अफ़लातून की डायरी
- डॉ. विष्णु कुमार शर्मा
23.09.2023
फिर
ठीक किया
बाल थोड़े
बड़े
हो
गए
तो
उलझे
और
रूखे
रहने
लगे
हैं।
बस
में
विंडो
सीट
मिल
जाए
तो
गर्मी
में
भला
लगता
है
लेकिन
कॉलेज
तक
पहुँचते-पहुँचते
बालों
का
हाल
बुरा
हो
जाता
है।
संडे
को
नाई
के
यहाँ
भीड़
मिलती
है
बाकि
छुट्टी
मिलती
नहीं।
सो
आज
सब
काम
दरकिनार
कर
बच्चों
को
स्कूल
छोड़
सीधे
नाई
की
दुकान
पर
गया।
शनिवार
था
तो
वह
फ्री
ही
बैठा
था।
मैं
अक्सर
ही
शनिवार
को
बाल
कटवाता
हूँ।
इंतजार
नहीं
करना
पड़ता,
समय
बचता
है।
कहना
नहीं
पड़ा
उसने
छोटे
बाल
काट
दिए।
अब
अच्छा
लग
रहा
है।
दौड़ते-भागते
बस
पकड़ी।
कलेक्ट्री
चौराहे
पर
भीड़
बहुत
थी
पर
मैंने
पहले
ही
मजमून
भाँप
लिया
और
चढ़ते
ही
ड्राईवर
केबिन
की
ओर
लपका।
सीट
मिल
गई।
बया
पत्रिका
का
डायरी
विशेषांक
निकालकर
पढ़ने
लगा।
सिकंदरा
आते
ही
ड्राईवर
की
खिड़की
से
एक
आदमी
घुसा
और
उसकी
सीट
के
पीछे
जगह
बनाकर
बैठ
गया।
वह
जोर-जोर
से
बातें
कर
रहा
था
इसलिए
मैं
पढ़ने
में
अपना
ध्यान
केन्द्रित
नहीं
कर
सका
मैंने
पत्रिका
बंद
की
और
उनकी
बात
सुनने
लगा।
बातों
से
अंदाजा
लगा
वह
भी
ड्राईवर
का
ही
काम
करता
है।
मेरी
बस
के
चालक
को
वह
‘बनाजी’ कहकर संबोधित
कर
रहा
था।
बनाजी
कह
रहे
थे-
“पहले वाली बस
बढ़िया
थी।
उस
पर
कमाई
अच्छी
थी।
वो
किसी
जज
की
थी
तो
कोई
टेंशन
नहीं
थी।
आरटीओ
की
हिम्मत
नहीं
पड़ती
थी
हाथ
डालने
की।
जज
साब
उधर
कमा
रहे
थे,
हम
इधर...
हे
हे
हे
हे।
एक
बार
एक
आरटीओ
से
मेरा
झगड़ा
हो
गया,
मैंने
साले
की
माँ-बहन
कर
दी।
जज
साब
ने
अगले
दिन
मुझे
बुलाया।
मैंने
कह
दिया
साब,
आपके
बारे
में
उल्टा-सीधा
कह
रहा
था,
मुझसे
सुना
नहीं
गया,
मैंने
भी
सुना
दिया।”
जज
साब
बोले-
“फिर ठीक किया।”
बनाजी
आँख
मारकर
बोले-
“ये भी एक
आईएएस
की
है
पर
उसके
जैसी
कमाई
नहीं
है।
वो
सेठ
तो
दिलदार
था।”
दोनों
हे
हे...कर
हँसने
लगे।
24.09.2023
पराई
थाली का
सुख
पाँच बजे
नींद
खुल
गई।
‘अकार’ का नया
अंक
कल
डाक
से
मिला।
प्रियंवद
जी
का
संपादकीय
कल
शाम
में
ही
कॉलेज
से
आते
थोड़ा
पढ़
डाला
था।
संपादकीय
पत्रिका
की
जान
होता
है।
दिनेश
चारण
के
संपादकत्व
में
‘मधुमती’ भी अच्छी
हो
गई
गई।
उसका
भी
सितम्बर
अंक
परसों
मिला।
परंपरा
का
स्मरण
और
आशावादिता
उनके
संपादकीय
का
स्थायी
भाव
बनते
चले
जा
रहे
हैं।
‘अकार’ के संपादकीय
का
शीर्षक
‘नेहरू : प्लेटो का
आखिरी
दार्शनिक
राजा’
ही
कौतूहल
जगाने
वाला
था।
उसे
छोड़
पाने
का
लोभ
संवरण
मैं
नहीं
कर
पा
रहा
था
पर
कल
रात
दीपक
के
यहाँ
जाना
अनिवार्य
था।
उसका
दस
साल
का
बेटा
डिफ्थिरिया
से
ग्रस्त
हो
गया
था,
छह
दिन
जयपुर
एडमिट
रहा,
कल
ही
छुट्टी
