- डॉ. सन्तोष विश्नोई
शोध सार : समाज
के विकास के लिए साहित्य एवं व्यक्ति दोनों का एकजुट प्रयास हमेशा चलता रहा है।
साहित्य जनता की संवेदनाओं से जुड़ा होता है, क्योंकि
समाज के परिवेश का वास्तविक स्वरूप साहित्य द्वारा ही प्रस्तुत हो सकता है।
प्रत्येक साहित्यकार की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह जनता की चित्तवृत्तियों को
साहित्य में अभिव्यंजित करे जिससे कालबोध के अनुसार युगीन परिवेश एवं सामाजिक
मानसिकता का परिचय मिल सके। प्रस्तुत आलेख में आलोच्य लेखक शिव प्रसाद सिंह ने लोक
जीवन को गहराई से साहित्य में चित्रित करने का प्रयास किया है। लेखक लोकभाषा एवं
लोक-जीवन के महत्व को समझते थे इसी कारण उनके कथा साहित्य में लोक तत्व मिलते हैं।
उन्होंने अपनी कृतियों में आत्मानुभूतियों के साथ - साथ जन साधारण की भावनाओं को
भी उचित स्थान दिया है।
बीज
शब्द : लोक जीवन, शिवप्रसाद
सिंह, ग्रामीण जीवन,
जन
– जीवन, लोक और साहित्य,
साहित्य
में लोक अवधारणा।
मूल आलेख : भारतीय साहित्य में 'लोक' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे ' लोक, इहलोक, परलोक, सप्तलोक आदि शब्दों की व्याख्या करते हुए स्थानीय अर्थ प्रस्तुत करने होते हैं, कहीं वेद परिपाटी और लोक परिपाटी के अर्थ में, कहीं नाट्यधर्मी और लोकधर्मी के रूप में तो कहीं लोक शब्द का अर्थ जन-सामान्य ही होता है। लोक व्यक्ति विशेष का नहीं अपितु सम्पूर्ण जाति, संवेदना, अनुभूति और परिणतियों का द्योतक है। लोक एवं साहित्य में घनिष्ठ संबंध है। साहित्यकार अपनी रचना के माध्यम से अपने युगीन समाज को समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार चित्रित करता है। साहित्यकार जन वर्ग के बीच रहकर जनता के लिए ही अपनी साहित्य रचना करते हैं, उनका क्षेत्र वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रहता अपितु उनकी रचना में सर्व-साधारण जनमानस के सुख -दुख का वास्तविक रूप दिखलाई पड़ता है। लोक-संस्कृति को समझने के लिए हमें सामान्य लोक जीवन में प्रवेश करना होगा। इसके लिए किसी एक भारतीय परिवार का अवलोकन कर लिया जाए तो उसके सम्पूर्ण समाज की संस्कृति का अनुमान लगाया जा सकता है। 'लोक' शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है। 'लोक' जगत की अनगढ़ व आस्वाद से परिपूर्ण रहस्यमयी थाती को अपने विशाल वक्षस्थल में अकृत्रिम भाव से छिपाए रहता है। लोकानुभूति की चेतना से संपृक्त कवि और साहित्यकार उस थाती को उसकी संपूर्णता के रूप में ग्रहण कर काव्य या साहित्य के रूप में प्रस्तुत कर उसे कालजयी बना देते हैं। लोक जीवन व लोक व्यवहार, लोक भाषा, लोक शैली, लोकाचार, लोक परंपरा जहाँ काव्य संपदा को जन संबंध एवं लोकधर्मी बनाती है वही उसे जीवन मूल्यों के प्रति उत्तरदायी भी सिद्ध करती है। लोक तत्व न केवल लोक काव्य की भाव संपदा को जीवनी शक्ति प्रदान करने में सक्षम है। वरन नैसर्गिक अभिव्यक्ति कोमल भंगिणित एवं मधुरता नैसर्गिकता को संजीवनी शक्ति देते हुए भाषा शैली को भी लोकोंमुखी एवं प्राणवान बनाती चली आ रही है। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार, “भारतीय घर की ही भाँति समस्त समाज का रूप बनता है। भारतीय घर की इन परतों पर दृष्टि डालें तो पहला टोना-टोटकों को मिलेगा । किसी भी प्रकार का अनुष्ठान हो, कोई उत्सव हो, एक न एक टोना-टोटका उसके साथ लगा हुआ होगा। दूसरे स्तर पर देवी-देवताओं की भावना है। इन देवी-देवताओं में पितरों की मृतात्माएं, मसान, विविध देवियों तथा अनेक अन्य देवता सम्मिलित हैं। इनमें से एक पर्त पर देवी-देवताओं का विवरण करने के टोटके रहते हैं। दूसरी पर्त पर उनकी पूजा रहती है। उनके ऊपर सामान्य धार्मिकता का वातावरण रहता है। तब शास्त्रीय, धार्मिक, अनुष्ठानिकता का सत्कार होता है। उसके ऊपर एक ही घर में वह जागरूक धार्मिक मतवाद मिलेगा, जो दार्शनिक सिद्धांतों को ग्रहण करता है। इसी से संघर्ष करता हुआ सुधार वृत्ति का संस्कार भी पनपता दिखाई पड़ेगा जो प्राचीन मान्यताओं और विश्वासों के मूल तात्पर्य और रूप की तो रक्षा करेगा, पर उसे पोशाक समय की प्रवृत्ति के अनुकूल पहना देगा।"1
