शोध सार : बच्चे ही राष्ट्र का भविष्य है और देश के भविष्य को बनाना हम सब की जिम्मेदारी है। अतः बच्चों के समक्ष ऐसी चीजों को रखी जाए जिससे देश के निर्माण में वे अपना योगदान दे सकें। देश की मजबूती एवं संवेदनशील नागरिक निर्माण के लिए बचपन रूपी नींव के भीतर संस्कार, नैतिकता, चरित्र, संवेदनशीलता, सौहार्द की भावना, मानवता, सद्गुण, वीरता, साहस, बलिदान, परिश्रम, त्याग, प्रेम, भाईचारा, देशप्रेम और मनोरंजन आदि गुण भरने की आवश्यकता होती है।इस आवश्यकता की पूर्ति बाल साहित्य से ही संभव हो सकती है। इन बातों को ध्यान में रखकर बालकों के लिए राजस्थान में हिन्दी बाल कथा साहित्य का विकास किस प्रकार हुआ तथा प्रत्येक दशक में बाल कथा साहित्य की क्या विषयवस्तु रही उसकी जानकरी देने के साथ ही 21वीं सदी में राजस्थान का हिंदी बाल कथा साहित्य किस प्रकार लिखा जा रहा है। वर्तमान समय में बाल कथा साहित्यकितना जरुरी है और उसकी क्या महत्ता है तथा बाल कथा साहित्य का क्या स्वरूप होना चाहिए इसे ध्यान में रखकर ‘21वीं सदी में राजस्थान का हिन्दी बाल कथा साहित्य’ आलेख लिखा गया है।
बीज शब्द : बाल, साहित्य, बाल साहित्य, कथा साहित्य, कहानी, उपन्यास, देश, बच्चे, 21वीं, राजस्थान, संस्कार, देशप्रेम इत्यादि।
मूल आलेख : साहित्य समाज का दर्पण है। जैसा समाज होगा साहित्य भी वैसा प्रतीत होता हुआ दिखाई देगा। चूँकि साहित्य समाज की वह धारा है जिससे व्यक्ति को जीने की राह मिलती है। साहित्य का उद्भव मूलतः मौखिक रूप में हुआ। कहने-सुनने के इस प्रवाह में बाल साहित्य भी हिलोरें लेता उत्पन्न हुआ। लेकिन बाल साहित्य की अभी तक उपेक्षा की जाती रही है तथा उसे दोयम दर्जे का साहित्य माना गया। बाल साहित्य के प्रारम्भ में मौखिक रूप में दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, चाचा-चाची और बुआ द्वारा बच्चों को भूत, प्रेतों, राजा-रानी, परियों और तिलिस्म रूपी कथा सुनाकर बच्चों का मनोरंजन करने के साथ-साथ बच्चों के भीतर संस्कार एवं सद्गुण पनपाने का प्रयास किया जाता था। चूँकि बाल साहित्य का उद्भव इन्हीं कहानियों से माना जाता है। जिनका मौखिक स्वरूप आदिकाल से चलन में रहा है। ये कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप में ही हस्तांतरित होती रही हैं।
बाल साहित्य दो शब्दों से मिलकर बना है - ’बाल’ और ’साहित्य’। जिसका अर्थ होता है - बच्चों का साहित्य। यानी बालकों के लिए लिखा जाने वाला साहित्य। बाल साहित्य के अर्थ पर विचार करते हुए डॉ. सुरेन्द्र विक्रम तथा जवाहर इंदु ने कहा है “बाल मनोविज्ञान बाल साहित्य लेखन की एक कसौटी है। बाल मनोविज्ञान का अध्ययन किए बिना कोई भी रचनाकार स्वस्थ एवं सार्थक बाल साहित्य का सृजन नहीं कर सकता है। यह बिल्कुल निर्विवाद सत्य है कि बच्चों के लिए लिखना सबके वश की बात नहीं है। बच्चों का साहित्य लिखने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चा बन जाना पड़ता है। यह स्थिति तो बिल्कुल परकाया प्रवेश वाली है।’’1
छोटी उम्र के बच्चों के मनोरंजन, शिक्षा, नैतिकता तथा सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर लिखा जाने वाला साहित्य, बाल साहित्य कहलाता है। बालक अबोध और निष्कपट होते हैं। उनमें भोलापन होता है, इसलिए उत्सुकता, कौतूहल, जिज्ञासा आदि गुण उनमें स्वभाव से ही पाए जाते हैं। कह सकते है कि बच्चे मन के सच्चे होते है। वे गीली मिट्टी के समान होते है जिसे मनचाहे आकार में ढाला जा सकता है। उषा सोमानी की कहानी आम के पेड़ ने की हड़ताल के अनुसार मंगल ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही कह रहा हूँ । मेरी टीचर ने बताया कि पेड़-पौधों में जीवन होता हैं ।”2