मिली
थी।
वहाँ
से
साढ़े
नौ
बजे
लौटा,
थका
था,
सो
गया।
सुबह
उठते
ही
छूटा
हुआ
संपादकीय
पढ़ना
शुरू
किया।
प्रियंवद
जी
के
संपादकीय
की
पृष्ठभूमि
में
इतिहास
सदैव
उपस्थित
रहता
है,
यह
तो
शुद्ध
इतिहास
का
विषय
था।
प्रियंवद
इतिहास
और
साहित्य
दोनों
में
बराबर
दखल
रखते
हैं।
इन
दिनों
साहित्य
लिखते
समय
उनकी
भावना
यह
रहती
है
कि
वह
दर्शन
से
एकमेक
हो
जाए।
बाहर
हल्की
बारिश
है।
मैं
अपने
लिए
एक
कप
दूध
गर्म
करता
हूँ।
वहीं
रसोई
में
खड़े-खड़े
कमलकिशोर
श्रमिक
का
आत्मकथ्य
पढ़ा।
मेरी
रुचि
कथेतर
में
अधिक
है,
कहानी
पढ़ने
से
अक्सर
बचता
हूँ
लेकिन
उषा
दशोरा
‘वाचकन्वी’ व
राजकुमार
राकेश
‘डार्क रूम’ की
कहानियाँ
पढ़ने
से
खुद
को
रोक
नहीं
पाया।
‘वाचकन्वी’ दाम्पत्य
में
तीसरे
की
उपस्थिति
की
ही
कहानी
है
जो
कोई
नया
विषय
नहीं
लेकिन
उषा
दशोरा
ने
कमाल
की
भाषा
और
अद्भुत
शिल्प
से
उसे
अनूठा
रचाव
दिया
है।
कहानी
में
राजस्थान
के
स्वर्ग
गोरम
घाट
जाने
वाली
मावली-मारवाड़
जंक्शन
ट्रेन
भी
एक
पात्र
के
रूप
में
उपस्थित
हुई
है।
क्लाइमेक्स
में
कहानी
की
नायिका
‘वाचकन्वी’ यानी
वाची
का
अपने
पति
को
कोहनी
के
हमले
से
चलती
ट्रेन
से
धक्का
मार
देना
पाठक
को
हैरान
कर
जाता
है।
नायिका
के
नामकरण
और
कहानी
के
भाषा-शिल्प
से
संपादक
प्रियंवद
अतीव
प्रसन्न
हुए
होंगे।
यह
बिलकुल
उनकी
शैली
की
ही
कहानी
है
बस
क्लाइमेक्स
थोड़ा
अलग
है,
थोड़ा
ज्यादा
साहसिक
है।
कहानी
के
दो-तीन
अनूठे
और
सार
वाक्य
इस
तरह
हैं-
“विवाह
प्रेम
की
गारंटी
कहाँ
लेता
है,
तो
प्रेम
कौनसा
विवाह
की
गारंटी
पर
होता
है?”
“फ्रेम
के
चारों
कोनों
से
आजाद
मजीठे
के
रंग
के
फूलों
वाले
स्कार्फ
को
हवा
में
उड़ाती
कोई
प्रेम
कविता-सी
ना
रहे
ज़िंदगी
हमेशा।”
“रात
का
अँधेरा
बाहर
से
भीतर
की
रोशनी
बन
जाने
की
इच्छा
लिए
अंदर
देखता
रहा।
भीतर
की
रोशनी
अंधकार
चखने
की
इच्छा
में
बाहर
दौड़ती
रही
यों
कि
काश
! पराई थाली का
सुख
मिल
पाता।
पूरी
दुनिया
इस
पराई
इच्छा
पर
तो
रोती-तड़पती
है
पर
जान
कहाँ
पाती
है
कि
इच्छा
का
यही
मनोविज्ञान
हमारे
सारे
जीवन
की
पीड़ा
की
जड़
है।”
‘डार्क
रूम’
अपेक्षाकृत
कमजोर
कहानी
लगी।
कहानी
की
नायिका
निक्की
कौशल
अपने
जीवन
की
डोर
अपने
हाथ
में
थामने
का
निर्णय
लेती
है।
लेकिन
उसमें
कोई
संघर्ष
नहीं
दीखता।
एक
हिल
स्टेशन
(जो जाहिर है
शिमला
ही
है
जहाँ
कथाकार
स्वयं
रहते
हैं)
पर
रहने
के
लिए
उसे
एक
पुराना
बंगला
मिल
जाता
है।
पहाड़ी
नौकर
दम्पती
मिल
जाते
हैं।
एक
रेडीमेड
सिचुएशन
क्रियेट
कर
दी
गयी
है।
नायिका
के
पिता
के
रॉ
की
नौकरी
छोड़कर
ज्योतिषी
बन
जाने
और
अंध-विश्वासों
का
प्रश्रय
देने को बेनकाब
करना
जरूर
प्रगतिवादी
