुछ देते ही रहते हैंI(7)

 फसल नष्ट होने पर आम, पपीता, महुआ, कटहल इत्यादि द्वारा आदिवासी अपना पेट भरते हैंI ‘जहाँ बाँस फूलते हैंउपन्यास में भी हिरन का मांस, अंटम(सरसों) पपीता बेचकर आजीविका कमाने वाले मिजो आदिवासियों का वर्णन मिलता हैI जंगली जानवरों के मास को सुखाकर उसको लम्बे समय तक प्रयोग करने की कला भी आदिवासी समाज में देखने को मिलती हैI आदिवासी मस्तमौला प्रवृति के होते हैं, वे जितना कमाते है उसे खा लेते हैं, उनमें संचय करने की प्रवृति नहीं होतीI वह जंगल से भी उतना ही लेते हैं जितना उनको जरुरत होती हैI इस का उल्लेख मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआमें मिलता है जब अभिषेक प्रज्ञा को बताता है, यहां के बाघों की  तरह यहां के ज्यादतर लोग मस्तमौला प्रकृति के होते हैंI अपनी मर्जी के मालिकI  स्वभाव से किसी की गुलामी पसंद नहीं करतेI किसी दबाव, किसी बंधन में काम नहीं कर सकतेI बहुत ज्यादा की चाहत भी नहीं है इनके मन मेंI जब मन हुआ काम पर गए नहीं हुआ नहीं गएI(8)

पशुपालन: आदिवासी समाज का दूसरा प्रमुख और प्रधान कार्य पशु पालन हैI भारत के आदिवासी जनजातियों में हिमाचल प्रदेश के गुज्जर और दक्षिण के नीलगिरी पहाड़ियों के टोडा प्रमुख रूप से पशुपालक हैंI इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के भोटिया भी पशुपालक की श्रेणी में आते हैंI प्राचीन काल में पशुपालक जनजातियाँ घुम्मकड प्रवृति की होती थी और एक जगह से दूसरी जगह निवास स्थान बदलती रहती थीI वर्तमान आदिवासी पशुपालक जनजातियाँ प्राय: एक ही स्थान पर निवास करती हैंI मौसम और जलवायु के अनुसार कुछ जनजातियाँ अपना निवास स्थान बदल भी लेती है, जैसे भोटिया जनजाति सर्दी के मौसम में घाटी से निचले हिस्से की तरफ जाती हैं और ग्रीष्म ऋतु में ऊपर की तरफ चली जाती हैंI टोडा आदिवासी विश्व के पशुपालकों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैंI वह जंगली भैसों को पालते हैंI टोडा आदिवासी पशुपालन के अतिरक्त अन्य कार्यों जैसे कृषि, लकड़ी काटना और मजदूरी इत्यादि को निम्न श्रेणी का समझते हैंI’(9) हिमाचल के गुज्जर आदिवासियों का मुख्य धंधा भी पशुपालन हैI यह गाय और भैंस पालते है और उनका दूध और घी बेचकर अपनी आजीविका कमाते हैंI इनको पशुओं को चराने के लिए जंगल विभाग को कर भी देना पड़ता हैI पशु इन आदिवासियों की सम्पत्ति होते हैं, जिनको जरुरत पड़ने पर बेच भी दिया जाता हैI ‘ग्लोबल गाँव के देवताउपन्यास में रणेन्द्र ने असुर समाज में पशुओं का महत्व बताते हुए कहा है, गाय-गरू, मुर्गी, सूअर केवल पशु नहीं, बल्कि उनकी जमा-पूंजी थे। घरेलू बैंक के पास-बुकI हारी-बीमारी, शादी-ब्याह, अन्य प्रयोजनों में यही काम आते हैंI(10) पशु आदिवासी समाज की सम्पत्ति होते है, जो उनका पेट भी भरते हैं और अनेक प्रयोजनों में काम भी आते हैंI फिर चाहे वह देवताओं को बलि देकर खुश करना हो या शादी-विवाह में दावत देना होI त्याहोरों-उत्सवों पर भी आदिवासी बलि देते हैं और पशु-पक्षियों को पकाकर खाते है, यह उनका प्रिय भोजन भी हैI इसके अतिरिक्त वधू मूल्य में भी पशुओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैI इसके अतिरिक्त पशुओं को गिरवी रखकर जमींदार और महाजन से रुपया उधार लिया जाता हैI ‘जंगल जहाँ शुरू होता हैउपन्यास में ऐसा ही एक प्रकरण देखने को मिलता है, जो उराँव आदिवासी समाज में पशु की महत्ता को दर्शाता हैI इस उपन्यास में बिसराम कहता है, खेत तो बंधक पड़े हैं मलिकार  के यहाँI सोचा था, भैंस गाभिन है, इसे बेचकर जुगाड़ कर लेंगे, कुछ काली के पैसे बकाए हैं नहर के ठेकेदार के पासI फिर भी काम पड़ा तो गाय  बेच देगें और इधर-उधर से उधार  ले लेंगेI मगर कुछ भी नहीं हो पाया अभी तक, कुछ भी नहींI (11) ब्याज की दर अधिक होने पर बंधक वस्तु, भूमि या पशु को छुड़ाना अति कठिन हो जाता हैI प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ इत्यादि के कारण पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है और आदिवासियों की एक मात्र सम्पत्ति जो पशु के रूप में होती है, नष्ट हो जाती हैI