बाल साहित्य बच्चों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। बच्चों की प्रकृति, उनके सपनें, आकांक्षाओं एवं उनकी कल्पना को बीच में रखकर लिखा जाता है। उमंग और उत्साहपूर्वक पढ़ने के लिए तथा बच्चों को जिज्ञासु बनाए रखने के लिए इसका सृजन होता है। बाल साहित्य मनोरंजन के साथ बालकों के मन और बुद्धि के विकास में भी सहायक होता है। चूँकि बच्चें कोरी स्लेट के समान हैं जिस पर कुछ भी उकेरा जा सकता है। ऐसा बाल साहित्य निर्माण किया जाना चाहिए जिससे बच्चे मनोरंजन के साथ-साथ देश के एक अच्छे नागरिक बन सकें। डॉ. सत्यनारायण सत्य की कहानी ‘झंडा ऊँचा रहे हमारा’ में मूंगा राम को एक जागरूक नागरिक के रूप में बताया गया है जिससे बच्चों में देश के प्रति अपने कर्तव्य का भाव पैदा हो सके। कहानी अनुसार जब आतंकवादियों के द्वारा रेबारियों के ढाणी ‘जोधपुर – जैसलमेर इंटरसिटी एक्सप्रेस’ को बम से उड़ाने की योजना बना रहें थे तो वह अपने मित्र को प्रताप राम के साथ मिलकर पता लगा लेता है और यह खबर गुरूजी को देकर आतंकवादियों को पकडवा देता है और जब स्वतंत्रता दिवस पर मूंगा राम का इरादों की खूब चर्चा हो रही थी तब मन ही मन गा रहा था, “झंडा ऊँचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।”3
बाल साहित्य का मूल स्वरूप मौखिक है, किन्तु भारत में बाल साहित्य का रचनाकाल काफी पुराना है। बाल साहित्य में विष्णु शर्मा द्वारा रोप्य नगर के शासक के पुत्रों को शिक्षित करने, सदाचार एवं नैतिकता की सीख देने के लिए कहानियाँ ‘पंचतंत्र की कहानियाँ’ नाम से हिन्दी एवं संस्कृत में ‘हितोपदेश’ के नाम से लिखित रूप में आयी। बाल साहित्य के लेखन पम्परा की व्यवस्थित शुरूआत अमीर खुसरो से मानी जाती है। खुसरों की मुकरियाँ और कुछ बाल पहेलियाँ बाल मनोरंजन करने के लिए लिखी गई। इसलिए अमीर खुसरो को बीज बाल साहित्य लेखक कह सकते हैं।
बच्चों द्वारा बाल साहित्य की सभी विधाओं में बाल कथा साहित्य को तथा उसमें भी सबसे ज्यादा कहानियों को पसंद किया जाता रहा है। बाल कहानियों ने देश के स्तर भारत के स्वर्णिम भूतकाल, इतिहास के आदर्श चरित्र, पौराणिक आख्यानों के प्रेरणादाई प्रसंग, पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथा, सिंहासन बत्तीसी एवं बैताल पच्चीसी आदि पुस्तकों के मार्फत भारतीय बाल साहित्य की भावभूमि तैयार की है। इन कहानियों में बच्चों का सिर्फ मनोरंजन ही नहीं होता, अपितु बच्चों के हृदय में छिपी आकांक्षाओं को उसके पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति भी प्राप्त होती है। ऐसे तो भारत के प्रत्येक भाषा में बाल कथा साहित्य ने बच्चों को हँसाने के साथ-साथ उन्हें नैतिक और संस्कारवान बनाने का सफल कार्य किया है, किन्तु राजस्थान के बाल कथा साहित्य की बात करें तो देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा यहाँ का भूगोल मानव जीवन को संघर्ष से भरता दिखाई देता है। इस प्रदेश का अपना गौरवशाली इतिहास, यहाँ की मिट्टी की खुश्बू, संस्कृति की निराली छटा, भाषा के विभिन्न रूप, लोक जीवन की गंध को लिए हुए यहाँ की जलवायु, वातावरण, धरातल और प्रकृति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। डॉ. भैरूँलाल गर्ग की बाल साहित्य की पुस्तक ‘मेरी प्रतिनिधि बाल कहानियाँ’ में लगभग ये ही विशेषताएं देखने को मिलती है। उनकी कहानी ‘रोटी का मोल’ मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास की याद दिलाती है कि, “जब अपरिचित बन मेवाड़ के महाराणा जगत सिंह ने किसान चन्द्रभानु के हाथों पानी पीने के साथ ही जब किसान कहता है, लीजिए, दो रोटियाँ भी हैं मेरे पास, शायद आप भूखे भी हैं”4 इस मनुहार को महाराणा सहर्ष स्वीकार करते है। राजा के ये गुण राजस्थान के शासको को महान बनाते हैं।
