शोध सार : डॉ. विवेकी राय मूलतः गँवई सरोकार के रचनाकार हैं। उन्होंने अपने साहित्य में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन की बदलती दिशा और दशा को कलात्मक अभिरुचि के साथ अभिव्यक्त किया है। उपन्यास में गाजीपुर-बलिया में फैले करइल क्षेत्र के पिछड़ेपन, गरीबी, शोषण, सामंती अवशेष, पथभ्रष्ट युवा-पीढ़ी, बेरोजगारी, विघटित राजनीति और ग्रामीण जीवन में आ रही क्षुद्रताओं का चित्रण है। उन्होंने गाँवों में शिक्षा और विकास की राह में रोड़ा बने लोगों के वास्तविक चरित्र को लोगों के समक्ष उजागर करने का प्रयास किया। वह स्त्री-शिक्षा के हिमायती हैँ और चाहते हैं कि देहात की लड़कियाँ पढ़-लिख कर विवाह-बनाम खरीद-बिक्री के दुष्चक्र से मुक्त हों। उपन्यास में विवेकी राय नें नवीन प्रकार की कृषि को किसानों के लिए लाभकारी नहीँ बताकर दूरदर्शिता का परिचय दिया है। सोना माटी में लोकजीवन और लोकसंस्कृति की सौंधी खुशबू विद्यमान है। उपन्यास में ग्रामीण जीवन अपनी पूर्ण वास्तविकता और ईमानदारी के साथ मौजूद है।
बीज-शब्द : छद्म उपनिवेशवाद, मूल्यहीनता, समकालीन, बुद्धिजीवी, अंतर्विरोध, उत्सवधर्मिता, सामन्त, नैतिक त्रासदी, अंधश्रद्धा।
मूल आलेख : विवेकी राय ग्राम्य जीवन का कुशल चितेरे हैं। उनके साहित्य में उत्तरप्रदेश के गाँवों का बड़ा सजीव चित्रण हुआ है। गाजीपुर और उसके आसपास के गाँवों की माटी की सौंधी खुशबू उनके साहित्य में बिखरी पड़ी है। उन्होंने अपने जीवन की रचनात्मक उर्वरता का अधिकतर समय ग्रामीण परिवेश में बिताया। वहाँ उन्होंने गाँव की प्रकृति, उसकी सुन्दरता, उसकी अल्हड़ता को करीब से महसूसा और इसके साथ ही खेती, किसानी, किसानों के दुख-दर्द, ग्रामीण जनता के भोलेपन और कर्मठता को बड़ी शिद्दत के साथ आत्मसात किया। इसी जिए हुए और भोगे हुए परिवेश को उन्होंने अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया। उनके लेखन का समग्र ग्राम्य जीवन और किसान जीवन पर केन्द्रित है। आजीविका के लिए शहर आने के उपरान्त उनका गाँव से जुड़ाव कम नहीं हुआ बल्कि और बढ़ गया। उनके उपन्यास ‘सोनामाटीʼ में गाजीपुर और बलिया के बीच फैले ʽकरइलʼ ग्रामांचल की कथा है। स्वतंत्रता के पश्चात ग्राम्य-व्यवस्था मे आए बदलावों, बनती-बिगड़ती नवीन व्यवस्था की रूपरेखा और उसके विस्तृत कारणों को लेखक ने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति दी है। ग्राम्य-व्यवस्था बदलावों के मध्यनजर, वहाँ पसरती जा रही मूल्यहीनता को भी लेखक ने विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाने का प्रयास किया है। विवेकी राय जी उपन्यास सोनामाटी की पृष्ठभूमि के बारे में चर्चा करते हुए बताते हैं, ʺसोनामाटी की पृष्ठभूमि में पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो जिलों, गाजीपुर और बलिया का, मध्यवर्ती एक विशिष्ट अंचल है करइल। इस अंचल का भूगोल तो सत्य है परन्तु इतिहास अर्थात् प्रस्तुत कहानी में प्रयुक्त करइल क्षेत्र के उन गाँवों और पात्रों आदि के नाम सर्वथा कल्पित हैं जिनके माध्यम से समकालीन जीवन-संघर्ष को चित्रांकित किया गया है। यह संघर्ष किस सीमा तक एक अंचल का है और कहाँ तक वह व्यापक राष्ट्रीय जीवन यथार्थ से जुड़ा है, इसका निर्णय तो पाठक ही कर सकता है।ʺ
ʽसोनामाटीʽ की कथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े और अविकसित गाँव महुआरी से शुरू होती है। महुआरी के लोग आजादी की बयार से कोसों दूर हैं। आजादी के बाद उनके जीवन स्तर में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। सामाजिक कुरीतियाँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं, लगता है सामाजिक आंदोलनों की चिंगारी गाँव की सरहद लाँघ नही पाई है। राजनीतिक उठापटक की मार भी यदा कदा उन पर पड़ती रहती है। राजनीतिक पार्टियाँ यहाँ विकास के लिए नहीं अपितु शोषण के लिए आती हैं। विकास उनके लिए मृगमरीचिका है। अभावों में जीना उनकी नियति बन चुकी है। गाँव के लोग जहाँ सूखे और बाढ़ की दोहरी मार झेल रहे है। किसान वर्ग के लिए सूखा और बाढ़ वे परीक्षाएँ हैं, जो बिना किसी पूर्व हिदायत और तैयारी देनी होती हैं। गाँव के लोग सूखे की मार से संभले ही थे कि प्रकृति का दूसरा कोप प्रकट हो जाता है। विलास बाबू कहता है, ʺक्या करें ? सारा काम खत्म हो गया।...