शिवप्रसाद सिंह के कथा साहित्य में लोक - जीवन पर विचार करते समय यह याद रखना होगा कि हमारा ग्रामीण जीवन संस्कारों पर आधारित है। लोक - जीवन के सभी पक्षों जैसे - सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक को संस्कारों के आधार पर समझा जा सकता है। शिव प्रसाद सिंह की कहानियों के मेरुदंड उनके सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश ही हैं जिनसे गाँव जीवंत हो उठा है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ग्राम कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। इनकी कहानियाँ गाँव के उस वातावरण को चित्रित करती है, जहां गरीबी, भुखमरी और अंधविश्वास गहराई तक जड़ जमाये हुए हैं। गरीबी और गंदगी उसे खाद देती है लेकिन पारिवारिक प्रेम, सहज विनोद और प्रकृति की सुंदरता उसमें पुष्प की तरह खिला करती है। इनकी कहानियों में चित्रित ग्रामीण परिवेश इनके अनुभव भंडार है और उससे इनका लगाव है। इन्होंने स्वयं कहा है, “मेरी जिंदगी में गाँव एक ऐसी हकीकत है जिसे मैं चाहकर भी काट नहीं सकता, गाँव की अछोर हरियाली में डूबे सीमांत, फसलों के रंग-बिरंगे गलीचे बिछाकर किसी अनागत की प्रतीक्षा में डूबी धरती, सरसों, जलकुंभी और झरबेरी के जंगली फूलों से मदहोश वातावरण के बीच अपनी सामान्य जिंदगी के लिए संघर्षरत किसान मेरी कहानियों के अविभाज्य अंग है। शहर के जीवन में जहाँ एक ओर आधुनिकता बोध को निरंतर तीव्र और सक्रिय बनाता है, वहीं गाँव के जीवन की धड़कने जो अब भी सड़ी-गली परंपरा और कूटस्थ रूढ़ियों का कूड़ा -कचरा ढोती हुई कराह रही है मेरे कहानीकार के लिए सदा की चुनौती रही है।"2
भारतीय कथा-साहित्य में शिवप्रसाद सिंह की सशक्त भूमिका रही है। उन्होंने अपने उपन्यासों, कहानियों, व्यक्तिव्यंजक निबंधों और चिंतन-प्रधान रचनाओं के द्वारा रचना की स्वायत्तता को ऐसी भूमि पर उतारा है, जहाँ समाज और संस्कृति की चिंताएँ उसके साथ समग्र रूप से जुड़ी हुई है। शोध, समीक्षा, सृजन, चिंतन, दर्शन, निबंध, नाटक, आलोचना आदि विविध विधाओं में इनकी प्रतिभा सर्वविदित है पर इन्हें विशेष ख्याति कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में मिली। शिवप्रसाद सिंह के कथा- लेखन का मूल क्षेत्र ग्रामीण परिवेश है। इनकी कहानियों में प्रगतिशीलता एवं मानवता का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है। प्रेमचंद के बाद हिन्दी साहित्य में ग्राम्य जीवन लगभग नगण्य हो चुका था, इस रिक्तता को शिव प्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों के माध्यम से भरने का सार्थक प्रयास किया। इन्होंने अपनी कथा साहित्य में आम आदमी को स्थान दिया है। "मेरे लेखन की प्रेरणा मेरे आस-पास के जीवन को जीने वाला सामान्य आदमी है । मैं लिखता तो उसी के लिए हूँ, पर सामाजिक ढाँचा ऐसा है कि उस सामान्य आदमी के एक बहुत छोटे हिस्से तक मेरा लेखन पहुँच पाता है। मैं अवरोध को तोड़ने के लिए प्रयत्न भी करता हूँ और इसे ही लेखन की प्रेरणा भी कहता हूँ।"3
