- सुनीता
शोध सार : हिन्दी साहित्य के विविध कालों में प्रकृति आलम्बन, उद्दीपन, सखी, सहचरी, उपदेशक आदि के रूप में
चित्रित हुई है, किन्तु वर्तमान में प्रकृति चित्रण के स्वरूप में बदलाव आया है।
आज प्रकृति केवल आलम्बन, उद्दीपन, सखी-सहचरी एवं
उपदेशक के रूप में ही चित्रित नहीं हो रही है, बल्कि पर्यावरण प्रदूषण के विभिन्न
रूपों जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण से
मानव जीवन के साथ-साथ समस्त जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, नदियों, पर्वतों-पहाड़ों एवं
ऋतुओं पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का भी
चित्रण हो रहा है। पर्यावरण प्रदूषण का कारण है, मनुष्य की अदम्य लालसाएँ। वह विकास के नाम पर प्रकृति का निरन्तर
दोहन एवं शोषण कर रहा है। वृक्षों की निरन्तर कटाई, नदियों पर बाँध का
निर्माण, डायनामाइट द्वारा पहाड़ों का तोड़-फोड़, औद्योगिक कचरों का नदियों में निष्कासन, अत्यधिक उत्पादन के लिए
खादों, टॉनिकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से पर्यावरण निरन्तर
प्रदूषित होता जा रहा हैं।
बीज शब्द : जल संकट, सूखा, बाढ़, भोपाल गैर त्रासदी, बदलती ऋतुएँ।
मूल आलेख : प्रकृति और मनुष्य का संबंध शाश्वत है। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन प्रकृति के
साहचर्य एवं संरक्षण में ही व्यतीत होता है। उसके शरीर का निर्माण भी प्रकृति के ही
उपादानों जल, वायु, अग्नि एवं पृथ्वी आदि से हुआ है जिसके संबंध में
गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में लिखा है -
प्रकृति जीवनदायिनी के
साथ-साथ मनुष्य की प्रेरणा
स्रोत भी है। प्राचीन काल में वनों में गुरुकुल हुआ करता था जहाँ पर गुरु एवं
शिष्य के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान होता
था। त्रेता युग में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और द्वापर युग में कृष्ण, सुदामा, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव आदि ने गुरुकुल में
ही विद्योपार्जन किया जहाँ पर वे ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न कलाओं एवं विद्याओं में भी पारंगत हुए।
साहित्यकारों, कलाकारों, चित्रकारों एवं
संगीतकारों को प्रथम प्रेरणा प्रकृति के साहचर्य से ही प्राप्त है। वे प्रकृति के
रूप, रस एवं गंध से अभिभूत
होकर ही कला एवं साहित्य की मर्मज्ञता को जान पाये हैं। ऋग्वेद के अनेक सूक्त, रामायण, महाभारत के आख्यान, सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य
एवं पाश्चात्य साहित्य की सर्जनाएँ प्रकृति से ही आरम्भ होती है। प्रकृति को धर्म, दर्शन, कला एवं साहित्य में
विशिष्ट स्थान प्राप्त है। ऐसा कहा जाता है कि आदिकवि वाल्मीकि का हृदय परिवर्तन
भी प्रकृति के साहचर्य से ही हुआ। एक बार एक क्रौंच पक्षी का जोड़ा मुक्त विहार कर
रहा था जिसे देखकर आदिकवि का हृदय प्रफुल्लित हो उठा और दूसरे ही पल एक व्याध के
द्वारा उस जोड़े को आहत देखकर उनका मन करूणा से भर जाता है और अकस्मात् उनके मुख से
फूट पड़ता है -
यत्क्रौंचयों मिथुनादेकमवधी काम मोहितम्।।’’2
भारतीय संस्कृति सदैव