डूब जाते हैं, घर, खेत, सिवान और लोग बाग, उनकी लाख लाख आशायें- आकांक्षायें। सचमुच किसान का कलेजा बहुत पोढ होता है । सरबस गंवाकर जी रहा है। उधर सूखे से गया और जो कुछ बचा था वह बाढ़ में डूब गया । बाढ़ की यही आदत है। वह सामने परसी थाली छीन लेती है।ʺ1
उपन्यास का मुख्य पात्र रामरूप एक बुद्धिजीवी अध्यापक और किसान है, जो आदर्शों, मूल्यों व सिद्धांतों में विश्वास रखता है। वह वर्तमान परिवेश में सामन्जस्य बैठाने में स्वयं को असमर्थ महसूस करता है। वह किसानों का खून चूस कर फलने-फूलने वाले लोगों के चरित्र को भली-भांति समझता है। रामरूप तेजी से बदलते हुई परिस्थितियों के बीच जिन मानसिक अंतर्विरोधों और अभावों के साथ जीवन जीता है, जो पीड़ाएँ भोगता है उसका बहुत ही मार्मिकता और जीवंतता के साथ इस उपन्यास में चित्रण किया गया है। रामरूप की पीड़ा उस जैसे छोटे किसानों की पीड़ा है जो जी तोड़ मेहनत के बाद भी एक सम्मान पूर्वक जीवन जीने और परिवार का समुचित भरन-पोषण करने में असमर्थ हैं।
व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के आपसी सम्बन्ध के निर्धारण में राजनीति की सक्रिय भूमिका है। इस कारण राजनीति से किसी न किसी रूप से जुड़े रहना लोगों की आवश्यकता और मजबूरी दोनों होती है। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने राजनीति जनता की नियति निर्धारित करने का सशक्त माध्यम बन चुकी है। उपन्यास में महुआरी गाँव में चुनावी माहौल, नेताओं की चुनाव कला, वाक-चातुर्य, पैंतरेबाजी का रोचक और विस्तृत वर्णन है। नेताओं की कूटनीतियों और चालों को पिछड़े हुए ग्रामीण-जन समझ ही नहीं पाते हैं। वे जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए दिन-रात जूझते रहते हैं, संघर्ष करते रहते हैं, दो जून की रोटी जिनका यथेष्ठ है; उनका राजनीतिक विचारधारा और दल से भला क्या लेना-देना? वे सही और गलत नेताओं या पार्टियों का चुनाव कर पाएंगे? ʽसोनामाटीʼ में हम जिस राजनीतिक यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं, वह आज की राजनीति के अमानवीय हो जाने की गवाही देता है। राजनीति का यही विघटित रूप वर्तमान समाज पर हावी हो रहा है।
सोना माटी में दो तरह के किसान हैं। एक तो बड़ी चक वाले बड़े किसान; जैसे करइल महाराज हनुमान प्रसाद, गठिया के दीनदयाल, चटाइ चोला के नवीन बाबू , दूसरे छोटी चक यानी चार-छह बीघा जमीन पर खेती करने वाले छोटे किसान जिसमें रामरूप, सीरी भैया आदि आते हैं। उपन्यास में किसानों के शोषण के लिए किसी बड़े, शक्तिशाली और रसूखदार जमींदार की कल्पना नहीं की गई है बल्कि बड़े किसान ही छोटे किसानों के शोषक के रूप में आए हैं। ये वास्तव में जमींदारों का ही परिवर्तित रूप है। बड़ी चक वाले इन जमींदारों में स्वतंत्रता के बाद भी सामंती अवशेष शेष हैं। ये ही ‘भूमिखोर भेड़िएʼ हैं।
आजादी से पहले के शोषकों के मुख्यतः दो वर्ग ही थे, एक जमींदार और दूसरा महाजन, जिनकी पहचान आसान थी, लेकिन आजादी के बाद शोषकों की पहचान करना किसान वर्ग के लिए कठिन हो गया है। ये बिजली कंपनियाँ हैं, बैंक व सहकारी समितियाँ हैं, खाद-बीज वाली फैक्टरियों के मालिक है, गाँव के पटवारी, बी.डी.