मछली पकड़ना और शिकार करना: शिकार करना आदिवासी समाज की आजीविका और जीवनयापन का एक और महत्वपूर्ण साधन हैI जंगलों में रहने के कारण आदिवासियों में शिकार करने की प्रवृत्ति पाई जाती हैI वे शिकार में सिद्धहस्त होते हैंI आदिवासी भोजन और मनोंरजन के लिए शिकार करते हैI ये शिकार की कला में निपुण होते हैं और जानवरों की गतिविधियों पर भी नजर रखते हैंI आदिवासी समाज में सामूहिक शिकार करने की परंपरा हैI आदिवासी समाज में शिकार करने का प्रशिक्षण युवागृह में प्राप्त होता हैI युवागृह के युवकों को समूह में शिकार करने हेतु युवतियां गीत-गाकर उनको प्रोत्साहित करती हैंI कुछ जनजातियों में जनी शिकारकी भी प्रथा है जो किसी विशिष्ट दिवस में कई वर्षों के बाद मनाया जाता है, जिसमें विभिन्न गाँवों की औरतें मिलकर शिकार करने जाती हैI गाँव के मुखिया उनका स्वागत करते हैंI भील और नागा जनजातियाँ विष भरे तीरों से शिकार करती हैं, इसके अतिरिक्त जाल बिछाकर भी शिकार किया जाता हैI शिकार करने की दृष्टि से जुवांग आदिवासी समाज को निपुण माना जाता हैI इस समाज में अधिकतर गर्मी के मौसम में शिकार किया जाता हैI प्रत्येक वर्ष वे पहला शिकार दो-चार गाँवों के साथ मिलकर करते हैंI इसके लिए विशिष्ट पूजा की जाती है और बलि भी दी जाती हैI  ‘पनियारनाम की जनजाति भी शिकार करने में कुशल हैI यह मछली पकड़ने में भी निपुण हैI जहरीली जड़ी बूटियों को पीस कर पानी में मिलाकर मछलियों को बेहोश कर पकड़ना इनका भिन्न और विशिष्ट तरीका हैI जंगलों की कटाई और शिकार पर प्रतिबंध होने के कारण शिकार की ये प्रथाएं अधिक्तर आदिवासी जनजातियों में लुप्त हो रही हैं, अण्डमान निकोबार जैसे द्वीप समूह के जरावा, स्टेनली आदिवासी आज भी शिकार पर निर्भर हैंI सूअर उनका मनपसंद भोजन है, वे माँस और चर्बी वाला भोजन अत्यधिक पसंद करते हैंI समुद्र के किनारे रहने के कारण वे मछली केकड़े, कछुए का सेवन भी करते हैंI मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल की अपेक्ष तीर कमान और भाले का प्रयोग करते हैंI मछुआरों में कुरुख, केवट, गोंड़, धीमर आदि प्रमुख जनजातियाँ हैंI मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआउपन्यास में यूरेनियम खनन के कारण तालाब का जल विषाक्त होने तथा मछलियों के विषाक्त होने के कारण उस क्षेत्र के आदिवासियों पर पड़ने वाले प्रभाव का उल्लेख किया गया हैI मछुआरा पत्रकार को अपनी समस्या बताते हुए कहता है, पहले कितनी मछलियाँ हुआ करती थीं इधर! जमशेदपुर के बाजार में बेचकर भी पैसे कमाए है मैंनेI अब तो घरवाले भी यहाँ की मछली नहीं खाना चाहतेI क्यों? क्योंकि जहरीली हो गयी हैं यहाँ की मछलियांI खाने से पेट में ऐंठन होती हैI जी मिचलाता हैI वैसे मछलियों की मात्रा काफी घट गयी है आजकलI जो गिनी चुनी मछलियां हैं, उनमें से ज्यादातर बड़ी अजीब सी दिखती हैंI उनकी मुंडी बहुत मोटी और देह पतलीI(12)