कदम
दिख
सकता
है।
निक्की
अपने
माता-पिता
की
तीसरी
पुत्री
संतान
है।
पिता
हमेशा
उसे
‘माय डिअर अनवांटेड
चाइल्ड’
कहकर
बुलाते
हैं
जिसे
वह
अपने
लिए
पिता
का
अतिरिक्त
लाड़
समझती
है
लेकिन
अपने
जन्मदिन
पर
उसे
अपनी
माँ
व
बुआ
से
पता
चलता
है
कि
वह
पुत्र
मोह
के
चलते
जन्मी
अनवांटेड
चाइल्ड
है
तब
वह
घर
छोड़ने
का
निर्णय
लेती
है।
अपनी
पंचलाइन
‘विचारशीलता और
बौद्धिक
हस्तक्षेप
का
उपक्रम’
को
चरितार्थ
करती
‘अकार’ हिंदी की
सबसे
अलहदा
लघु
पत्रिका
है।
प्रियंवद
सौ
साल
जीवें।
02.12.2023
“प्रेम
में डूबी
स्त्री का
चेहरा बुद्ध
जैसा दिखता
है।”
मैं बचपन
में
निरा
भोंदू
था
(अभी भी ज्ञानी
होने
का
कोई
गुमान
नहीं
है)।
दुनियावी
समझदारी
से
बिलकुल
कोरा,
लगभग
अछूता।
किताबों
के
अलावा
मुझे
कुछ
समझ
नहीं
आता
था।
गाँव
में
रहते
हुए
भी
देहात
की
शब्दावली
से
अपरिचित।
लक्षणा-व्यंजना
नाम
की
चिड़ियाँ
मेरे
लिए
प्रवासी
पखेरू
थीं
जो
सुदूर
शीतप्रदेश
साइबेरिया
में
बसती
थीं।
सामान्य-सी
चीजें
समझ
न
पाने
पर
घर
और
स्कूल
में
मेरा
मजाक
बनता।
मैं
अंतर्मुखी
बच्चा
था,
अपने
में
सिमटा-सा
जो
बहुत
बार
डरा-सहमा
भी
रहता।
इस
दुनिया
को
समझने
का
किताबों
के
अलावा
मेरे
पास
कोई
रस्ता
नहीं
था;
अब
भी
यही
ही
तरीका
है।।।
हाँ,
यूट्यूब
आ
जाने
से
कुछ
अच्छे
टीचर्स
को
सुनने
का
मौका
तकनीक
ने
मुहैया
करा
दिया
है।
घर
में
पढ़ाई
पर
जोर
ज्यादा
रहता
था,
बाहर
खेलने
जाने
नहीं
दिया
जाता।
मित्रों
का
साहचर्य
केवल
स्कूल
में
ही
मिल
पाता
तो
मैं
स्कूल
कभी
मिस
नहीं
करता।
लड़कियाँ
लड़कों
से
अलग
होती
हैं
और
किशोरावस्था
में
विपरीत
लिंग
के
प्रति
आकर्षण
होता
है,
ये
बात
मैंने
नवीं
कक्षा
में
जाकर
अनुभव
की
जब
पहली
बार
मैं
कॉ-एडुकेशन
में
पढ़ा, वह भी
एक
दुर्घटना
के
बाद
(उस पर बात
फिर
कभी)।
स्त्री-पुरुष
के
दैहिक
संसर्ग
से
बच्चे
का
जन्म
होता
है
और
मैं
भी
इसी
विधि
से
जन्मा
हूँ,
दसवीं
कक्षा
में
विज्ञान
पढ़ते
हुए
जब
मैंने
यह
जाना
तो
मुझे
खुद
पर
घिन
आई।
बहुत
बाद
में
संजय
टी।
टी।
कॉलेज,
जयपुर
से
बी।एड
के
दौरान
मैंने
देखा
कि
शहराती
बच्चे
जहाँ
फिल्मों
और
टीवी
सीरियल्स
पर
बात
करते
वहीं
मैं
मूक
दर्शक
बन
उनकी
शक्लें
ताकता।
तब
मैंने
तय
किया
कि
मैं
खूब
टीवी
सीरियल्स
और
फिल्में
देखूँगा
और
मैंने
देखे,
जी
भरके
सीरियल
देखे।
बी।एड।
के
बाद
प्रतियोगी
परीक्षाओं
की
तैयारी
के
दौरान
हिंदी
साहित्य
पढ़ा
तो
दिमाग
की
बत्ती
जल
उठी
लेकिन
इसका
असर
यह
हुआ
कि
अब
दुनिया
जैसी
है,
वैसी
ठीक
न
लगने
लगी।
इसी
दौरान
मैंने
टीवी
पर
धर्म-गुरुओं
के
प्रवचन
और
कथाएँ
सुनना
शुरू
किया।
“इस उमर में
कौन
कथा-भागवत
सुनता
है?”