शिवप्रसाद सिंह ने ग्रामीण लोक जीवन को अपने कथा-साहित्य में दिखाने का प्रयास किया है । शिव प्रसाद सिंह के कथा साहित्य में हिन्दू देवी-देवताओं, संस्कारों, त्योहारों, लोक विश्वासों आदि का विशद चित्रण प्रस्तुत हुआ है। उनके चित्रण में भारतीय संस्कृति की व्यापक झलक दिखाई देती है। इसके साथ-साथ लोक संस्कृति ने विभिन्न धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक विचारधाराओं में सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों एवं उपन्यासों के माध्यम से भारतीय संस्कृति को जीवित रखने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। कथाकार शिवप्रसाद सिंह ने स्वयं अपनी कहानियों की भूमिका में लिखा है -” मेरी अब तक की प्रकाशित सम्पूर्ण कहानियाँ तीन खण्डों में प्रकाशित हो रही है, पहला खण्ड 'अंधकूप', दूसरा 'एक यात्रा सतह के नीचे' और तीसरा 'अमृता'। वस्तुत: मेरी अधिकांश कहानियाँ ग्राम जीवन की तमाम विरूपता गरीबी एवं जहालत को समेटे हुए हैं। ऐसा नहीं की आज का ग्राम जीवन सिर्फ अंधकूप की ही संबा पा सकता है उसमें अब भी वैसा बहुत कुछ है जो जीवन में आलोक बिन्दु का कार्य कर सकता है।"4
लेखक लोकभाषा एवं लोक साहित्य के महत्व को समझते थे इसी कारण उनकी कहानियों तथा उपन्यासों में लोक जीवन को दर्शाने वाले तत्व मिलते हैं। उनकी कथाओं में भारतीय लोक मानस के विभिन्न क्रिया-कलापों का वर्णन हुआ है। उन्होंने सामान्य जन-जीवन से जुड़े रीति-रिवाजों का सहज रूप से उल्लेख किया है। लोक भाषा का प्रयोग उन्होंने अपने कथा-साहित्य में अच्छी तरह से किया है, इसके अलावा उनके कथा-साहित्य में लोक जीवन को प्रदर्शित करने वाली अनेक लोकोक्तियों एवं मुहावरों का सुंदर चित्रण हुआ है।
स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी की जड़े आसपास के यथार्थ की भूमि में है। इसलिए इसका अपना एक नया कथानक है जो ठेठ समाज और जीवन से चुना गया है। कथानक व्यक्ति और उसके परिवेश को सही संदर्भों में चित्रित करता है। शिवप्रसाद सिंह की कहानियों के कथानक में यह विशेषता विशेषरूप से दिखाई पड़ती है। शिवप्रसाद सिंह की प्रत्येक कहानी में व्यक्ति और उसके परिवेश को कथानक के द्वारा इस प्रकार से उभारा गया है कि पाठक के चित्र में पूरा चित्र तो उपस्थित हो ही जाता है पर साथ ही लेखक की अनुभूतियों को भी पाठक अनुभव कर सकता है। लेखक की कहानियों में परिवेश चित्रण इतना प्रभावपूर्ण है कि पाठक कहानी को एक चित्ररूप में भी स्फूर्ति में रख सकता है। इनकी सबसे पहली कहानी 'दादी माँ' 'प्रतीक' में पहली बार प्रकाशित हुई और दूसरी 'बरगद का पेड़' 1952 में । 'दादी माँ' ग्राम जीवन की पहली कहानी थी, जिसमें निजी अनुभव और भोगे हुए सत्य की व्यथा को व्यक्त किया गया था। यह गाँव के उस वातावरण की प्रतिनिधि रचना है, जहाँ दीनता, विपन्न्ता और अंधविश्वास की जड़े गहराई में जमी हैं, गरीबी और गंदगी उसे खाद देती हैं किन्तु पारिवारिक स्नेह सहज विनोद और प्रकृति की सुषमा इसमें फूल की तरह खिला करती है।
प्रेमचंद के बाद इतने व्यापक एवं विस्तृत फलक पर गाँव की संस्कृति का लेखा जोखा किसी ने प्रस्तुत किया है तो वे शिवप्रसाद सिंह है। इनके कथा साहित्य में ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही संस्कृतियाँ अवलोकित होती हैं। ये ग्रामीण परिवेश के रहन-सहन, आचार-विचार, खान-पान, वेश-भूषा एवं पर्व-त्योहार आदि स्थितियों का उल्लेख करती हैं, साथ ही नगरीय परिस्थितियों का भी उल्लेख करती हैं। इनके साहित्य में दोनों ही संस्कृति उभरकर पाठक के सामने आती है। शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में ग्रामीण संस्कृति का हर पहलू उभरकर सामने आ जाता है। इन संस्कृतियों के सचेत ध्वजवाहक भैरो सिंह, देऊ दादा, दादी माँ, उपधाइन मैया सुभागी बुआ, धनसेरी चाची आदि पात्रों का विशेष योगदान रहा है। कहानीकार ने उन्हें केवल सूक्ष्म दृष्टि से देखा ही नहीं बल्कि औरों को इन्हें दिखाने का भी प्रयत्न किया है। इस दिशा में उनकी लेखनी ने भी उनका पूरा साथ दिया है। उनकी सभी कहानियां एक प्रकार की जीवंत रेखाचित्र है, जिन्हें अपनी कला-तूलिका से लेखक ने बहुत ही संयम और सावधानी से चित्रित किया है। भाषा बहुत ही सरल, बहुत से स्थानीय शब्द प्रयोगों में सजी होने के कारण आकर्षक एवं चुटीली हो उठी है। प्रत्येक कहानी में एक मीठा परंतु चुटीला व्यंग्य मिला है। क्योंकि इन कहानियों में एक अछूता शिल्प सौंदर्य है।"[5]
