छोरी आजकल पड़ी कट्ठै छै!
- डॉ. हेमंत कुमार
एक कहानी है जो मेरे भीतर कुनमुना रही है। टीस रही है। कहानी में सिसकियाँ हैं जो मुझे कहकहों के बीच सुनाई पड़ीं । कहानी में मेंहदी रचे हाथों की भिंची मुट्ठियाँ हैं जो मुझे गीतों की लय के बीच से संभाल कर संजोनी पड़ीं। कहानी में अखबार के 'समचार' हैं जो मुझे हमारे संवाददाता 'हथाईबाज' से से सुनने को मिले। कहानी का कोई भी पात्र काल्पनिक नहीं है। किसी पात्र या घटना का काल्पनिक लगना महज संयोग है। नहीं - नहीं मैं लिखने में गलती नहीं कर रहा, न आप पढ़ने में कर रहे हैं। असल में तो यह 'कहानी' कहानी है ही नहीं, बल्कि रामकहानी है। 'साँचकली' घटना है जो मेरे जेहन में उस रात से अब तक उसी तरह चिपकी है जिस तरह स्टील के नए बरतनों को रेत से माँजने पर भी कई दिनों तक उन पर लगी कागज की छिब्बी (स्टीकर) चिपकी रहती है।
तो संजोग की बात है कि एक बार एक रात थी। न भूलने लायक रात। वैसे देखा जाए तो रात एक नहीं दो थीं। एक रात के भीतर दूसरी रात। जैसे पेंट की जेब में कई बार एक छोटी सी चोर जेब और लगी होती है वैसे ही उस एक रात की चोर जेब से वह रात निकली थी। जैसे एक याद के भीतर से दूसरी याद निकलती है। जैसे मूफली के भीतर से लाल दाना और लाल दाने का छिलका हटाने पर भीतर से सफेद दाना निकलता है।
मझ नवम्बर की वह बहुत जगमग रात थी। धन तेरस से पहले दिन की रात जो मैं दो महिला कांस्टेबलों और एक कनस्तर के साथ गुजारने वाला था।
इस बार दीवाली अक्टूबर में नहीं नवम्बर में आई थी। घर से दूर सड़क पर दीवाली धोकने की कांस्टेबलों की मजबूरी और मेरी मजबूरी, दोनों मजबूरियाँ सगी बहनें थीं। मजबूरी का नाम था चुनाव ड्यूटी। कनस्तर की मजबूरी क्या थी यह उसका राम जाने! हम चारों अलग-अलग गाँव से थे। महिला कांस्टेबल आपस में एक-दूसरे को पहले से जानती थीं। मैं और कनस्तर अजनबी थे। हालांकि मैंने अपने गाँव में खूब कनस्तर देख रखे थे जिन्हें हम पीपे कहते रहे हैं। घी-तेल के खाली पीपों के अनेक उपयोग देखे हैं। ढक्कनदार हो तो गोंद के लड्डू रख लो, पैसे-गहने रखकर ताला लगा दो तो तिजोरी तैयार। कपड़े रख लो। सूखी साँगरी और खोखे रख लो। झाड़के काटकर और ढीरे झाड़कर पाले से अलग किए बेर भरके रख दो। टींडसी, मतीरी और काचरे की सुखेड़ी और फोफळे भर कर रख दो। पातड़े जोड़-जोड़कर नहानघर का किंवाड़ बना लो, नहीं तो गाय -भैंस के लिए बंटा (ग्वार की चाट) सिझाने (पकाने) का बर्तन बना लो। एक पीपे को कितनी ही भूमिकाओं में आज तक देखा था। मगर आज जिस हाल में उसे देखा वह अब तक का सबसे अजनबी उपयोग था।
गाँव का पीपा शहर पहुँच गया था। 'यूज एंड थ्रोवादी' शहर की ठोकरों ने उसका पेट पिचका दिया था। दिन व रात डबल सिफ्ट में काम करना पड़ता था। दिन में इसे चाय की थड़ी पर तैनात किया गया था डस्टबिन की भूमिका में, स्वच्छ भारत अभियान का कार्यकर्ता बनाकर। रात में इसमें आग जलाकर सर्दी से लड़ने का काम सौंपा गया था। गोया पीपा नहीं कामकाजी महिला हो जिसे घर और बाहर दोनों ठौर खटना हो।