आजकल मासिक नवम्बर अंक में देवेन्द्र कुमार ने लिखा था “बच्चों के लिए परिचित या प्रसिद्ध लेखक प्रायः नहीं लिख रहे हैं और यह बात बाल साहित्य की समृद्धि के लिए अच्छी नहीं है। बड़ों के लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखते, इस कारण बाल साहित्य में स्तरीय रचनाओं का अभाव हो गया है। “बड़ा साहित्यकार वही कहा जा सकता है जिसने अपने जीवन में कभी बाल साहित्य लिखा है।”5 राजस्थान का हिन्दी बाल साहित्य विभिन्न पडावों को पार करते हुए वर्तमान स्वरूप में पहुँचा है। राजस्थान के हिन्दी बाल साहित्य के सम्बन्ध में बात करें तो इस बात से लगभग सभी सहमत होंगे कि राजस्थान में हिन्दी भाषा में बाल साहित्य लेखक की परम्परा चालीस के दशक में प्रारम्भ हुई है। प्रकाशन सामग्री के आधार पर ज्ञात होता है कि शंभुदयाल सक्सेना राजस्थान के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी में बाल साहित्य लिखा। दौलतसिंह लोढ़ा ‘अरविन्द’ (भीलवाड़ा) की बाल कहानियों की एक पुस्तक ‘बुद्धि का लाल’ 1942 में प्रकाशित हुई जिसमें सामाजिक परिवेश पर आधारित सात बाल कहानियाँ है। इनके लिखे एकांकी ‘चतुर चोर’ एवं ‘सट्टे की खिलाड़ी’ पुस्तकें भी प्रकाशित हैं। अतः इन्हें राजस्थान के हिन्दी बाल साहित्य का पुरोधा कहा जा सकता है। राजस्थान के हिन्दी बाल साहित्य जगत् में विद्या भवन उदयपुर बालहित नामक एक पत्रिका का प्रकाशन किया गया था संभवतया राजस्थान में बाल साहित्य की प्रथम पत्रिका रही है। इसके बाद वानर पत्रिका प्रकाशित हुई किन्तु बाद में दोनों बंद हो गई।
राजस्थान के हिन्दी बाल कथा साहित्य के आधुनिक काल में भारतेन्दु काल से लेकर वर्तमान काल तक संजाने एवं संवारने के लिए अनेकों बाल साहित्यकारों ने अपनी महत्ती भूमिका निभाई है। स्वतंत्रता पूर्व के बाल साहित्य में शंभुदयाल सक्सेना एवं दौलतसिंह लोढ़ा का नाम महत्त्वपूर्ण है। “स्वात़न्त्र्योत्तर बालसाहित्य में रानी लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत, नानुराम संस्कर्ता, प्रतापनारायण पुरोहित, मुरलीधर व्यास, डॉ.कन्हैयालाल सहल, नारायणदत्त माली, दाउदयाल, बावजी चतुरसिंह, जगदीश माथुर ’कमल’, कन्हैयालाल सेठिया, कल्याणसिंह राजावत, शक्तिदान कविया, गिरधारी सिंह परिहार, भीम पंडिया, मोहन मंडेला, ब्रजमोहन सपूत, बंशीलाल बेकारी, किशोर कल्पनाकांत, चंद्रशेखर, आदि बाल साहित्यकारों ने हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में बाल साहित्य के संवर्धन में अपना योगदान दिया।’’6
राजस्थान में बाल कहानियों का पूरी तरह से विकास 1960 के बाद दिखाई देता है। इस समय के रचनाकारों में यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, पुरूषोतम चंदाणी, दीनदयाल ओझा, शुभु पटवा, श्यादराम रसेन्द्र, भगवान दत्त, जगदीश उज्ज्वल, हनुमान दीक्षित, हरिशचन्द्र गोयल, शांति मेहरोत्रा, कृष्ण कुमार कौशिक, रामनिरंजन ठिमाऊं, गणपतिचंद्र भण्डारी, श्रीलाल नथमल जोशी का नाम उल्लेखनीय है। यादवेन्द्र शर्मा ’चंद्र’ का प्रथम कहानी संग्रह ’रंगरेला’(1978) प्रकाशित हुआ। कहानीकार एवं उपन्यासकार के रूप में विख्यात यादवेन्द्र की बाल कथाओं पर लगभग छत्तीस पुस्तकें प्रकाशित हुई। इनके लिखे बाल साहित्य का कहानी जगत् में योगदान अविस्मरणीय रहेगा। इनमें ’बलिदान का रंग’, ’सच्ची तपस्या’, ’अजगर महल’ कृतियाँ उल्लेखनीय है। इन कथाओं के विषय राष्ट्रप्रेम, संस्कृति, क्रांति और धर्म से जुडे होने के साथ आदर्शवाद, ऐतिहासिकता, नैतिक जीवन मूल्य तत्त्व भरपूर मात्रा में रहे।