शिवप्रसाद सिंह मूलरूप से एक ग्राम कथाकार हैं। लेखक का विश्वास था कि ज़िंदगी वहाँ (गांवों में ) रोती नहीं मुस्कुराती भी है।"[6] न सिर्फ यह कि वैचारिक रूप से विशेष आग्रह के साथ, वह नई कहानी के इस आंदोलन से अपने को जोड़ रहे हैं, रचनात्मक स्तर पर भी कुछेक अपवादों को छोड़कर, वह भारतीय ग्राम जीवन के यथार्थ को ही अंकित करने का आग्रह दिखलाते रहते हैं। रेणु और मार्कण्डेय भी क्रमश: आंचलिक और ग्राम कहानी के महत्वपूर्ण कहानीकार हैं-इतने महत्वपूर्ण कि उनकी कहानियों के आधार पर ही ऐसे किसी आंदोलन और नामकरण की जरूरत महसूस की गयी - लेकिन इन दोनों ने ही शहरी जीवन पर भी कुछ अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। शिवप्रसाद सिंह की स्थिति इन दोनों कहानीकारों के मुक़ाबले थोड़ी भिन्न इसलिए भी है कि शहरी जीवन पर उन्होंने प्राय; कहानियाँ नहीं लिखी हैं और जो चंद कहानियाँ उन्होंने लिखी भी हैं वे स्तर और गुणात्मकता की दृष्टि से नितांत कृत्रिम संवेदनहीन और गढ़ी हुई कहानियाँ लगती हैं- वैसी कहानियाँ जिनका विरोध शुरू से ही नयी कहानी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है।
नई कहानी में ग्राम कथाकारों का आग्रह विशेष रूप से अछूते पात्रों और अनुभव क्षेत्र को लेकर था। शिवप्रसाद सिंह ने भी उपेक्षित और पीड़ित रह आए लोगों को अपनी कहानियों में अंकित करने की पहल की। डॉ. शिवप्रसाद सिंह के सम्पूर्ण कथा - साहित्य को देखा जाए तो उनके हृदय की सारी करुणा और सहानुभूति यदि किसी के प्रति उमड़ती है तो वे हैं समाज के सबसे उपेक्षित और पीड़ित, अछूत, दलित और पिछड़े जनसमुदाय और स्त्रियाँ। उनकी कहानियों में मुसहर (धारा), डोम(इन्हें भी इंतज़ार है), नट (आर-पार की माला), भिखारी (राग-गूजरी), मल्लाह (कर्मनाशा की हार), छोटे दुकानदार या साहूकार (नन्हों), हिंजड़ा (बिंदा महाराज), कोढ़ी (मुरदा सराय) विभिन्न जनसमुदायों के सजीव पात्रों ने अपनी मौलिकता और नवीनता से पाठकों को विस्मित कर दिया। बेशक शिवप्रसाद सिंह की इन कहानियों की मूल्यदृष्टि इसके सहज मानवीय सत्य को लेकर ही विशेष आग्रह शील है लेकिन इससे थोड़ा आगे जाकर वह इस व्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक संदर्भों को भी छूते हैं और कभी-कभी इन पात्रों की इस स्थिति के लिए उत्तरदायी कारणों को भी अपनी चिंता के केंद्र में रखकर चलने की कोशिश करते हैं। शिवप्रसाद सिंह की कहानियाँ ग्रामीण जीवन की विविध स्थितियों के खिलाफ विद्रोह का स्वर बुलंद करती है। सबसे प्रबल रूप में यह विद्रोह समाज में व्याप्त रूढ़ियों को लेकर प्रकट हुआ है। तमाम आधुनिक आविष्कारों, प्रगतिशील जीवन मूल्यों के आगमन के बावजूद हमारा ग्रामीण जीवन अनेक रूढ़ियों में फँसा सिसक रहा है। इससे हमारी प्रगति तो पिछड़ती ही है, व्यक्ति की भावनाएं कुंठित होकर उसके जीवन को नष्ट करती हैं। मानवीय विकास अवरूद्ध होकर रह गया है। शिवप्रसाद सिंह ने बड़े खूबी के साथ इन सबका निदर्शन कराया है। शिवप्रसाद सिंह ने अपने कथा साहित्य में भीतर के गाँवों के जिस अंचल की धरती को अपनाया है, वह धरती अपने पूरे वातावरण के साथ तथा समूचे परिवेश के साथ चित्रित हुई।
संयुक्त परिवार हमारे समाज का आदर्श रहा है लेकिन बदलते समय ने परिवार को बिखराव की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। संयुक्त परिवार के बिखराव और टूटन का असर स्त्री जीवन पर भी पड़ा है। समाज की अनेक रूढ़ियाँ ग्रामीण जीवन का हिस्सा रही है जिसने समाज के विकास को अवरुद्ध भी किया उसी में एक थी नरबलि। कर्मनाशा की हार' में नरबलि देकर बाढ़ से गाँव की रक्षा करने की रूढ़ि इसका सशक्त उदाहरण है। कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ आए तो बिना मानुस की बलि लिए लौटती नहीं। "फुलमत अपने बच्चे को छाती से चिपकाए टूटते हुए अरार पर एक नीम के तने से सटकर खड़ी थी। उसकी बूढ़ी माँ जार-बेजार हो रही थी किन्तु आज जैसे मनुष्य ने पसीजना छोड़ दिया था, अपने - अपने प्राणों का मोह इन्हें पशु से भी नीचे उतार चुका था, कोई इस अन्याय के विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं करता था। कर्मनाशा को प्राणों की बलि चाहिए, बिना प्राणों की बलि लिए बाढ़ नहीं उतरेगी...