ओ. हैं, सरकारें हैं; यानी शोषित एक और शोषक अनेक। पहले से ही अभावग्रस्त जीवन जी रहे किसान वर्ग को ये सब मिलकर लूट- खसोट रहे हैं । पहले से ही बदहाली में जी रहा आखिर वो जाए तो जाए कहाँ? उपन्यास ‘सोना माटी‘ में भी सरकारी कर्मचारियों और गाँव के बड़के किसानों की मिलीभगत से छोटे किसानों के शोषण को उजागर किया गया है । बड़का किसान हनुमान प्रसाद अपने दामाद रामरूप से मन ही मन बैर रखता है। हनुमान प्रसाद सुपरवाइजर से साँठ-गाँठ करके और फर्जी दस्तखत करके रामरूप के नाम से दो हजार रुपये का ऋण ले लेता है। रामरूप ससुर की धोखाधड़ी से बेखबर है। जब सूद बढ़ते बढ़ते ऋण पाँच हजार हो जाता है तो रामरूप की बेटी कमली के तिलक वाले दिन कोऑपरेटिव वाले कुर्की के लिए आ धमकते है। बेटी के ब्याह का खर्च और ऊपर से कुर्की का आदेश, ʺइसी महीने तिलक जाना है। सूत सूत गहना बेच जोगाड़ हो रहा है। परान अतरास में टंगा है। पुराने कर्ज के भार से कमर टूटी है। अब यह कुर्की का वज्र गिरा। घर में चूल्हा नहीं जला...ʺ2 रामरूप लाख कोशिशों के बावजूद यह सिद्ध करने में असमर्थ रहता है कि वो कर्ज उससे वसूला जा रहा है जो उसने कभी लिया ही नहीं।
स्वतंत्रता के पश्चात् सरकारें बदलीं मगर किसानों और मजदूरों का नसीब न बदला। चुनावों के समय किसानों के वोट प्राप्त करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की ऋण-माफी का जुमला उछालना एक शगल सा बन गया है, मगर सत्ता में आते ही इस वादे रूपी जुमले के साथ कई ‘किन्तु परन्तु’ उपसर्ग, प्रत्यय की तरह जोड़ दिए जाते हैं, जिससे लाभ के दायरे में आने वाले किसान की संख्या लाखों से सिकुड़कर चंद हजारों तक सीमित हो जाती है। यह किंतु परंतु वाली शर्तें भी बड़ी अजीब और अटपटी होती हैं, जैसे कि जिन किसानों ने कर्ज की एक भी किस्त भर दी है, उन्हें ऋण माफी योजना का पात्र नहीं समझा जाएगा, ऋण का केवल ब्याज माफ किया जाएगा, मूल चुकाना होगा। किसी भी पार्टी ने मजदूरों और किसानों को लुभावने वादों और चुनावी वर्ष में मुआवजे के चंद टुकड़े देने के अलावा कुछ नहीं किया। जनता की कड़ी मेहनत की कमाई खर्च करके लोकसभा और राज्यसभा के महाखर्चीले सत्र बुलाए जाते रहे और महाजनों तथा पूँजीपतियों के पक्ष में कानून बनाए जाते रहे, अध्यादेश पारित कराए जाते रहे। विकास के नाम पर पूँजीपतियों के टैक्स माफ कर, सत्तासीन सरकारों ने वफादारी निभाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, उन्हें अलग अलग चालबाजियों से सस्ती कृषि भूमि व जंगलों की जमीन उपलब्ध कराई गई। हजारों पेड़ विकास के नाम पर काटे गए और हजारों करोड़ खर्च करके वन-महोत्सव मनाए गए। विकास को न तो मजदूरों और किसानों के पास आना था और न आया। आज के समय में तो विकास शब्द ही हास्य का पर्याय हो कर रह गया है। ʺदेश की चिन्ता तो बस थैलीशाह और कुर्सीशाह लोगों को है। अरे, यह देश क्या इन्हीं लोगों का है? वे मुट्ठी भर महाजन अथवा सामन्त से प्रशासक या मोटे नेता जो देश के भाग्य से खिलवाड़ कर रहे हैं, जिनके पास मुट्ठी भर अन्न और गज भर वस्त्र के लिए बिलबिलाते फुटपाथी जीवों के लिए बड़े बड़े आदर्श और लम्बी चैड़ी भाषण माला है।... क्या वे कुर्सी के लिए देश को बेच नहीं देंगे?ʺ3
गाँव के बड़के किसान अपने निहित स्वार्थों के चलते गाँव की विकास संबंधी योजनाओं से खुश नहीं हैं । गठिया गाँव में सड़क बनने की बात से हनुमान प्रसाद बेचैन है, क्योंकि सड़क के उसकी जमीन से होकर गुजरने का प्रस्ताव है। लेखिका नासिरा शर्मा लिखती हैं, ʺबड़े किसानों के लिए अक्सर सीधी जाती सड़क (उनके खेत बचाने के लिए) गैरजरूरी मोड़ ले लेती है, मगर यही गैरजरूरी मोड़ छोटे किसानों के खेतों को बचाने के लिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाती है बल्कि यहाँ दलील दी जाती है कि सड़क को सीधे जाना है। ऐसे अवसरों पर किसान खुद को बेबस महसूस करता है। यह हमारी व्यवस्था का पक्षपाती तरीका है।ʺ4 एक तरफ गठिया गाँव के गरीब लोग गाँव में सड़क बनने का सालों से इंतजार कर रहे हैं, दूसरी ओर बड़े किसान चाहते ही नहीं कि गाँव में किसी तरह का कोई विकास हो। हनुमान प्रसाद का गुर्गा सुखुआ सड़क के लिए जमीन देखने आए बीडीओ को धमकाते हुए कहता है, ʺयहीं से आप लौट जाइए। यहाँ सड़क की जरूरत ही नहीं है। देखते हैं, कैसी बढ़िया मिट्टी है, एकदम करइल की सोना-माटी। सड़क निकलने पर कितनी जमीन बरबाद हो जाएगी।...सड़क आयी तो तमाम गाँव की बहू-बेटियाँ आवारा हो जाएंगी। रोज शाम को रिक्शा पर बैठकर सिनेमा देखने के लिए बक्सर जाने लगेंगी।ʺ5 इस तरीके के बेहूदा और बे-फिजूल के तर्क देकर और राजनीतिक दबाव डलवाकर गाँव को सयास विकास से दूर रखा जाता है।