पर्यावरण की पोषक रही है। इसमें प्रकृति के सभी उपादानों एवं जल, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुओं को पूज्य मानने
की मान्यताएँ रही है जो पर्यावरण के संरक्षण से जुड़ी है। इसीलिए वन देवी प्रकृति
की पूजा अनिवार्य थी। उस समय अरण्य, तपोवन तथा कुंज क्रमशः ज्ञानस्थली, तपोस्थली तथा कर्मस्थली
माने जाते थे। कठोपनिषद् एवं स्कन्दपुराण में पीपल वृक्ष की जड़ में ब्रह्मा, तने में विष्णु तथा
टहनियों में शिव का वास होना माना जाता था। पीपल, बरगद, नीम, तुलसी एवं शमी आदि
वृक्षों और नदी, पृथ्वी को पूजनीय माना जाता था और आवश्यकतानुसार ही
उसको उपयोग में लाया जाता था, किन्तु औद्योगिकरण, नगरीकरण एवं जनसंख्या
वृद्धि ने उपयोग की जाने वाली वस्तु को उपभोग की वस्तु बना डाला है। अदम्य लालसाओं
के कारण मनुष्य ने प्राकृतिक उपादानों का खूब दोहन किया है। वनों की अन्धाधुंध
कटाई, नदियों पर बाँध का निर्माण, चिमनियों से दिन-रात उगलता धुआँ, औद्योगिक अपशिष्ट को
नदियों में बहा देना, खेतों में कीटनाशकों एवं खादों का अत्यधिक प्रयोग, दिन-रात सड़कों पर बजते हार्न, मोटर-गाड़ियों से
उगलता धुआँ, प्रकाश आदि ने पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है जिससे
पृथ्वी का समस्त प्राणी इन समस्याओं से जूझ रहा है।
साहित्य समाज का दर्पण
होता है। समाज में जो भी उचित-अनुचित घटित
होता है, साहित्यकार अपनी सूझ-बूझ एवं कल्पना शक्ति से उसे साकार रूप देता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण
के कारण सभी मानवों एवं जीव-जन्तुओं पर
खतरा मंडराने लगा है जिस पर लेखकों का भी ध्यान गया है। पर्यावरण प्रदूषण से होने
वाली समस्याओं एवं उसके निराकरण को अपने साहित्य कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि में
विषयवस्तु के रूप में अपनाया है। विगत कुछ दशकों से ही पर्यावरण संरक्षण को लेकर
साहित्यकार सजग हुए हैं और प्रकृति के निरन्तर दोहन होते रूप का चित्रण किया है।
इसके पहले साहित्य की विभिन्न विधाओं में प्रकृति का वर्णन आलम्बन, उद्दीपन, उपदेशक, सखी-सहचरी, नायक-नायिका के
संयोग-वियोग की सहयोगी, सौन्दर्य निरूपण एवं
मानवीकरण के रूप में हुआ है।
हिन्द काव्य परंपरा में
आदिकाल से लेकर आधुनिक युग तक प्रकृति वर्णन भरा पड़ा है। हिन्दी के आदिकाल में
रासो साहित्य में प्रकृति का आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप में अतिशय चित्रण हुआ है।
भक्तिकालीन कवियों की साधना में आध्यात्मिक तन्मयता व एकनिष्ठता का भाव विद्यमान
रहा है। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई स्थानों पर
रहस्यात्मक वर्णन हुआ है। रीतिकालीन कवियों में बिहारी, पद्माकर देव एवं सेनापति
आदि ने प्रकृति के आलंकारिक रूप का अधिक चित्रण किया है और उसके सौन्दर्य को
अपनाया भी है।
आधुनिक हिन्दी कवियों में
श्रीधर पाठक, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की कविताओं में प्रकृति
के सुन्दर रूपों का मुग्धकारी चित्रण हुआ है। छायावादी काव्य तो प्रकृति वर्णन से
भरा पड़ा है। इस युग की कविताओं में प्रकृति के सुन्दर रूप के साथ-साथ उसके भयानक रूप का भी