फिर उसी की बलि क्यों न दी जाय जिसने पाप किया...परसाल जान के बदले जान दी गयी, पर कर्मनाशा दो बलि लेकर ही मानी...त्रिशंकु के पाप की लहरें किनारों पर साँप की तरह फुफकार रही थी। आज मुखिया का विरोध करने का किसी में साहस न था। उसके नीचता के कार्यों का ऐसा समर्थन कभी न हुआ था।"[7]
समाज में एक यह रूढ़ि भी व्याप्त रही है कि बच्चा नहीं होने का सारा दोष समाज स्त्री के हिस्से छोड़ देता है, इसका चित्रण 'रेती' शीर्षक कहानी में देखा जा सकता है। इस कहानी में गंगा भाभी नामक पात्र से लेखक इस रूढ़ि की गहराई से पड़ताल करते हैं, “बच्चे के लिए उसने क्या नहीं किया। टोने-टोटके से लेकर व्रत-नेम और कितनी ही जड़ी-बूटी वह आँख मूँदकर पीती रही। किसी ने कह दिया कि षष्ठी पूजन को रात-भर गंगाजी में खड़ा रह कर प्रात: सूरज का मुख देखकर बाहर निकलने से अवश्य पुत्र होता है, तो गंगा बहू रात-भर पानी में खड़ी रही। कितनी बार तो वह मरने से बची। निर्जला एकादशी, प्रदोष और भी न जाने कितने पर्व उसके शरीर को सुखाते रहते हैं। इन तमाम पर्वों में उसकी आशा उसे राहत देती थी, पर अब तो वह भी न रही। वह अब इस ज़िंदगी से मौत को बेहतर समझती है। जरा तुम्हीं सोचो, आखिर उसका अपराध ही क्या है? लड़का न होने में उसका पति भी तो कारण हो सकता है। पर इस पर कौन सोचता है। औरतें उससे दूर भागती हैं। लोग-बाग उसके पास से बच्चों को खींच लेते हैं। कोई बच्चा उसकी अंगारे-सी दहकती गोद की आँच कैसे सह सकता है।"[8] इस तरह की तमाम रूढ़ियाँ ग्रामीण परिवेश में आज भी भरी पड़ी है।
गाँवों में मनाए जाने वाले अनेक तीज-त्योहार, पर्व-व्रत हमारी संस्कृति को विविधता प्रदान करती है। हमारी संस्कृति ऐसी है कि यहां चाहे इंसान के जीवन में कितनी ही जटिल स्थितियां क्यों न आएं, लेकिन उसे अकेला और उदास रहने की नौबत कभी नहीं आती। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर खुशी और गम के मौके पर पास-पड़ोस, रिश्तेदार और दोस्त हमारे साथ खड़े होते हैं। यहां हर अवसर के लिए खास तरह की रस्में, गीत, पहनावा और खानपान देखने को मिलता है। ऐसे रस्म-रिवाज न केवल हमारी संस्कृति को अपने विविध रंगों से सजाते हैं, बल्कि ये समाज के हर वर्ग को एक-दूसरे से जोड़ने का काम बड़ी खूबसूरती से करते हैं। आज का भारतीय समाज जिस बदलाव के दौर से गुजर रहा है, उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति भी अछूती नहीं है। खास बात है कि तीज-व्रत आदि में मुख्यत: स्त्री ही केन्द्रित बनती आई हैं। इसे भारतीय संस्कृति का सुखद पहलू कहा जा सकता है कि यहां की स्त्रियां परंपराओं और रीति-रिवाजों की विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुशलता से संजोती आ रही हैं। 'रेती' कहानी में मातृनवमी का एक ऐसा ही लोक त्योहार के रूप में चित्रित पर्व है। लेखक वर्णन करते हैं कि, “सामने के घाट पर बड़ी भीड़ थी। श्वेतकेशी बुढ़ियों, पीली साड़ियों में सिकुड़ी बहुओं और रंगीन फूलों से बाल सजाये चंचल लड़कियों का रेला लगा था। सूरज के गोले ने जैसे ही पानी की सतह को छुआ, औरतों की जमात पानी में कूद पड़ी। आज जीउतिया है, मातृनवमी, पुत्रवती नारी का महत्वपूर्ण पर्व।... ए चील ! किनारे खड़ी एक बूढ़ी औरत आकाश में मँडराते पक्षी की ओर हाथ उठा कर चिल्ला उठी, “जाकर राजा रामचन्द्र से कह देना रामू की माँ ने आज कर जीउतिया का व्रत किया था। ..आकाश में पक्षी का चक्कर जारी रहा। बूढ़ी औरत हर लड़के का नाम ले-लेकर उसकी माँ के व्रत की बात बताती रही। पक्षी कैसे चक्कर दे-देकर उन नामों को घोख रहा था, उसे राजा रामचन्द्र के सामने पूरी तालिका जो पेश करनी थी।"[9]