तो सड़क के किनारे उस पीपे में कठफाड़ियों (चीरी हुईं लकड़ियाँ) को सुलगाकर हम तीनों बैठे थे। कनस्तर जैसे एक साथ बीसों चिलम पी रहा था ... ... सुलगती कठफाड़ियाँ चिटक-चिटककर अपनी धुआँ-धुआँ रामकहानी कह रही थीं। हमारे फेफड़े और गले खाँस-खाँसकर हुंकारा भर रहे थे। सड़क के दाएँ-बाएँ धर्मशाला, गेस्टहाउस, ढाबे व चाय -पानी के ठीये ग्राहकों के इंतजार में दीवाली की झालरें ओढ़े ऊँघ रहे थे। ग्राहक नहीं थे या हुए-अनहुए बराबर थे। स्थानीय होने के कारण वे दस रुपये की चाय तीस में लेने वाले न थे। सड़क के दोनों किनारों और अधबीच को आधा रोके तीन बैरीकेट्स हम तीनों की तरह गाड़ियों का इंतज़ार कर रहे थे। तभी पंड्डजी आए और आग के पास सड़क और फुटपाथ को अलगाने वाली डोळी (दीवार) पर बैठ गए।
देखने में पंड्डजी बिल्कुल भी पंड्डजी नहीं लगते थे। न चोटी, न धोती, न टीका, न पोथी! बस नाम के पंडत! आवाज़ भी उनकी पहलवानी काया की तरह ही जवान, फुर्तीली व दमदार। बातें वे ऐसी चुटीली करते कि चलता राही थम जाए। गठीली देह में छोटी-छोटी पानीदार आँखें, रोबीला भरा-भरा चेहरा। हल्की-हल्की दाढ़ी-मूछें। चपर-चपर करती जीभ। भोजन के छहों रस छककर उन्होंने जीभ में काव्य के नवों रस भर लिए थे! ना -ना कविता उन्हें बिल्कुल नहीं आती पर सारा रस बातों में भरा रहता है। बतरस के उस्ताद। बात में से बात निकलती जाए और रात गुजरती जाए।
पंड्डजी बोले लालसोट का छूँ साब! मेरे बाप ने कहा था कि अगर मेरी असल औलाद है तो कभी कोई असल माल मत बेचना। मैं लोकल माल बेचता हूँ जी! लोकल सिगरेट। कलकत्ता से माल उठाता था, फिर हरियाणे से उठाणे लगा, इन दिनों दिल्ली से मँगवा रहा हूँ। इतना नकली माल बेचा है साब कि पूरा इलाका मुझे ही नकली पंडत के नाम से जाणने लगा है। किसी भी दुकनदार से पूछ लेना 'पंड्डजी को जाणते हो?' तो कहेगा 'वो तो नकली छै नकली सिगरेट वालो पंडत।'
"के बताऊँ साब! गोल्डफ्लेक बिकणी बंद हुग्गी म्हारी नकली सिगरेट कै आगै।"
पंड्डजी की आवाज़ हेले (तेज स्वर में पुकारने की ध्वनि) से कम नहीं। यहाँ बोलें और पाँच दुकान आगे-पीछे तक सुनाई दे। चुटीली बातें और बेलौंस अपणायत भरी आवाज़। ठहाकों और कहकहों को न्योतनेवाली आवाज़। यह आवाज़ ' मोरछड़ी गेस्टहाउस' के सचिन को जगा लाई। रोड के दूसरी ओर बनी होटल के यूपीवाले बंदे को खींच लाई। नवंबर की नर्म ठंड में ठिठुरते भूरे कुत्ते को जगा आई। उसे बिस्कुट खिलाकर पंड्डजी बोले, ' दुकनदार ये कहते हैं, "यार तुम्हारी तरफ का माहौल क्या है? देख बोट काँग्रेस को ई देणा या दूजा कहता, बीजेपी को ई देणा है भाई! आप कुणसी विचारधारा का हो?"