राजस्थान में साठ के दशक के बाद कथा साहित्य को संजाने व संवारने हेतु मनोहर वर्मा, हरदर्शन सहगल, गोविन्द शर्मा, हमीदुल्ला, भगवतीलाल व्यास, सावित्री रांका, राजेन्द्र मोहन भटनागर, जनक राज पारीक, ताराचन्द निर्विरोध, हसन जमाल, क्षमा चतुर्वेदी, प्रेमचंद गोस्वामी, श्याम मनोहर व्यास ने बाल कथाओं पर बेहतर कार्य किया। इन बाल कथाकारों की कहानियों में धैर्य, वीरता, साहस, त्याग, बलिदान, देशप्रेम, कर्तव्यपरायणता, आत्मविश्वास के गुणों के साथ सांस्कृतिक मूल्य एवं मानव मूल्यों एवं आदर्शवाद की प्रधानता रही। इनकी बाल कहानियों में वाक् चातुर्य, व्यावहारिक, ज्ञान और बुद्धि चातुर्य के साथ-साथ दया करुणा, अहिंसा और सहयोग का पाठ भी बालकों सिखाया गया। “इन बाल कथाकारों के कई ग्रंथ भी प्रकाशित हुए जिसमें ’एकता की जीत’, ‘बंटी का स्कूल’(मनोहर वर्मा), ‘जीतेंगे हिम्मत वाले’ ( हमीदुल्ला), ’भालू ने खेली फुटबाल’, ’अपने-अपने काम’( हरदर्शन सहगल), ’चालाक चूहे और मूर्ख बिल्लियां’, ’कालू कौआ’, ’मुकदमा हवा पानी का’(गोविन्द शर्मा), ’कागज की नाव’, ’काला ताजमहल’ (राजेन्द्र मोहन भटनागर), ’साहस का धनी’, ’बुद्धि की परीक्षा’(श्याम मनोहर व्यास), ’बबलू बदल गया’, ’सुनहरी भोर का सपना’( भगवती लाल व्यास) प्रमुख है।’’7
इनके अलावा माधुरी शास्त्री, भगवती प्रसाद देवपुरा, भगवती प्रसाद गौतम, गोपाल प्रसाद मुद्गल, बद्री प्रसाद पंचोली, अरनी रोबट्र्स का बाल कथाओं के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
बाल कथा साहित्य में राजस्थान प्रदेश के बाल कथाकारों की रचना को बाल पाठकों तक पहुँचाने के लिए ’बालहंस’ पत्रिका के प्रकाशन ने अस्सी एवं नब्बे के दशक में क्रांति पैदा की। इन दशकों में लिखी गई कहानियों में मेहनत, मित्रों से वफादारी, बालक में आज्ञापालन, परिश्रम, साहस, दैनिक जीवन से जुड़ी बातों से बुद्धि का विकास, परिवेश, सत्य, सदाचार के साथ ही बालकों को पढ़ने के लिए प्रेरणा के साथ ही उनकी जिज्ञासाओं से जुडी विशेष घटनाएँ मिलती है। इन दशकों में बालकों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के लिए बाल कथाकारों ने अपनी कहानियों में विज्ञान जगत् से जुडे हुए हवाई जहाज, चन्द्रमा, अंतरिक्ष, पनडुब्बियाँ, द्वीपों, महाद्वीपों की खोज, विभिन्न ग्रहों आदि के सामयिक घटनाओं का प्रभाव, वृक्षारोपण, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यावरण प्रदूषण, पर्यावरण के प्रति सोच उत्पन्न करना, बिजली, पानी एवं राजनीति जैसे विषय मिलते है। डॉ. विमला भंडारी के जासूसी बाल उपन्यास ‘दी ऑरबिट आई मंजू रानी और मूर्ति चोर’ में जंगल की आग वाली घटना में बच्चों में पर्यावरण के प्रति सोच उत्पन्न की गयी है। “नहीं मैडम जी, हमारे जंगल को किसी की नजर लग गयी है। यह आप जितनी भी हरियाली देख रही है, वह सिर्फ सड़क के किनारे तक ही है। अन्दर का जंगल वीरान पड़ा है। अब तो यहाँ आए दिन आग लग जाती है।”8
इन दशकों में बाल कथा के क्षेत्र में हरीश गोयल, शिवचरण मंत्री, अनन्त कुशवाहा, बुलाकी शर्मा, पुरुषोत्तम आसोपा, मदन वैष्णव, शकुन्तला व्यास, दिनेश विजयवर्गीय, नवनीत, मुरलीधर वैष्णव, सुधीर सक्सेना, रमा तिवारी, विनोद सोमानी ’हंस’, पुरुषोत्तम आसोपा, रमाकांत ’कांत’, विमला भण्डारी, ओमप्रकाश भाटिया, इन्द्रजीत कौशिक, सम्पत शर्मा, रतन राहगीर, दीनदयाल शर्मा, राजेन्द्र जोशी, सत्यदेव संवितेन्द्र, विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी, नवनीत, सावित्री चौधरी आदि ने योगदान दिया। इनमें ’अंतरिक्ष का अजूबा’, ’चंद्रमा पर खोज’( हरीश गोयल), ’श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’( अनन्त कुशवाहा), ’बरगद की गवाही’, ’सबसे बड़ा ईमान’( सत्यदेव संवितेन्द्र), ’प्यारा दोस्त’, ’पसीने की कमाई’( बुलाकी शर्मा), प्रेरणादायक बाल कहानियाँ, जंगल उत्सव’(विमला भण्डारी), ’परिश्रम का वरदान’, ऊँट का बाल’(रमाकान्त ’कांत’), ’पर्यावरण चेतना की कहानियाँ (मुरलीधर वैष्णव), ’साहस का सम्मान’( दिनेश विजयवर्गीय), ’स्वर्ण पदक’( विनोद सोमानी ’हंस’), ’धुएं की पोषाक’( राजेन्द्र जोशी) की कथाएँ शामिल है।