विवाह हमारी संस्कृति का उल्लेखनीय एवं पुरातन परंपरा रही है। भारतीय विवाह विविध प्रकार की रस्मों और रिवाजों का समिश्रण रूप है। विवाह रस्में और रिवाज प्राचीन काल से ही चले आ रहे हैं। शिव प्रसाद सिंह की कहानियों में भी विवाह उत्सव का चित्रण प्राप्त हुआ है। 'नन्हों' कहानी में नन्हों के विवाह का चित्र दृष्टव्य है, “डोला आया, उसी दिन हल्दी-तेल की सारी रस्में बतौर टोटके के पूरे हो गयी और उसी रात को गाजे-बाजे के बीच नन्हों की शादी मिसरीलाल से हो गयी। बाजों की आवाजें हमेशा जैसी खुशी से भरी थीं, मंडप की झंडियों और चंदोवे में हवा की खुशी भरी हरकतें भी पूर्ववत थी, भाटिनों के मंगल गीतों में राम और सीता के ब्याह की वही पवित्रता गूँज रही थी।"[10]... “ब्याह के दूसरे दिन के रस्म रिवाज पूरे हो रहे थे, कमारी डाले में अक्षत - सिंदूर लेकर गाँव की तमाम सतियों के चौरे पूज आई थी और सबसे मिसरीलाल की मृत माँ की ओर से वर वधू के लिए आशीर्वाद माँग आयी थी। रातभर गाने से थकी हुई भाटिनें अपने मौटे और भौंडे स्वरों में अब भी राम और सीता की जोड़ी की आसीसें गा रही थीं। कुछ बचे-खुचे लोग एक तरफ बैठे खा रहे थे, पुरवे - पत्तल इधर-उधर बिखरे पड़े थे।"[11] इस प्रकार विवाह में खान-पान और तौर-तरीकों का सारा चित्रण ग्राम प्रचलित संस्कृति के रूप में किया गया है। शादी के बाद पति-पत्नी मूँज की रस्सी से नदी के दोनों किनारों को बांधते हैं -”पार की किसी गाँव की औरतें हैं, बीच में दूल्हा है, बगल में दुलहिन। हाल में शादी हुई है। आज वे गंगा के दोनों किनारों को, मूँज की पीली रस्सी से, जिसमें पीले कनेर के फूल गूँथे हैं, जोड़ देंगे।"[12] नयी बहू के हाथों बनाया खाना खाते समय बहू को थाली छेकाई में उपहार देने की प्रथा लोकाचार ही है। "ढुलाई के पैसे मिले, तो जगपति को याद आया कि घर पहुँचने पर बहू के हाथों पहली बार थाली मिलेगी। 'थरिया छेकाई' पर कुछ न कुछ देना तो पड़ेगा ही, नहीं तो बड़ा हेठी का काम होगा।"[13]
नयी कहानी के उन्मेष में चूंकि ग्रामगंधी कहानियों ने ही सर्वप्रथम नयेपन की ताजगी दी।' शिवप्रसाद सिंह ने कहा कि, “मेरी कहानियाँ नयी कहानी नहीं कही जा सकती तो न कही जाएं। मुझे इसके लिए चिंता नहीं। आलोचकों से मिथ्या स्वीकृति पाने की मुझे परवाह नहीं... मेरा एक मत है, एक विचारधारा है। मेरी कहानियों के चरित्र, वातावरण, उद्देश्य, इसी विचारधारा के भीतर से उठे, ऐसा मेरा प्रयत्न रहा है। अब तक यह बात मेरे पाठकों और समीक्षकों को स्पष्ट न हो सकी तो यह मेरी दुर्बलता है।"[14] आधुनिकता और आंचलिकता के संदर्भ में अपनी ग्राम कथाओं को विश्लेषित करते हुए कथाकार ने स्वयं लिखा है - “मेरी कहानियों का परिवेश केवल गँवई धरती की रंग-बिरंगी सोंधी गंध में डूबे रूमानी साज-सज्जा भर नहीं है बल्कि वे संकेतार्थ द्वारा बदलते हुए समय और मुट्ठी से धीरे रिसते हुए काल प्रत्यय की बालुका की तरह बिखरती स्थितियों की परिचायक भी है।" शिवप्रसाद सिंह की 'नन्हों', ‘इन्हें भी इंतज़ार है', ‘मुरदासराय', ‘एक यात्रा के नीचे', ‘कर्मनाशा की हार', अरुंधती', भग्न-प्राचीर' आदि कहानियों प्रत्येक प्रकार से आधुनिकताबोध की कहानियाँ है। सिर्फ इन्हें ग्राम कथा मानकर अलग कर देने से नयी कहानी के नए आयाम ही खिसक जाएंगे। अपनी कहानियों के बारे में शिवप्रसाद जी के स्वयं के विचार अत्यंत प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी बन पड़े हैं जो कुछ इस प्रकार है- "अपनी कहानियों के विषयवस्तु में मेरा कोई अलग से दावा नहीं है। जो कुछ है इन कहानियों में ही है। एक आस्था का भाव जरूर है मन में अपने प्रयत्न के प्रति। मनुष्य और उसकी जिंदगी के प्रति मुझे मोह है, जो अपने अस्तित्व को उबारने के लिए विविध क्षेत्रों में विरोधी शक्तियों से जूझ रहा है, अंधविश्वास, उपेक्षा, विवशता, प्रताड़ना, अतृप्ति, शोषण, राजनीति, भ्रष्टाचार और स्वार्थपरकता के नीचे पिसता हुआ भी अपने सामाजिक और वैयक्तिक हक के लिए लड़ता है, हँसता है, रोता है, बारंबार गिरकर भी जो अपने लक्ष्य से मुँह नहीं मोड़ता वह मनुष्य तमाम शारीरिक कमजोरियों और मानसिक दुर्बलताओं के बावजूद महान है।"[15]