वर्णन मिलता है। जहाँ एक ओर प्रकृति प्रेयसी, सखी, सहचरी एवं मानवीकरण के
रूप में चित्रित हुई है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति के भयावह रूप भी देखने को मिलता
है। सुमित्रानन्दन पंत प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते हैं। उनकी कविताओं में
प्रकृति के मनोहर रूप का चित्रण द्रष्टव्य होता है। उन्होंने प्रकृति को सखी, सहचरी, प्रेयसी एवं मानवीकरण रूप
में चित्रित किया है। नौका विहार कविता में पंत ने गंगा नदी को एक स्त्री के रूप
में चित्रित किया है -
अपलक, अनंत, नीरव, भूत-तल।
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म-विरल।
लेटी है शान्त, क्लान्त, निश्चल।”3
वहीं जयशंकर प्रसाद के कामायनी में प्रकृति के भयानक
रूप का वर्णन हुआ है। जल-प्रलय की भीषण दुर्घटना
में समस्त मानव जाति का विनाश हो जाता है बचते हैं तो केवल मनु। उद्दाम लालसा
मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ता। उसका कुकृत्य ही उसे संकट में डाल देता है। जिसका
परिणाम स्पष्ट है-
मनुष्य की प्रकृति के
प्रति भोगवादी दृष्टिकोण ने पृथ्वी के समस्त प्राणियों के जीवन को खतरे में डाल
दिया है जिसके परिणाम स्वरूप बाढ़, अकाल, असमय वर्षा, ग्लेशियर पिघलना आदि प्राकृतिक त्रासदियों का सामना
करना पड़ रहा है। अजय तिवारी लिखते हैं, ‘‘आज के पर्यावरणवादी
सरोकार ने हमें सचेत कर दिया है कि प्रकृति का विनाश करके मनुष्य भी सुरक्षित नहीं
रहेगा। पानी की तंगी, पर्यावरण का प्रदूषण, बढ़ती गर्मी, पिघलता बर्फ आदि मनुष्य
समाज के लिए नहीं ब्रह्माण्ड के समस्त जीव-जालों और
वनस्पतियों के लिए खतरे हैं।’’5
हिन्दी के समकालीन कवियों में केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, ज्ञानेन्द्रपति, लीलाधर जगुड़ी, किशोरी लाल व्यास, रामदरश मिश्र, निर्मला पुतुल आदि का नाम लिया जा सकता है जिनकी कविताओं में प्रकृति के स्वरूप में आए बदलावों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। आज विश्व का प्रत्येक प्राणी पर्यावरण संकट से जूझ रहा है। मिट्टी से लेकर जल, वायु तक प्रदूषित हो रहा है जिसका ही परिणाम है कि जल संकट, बढ़ती गर्मी, ऋतु परिवर्तन आदि समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। पर्यावरण प्रदूषण से कई तरह के जीव-जन्तुओं एवं पशु-पक्षियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है और जो बचे हैं उनका भी अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है। समकालीन कविताओं में प्रकृति चित्रण के स्वरूप में बहुत अन्तर आया है। इसके पहले की कविताओं में प्रकृति हर तरह से सम्पन्न थी। स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु, समय से ऋतुओं का आना, हरा-भरा वातावरण, खूब अच्छी बरसातें। आषाढ़ मास से ही बादल उमड़-घुमड़कर बरसना शुरू कर देते थे और सावन, भाद्रपद एवं अश्विन तक खूब बारिश होती थी। कुआँ, तालाब, बावड़िया और नहरें लबालब भरी रहती थी। बरसात के पानी से ही घरेलू एवं कृषि कार्य आदि सम्पन्न होते थे। नागार्जुन ने अपनी कविता ‘फूले कदंब’ में लिखा है -