21वीं सदी में राजस्थान के बाल कथा साहित्य को संवर्धन करने हेतु लगातार अपनी लेखनी को चला रहे है जिनमें गोविन्द शर्मा, विमला भण्डारी, दीनदयाल शर्मा, राजकुमार जैन ’राजन’, भैरूलाल गर्ग, बुलाकी शर्मा, आशा शर्मा, सत्यनारायण सत्य, उषा सोमानी, गोविन्द भारद्वाज, संगीता सेठी, शकुन्तला पालीवाल, सावित्री चौधरी, भगवती प्रसाद गौतम, उमेश चौरसिया, जयसिंह आशावत, अब्दुल समद राही, कुसुम अग्रवाल, अंजीव अंजुम, ओमप्रकाश भाटिया, नन्दकिशोर निर्झर, रेणु शब्द मुखर, रेखा स्मित, रेणु सिरोया, रघुराज सिंह ’कर्मयोगी’, शारदा कृष्णा, तरूण दाधीच, अनु राठौड़, सुधा जौहरी, विमला नांगला, प्रबोल कुमार गोविल, शिल्पी कुमारी पांडे, चाँद मोहम्मद घोसी, आशा रानी आशु, अखिलेख पालरिया, मदन वैष्णव, कृष्ण ’जुगनू’ प्रमुख है।
21वीं सदी की बात करें तो राजस्थान प्रदेश जो कि देश के भीतर अपने भौगौलिक विशेषताओं के कारण अपनी अलग पहचान बनाये हुए है। यहाँ की मिट्टी में बलिदान, त्याग एवं साहस की खुश्बू आती है। ऐसे में इस युग में भी प्रदेश की विशेषताओं के अनुरूप ही बाल कथाकारों ने भी रचनाओं को लिख कर बाल कथा साहित्य में प्रगति में अपना योगदान देते हुए बाल पाठकों को रूचिपूर्ण बाल साहित्य उपलब्ध करावाने हेतु प्रयासरत है। वैज्ञानिक उपकरण अवधारणाएँ, यातायात के विभिन्न साधन, बिजली, कल-कारखाने, बहुउद्देशीय परियोजनाएं, बाँध, नहर, हरियाली, उन्नत खाद, बीज, कृषि उपकरण, राजस्थान नहर, जल संचय, किसान की समृद्धि, गाँव की मिट्टी, शहर की तरफ आकर्षण, छोटे परिवार की अवधारणा, और पर्यावरण संचेतना पर आधारित बाल कथाएँ लिखी गई। इनके साथ ही बालकों को सुव्यवस्थित नागरिक एवं देश के भविष्य को मजबूत बनाने लिए समय की मांग के अनुरूप विषय जैसे अपराधवृत्ति को रोकने वाला कथा साहित्य जिनमें राजकुमार जैन ’राजन’ चिड़िया की सीख में दो कबूतरों के माध्यम से बालकों के स्वभाव में अंतर लाने का प्रयास किया गया है। इसी प्रकार की रचनाओं में राजन की ’मोनू का पश्चाताप’, ’नई दिशा’, ’लापरवाही से छुटकारा’, ’जन्मदिन का उपहार’, ’जंबू बन गया सयाना’, ’पलटू की शैतानियां’, ’झूठ का जला’तथा ’बुलबुल और गुलगुल’ आदि है।
इसी श्रृखंला में दीनदयाल शर्मा की कहानी चिंटू-पिंटू की सूझ जिसमें बच्चों द्वारा चलती स्कूल से बाहर भाग जाना उससे बडे़ हादसे हाने की संभावना रहती है। स्कूल प्रशासन पर सवालिया दृष्टि रखते हुए बच्चों की इस बुरी आदत पर ध्यान आकर्षित किया है। इसी विषय पर शर्मा की और कहानियाँ जैसे ’आखिरी हथियार’, ’जन्मदिन का उपहार’, और ’पश्चाताप के आँसू’।
अपराधवृत्ति को रोकने के विषय पर अनेक राजस्थान के बाल कथाकारों ने बाल कथाएँ लिखी है जिनमें हैं - ’गड़बड़झाला’(विमला भण्डारी), ’गिदी पिदी बन गए अच्छे’, ’चूहा बन गया शेर’(गोविन्द शर्मा), ’फास्ट फूड़ का चस्का’(आशा शर्मा), ’गलती की सजा’, ’पुस्तक की कहानी’(गोविन्द भारद्वाज), ’मिट्टी की सिंडरेला’ (शिल्पी कुमारी पांडे), ’बातूनी आस्था’(संगीता सेठी), ’चोरी की सजा’, ’सबक’ (शकुंतला पालीवाल) आदि। चोरी की प्रवृति रोकने के लिए राजस्थान के प्रसिद्ध बाल साहित्यकार गोविन्द शर्मा की कहानी ‘काचू की टोपी’ में काचू जब थाने में टोपी की समस्या और शिकायत को लेकर जाता है और अपने समस्या बताता है, “साहब मैं अपनी बीवी की दी हुई टोपी सिर पर पहन कर पार्क के एक बैंच पर सोया हुआ था। किसी ने उसे चुरा लिया। मैंने पार्क में तलाश की तो एक जगह वही टोपी लगाए वह चोर सो रहा था। मैंने उसको बिना बताए उसके सिर से टोपी उतर ली। इस पर मुझे चोरी की सजा देकर मेरी टोपी चोर की तलाश कर मुझे दिलवाए।”9
शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ के क्षेत्र में राजस्थान के निम्न कथाकारों ने बाल कथाएँ लिख कर राजस्थान के हिन्दी बाल कथा साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है जिनमें हैं-’कुसंग की सजा’, ’ओहो!यह तो कमाल हो गया’, ’चांटे नहीं पड़े’(सावित्री चौधरी), ’विदेशी मेहमान’, ’करो मदद अपनी’, ’मां की ममता’, ’जोत जल उठी’, ’सफलता का राज’, ’सबक’, ’सहेली की सीख’(विमला भण्डारी), ’अपने ही जाल में’(भगवती प्रसाद गौतम), ’संता क्लोज फेसबूक पर’, ’कान्हा की सरगम’, ’मां कितनी अच्छी हो’, ’नया साल’, ’दादी मां का जन्मदिन’(संगीता सेठी), ’चिंटू का कमाल’, ’फकीर बाबा की सीख’(गोविन्द भारद्वाज), ’अपना काम अपने हाथ’(भेरूलाल गर्ग), ’स्वस्थ होड़ और पुरस्कृत पुस्तक’(गोविन्द शर्मा), ’पत्थर का मूल्य’, ’राकेश की दोस्ती’, ’मां की ममता’, ’जागरण’(तरुण दाधीच), ’टुनकी और सरपटिया अजगर’, ’गाँधीजी की सीख’(आशा शर्मा), ’भला भाई बुरा भाई’(डॉ. कृष्ण ’जुगनू’) आदि। इसी के अन्तर्गत विमला भण्डारी की कहानी ‘विदेशी मेहमान’ में भारतीय संस्कृति की महिमा विदेशी मेहमान के कण्ठ से करवा कर बच्चों में भारतीय संस्कृति के बीजारोपण कर रही है। एक दिन कुत्तों वाली घटना से शरेन को भारतीय संस्कृति से इतना लगाव हो जाता है कि वह कह उठती है - ’’आई एम सॉरी अशोक! तुम भारत के लोग कितने अच्छे हो। वरना हमारे यहाँ कोई किसी की परवाह नहीं करता। और शिवप्रसाद अंकल के मुँह से पुनः सहजता से निकल जाता है कि भारत में तो ऐसा ही है।’’10
बालक चूँकि अनुकरण करता है, अतः बालक को ऐसे साहित्य की आवश्यकता होती है जो उसे प्रेरणा दे सके। 21वीं सदी में राजस्थान हिन्दी बाल कथा जगत में इस विशेषता को बहुत से कथाकारों ने अपनी कहानियों का माध्यम बनाया हैं, जिनमें हैं - ’दो घड़ों का घमण्ड’(सावित्री चौधरी), ’मजेदार बात’, ’तलाश सूरज की’, ’दरबारी ढ़ोल’, ’उपहार’(विमला भण्डारी), ’छोटे भाई से प्रेरणा’(अरनी रोबर्ट्स), ’चिंटू पिंटू की सूझ’(दीनदयाल शर्मा), ’प्रेरणा’(अनु राठौड़), ’नकल नहीं अकल’, ’ईष्यालू गबरू लोमड़’, ’बुराई का बदला भलाई’(राजकुमार जैन ’राजन’), ’चोंच डाउन हड़ताल’, ’पुस्तकों से दोस्ती’(आशा शर्मा), ’खेरू जीत गया’(गोविन्द शर्मा), ’भैया की सीख’(गोविन्द भारद्वाज), ’अनोखी सीख’(तरुण कुमार दाधीच), ’चुल्लू भर पानी’, ’शमाम परी की सीख’(भगवती प्रसाद गौतम) आदि।
चूँकि आधुनिक युग वैज्ञानिक युग है अतः विज्ञान ने इस युग में आमूलचूल परिर्वतन किया है ऐसे में बच्चों को इस युग के साथ चलाना साथ ही उन्हें प्रकृति और पर्यावरण के साथ-साथ ही किताबों से जोड़ रखना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। राजस्थान के हिन्दी बाल कथा साहित्य में साहित्यकारों ने इस युग के अनुरूप ही अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में कथ्य रखा हैं, जिनमें प्रमुख हैं - ’पर्यावरण की रक्षा’, ’नीम का कडवापन’, ’रोजी का हुआ एक्स-रे’(विमला भण्डारी), ’प्लांट द ट्री’, ’इस्टबिन में पेड़’, ’नीम को सबक’, ’विज्ञान का जादू’(आशा शर्मा), ’एक बूँद की कीमत’, ’उड़ने का प्रयास’(राजकुमार जैन ’राजन’), ’राहुल की नादानी’, ’पुष्पक विमान’(सत्यनारायण ’सत्य’) आदि। राजस्थान की भौगालिक परिस्थिति के कारण इस प्रदेश के पश्चिम भाग में पानी की बहुत कमी है ऐसे में राजकुमार जैन ’’राजन’ की बाल कहानी एक बूँद की कीमत में पानी के महत्त्व को मगलू की माँ पात्र से समझाया है। उसकी माँ कहती है कि ’’देखो बेटा पानी उतना ही खर्च करना चाहिए जितना जरूरी है जितना पानी बचाओगे उतना खेतों में दिया जाएगा और फसल भी अच्छी होगी।’’