"मैं तो नोटा को छूँ (हूँ)। हमने म्हारे वोट का ही पता नहीं दुनिया -झान (जहान) का क्या मालूम! कहा ना मैंने, ' मैं तो नोटाँ को छूँ सिगरेट लो और नोट दो हा ....हा ....हा।"
पंड्डजी थोड़ा रुके फिर बोले, सुबह साढ़े पाँच बजे एक महिला घूमने निकलती है जी रोज। चार किलोमीटर पैदल जाणा और चार किलोमीटर आणा। मैं कहता हूँ उसका पचास ग्राम वजन भी कम नहीं होने वाला।
मैंने पूछा, " क्यों?"
वे बोले, " सुणो साब! एक एस. पी. की लुगाई मोटी हो गई। डाक्टर ने एस. पी. साहब से कहा मेडम से घुड़सवारी करावो।"
महीने डेढ़ महीने बाद मिले तो डाक्टर ने एस. पी. को पूछा, "घुड़सवारी से कुछ फर्क पड़ा?"
एस. पी. साहब बोले, "हाँ, पंद्रह किलो वजन कम हो गया ....घोड़े का। मेडम का तो उतना ही है।"
तो मैं कह रहा हूँ ना कि ऐसे घुमने से पचास ग्राम वजन भी कम न होगा। वजन कम करने के लिए मन नै डाटणा पड़ै। आप चार किलोमीटर घूम रहे हो और आते ही एक किलो दूध और दो सेब फोड़ लेते हो। ड्राइफ्रूट और ज्यूस ले लेते हो। दस -पंद्रह रोटियाँ और दिन में कचोरी, समोसा, कुरकुरे- फुरकुरे, मिठाई-सिठाई फोड़ते रहते हो। कैसे होगा वजन कम! इसके लिए मन को डाटना पड़ता है, मन को।
'मोरछड़ी' का सचिन तब तक चाय ले आया। चाय ली। सचिन को देखकर पंड्डजी को काँग्रेस के नेता सचिन पायलट याद हो आए । बोले, "वो अखबार पढ़ा आपने? सचिन ने तलाक ले लिया। बड्डा लोग छैं उन पर कोई नियम लागू नहीं होता। सचिन गुर्जर छै और फारुख अब्दुल्ला की बेटी से ब्याह कर लिया और अब तलाक ले लिया। बोलो! बड्डा आदमी कुछ भी कर सके छैं। सारा भेद, सारा नियम -कायदा आम आदमी पर ही लागू छै। बड्डे लोगों पर नियम-कायदे नहीं, नियम-कायदों पर बड्डे लोग लागू होते हैं। "
"अपन क्या सिर का तलाक ले लें। अट्ठै तो ब्या (विवाह) भी सवामणी (सवा मण का प्रसाद) बोल्याँ हुवै छै। "
एक सम्मिलित ठहाका लगा तो पंड्डजी ने लय और लेंथ पकड़ ली, "अजी! अड़तीस दीवाळी धोक ली पर दिवाळा ( कर्ज, गरीबी) नई धुप्या। के खाक तलाक द्याँगा? "
कनस्तर की आग मंद पड़ने लगी तो उसमें आस-पास से पोलीथीन, डिस्पोजल कप व कागज चुगकर (बटोरकर) डाले गए जो डालते ही जुप (सुलग) गए।
पंड्डजी ने चाय का आखिरी घूँट चूसकर डिस्पोजल कप कनस्तर के हवाले किया और बोले, " वाह मजा आ ग्या चाआ ... पीकै भाई सचिन! तेरो ब्याह मैं ही कराउँगा। घणीई (खूब) छोरी छै गूजराँ की हमारी तरफ! फण (लेकिन) देख लीयै म्हारा एरिया की गूजरी बड़ी तकड़ी हुवैं छैं। छोराँ नै जाट्याँ (खेजड़ी) कै बाँध-बाँधकर कूटै छैं।"