किसान की उत्सवधर्मिता और ऋण लेकर शादी-विवाह में बूते से अधिक खर्च करने की प्रवृत्ति और सामाजिक मजबूरी के चलते धीरे-धीरे धरती उनकेके हाथ से फिसलती जा रही है। कमली के विवाह के अवसर पर वर्मा को कुछ बातें स्पष्ट हो गईं, ʺएक तो खेती लाभकर नहीं है, नई खेती भी हाथी दाँत सिद्ध हो रही है, दूसरे यहाँ की सामाजिक सांस्कृतिक परम्पराएँ हैं जो बड़े प्रेम से ग्रामीण किसानों का मांस नोंच नोंचकर खा रही हैं। विवाह आदि के मंगल समारोह यथार्थ रूप में अपनी मृत, रूढ़, दिखाऊ और मूर्खता भरी फिजूलखर्ची की परम्पराओं को लेकर बहुत अमंगलपूर्ण हैं। ऋण लेकर तथा खेत बेचकर उत्सव मनाने का अर्थशास्त्र कितना भयानक है ?ʺ6 पूरे गाँव में रामरूप ही एकमात्र व्यक्ति है जो किसान दुर्दशा के कारणों को समझता है, जो यह मानता है कि सड़ी-गली मृत परम्पराएँ और रूढियाँ किसान और उसकी जमीन के लिए जहर के समान है। लेकिन रामरूप की यह दुर्दशा है कि वह अपनी बात को मनवाने में कभी सफल नहीं हो पाता है। गाँव में किसी बुद्धिजीवी व्यक्ति का जो हश्र होता है, वहीं रामरूप का होता है। वह अपने परिवार वालों के साथ रहकर भी उनसे दूर हो जाता है।
किसान गरीबी में पैदा होता है, गरीबी में पलता है और मरते समय अपनी संतानों के लिए गरीबी ही छोड़ कर जाता है। मगर इतना सब कुछ होने पर भी वह किसानी नहीं छोड़ता। इसका पहला कारण है कि अपने कार्य की पवित्रता को लेकर उसके मन में नैसर्गिक आस्था है, जिसे वह अपना धर्म और फर्ज समझ कर निभाता है। इसका दूसरा परिस्थितिजन्य कारण है ऋण। ऋण चुकता करने के लिए वह हर साल परिश्रम करके फसल उगाता है और ऋण रक्तबीज की तरह साल दर साल बढ़ता जाता है। ऋण चक्र से उसका पीछा ताउम्र नहीं छूटता। ऊपरी साए की तरह जीवन की आखिरी साँस तक वह उसके सिर पर मंडराता है। 1981-82 के सर्वेक्षण में ज्ञात हुआ है कि प्रत्येक खेतिहर परिवार के औसत ऋण में लगभग 139 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ‘आउट लुक’ पत्रिका में प्रकाशित अजीत सिंह की रिपोर्ट के अनुसार कर्ज लौटाने के मामले में किसानों का रिकार्ड उद्योगपतियों के मुकाबले कहीं बेहतर है। आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, मार्च 2016 में केवल छह फीसदी कृषि कर्ज में डिफॉल्ट हुआ, जबकि कंपनियों ने 14 फीसदी कर्जों में डिफॉल्ट किया। बावजूद इसके आर बी आई के गवर्नर श्री उर्जित पटेल किसानों की कर्ज माफी को ‘नैतिक त्रासदी’ करार देते हुए कहते हैं कि किसानों की कर्ज माफी का राज्यों की आर्थिक सेहत पर बुरा असर पड़ेगा और उन्हें कर्ज माफी से पहले अपने राजकोषीय घाटे पर नजर डाल लेनी चाहिए। उनके पूर्ववर्ती रघुराम राजन और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की अध्यक्षा अरुंधति भट्टाचार्य ने भी किसानों की कर्ज माफी को क्रेडिट अनुशासन को बिगाड़ने वाला कदम बताया। अजीब विडम्बना है कि विश्व व्यापार संगठन के दबाव में जब हम कृषि क्षेत्र की कृषि आर्थिक सहायता (सब्सिडी) घटाते जा रहे हैं तथा अमेरिका, चीन और यूरोप के देश सब्सिडी बढ़ा रहे हैं। वे अपने यहाँ कृषि को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं और विकासशील मुल्कों पर दबाव डाल रहे हैं कि उनके कृषि उत्पादों को अपने बाजारों में खपाएँ। यह एक नए तरीके का उपनिवेशवाद है-छद्म उपनिवेशवाद।