बादल का कोप नहीं रीता
जाने कब से वो बरस रहा
ललचाई आँखों से नाहक
जाने कब से तू तरस रहा
मन कहता है छू ले कदंब।”6
आज की कविताओं में
प्राकृतिक सौन्दर्य की जगह उसके बिगड़ते स्वरूप का चित्रण मिल रहा है। प्रकृति के
अस्तित्व पर ही जैसे घोर संकट मंडराने लगा है। कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘पानी की प्रार्थना’ में भावी समय में पानी को
लेकर उत्पन्न होने वाले संकट के विषय में लिखा गया है,
अन्तिम लेकिन सबसे जरूरी बात
वहाँ होंगे मेरे भाई-बन्धु
मंगल ग्रह या चाँद पर
पर यहाँ पृथ्वी पर मैं
यानी आपका मुँहलगा यह पानी
अब दुर्लभ होने के कगार पर तक
पहुँच चुका है।”7
हिन्दी कहानियों के
शुरूआती दौर में प्रकृति चित्रण सौन्दर्य निरूपण, वातावरण निर्माण एवं
सहयोगी के रूप में किया जाता था जिसे हम प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, मारकण्डेय, फणीश्वरनाथ रेणु आदि की
कहानियों में प्रकृति को देख सकते हैं। किन्तु आज कहानियों की विषयवस्तु में बहुत
बदलाव आया है। आज के कहानीकार पर्यावरण प्रदूषण से होने वाली समस्याओं पर कहानियाँ
लिख रहे हैं। वे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण एवं ध्वनि
प्रदूषण से मानव जीवन एवं समस्त जीव-जन्तुओं के
ऊपर पड़ने वाले प्रभावों के विषय में लिख रहे हैं। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदियों के संरक्षण को लेकर
कुछ कहानियाँ मिलती हैं जैसे राजेश जोशी
कृत ‘कपिल का पेड़’, सतीश दूबे कृत ‘पेड़ों की हँसी’, चित्रा मुद्गल कृत ‘जंगल’, मृदुला गर्ग कृत ‘इक्कीसवीं
सदी का पेड़’ आदि।
पर्यावरण में आए बदलाओं
के कारण हमारे आस-पास के जीव - जगत में भी
बदलाव आया है। प्रकृति को नुकसान पहुँचाने के लिए मनुष्य कई तरह की तरकीबें अपना
रहा है और सफल भी हो रहा है। वह पेड़ों की तीव्रता से कटाई, पोखर-तालाब को पाटना, पृथ्वी का दोहन, जल का अनुचित उपयोग
निरन्तर कर रहा है। जिससे जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़ जैसी स्थितियाँ
पनपनें लगी हैं। मनोज पाण्डेय की कहानी ‘पानी’ में इन्हीं स्थितियों का चित्रण है। सूखा, फिर बाढ़ से उत्पन्न भयावह
स्थिति के बारे में वे लिखते हैं, ‘‘खूब हरा भरा था गाँव हमारा, हमारे जीवन में बहुत सारी
छोटी-बड़ी मुश्किलें थीं, गरीबी थी........ भूख थी, पर इसी हरियाली के सहारे
हम जैसे-तैसे इन सब से पार पा लेते
थे। पर ......... पर कौन मानेगा कि महज एक
ताल पाट देने से पूरा का पूरा गाँव तबाह हो गया। कुछ भी नहीं बचा, बचे हम बहत्तर लोग।’’8
जल, वायु, मृदा प्रदूषण एवं भोपाल
गैस त्रासदी से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से मनुष्य, पेड़-पौधों एवं पालतू पशु-पक्षियों के जीवन पर पड़ने
वाले प्रभावों पर कुछ कहानियाँ लिखी गई हैं, जिनमें अमरीक
सिंह दीप की कहानी ‘एक कोई और’, सुशांत सुप्रिय कृत ‘पिता के नाम’, मृदुला गर्ग कृत ‘एक भी
चिड़िया नहीं चहचहायेगी’, कमलेश्वर कृत 'दालचीनी का
जंगल' आदि। 'एक भी चिड़िया नहीं
चहचहायेगी' कहानी भोपाल गैस त्रासदी
की घटना पर आधारित है। इस कहानी में मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीले गैस के रिसाव