 अतः कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज में आज भी कृषि और मछली पकड़ना आदि प्रमुख और प्रथम क्षेत्र की गतिविधियों में सम्मिलित हैंI यही उनकी आजीविका का आधार हैI

शिल्प कला: आदिवासी जनजातियों में शिल्प कला की समृद्ध परंपरा देखने को मिलती हैI भारत की कई जनजातियाँ अनेक प्रकार के शिल्प कार्य द्वारा अपनी कला का प्रदर्शन करती हैंI रस्सी बुनना, टोकरी और चटाई बनाना, मिट्टी और लकड़ी के खिलोने, लोहे के औजार, पत्थर की मूर्तियाँ, बेंत और बाँस की वस्तुएँ, कृषि के औजार आदि बनाकर हाट-बाजार में बेचते हैंI मजूमदार के अनुसार, “अगरिया और कोटा शिल्पकार जनजातियाँ हैं, जो लोहे के उपकरण और हथियार बनाती हैं, परन्तु उनकी तकनीक पिछड़ी हुई हैI (13) असम के आपतानी आदिवासी व्यापार के लिए तलवार और चाकू कुशलतापूर्वक बनाते हैंI नीलगिरी के कोटा आदिवासी कुशल कुम्हार और लोहार हैं, जो मिट्टी के बर्तन और लोहे के हथियार बनाने में सिद्धहस्त हैंI पूर्वोत्तर के नागा मिजो, मणिपुर और उड़ीसा के आदिवासी कपड़े बुनने में कुशल हैंI कपड़ा बुनना इनका प्रधान कुटीर उद्योग हैI नागा जनजातियों में यह कार्य विभिन्न श्रेणियों में बांटकर किया जाता है, जैसे कुछ नागा समूह कपास उगाते हैं, कुछ मात्र सूत कातते हैं और कुछ कपड़ा बुनते हैंI कोरवा, अगरिया, गोंड़ और असुर आदिवासी लोहे के औजार बनाने में कुशल हैंI रणेन्द्र ने ग्लोबल गाँव के देवतामें असुर जनजाति की इस कला का एक मिथक कथा के माध्यम से वर्णन किया हैI इस लोक कथा के अनुसार असुर लोहा पिघलाने के लिए दिन रात धोंकनी चलाते थे जिससे वनस्पति पर दुष्प्रभाव पड़ रहा थाI

 मध्य प्रदेश के बस्तर जिला के आदिवासी मूर्ति कला में अत्यधिक कुशल हैंI पत्थर को तराशकर सुंदर मूर्तियाँ बनाना उनकी शिल्प कला का एक विशिष्ट नमूना हैI इसके अतिरिक्त यह समाज झाड़ू, कमान, गुलेल कंघियाँ, पत्तों की छतरियां और टोकरियाँ बनाने में भी कुशल हैI इन वस्तुओं को हाट बाजारों में बेचकर वह अपनी जरुरत की वस्तुएं खरीदते हैंI ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआउपन्यास में हाट बाजार का वर्णन किया गया हैI मोरिया और गोंड़ आदिवासी मिट्टी और खिलोने बनाने में अत्यंत कुशल हैं इनके बनाये खिलोने देश-विदेश में प्रचलित हैंI भील आदिवासी पुराने कपड़ों से दरिया और कालीन बनाते हैं, अरीसी हाथ करघों से कपड़े बुनते हैं और हिमाचल के गद्दी और गुज्जर ऊनी वस्त्र बनने में अत्यंत कुशल हैंI आदिवासियों द्वारा बनाई गई वस्तुओं के स्थान पर आधुनिक मशीनों द्वारा बनाई गई वस्तुओं की खरीददारी अधिक होने लगी हैI बनावट के पुराने ढंग के कारण आदिवासियों की वस्तुएं महंगी होने के कारण उनकी बिक्री कम होने लगी हैI ‘ग्लोबल गाँव के देवताउपन्यास में अपनी ऐसी समस्याओं को प्रधानमंत्री तक पहुँचाने के लिए रुमझुम और उसके साथी चिट्ठी लिखते हैं, “बीसवीं सदी की हार हमारी असुर जाति की अपने पूरे इतिहास में सबसे बड़ी हार थीI इस बार कथा-कहानी वाले सिंघबोंगा ने नहीं,टाटा जैसी कंपनियों ने हमारा नाश कियाI उनकी फेक्ट्रीयों में बना लोहा, कुदाल, खुरपी,गैंत, खन्ती सुदूर हाटों तक पहुँच गयेI हमारे गलाए लोहे के औजारों की पूछ खत्म हो गयीI लोहा गलाने का हजारों-हजार साल का हमारा हुनर धीरे-धीरे खत्म हो गयाI(14) 