कहावत हैं कि किसान खेतों में हँसता है और खलिहानों में रोता है। फसल पकने पर वह उसे उम्मीद भरी निगाहों से देखता है। उसे उम्मीद बँध जाती है कि इस वर्ष वह ऋण मुक्त हो जाएगा अगली फसल से उसके ʽअच्छे दिनʼ आ जाएंगे। लेकिन यह क्या? प्राकृतिक आपदाओं से बचते बचाते फसल जब खेतों से खलिहानों तक पहुँचती है तो आधी रह जाती है और खलिहानों से घर के कोठार तक पहुँचते पहुँचते चैथाई। कुछ मूल, कुछ ब्याज चुकाने के बाद लगने लगता है कि साल तंगी में गुजरेगा। उस पर कोई शादी-ब्याह, गौना, भात, मौसर आ जाए तो साल भर के खर्चे के लिए बचा कर रखी जमा-पूँजी एक झटके में साफ हो जाती है। उसके बाद वही कर्ज का पुराना सिलसिला शुरू हो जाता है। NCRB की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में 10 हजार 281 किसानों ने खुदकुशी कर ली और अधिकतर मामलों में खुदकुशी की वजह बढ़ता हुआ कर्ज थी। मगर बदकिस्मती से मरने वाला किसान है, गौ वंश नहीं, जो हाहाकार मचा दे। न किसी को सुध लेनी थी, न किसी ने ली ।
गठिया और आसपास के गाँवों में कोई अस्पताल नहीं है। ग्रामीण समाज में अंधविश्वास की जड़े गहरी हैं। गाँव के विकास में गाँव के लोग ही रोड़ा अटका रहे है। इलाज के नाम पर झाड़-फूंक वाले फल फूल रहे हैं। समानता के मूल सिद्धांत पर आधारित संविधान वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में पग-पग पर असमानता व्याप्त है- सामाजिक असमानता, आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता, वर्गीय असमानता आदि आदि। सम्पन्न व्यक्ति के लिए छोटा-मोटा रोग होते ही फाइव स्टार सरीखे हॉस्पिटल और स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की फौज है, दूसरी तरफ गरीब गुरबे लोग, बीमारी में ‘हारे को हरिनाम‘ की तर्ज पर बाबाओं, तांत्रिकों और गंडे-ताबीजों की शरण में हैं। शहरी जीवन की स्तरीय चिकित्सा इनकी पहुँच से कोसो दूर है, ʺविचित्र विडंबना है कि एक ओर सैकड़ों हजारों खरचे वाले सुविधा सम्पन्न लोगों के लिए डॉक्टर और चिकित्सालय हैं दूसरी ओर गाँव के सुविधाहीन गरीबों के लिए भगवान हैं, बिसुनी है, झाड़-फूंक है और सवा किलो आटा के साथ एक पिंडिया गुड़ और पाँच गाँठ हल्दी का खर्चा है। कितनी सस्ती चिकित्साʺ7
उपन्यास का प्रमुख पात्र रामरूप किसान होने के साथ साथ अध्यापक भी है। रामरूप को अध्यापकी पेशे से जोड़ना लेखक के लिए इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि उपन्यास का यही पात्र लेखक के विचारों का संवाहक भी है। मात्र किसान बने रहने से रामरूप के द्वारा दार्शनीक एवं गूढ़ विचारों की अभिव्यक्ति संभव नहीं हो पाती। हालांकि रामरूप को यह मलाल हमेशा रहता है कि वह केवल किसान ही क्यों नहीं रहा, अध्यापक क्यों बन गया? उसका अध्यापक रूप जब जब किसान रूप के आड़े आता है, वह कसमसा कर रह जाता है। उपन्यास में रामरूप किसानों के शोषण से परिचित है और उसका विरोध भी करना चाहता है, मगर कभी उसका बुद्धिजीवी रूप और कभी उसका अकेलापन उसके विरोध की चिंगारी को आग मे बदलने से पहले ही बुझा देता है। ʺहे कालीमाई तू मुझे बल दे। आज रामरूप मुँहचोर नहीं बनेगा। आज हर बात का मुँह-तोड़ उत्तर देगा।...कह देगा, डकैत तो आप...तुम हो। खेत के डकैत, को-ऑपरेटिव के डकैत, बैल के डकैत, कच्ची फसल के डकैत, कच्ची उमर के डकैत, ब्लॉक के डकैत, सरकारी गल्ले की की दुकान के डकैत, और न जाने कैसी-कैसी छिपी डकैतियों के डकैत।ʺ8 न तो गाँव के दूसरे किसान और न ही उसका जिगरी दोस्त भारतेन्दु; कोई भी उसके साथ खड़ा दिखाई नहीं देते। रामरूप बड़के लोगों के चरित्र और उनकी चालाकियों तथा चालबाजियों को देख-समझ तड़प उठता है, मगर उसकी बातों को समझने वाला गाँव में कोई नहीं है। रामरूप अपनी बेचैनी, अपनी तड़प, अपनी कसमसाहट के साथ अकेला ही जूझता है और हार जाता है। रामरूप किसानों के हित-अहित को भली प्रकार से समझता है, लेकिन पूरे उपन्यास में वह समझौतावादी प्रवृत्ति को लेकर चलता है। अपने मन के आक्रोश और क्रांति को वह दबा लेता है।