से मनुष्य से लेकर समस्त जीव-जन्तुओं पर
पड़ने वाले प्रभावों का चित्रण है। लेखिका लिखती हैं, ‘‘एक सुबह आयी कि सूरज के उगने पर एक भी चिड़ियाँ नहीं चहचहाई, ऐसा सन्नाटा घिर आया कि
कान फटने लगे और फिर धूप निकली तो न ताल में मछलियाँ जिन्दा थीं और न पेड़ों पर फल-फूल, सब कुछ सुख चुका था। हरे
पत्ते, लाल गुलाब, काले पड़ चुके थे और टहनियाँ सूखकर फिर कभी न फूलने का
खौफनाक मंजर पेश कर रही थी।’’9
अमरीक सिंह दीप की कहानी
‘एक कोई और’ में प्रदूषित होती नदियों
पर चिंता व्यक्त की गयी है। गोमती नदी के स्याह पड़ने पर कथाकार लिखते हैं, ‘गन्दे नाले से भी ज्यादा
स्याह हो चुकी गोमती के ठहरे हुए से पानी में सूरज नाक बंद कर डुबकी लगाने जा रहा
है। उसकी जर्द किरणें सड़े अण्डे की जर्दी की तरह गोमती की जल सतह पर छितराई हुई
है। यूँ लग रहा है जैसे अंधेरा आसमान से नहीं गोमती के स्याह जल से निकलकर शहर पर
छाने वाला है।’’10
हिन्दी उपन्यासों में
प्राकृतिक उपादानों जल, वायु, मृदा, वृक्ष आदि को बहुत महत्त्व दिया गया है। हिन्दी के
कुछ उपन्यासों मैला आँचल, बाबा बटेसरनाथ आदि में नदी एवं वृक्षों को पूजनीय
माना गया है। जैसाकि वैदिक काल में माना जाता था। नागार्जुन के बाबा बटेसरनाथ
उपन्यास में बरगद के वृक्ष को मानव के रूप में चित्रित किया गया है तथा इसके जन्म
से लेकर भूकंप के कारण टेढ़ा होने तक की कथाएँ विद्यमान है। इस बरगद को पुत्र की
तरह पाला-पोसा गया था। यह हर
व्यक्ति के लिए आकर्षण का केन्द्र था। लोग हारी-बीमारी, सुख-दुःख सब
परिस्थितियों में उसके पास जाते और उससे अपने मन की कथा-व्यथा कहते हैं। उपन्यासकार ने लिखा है, ‘‘विपत्ति का पहाड़ जिसकी गरदन तोड़ रहा होता, वह बेचारा भी यहाँ आता और
दृढ़ता के सबक लेता। प्रेमी आता, प्रेमिका आती। रात के अंधेरे में चोर आया करते, रूपयों की उमस से परेशान
कंजूस, सास की खुराफातों से परेशान बहुएँ, गणित के सवालों से परेशान
स्कूली लड़के.......प्रायश्चित के पचड़े में
पड़कर धर्मशास्त्री, पंडित से डरा हुआ अछूत, गार्जियन की निगरानी से
तंग आया हुआ नटखट छोकरा, कौन नहीं आता बटेश्वर बाबा के पास और कौन नहीं यहाँ
आकर अपने को ताजा महसूस करता।’’11
‘मैला आँचल’ उपन्यास में फणीश्वरनाथ
रेणु ने कमला नदी को पूजनीय बताया है, साथ ही वह सहयोगिनी के रूप में भी चित्रित
हुई है। वह मनुष्य की सम-विषम परिस्थितियों में
सदैव सहयोग करती आई है। गृहपति के एक आह्वान पर वह उनके लिए आवश्यक वस्तुएँ प्रदान
कर देती है जिसका उल्लेख इन पंक्तियों में है,
‘गाँव में किसी के यहाँ
शादी-ब्याह या श्राद्ध का भोज
हो, गृहपति स्नान करके, गले में कपड़े का खूँट
डालकर, कमला मैया को पान सुपारी से निमंत्रित करता था। इसके
बाद पानी में हिलोरे उठने लगती थीं, ठीक जैसे नील मथा जा रहा हो। फिर किनारे पर चाँदी के
थालों, कटोरों, गिलासों का ढेर लग जाता था। गृहपति सभी बर्तनों को
गिनकर ले जाता था और भोज समाप्त होते ही कमला मैया को लौटा आता था।’’12
आज प्रकृति का खूब दोहन
हो रहा है। वनों को काटना, नदियों पर बाँध बनाना, औद्योगिक कचरे व मलमूत्र