मेरा
ये
काम
भी
लीक
से
हटकर
था।
मैंने
कई
साल
मोरारी
बापू
की
रामकथा
और
जया
किशोरी
का
‘नानी बाई रो
मायरो’
खूब
रस
लेकर
सुना।
गुप्ता
जी
के
सानिध्य
में
हर
पूर्णिमा
गिरिराज
जी
परिक्रमा
के
लिए
जाने
लगा।
उन
तमाम
धर्म-गुरुओं
व
कथावाचकों
में
से
एकमात्र
मोरारी
बापू
ने
मुझे
आकर्षित
किया।
उनकी
कथा
में
दर्शन
का
पुट
रहता
था
जो
मुझे
रुचता
क्योंकि
सूर,
तुलसी,
कबीर,
जायसी
को
पढ़ते
हुए
मैं
अद्वैतवाद,
विशिष्टाद्वैत,
शुद्धाद्वैत,
सूफीवाद
में
ऊभ-चूभ
रहा
था।
दर्शन
में
मुझे
रस
आने
लगा।
सूफी
संगीत
मेरे
भीतर
उतरने
लगा।
मैंने
नाम
जप
भी
खूब
किया।
ध्यान
की
भी
कोशिश
करने
लगा
लेकिन
एक
बार
हरिद्वार
में
योग
शिविर
के
अलावा
कभी
ठीक
से
ध्यान
घटित
नहीं
हुआ।
फिर
ओशो
से
परिचय
हुआ
और
मैं
उनका
दीवाना
हो
गया।
ओशो
दीवानगी
में
तभी
एक
और
सुयोग
या
दुर्योग
घटा
(वह भी फिर
कभी)।
इसी
दरमियान
बाबा
रामदेव
की
पतंजलि
योग
समिति
में
खूब
काम
किया, हरिद्वार गया,
योग
सीखा-सिखाया,
चंदा
इकठ्ठा
किया।
घरवाले
कथा-श्रवण,
गिरिराज
जी
परिक्रमा
और
पतंजलि
में
काम
करने
से
अधिक
चिंतित
नहीं
थे
क्योंकि
ये
सब
काम
उनके
ट्रेक
(मध्यमवर्गीय ब्राह्मण
परिवारी
मानसिकता)
के
अनुरूप
ही
थे।
वे
अधिक
चिंतित
थे
मेरी
ओशो
रजनीश
से
निकटता
के
क्योंकि
ओशो
अलग
चाल
के
आदमी
थे।
साथ
ही
ओशो
को
लेकर
फैले
प्रवाद।
इन
सबसे
मेरा
परिवार
चिंतित
रहने
लगा
तो
इस
बीच
नौकरी
लगते
ही
घरवालों
ने
मेरी
शादी
करा
दी।
मध्यमवर्गीय
परिवारों
के
पास
आजमाया
हुआ
यही
एक
नुस्खा
है
कि
लड़का
सामाजिक
व्यवस्था
के
अनुरूप
नहीं
चल
रहा
है
तो
“इसकी शादी करा
दो,
सब
सुधर
जाएगा।”
पत्नी
दुनिया
की
चाल
से
चाल
मिलाकर
चलने
वाली
सामान्य
लड़की।
उसने
कभी
मेरा
समर्थन
नहीं
तो
विरोध
भी
नहीं
किया।
उसका
बहुत
फिलोसफिकल
टेम्परामेंट
नहीं
तो
बहुत
अंध-विश्वासी
और
रुढ़िवादी
भी
नहीं
है।
कैरियर
के
पायदान
चढ़ते-चढ़ते
मैं
दर्शन
की
सीढ़ियाँ
भी
चढ़ने
लगा।
तुलसी
और
कबीर
के
बीच
झूलता
मैं
कभी
मानस
का
पाठ
करता
तो
कभी
निर्गुण
के
भजन
गाता।
कर्मकांड
में
मेरी
अरुचि
होने
लगी।
इस
बीच
मेरा
रुझान
दलित-स्त्री
विमर्श
और
वाम
वैचारिकी
के
साहित्य
की
ओर
हुआ।
ब्राह्मणवादी
संस्कारों
से
बंधा
परिवार
फिर
चिंतित
हुआ।
पीएचडी
के
दौरान
मैंने
खूब
पढ़ा,
कुछ
अच्छे
शिक्षकों
और
मित्रों
की
संगत
से
दिमाग
के
जाले
ठीक
से
साफ
हुए।
ओशो
के
यहाँ
सत्य
या
ब्रह्म
को
जानने
की
एकमात्र
ध्यान-समाधि
है।
सनातन
की
पूरी
परंपरा
से
लेकर
बुद्ध-महावीर
ने
इसी
विधि
से
सत्य
को
जाना-समझा।
लेकिन
मेरे
मन
में
बराबर
यह
प्रश्न
कौंधता
कि
क्या
बिना
ध्यान-समाधि
के
क्या