एक एक करके छोटी चक वाले किसान बड़ी चक वाले किसानों का शिकार बन रहे हैं। प्रकृति का नियम भी है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। इसी नियम की पालना में दीनदयाल अपनी तिकड़मों से सीरी भाई का खेत हड़पने का प्रयास करता है। सीरी भाई उसके जाल में फँसा हुआ तड़प कर रह जाता है। उपन्यास में कृषक वर्ग अपने शत्रुओं की पहचान तो कर चुका है, किन्तु उनका विरोध करने, उनके खिलाफ खड़े होने का बूता सीरी जैसे किसानों में नहीं है। यहाँ तक की सीरी के समर्थन में उसके जैसे छोटी जोत वाले अन्य किसान आवाज भी नहीं उठाते। सीरी भाई के समर्थन में बस एक रामरूप ही खड़ा है। वह दीनदयाल की कारगुजारियों को सबके सामने रखते हुए कहता है, ʺकौन नहीं जानता कि ढाई सौ ऋण देकर जबरदस्ती तीन बीघा व एवज सूद के जोता गया और अदालत में चुपके से फर्जी आदमी खड़ा करके रुपए के बल रजिस्ट्री करा लिया गया ?ʺ9 उक्त उद्धरण को पिछले वर्ष हुए किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में भी समझा जा सकता है। जो किसान गाँव के सूदखोरों और भ्रष्ट नौकरशाहों से अपनी जमीन छुड़वाने में असमर्थ है, वह बड़े कॉर्पोरेट घरानों के समक्ष कितनी देर खड़ा रह पाएगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा भी अपना रूप बदल कर पहुँच रही है। गाँवों में शिक्षा का उद्देश आने वाली पीढ़ी का सर्वांगीण विकास न होकर, जैसे-तैसे कक्षाएँ लाँघना होता है। शिक्षक भी विद्यार्थियों को अगली कक्षा के रजिस्टर में चढ़ा कर अपना फर्ज पूरा कर लेते हैं। ʽशिक्षा पात्र व्यक्ति को ही मिलनी चाहिएʼ के वेद वाक्य का पालन करते हुए अगड़ी जातियों के मास्टर, गाँवों के किसान समाज और दलित समुदाय में पात्र व्यक्ति नहीं खोज पाते और शिक्षा को अपनी पोटली में ही दबाए रखकर मानसिक संतोष पाते हैं। सरकार को भी शिक्षा से नहीं साक्षरता से मतलब है, जिसकी बढ़ी दर दिखलाकर वह विश्व बैंक और विकसित देशों से अनुदान और कर्ज आसानी से प्राप्त कर सके। ʽसोना माटीʼ उपन्यास में बड़ी चक वाले किसानों के लड़के पढ़ाई के नाम पर ʽचाकू और चिटʼ के कमाल पर कक्षाएँ फलांग रहे हैं। उनका उद्देश्य ज्यादा पढ़कर ज्यादा दहेज ऐंठना है। मगन चोला का बाप, बेटे की यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के बूते अच्छी खासी रकम ऐंठने की फिराक में है और मगन चोला के विचार भी अपने पिता की तरह ही महान हैं। वह अच्छेलाल से कहता है, ʺवह प्रिंसीपलवा है न, कहता है कि इस स्कूल को बकसो। सो कैसे बकसू ? अभी तो शादी साली न जाने कहाँ अटकी है।ʺ10
महुआरी, गठिया और आसपास के गाँवों से पढ़ाई लिखाई के लिए कुछ एक युवा ही शहर जाने की हैसियत रखते हैं। गाँवों से शहर गए युवा न तो पढ़ लिख कर नौकरी हासिल कर पाते है और न ही खेती-किसानी के लायक बचते हैं । बड़के बाबू का वफादार नौकर सुग्रीव इन लड़कों की कुसंगतियों के बारे में सोचकर चिंतित है, ʺझबर झबर बाल, अंडबंड बोली, गांव-घर से फिरंट और बाकी कसर पूरी होने के लिए नसा-पानी। हे भगवान, इन लड़कों से किसानी होगी ?..यूनिवर्सिटी की पढ़ाई इनको क्या देगी?11 किसानी तब तक ही फायदेमंद है जब तब परिवार के लोग ही खेती का काम करें, मजदूरों को पैसे देकर कराई गई खेती से लागत भी नहीं निकलती। खेती में बरकत ही इतनी है कि खर्चों के बाद परिवारजनों की मजदूरी ही बचती है। ऐसी स्थिति में मजदूरों से करवाई गई खेती घाटे का सौदा ही साबित होती है। खेती में किसान ही मालिक है और किसान ही मजदूर। ʺ...या तो हल की मूठ पर हाथ लगाना होगा अथवा जगह जगह जमीन बेचकर शहरों में भागना होगा। मगर जमीन खरीदेगा कौन ?ʺ12 पी साईनाथ खेती छोड़ रहे किसानों की बढ़ती संख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि ʽपिछले 20 सालों में हर दिन दो हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं, ऐसे किसानों की संख्या लगातार घट रही है जिनकी अपनी खेतीहर जमीन हुआ करती थी और ऐसे किसानों की संख्या बढ़ रही है जो किराये पर जमीन लेकर खेती कर रहे हैं । इन किरायेदार किसानों में 80 प्रतिशत कर्ज में डूबे हुए हैं।ʼ13