11त्योहार को मनाने में जिस तरह से पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया जाता है उस नुकसान से बच्चों को एक सन्देश देने का प्रयत्न आशा शर्मा की कहानी ‘इको फ्रेंडली दिवाली’ में किया है कहानी अनुसार,“मास्टर जी बच्चों से इको फ्रेंडली दिवाली मनवाते है जिसे खुश होकर एक बोलता है, इस बार मास्टर जी ने इको फ्रेंडली दिवाली मनवा कर कितना अच्छा काम किया। न कोई शोर - शराबा, न धुआं और प्रदूषण.....।”12
इसके साथ - साथ बालकों को मानवता, पशु-पक्षी प्रेम, देश प्रेम, एकता की भावना, ऐतिहासिकता और हास्यापस्पद जैसे विषयों पर भी राजस्थान के हिन्दी बाल कथा साहित्य में भरपूर बाल साहित्य रचा गया है, जिनमें हैं-’नन्हा सैनिक’, ’अजय के दोस्त’, ’जीत ली बाजी’, ’प्यारा तोहफा’(विमला भण्डारी), ’सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां..’(सावित्री चौधरी), ’थैक्यू आंटी’, ’घमण्डी धोलू’(गोविन्द भारद्वाज), ’सब का देश एक है’, ’प्यार बाँटते चलो’(गोविन्द शर्मा), ’अनोखा पुरस्कार’ (भैरूँलाल गर्ग), ’वाह! झबरू’(अरनी रोबर्ट्स), ’रसगुल्लों की बरसात’(संगीता सेठी), ’पाडी के बदले लाडी’(श्रीकृष्ण ’जुगनू’), ’असली मजा सबके साथ आता है’( आशा शर्मा), ’शरणागत की रक्षा’, ’बात का धनी’, अनूठी जीत’ (तरुण कुमार दाधीच), ’मस्तानी टोली की नायिका’(भगवती प्रसाद गौतम)आदि। तरुण कुमार दाधीच की बाल कहानी अनूठी जीत में बच्चों में देशप्रेम का भाव पैदा करने का उत्कर्ष उदाहरण दिया है जब रतनगढ़ पर पास के रियासत के राजा बलवंतसिंह ने आक्रमण कर दिया और रतनगढ़ को चारों तरफ से घेर लिया। बच्चों के भूख से बुरे हाल की बात जब सेनापति के पास पहुंची चूँकि सेनापति एक बहादुर और दयालु इन्सान था इसलिए बच्चों के लिए भोजन की पोटलियाँ भिजवाई जब के बालक आगे बढ़कर कोतवाल से बोला, “शत्रु ने हम पर दया दिखाकर ये रोटियां भेजी है। आप ये पोटलियाँ वापस लौटा दीजिए। हमें अपने प्राणों से नहीं अपनी रियासत से प्यार है।”13
इस प्रकार विभिन्न विषयों पर राजस्थान में हिंदी बाल कथा साहित्य लिखा गया है तथा लिखा जा रहा है फिर भी विशेषकर कई विषय ऐसे है जिन पर कम लिखा गया जिसे लिखने की महत्ती आवश्यकता है। बच्चों में तर्क पैदा करना बहुत जरुरी है, जबकि पूर्व में लिखे जा रहे बाल साहित्य में जादू टोनो का समावेश रहा उससे बच्चे अंधविश्वास की ओर झुके थे। आज के बालक में कलात्मक सोच को पैदा करना जरुरी है ताकि वह अपना जीवनयापन कर सके। शकुंतला पालीवाल की पुस्तक ‘जंगल स्टोरीज’ में ‘रॉकी का रेस्टोरेंट’ बाल कहानी में लेखिका ने बच्चों में खाना पकाने की सोच पैदा की है, जब रॉकी ने खाने बनाने वाली बात अपने परिवार को कही तो उसकी मम्मी बोली-“रॉकी! ऐसे उल्टे-पुल्टे सपने मत देखो।जो सच नहीं हो सकते। हम चूहे भला कब से खाना बनाने लगे?” रॉकी ने जवाब दिया - मगर मम्मी ! हम चूहे खाना क्यों नहीं बना सकते? कोई भी अच्छा शेफ बन सकता है।”14 क्योंकि वर्तमान समय में कई बच्चे पढ़ाई या रोजगार के कारण घर से बाहर रहते है ऐसे में यदि खाना बनाने की कला उनके पास नहीं हो तो वे बच्चे दुःख पाते है।