कोई
ऐसा
मार्ग
नहीं
जो
उस
परम
सत्य
का
साक्षात्कार
करा
सके।
मित्र
माणिक
के
माध्यम
से
श्री
ए।
नागराज
जी
के
मध्यस्थ
दर्शन
से
परिचय
हुआ।
पुष्कर
में
इसकी
आठ
दिन
की
एक
वर्कशॉप
की।
श्री
ए।
नागराज
जी
की
मानवता
को
बड़ी
उपलब्धि
यही
है
कि
उन्होंने
सत्य
के
साक्षात्कार
के
लिए
गूढ़
ध्यान-समाधि
की
विधि
के
स्थान
पर
समझ
को
प्रतिष्ठित
किया।
उनकी
स्थापना
“जिंदगी को क्लास
रूम
में
पढ़ाया
जा
सकता
है।”
युगांतकारी
घटना
है।
अभी
पिछले
कुछ
महीने
से
आचार्य
प्रशांत
को
सुनना
शुरू
किया
है।
अद्वैत
वेदांत
उनके
दर्शन
के
मूल
में
है।
एक
जगह
आचार्य
प्रशांत
कहते
हैं
कि
“आत्मा (ब्रह्म) यानी
समझदारी।।।
तथ्य
सत्य
का
द्वार
है।”
यानी
शास्त्र
और
गुरु
के
सानिध्य
(उपनिषद्) से भी
उस
सत्य
को
जाना
सकता
है।
इस
तरह
ध्यान-समाधि
की
गहन
गुहा
से
मैं
बच
गया।
ध्यान
का
भी
बाजार
बड़ा
है,
ध्यान
को
लेकर
भी
राजयोग-सहजयोग-सुदर्शन
क्रिया
के
नाम
से
नाना
दुकानें
खुली
हुई
हैं।
“एक
दोपहर
सपने
में
आई
और
पुरानी
तस्वीर
दिखाते
हुए
बोलीं,
बेमतलब
हम
वक्त
जाया
करते
हैं।
उस
दुनिया
में
जाने
के
बाद
पता
चला,
कहीं
और
नहीं
रहता,
ईश्वर
हमारे
चहरे
पर
रहता
है
एक
चौड़ी
मुस्कान
बनकर।”
(गीत चतुर्वेदी)
यूँ
ईश्वर
या
सत्य
को
परिभाषित
नहीं
किया
जा
सकता
है
लेकिन
हम
ठहरे
शिक्षक;
सो
हमें
परिभाषाओं
का
बड़ा
चाव
रहता
है
और
ईश्वर
की
यह
परिभाषा
मुझे
सबसे
उचित
जान
पड़ती
है- “ईश्वर हमारे
चहरे
पर
रहता
है
एक
चौड़ी
मुस्कान
बनकर।”
आनंद
ही
ब्रह्म
है।
श्री
ए।
नागराज
जी
के
मध्यस्थ
दर्शन
और
अद्वैत
वेदांत
के
मास्टर
आचार्य
प्रशांत
को
सुनने-समझने
के
बाद
बहुत
सारे
प्रश्नों-जिज्ञासाओं
का
समाधान
मिल
गया
है।
गीताकार
की
कर्म
की
महत्ता
और
तुलसी
का
सूत्र
‘कर्म प्रधान विश्व
करि
राखा’
पक्का
सबक
बन
गया
है;
जीवन
और
कुछ
नहीं
हमारे
चुनावों
का
परिणाम
है;
हम
सबकी
किस्मत
अलग-अलग
नहीं
बल्कि
साझी
है;
एक
के
कर्मफल
दूसरे
को
भी
भुगतने
पड़ते
हैं।।
जैसे
सूत्र
हाथ
लगे
हैं
जिनसे
ज़िंदगी
में
आसानी
हो
रही
है।
कुछ
जिज्ञासाएँ
अभी
भी
हैं।
आहिस्ता-आहिस्ता
इनके
जवाब
भी
मिलेंगे,
पक्का
मिलेंगे।
कबीर-तुलसी
अब
नए
सिरे
से
समझ
आ
रहे
हैं।
बुद्ध
की
शिक्षाएँ
उपनिषद्
से
एकमेक
हो
रही
हैं।
सब
गतभेद
हो
रहा
है।
‘मृत्यु के बाद
कुछ
शेष
नहीं
बचता’
ये
बात
न
कहकर
बुद्ध
इन
प्रश्नों
को
‘अव्याकृत’ कहकर
मौन
हो
गए।
ये
नहीं
कि
उनके
पास
उत्तर
नहीं
थे,
बात
ये
थी
कि
इन
प्रश्नों
का
कोई
महत्त्व
नहीं
था।
महत्त्वपूर्ण
तो
जीवन
है,
दुखमय
तो
जीवन
है,
समस्या
तो
जीवन
में
है।
मृत्यु
के
बाद
क्या
होता
है,
ये
जानकर
क्या
करोगे?