गाँव का खेतीहर मजदूर और किसान उसका शोषण करने वाले जमीन मालिकों, नौकरशाहों, प्रधान-पंचों से ही व्यथित नहीं हैं बल्कि ग्रामीण समाज की कई परम्पराएँ और धार्मिक मान्यताएँ उसकी गरीबी और पिछड़ेपन के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। रामरूप सोचता है, ʺपागल कुमारी कन्याओं, बाप लोगों के कपार पर खेलकर गा लो नवलख तिलक के गीत! पता नहीं इस देश में वह दिन कब आएगा जब निचाट देहात के साधारण घरों में जनमी लड़कियों में सही माने में ʽशिक्षाʼ का प्रवेश होगा और वे परम्परागत विवाह बनाम खरीद बिक्री के दुष्चक्र से मुक्त होंगी !ʺ14 उपन्यास में विवेकी राय ने रामरूप की खराब आर्थिक स्थिति के लिए कमली के विवाह के खर्च और दहेज प्रथा को काफी हद तक जिम्मेदार माना है। गाँव के लोगों के लिए ये प्रथाएँ, परम्पराएँ, उत्सव, त्योंहार खुशी और उमंग का नहीं अपितु कर्ज और ब्याज का संदेश लाती हैं। उपन्यास में पत्रकार ईश्वरचन्द्र सिन्हा ग्रामीण समाज में व्याप्त परम्पराओं तथा रूढ़ियों के बारे में कहता है, ʺकाहिलों की जमात में संत खूब फलते फूलते हैं। हिन्दी के प्रायः सभी संत कवि इसी क्षेत्र के हुए।ʺ15 उक्त कथन को आसानी से नकारा नहीं जा सकता। वास्तव में अशिक्षित समाज को धर्म, परम्पराओं, रूढ़ियों की घुट्टी पिलाना शिक्षित समाज की तुलना में कहीं अधिक आसान होता है। पत्रकार ईश्वरचन्द्र सिन्हा का उक्त कथन हिन्दी साहित्य के सवर्ण काल को एक नए दृष्टिकोण से जोड़कर परखने की आवश्यकता पर परोक्ष रूप से संकेत करता प्रतीत होता है।
उपन्यास में जहाँ भी धार्मिक आचरण जैसे ही अंधविश्वास और अंधश्रद्धा में बदलते हैं, लेखक के विरोध और कोप का भाजन बनते हैं। ʺरामरूप ने जाना, मामला गंगा मैया को चुनरी चढ़ाने का है। जो तूफानी संक्रामक रोग की भांति पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैला है।...दुकानों पर चुनरी और साड़ियों का स्टाक समाप्त हो गया, रिक्शों का भांडा दुगुना-तिगुना हो गया। मूर्खजन सलामत रहें। चालाक तो मालामाल हो ही जाएगा।ʺ16 इस प्रकार के कर्मकांडों से विवेकी राय की पूरी नाराजगी है, जिस देश के किसानों और मजदूरों को दो समय का भोजन और तन का कपड़ा भी आसानी से मयस्सर नहीं, वहाँ गंगा नदी पर चुनर चढ़ाने की परम्परा कौन चला रहा है? वास्तविकता यह भी है कि चुनर चढ़ाने में भी वो ही वर्ग आगे है, जिसके लिए तन के कपड़े खरीदना आसान नहीं है। कौन हैं वे लोग, जो ग्रामीण जन की आस्था और भक्ति की आड़ में अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं, जो किसानों और मजदूरों की मेहनत की कमाई इस प्रकार लूट रहे हैं? इन की पहचान आवश्यक है, और यह पहचान तभी संभव है जब व्यक्ति में धर्म और कर्मकांड के बीच के अंतर को समझने की क्षमता हो, और इस क्षमता के विकास के लिए शिक्षित होना भी आवश्यक है।
‘सोनामाटी‘ में सरकार गरीबों को दुधारू पशु बाँट रही है कि उनकी दीनदशा फिरे। ʺऐसे ही एक मेले में वह भैंस खुरबा के नाम पर ब्लॉक से निकली थी। असली कीमत अठारह सौ थी और कागज पर पचीस सौ। सात सौ रुपये ग्राम सेवक, डॉक्टर और बीडीओ के पेट में गए।ʺ17 और पुट्ठे पर सरकारी चिह्न लगी वह भैंस अब हनुमान प्रसाद के बाड़े की शोभा बढ़ा रही है। इस प्रकार सरकारी योजनाओं से गरीबों की दशा बदलते बदलते अमीरों की दशा बदल रही है।