शिवप्रसाद सिंह की अनेकानेक कहानियाँ चरित्र प्रधान हैं। स्वयं लेखक का कथन है कि मेरी पचास प्रतिशत से अधिक कहानियों कि प्रेरणा में चरित्रों का योग है - “यानी सृजन प्रक्रिया की दृष्टि से मुझे परिस्थितियों से संवलित, आश्लेषित चरित्र पहले आकृष्ट करते हैं, बाकी चीजें बाद में। जगत के चरित्र ज्यों के त्यों कहानी के अंग प्राय: नहीं बनते। रचना-प्रक्रिया के बीच कहानी ध्वन्यार्थ की सचेतना का प्रयत्न करती है। इन पुनर्सयोजन में लेखक की निजी अनुभूतियों की लगावट भी बहुत बड़ा काम करती है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में कमाएं अनुभवों के रासायनिक द्रव, चरित्रखण्डों को, एक निश्चित अर्थ को दृष्टि में रखकर जोड़ते रहते हैं। लेखक की सफलता इस बात में होती है कि वह अपने भीतर चारित्रिक स्थितियों और संघर्षों का तथा जीवन की वास्तविकता का ऐसा सूक्ष्म, सही और प्रामाणिक अनुभव रखे कि भिन्न-भिन्न समयों में उपलब्ध चरित्रखण्डों को सही ढंग से जोड़ सके। यह जोड़ाई एक जीवित चरित्र तो दे देगी, किन्तु यह चरित्र एक 'आइडिया' बन जाय, एक सूक्ष्म कथ्य का रूप ले ले, इसके लिए कुछ और उच्च स्तरीय चेतना की आवश्यकता होती है जिसे दार्शनिक लहजे में 'प्रि-रिफ्लेक्सिव काग्निटो' (पूर्व सहजात्मक ज्ञान) कहा जाता है।
कथा जगत के सशक्त हस्ताक्षर मूर्धन्य विद्वान एवं हिन्दी साहित्य की जीवंत प्रतिमूर्ति शिव प्रसाद सिंह ने ग्राम- जीवन की चुनौतियों, ग्राम जीवन की तमाम विद्रूपताओं, गरीबी, जहालत, षड्यंत्र, मक्कारी, अनैतिकता एवं गाँव की टुच्ची राजनीति को जहां एक तरफ बिना किसी लाग-लपेट के बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी रचना के कैमरे में कैद किया, वहीं उनके अन्य कहानी संग्रहों में बदलते मानव-मूल्य चलचित्र की तरह अपने अभिनीत चरित्रों के माध्यम से व्यक्त होते हुए दिखलाई पड़ते हैं। वैसे तो कथाकार की सभी कहानियाँ ग्रामीण संस्कृति की कहानी कहती हैं, लेकिन 'मंजिल और मौत' कहानी में ग्रामीण संस्कृति की सही तस्वीर सामने आती है जो मूल होते हुए भी घटनाओं को परत-दर-परत खोलती जाती है। यह कहानी सामंतशाही व्यवस्था के कुठार को सह रहे बौड़म की कहानी नहीं है, बल्कि स्वयं कहानीकार की कहानी है। बौड़म दुर्व्यवस्था की पीड़ा को झेलता हुआ, अपने एक-एक स्वजन को खोता हुआ अपने भीतर आशा का संचार करता हुआ, दृढ़ता के साथ पूरे समाज से लड़ता है, टूटता है, खीजता है, हारता है पर दम बनाए हुए है। भविष्य पर सुदृष्टि टिकी है, मानो सब कुछ खो जाने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि जिस लक्ष्य की तलाश थी, पाने की चेष्टा थी, छटपटाहट थी वह सब पूर्ण हो गया है। बौड़म के घर में दुलहिन आयी और सचमुच उसका आँगन बिछिया की आवाज से गूँज उठा। खुशी का महासागर लहराने लगा। आसपास लोगों ने देखा की आनंद के महासागर में तैरते हुए बौड़म का शरीर ठंडा हो गया। पर दुर्जेय बौड़म एक ऐसा राही था जो मंजिल पर आकार मौन हुआ। 'मंजिल और मौत' कहानी में बौड़म के रूप में स्वयं रचनाकार के दर्शन होते हैं। रचनाकार के हृदय ग्रामीण संस्कृति की जड़े इतनी मजबूती से फैल चुकी हैं कि उसे काट पाना नितांत असंभव है। कथाकार बड़ी शिद्दत से अपने भोगे हुए जीवन संघर्षों का वर्णन इतनी बारीकी से करता है कि बड़ी सूक्ष्म दृष्टि का द्रष्टा ही उनके इस जीवन संघर्ष की महालीला को समझ सकता है।