"हा ....हा ...हा ...." जोरदार हँसी के बीच पंड्डजी कहने लगे, " तेरे लिए ऐसी छोरी देख रखी छै सचिन! जैसे चान (चाँद) की कोर चीर के उसके काळजा में से काढ़ी (निकाली) हो। ऐसी जबरदस्त कि पास से गुजरे तो डील (जिस्म) में सनसनाटी हो ज्या। नौईं (नवीं कक्षा) में पढ़ै छै।"
पंड्डजी का अंदाजे-बयां ऐसा कि जिसका वर्णन करें वह दृश्य आँखों के आगे नाचने लगे। मैंने उड़ती निगाह सचिन के चेहरे पर डाली। बीस बरस की युवतर आँखों में रुमानी सपने आकार ले रहे थे और कनस्तर में सुलगती आग के उजाले में सचिन के चेहरे पर लाज भरी मुस्कान कई रंग भर रही थी।
"पर देख लीयै, म्हारै कानी (तरफ) का गूजर बड़ा तेज हुवै छै, जवाई ने जाँट्याँ के बाँध-बाँध के कूटै छै।" पंड्डजी फिर शृंगार रस के बीच में भयानक रस ले आए।
'क्यूँ छोरा नै डरावो!" एक कांस्टेबल बोली।
पंड्डजी बोले, " थाकी (आपकी) सौंगध मेडम जी! आग सामने छै झूठ कोनी बोलूँ। हमारी तरफ ऐय्या (ऐसे) ही हुवै छै।"
मेरी आँखों देखी घटना छै । मेरे ही दोस्त के लड़के की बात हमने ही पक्की कराई छी (थी)। आजकल छोरी पड़ी कट्ठै(कहाँ) छै! सगाई नहीं हो रही थी लड़के की। लड़का न ढंग से पढ़ता, न ढंग का काम करता। पैसेवाले बाप की औलाद! एक ही छोरा। म्हारै तो घर की बात छै नाम नहीं बता सकूँ। दोस्त बोला, " यार कैसे भी छोरै को समंद (संबंध, रिश्ता) करवा।"
हम ठहरे घूमने-फिरने वाले आदमी। हमने कहा, " देखाँगा। तू छोरै ने महीना दो महीना बाहर भेज दे।"
अब आपको क्या बताऊँ मेडम जी! एक महीने के भीतर-भीतर बात पक्की और काम नक्की। छोरी पढ़ाई में हुँश्यार (होशियार) और ऐसी मोट्यार जवान (हृष्ट-पुष्ट और युवा) कि देखनेवाले चश्मा हटा-हटा के देखें।
रिश्ता पक्का होग्या। लेण-देण (लेना-देना) होग्या। लेकिन छोरै- छोरी को मिलने नहीं दिया सिर्फ फोटू का दर्सण करा दिया।
मैंने अपणै दोस्त को कह दिया, " देख देरी करने से गड़बड़ हो जाएगी। चट मंगणी पट ब्याह कर दे। छोरी पड़ी कठै छै आजकाल!"
तो महीने भर बाद सावा (विवाह का मुहूर्त) निकाल लिया। ब्याह की तैयारियाँ होने लगीं। घोड़ी, बाजा, वीडियो कैसेट, गाड़ीवालों और हलवाइयों से बात हुई। घर में रंग -रोगन हुआ। खरीदारी हुई। दिन जाते क्या देर लगती है। आते-आते फेराँ रात आई। छोरे के गाँव से चलके बरात छोरी के गाँव आई। बधाईदार पहुँचा। बरात का बढ़िया स्वागत हुआ। सबने बढ़िया नाश्ता-पाणी फोड़ा!