को नदियों में बहाना, मनमाने ढंग से नदियों से बालू उत्खनन करना, डायनामाइट का प्रयोग करके
पहाड़ों को तोड़ना आदि। मनुष्य विकास की आड़ में प्रकृति का विनाश करता जा रहा है।
जिस प्रकृति को माँ, देवी, सखी, सहचरी, कल्याणकारिणी मानकर पूजा जाता था, आज उसके मायने बदल
गये हैं। आज प्रकृति हर तरह से शोषित एवं पीड़ित है जिसका उल्लेख नासिरा शर्मा कृत ‘कुइंयाजान’, महुआ माजी कृत ‘मरंग गोड़ा नीलकण्ठ हुआ’, कुसुम कुमार कृत ‘मीठी नीम’, नवीन जोशी कृत ‘दावानल’, रमेश दवे कृत ‘हरा आकाश’, रत्नेश्वर कृत ‘एक लड़की पानी पानी’, एस. आर, हरनोट कृत ‘नदी रंग जैसी लड़की’ आदि उपन्यासों में हुआ है।
पर्यावरण प्रदूषण से प्रकृति में आए बदलावों पर लेखकों का चिन्तन दृष्टिगोचर होता
है। साथ ही प्रकृति को बचाने, प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए अनेक उपाय भी लेखकों
ने बताया है।
रमेश दवे ने हरा आकाश
उपन्यास में लिखा है, ‘‘मनुष्य का मनुष्य के
प्रति फर्ज ही फर्ज नहीं होता, मनुष्य को जो हवा जिन्दा रखती है, उस हवा को जिन्दा और
शुद्ध रखना भी फर्ज है। पानी, जिसे मनुष्य जीवन कहता है, उस जीवन की रक्षा के लिए
पानी की रक्षा भी फर्ज है।’’13
‘दावानल’ चिपको आन्दोलन पर आधारित
महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें शुद्ध हवा, शुद्ध जल के लिए वृक्षों
को बचाने का अभियान शुरू होता है जिसका प्रमुख नारा है- क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी-पानी और बयार। उत्तराखण्ड
के चमोली जिले के नर-नारी से लेकर बड़े-बूढ़े तक सब वृक्षों को
बचाने का पुरजोर कोशिश करते हैं। वे कहते हैं- ‘पेड़ आदमी के लिए है, आदमी पेड़ के लिए नहीं।
जंगल बचाओ क्योंकि आदमी को बचाना है।’’14
‘नदी रंग जैसी लड़की’ उपन्यास में जल, नदी, वृक्ष, आदि के निरन्तर दोहन से
उत्पन्न होने वाली समस्या का चित्रण किया गया है, ’’जंगल कटाई से जो हरित
पट्टी है, जलस्रोत है, वे ही नष्ट नहीं हो रहे हैं, बल्कि तापमान निरन्तर बढ़
रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं और बर्फबारी बिल्कुल भी नहीं
हो रही। हमारे गाँव और शहर अभी से पानी के लिए तरसने लगे हैं।’’15
हिन्दी नाटकों में
प्रकृति चित्रण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत, मोहन राकेश, जगदीश चन्द्र माथुर के
नाटकों में दृष्टिगोचर होता है। इनके नाटकों में प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण
मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त के नाटक हैं ‘तिलोत्तमा’, ‘चन्द्रहास’, ‘अनघ’ आदि।
इन नाटकों में प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन कई रूपों में मिलता है। ,चन्द्रहास,
नाटक में प्रकृति के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का वर्णन हुआ है। इस नाटक में
प्रकृति का बहुत सुन्दर वर्णन है,
“लताएँ वहाँ चित्त को हैं फँसाती
कभी हैं खिजाती, कभी हैं हँसाती
खुली खेलती हैं, पिकी को खिलाती
भुला के नये भृंग को हैं हिलातीं।”16
वहीं आज नाटक की
विषयवस्तु बदल चुकी है। प्रकृति के सौन्दर्य के निरूपण की जगह प्रकृति के बिगड़ते रूप का