आजादी से पहले कथा सम्राट उपन्यासकार प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन के जिन बिन्दुओं को संस्पर्श किया था उन्हीं समस्याओं को अपनी पैनी दृष्टि से आगे बढ़ाने का काम शिवप्रसाद सिंह जी ने किया है-’महूवे के फूल' गांवों में रहने वाले असहाय एवं कमजोर तपके के लोगों की कहानी है, जो दिन-रात मेहनत करके भी गरीबी के चक्की में पिसे जाते हैं और विवशता की बैसाखी पर अपना जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाते हैं। चंपी की शादी एक ऐसे व्यक्ति से हो जाती है जो न ही सूरत और न ही सीरत में उसके सामने ठहरता है। ‘बरगद का पेड़' कहानी में कथाकार ने जो ताना बाना है वह ग्राम्य संस्कृति की गहन गहराई की अभिव्यक्ति है-यथा तीखे-तीखे बाल फैलाये कोई राक्षस खड़ा हो। अब प्राय: इसमें एक बहुत दूर तक फैले हुए सेवार नागरमोथा और रेड़ई की जड़ों को थूथन से खोद कर खाते हुए गँवई सूअर और दूसरी ओर टीले के पास थोड़े गहरे पानी वाले कंकरीले घाट पर स्नान करते हुए कुछ लड़के दिखाई पड़ते हैं। ‘उसकी भी चिट्ठी आयी थी' जैसी कहानी में शिवप्रसाद जी ने समाज की मन: स्थिति का यथार्थ चित्रण किया है, जिसमें सभी अपनी-अपनी आशाओं एवं सुखों की तिजोरी को भरने में लगे हैं। उस असहाय अल्पवेतन भोगी डाकिये के दुख दर्द को जानने समझने के लिए किसी के पास फुर्सत कहाँ है? सभी उसकी प्रतीक्षा करते हैं लेकिन कोई उसका स्वागत नहीं करता। सभी चिट्ठी पाकर अपने-अपने जीवन को सहला रहे हैं कोई उसके दुख दर्द का निवारण नहीं करता । विमल ठाकुर वह डाकिया है जो दिन भर परिश्रम करता है। लोगों के दुख दर्द को दूर करता है। लोगों की आशा है। भविष्य है। सभी उसे चाहते हैं लेकिन कोई उसके निजी जीवन को नहीं जानना चाहता कि उसके भी बच्चे हैं परिवार हैं, उसका भी घर है, उसका भी जीवन है। डॉ. श्याम सुंदर मिश्र का कथन है कि, “शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में आधुनिक चेतना की यात्रा और आंतरिक अस्तित्व के चेतनावादी रूपों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। ग्राम्य परिवेश के भीतर संघर्ष करते मनुष्य की सही तस्वीर ही उनका मूल विषय क्षेत्र है जो कहीं - कहीं अस्तित्ववाद की कलात्मक अभिव्यक्ति भी बन गया है।"[16]
निश्चय
ही बीसवीं सदी के अंतिम दशक के बेजोड़ साहित्यकार रहे। डॉ. शिव प्रसाद सिंह की
कहानियों के सम्यक विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि इस संग्रह की उनकी प्रत्येक
कहानी प्राय: अलग – अलग विषयों पर आधारित है। प्राय: सभी कहानियों में समाज का
यथार्थ चित्रण है। समाज की स्थिति हर कहानी में अलग - अलग रूपों में अभिव्यक्त है।
उनके कहानी संग्रहों में पारिवारिक बंधन, रीति
- रिवाज, आपसी सौहार्द,
वैमनस्य,
सामाजिक
विसंगतियाँ, शोषण आदि सब कुछ प्राप्त होता
है। उन्होंने ग्रामीण परिवेश की समस्या को उकेरने के साथ – साथ समाधान भी प्रस्तुत
किया है। कहानीकार ने अनेक सक्षम पात्रों को सूक्ष्म दृष्टि से देखा ही नहीं वरन
औरों को इन्हें दिखाने का भी प्रयास किया है। इस दिशा में उनकी लेखनी ने भी उनका
पूरा साथ दिया है। कुल मिलकर कह सकते हैं कि उनकी कहानियाँ उच्चकोटि के गद्य का
सजीव और प्राणमय नमूना है तथा संक्रमणकालीन भारतीय समाज का एक मूल्यवान दस्तावेज़
है।
1डॉ. सत्येन्द्र, मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का लोकतात्विक अध्ययन, आगरा विनोद पुस्तक मंदिर, 1960, पृ. 9-10
2डॉ. शिवप्रसाद सिंह, ‘मेरी प्रिय कहानियाँ' की भूमिका से, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
3सारिका, 1 फरवरी, 1980, पृ. 12-13
[7]डॉ. शिवप्रसाद सिंह, 'संग्रह – अंधकूप, कहानी - 'कर्मनाशा की हार', वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण - 2014, पृ. 61
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
एक टिप्पणी भेजें