तोरण सियाळे (विवाह की रस्म विशेष) का समय हुआ। घोड़ी आकर खड़ी हो गई। बैंड बाजे वालों ने बाजा बजाना शुरू कर दिया -
"हलो ....हलो ....हलो ....हलो ....
हल ....हलो ....हलो ....
अमीर से होती है ....अ
....
गरीब से होती है ....अ
दूर से होती है ...अ ...अ
करीब से होती है ....अ
मगर जहाँ भी होती मेरे दो ....ओ ...ओ ...स्त
शादियाँ तो नशीब से होती ... ...ई ....ई ... ...ई ... ...है
ढम्म ...ढम्म ...ढम-ढम्म ... ... आज मेरे यार की शादी है ... ...तू ...तु ...तुतु ...तूऊ ...तु ...तुतुतु ....
दादा, ताऊ, चाचा, मामा, फूफा, जीजा सब तैयार हो गए। बस दूल्हा समय ले रहा है। दूल्हा जिस कमरे में ठहरा है उसका बंद दरवाजा बार-बार खटखटाया जाता है। भीतर यार-दोस्त हैं। दरवाजा नहीं खोल रहे। किसी ने पीछे खिड़की में से झाँककर देखा। यहाँ तो अलग ही नजारा है। सब पीण-पाण (पीने-पिलाने) में मस्त! यहाँ तक कि आप क्या मानोगे छोरे ने भी एक-आधा पैग फोड़ ही लिया। किसी को पता न चले इसलिए सावधानी से छोरे को घोड़ी चढ़ाया। आगे बिंदाकिया (गणेश जी का रूप मानकर सजाया गया छोटा बच्चा) को बिठाया। बरात चली।
बैंड वाले एक से एक बढ़कर गाने गाएँ - "आए हम बराती बारात लेके ... ...
ले जाएँगे ....ए ...ले जाएँगे दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे ... ..."
दूल्हे के दोस्त वो मटक-मटक के नाचे कि क्या बताऊँ आपको! मौहल्ले की औरतें डागला (छत) चढ़-चढ़के देखने लगी- "उ ...आ ...उ ...आ ...टिकि ...टिकि ...टिकिटिकि ...टा ....
अर्रर ...पीळी लूगड़ी के झाला सूँ रुकाई रे मेटाडोर ... ...."
बराती जमकर नाचें, उधर घराती इंतजार करें तोरण का टेम (वक्त़) टला जा रहा है। बार-बार आग्रह और मनुहार हो रही है। लड़की के घर के द्वार पर भीड़ लगी है। रिस्तेदारी और मोहल्ले की औरतें और लड़कियाँ सबसे आगे खड़ी हैं। पटाखों के शोर के बीच बरात वधू घर तक पहुँच गई है। फळसे (प्रवेश द्वार) पर खड़ी औरतें गीत गा रही हैं -
"काळी सुपारी भाई काळा ई पान।
काळा ई काळा आया जान।।
लाम्बी सुपारी भाई लाम्बाई पान।
लाम्बाई लाम्बा आया जान।।"
किशोरियाँ उचक-उचक कर देख रही हैं। औरतें घूँघट में से एक आँख को उघाड़ कर टमर-टमर देखते हुए मानो घोषणा कर रही हैं कि सावधान! आप कैमरे की नजर में हैं। तभी दोस्तों ने दूल्हे के कान में न जाने क्या कहा कि दूल्हा घोड़ी से उतर पड़ा और दोस्तों के साथ एक तरफ जाकर खड़ा हो गया। पूछताछ की तो दोनों पक्ष भौंचक! दूल्हे ने शर्त रख दी कि वह पहले दुल्हन को देखेगा। बात करेगा। पसंद आएगी तो ही तोरण मारेगा। समझाने -बुझाने के 'एक को छोड़कर' सारे जतन बेकार!