इसलिए
बुद्ध
चुप
रहे।
बुद्ध
कह
भी
देते
कि
‘मृत्यु के बाद
कुछ
शेष
नहीं
बचता’
तो
हम
कहाँ
मनाने
वाले
थे?
प्रियंवद
जी
का
सूत्र
‘मृत्यु भी एक
अर्थ
में
मुक्ति
ही
है’
समझ
पा
रहा
हूँ।
28 को भाईसाब-भाभीजी
की
शादी
की
सालगिरह
थी,
उन्हें
बुद्ध
का
एक
बस्ट
भेंट
किया।
उनकी
तो
कोई
तुरत
टिप्पणी
नहीं
आई
लेकिन
माताजी
बोली-
“क्या बुद्ध लाया
है?
कोई
राधा-कृष्ण
की
ही
ले
आता।”
बुद्ध
का
प्रमुदित,
शांत
और
सौम्य
चेहरा
मुझे
भाता
है।
जो
प्रेमपूर्ण
होगा
वही
न
शांत
दिखेगा।
मेरे
प्रिय
कवियों
में
से
एक
कवि
गीत
चतुर्वेदी
कहते
हैं-
“प्रेम में डूबी
स्त्री
का
चेहरा
बुद्ध
जैसा
दिखता
है।”
07.12.2023
जस्या
जाटनी को
टूट्या, अस्या
सबकू’ही
टूटै
अद्भुत किस्सागो
और
सत्यान्वेषक
आचार्य
हजारीप्रसाद
द्विवेदी
लिखते
हैं-
“शिव देवताओं
में
मनुष्य
थे।”
चूँकि
शिव
अनादि
हैं
और
चिरंतन
भी
तो
मैं
कहूँगा
कि
“शिव देवताओं
में
मनुष्य
थे
नहीं,
हैं।”
शिव
सर्वव्यापी
हैं।
शिव
अनंत
हैं।
अद्वैत
वेदांत
में
शिव
ब्रह्म,
सत्य
और
आत्मा
के
पर्याय
हैं।
शिव
सच्चिदानंद
हैं।
शिव
की
पूजा
सरल
है।
आक-धतूरे
से
लेकर
आलू-बैंगन
कुछ
भी
अर्पित
कर
दो,
सब
स्वीकार
करते
हैं।
कोई
विधि
नहीं,
कोई
विधान
नहीं।
न
मंत्र
की
आवश्यकता,
न
क्रिया
की।
बस
भाव
चाहिए
शुद्ध।
मुझे
सभी
हिन्दू
देवी-देवताओं
में
शिव-पार्वती
जनसामान्य
के
अधिक
निकट
जान
पड़ते
हैं।
शिव
गृहस्थ
हैं,
बाल-बच्चेदार
हैं।
शिव
भोले-भंडारी
हैं।
कुमारिकाएँ
शिव
जैसा
वर
पाने
के
लिए
सोलह
सोमवार
के
व्रत
रखती
हैं।
स्त्रियाँ
संभवतः
इसलिए
शिव
को
अधिक
पूजती
हैं
कि
यदि
वर
भोला
मिला
है
तो
वह
भोला
ही
बना
रहे
और
तेजतर्रार
मिला
है
तो
भोला
हो
जाए।
माएँ
इसीलिए
पुत्रियों
को
शिव
पूजा
के
लिए
प्रेरित
करती
हैं
क्योंकि
वे
अनुभवशील
होती
हैं
और
पुत्री
के
भविष्य
के
लिए
चिंतित।
स्त्रियों
द्वारा
किए
जाने
वाले
व्रत-उपवासों
की
कथाओं
में
शिव
की
कथाएँ
पर्याप्त
मात्रा
में
हैं।
साहित्य
में
भी
शिव-पार्वती
का
कथा
में
प्रवेश
और
पार्वती
के
हठ
पर
शिव
द्वारा
नायक
की
मदद
करना
एक
काव्य-रूढ़ि
है।
पिछले
दिनों
जब
विधानसभा
चुनाव
में
सेक्टर
ऑफिसर
का
दायित्व
वहन
कर
रहा
था
तब
निर्धारित
बूथों
पर
बार-बार
घूमना,
सूचनाएँ
इकट्ठा
करना
और
बीएलओ’ज
के
माध्यम
से