चित्रण हो रहा है। प्रदूषित जल, वायु, मृदा, ध्वनि आदि को आधार बनाकर नाटक लिखे जा रहे हैं।
ऋषिकेश सुलभ का नाटक है 'धरती आबा' जो बिरसा मुण्डा के जीवन
पर आधारित है। साथ ही आदिवासियों का जल, जंगल, जमीन के लिए उनका संघर्ष भी दिखाई देता है। जिस तरह
से नदी, पहाड़, जंगल एवं पृथ्वी का दोहन किया जा रहा है, उससे वे बहुत ज्यादा
दुःखी हैं। नाटककार ने लिखा, ‘‘नहीं माँ, मुझसे तेरा दुःख नहीं देखा जाता, तुम्हीं तो यह धरती.......... ये पहाड़, ये जंगल। माँ हो तुम।
तुमने पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सबको पाला-पोसा है। मुण्डा तुम्हारी
संतान है...... तुम्हें आज दिकू लूट रहे
हैं। सरकार, सिपाही, साहेब लूट रहे हैं। मैं कैसे देख सकता हूँ। बोलो माँ
बोलो।”17
आज की सबसे बड़ी समस्या है
पानी। मौसम परिवर्तन के कारण असमय बरसातें, बाढ़, सूखा आदि स्थितियों का
सामना करना पड़ रहा है। दिन-पर-दिन भूमिगत जलस्तर घटता
चला जा रहा है। कितनी नदियाँ सूख गईं, कितनी सूखने के कगार पर हैं, जो बची हैं वो पूरी तरह
प्रदूषित होती जा रही हैं। गंगा और यमुना नदी की दुर्दशा आज हर कोई देख रहा है।
राजेश जैन कृत नाटक ‘सपना मेरा यहीं सखी’ में सिमटते जलस्रोतों के विषय में लिखा है,
‘‘पहले चार कोस पर थी नदी
अब चार कोस तक नहीं पता उसका
दूर-दूर तक भटकते हैं पाँव
पानी को ढूंढते भटकते हैं पाँव।’’18
हिन्दी साहित्य में कई
तरह के निबंध लिखे गये हैं- विचारात्मक, भावात्मक, ललित निबंध, ग्रामीण चेतना पर आधारित, हास्य व्यंग्य शैली युक्त
निबंध, किन्तु प्रकृति चित्रण से अनुप्राणित निबंध बहुत कम
लिखे गये हैं। ललित निबंधों में छिटपुट मात्रा में ही प्रकृति का वर्णन दिखाई देता
है। किंतु जितने भी प्रकृति से सम्बन्धित निबंध लिखे मिलते हैं, सभी में प्रकृति
के उपादानों को बहुत महत्त्व दिया गया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध
का नामकरण तक फूलों, वृक्षों एवं ऋतुओं के नाम पर हुआ है। इससे पता चलता
है कि वे वृक्षों, फूलों एवं ऋतुओं को बहुत महत्त्व देते थे। आज प्रकृति
का स्वरूप बदल रहा है, उसके सौन्दर्य की जगह उसके विद्रुप रूप का चित्रण होने लगा
है। नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, अजयेन्द्र नाथ त्रिवेदी, रमेशचन्द्र शाह, श्यामसुन्दर दूबे, कविता वाचक्नवती ने
प्रकृति के बदलते रूप का चित्रण अपने निबंधों में किया है। 'गुलमोहर गर्मियों के' निबंध में नर्मदा प्रसाद
उपाध्याय लिखते हैं, ‘‘बहुत तपन है। सारे पेड़
झूलस रहे हैं। पत्तियाँ मुरझा गई, हरे-भरे तने
ठूँठ में बदल गए, लेकिन गुलमोहर चटख लाल रंग में खिल रहा है। इस वैशाख
की अलाव सी सुलगती दुपहरी में जब गुलमोहर के पेड़ पर नजर पड़ती है तो जानें क्यों यह
मुरझाया मन मुस्कुराने लगता है।’’19
श्यामसुन्दर दूबे कृत
निबंध ‘जल को मुक्त करो’ और कविता वाचक्नवती के निबंध ‘यमुना तीरे’ में वर्तमान में होने
वाली जल की समस्या एवं प्रदूषित होते जलस्रोतों की स्थिति का चित्रण है। ‘जल को मुक्त करो’ निबंध में वर्तमान एवं
भविष्य में होने वाली जल की समस्या के विषय में लेखक ने लिखा है, ‘‘सारी जल योजनाएँ दम तोड़