ऐसी बात कोई कहाँ तक दबाए! घुसर-पुसर होने लगी। लड़की वालों का चेहरा फक्क! लड़की के बाप ने सोचा दहेज का मामला है। जितना कर्ज मिल सकता था और वापस उतर (चूक) सकता था,उसने पेशकश की मगर सब व्यर्थ!
मुहल्ले और रिस्तेदारी की कुछ डेढ़ टंच (अति चतुर) औरतें सब कुछ जानते हुए भी लड़की की माँ से पूछ रही हैं - " काँई हुयो बाळी!"
बाप का बीपी बढ़ रहा है, माँ को चक्कर आ रहे हैं। लड़की की सहेलियाँ उससे नज़र मिलाने से बच रही हैं। वे जानती हैं कि उनकी सखी की आँखों में काजल घुल रहा है। आँख मिली तो आँख बरस पड़ेगी। लड़की अपमान, दुख और वेदना में जल रही है। उसने घुल आए आँसुओं को बरबस डाट रखा है। ग्यारहवीं की हिंदी में पढ़ी एक पंक्ति उसे घोट रही है -
"लोचन जल रह लोचन कोना।
जैसे परम कृपण कर सोना।।"
उसे भी आज सिया की तरह आँखों में उमड़ता पानी आँखों के कोने में रोकना है। बाँध टूटा कि सब बेकार। होनी पर किसी का जोर नहीं चल रहा। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा। उपज नहीं रहा। सहसा मेकअप किए उघाड़े मुँह खड़ी लड़की ने घूँघट काढ़ लिया। कंठ के कंपन को बरबस रोककर कहा, " बुलाओ 'उसे'! देख लेने दो।"
सबको लगा ठीक ही कह रही है ' बच्ची!' देखने में क्या बुराई है? हो सकता है बिगड़ी बात बन जाए।
लड़का दो दोस्तों के साथ आया। लड़की ने कहा, "साथ में कोई नहीं होगा। भाभी थे (आप)भी रहणे दो।" अपनी भाभी को भी मना कर दिया। गाँव की औरतें आपस में बतिया रही हैं," च्च्च् ....च्च्च ... ...बाळी! देख ऐ! बापकाणी को के जमानो आयगो। छोरा तो छोरा अब तो छोर्याँ भी एक ही डोळ( इसी लायक) की हो गई।"
घर की छत पर बने इकलोते माळिए (चौबारे) में यह मिलन हुआ। भीतर से कुंडी लगी। लड़का खाट पर पैर लटकाकर बैठा। लड़की सामने ऊभी (खड़ी) रही। कुछ क्षण बाद लड़की ने घुँघट उठाया। लड़के की सुरूर से बोझिल आँखों में उजास भरे दीये जल उठे। लड़की सरूप थी। दोस्तों ने बेकार में बहका दिया कि लड़की का नाक ....लड़की का रंग ....
लड़की ने पूछा, " बताओ अपना फैसला!"
लड़का बोला, "पसंद हो।"
इतना कहना था कि लड़की आगे बढ़कर झुकी। लड़के को लगा पैर छू रही है। बोला, " इसकी जरूरत नहीं है। तुम्हारी जगह यहाँ है।" दिल पर हाथ रखा ही था कि रबड़ की पाइप का सपीड़ पड़ा - सट् ...सटाक् ... ...सटाक् ... ...सटाक् ....।
"अरर्र ....अर्रर ....
अरै बारे ...."
सटाक् ....
"अरै बारै ...."
सटाक् ... ....
"थारी काळी गाय छूँ ...."
सटाट् ...सटाक् ....
".ईए डट(रुक)! डट!"
सटाक् ....
"गलती हो गई। पग पकड़ूँ छूँ।"
सटाक् ....!