व्यवस्थाएँ
दुरुस्त
करवाना
जैसे
काम
संपादित
करने
थे।
ऐसे
में
देखा
कि
महुखुर्द
गाँव
में
दो
बूथ
थे
और
स्कूल
के
मेन
गेट
के
सामने
थाई
थी।
थाई
यानी
पंचायत
का
पवित्र
थान
(स्थान)। जब
भी
जाता
देखता
कि
थाई
पर
कुछ
बूढ़े-बुजुर्ग
बैठे
हैं।
अंग्रेजी
न्याय
व्यवस्था
आ
जाने
से
हमारी
पंचायत
व्यवस्था
भले
ही
ख़त्म
हो
गयी
हो
लेकिन
गाँवों
में
थाई
अभी
भी
सुरक्षित
हैं
और
उन्हें
मंदिर
के
सामान
दर्जा
प्राप्त
है,
न्याय
का
मंदिर।
राजनेता
थाई
का
इस्तेमाल
अपने
राजनैतिक
फायदे
के
लिए
भी
करते
हैं।
ग्राम्यजनों
द्वारा
थाई
पर
खड़े
रहकर
दिया
गया
वचन
पक्का
होता
है।
एक
दिन
थोड़ी
फुर्सत
में
था
तो
महुकलां
बूथ
पर
चारों
बीएलओ
साथी
इकठ्ठा
थे-
विजेंद्रजी,
समरथ
जी,
चिरंजीलाल
जी
और
रतन
जी।
विजेंद्र
जी
को
छोड़कर
तीनों
एक
से
एक
किस्सागो।
मैंने
थाई
पर
लगी
राजनैतिक
पार्टियों
की
झंडियों
को
हटाने
को
कहा
तो
एक
ने
थाई
से
जुड़ा
एक
किस्सा
सुनाया
कि
एक
बार
शिव-पार्वती
कहीं
से
गुजर
रहे
थे
तो
पार्वती
ने
गाँव
में
थाई
पर
इकठ्ठा
हुए
लोगों
को
देखकर
उनके
बारे
में
पूछा।
शिव
ने
पंचों
की
न्याय
व्यवस्था
के
बारे
में
बताया।
साथ
ही
लोगों
के
इस
विश्वास
के
बारे
में
भी
कि
“पंच में परमेश्वर
का
वास
होता
है।”
पार्वती
ने
पंचों
की
परीक्षा
लेने
की
बात
कही।
शिव
ने
मना
किया
लेकिन
पार्वती
हठ
कर
बैठी।
हम
सब
जानते
ही
हैं
कि
संसार
में
तीन
हठ
प्रसिद्ध
हैं-
बालहठ,
त्रियाहठ
और
राजहठ।
त्रियाहठ
के
आगे
शिव
को
भी
झुकना
पड़ा
फिर
आपकी
और
हमारी
तो
क्या
बिसात?
जाटों
का
गाँव
था।
उस
गाँव
में
उसी
समय
एक
विवाह
हुआ
था।
शिव
ने
उस
युवा
जाट
का
रूप
धारण
कर
लिया
और
जाटनी
के
पास
चला
गया।
अब
दुविधा
पैदा
हो
गई।
दोनों
कहें
कि
वही
असली
पति
है।
दुल्हन
के
लिए
मुश्किल
और
परिवार
के
लिए
भी।
मामला
थाई
पर
पहुँचा।
पंचों
की
परीक्षा
की
घड़ी
थी।
पार्वती
दूर
खड़ी
प्रसन्नतापूर्वक
देखने
लगी-
“महादेव ने
खूब
स्वांग
रचा,
अब
होगी
इन
पंच-पटेलों
की
परीक्षा।”
हमशक्ल
दोनों
जाट
युवकों
से
कई
सारे
सवाल
पूछने
के
बाद
भी
दुविधा
का
कोई
हल
नहीं
निकला
तो
सबसे
बूढ़े
बुजुर्ग
ने
एक
जुगत
भिड़ाई।
उन्होंने
एक
घड़ा
मँगवाया
और
बोले-
“देखो भाई, तुम
दोनों
का
ही
दावा
है
कि
तुम
इस
दुल्हन
के
असली
पति
हो।
इसका
फैसला
कैसे
हो?