रही हैं। नगर पालिकाएँ चार-चार दिन में
चुल्लू भर पानी नहीं बाँट पा रही है। दो बजे रात में दो लोटा पानी मिल जाए तो अपना
भाग्य सराहो। पानी की किल्लत ने नगरों का जीवन असह्य बना दिया है।...... पानी जितना नीचे सरकेगा, उतना झगड़ा फसाद करवाएगा, पानी की राजनीति चलेगी, आम आदमी पानी की जुगाड़
में भटकेगा। हो सकता है, आगे चलकर पानी की राशनिंग जैसी व्यवस्था सरकार को
करनी पड़े।’’20
कविता वाचक्नवती के निबंध
'यमुना तीरे' में प्रदूषित युमना नदी
की दयनीय स्थिति का चित्रण है, ‘‘अब घर जाते हुए दिल्ली में बस की खिड़की से झाँकने पर
यमुना का पराई सी लगना तो दूर, युमना रही ही नहीं दीखती। नीचे नदी में किसी गड्ढे
में मैले पानी का जरा सा जमाव है बस। यमुना का अपना पानी कहीं नहीं सूझता है। नगर
के लिए वह सीवर लाईन फेकने का गड्ढा भर है।’’21
इस प्रकार यह कहा जा सकता
है कि हिन्दी साहित्य में प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण होता रहा है। कल-कल कर रही नदियाँ, कोयल की कूँक, पंक्षियों का चहचहाना, पर्वत, पहाड़, झरने, तरह-तरह के फूल, पेड़-पौधे आदि के
सौन्दर्य को साहित्य में निरूपित किया जाता रहा है। पृथ्वी, वृक्षों एवं नदियों को
पूजनीय माना गया है और भारतीय संस्कृति के अनुसार विभिन्न तीज-त्यौहारों पर उनका पूजन
भी किया जाता है जो आज भी विद्यमान है। किन्तु एक तरफ तो हम प्रकृति को पूजते हैं,
वहीं दूसरी ओर विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति का दोहन भी कर रहे हैं जिससे पर्यावरण असंतुलित
हो गया है। इसका प्रभाव मनुष्य से लेकर सभी जीव-जन्तुओं पर पड़ रहा है। आज का साहित्यकार प्रकृति के बिगड़ते रूप अर्थात्
प्रदूषित नदी, जल, वायु, मृदा, वनों का विनाश आदि का अपनी कृतियों की विषयवस्तु
बनाकर लिख रहा है। प्रकृति के इस रूप को देखना हम सबके लिए चिन्ता का विषय है।
हमें फिर से वैदिक संस्कृति को अपनाकर जरूरत के अनुसार ही प्राकृतिक उपादानों का
उपयोग करने की आवश्यकता है। साथ ही सबको मिलकर प्रकृति का संचयन एवं संरक्षण करने
की जरूरत है।
1. गोस्वामी तुलसीदास : रामचरितमानस, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत् 2075, 47वाँ पुनर्मुद्रण, पृ. 565
2. कपिलदेव द्विवेदी : संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, रामनारायणलाल विजयकुमार, इलाहाबाद, संस्करण-2020, पृ. 111
3. सुमित्रानन्दन पंत : तारापथ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2012, पृ. 107,
https://www.hindisamay.com/content/2475/1/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%81-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80.cspx
9. मृदुला गर्ग : चुकते नहीं सवाल, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृ. 121
20. श्यामसुन्दर दूबे : जल को मुक्त करो,
21. कविता वाचक्नवती : यमुना तीरे,
शोधार्थी, हिंदी विभाग, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ
svsu232103@gmail.com, 7985650304
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................
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