 अतः आदिवासी समाज में प्राचीन काल से ही शिल्प कला का हुनर विद्यमान हैI शिल्प कला जहाँ एक ओर उनके लिए मनोरंजन का आधार है वहीं दूसरी ओर आजीविका में भी सहायक सिद्ध होती हैI आदिवासी सदियों से इस शिल्प कला के संवाहक और संरक्षक रहे हैं परन्तु आधुनिक मशीनी युग में उनकी इस कला पर संकट के बादल मंडरा रहे हैंI मशीनों से बनी वस्तुएं मात्रा और मूल्य दोनों ही दृष्टि से आदिवासी हुनर को चुनौती प्रदान कर रही हैंI 

औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरी: आदिवासी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के भंडार विद्यमान हैंI कोयला, अभ्रक, युरेनियम आदि खनिज पदार्थ आदिवासी क्षेत्रों में भरपूर मात्रा में पाए जाते हैंI बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इन क्षेत्रों में खनन उद्योग स्थापित कर दिए गएI युरेनियम और कोयला खनन, बिजली का उत्पादन आदि इन क्षेत्रों में आरंभ हो गयाI आदिवासी निवास स्थान के नजदीक उद्योग स्थापित होने से आदिवासी क्षेत्रों में आवागमन और संचार के साधनों में भी वृद्धि हुईI आर्थिक दृष्टि से परिवर्तन आना आरंभ हुआ जिसके परिणामस्वरूप पुरातन व्यवसायों पर आश्रित आदिवासियों ने नवीन क्षेत्र में प्रवेश कियाI आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी आरंभ हुआ, परन्तु साथ ही साथ जल, जंगल, जमीन से आदिवासियों का विस्थापन भी आरंभ हो गयाI  विस्थापित होकर वह चाय बागानों और शहरों में मजदूरी करने लगेI खनन मजदूरों की स्थिति और भी दयनीय है क्योंकि वहाँ खुदाई के समय बने गड्डों में पानी भरने से अनेक आदिवासियों को मलेरिया जैसी बीमारियाँ हो जाती हैंI ‘ग्लोबल गाँव के देवताउपन्यास में रामकुमार मास्टर जी को आदिवासी समाज की स्थिति के बारे में बताते हुए कहते हैं, “मक्का की एक बरसाती फसल भरोसे जिन्दगी कितनी कठिन हो जाती हैI मजूरी और जंगल का सहारा नहीं हो तो लोग आसाम-भूटान निकल जाएंI लेकिन एक तरफ इन खानों में मजूरी दी दूसरी तरफ बर्बादी सरजाम भी खड़े कियेI पिछले पच्चीस-तीस सालों में  खान-मालिकों ने जो बड़े-बड़े गड्ढे छोड़े  हैं, बरसात में इन गड्ढों में पानी भर जाता है और मच्छर पलते हैंI सेरेवल मलेरिया यहाँ के लिए महामारी हैI मुंडीकटवा से साल दो साल पर भेंट होती है, किन्तु इस जानमारू  से तो रोज भेंट होती हैI(15) इन खदानों से निकला कचरा आदिवासी इलाकों में ही फेंका जाता हैI यह जहरीला कचरा उनके जल, जंगल और जमीन को जहरीला कर रहा है जिससे वहां की हवा जहरीली हो रही हैI जहरीली हवा में साँस लेने के कारण उनको कैंसर, बाँझपन जैसी बीमारियाँ होती हैI भयानक बिमारियों की जानकारी होने के बावजूद भी आदिवासी यूरेनियम खदानों में काम करने को मजबूर हैंI ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआउपन्यास में मरंग गोड़ा में युरेनियम खनन से उत्पन्न विकिरण के कारण आदिवासियों की समस्याओं पर शोध करने आई शोध छात्रा प्रज्ञा को पत्रकार आदित्यश्री आदिवासियों की स्थिति के विषय में बताते हुए कहता है कि विकिरण के नुकसान जानते हुए भी वह यहाँ काम करना चाहते है, उनका कहना है कि, “हम विकिरण को पचा सकते हैं पर अपनी और अपने बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं कर सकते I...विकिरण तो हमे बाद में मारेगा! मगर भूख तो हमें कुछ ही दिनों में मार डालेगीI”(16) अतः आदिवासी समाज अपनी आजीविका के लिए घोर संघर्ष की स्थिति में हैI जहाँ एक ओर उनके आजीविका के परंपरागत संसाधन सीमित हो गए हैं वहीं दूसरी ओर मशीनों से प्रतियोगिता के चलते उनके हस्त कला के उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए हैंI आदिवासी क्षेत्रों में बड़ी कंपनियों द्वारा खनन उद्योग के चलते जहाँ आदिवासी लोग मजदूरों के रूप में कुछ संसाधन जुटा भी रहे हैं परन्तु खनन के चलते उनके जीवन में प्रदूषण और बीमारियों की दस्तक से अलग प्रकार की चुनौतियाँ उत्पन्न हो गयी हैI