तो
तुम
दोनों
को
देनी
होगी
एक
परीक्षा।
तुम
में
से
जो
इस
घड़े
में
घुसकर
वापस
बाहर
आ
जाएगा,
वो
ही
इसका
असली
पति
होगा।
बोलो
मंजूर
है?”
जाट
बने
शिव
ने
शर्त
को
फट
से
मंजूर
कर
लिया
तो
किंकर्तव्यविमूढ़
दूसरे
जाट
युवक
ने
भी
थोड़े
असमंजस
के
बाद
हामी
भर
दी।
अब
शिव
रूपी
जाट
ने
झट
से
सूक्ष्म
रूप
धारण
किया
और
घड़े
में
घुस
गए।
शिव
के
घड़े
में
घुसते
ही
बूढ़े
पटेल
ने
फट
उस
पर
ढक्कन
लगा
दिया
और
बोले-
“हो गया फैसला।
यो
छोरा
जो
खड़ा
है,
यो
है
असली
जाट
और
जो
भीतर
घुस
गया
वो
था
बहरूपिया।
अब
इस
घड़े
ने
जमीं
में
गाढ़
दै।”
शिव
को
लगा-
कहाँ
फँस
गए?
मन
ही
मन
बोले-
“मैंने मना किया
था
पारो
को,
लेकिन
ये
भी
न
एक
नंबर
की
जिद्दी
है।”
घड़े
के
भीतर
से
शिव
ने
गोरा
को
आवाज
लगाई-
“देवी बचाओ... मैंने
मना
किया
था
न,
मत
लो
पंचों
की
परीक्षा
लेकिन
तुम
हो
कि
मानती
नहीं।।।
अब
कैसे
भी
करके
मुझे
इससे
बाहर
निकालो।”
घबराई
हुई
पार्वती
ने
असली
रूप
धारण
किया
और
पंचों
को
सारी
बात
कह
सुनाई।
उन्होंने
बहुत
अनुनय-विनय
की,
विश्वास
दिलाया
तब
बूढ़े
पंच
ने
घड़े
का
ढक्कन
हटाया
और
शिव
ने
साक्षात्
प्रकट
हो
गए।
शिव
थाई
को
प्रणाम
कर
पंचों
से
बोले-
“ देवी पार्वती
ठीक
कह
रही
हैं।
इन्होंने
आपकी
न्याय
व्यवस्था
पर
शंका
प्रकट
की,
हठ
किया
और
इनके
हठ
के
लिए
मुझे
ये
सब
स्वांग
रचना
पड़ा।”
पंचों
सहित
सब
गाँव
वालों
ने
शिव-पार्वती
को
नमन
किया,
जयजयकार
की।
शिव
ने
वरदान
दिया
कि
“कितना ही घोर
कलयुग
आ
जाए
लेकिन
थाई
की
महिमा
नहीं
घटेगी।
साथ
ही
देवी
पार्वती
ने
जाटनी
को
अमर
सुहाग
का
वर
दिया।
शिव-पार्वती
ने
ग्राम्यजनों
से
विदा
ली
और
कैलाश
की
ओर
चल
पड़े।
ग्राम्यजनों
ने
उद्घोष
किया-
“पंच परमेश्वर
की
जै।”
वहाँ
उपस्थित
महिलाओं
ने
जाटनी
के
भाग्य
को
सराहा
और
बुदबुदाईं-
“महादेवजी अर
पारबती,
जस्या
जाटनी
को
टूट्या,
अस्या
सबकू’ही
टूटै।
पुष्पांजलि, बिचलेश्वर महादेव के पीछे, शिक्षक कॉलोनी, गुप्तेश्वर रोड, दौसा, पिन- 303303
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सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
जबरदस्त डायरी है। 23 सितंबर की डायरी का आरंभ तो वैसा ही है जैसा आपकी दैनंदिनी का अक्सर होता है पर अंत एकदम अलहदा है। 'पराई थाली का सुख' आपकी पढ़ाकू छवि को और मजबूत करती है। दो दिसम्बर की डायरी में लेखक का 'आत्म ' उजागर हुआ है। चिंतन को अनुभूति में पचा लिया प्रतीत होता है। अंतिम डायरी अंश शिव चरित को लोक की तह में परचती-परचाती है। खुशी की बात है अपने बीच से एक परिपक्व होते लेखक का विकास-विन्यास देखना। हार्दिक बधाई विष्णु जी प्रकाशन के लिए नहीं वरन् अच्छे और सजग लेखन के लिए।
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