उपन्यास में लेखक खेती-किसानी के भविष्य को लेकर आशंकित हैं। वो शिक्षा की दौड़ में खेती-किसानी के पीछे छूट जाने पर परेशान हैं। वे कहीं न कहीं दोनों में सामन्जस्य देखना चाहते है। वे चाहते हैं कि शिक्षा से कृषक समाज की आगामी पीढ़ी का बौद्धिक विकास हो, वह अपने शोषकों को पहचानने की क्षमता का विकास करें, शोषण के कारणों को समझ सके और किसी वर्ग द्वारा स्वयं को शोषित-प्रताड़ित होने से बचा सके। शिक्षा का यह उद्देश्य कृषक समाज के लिए हितकारी होगा। लेकिन वर्तमान समय में ग्रामीण समाज में शिक्षा का उद्देश्य किसानी की हाड़ तोड़ जीविका से छुटकारा पाना हो गया है, जिसका लेखक विरोध करते हैं। रामरूप का बेटा अरविंद बैलगाड़ी चला रहा है, ʺतू किसान नहीं रहा पर तेरा बेटा अभी किसान का बेटा है।...हां, कितने दिन यह शिक्षा इसे ऐसे रहने देगी ?ʺ18 रामरूप अपने बेटे को किसान के रूप में देख गौरवान्वित होता है।
विवेकी राय के ग्राम्य जीवन से गहरे सरोकार के कारण ही ʽसोनामाटीʽ की रचना हुई है। गाँव की जनता संघर्षशील है। उपन्यास में लेखक का सर्वाधिक ध्यान अंचल विशेष की जन-चेतना को चित्रित करने पर केन्द्रित है। उन्होंने जन-सामान्य के प्रति अपनी संवेदना को महसूसा और वर्णित किया है। जन-सामान्य के चित्रण के साथ ही करइल अंचल की लोक संस्कृति भी सहज रूप से अंकित होती चली गई है, इसके लिए लेखक को कोई अलग से प्रयास नहीं करने पड़े हैं। रामदरश मिश्र जी विवेकी राय के बारे में विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं, ʺविवेकी राय किसान लेखक हैं, उनके लेखन में अपनी गँवई धरती बोलती है, जनसामान्य की भूख प्यास बोलती है, उनके उत्कर्ष की चिंता बोलती है, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पाखंड के विरुद्ध प्रतिवाद बोलता है, यानी समग्रतः उसमें मनुष्यता बोलती है।ʺ19 सोना माटी के लोगों में सामूहिक चेतना और जागृति का अभाव है। ग्रामीण जन में वर्गीय एकता और सामन्जस्य की भावना पूरे उपन्यास में कहीं भी नजर नहीं आती है। पूरे गाँव में एकमात्र रामरूप ही ऐसा व्यक्ति है जो अपने वर्गीय शत्रुओं और उनके दांवपेचों से वाकिफ है। रामरूप सब कुछ समझते हुए भी अपने विरोधियों के विरुद्ध खड़ा नहीं हो पाता है, और जब वह विरोध का साहस करता है तो गाँव का कोई भी आदमी उसका साथ नहीं देता है। गाँव में क्रांति की चिंगारी बने रामरूप मास्टर को समाज के लोग अकेले जूझने और समझौता करने के लिए छोड़ देते है। यही गाँव की और उसके एकमात्र बुद्धिजीवी की नियति है। इस प्रकार विवेकी राय ने अपने उपन्यास में किसी सामूहिक चेतना या सामूहिक क्रांति का चित्रण नहीं करते हैं, क्योंकि ऐसा करना उपन्यास को वास्तविकता से दूर ले जाना है। विवेकी अपने उपन्यास के द्वारा ग्राम्य-समाज में एक समझ, एक चेतना का विकास करना चाहते हैं ताकि ग्रामीण लोग अपने भले-बुरे को समझ सकें, अपने वर्ग शत्रुओं की पहचान कर सके। इसी उद्देश्य के साथ विवेकी राय ने अपने उपन्यास में ग्राम्य-जीवन, उनके सुख दुःख, उनके रीति-रिवाज, उनकी परम्पराओं, उनकी संस्कृति, व्रत-त्योंहार आदि का सजीव चित्रण करते हुए करइल अंचल को मूर्त किया है।
1. सोना माटी, विवेकी राय, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, वर्ष 1983, पृ. 440
2. वही, पृ. 99
3. वही, पृ. 124
4. किसानों के पैरों के नीचे से सरकती जमीन दृ नासिरा शर्मा ूूू.ैंतींकम्च्ंजतपां.बवउ वबज- कमब 2015)
5. सोना माटी, विवेकी राय, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, वर्ष 1983, पृ. 274
6. वही, पृ. 189
7. वही, पृ. 288
8. वही, पृ. 373
9. वही, पृ. 22
10. सोना माटी, विवेकी राय, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, वर्ष 1983, पृ. 262
11. वही, पृ. 100
12. वही, पृ. 100
13. किसान आज हमारे विमर्श में कहा है?, गिरीश मालवीय, ीपदकपेंइतंदहपदकपं.पद
14. सोना माटी, विवेकी राय, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, वर्ष 1983, पृ.137
15. वही, पृ. 108
17. वही, पृ. 407
16. वही, पृ. 334
18. वही, पृ. 415
19. सहचर है समय, राम दरश मिश्र, परमेश्वरी प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 2008, पृ. 514
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