अतः निष्कर्ष स्वरुप कहा जा सकता है कि आर्थिक दृष्टि से संसाधनों से सम्पन्न क्षेत्र में होने पर भी जंगल, जल और जमीन से उसे खदेड़ा जा रहा है और विपन्नता भरा जीवन जीने के लिए विवश है वहीं भुखमरी और अशिक्षा के कारण धर्मान्तरण की समस्या निरंतर पनप रही हैI साहूकारों द्वारा मनमाने ढंग से ब्याज वसूलने के कारण आदिवासी किसान से मजदूर और मजदूर से बंधुआ मजदूर बनने के लिए मजबूर हो गए हैंI संविधान में आदिवासियों के कल्याण और संरक्षण हेतु अनेक प्रावधान हैं परन्तु अज्ञान के कारण ये उनसे वंचित हैंI राजनीतिक भ्रष्टाचार, पुलिस का अत्याचार, साहूकारों का ब्याज, जमींदारों का शोषण और ठेकेदारों की मनमर्जी के कारण आदिवासियों का रोजमर्रा का जीवन कष्टकारी बन पड़ा हैI सरकार की योजनाओं के पूर्णरूपेण कार्यान्वयन से ही इनका कल्याण संभव होगा और इसके लिए पारदर्शी व्यवस्था का होना परमावश्यक हैI

संदर्भ : 
1.    अजित गुप्ता, अरण्य में सूरज, सामयिक प्रकाशन, 2009, पृष्ठ संख्या, 128
2.    महुआ माजी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, राजकमल प्रकाशन, 2012, पृष्ठ संख्या, 292  
3.      श्री प्रकाश मिश्र, जहाँ बाँस फूलते हैं, यश पब्लिकेशंस, 2016, पृष्ठ संख्या, 9   
4.      महुआ माजी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, राजकमल प्रकाशन,  2012  पृष्ठ संख्या, 27  
5.      रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, तृतीय संस्करण, 2016  पृष्ठ संख्या, 24   
6.      राजेन्द्र अवस्थी, जंगल के फूल, राजपाल एंड सन्ज, 2019, पृष्ठ संख्या, 76  
7.      हरिराम मीणा, धूणी तपे तीर, साहित्य उपक्रम, तृतीय संस्करण, 2014, पृष्ठसंख्य, 37   
8.      महुआ माजी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, राजकमल प्रकाशन,  2012 , पृष्ठ संख्या, 292  
9.      आशा चौधरी, मानव की कहानी, रोहित पब्लिकेशन्स, 2013, पृष्ठ संख्या, 219  
10.  रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, तृतीय संस्करण, 2016,  पृष्ठ संख्या, 58  
11.  संजीव, जंगल जहाँ शुरू होता है, राधाकृष्ण प्रकाशन,  2010, पृष्ठ संख्या, 22-23    
12. महुआ माजी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, राजकमल प्रकाशन, 2012, पृष्ठ संख्या, 184  
13.  जे.पी.सिंह, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन: 21वीं सदी में भार,, पी.एच.आई. लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड, द्वितीय संस्करण, 2016, पृष्ठ संख्या, 230  
14.  रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, तृतीय संस्करण, 2016, पृष्ठ संख्या, 83    
15.  वही, पृष्ठ संख्या, 13    
16. महुआ माजी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, राजकमल प्रकाशन, 2012, पृष्ठ संख्या, 362  

मनप्रीत कौर
शोधार्थी, हिंदी विभाग, पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय
'
डॉ. राजेन्द्र कुमार सेन
सह आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग
पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय



अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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