लड़की बोली," सबके सामने बेइज्जती की है। सबके सामने ही कहना पड़ेगा कि तुम शादी के लिए तैयार हो।"
लड़के की सारी 'बियर', 'डियर (हिरण)' हो चुकी थी। नशा हिरण हो चुका था। बोला, "थारी सौंगध! यही कहूँगा।"
इस सारे अनुष्ठान को सम्पन्न होने में कुल दस -बारह मिनट का समय लगा। नीचे आते ही लड़के के घरवालों ने पूछा, " बोल भाया?"
" मैं त्यार छूँ।" लड़का बोला।
" पसंद छै ना लड़की ?"
"हाँ!"
"चलो भाई तोरणसियाळे की तैयारी करो।" बड़े-बुजुर्गों ने कहा।
" काँक ...अ ... ...ड़ आयो रायवर थर ...रर ...काँप्यों रा ...आ ...ज।"
औरतों ने फिर से गीत तेवड़ (शुरू कर) दिया।
" ठहरो। मेरी बात सुनो।" लड़की की आवाज़ भट्टी से उठते भभके की तरह दहक रही थी।
" मैं इस लड़के से शादी के लिए तैयार नहीं हूँ। मर जाऊँगी लेकिन मैं इस दारूड़े के नहीं जाऊँगी।"
चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लड़के का बाप जमी कुचरने लगा ( शर्म से सिर झुका लिया)।
लोगबाग समझाने लगे, " देख बेटा! दोनों ही घर की इज्ज़त की बात छै। ऐंया नईं कर्या करे छै। तू समझदार छै।"
लड़की ने अपने बेसुध बाप की ओर देखकर कहा, " आज मेरे पापा की पगड़ी जमीन पर पड़ी है। थळी (दहलीज) कुँवारी नहीं रहेगी। बरातियों में से जो कोई ठीक लगे उससे ब्याह दो लेकिन इसके साथ तो मर्या ही कोनी जाऊँ।"
उस 'भूतपूर्व और अभूतपूर्व' दूल्हे के जूते, जिनको छुपाकर उसकी सालियों को नेग लेना था, अब भी छत की ओर जाती सीढ़ियों के पास खोले पड़े थे। सालियों के पास मौका था छुपाने का, मगर वे जूते सालियों के लिए बने ही नहीं थे। अचानक दूल्हे का बाप उन्हीं जूतों को दोनों हाथों में लेकर दूल्हे की ओर कळछटा (लपका) और दूल्हे को भरपूर नेग देने लगा। मगर जल्दी ही बाकी लोगों ने समझाबुझाकर कानून व्यवस्था बहाल की। जैसे-तेसे लॉ एंड ऑर्डर कायम हुआ। कुछ लोग दबी जुबान में यह भी कह रहे थे कि अगर पिता बचपन में ही अपने लाडले लड़के का यह जूतों वाला नेगचार कर देता तो आज यह नौबत नहीं आती।
खैर। दूल्हे के ही भाई परिवार में से एक सेकेंड ग्रेड मास्टर और 'सैकेण्ड हेण्ड' दूल्हा था। सैकेण्ड हेण्ड माने 'दूजबर'। साल भर पहले शादी हुई थी लेकिन दुर्योग से शादी के डेढ़ महीने बाद पत्नी की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई । उसी को आननफानन में दूल्हा बनाया गया।
बिल्ली के भाग का छींका टूटा जो पहलेवाले दूल्हे के सिर पर और बादवाले दूल्हे के सीधा मुँह में गिरा।
"उस छोरे और मास्टर के घर कैसे हैं बताऊँ?"
"आमै - सामै (आमने-सामने)!", पंड्डजी ने कहा।
"अबार दो-एक साल पहले दोस्त का छोरा मिला था। मैंने कहा यार धीरू! कोई मामला बैठा क्या?"
धीरू बोला, "छोरी आजकल पड़ी कठै छै काका!"
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
बेहद रोचक अंदाज़ में लिखा गया शब्द चित्र। एक-एक दृश्य आँखों के सामने आ जाता है जैसे फिल्म चल रही हो।
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