21वीं सदी में बाल साहित्य को लेकर राजस्थान सजग है। बाल साहित्य के उन्नयन हेतु मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा बजट में घोषणा के बाद राजस्थान सरकार के द्वारा हाल ही में देश की संभवतया पहली बाल साहित्य अकादमी की स्थापना कर बाल साहित्य की दिशा में क्रांतिकारी कदम रखा है। राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान उदयपुर के शिशु प्रकोष्ठ ने लगभग 40 पुस्तकें प्रकाशित की है। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजकुमार जैन ’राजन’ फाउण्डेशन आकोला, सलिला संस्था, बाल वाटिका, महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन उदयपुर एवं बाल चेतना संस्थान जयपुर जैसे कई संस्थान है जो बाल साहित्य के संवर्धन हेतु प्रयासरत है।
साहित्य और संस्कृति जो कि हमारी धरोहर है तथा जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, वो आज कहीं न कहीं हाशिए पर जाते हुआ दिख रहे हैं। अगर बाल साहित्य हाशिए पर चला गया तो साहित्य को समझ सकने वाली नई पीढी तैयार होने में मुश्किल आएगी। अगर बच्चे साहित्य ही नहीं पढ़ेंगे तो साहित्य परिपक्व कैसे बन पायेगा। इसलिए बाल साहित्य को फिर से सरल, सुचारू और स्पष्ट लिखने वाले साहित्यकारों और वैसे साहित्य की आवश्यकता है। आवश्यकता इसलिए भी है कि आज के तकनीकी युग में बच्चे की उंगलियाँ इलेक्ट्रोनिक गेजेट्स पर ही काम कर रही है। उसके हाथ से कलम की पकड़ कहीं न कहीं ढीली होती जा रही है। ये तकनीकी बच्चों को बुद्विमान तो बना रही हैं पर रचनात्मक नहीं। ऐसे में तकनीकी के साथ बाल मनोविज्ञान या बाल साहित्य कहाँ तक चल सकेगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। साहित्यकार और आज का मीड़िया कहीं न कहीं बाल मनोविज्ञान से दूर होते जा रहे हैं। जिस भवन की नींव मजबूत हो उस भवन का निर्माण कई इमारतों के रूप में हो सकता है तथा उस भवन के ढहने की संभावना बिल्कुल शून्य हो जाती है।
निष्कर्ष : बाल साहित्य को वर्तमान में बढ़ाने की महत्ती आवश्यकता है। बाल साहित्य किस तरह से बढ़ेगा तो, हम कह सकते है कि ज्यादातर लोग बाल साहित्य में रूचि लेंगे साथ ही अपनें नन्हें - मुन्नें बच्चों को मोबाईल से दूर रख कर किताबों की ओर ले आयेंगे तो निश्चित रूप से बाल साहित्य की प्रगति में सफलता मिल सकेगी। बच्चें बाल साहित्य की ओर तभी उन्मुख होंगे जब बाल साहित्यकार अच्छा बाल साहित्य लिखेंगे। भाषा की दृष्टि से भी बहुत जरूरी है कि बच्चों की पहुँच तक और बच्चें जो समझ पायें ऐसा सरल और सहज एवं प्रवाहपूर्ण साहित्य लिखें। बाल कथा साहित्य को भविष्य में आगे बढ़ाना है तो हमें कहानी तथा उपन्यास जो वर्तमान में लिखे जा रहे हैं उनके कलेवर में परिवर्तन करना बहुत होगा। बच्चों में रूचि जाग्रत करनी पड़ेगी क्योंकि आज के दौर में बच्चे पोथे नहीं पढेंगे क्योंकि वे अन्य तकनीकी उपकरण में व्यस्त होते है जेसे: मोबाइल, विडियो गेम्स, कंप्यूटर, सोशल मीडिया साईट, थियेटर इत्यादि। ऐसे में बच्चों के पास किताब पढ़ने का समय कम है। कम समय में हम बच्चों को कैसे किताब की ओर मोड़ कर उन्हें एक संस्कारवान मानव बना सकते है। इसके लिए हर बाल साहित्यकार को अपनी लेखनी में गागर में सागर भरने की शक्ति पैदा कर बच्चों को आकर्षित करने वाला बाल कथा साहित्य लिखने की आवश्यकता है। तकनीक के साथ साथ रचनात्मक ज्ञान भी बच्चे प्राप्त करें यह तय करना भी हम सबकी जिम्मेदारी है और यह कार्य तभी संभव है जब बच्चे लेखन, पठन-पाठन की तरफ मुडेंगे तब ही उनका मानसिक विकास हो पाएगा।
1. आनन्द बक्षी: हिन्दी बाल साहित्य का अनुशीलन, आराधना ब्रदर्स, कानपुर, 2016 पृ. 13
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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